रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 146: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
अनुमतिरारंभे वा परिग्रहे ऐहिकेषु कर्मसुवा ।
नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरत: स मंतव्य: ।।146।।
अनुमति त्याग प्रतिमा का लक्षण व आरंभ त्याग प्रतिमा तक घर में रहकर व्रत निभाव करने का गुण―आरंभ परिग्रह इस लोक संबंधी कार्य इन सबमें अब जिनके अनुमति न रही, समान बुद्धि हो गई वह अनुमति त्यागी श्रावक कहलाता है । घर में रहता हुआ यह धर्मसाधना करे और इस तरह यह 9वीं 10वीं प्रतिमा तक रह सकता है, पर अधिकार पूर्वक न रहेगा 9वीं और 10वीं प्रतिमा में । दूसरा बताया गया है गृहत्यागी श्रावक मगर गृहत्यागी श्रावक कितना उच्च होना चाहिए, कितना निरपेक्ष होना चाहिए वह परिग्रह त्यागी की तरह हो तो व्रत रखे तब वह गृह विरक्त श्रावक कहला सकता । आज कुछ ऐसी खिचड़ी बन गई है कि मौज के लिखो गृह विरत हूँ इस प्रकार की घोषणा करते हैं और वृत्ति रखते हैं गृह निरत श्रावक से भी ओछी । घर में रहने वाला श्रावक सहज विरक्त रहता है, जो उसके पास संग है परिग्रह है धन है उससे भी विरक्त रहता है परंतु घर छोड़कर अपने को गृहत्यागी, ब्रह्मचारी जैसा कहकर धन संग्रह करने की तीव्र लालसा रखने लगते हैं, क्योंकि लोगों से धन मिलता है मुफ्त मिलता है, सो उसके प्रति विशेष वासना बन जाती है । पहले था नहीं तो अधिक लालसा हो जाती है, इस कारण जिसको आत्मकल्याण चाहिए उसको अष्टम प्रतिमा तक तो घर में ही रहकर निभाव करना चाहिए अन्यथा उसके मन का संतुलन ठीक नहीं रह पाता । जिससे घर में न बने उससे घर छोड़कर क्या बनेगी? जहाँ तक घर में रहकर साधारण रूप जैसी मुद्रा रखकर धर्म साधना करते नहीं बन सकता है तो जिसे वास्तव में धर्म साधना कहते हैं वह घर छोड़कर भी नहीं बन पाता । दूसरी बात यह है कि घर में रहकर इन प्रतिमावों के पालन करने वाले में अहंकार नहीं आता । मद नहीं होता, घमंड नहीं होता, जबकि प्रतिमा तो चाहे पहली दूसरी ही बताये और घर छोड़कर चले तो यह अपने चित्त में मानने लगता है कि मैं पूज्य हूँ, ये लोग मेरे पूजक हैं, इन लोगों को हाथ जोड़कर ही मुझ से वार्ता करना चाहिए । कितनी ही बातें कल्पना में वह बढ़ा लेता है जिससे वह खुद भी परेशान रहता है और गृहस्थ श्रावक भी परेशान हो जाते हैं । तो जो आचार्यों के बताए हुए प्रतिमाओं के स्वरूप में मुद्रा कही गई है उस मुद्रा में रहते हुए धर्म साधना करने में आत्महित है ।
परिग्रहत्याग प्रतिमा के निर्दोष पालन कर लेने से अनुमति त्याग प्रतिमा के पालन की सुगमता―जिसने परिग्रह का त्याग भली प्रकार निभाया यह भली भांति निर्णय करके कि परिग्रह हीन तो दीन दरिद्री भिखारी भी होते है । पर परिग्रह त्याग का महत्त्व उनके है जिनके अंतरंग परिग्रह का त्याग रहता है । क्रोध, मान, माया, लोभ हास्यादिक भाव ये जिसके अत्यंत मंद हो गए हैं, इन आभ्यंतर परिग्रहों से जो विरक्त हो गया है उसके ही बाह्य परिग्रह त्याग की शोभा है और वह सार्थक है। सो इस श्रावक ने अंतरंग बहिरंग दोनों ही परिग्रहों के त्याग की बात निभायी थी और उससे बढ़-बढ़कर अब यह इस स्थिति में आ गया है कि किसी भी कार्य के अनुमोदना का भाव नहीं जगता । कोई आरंभ संबंधी बात पूछे तो उसका अनुमोदक शब्द नहीं निकलता । परिग्रह संबंधी, घर बनाने आदिक संबंधी, व्यापार आदिक संबंधित कुछ भी बात कुटुंबीजन पूछे तो उसकी अनुमोदना नहीं देता और ऐसा भी समर्थन नहीं करता कि इसने यह बहुत भला किया । कितना विरक्त है यह दशम प्रतिमाधारी श्रावक कि भीतर में इस प्रकार की भावना और वासना भी नहीं बनती । कार्यों के प्रति राग नहीं रहा है उसके समता बुद्धि होती ही है । यह अनुमति विरत श्रावक, इसको घर के लोग अथवा अन्य साधर्मीजन आहार के लिए बुलाते हैं, चाहे वह आहार खारा हो या रूखा हो, कड़वा हो? मीठा हो उसमें स्वाद बेस्वाद नहीं मानता एक ही दृष्टि है कि इस गड्ढे को भरना है जीवन चलाने के लिए और यह जीवन है रत्नत्रय की साधना के लिए । जहाँ रत्नत्रय धर्म के प्रति लगाव है वहाँ अटपट बात कैसे आ सकती है?
अनुमति त्यागी श्रावक को साम्य बुद्धि―किसी कार्य में कुटुंब को नुकसान हो या नफा हो अथवा किसी प्रकार की वृद्धि हानि हो, उसमें इसको सुख दुःख नहीं होता । सर्व जीव अत्यंत भिन्न हैं, सर्व जीवों का भवितव्य उनकी करनी के अनुसार है जिनके बीच घर में रहे थे वे भी भिन्न पर जीव है । जैसे मेरे लिए जगत के अन्य जीव है वैसे ही घर के लोग भी उनके समान है, ऐसा भिन्न अपने आपको निरखा है इस कारण अब इनकी हानि वृद्धि में हर्ष विषाद नहीं होता । जैसे अन्य जीवों पर गुजरने पर जो बात सम्मव है इनके चित्त में वही बात कुटुंबीजनों पर गुजरने पर संभव है । ऐसा यह अनुमति त्यागी श्रावक जैसा उत्कृष्ट श्रावक में ग्रहण किया है यह सर्व प्रकार की बाह्य घटनाओं की अनुमोदना से रहित है । निरंतर केवल यह ही वांछा है कि मैं अपने सहज परमात्मतत्व को निरखता ही रहूं । इसी में ही तृप्त रहूं । अन्य कुछ कार्य मेरे करने को नहीं है, ऐसा जिसका दर्शन है वह श्रावक है अनुमति त्यागी । पहले की 6 प्रतिमायें जघन्य प्रतिमायें मानी गई है, 7वीं, 8वीं, 9वीं प्रतिमायें मध्यम में कही गई हैं और 10वीं 11 वीं प्रतिमायें उत्कृष्ट श्रावक में कही गई हैं । उसमें भी अर्थात् उत्कृष्ट में भी उत्कृष्ट 11वीं प्रतिमा वाले श्रावक है । ऐसा लौकिक अनुमोदना से रहित श्रावक अपने आत्मा की आराधना में लगा हुआ है ।