रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 71: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
प्रत्याख्यानतनुत्वांमंदतराश्चरण मोहपरिणामा: ।
सत्त्वेन दुरवधारा, महाव्रताय प्रकल्प्यंते ।। 71 ।।
गृहस्थ के दिग्व्रतसीमा से बाहर क्षेत्र के लिए सीधा महाव्रत न माना जाने का कारण―कषायें 25 प्रकार की बतायी गई हैं जिन में अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ तो सम्यक्त्व का घात करती हैं, अप्रत्याख्यानावरण देश संयम का घात करती है और प्रत्याख्यानावरण कषाय महाव्रत का घात करती है । इस श्रावक के प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव नहीं हुआ है । प्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम होने से इसके संयमासंयम का अभाव प्रकट है, किंतु जब प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम हो जाय तो महाव्रत होवेगा । पर इस सद्गृहस्थ के प्रत्याख्यानावरण कषाय बराबर बनी है, हां मंद हो । तो प्रत्याख्यानावरण कषाय के मंद होने से महाव्रत तो नहीं कहा जा सकता । है तो प्रत्याख्यानावरण कषाय पर इस क्षेत्र से बाहर इसका कोई संबंध नहीं चल रहा इस कारण से महाव्रत की कल्पना समानता अथवा एक क्षेत्र में रखी गई है । साक्षात् महाव्रत न कहलायगा, पर उनका अणुव्रत बाहर के क्षेत्र के लिए महाव्रत के लिए कल्पना की जाती है । जिसके चारित्रमोह के कर्म के मंद उदय का परिणाम है संज्वलन कषायरूप ही मात्र कषाय है, प्रत्यक्ष न रही उसके महाव्रत कहलाता है, पर गृहस्थ देशव्रती के प्रत्यक्ष का उदय विद्यमान है इस कारण संज्वलन कषाय का मंद उदय होने से परिणामों में तो विशुद्धि है वह महाव्रत गृहस्थ के न कहलायगा । हां बाह्य क्षेत्र में समस्त पापों का त्याग हुआ है सो महाव्रत की कल्पना ही की जा सकी है । महाव्रत तो वास्तव में प्रत्याख्यानावरण कषाय के न रहने से ही कहलायगा । महाव्रत किस प्रकार होता है इस संबंध में वर्णन है ।