रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 102: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
सामायिके सारंभा, परिग्रहा नैव संति सर्वेऽपि ।
चेलोपसृष्टमुनिरिव, गृही तदा याति यतिभावम् ।। 102 ।।
सामायिक में आरंभ परिग्रह का परिहार होने से श्रावक की चेलोपसृष्ट मुनि की तरह यतिभावापन्नता―यह व्रती श्रावक जब सामायिक में, आरंभ और परिग्रह में अवधि तक त्यागी हुआ है उस समय सामायिक करता हुआ वह गृहस्थ उस मुनि की तरह है जैसे किसी मुनिराज पर किसी ने वस्त्र डालकर उपसर्ग किया हो । जैसे मुनिराज पर किसी ने वस्त्र डाल दिया तो मुनि तो परिग्रह के त्यागी है, उनका उसमें किसी प्रकार का लगाव नहीं है, पर किसीने वस्त्र डाल दिया तो उस वस्त्र से विरक्त ही हैं, ऐसे ही वह गृहस्थ वस्त्र पहने हुए तो है जो सामायिक में बैठा है मगर वह वस्त्र उसके लगाव से परे है उस तक में भी उसका किसी प्रकार का लगाव नहीं है । सामायिक में संकल्प किया, प्रतिज्ञा की कि मेरा इतने समय तक समस्त आरंभ और परिग्रह का त्याग है, सो उस वक्त में उसका चिंतन अविकार आत्मस्वरूप का चल रहा है । प्रभु की उस वीतरागता में चिंतन चल रहा है । सो भीतर तो परिणाम उसके मुनियों की तरह मनन के हैं, पर वस्त्रसहित बैठा है इतना ही अंतर है इस कारण उसे मुनि नहीं कहा जाता, और यह भी बात है कि गृहस्थ भले ही सामायिक में बैठा है, पर उसके अभी प्रत्याख्यान अबुद्धिपूर्वक चल रहा है उदय और प्रवर्तन, इतनी बात को छोड़कर देखा जाय और बाहर में वस्त्रसहितपने को छोड़ा जाय तो वह मुनितुल्य ही है । ऐसा उत्कृष्ट परिणाम इस श्रावक के सामायिक के समय होता है ।