समाधितंत्र - श्लोक 32: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
प्रच्याव्य विषयेभ्योऽहं मां मयैव मयि स्थितम् ।बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि परमानंदनिर्वृतम् ।।32।। परमतत्त्व की उपासना के अर्थ प्रथम यत्न―यह मैं अपने आपको विषयों से हटाकर मेरे ही द्वारा मुझ में स्थित ज्ञानात्मक परम आनंद से रचे गये आत्मा को प्राप्त होता हूँ। किसी निर्णय करने का फल तो यह है कि उस निर्णय में जो निश्चय हुआ है उस कार्य को कर लिया जाय। निर्णय यह हुआ है कि मेरे द्वारा मैं ही उपास्य हूँ। वह मैं किस तरह से उपासने में आ सकता हूं? इसका विधान इस श्लोक में कहा जा रहा है। मैं अपने को विषयों से पहिले हटाऊँ तब मैं अपने आपकी प्राप्ति कर सकूँगा और उस ही में यथार्थ उपासना हो सकेगी।संसार का कठिन झूला―भैया ! यह सारा लोक एक विषयों से ही ठगा हुआ भटक रहा है और इसको क्लेश क्या है? विषयों में फँसने का कारण है राग द्वेष। उस राग की कीली पर लटका हुआ यह प्राणी चारों ओर घूम रहा है और ठगाया जा रहा है, दुःखी हो रहा है, फिर भी उसमें ही सुख मान रहा है। जैसे बड़े हिंडोलना में कोई बालक झूलने का शौक करता है, पैसा देकर पलकिया में बैठ गया। अब जब वह पलकिया ऊपर जाती है, नीचे आती है तो वह बालक डर के मारे चिल्लाता भी है। अब जब तक पलकिया चला करती है तब तक यह डरता रहता है, दुःखी होता रहता है, और पलकिया बंद होने पर बाद उतर आया तो थोड़ी देर बाद फिर बैठ जाता है। यह हिंडोला तो क्या है भ्रमण। इस जीव का असली हिंडोला देखो, यह है संसारभ्रमण। कहां का मरा कहां भटकेगा ? कहां पैदा होगा? कौन फिर इसका बचाने वाला होगा ?
प्रीतिरीति में रीता का रीता―यहां कोई किसी का तत्त्व है क्या, शरण है क्या ? कुछ भी तो इस जीव का शरण नहीं है लेकिन भटक रहा है। इन सब भटकनों का कारण है विषयों का प्रेम। इन विषयों की प्रीति से किसी ने कुछ शांति पायी है क्या ? किसी दूसरे की क्या सोचते हो खुद को ही देखो–क्या कोई शांति मिली है ? कैसा भी विषय हो, खाने की बात देखो तो आध सेर रोज का ही हिसाब लगालो–कभी 3 पाव भी खाया, कभी पावभर खाया, इतना तो सब कुछ मिलाकर खा ही लिया जाता है। तो आध सेर रोज खाने पर महीना भर में खाया 15 सेर और साल भर में खाया 180 सेर, याने साड़े चार मन, और जिसकी उमर 60 वर्ष की हो गयी उसने 270 मन खाया। अरे 270 मन कितना होता है, एक रेल का डिब्बा भर जायेगा, उतना खा चुके हैं और अब भी वैसे के वैसे रीते हैं। अभी भी आशा लगाये हुए हैं कि लड़ुवा मिल जायें, तो कोई शांति मिली हो तो बतलावो। एक रसना की ही बात क्या स्पर्शन की भी बात देखो–कामवासना की भी बात देखो। इतने समय के भोगों के बाद भी क्या हाथ है ? रीता का रीता है। खूब खेल अथवा सुंदर रूप भी देख लिया तो है क्या ? केवल अपनी आंखों का थकाना है। तत्त्व क्या निकलता है ? किसी भी इंद्रिय के विषय में पड़कर इस जीव ने रंच भी संतोष नहीं पाया, फिर भी मोहवश यह विषयों को ही ललचा रहा है।सिद्धि का साधन निर्मोहता की साधना―मेरा स्वरूप तो सिद्ध के समान है परंतु हुआ क्या ‘आशवश खोया ज्ञान’ और भिखारी बना, निपट अज्ञान रहा। जो बात जिस पद्धति से बनती है उसको किए बिना उसकी सिद्धि नहीं है। मोह को बिल्कुल हटाने पर ही यह आत्मा अपने आप उस परमात्मतत्त्व के दर्शन कर सकता है, मोह राग करके दर्शन नहीं कर सकता है। किसी समय तो ऐसा अनुभव आना चाहिए कि मैं अकिन्चन हूँ। इस लोक में मेरा कहीं कुछ नहीं है, आखिर मामला यह है, जैसे पैदा हुए हैं अकेले, ऐसे ही अकेले जायेंगे, कुछ साथ न रहेगा, लेकिन व्यामोह का कैसा कठिन परिणाम है कि इसे सत्य पथ सूझता ही नहीं है। सब छोड़ जायेंगे पर अपने जीवन में उसकी ममता नहीं छोड़ सकते। कितना कठिन काम है और जिनके लिए ममता कर रहे हैं वे अपने आपके काम कभी आने के नहीं हैं, फिर भी इतना चित्त में नहीं आता कि मैं कुछ जीवन के थोड़े वर्ष ममता रहित होकर आत्मसाधना में व्यतीत रूँलें।स्वार्थ का साथ―एक सेठ के चार लड़के थे। 5 लाख का धन था। सब लड़कों को बांट दिया और अपने एक लाख अपने कमरे में भींतों में चुन दिया, लड़कों को सब मालूम था। जब सेठ के मरण का समय आया तो बोल थम गया। सेठजी बोल न सके। पंच लोग कुछ आये और बोले कि अब तुम्हें जो दान करना हो सो करलो। तो उसकी मंशा हुई कि मेरे पास जो हिस्से का एक लाख का धन पड़ा हुआ है यह सबका सब पंचों को सौंप दें और जो काम अच्छा हो उसमें पंच लगावे। सो बोल तो सके नहीं, इशारे से कहता है भींतों की तरफ हाथ करके, पंचों की तरफ हाथ ड़ेलता हुआ अपने भाव बताता है कि जो कुछ मेरे पास है यह सब मैंने दान किया, लेकिन पंचों में से कोई भी उसका अर्थ न समझ सका। तो लड़कों को बुलाते हैं। अरे लड़कों बतलावो तो जरा, ये तुम्हारे पिताजी क्या कह रहे हैं ? तो लड़के कहते हैं कि पिताजी फर्मा रहे हैं कि मेरे पास जो कुछ धन था वह सब भींतों के बनाने में खर्च कर दिया। अब मेरे पास कुछ नहीं है, यह फर्मा रहे हैं। सेठ सुन रहा है, हाय मैं चाहता हूँ कि मेरी संपत्ति भले काम में लगे, मगर ये बेटे कुछ उल्टा ही कह रहे हैं।विषयनिवृत्ति का प्रधान कर्तव्य―क्या है भैया ! जब तन भी साथ न जायेगा तो अन्य चीज की आशा ही क्या करते हो? परिणामों की निर्मलता बन जायेगी तो अगले भव में भी सुख का समागम मिलेगा अन्यथा संसार का भटकना जैसा अभी तक चला आया है ऐसा ही चलता रहेगा। मैं अपने आपको पाने के लिए, अपनी उपासना करने के लिए समस्त विषयों से अपने को हटाऊँ, पहिला काम तो यह है। सोच लो जो लाभ की बात है सो करो। हानि की जो बात है उसे मत करो। मैं अपने को विषयों से हटाकर अपने आप में स्थित ज्ञानात्मक अपने आपको प्राप्त होऊं। जितने महापुरूष हुए हैं बड़े राजा महाराजा, जिन्होंने कल्याण का मार्ग अपनाया है, जो मुक्त हुए हैं, निर्दोष आनंदमय हुए हैं उन्होंने यह किया था। हम पुराण पढ़ते हैं, शास्त्र बाँचते हैं उनसे यदि हमने अपने आपको सन्मार्ग में ले चलने की शिक्षा ग्रहण न की तो फिर बतावो कि वह सब पढ़ना किस मायने को रखता है ?
यथार्थ भक्ति―प्रभु की असल में भक्ति वह है कि जो प्रभु का उपदेश है उस पर हम यथाशक्ति चलें, अन्यथा हम भक्त नहीं है। कोई पुत्र अपने बाप की पूजा करे, हाथ भी जोड़े, सिर भी नवाये, पर उसकी बात एक न माने या उसकी कोई सुविधा न बनाए तो क्या वह पिता का सेवक कहा जा सकता है, ऐसे ही हम प्रभुमूर्ति के आगे सब कुछ न्यौछावर करें, हाथ जोड़ें, सिर रगड़ें और बात उनकी हम एक भी न मानें तो हम प्रभु के भक्त कैसे ? एक प्रसिद्ध बहाना है कि पंचों का कहना सिर माथे, किंतु पतनाला तो यहां से निकलेगा। प्रभु की तो पूजा वगैरह सब कुछ करते हैं, करेंगे, बड़े उत्सव मनावेंगे, पर मोह रागद्वेष जैसा है उतना वैसा ही रहेगा बल्कि और बढ़ने को चाहेगा।आत्मा का पर से नाते का अभाव―भैया ! यह अनित्य संसार है जिसमें किसी भी वस्तु का विश्वास नहीं है। जो आपको मिला है वह अटपट मिल गया है। कोई कानून कायदे से नहीं मिला है कि आपके आत्मा में और परपदार्थों में कुछ नाम खुदा हो कि यह तो इनको मिलना ही चाहिए, न मिलते ये दूसरे के पास होते तो क्या ? ऐसा हो न सकता था तो अब जो यों ही अटपट मिला है उसका सदुपयोग कर लो, उदारत अपनालो तो इसका कुछ लाभ भी मिलेगा, अन्यथा जैसे मुफ्त आया है वैसे ही मुफ्त जायेगा और उस दलाली में केवल पाप ही हाथ रह जायेगा।व्यर्थ का प्रसंग―एक चोर कहीं से घोड़ा चुरा लाया, बाजार में बेचने को खड़ा कर दिया। कुछ ग्राहक आये, पूछा घोड़ा कितने में दोगे ? सो था तो वह 100) रू का और बताया 500)रू का। किसी ने न लिया। कोई बूढ़ा अभ्यस्त चोर था, उसने पूछा घोड़ा कितने में दोगे ? वह तेज आवाज में बोला 500) रू का। वह झट समझ गया कि घोड़ा चोरी का है। बोलो इसमें विशेषता क्या है? कला क्या है? तो वह बोला कि इसकी चाल सुंदर है। अच्छा तो हम जरा देखें। देखो। अच्छा यह मिट्टी का हुक्का पकड़ो। पकड़ लिया। वह चला घोड़े पर बैठकर घोड़े की चाल देखने। चाल देखना तो बहाना ही था, वह उस घोड़े को उड़ा ले गया। अब पुराने ग्राहक फिर से आए, पूछा कि घोड़ा बिक गया क्या ? हां बिक गया। कितने का बिका ? जितने में लाये थे उतने में बिक गया और मुनाफे में क्या मिला ? मुनाफे में मिला यह मिट्टी का हुक्का। यों ही जिसे जो कुछ समागम मिले हैं वे आपके आत्मा से बँधें हुए नहीं हैं। आप स्वतंत्र हैं, ये सर्व पर समागम आपसे भिन्न है। ये मिल गए हैं और यों ही बिछुड़ जायेंगे, पर मुनाफा क्या मिलेगा ? पाप का हुक्का।वास्तविक त्याग में प्रभु का आकर्षण―जब इस अनादिनिधान अपने आपके स्वरूप की दृष्टि नहीं होती है तो क्या कहा जाय इस बेचारे गरीब को ? भले ही लाखों करोड़ों का धन हो किंतु यह तो असहाय है, दीन है। बाह्यवस्तुवों की ओर अपना आकर्षण बनाकर दुःखी हो रहे हैं। इनको दुःख मिटाने का जो उपाय है उसे यहां कहा ? पहिला कदम है मैं अपने को विषयों से हटाऊं। इंदौर में एक कल्याणदास की सेठानी थी। उपवास वह बहुत करे। वहां आहार हुआ। हमने कहा, मां जी वैसे ही तुम दुबली पतली हो, क्यों इतना अधिक उपवास करके शरीर सुखा रही हो? रोज खाया करो और धर्मसाधना में अधिक रहा करो। तो वह बोलती है कि हमारे उपवास करने के दो कारण है। पहिला तो यह कि हम बचपन से विधवा है तो हमने उपवास करके अपने भावों को निर्मल रक्खा। दूसरे अब हम वृद्ध गयी है फिर भी हम उपवास या त्याग करती हैं, उसमें हमारी तो दृष्टि यह है कि चीज मौजूद रहते हुए त्याग किया जाय तो उसका नाम त्याग है, और नहीं है कुछ और त्याग का कोर्इ नाम बोले तो वह त्याग नहीं है। जैसे कोई भोजन को बैठे और कहे कि देखो जो-जो चीज हमारी थाली में न आयेगी उसका हमारा त्याग है। हम तो कहते हैं यह भी अच्छा है। जो चीज थाली में न आए और अंतर में उसकी चाह न रहे तो हम उसको भी त्याग मानते हैं। पर अंतर में तो चाह फिर भी बनी है कि अमुक चीज थाली में नहीं दी जा रही है उसका क्या त्याग कहा जाय।भावना में ग्रहण और त्याग―भैया ! वास्तव में त्याग, वास्तव में विषयों से हटना तब ही संभव है जब ज्ञानमात्र निज आत्मतत्त्व का निर्णय हो, विश्वास हो। मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, मुझमें ज्ञान और आनंद भाव है, इस के अतिरिक्त अन्य पदार्थों का न तो ग्रहण है और न उसका त्याग हो सकता है अर्थात् जब ग्रहण नहीं है तो त्याग किसका किया जाय ? अपने ज्ञानभाव का सही होने का ही नाम वास्तव में त्याग है। कोई परचीज इस मुझ आत्मा में कहां पड़ी है ? कोई रसीली चीजों का रस इस आत्मा में तो छुवा भी नहीं जा सकता है, फिर मैंने रस का ग्रहण किया और रस का त्याग किया, उस रसविषयक ज्ञान में ऐसा विकल्प बना लेना कि मैंने मीठा भोगा, अमुक चीज का आनंद लिया, ऐसे विकल्प के करने का नाम ह तो ग्रहण है। तथा मुझ आत्मतत्त्व में तो किसी परवस्तु का प्रवेश ही नहीं है। यह मैं स्वतंत्र ज्ञान ज्योतिमात्र हूँ, इस प्रकार का अनुभव करना इस ही का नाम सबका त्याग है।विषयनिवृत्ति और ज्ञानवृत्ति―देखो किस किस वस्तु का नाम ले लेकर आप त्याग कर सकते हैं बतावो ? कितनी चीजों का त्याग करना लाभदायक है ? आप कहेंगे कि सभी पदार्थों त्याग करना आत्म विकास का हेतु है। तो पदार्थ तो अनंत हैं, किसी का नाम लेकर त्याग कर ही नहीं सकते हैं, और एक ज्ञानमात्र अपने आपको स्वीकार कर लिया तो लो इसमें सबका त्याग एक साथ हो गया। तो विषयों का हटना और ज्ञानमात्र अपने आपको पाना, यद्यपि ये दोनों बातें एक हैं, फिर भी व्यवहार में कुछ विषयों से हटने के उपाय को ज्ञान में लिया जाता है। इस ज्ञान में लगने के उपाय से विषयों से हटा जाता है। तो समय समय पर जो चाहे पहिले पीछे इन दोनों कार्यों को करे। मैं सर्वविषयों से अपने आपको हटाकर अपने आपको प्राप्त होता हूँ। यह मैं ज्ञानमात्र ही हूँ और उत्कृष्ट ज्ञानभावों से मैं निर्मित हूँ। मैं अपने को अपने में खोजने जाऊं तो वहां न मैं किसी रंग में लिपटा हूँ, न वहां रस, गंध आदिक में मैं मिल गया हूँ। मैं तो केवल जानन और आनंद इन दो रूपों में मिलूंगा। ज्ञान और आनंद के अतिरिक्त मेरे अंदर कुछ भी स्वभाव नहीं है। मैं सबसे हटकर केवल ज्ञानरूप और आनंदमय अपने आपको प्राप्त होता हूँ।
निजपदनिवास―लोग दु:संग से थककर उनसे हटकर अपने आपके घर में बैठे रहने का संकल्प किया करते हैं। अब मैं इस प्रसंग में न रहूंगा। उससे अपने को हटाकर अपने ही घर बैठूंगा। यों ज्ञानी संत ने विषयों के संग को दु:संग समझा है और उस दु:संग में अनेक खोटे परिणाम भोगे। तो अब यहां दृढ़ संकल्प कर रहा है कि मैं अपने को विषयों से हटाकर अब अपने ही घर में विराजूंगा। वह विषयों का लगना भी अपने ही प्रदेश में था; किंतु बहिर्मुख पद्धति से या और अपने आपके घर में बैठना अपने आप में लगना यह भी अपने प्रदेश में है किंतु यह अंतर्मुख होने की पद्धति से है। सो अब मैं बहिर्मुखता को त्याग कर अंतर्मुख होकर ज्ञानानंदमय अपने आपके स्वरूप को प्राप्त होता हूँ।