रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 134: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
नि:श्रेयसमधिपन्नास्त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं दधते ।
नि:ष्किट्टिकालिकाच्छविचामीकरभासुरात्मान: ।।134।।
नि:श्रेयस को प्राप्त भगवंतों की त्रिलोकोकृष्ट शोभा―व्रत पालन और समाधिमरण के प्रताप से मनुष्यभव में निर्ग्रंथ दिगंबर मुनि होकर धर्मसाधना करके निर्विकल्प समाधि के बल से जो मोक्ष को प्राप्त हुए हैं वे आत्मा कैसे शोभायमान हैं, विराजमान हैं? विकास युक्त हैं, इसका वर्णन इस छंद में किया गया है । ये सिद्ध प्रभु तीन लोक के शिखामणि की शोभा को धारण करते हैं, वे तीन लोक के अंत में विराजमान हैं जिसके बाद फिर लोक नहीं है, मात्र आकाश ही आकाश है, यह तीन लोक की शिखा की मणि कहलायी । दूसरी यह बात है कि तीन लोक के इंद्र उनकी महिमा गाते हैं तो इसके मायने यह हुआ कि सब जीवों ने महिमा गायी । ऊर्द्ध लोक के इंद्र हैं स्वर्गों के इंद्र, मध्य लोक के इंद्र हैं चक्रवर्ती और सिंह । मनुष्यों का इंद्र है चक्रवर्ती और तिर्यंचों का इंद्र है सिंह । और अधोलोक के इंद्र भवनवासी और व्यंतर देवों के जो प्रकार हैं उनके इंद्र हैं, ऐसे तीन लोक के इंद्रों ने जहाँ प्रभु को नमस्कार किया, आदर किया, भक्ति की, वंदना की तो वहाँ समझिए कि तीनों लोक के द्वारा पूज्य कहलाए । मेरु पर्वत की जड़ जहाँ समाप्त होती है वहाँ तक तो है मध्यलोक अर्थात् नीचे में इस पृथ्वी के ऊपरी तल से एक हजार योजन नीचे तक मध्य लोक है, उसके नीचे अधोलोक प्रारंभ होता है । सो अधोलोक में पहले के जो 2 खंड है इस पृथ्वी के उनमें भवनवासी और व्यंतर देवों के भवन हैं । वहाँ तक व्यंतर रहते हैं, व्यंतर फिर यहां भी मध्य लोक में रहने लगते । जैसे टूटे-फूटे मकान, पीपल आदिक पेड़ अथवा कोई निर्जन जंगल, यहाँ पर भी निवास करने लगते हैं । तो ये भवनवासी और व्यंतर इनके इंद्र अधोलोक के इंद्र कहलाते हैं, इन सब इंद्रों के द्वारा जिसके गुण वंदनीय हुए वे सिद्ध प्रभु तीन लोक के शिखामणि की शोभा को प्राप्त हुए हैं, जैसे कि ऐसे स्वर्ण के आभूषणों में, जिन में कीट नहीं, कालिमा नहीं, उत्कृष्ट छवि है इस प्रकार से जिसके द्रव्यकर्म नहीं, भावकर्म नहीं, नो कर्म नहीं, ऐसे उत्कृष्ट चैतन्य चमत्कार रूप हैं । द्रव्यकर्म और नो कर्म तो बाह्य मल है, और भावकर्म जीव का आंतरिक मल है । जैसे खोटे सोने में बाह्यमल और आंतरिक मल होता है, सो तपा देने पर दोनों ही मल दूर हो जाते हैं, ऐसे ही आत्मा में कर्म और नोकर्म तो द्रव्यमल हैं, बाह्य मल है और भावकर्म रागद्वेषादिक विकार ये आंतरिक मल हैं । सो चैतन्य स्वभाव में उपयोग को लगाने रूप तपश्चरण से तपा देने पर ये दोनों ही प्रकार के मल दूर हो जाते है । तब ये अत्यंत शुद्ध सदा के लिए शुद्ध सिद्ध प्रभु तीन लोक के शिखामणि की शोभा को प्राप्त होते है ।
मोक्षधाम की मंगलरूपता―इस जीव के अनादि से तो निगोद निवास कुटी बनी थी । सिद्ध होने पर अनंत काल के लिए मोक्ष निवास धाम बनता है । यह जीव अनंत काल व्यतीत करते हैं तो दो जगह व्यतीत करते हैं―निगोद में या मोक्ष में । बीच की जितनी अवस्थाएँ होती हैं इनमें अनंत काल कभी नहीं गुजरता, उनकी अवस्थाएँ होती है कुछ सागरों की और वह समय पूरा होने पर फिर वह अगर मोक्ष गया तो गया, नहीं तो निगोद जाना पड़ता है । सो निगोद अवस्था में भी रहने वाले जीवों का, निगोद का अंत हो जाता है । निगोद तो अनादि है और मोक्ष अनंत है । तो हम आपको सदा कहां रहना पड़ता है, यह भी तो ध्यान दो, या तो चिरकाल निगोद रहना पड़ता या फिर अनंतकाल मोक्ष में रहेंगे । अब यह अपनी पसंद कर लो कि निगोद ही प्रिय है या मोक्ष धाम प्रिय है? बीच की चीजें टिकेगी नहीं, त्रस पर्याय पाने का काल कुछ अधिक दो हजार सागर है । इससे अधिक त्रस पर्याय में नहीं रह सकता । निगोद को छोड़कर शेष स्थानपर भी रहने का काल त्रस काल से तो कई गुणा है । मगर वहां भी अपना काल गुजर जाने पर निगोद में आना पड़ता है । तो निगोदवास तो प्रिय न होना चाहिए । रही यह बीच की हालत, तो इस हालत में यदि कोई चेत गया, सम्यक्त्व का लाभ पा लिया तो वह पुरुष कल्याण करेगा, मोक्ष जाएगा ।
जीवन को निर्दोष आचरण में बिताने का अनुरोध―भैया अपने जीवन में आग्रह बनाइए सम्यक्त्व बनाए रहने का, बाह्य परिणतियों के बारे में आग्रह न रखिए । कोई कैसा परिणमता है, कैसा ही चलता है, उसका हर्ष विषाद न करना, अपने परिणामों को निर्मल और न्याययुक्त बनाना, दूसरे लोग कैसा ही परिणमे वे मेरे कुछ नहीं लगते, न वे मेरे मित्र हैं न शत्रु हैं, न वे वास्तविक बंधु हैं । मुझ आत्मा से अत्यंत भिन्न सत्ता वाले हैं । तो उनके किसी भी प्रकार के परिणमन से मेरे आत्मा में कुछ खोट नहीं आती । मैं ही उनका आश्रय करके उनको कल्पना में लेकर शुभ अशुभ विकल्प करूं तो उससे मेरे को नुकसान पड़ता है । शुभ विकल्पों में कम नुकसान है, पर धर्म का मार्ग मिलने का अवसर है । अशुभ विकल्पों में सारा नुकसान ही नुकसान है । तो अपने आप पर करुणा करें, अपने को निरखें एक चैतन्य स्वभावमात्र । इस चैतन्यस्वभावमात्र मुझ आत्मा का दुनिया में कोई क्या लगता है? धर्मात्माजनों से तो यों प्रेम करना बताया कि वे परस्पर एक दूसरे के धर्मविकास में सत्संग मात्र से सहयोगी है । वे भी हमारे विकास में सहयोग नहीं दे सकते, पर जब हम उनको धर्मधारण किया हुआ निरखते हैं, रागद्वेष दूर कर समता भाव में पाते हैं तो दर्शन करके खुद के धर्म में भी प्रेरणा मिलती है । इस कारण धार्मिक भावों में वात्सल्य करना तो किसी अपेक्षा से लाभदायक है मगर जो रत्नत्रयधारी नहीं है, सम्यक्त्व का जिनको अनुराग नहीं है ऐसे अज्ञानीजन चाहे वे कुटुंब में हो, चाहे वे बाह्य जगह हों, उनका अनुराग कल्याण के लिए नहीं होता । हां परिस्थिति कोई होती है, घर में रहना पड़ रहा है, तो उनसे रागव्यवहार किए बिना गुजारा नहीं है, पर भीतर में राग नहीं रहता ।
विरक्ति का माहात्म्य―ज्ञानी जीव घर में इस प्रकार रहता है जैसे जल में कमल रहता है । कमल जल से ही तो पैदा होता और फिर भी जल से दूर रहता है, ऐसे ही यह गृहस्थ इस घर में ही तो पैदा हुआ फिर भी ज्ञानी गृहस्थ घर से दूर रहता है । जैसे जल से पैदा हुआ कमल इस प्यार से मानों कि उस जल से ही तो पैदा हुआ हूं सो जल में ही भिड़ जाए, जल में ही बसने लग जाए तो वह कमल सड़ जाता है, उसकी फिर शोभा नहीं रहती है, ऐसे ही यह गृहस्थ यह सोचकर कि मैं इस परिवार से ही तो पैदा हुआ हूं सो वह परिजन में बस जाए, मिल जाए, आसक्त हो जाए तो वह गृहस्थ भी सड़ जाता मायने बरबाद हो जाता । ज्ञानी गृहस्थ तो परंपरया निर्वाण पाते हैं और जो मुनिजन बज्रवृषभनाराच संहनन के धारी हैं वे विरक्त रहकर आत्मधर्म की साधना करते है और उसी भव से मोक्ष जा सकते हैं । आज पंचम काल में हीन संहनन है, छठा संहनन है और छठा संहनन होने के कारण वह ध्यान नहीं बनता जिस ध्यान से निर्वाण होता है फिर भी अपनी शक्ति अनुसार आत्मधर्म की साधना मुनिजन किया करते है । उसका फल आगे प्राप्त होगा । तत्काल तो पाप से बचना हो रहा है और मरण करके कोई सद्गति मिलेगी, यह भी भला है । तो कल्याण चाहने वाले जीवों को सही विवेक रखना चाहिए । यह मैं आत्मा कुटुंब आदिक से तो भिन्न हूँ ही, शरीर से भी निराला हूँ । देहादि से अत्यंत भिन्न स्वरूप है जीव का । जीव है चैतन्यस्वरूप, शरीर है पौद्गलिक, भले ही निमित्त नैमित्तिक बंधन है और उस बंधन के प्रभाव में आता है, लेकिन लक्षण दोनों का अत्यंत निराला है सो अपना लक्षण जानकर केवल ज्ञानमात्र आत्मा में ही आत्मत्व बुद्धि करना चाहिए । यही एक मौलिक साधना है, जिसके बल से यह जीव निर्वाण को प्राप्त होगा ।