समाधितंत्र - श्लोक 47: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
त्यागादाने बहिर्मूढ: करोत्यध्यात्ममात्ममात्मवित्।
नांतर्बहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मन:।।47।।
अज्ञानी और ज्ञानी के त्याग उपादान की चर्चा- पहिले श्लोक में यह बताया गया था कि ज्ञानी पुरुष ऐसी भावना रखता है कि जितने दृश्यमान् पदार्थ हैं वे तो अचेतन हैं, सो अचेतन से रुष्ट तुष्ट होने से लाभ क्या है और जो चेतन है वह अदृश्य है, उससे रुष्ट और तुष्ट कैसे हुआ जाय? इस कारण यह मैं कहां रोष करूँ और कहां तोष करूँ, मैं तो मध्यस्थ होता हूं। जब रुष्ट और तुष्ट होने की भावना होती है तब बाह्य में त्याग और ग्रहण की प्रवृत्ति चलती है। जिसमें मन न भरा उसका त्याग कर दिया जाता है और जिसमें मन भरा उसको ग्रहण कर लिया जाता है। तथा जब रोष तोष मिटाने वाला ज्ञान जगता है तब अध्यात्म ग्रहण त्याग होता है। तो इस श्लोक में यह बता रहे हैं कि अज्ञानी जीव त्याग और ग्रहण कैसे करता है तथा ज्ञानी जीव त्याग और ग्रहण किस प्रकार करता है?
अज्ञानी के त्याग उपादान का भाव- अज्ञानी के पदार्थों में संबंध मानने का परिणाम हुआ है। इस कारण इन बाहर की बातों में ही त्याग करता है और बाहर ही बाहर ग्रहण करता है। मोही पुरुष घर का त्याग करे, वैभव का त्याग करे और त्याग करके खुश होवे कि मैंने त्याग कर दिया, मैं त्यागी हो गया हूं और धर्म के मार्ग में चल रहा हूं, किंतु उस अज्ञानी को यह खबर नहीं है कि यह मैं आत्मा तो केवल ज्ञानानंद मात्र हूं, इसमें किसी पर का प्रवेश नहीं है, ग्रहण ही नहीं है। यह किसी पर को ग्रहण नहीं कर सकता है, और फिर त्याग भी कैसे कर सकता है? जो चीज अपनी नहीं है उसमें त्याग का क्या व्यवहार? आप यदि दूसरे के घर को दान कर दें तो क्या यह कोई त्याग की सही पद्धति है? क्या हो जायेगा दान? तो जैसे जो चीज अपनी नहीं है उसका त्याग नहीं किया जा सकता, यों ही आत्मतत्त्व में देखिये मेरे आत्मा में घर चिपका नहीं है फिर घर का त्याग क्या? आत्मा की सावधानी रखकर सुनिये।
परवस्तु के अपनाने का अपराधी- श्रद्धा में तो बाह्य वस्तु को अज्ञानी ने अपना रक्खा है। मेरे घर में इतना वैभव है अथवा इतना ठाठ है, ऐसी इज्जत है और परमार्थ से है कुछ नहीं। केवल यह ज्ञायकस्वरूपमात्र है। तो भैया ! एक बात बता दोगे क्या कि जो परवस्तुयें हैं उनको जो अपनाये उसका नाम आपने क्या रक्खा है? चोर और ये अपने कुछ भी पदार्थ नहीं हैं जैसे ईंट, पत्थर, सोना, चाँदी, रत्न वैभव। मैं तो अपने आपके केवल ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु की तरह शुद्ध ज्ञानमात्र हूं और फिर कोई माने कि यह मेरा वैभव है तो परवस्तु को जो अपनाले तो उसका भी नाम क्या पड़ जाना चाहिए? अब तो उत्तर देने में आपकी जबान रुक रही है। पहिले तो बड़ी जल्दी कह दिया कि परवस्तु को जो अपना ले, अपनी बना ले अथवा पर के घर में रक्खी हुई चीज को उठाकर अपने घर ले आये उसका नाम चोर है, पर यही बात कहने में अब आपको कुछ रुकावट हो रही है। अरे जो परपदार्थ हैं, अपने आत्मा के स्वरूप नहीं हैं, असार जो धन वैभव, मकान, कुटुंब परिवार हैं, उनको जो जबरदस्ती अपना बना लें उसका भी नाम परमार्थ से क्या है? चोर है। वाह भाई अब तो डरकर बोल रहे हो।
कल्पनाओं का व्यर्थ बोझ- लेकिन जब सभी चोर हैं तो चोर-चोर एक दूसरे को बुरा कहें कैसे? और उसही चोरी की सीमा में व्यवस्था बौर कानून बन गए और राज्य शासन चल रहा है, किंतु परमार्थ दृष्टि से यह सारा जगत् चोरों से भरपूर है। अच्छा इस लोकव्यवहार के चोर ने दूसरे की चीज उठाकर क्या अपने आत्मा में धर ली? नहीं। वह चीज तो बाहर ही रक्खी हुई है। आत्मा में धरा नहीं जा सकता कोई भी परपदार्थ। यों ही जो अपना मानता है उसने क्या वैभव मकान आदिक को अपने में रख लिया? नहीं रख सकता है किसी भी चीज को। केवल कल्पना की जा रही है और कल्पनावों का इतना बड़ा बोझ अपने आप पर लादे हुए है।
धन की कल्पना से बड़े भाई की कुबुद्धि- दो भाई थे। वे समुद्र के उस पार किसी द्वीप में कमाने चले गए। बड़ा और छोटा भाई था। खूब कमाया धन और बाद में उस सारी कमाई को संक्षिप्त करके दो रत्न एक एक लाख रुपये के खरीद लिए। अब वे दोनों रत्नों को लेकर अपने घर के लिए चले तो समुद्र में जब जहाज में चल रहे थे तो दोनों रत्न थे बड़े भाई के पास। बड़ा भाई सोचता है कि इस समय यदि में छोटे भाई को ढकेल दूं समुद्र में तो दोनों रत्न मेरे हो जायेंगे और परिश्रम तो मैंने बहुत किया, यह तो केवल बातें ही करता रहा। फिर थोड़ी देर बाद सुध आयी अहो, यह रत्न बहुत बुरी चीज है, इसके पीछे मेरे कितने खोटे परिणाम हो रहे हैं, तो बोला भाई ! ये रत्न तुम अपने पास धर लो। छोटा भाई कहता है कि आप ही रक्खे रहिये, बड़ा कहता है कि नहीं मैं तो इन्हें अपने पास न रक्खूँगा।
धन की कल्पना से छोटे भाई की कुबुद्धि- अब बड़े भाई ने जबर्दस्ती उन दोनों रत्नों को छोटे भाई के पास रख दिया। थोड़ी देर बाद उस छोटे भाई की भी बुद्धि खराब हुई। उसके मन में आया कि ये दोनों रत्न कमाये तो हमने हैं और घर जाकर बँट जायेंगे, ऐसा करें कि समुद्र में बड़े भाई को ढकेल दें तो ये दोनों रत्न फिर हमें मिल जायेंगे। फिर सुध आयी ओह मैंने इन रत्नों के पीछे कितने खोटे परिणाम किए। वह बोला- भैया मैं इन्हें अपने पास न रक्खूँगा, आप ही इन्हें अपने पास रक्खें। बड़े भाई ने समझाया कि रक्खे रहो, घर तक तो ले चलो- छोटा भाई बोला मैं तो इन्हें अपने पास न रक्खूंगा, चाहे इन्हें समुद्र में फेंक दो।
धन की कल्पना से बहिन की कुबुद्धि- खैर किसी तरह घर पहुंचे तो दोनों भाईयों ने सोचा कि ये रत्न अपन तो रखते नहीं, बहिन के पास रख दें। बहिन से कहा तो बहिन ने अपने पास दोनों रत्न रख लिये। उस बहिन के भी खोटे भाव हो गये कि इन दोनों भाईयों को विष दे दें, ये मर जायेंगे तो ये दोनों रत्न मेरे हो जायेंगे। फिर सुध आयी, ओह यह मैं क्या कर रही हूं। ये दोनों ही रत्न बड़े खराब हैं, सो भाईयों से बोली कि मैं ये रत्न अपने पास न रक्खूंगी, इन्हें तुम जानो ये पड़े हैं।
धन की कल्पना से माता की कुबुद्धि- अब भाईयों ने सोचा कि चलो मां के पास रख दें। मां के पास रख दिये। मां बूढ़ी थी। बूढ़ापें में तृष्णा ज्यादा उपज है। उसने सोचा कि ये दोनों रत्न हम छिपाकर रख लेंगी तब तो हमारे बूढ़ापें में खूब सेवा होगी नहीं तो कौन पूछेगा? यह विचार कर उसने अपने पास रख लिये और उन दोनों पुत्रों को मारने तक का भी सोच लिया। फिर सुध आयी तो कहा अरे बेटा, यह कहां से विष ले आये हो, जावो इन रत्नों को समुद्र में फेंक दो। ये किसी काम के नहीं हैं। आखिर वे रत्न समुद्र में फेंकने पड़े, तब शांति हुई।
व्यामोह से अविवेक का नाच- क्या है यह धन वैभव? व्यामोह में दूसरों के प्रति मन में क्या से क्या सुध बैठ जाती है? यह मोही जीव बाह्यपदार्थों में ही त्याग और ग्रहण की बुद्धि करता है, किंतु जो अध्यात्मयोगी पुरुष हैं, आत्मा के मर्म के ज्ञाता पुरुष हैं वे ग्रहण और त्याग की बात अपने आत्मा के भीतर ही किया करते हैं। धन तो उसने ग्रहण किया ही नहीं तब उसका त्याग करना क्या? वह तो छूटा ही हुआ है, किंतु धनविषयक जो मोह लगा रखा है, जो चक्की में धुन की तरह उसे पीसे डाल रहा है। उस राग और मोह का त्याग करता है। मोह का कितना कटुक नाच है कि विवेक अविवेक कुछ नहीं रहता है।
व्यामोह से भगत की कुबुद्धि- एक साधु महाराज ने चौमासा किया एक गांव के निकट जंगल में। एक श्रावक के मन में आया कि मैं इस चौमासे में साधु जी के पास रहूं। उसके घर का लड़का कपूत था। सो रत्न, हीरेजवाहरात, सोना-चाँदी कमाई की चीजें एक घड़े में भरकर जंगल में मुनि महाराज जहां ठहरे थे, वहीं एक गड्ढा खोदकर घड़े को दबा दिया। और चौमासा पूर्ण होने के बाद साधु तो चले गये, अब इतने में ही वह घड़ा भी गायब हो गया। हुआ क्या, यह बाद में बतावेंगे। अब यह श्रावक दूसरे गांव में साधु के पास पहुंचा और वहां ऐसी कहानी कही कि जिसमें यह बात भरी थी कि महाराज ! हमने तो चार महीने आपकी सेवा की और तुमने हमारा ग्यारहवां प्राण हर लिया। साधु उत्तर में ऐसी कहानी कहे कि बात कुछ और हुई है और तुम व्यर्थ ही धर्मात्माजनों पर शक करते हो। 7-8 कहानी सेठ (श्रावक) ने कही और 7-8 कहानी उसके उत्तर में साधु ने कही। सेठ सब व्यर्थ समझता जाये और साधु भी सब अर्थ समझता जाये।
असाधु के भी साधुता का उद्गम:- यह सब देख सुन रहा था सेठ का कपूत लड़का। उसके मन में इतना वैराग्य आया कि ओह इस धन वैभव के पीछे हमारे पिता धर्मात्मा साधु संतों पर ऐब लगा रहे हैं, वह बोला कि पिताजी, वह घड़ा मैं उठा लाया। मैंने तुम्हें इसे गाड़ते हुए देख लिया था, मौका पाकर मैं निकाल ले गया था। अब वह सारा धन आपका है, घर में आप रहें, मैं घर में अब पैर न रक्खूँगा। इस अपार संसार में धोखे से मेरे छलपूर्ण जगत् में अब क्या रहना? विरक्त हो गया और वह साधु बन गया।
ज्ञानी का त्यागोपादानविषयक विचार- तो आप देखो कि इस संसार में धन वैभव के व्यामोह में लोग कितना न्यौछावर होते जा रहे हैं? उसमें कौनसी आत्महित करने की कला पड़ी हुई है? ज्ञानीपुरुष जानता है कि बाहरी पदार्थ तो अत्यंत भिन्न है, उनका मैं त्याग और ग्रहण कर ही नहीं सकता, केवल उन बाह्यपदार्थविषयक अपनी कल्पनाएँ बनाता ही रहता हूं। सो मैं उन रागद्वेष से भरी हुई कल्पनाओं को त्यागूँ और शुद्ध ज्ञानस्वरूप का ग्रहण करूँ। यही त्याग और ग्रहण करने योग्य तत्त्व है। उसका त्याग करना है, जिसको ग्रहण किये हुये हैं व जिसके कारण बड़ी बुरी तरह से बरबाद हुये चले जा रहे हैं। किसका त्याग करें? अहंकार और ममता का त्याग करें।
आत्मवेदी और निष्ठितात्मा का त्याग और उपादान- भैया ! जो पुरुष सम्यग्ज्ञान के बल से समस्त बाह्यपदार्थों से भिन्न ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व का अनुभव करता है, उसने जो पाया उससे उत्कृष्ट इस लोक में कहीं कुछ है ही नहीं। अध्यात्मयोगी संत अपने आपमें कुछ का त्याग करते हैं और किसी तत्त्व का ग्रहण करते हैं। ऐसे ये दो तरह के अभी पुरुष हुए। कौन कौन? मिथ्यादृष्टि जीव और सम्यग्दृष्टि जीव। यहां अभी ऐसा सम्यग्दृष्टि पुरुष बताया है जो अभी ज्ञानयोग में अभ्यास करता चला जा रहा है। अब तीसरे पुरुष की कहानी सुनो- जो ज्ञानयोग में पूर्ण अभ्यस्त हो गया है, उसके लिए न बाहर में कुछ त्याग करना है और न बाहर में कुछ ग्रहण करना है तथा न अंतरंग में कुछ त्याग करना है और न अंतरंग में कुछ ग्रहण करना है। वह तो निष्ठितात्मा हो गया है, कृत्कृत्य हो गया। मोह से बढ़कर जगत् में विपदा नहीं है। विपदा और कुछ है ही नहीं। सिवाय मोह और रागद्वेष के इस जीव में कोई झंझट है ही नहीं।
संबोध्यों को संबोधन- ये बाह्यदृष्टि वाले मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीव बाह्यपदार्थों को छोड़ते हैं और ग्रहण करते हैं। मैंने घर छोड़ दिया। अरे घर को ग्रहण कब किया था, जो छोड़ा कह रहा है। यह कह कि मैंने छोड़ दी घर की ममता। ममता छोड़ दोगे तो घर छूट ही जाएगा। घर को छोड़ने में तू समर्थ नहीं है और न घर ग्रहण करने में तू समर्थ है, एक अपने विभावों को तू ग्रहण किया करता है और विभावों को ही छोड़ा करता है। देख लो- अपने आपमें अपने आपका नंगा स्वरूप। बाहर में कहां नग्न साधु को देख रहे हो? वह तो परमेष्ठी है ही, वह अपने आपमें सदा जो नग्नस्वरूप रहता है, केवल निजस्वरूपमात्र पर के संबंध से रहित ऐसे इस आत्मतत्त्व को तो देखो कि यह अपने सत्त्वमात्र है, इसकी जिसे रुचि हो गई है, वह पुरुष कृतार्थ हो गया है।
आत्मवेदी की वृत्ति- जिसको आत्मतत्त्व की रुचि जग चुकी है, वह बाहर में अपना सम्मान और अपमान नहीं समझता है। ओह सारा जहान भी मुझे बहकाये अथवा निंदाभरी बात बोले तो भी यहां कुछ परिणमन होता ही नहीं है। वे सब मायारूप हैं। जो कहते हैं कहें। मैं तो अपने स्वरूपमात्र हूं। क्या छोड़ना है? अपने आपमें अज्ञान जो बस रहा है, उसे त्यागना है। रागद्वेष जो बस रहे हैं, उसे त्यागना है। बाह्यपदार्थ तो सब धूल हैं। मुग्धप्राणी धूल में मस्त हो रहे हैं। अरे इस बाह्यधूल की ममता से इस चैतन्य आत्मा का क्या लाभ होगा? कुछ तो सोचो। मिला है कुछ और होता है उससे उपकार दूसरों का। तो दूसरों का उपकार करने की उदारवृत्ति रखो। इस उदारवृत्ति से इस जीवनकाल में बहुत अधिक लाभ मिलेगा। सम्यग्ज्ञान रखो-
पुत्र कपूत तो क्या धन संचे,पुत्र सपूत तो क्या धन संचे।
अज्ञानी का बेकायदा अट्टसट्ट व्यामोह- जगत् के इन अनंत जीवों में से बसने वाले दो चार जीवों को इतना महत्त्व दे दिया है कि तराजू के दो पलड़़ों पर एक में आपके घर के दो चार आदमी बैठ जायें और दूसरे पलड़े में सारे जगत् के जीव बैठा दिये जायें तो भी आपके लिये अपने घर के दो चार जीवों का ही पलड़ा भारी होता है। ओह इन दो चार जीवों के बराबर भी जान क्या जगत् के इन अनंत जीवों में नहीं है? कितना मोह का अंधकार पड़ा हुआ है जीवों में कि उन्हें आत्मस्वरूप का भान नहीं होता। कौन पराया है और कौन अपना है? जिन्हें पराया मानते हो, वे यदि आपके घर में पैदा हो गये होते तो उन्हें अपना मानते। तुम्हारा मानना तो अटसट है, कोई कानून की विधि से नहीं है। जो भी अपने सामने आ जाए, उसे मान लिया कि मेरा है। यह बहिरात्मा पुरुष बाह्यपदार्थों में ही त्याग और ग्रहण का विकल्प किया करता है।
संतों के उपदेश के धारण में ही जीवन का यथार्थ मूल्य- यह सब आचार्य ऋषि संतों की वाणी है, उनका उपदेश है। ग्रहण कर लिया जाय तो भला ही है और न ग्रहण किया जाय तो समय तो गुजर ही रहा है। एक बार कोई स्वर्णकार दो पुतलियां पीतल की बिल्कुल एकसी बनाकर राजदरबार में पहुंचा। वहां जाकर स्वर्णकार कहता है कि इन पुतलियों को कोई खरीदना चाहे तो खरीद ले। एक पुतली का मूल्य तो है एक लाख रुपया और एक पुतली का मूल्य है एक रुपया। लोगों ने सोचा कि दोनों ही पुतलियां एक समान हैं लेकिन एक का मूल्य एक लाख रुपया बता रहा है और एक का मूल्य 1 रुपया बता रहा है। लोग बहुत हैरान हो गये। आखिर में राजा बोला कि ऐ स्वर्णकार ! अब तेरी कला का यहां कोई पहिचानने वाला नहीं है, तू ही बता कि एक पुतली एक लाख की और एक पुतली एक रुपये की क्यों है? तो स्वर्णकार एक पुतली के कान में एक सींक डालता है और दूसरे कान से निकाल लेता है और एक पुतली के एक कान में सींक डालता है तो वह सींक गले से पेट में उतर जाती है। कहता है स्वर्णकार कि देखो यह पुतली यह शिक्षा दे रही है कि जो सुनो वह हृदय में उतारो और यह एक पुतली यह बता रही है कि इस कान से सुनो और इस कान से निकाल दो। इसीलिए इन दोनों के मूल्य में इतना बड़ा अंतर है।
अध्यात्मप्रयोग का अवग्रह- भैया ! यह अध्यात्मयोग की बात केवल सुन ली जाने की नहीं है, इससे लाभ कुछ न होगा। कुछ हिम्मत करो, साहस बनावो कि इस ममता डाइन को दूर करें। क्यों व्यर्थ की परेशानियां सही जा रही हैं? एक भीतर में केवल भाव ही तो बदलना है। सबसे विविक्त केवल ज्ञानमात्र अपने आपको ही तो निहारना है। क्यों नहीं किया जाता इतना स्वाधीन सुगम कार्य? अभ्यास करते-करते सब बातें सरल हो जाती हैं। कम से कम यह तो अपने आपमें निर्णय बना लो कि बात यह सत्य है और इस ही मार्ग पर मुझे चलना है। छोटे बच्चों में, नातियों में, पोतियों में इतना मोह बसा-बसाकर क्या प्रोग्राम बना रहे हो, कुछ हमें भी तो सुना दो। अपने मन में ही प्रोग्राम बनाये जा रहे हो, कुछ लोगों को भी तो बता दो।
व्यामोह के परिणाम का परिणाम- लोग किसी वृद्ध पुरुष के मरने पर कहते हैं कि सोने की सैनी बना दो और उसे चिता के साथ रख दो। क्यों भाई? वह उस सैनी पर चढ़कर स्वर्ग जायेगा। पर यह तो बतावो कि जिस बूढ़े ने लड़कों में मोह बसाया है, लड़कों के लड़कों में मोह बसाया और उसके भी लड़कों में मोह बसाया है, चार पीढ़ी के मोह में जिसने जीवन खो दिया है वह पुरुष उस सैनी का उपयोग चढ़ने में ही करेगा या उतरने में? क्या उस सैनी का उपयोग उतरने में नहीं हो सकता? बतावो। उसे चढ़ा करके जितनी दूर भेजना चाहते हो उतना ही उतर करके भी वह नीचे पहुंच सकता है। छोड़ों विकल्पजाल को। अपने आप पर कुछ तो दया करो, ममता से सर्वथा नाता तोड़ों।
त्यागोपादानविषयक त्रिविध पदवियां- यहां तीन तरह के जीव बताये हैं। मोही जीव तो बाह्यपदार्थों में त्याग और ग्रहण की खटपट किया करता है और ज्ञानीपुरुष अपने आपके आत्मा में ही रागद्वेष को छोड़ने की और ज्ञानभावना को पकड़ने की कोशिश किया करता है, किंतु जो निष्ठितात्मा है, ज्ञानी है वह न बाहर में कुछ ग्रहण और त्याग करता है, न अंतर में ही कुछ ग्रहण और त्याग करता है। वह तो मात्र ज्ञाता दृष्टा रहा करता है।
त्रिविध आत्मा- जो जीव बाह्यपदार्थों में ही त्याग करने और ग्रहण करने का यत्न करते हैं उन्हें क्या कहते हैं? मिथ्यादृष्टि जीव और जो अपने आत्मा में कुछ ग्रहण करने का और कुछ के त्याग करने का यत्न करते हैं उन्हें क्या कहते हैं- अंतरात्मा सम्यग्दृष्टि जीव। जो न बाहर के पदार्थों में त्याग अथवा ग्रहण करने का विकल्प करते हैं और न अपने आत्मा में कुछ त्याग करने और कुछ ग्रहण करने का विकल्प करते है उन्हें क्या कहते हैं- परमात्मा अथवा सिद्धयोगी या निष्ठितात्मा। अब इन तीनों में पहिचानते जाइये निराकुलता की डिगरियां। अज्ञानी जीव को त्याग करने में भी आकुलता है और ग्रहण करने में भी आकुलता है।
अज्ञानपूर्वक त्याग से स्वपरविपदा- अज्ञानी बहिरात्मा पुरुष ग्रहण करता है वहां तो विपदा में है ही, पर वह छोड़ दे कुछ तो अपने को भी विपदा में डालता है और दूसरे को भी विपदा में डालता है। कोई अज्ञानी पुरुष घर गृहस्थी का त्याग करता तो वह दूसरों को भी दु:खी कर डालता है अपने को तो दु:खी करता ही है। अज्ञानी को कहां शांति है? ग्रहण करे तो अशांति, त्याग करे तो अशांति। अज्ञानी पुरुष किसी वस्तु का ग्रहण करता रहे तो खुद अशांत रहेगा, दूसरों पर भी अच्छा असर न पड़ेगा। अज्ञानी पुरुष यदि त्याग कर बैठे तो समाज के लोग भी उससे परेशान हो जायेंगे, अपने को तो वह दु:खी करेगा ही। यह है अज्ञानियों के त्याग और ग्रहण की स्थिति।
अंतरात्मा द्वारा ग्रहण और त्याग- अब ज्ञानाभ्यास रखने वाले अंतरात्मावों की बात देखो। वे बाहर में त्याग करने और ग्रहण करने की वृत्ति नहीं रखते, किंतु अपने आपमें ही खोजते हैं कि मुझे त्याग करना है रागद्वेष मोह-भावों का और मुझे ग्रहण करना है उस ज्ञानदर्शन सहज स्वभाव का। इस तरह के अंतर के यत्न में, जल्प में, विकल्प में कुछ आकुलता बसी हुई है, अन्यथा इतना परिवर्तन क्यों मचाता? क्रांति वही करता है जिसको किसी प्रकार की अशांति हो। यह आत्मक्रांति की बात है।
निष्ठितात्मा की त्यागग्रहणविषयक वृत्ति- तीसरा आत्मा देखो- जो कृतार्थ है, पूर्ण निष्पन्न है, ऐसा निष्ठितात्मा प्रभु परमात्मा अथवा उत्कृष्ट ध्यान में पहुंचे हुए योगी पुरुष श्रेणी में रहने वाले साधुजन, उनके न आत्मा में त्याग करने, ग्रहण करने का विकल्प होता है और न बाह्य में त्याग और ग्रहण करने का विकल्प होता है। सबसे अच्छे कौन रहे? जिन्हें न भीतर कुछ छोड़ना ग्रहण करना है, न बाहर कुछ छोड़ना ग्रहण करना है।
अब ऐसी उत्कृष्ट असीम अवस्था को यह आत्मा कैसे प्राप्त करे? इसके समाधान में अब पूज्यपाद स्वामी कह रहे हैं।