समाधितंत्र - श्लोक 31: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
य: परात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्तत:।अहमेव मयोपास्यो नान्य: कश्चिदिति स्थिति:।।31।।प्रभुत्व का एकत्व―जो पर आत्मा है, उत्कृष्ट आत्मा है, परमात्मा है, शुद्ध चैतन्यस्वरूप है वह ही तो मैं हूँ और जो मैं हूँ वह ही परमात्मत्व है। यहां ज्ञानीपुरूष स्वभाव दृष्टि करके देख रहा है, पर्यायदृष्टि से नहीं। पर्यायदृष्टि से जो परमात्मा निरखा जाता है वह विकास तो हम आप में है नहीं। यदि होता तो मोक्षमार्ग में लगने की क्या आवश्यकता थी ? किंतु जो कार्यपरमात्मा हैं उनमें भी स्वभाव अवश्य पडा हुआ है। शक्ति शाश्वत है। जिस शक्ति की व्यक्ति उनकी सर्वथा प्रवर्त रही है वह शक्ति जो कि यथार्थ पूर्वाव्यक्त हो गया है, जो वह शक्तिस्वरूप है वह ही मैं हूँ। यहां स्वभाव को निरखा है। शक्ति का शक्ति से नाता जोड़ा गया है। विकास का विकास के साथ संबंध नहीं देखा जा रहा है। तो उस शक्ति के नाते से जो परमात्मप्रभु है वह मैं हूँ। जो मैं हूँ वह परमात्मप्रभु है।चित्तत्त्व की व्यापकता―लोग कहते हैं और जगह-जगह सुनने में आता है कि घट-घट में प्रभु विराज रहे हैं। घट-घट से मतलब घड़ा मटका से नहीं, किंतु देह-देह में प्रभु विराज रहे हैं। देह देह से मतलब रूप, रस, गंध, स्पर्श वाले नहीं किंतु देह तो देवालय है जिसके संबंध में चर्चा की जा रही है उसका निवास स्थान इस समय यह देह है। इस देह देवालय के भीतर जो चेतन है, उस चेतन की भी बात नहीं कह रहे हैं किंतु उस समग्र आत्मा में स्वभावदृष्टि से शाश्वत जो चैतन्यतत्त्व है उसकी बात कही जा रही है। वह चैतन्यस्वरूप सर्व आत्मावों में एकस्वरूप है।इंद्रियसंबंधविषयक प्रश्नोत्तर―कल के दिन एक बाबा जी ने तीन प्रश्न किए थे अलग एकांत में और बड़े संक्षेप भाषा में थे तथा बड़े उपयोगी थे और उनके ह्रदय की लगन को बताने वाले थे। वह बोले कि महाराज पहिले तो हमें यह समझना है कि ये सभी इंद्रियां जीव में कैसे लगी हैं ? जीव तो ज्ञान का पिंड है। पहिला प्रश्न था। इसके समाधान में यह उत्तर दिया कि इंद्रियां जीव में नहीं लगी हैं। ये नाक, आँख, कान देह में हैं, पुद्गल में हैं, भौतिक हैं, किंतु जीव का जब संबंध है तब इस प्रकार के इंद्रिय की पैदायश इस देह में बनी है। तो संबंध मात्र निमित्त है, पर इंद्रिय जीव में नहीं हैं। उनके अंतर की आवाज थी समाधान पाया।जीव की व्यापकता पर प्रश्नोत्तर―समाधान पाकर बाबाजी दूसरा प्रश्न करते हैं कि लोग यह कहते हैं कि यह जीव सर्वव्यापक है और जब सर्वव्यापक है तो स्वर्ग, नरक, सुख, दुःख ये बातें फिर कैसे बनेंगी, वह तो जो एक है वह एकरूप परिणमेगा ? उत्तर दिया कि वस्तुत: अनुभव की दृष्टि से जीव अनंत हैं पर उन समस्त जीवों का जो स्वरूप है वह स्वरूप सबमें एक है, सदृश है। सो प्राचीन काल में जिस समय यह आवाज उठी उस समय ऋषीसंतों ने एक दृष्टि से एक जीव और सर्वव्यापक समझा। कोई त्रुटि की बात न थी। सभी जीवों में स्वरूप एक है, ऐसा नहीं कि मुझमें स्वरूप और भांति हो और आपमें स्वरूप और भांति हो। स्वरूपदृष्टि से एक है और ऐसा यह स्वरूप सबमें है। इस कारण यह जीव एक और सर्वव्यापक है किंतु इस दृष्टि से निगाह में न रखकर सर्वथा ही यों मान लीजिए कि जैसे एक मैं हूँ, एक आप है, ऐसे ही कोई एक जीव है और वह यों व्यापक है, तब ऐसा प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह निर्णय स्याद्वाद द्वारा होता है। स्याद्वाद की ज्ञानभूमिका की बहुत बड़ी देन है। साधु की अहिंसकता―तीसरा प्रश्न उन्होंने और किया था, उस समय जल्दी होने से उत्तर जल्दी में दे दिया था। तीसरा प्रश्न एक साथ कर दिया इस कारण से। प्रश्न था कि यदि इन पेड़ों में, फलों में, इन हरियों में जीव है तो फिर कोई अहिंसक बन ही नहीं सकता। साधु संतों को भी जंगल में फूल पत्तियां तोड़नी पड़ती है, लोग फल खाते हैं, सब्जियां खाते हैं तो वे अहिंसक कैसे रहे ? उस संबंध में यह उत्तर है कि साधु संतों की व्यवस्था भोजन की इस प्रकार है कि कोई गृहस्थ शुद्ध भोजन बना रहा है उसको बनाना ही था अपने घर पर और उस भोजन में साधुसंत बिजलीवत् निकले और जिसने भक्तिपूर्वक पूछ लिया वहां भोजन कर लिया। संकल्प में भी यह बात नहीं आना चाहिए कि मैं इन फलों को तोड़ूं, पत्तियों को तोड़ूं, जीव तो वहां है ही। न हो जीव तो ये बढ़े कहां से ? सारा जगत जानता है, इसलिए साधु उस संबंध में अहिंसक रहते हैं। यदि साधु यह जाने कि यह रसोई एक मनुष्य के परिमाण की ही है और उसके उद्देश्य से ही बनी है। दो रोटियां और कुछ बना लिया जितना कि एक आदमी खा सकता है तो वहां साधु भोजन न करेगा। वह जान लेगा कि सबके लिए बना हुआ है तो लेगा।
स्वभावदृष्टि से ब्रह्मस्वरूप का दर्शन―तो प्रयोजन यह है कि वह परमात्मतत्त्व घट-घट में विराजमान है, प्रत्येक जीव में है, किंतु उसके देखने की विधि स्वभावदृष्टि की है। जैसे दूध के अंदर घी मौजूद है, ऊपर से घी नहीं दिखता है फिर भी उस दूध में घी पडा हुआ है। जांचने वाले जन जान सकते हैं कि इस दूध में एक सेर में 1।। छटांक घी निकलेगा। इस दूध में सेर में 1 छटांग घी निकलेगा। दूध को देखकर जो ऐसा जान जाते हैं उनमें कोई कला तो होगी जो उन्हें घी दिख गया। घी आँखों से नहीं दिखा ज्ञान में दिख गया। यों ही संसार के जीवों में वह परमात्मस्वरूप प्रकट नहीं है और न परमात्मस्वरूप का कोई संसारी अनुभवन भी कर सकता है फिर भी इन संसारी मानवों में कोई बिरले ज्ञानीयोगी संत ऐसे भी होते हैं, कि इस संसृति की अवस्था में भी उस कारणपरमात्मतत्त्व का अवलोकन कर लेते है।अंतर्ज्ञानी की अंतर्ध्वनि―जिसने अपने आपके कारणपरमात्मतत्त्व का अवलोकन किया उसकी यह अंतर्ध्वनि है कि जो मैं हूँ ऐसा वह परमात्मतत्त्व है। जो परमात्मतत्त्व है सो मैं हूँ, इस कारण मेरे द्वारा मैं स्वयं उपास्य हुआ, मेरे द्वारा यह मैं ही पूजा गया, अन्यत्र और कुछ निर्णय नहीं है, अन्य स्थिति नहीं है। यह अध्यात्ममर्म के अंतर की ध्वनि है और वहां परीक्षणक में भी इसे लगायें तो मोटेरूप से यह जानेंगे कि कोई भी जीव अपने आपको छोड़कर अन्य किसी जीव में न राग कर सकता है, न द्वेष कर सकता है, न मेल कर सकता है, न आदर कर सकता है और न पूजा कर सकता है। प्रत्येक जीव अपने-अपने उपादान के अनुसार अपना परिणमन करता है। उस परिणमन में जो विषयभूत अन्य पदार्थ है उसका नाम लिया जाता है।अभेदपरिणमन के व्यवहार में भेदकथन पर एक दृष्टांत―जैसे आप इस समय पेड़ को जान रहे होंगे तो हमें यह बतावो कि आपका आत्मा जो इस देह के अंदर समाया हुआ है यह अपने प्रदेश में स्थित होकर क्या कर रहा है? पेड़ तो दूर है। उस पेड़ तक न आत्मा का हमारा प्रदेश गया और न आत्मा में से कोई किरण निकलकर उस पेड़ तक पहुंची। यह तो मैं पूरा का पूरा अपने प्रदेश में हूँ। मैंने क्या किया ? अपने ज्ञान का कोई परिणमन किया। हम पूछें कि बतावो तो तुमने ज्ञान का क्या परिणमन किया ? वे कहेंगे निश्चय दृष्टि रखकर कि मैंने अपने ज्ञान का एक जाननरूप परिणमन बनाया। अभी तो हमारी समझ में नहीं आया। तो सीधा व्यवहार की बात बता दूं। हां हां तो लो सुनो मैंने पेड़ को जाना। तो वस्तुत: उसने पेड़ को नहीं जाना, किंतु पेड़ विषयक अपने आपमें जानन रूप परिणमन किया। अब उस जाननरूप परिणमन को बता देने का उपाय उसके पास और कुछ न था, सो उस जानन में जो विषय हुआ उस विषय का नाम लेकर उसे कहना पडा कि मैंने पेड़ को जाना।अभेदपरिणमन का व्यवहार मैं भेदकथन पर द्वितीय दृष्टांत―क्या आप अपने पुत्र से अनुराग करते हैं ? अरे पुत्र तो बाहर है आप अपने देह में समाये हुए हैं। आप जो कुछ कर सकेंगे वह देह के अंदर ही तो कुछ कर सकेंगे। यह अमूर्त आत्मतत्त्त जो देहप्रमाण आज बना हुआ है वह क्या इस अपने प्रदेश से बाहर कुछ भी अर्थपरिणमन कर सकता है? नहीं कर सकता है। क्या किया आपने? ओह स्नेह किया। अरे स्नेह के मायने हम तो कुछ नहीं समझे। नहीं समझे, तो व्यवहारभाषा में सीधे बता दें। पुत्र से स्नेह किया। अरे कोई पुत्र से स्नेह कभी कर ही नहीं सकता। जो कुछ करता है वह अपने आप में कर रहा है। उस रागपरिणमन का विषयभूत वह पुत्र है। अत: पुत्र का नाम लेकर उस स्नेहपरिणमन को बताना पडा और कोई तरकीब न थी।इस ही प्रकार जब हम कभी कार्यपरमात्मा को भी पूजते हैं उस समय भी हम कार्यपरमात्मा तक प्रदेश से नहीं पहुंच पाते हैं। कार्यपरमात्मा बहुत दूर क्षेत्र में विराजमान् हैं किंतु उस समय में क्या कर रहा हूँ ? अपने प्रदेश में ही स्थिर रहता हुआ कोई भक्तिरूप परिणमन कर रहा हूँ, भज रहा हूँ। किसको भज रहा हूं? भज रहा हूँ। उस भजने का व्यक्तरूप व्यवहार की भाषा बोले बिना दूसरे को बता नहीं सकते। तब स्पष्ट कहना पड़ता है कि मैं भगवान् की पूजा कर रहा हूँ। अरे तुम भगवान् की पूजा कभी कर ही नहीं सकते। जो कुछ कर सकते हो सो अपने आप में कर सकते हो। इस दृष्टि से भी मैं अपने को ही पूजता हूँ, पर प्रभु को नहीं पूजता हूँ।उपास्य निज कारणपरमात्मतत्त्व―भैया ! और फिर इतना ही नहीं, इसके और अंतर में चलें, उसे भी नहीं पूज रहे हो। यह अंतरर्ज्ञानी की अंतर्ध्वनि से आवाज आ रही है कि जो कारणपरमात्मतत्त्व है वह ही तो मैं हूँ। मैं पूजक इस पूजा से जुदा नहीं हूँ। इस कारण जब तक उसकी दृष्टि न थी तब तक मैं भक्त न था, अब दृष्टि हुई है तो मैं पूजक कहलाने लगा, अन्यथा पूजक नाम भी ठीक न था। मैं हूँ और परिणम रहा हूँ, पर पहिले पूजक न था और आज मिली है दृष्टि, इसलिए पूजक नाम पड़ गया है। है वह अभेदतत्त्व। मैं अपने द्वारा अपने की ही उपासना करता हूँ। मेरे चित्त में एकमात्र यह निर्णय है।बाह्य में शरण की अप्राप्ति―मैं जब लोक में शरण ढूँढ़ने चला तो जिन-जिन पदार्थों को मैंने शरण समझा, उन उन पदार्थों की ओर से शरण की बात तो दूर जाने दो, टुक संतोष भी न पा सका। कैसे संतोष हो, इस आत्मतत्त्व का कुछ भी मर्म आत्मप्रदेश से बाहर है ही नहीं। किसी दूसरे पदार्थ के वश में ऐसा कुछ है ही नहीं कि मेरे में कुछ परिणमन बन जाय। तो सब जगह ढूँढ़ा पंचेंद्रिय के विषयभूत साधनों को खोजा कितने ही स्पर्श किये, बड़ा कोमल गद्दा या ठंडे, गरम कमरे का निवास, और-और भी सुहावने स्पर्शों का प्राप्त करना, रसीले भोजन चखना, सुंदर रूपों को देखना, सुरीले रागों का सुनना, अच्छी गंध सूँघना, कितने ही उद्यम कर डाले, अपनी नामवरी चाही, यश के लिये दुनिया में बड़े श्रम किये, कितने ही यत्न कर डाले, बहुतों को अपना मन समर्पित किया, लेकिन न कहीं शरण मिली, न कहीं संतोष मिला।अपने द्वारा अपनी उपास्यता―आखिर जब यथार्थ ज्ञान हुआ, जब विदित हुआ कि मेरे लिए यह मैं आत्मतत्त्व ही शरण हूँ। उपासना बाहर में किसकी करने जायें। यह मैं आत्मा स्वयं मेरे द्वारा उपास्य हूँ। मेरा जो सहज स्वभाव है अपने आपके सत्त्व के कारण जो सहज भाव है, चैतन्यभाव उस स्वभाव की उपासना ही मेरे हित में परम उपासना है और उस ही स्वभाव को हम अपने में पाते हैं और उस ही स्वभाव को प्रभु परमात्मा में पाते हैं। तो जो परमात्मा है सो मैं हूँ। जो मैं हूँ सो वह परम आत्मा है, इस कारण मेरे द्वारा मैं ही उपास्य हूँ। भगवान् की उपासना भी मेरे ठिकाने से हुआ करती है।प्रभु के पते का ठिकाना―जैसे पत्रों के पते में केयर ऑफ लिखा जाता है ठिकाने में, तो प्रभु के नाम का यदि पत्र आप लिखें तो उसका ठिकाना क्या लिखा जायेगा ? आप ऊर्ध्वलोक लिखें, बैकुंठ लिखें, सिद्धशिला लिखें तो वह बैरंग पत्र डोलता रहेगा। ठिकाने न पहुंचेगा। उसका ठिकाना यदि यह ही निज आत्मतत्त्व लिखा जाय, माना जाय तो प्रभुसंदेश प्रवृत्त हो सकता है। यह मैं स्वयं हूँ ठिकाना, प्रभु का संदेश, प्रभु का समाचार जानने के लिए यह मैं खुद हूँ केअर आफ। तो ऐसे प्रभुवर का ठिकाना रूप यह मैं कारणसमयसार मेरे द्वारा उपास्य है और कोई उपास्य नहीं है, ऐसा मेरे में निर्णय हुआ है। इस निर्णय के बाद अब यह ज्ञानी संत अपने को किस प्रकार से ढालने का यत्न कर रहा है ? इसका वर्णन आयेगा।