नय: Difference between revisions
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<p class="HindiText">अनंत धर्मात्मक होने के कारण वस्तु बड़ी जटिल है (देखें [[ अनेकांत#2.4 |अनेकांत-2.4]])। उसको जाना जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। उसे कहने के लिए वस्तु का विश्लेषण करके एक-एक धर्म द्वारा क्रम पूर्वक उसका निरूपण करने के अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है। कौन धर्म को पहले और कौन को पीछे कहा जाये यह भी कोई नियम नहीं है। यथा अवसर ज्ञानी वक्ता स्वयं किसी एक धर्म को मुख्य करके उसका कथन करता है। उस समय उसकी दृष्टि में अन्य धर्म गौण होते हैं पर निषिद्ध नहीं। कोई एक निष्पक्ष श्रोता उस प्ररूपणा को क्रम-पूर्वक सुनता हुआ अंत में वस्तु के यथार्थ अखंड पर्यायार्थिक नय सामान्य निर्देश व्यापकरूप को ग्रहण कर लेता है। अत: गुरु-शिष्य के मध्य यह न्याय अत्यंत उपकारी है। अत: इस न्याय को सिद्धांत रूप से अपनाया जाना न्याय संगत है। यह न्याय श्रोता को वस्तु के निकट ले जाने के कारण ‘नयतीति नय:’ के अनुसार नय कहलाता है। अथवा वक्ता के अभिप्राय को या वस्तु के एकांश ग्राही ज्ञान को नय कहते हैं। संपूर्ण वस्तु के ज्ञान को प्रमाण तथा उसके अंश को नय कहते हैं।<br /> | <p class="HindiText">अनंत धर्मात्मक होने के कारण वस्तु बड़ी जटिल है (देखें [[ अनेकांत#2.4 |अनेकांत-2.4]])। उसको जाना जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। उसे कहने के लिए वस्तु का विश्लेषण करके एक-एक धर्म द्वारा क्रम पूर्वक उसका निरूपण करने के अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है। कौन धर्म को पहले और कौन को पीछे कहा जाये यह भी कोई नियम नहीं है। यथा अवसर ज्ञानी वक्ता स्वयं किसी एक धर्म को मुख्य करके उसका कथन करता है। उस समय उसकी दृष्टि में अन्य धर्म गौण होते हैं पर निषिद्ध नहीं। कोई एक निष्पक्ष श्रोता उस प्ररूपणा को क्रम-पूर्वक सुनता हुआ अंत में वस्तु के यथार्थ अखंड पर्यायार्थिक नय सामान्य निर्देश व्यापकरूप को ग्रहण कर लेता है। अत: गुरु-शिष्य के मध्य यह न्याय अत्यंत उपकारी है। अत: इस न्याय को सिद्धांत रूप से अपनाया जाना न्याय संगत है। यह न्याय श्रोता को वस्तु के निकट ले जाने के कारण ‘नयतीति नय:’ के अनुसार नय कहलाता है। अथवा वक्ता के अभिप्राय को या वस्तु के एकांश ग्राही ज्ञान को नय कहते हैं। संपूर्ण वस्तु के ज्ञान को प्रमाण तथा उसके अंश को नय कहते हैं।<br /> | ||
अनेक धर्मों को युगपत् ग्रहण करने के कारण प्रमाण अनेकांत रूप व सकलादेशी है, तथा एक धर्म के ग्रहण करने के कारण नय एकांत रूप व विकलादेशी है। प्रमाण ज्ञान की अर्थात् अन्य धर्मों की अपेक्षा को बुद्धि में सुरक्षित रखते हुए प्रयोग किया जाने वाला नय ज्ञान या नय वाक्य सम्यक् है और उनकी अपेक्षा को छोड़कर उतनी मात्र ही वस्तु को जानने वाला नय ज्ञान या नय वाक्य मिथ्या है। वक्ता या श्रोता को इस प्रकार की एकांत हठ या पक्षपात करना योग्य नहीं, क्योंकि वस्तु उतनी मात्र है ही नहीं‒देखें [[ एकांत ]]।<br /> | अनेक धर्मों को युगपत् ग्रहण करने के कारण प्रमाण अनेकांत रूप व सकलादेशी है, तथा एक धर्म के ग्रहण करने के कारण नय एकांत रूप व विकलादेशी है। प्रमाण ज्ञान की अर्थात् अन्य धर्मों की अपेक्षा को बुद्धि में सुरक्षित रखते हुए प्रयोग किया जाने वाला नय ज्ञान या नय वाक्य सम्यक् है और उनकी अपेक्षा को छोड़कर उतनी मात्र ही वस्तु को जानने वाला नय ज्ञान या नय वाक्य मिथ्या है। वक्ता या श्रोता को इस प्रकार की एकांत हठ या पक्षपात करना योग्य नहीं, क्योंकि वस्तु उतनी मात्र है ही नहीं‒देखें [[ एकांत ]]।<br /> | ||
यद्यपि वस्तु का व्यापक यथार्थ रूप नयज्ञान का विषय न होने के कारण नयज्ञान का ग्रहण ठीक नहीं, परंतु प्रारंभिक अवस्था में उसका आश्रय परमोपकारी होने कारण वह उपादेय है। फिर भी नय का पक्ष करके विवाद करना योग्य नहीं है। समन्वय की दृष्टि से काम लेना ही | यद्यपि वस्तु का व्यापक यथार्थ रूप नयज्ञान का विषय न होने के कारण नयज्ञान का ग्रहण ठीक नहीं, परंतु प्रारंभिक अवस्था में उसका आश्रय परमोपकारी होने कारण वह उपादेय है। फिर भी नय का पक्ष करके विवाद करना योग्य नहीं है। समन्वय की दृष्टि से काम लेना ही नयज्ञान की उपयोगिता है‒देखें [[ स्याद्वाद ]]।<br /> | ||
पदार्थ तीन कोटियों में विभाजित हैं‒या तो वे अर्थात्मक अर्थात् वस्तुरूप हैं, या शब्दात्मक अर्थात् वाचकरूप हैं (धवला 1/4,1,45/190/7) | पदार्थ तीन कोटियों में विभाजित हैं‒या तो वे अर्थात्मक अर्थात् वस्तुरूप हैं, या शब्दात्मक अर्थात् वाचकरूप हैं <span class="GRef">(धवला 1/4,1,45/190/7)</span> | ||
और या ज्ञानात्मक अर्थात् प्रतिभास रूप हैं। अत: उन-उनको विषय करने के कारण नय ज्ञान व नय वाक्य भी तीन प्रकार के हैं‒अर्थनय, शब्दनय व ज्ञाननय। मुख्य गौण विवक्षा के कारण वक्ता के अभिप्राय भी अनेक प्रकार के होते हैं, जिससे नय भी अनेक प्रकार के हैं। वस्तु के सामान्यांश अर्थात् द्रव्य को विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिक और उसके विशेषांश अर्थात् पर्याय को विषय करने वाला नय पर्यायार्थिक होता है। इन दो मूल भेदों के भी आगे अनेकों उत्तरभेद हो जाते हैं। इसी प्रकार वस्तु के अंतरंग रूप या स्वभाव को विषय करने वाला निश्चय और उसके बाह्य या संयोगी रूप को विषय करने वाला नय व्यवहार कहलाता है अथवा गुण-गुणी में अभेद को विषय करने वाला निश्चय और उनमें कथंचित् भेद को विषय करने वाला व्यवहार कहलाता है। तथा इसी प्रकार अन्य भेद-प्रभेदों का यह नयचक्र उतना ही जटिल है जितनी कि उसकी विषयभूत वस्तु। उस सबका परिचय इस अधिकार में दिया जायेगा।<br /> | और या ज्ञानात्मक अर्थात् प्रतिभास रूप हैं। अत: उन-उनको विषय करने के कारण नय ज्ञान व नय वाक्य भी तीन प्रकार के हैं‒अर्थनय, शब्दनय व ज्ञाननय। मुख्य गौण विवक्षा के कारण वक्ता के अभिप्राय भी अनेक प्रकार के होते हैं, जिससे नय भी अनेक प्रकार के हैं। वस्तु के सामान्यांश अर्थात् द्रव्य को विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिक और उसके विशेषांश अर्थात् पर्याय को विषय करने वाला नय पर्यायार्थिक होता है। इन दो मूल भेदों के भी आगे अनेकों उत्तरभेद हो जाते हैं। इसी प्रकार वस्तु के अंतरंग रूप या स्वभाव को विषय करने वाला निश्चय और उसके बाह्य या संयोगी रूप को विषय करने वाला नय व्यवहार कहलाता है अथवा गुण-गुणी में अभेद को विषय करने वाला निश्चय और उनमें कथंचित् भेद को विषय करने वाला व्यवहार कहलाता है। तथा इसी प्रकार अन्य भेद-प्रभेदों का यह नयचक्र उतना ही जटिल है जितनी कि उसकी विषयभूत वस्तु। उस सबका परिचय इस अधिकार में दिया जायेगा।<br /> | ||
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<li><strong> [[नय#I | नय सामान्य]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#I | नय सामान्य]]</strong><br /> | ||
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<li><strong> [[नय#I.1 | नय सामान्य निर्देश]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#I.1 | नय सामान्य निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[नय#I.1.1 | नय सामान्य का लक्षण]]<br /> | |||
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<li> [[नय#I.1.1.1 | निरुक्त्यर्थ।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.1.1.1 | निरुक्त्यर्थ।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#I.1.1.2 | वक्ता का अभिप्राय।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.1.1.2 | वक्ता का अभिप्राय।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#I.1.1.3 | एकदेश वस्तुग्राही।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.1.1.3 | एकदेश वस्तुग्राही।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#I.1.1.4 | प्रमाणगृहीत वस्त्वंशग्राही।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.1.1.4 | प्रमाणगृहीत वस्त्वंशग्राही।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#I.1.1.5 | श्रुतज्ञान का विकल्प।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.1.1.5 | श्रुतज्ञान का विकल्प।]]<br /></li> | ||
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<li> [[नय#I.1.2 | उपरोक्त लक्षणों का समीकरण।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.1.2 | उपरोक्त लक्षणों का समीकरण।]]<br /></li> | ||
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<li> नय व निक्षेप में अंतर।‒देखें [[ निक्षेप#1 | निक्षेप - 1]]<br /></li> | <li class="HindiText"> नय व निक्षेप में अंतर।‒देखें [[ निक्षेप#1 | निक्षेप - 1]]<br /></li> | ||
<li> नयों व निक्षेपों का परस्पर अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#2 | निक्षेप - 2]],[[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]<br /></li> | <li class="HindiText"> नयों व निक्षेपों का परस्पर अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#2 | निक्षेप - 2]],[[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]<br /></li> | ||
<li> नयाभास निर्देश।‒देखें [[नय#II.4| नय - II.4]]।<br /></li> | <li class="HindiText"> नयाभास निर्देश।‒देखें [[नय#II.4| नय - II.4]]।<br /></li> | ||
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<li> [[नय#I.1.3 | नय के मूल भेदों के नाम निर्देश।]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.1.3 | नय के मूल भेदों के नाम निर्देश।]]</li> | ||
<li> [[नय#I.1.4 | नय के भेद-प्रभेदों की सूची।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.1.4 | नय के भेद-प्रभेदों की सूची।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#I.1.5 | द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक अथवा निश्चय व्यवहार, ये ही मूल भेद हैं।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.1.5 | द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक अथवा निश्चय व्यवहार, ये ही मूल भेद हैं।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#I.1.6 | गुणार्थिक नय का निर्देश क्यों नहीं ? ]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.1.6 | गुणार्थिक नय का निर्देश क्यों नहीं ? ]]<br /></li> | ||
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<ul><li> आगम व अध्यात्म पद्धति।‒देखें [[ पद्धति ]]।<br /></li></ul> | <ul><li class="HindiText"> आगम व अध्यात्म पद्धति।‒देखें [[ पद्धति ]]।<br /></li></ul> | ||
<li><strong>[[नय#I.2 | नय-प्रमाण संबंध]]</strong><br /></li> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#I.2 | नय-प्रमाण संबंध]]</strong><br /></li> | ||
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<li> [[नय#I.2.1 | नय व प्रमाण में कथंचित् अभेद।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.1 | नय व प्रमाण में कथंचित् अभेद।]] <br /></li> | ||
<li> [[नय#I.2.2 | नय व प्रमाण में कथंचित् भेद।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.2 | नय व प्रमाण में कथंचित् भेद।]] <br /></li> | ||
<li> [[नय#I.2.3 | श्रुतज्ञान में ही नय होती है, अन्य ज्ञानों में नहीं।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.3 | श्रुतज्ञान में ही नय होती है, अन्य ज्ञानों में नहीं।]] <br /></li> | ||
<li> [[नय#I.2.4 | प्रमाण व नय में कथंचित् प्रधान व अप्रधानपना।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.4 | प्रमाण व नय में कथंचित् प्रधान व अप्रधानपना।]] <br /></li> | ||
<li> [[नय#I.2.5 | प्रमाण का विषय सामान्य विशेष दोनों है।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.5 | प्रमाण का विषय सामान्य विशेष दोनों है।]] <br /></li> | ||
<li> [[नय#I.2.6 | प्रमाण अनेकांतग्राही है और नय एकांतग्राही।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.6 | प्रमाण अनेकांतग्राही है और नय एकांतग्राही।]] <br /></li> | ||
<li> [[नय#I.2.7 | प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.7 | प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी।]] <br /></li> | ||
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<li> नय भी कथंचित् सकलादेशी है।‒देखें [[ सप्तभंगी#2.1 | सप्तभंगी - 2.1]]।<br /></li> | <li class="HindiText"> नय भी कथंचित् सकलादेशी है।‒देखें [[ सप्तभंगी#2.1 | सप्तभंगी - 2.1]]।<br /></li> | ||
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<li> [[नय#I.2.8 | प्रमाण सकल वस्तु ग्राहक है और नय तदंश ग्राहक।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.8 | प्रमाण सकल वस्तु ग्राहक है और नय तदंश ग्राहक।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#I.2.9 | प्रमाण सब धर्मों को युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रम से एक एक को।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.9 | प्रमाण सब धर्मों को युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रम से एक एक को।]]<br /></li> | ||
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<li> सकल नयों का युगपत् ग्रहण ही सकल वस्तु ग्रहण है।‒देखें [[ अनेकांत#2.2 | अनेकांत - 2.2]]<br /></li> | <li class="HindiText"> सकल नयों का युगपत् ग्रहण ही सकल वस्तु ग्रहण है।‒देखें [[ अनेकांत#2.2 | अनेकांत - 2.2]]<br /></li> | ||
<li> प्रमाण सापेक्ष ही नय सम्यक् है।‒देखें [[ नय#II.10 | नय - II.10]]<br /></li> | <li class="HindiText"> प्रमाण सापेक्ष ही नय सम्यक् है।‒देखें [[ नय#II.10 | नय - II.10]]<br /></li> | ||
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<li> [[नय#I.2.10 |प्रमाण स्यात् पदयुक्त होने से सर्वनयात्मक होता है।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.10 |प्रमाण स्यात् पदयुक्त होने से सर्वनयात्मक होता है।]]<br /></li> | ||
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<li> प्रमाण व नय सप्तभंगी‒देखें [[ सप्तभंगी#2.1 | सप्तभंगी - 2.1]]।<br /> | <li class="HindiText"> प्रमाण व नय सप्तभंगी‒देखें [[ सप्तभंगी#2.1 | सप्तभंगी - 2.1]]।<br /> | ||
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<li> [[नय#I.2.11 |प्रमाण व नय के उदाहरण।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.11 |प्रमाण व नय के उदाहरण।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#I.2.12 |नय के एकांतग्राही होने में शंका।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#I.2.12 |नय के एकांतग्राही होने में शंका।]]<br /></li> | ||
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<li><strong>[[नय#I.3 | नय की कथंचित् हेयोपादेयता]]</strong><br /> | <li><strong>[[नय#I.3 | नय की कथंचित् हेयोपादेयता]]</strong><br /> | ||
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<li>[[नय#I.3.1 | तत्त्व नयपक्षों से अतीत है।]] <br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.3.1 | तत्त्व नयपक्षों से अतीत है।]] <br /></li> | ||
<li>[[नय#I.3.2 | नयपक्ष कथंचित् हेय है।]] <br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.3.2 | नयपक्ष कथंचित् हेय है।]] <br /></li> | ||
<li>[[नय#I.3.3 | नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं।]] <br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.3.3 | नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं।]] <br /></li> | ||
<li>[[नय#I.3.4 | नयपक्ष को हेय कहने का कारण प्रयोजन।]] <br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.3.4 | नयपक्ष को हेय कहने का कारण प्रयोजन।]] <br /></li> | ||
<li>[[नय#I.3.5 | परमार्थत: निश्चय व व्यवहार दोनों का पक्ष विकल्परूप होने से हेय है।]] <br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.3.5 | परमार्थत: निश्चय व व्यवहार दोनों का पक्ष विकल्परूप होने से हेय है।]] <br /></li> | ||
<li>[[नय#I.3.6 | प्रत्यक्षानुभूति के समय निश्चय व्यवहार के विकल्प नहीं रहते।]] <br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.3.6 | प्रत्यक्षानुभूति के समय निश्चय व्यवहार के विकल्प नहीं रहते।]] <br /></li> | ||
<li>[[नय#I.3.7 | परंतु तत्त्वनिर्णयार्थ नय कार्यकारी है।]] <br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.3.7 | परंतु तत्त्वनिर्णयार्थ नय कार्यकारी है।]] <br /></li> | ||
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<li> आगम का अर्थ करने में नय का स्थान।‒देखें [[ आगम#3.3 | आगम - 3.3]]।<br /> | <li class="HindiText"> आगम का अर्थ करने में नय का स्थान।‒देखें [[ आगम#3.3 | आगम - 3.3]]।<br /> | ||
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<li>[[नय#I.3.8 | सम्यक् नय ही कार्यकारी है मिथ्या नय नहीं।]] <br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.3.8 | सम्यक् नय ही कार्यकारी है मिथ्या नय नहीं।]] <br /></li> | ||
<li>[[नय#I.3.9 | निरपेक्ष नय भी कथंचित् कार्यकारी है।]] <br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.3.9 | निरपेक्ष नय भी कथंचित् कार्यकारी है।]] <br /></li> | ||
<li>[[नय#I.3.10 | नयपक्ष की हेयोपादेयता का समन्वय।]] <br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.3.10 | नयपक्ष की हेयोपादेयता का समन्वय।]] <br /></li> | ||
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<li><strong>[[नय#I.4 | शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#I.4 | शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li>[[नय#I.4.1 | शब्द अर्थ ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.4.1 | शब्द अर्थ ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं।]]<br /></li> | ||
<li>[[नय#I.4.2 | शब्दादि नयनिर्देश व लक्षण।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.4.2 | शब्दादि नयनिर्देश व लक्षण।]]<br /></li> | ||
<li>[[नय#I.4.3 | वास्तव में नय ज्ञानात्मक ही है शब्दादिक को नय कहना उपचार है।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#I.4.3 | वास्तव में नय ज्ञानात्मक ही है शब्दादिक को नय कहना उपचार है।]]<br /></li> | ||
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<li> शब्द में प्रमाण व नयपना।‒देखें [[ आगम#4.6 | आगम - 4.6]]।<br /> | <li class="HindiText"> शब्द में प्रमाण व नयपना।‒देखें [[ आगम#4.6 | आगम - 4.6]]।<br /> | ||
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<li>[[नय#I.4.4 | तीनों नयों में परस्पर संबंध।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#I.4.4 | तीनों नयों में परस्पर संबंध।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> शब्द में अर्थ प्रतिपादन की योग्यता।‒देखें [[ आगम#4.1 | आगम - 4.1]]।<br /> | |||
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<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li>[[नय#I.4.5 | शब्दनय का विषय।]]‒देखें [[ नय#III.1.9 | नय - III.1.9]]।<br /> | <li class="HindiText">[[नय#I.4.5 | शब्दनय का विषय।]]‒देखें [[ नय#III.1.9 | नय - III.1.9]]।<br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li> शब्दनय की विशेषताएँ‒देखें [[ नय#III.6 | नय - III.6]],[[ नय#III.7 | 7]],[[ नय#III.8 | 8]] ।<br /> | <li class="HindiText"> शब्दनय की विशेषताएँ‒देखें [[ नय#III.6 | नय - III.6]],[[ नय#III.7 | 7]],[[ नय#III.8 | 8]] ।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="6"> | <ol start="6"> | ||
<li class="HindiText">[[नय#I.4.6 | शब्दादि नयों के उदाहरण।]]<br /> | |||
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<ul> | <ul> | ||
<li> नय प्रयोग शब्द में नहीं भाव में होता है‒देखें [[ स्याद्वाद#4 | स्याद्वाद - 4 ]] ।<br /> | <li class="HindiText"> नय प्रयोग शब्द में नहीं भाव में होता है‒देखें [[ स्याद्वाद#4 | स्याद्वाद - 4 ]] ।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="7"> | <ol start="7"> | ||
<li>[[नय#I.4.7| द्रव्यनय व भावनय निर्देश।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#I.4.7| द्रव्यनय व भावनय निर्देश।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><strong>[[नय#I.5 | अन्य अनेकों नयों का निर्देश]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#I.5 | अन्य अनेकों नयों का निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li> [[नय#I.5.1 | भूत भावि आदि प्रज्ञापन नय निर्देश।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#I.5.1 | भूत भावि आदि प्रज्ञापन नय निर्देश।]] <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#I.5.2 | अस्तित्वादि सप्तभंगी नयों का निर्देश।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#I.5.2 | अस्तित्वादि सप्तभंगी नयों का निर्देश।]] <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#I.5.3 | नामादि निक्षेपरूप नयों का निर्देश।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#I.5.3 | नामादि निक्षेपरूप नयों का निर्देश।]] <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> [[नय#I.5.4 | सामान्य-विशेष आदि धर्मोंरूप 47 नयों का निर्देश।]] <br /> | |||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#I.5.5 | अनंत नय होने संभव हैं।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#I.5.5 | अनंत नय होने संभव हैं।]] <br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<li> उपचरित नय‒देखें [[ उपचार ]]।<br /> | <li class="HindiText"> उपचरित नय‒देखें [[ उपचार ]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> उपनय‒देखें [[ नय#V.4.8 | नय - V.4.8]]।<br /> | <li class="HindiText"> उपनय‒देखें [[ नय#V.4.8 | नय - V.4.8]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> काल अकाल नय का समन्वय‒देखें [[ नियति#2 | नियति - 2]]।<br /> | <li class="HindiText"> काल अकाल नय का समन्वय‒देखें [[ नियति#2 | नियति - 2]]।<br /> | ||
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<li> ज्ञान व क्रियानय का समन्वय‒देखें [[ चेतना#3.8 | चेतना - 3.8]]।<br /> | <li class="HindiText"> ज्ञान व क्रियानय का समन्वय‒देखें [[ चेतना#3.8 | चेतना - 3.8]]।<br /> | ||
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<li><strong> [[ नय#II |सम्यक् व मिथ्यानय ]]</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong> [[ नय#II |सम्यक् व मिथ्यानय ]]</strong> <br /> | ||
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<li>[[नय#II.1 | नय सम्यक् भी होती है और मिथ्या भी।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#II.1 | नय सम्यक् भी होती है और मिथ्या भी।]]<br /> | ||
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<li>[[नय#II.2 | सम्यक् व मिथ्या नयों के लक्षण।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#II.2 | सम्यक् व मिथ्या नयों के लक्षण।]]<br /> | ||
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<li> [[नय#II.3 |अन्य पक्ष का निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होती।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#II.3 |अन्य पक्ष का निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होती।]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[नय#II.4 |अन्य पक्ष का निषेध करने से ही मिथ्या है।]]<br /> | |||
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<li> [[नय#II.5 |अन्य पक्ष का संग्रह करने पर वह नय सम्यक् है।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#II.5 |अन्य पक्ष का संग्रह करने पर वह नय सम्यक् है।]]<br /> | ||
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<li> सर्व एकांत मत किसी न किसी नय में गर्भित हैं। और सर्व नय अनेकांत के गर्भ में समाविष्ट है।‒देखें [[ अनेकांत#2.6 |अनेकांत - 2.6 ]] ।<br /> | <li class="HindiText"> सर्व एकांत मत किसी न किसी नय में गर्भित हैं। और सर्व नय अनेकांत के गर्भ में समाविष्ट है।‒देखें [[ अनेकांत#2.6 |अनेकांत - 2.6 ]] ।<br /> | ||
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<li>[[नय#II.6 | जो नय सर्वथा के कारण मिथ्या है वही कथंचित् के कारण सम्यक् है।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#II.6 | जो नय सर्वथा के कारण मिथ्या है वही कथंचित् के कारण सम्यक् है।]]<br /> | ||
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<li> [[नय#II.7 |सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या है।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#II.7 |सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या है।]]<br /> | ||
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<li> नयों के विरोध में अविरोध।‒देखें [[ अनेकांत#5 | अनेकांत - 5 ]]।<br /> | <li class="HindiText"> नयों के विरोध में अविरोध।‒देखें [[ अनेकांत#5.6 | अनेकांत - 5.6 ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नयों में परस्पर विधि निषेध।‒देखें [[ सप्तभंगी#3.5 | सप्तभंगी - 3.5]]।<br /> | |||
</li> | </li> | ||
<li> सापेक्षता व मुख्यगौण व्यवस्था।‒देखें [[ स्याद्वाद#3 | स्याद्वाद - 3 ]]।<br /> | <li class="HindiText"> सापेक्षता व मुख्यगौण व्यवस्था।‒देखें [[ स्याद्वाद#3 | स्याद्वाद - 3 ]]।<br /> | ||
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<li>[[नय#II.8 | मिथ्यानय निर्देश का कारण व प्रयोजन।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#II.8 | मिथ्यानय निर्देश का कारण व प्रयोजन।]]<br /> | ||
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<li>[[नय#II.9 | सम्यग्दृष्टि की नय सम्यक् तथा मिथ्यादृष्टि की मिथ्या है।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#II.9 | सम्यग्दृष्टि की नय सम्यक् तथा मिथ्यादृष्टि की मिथ्या है।]]<br /> | ||
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<li> [[नय#II.10 |प्रमाणज्ञान होने के पश्चात् ही नय प्रवृत्ति सम्यक् होती है, उसके बिना नहीं।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#II.10 |प्रमाणज्ञान होने के पश्चात् ही नय प्रवृत्ति सम्यक् होती है, उसके बिना नहीं।]]<br /> | ||
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<li><strong>[[नय#III | नैगम आदि सात नय निर्देश]]</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#III | नैगम आदि सात नय निर्देश]]</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText">नय के सात भेदों का नाम निर्देश।‒देखें [[ नय#I.1.3 | नय - I.1.3]]।<br /> | |||
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<li>[[नय#III.1.1 | सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग।]] <br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.1.1 | सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग।]] <br /> | ||
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<li> [[नय#III.1.2 |इनमें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक विभाग का कारण।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.1.2 |इनमें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक विभाग का कारण।]] <br /> | ||
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<li> [[नय#III.1.3 |सातों में अर्थ, शब्द व ज्ञान नय विभाग।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.1.3 |सातों में अर्थ, शब्द व ज्ञान नय विभाग।]] <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#III.1.4 |इनमें अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.1.4 |इनमें अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण।]] <br /> | ||
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<li> [[नय#III.1.5 |नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं है।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.1.5 |नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं है।]] <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#III.1.6 |पूर्व पूर्व का नय अगले अगले नय का कारण है।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.1.6 |पूर्व पूर्व का नय अगले अगले नय का कारण है।]] <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#III.1.7 |सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.1.7 |सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता।]] <br /> | ||
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<li> [[नय#III.1.8 |सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.1.8 |सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण।]] <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#III.1.9 |शब्दादि तीन नयों में परस्पर अंतर।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.1.9 |शब्दादि तीन नयों में परस्पर अंतर।]] <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong> [[नय#III.2 | नैगमनय के भेद व लक्षण]]</strong><br /> | |||
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<li> [[नय#III.2.1 | नैगम सामान्य का लक्षण‒(संकल्पग्राही तथा द्वैतग्राही)]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.1 | नैगम सामान्य का लक्षण‒(संकल्पग्राही तथा द्वैतग्राही)]]<br /> | ||
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<li> [[नय#III.2.2 | संकल्पग्राही लक्षण विषयक उदाहरण।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.2 | संकल्पग्राही लक्षण विषयक उदाहरण।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#III.2.3 | द्वैतग्राही लक्षण विषयक उदाहरण।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.3 | द्वैतग्राही लक्षण विषयक उदाहरण।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#III.2.4 | नैगमनय के भेद।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.4 | नैगमनय के भेद।]]<br /> | ||
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<li> [[नय#III.2.5 | भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.5 | भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण।]]<br /> | ||
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<li> [[नय#III.2.6 | भूत भावी वर्तमान नैगमनय के उदाहरण।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.6 | भूत भावी वर्तमान नैगमनय के उदाहरण।]]<br /> | ||
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<li> [[नय#III.2.7 | पर्याय द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्य का लक्षण।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.7 | पर्याय द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्य का लक्षण।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#III.2.8 | द्रव्य पर्याय आदि नैगमनय के भेदों के लक्षण व उदाहरण]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.8 | द्रव्य पर्याय आदि नैगमनय के भेदों के लक्षण व उदाहरण]]<br /> | ||
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<li> [[नय#III.2.8.1 | अर्थ व्यंजन व तदुभय पर्याय नैगम।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.8.1 | अर्थ व्यंजन व तदुभय पर्याय नैगम।]] <br /> | ||
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<li>[[नय#III.2.8.2 | शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य नैगम।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.8.2 | शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य नैगम।]] <br /> | ||
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<li>[[नय#III.2.8.3 | शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यपर्याय नैगम।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.8.3 | शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यपर्याय नैगम।]] <br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<li> [[नय#III.2.9 | नैगमाभास सामान्य का लक्षण व उदाहरण।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.9 | नैगमाभास सामान्य का लक्षण व उदाहरण।]] <br /> | ||
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<li> न्याय वैशेषिक नैगमाभासी हैं।‒देखें [[ अनेकांत#2.9 | अनेकांत - 2.9 ]] । <br /> | <li class="HindiText"> न्याय वैशेषिक नैगमाभासी हैं।‒देखें [[ अनेकांत#2.9 | अनेकांत - 2.9 ]] । <br /> | ||
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<ol start="10"> | <ol start="10"> | ||
<li>[[नय#III.2.10 | नैगमाभास विशेषों के लक्षण व उदाहरण।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.2.10 | नैगमाभास विशेषों के लक्षण व उदाहरण।]] <br /> | ||
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<li><strong> [[नय#III.3 | नैगमनय निर्देश]]</strong> <br /></li> | <li class="HindiText"> <strong> [[नय#III.3 | नैगमनय निर्देश]]</strong> <br /></li> | ||
<ul><li> नैगमनय अर्थनय व ज्ञाननय है।‒देखें [[ नय#III.1 | नय - III.1]]।<br /></li></ul> | <ul><li class="HindiText"> नैगमनय अर्थनय व ज्ञाननय है।‒देखें [[ नय#III.1.3 | नय-III.1.3]]।<br /></li></ul> | ||
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<li> [[नय#III.3.1 | नैगमनय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#III.3.1 | नैगमनय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।]] <br /></li> | ||
<li> [[नय#III.3.2 |शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नैगमनय के पेट में समा जाती है।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#III.3.2 |शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नैगमनय के पेट में समा जाती है।]] <br /></li> | ||
<li> [[नय#III.3.3 | नैगम तथा संग्रह व व्यवहारनय में अंतर।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#III.3.3 | नैगम तथा संग्रह व व्यवहारनय में अंतर।]] <br /></li> | ||
<li> [[नय#III.3.4 | नैगमनय व प्रमाण में अंतर।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#III.3.4 | नैगमनय व प्रमाण में अंतर।]] <br /></li> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li> इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव‒देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]। <br /></li> | <li class="HindiText"> इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव‒देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]। <br /></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li> [[नय#III.3.5 | भावी नैगमनय निश्चित अर्थ में लागू होता है।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#III.3.5 | भावी नैगमनय निश्चित अर्थ में लागू होता है।]] <br /></li> | ||
<li> [[नय#III.3.6 |कल्पना मात्र होते हुए भी भावी नैगमनय व्यर्थ नहीं है।]] <br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#III.3.6 |कल्पना मात्र होते हुए भी भावी नैगमनय व्यर्थ नहीं है।]] <br /></li> | ||
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<li><strong>[[नय#III.4 | संग्रहनय निर्देश]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#III.4 | संग्रहनय निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li>[[नय#III.4.1 | संग्रहनय का लक्षण।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.4.1 | संग्रहनय का लक्षण।]]<br /> | ||
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<li>[[नय#III.4.2 | संग्रहनय के उदाहरण।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.4.2 | संग्रहनय के उदाहरण।]]<br /> | ||
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<li> संग्रहनय अर्थनय है।‒ देखें [[नय#III.1 |नय - III.1]]।<br /> | <li class="HindiText"> संग्रहनय अर्थनय है।‒ देखें [[नय#III.1.3 |नय - III.1.3]]।<br /> | ||
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<li> इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]।<br /> | <li class="HindiText"> इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]।<br /> | ||
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<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li>[[नय#III.4.3 | संग्रहनय के भेद।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.4.3 | संग्रहनय के भेद।]]<br /> | ||
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<li> [[नय#III.4.4 | पर, अपर तथा सामान्य विशेषरूप भेदों के लक्षण व उदाहरण।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.4.4 | पर, अपर तथा सामान्य विशेषरूप भेदों के लक्षण व उदाहरण।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> इस नय के विषय की अद्वैतता।‒देखें [[ नय#IV.2.3 | नय - IV.2.3]]।<br /> | <li class="HindiText"> इस नय के विषय की अद्वैतता।‒देखें [[ नय#IV.2.3 | नय - IV.2.3]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> दर्शनोपयोग व संग्रहनय में अंतर।‒देखें [[ दर्शन#2.10 | दर्शन - 2.10]]।<br /> | <li class="HindiText"> दर्शनोपयोग व संग्रहनय में अंतर।‒देखें [[ दर्शन#2.10 | दर्शन - 2.10]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li>[[नय#III.4.5 | संग्रहाभास के लक्षण व उदाहरण।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.4.5 | संग्रहाभास के लक्षण व उदाहरण।]]<br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li> वेदांती व सांख्यमती संग्रहनयाभासी हैं।‒देखें [[ अनेकांत#2.9|अनेकांत -2.9 ]]।<br /> | <li class="HindiText"> वेदांती व सांख्यमती संग्रहनयाभासी हैं।‒देखें [[ अनेकांत#2.9|अनेकांत -2.9 ]]।<br /> | ||
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<ol start="6"> | <ol start="6"> | ||
<li> [[नय#III.4.6 | संग्रहनय शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.4.6 | संग्रहनय शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<li> व्यवहारनय निर्देश‒देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]]।<br /> | <li class="HindiText"> व्यवहारनय निर्देश‒देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<li><strong>[[नय#III.5 | ऋजुसूत्रनय निर्देश]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#III.5 | ऋजुसूत्रनय निर्देश]]</strong><br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li> [[नय#III.5.1 | ऋजुसूत्र नय का लक्षण।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.5.1 | ऋजुसूत्र नय का लक्षण।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li>[[नय#III.5.2 | ऋजुसूत्रनय के भेद।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.5.2 | ऋजुसूत्रनय के भेद।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li>[[नय#III.5.3 | सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र के लक्षण।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.5.3 | सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र के लक्षण।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> इस नय के विषय की एकत्वता।‒देखें [[ नय#IV.3 | नय - IV.3]]।<br /> | <li class="HindiText"> इस नय के विषय की एकत्वता।‒देखें [[ नय#IV.3 | नय - IV.3]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li>[[नय#III.5.4 | ऋजुसूत्राभास का लक्षण।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.5.4 | ऋजुसूत्राभास का लक्षण।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> बौद्धमत ऋजुसूत्राभासी है।‒देखें [[ अनेकांत#2.9 | अनेकांत - 2.9 ]]।<br /> | <li class="HindiText"> बौद्धमत ऋजुसूत्राभासी है।‒देखें [[ अनेकांत#2.9 | अनेकांत - 2.9 ]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> ऋजुसूत्र नय अर्थनय है।‒देखें [[ नय#III.1 | नय - III.1]] ।<br /> | <li class="HindiText"> ऋजुसूत्र नय अर्थनय है।‒देखें [[ नय#III.1 | नय - III.1]] ।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li class="HindiText">[[नय#III.5.5 | ऋजुसूत्र नय शुद्धपर्यायार्थिक है।]]<br /> | |||
</li> | </li> | ||
<li>[[नय#III.5.6 | इसे कथंचित् द्रव्यार्थिक कहने का विधि निषेध।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.5.6 | इसे कथंचित् द्रव्यार्थिक कहने का विधि निषेध।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li>[[नय#III.5.7 | सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वर्तमान काल का प्रमाण।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.5.7 | सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वर्तमान काल का प्रमाण।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> व्यवहारनय व ऋजुसूत्र में अंतर।‒देखें [[ नय#V.4.3 | नय - V.4.3]] ।<br /> | <li class="HindiText"> व्यवहारनय व ऋजुसूत्र में अंतर।‒देखें [[ नय#V.4.3 | नय - V.4.3]] ।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> इसमें यथा संभव निक्षपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]।<br /> | <li class="HindiText"> इसमें यथा संभव निक्षपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<li><strong> [[नय#III.6 | शब्दनय निर्देश]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#III.6 | शब्दनय निर्देश]]</strong><br /> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> [[नय#III.6.1 | शब्दनय का सामान्य लक्षण।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.6.1 | शब्दनय का सामान्य लक्षण।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> शब्द नय के विषय की एकत्वता।‒देखें [[ नय#IV.3 | नय - IV.3]]।<br /> | <li class="HindiText"> शब्द नय के विषय की एकत्वता।‒देखें [[ नय#IV.3 | नय - IV.3]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> शब्द प्रयोग की भेद व अभेदरूप दो अपेक्षाएँ।‒देखें [[ नय#III.1.9 | नय - III.1.9]]।<br /> | <li class="HindiText"> शब्द प्रयोग की भेद व अभेदरूप दो अपेक्षाएँ।‒देखें [[ नय#III.1.9 | नय - III.1.9]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li>[[नय#III.6.2 | अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.6.2 | अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li>[[नय#III.6.3 | पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में अभेद मानता है।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.6.3 | पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में अभेद मानता है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#III.6.4 | पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंगादि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#III.6.4 | पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंगादि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता।]]<br /> | ||
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<li> ऋजुसूत्र व शब्दनय में अंतर।<br /> | <li class="HindiText"> ऋजुसूत्र व शब्दनय में अंतर।<br /> | ||
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<li> यह पर्यायार्थिक तथा व्यंजननय है।‒देखें [[ नय#III.1 | नय - III.1]]।<br /> | <li class="HindiText"> यह पर्यायार्थिक तथा व्यंजननय है।‒देखें [[ नय#III.1 | नय - III.1]]।<br /> | ||
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<li> इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]।<br /> | <li class="HindiText"> इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[नय#III.6.6 | लिंगादि के व्यभिचार का तात्पर्य।]]<br /> | |||
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<li>[[नय#III.6.7 | उक्त व्यभिचारों में दोष प्रदर्शन।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.6.7 | उक्त व्यभिचारों में दोष प्रदर्शन।]]<br /> | ||
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<li> शब्द में अर्थ प्रतिपादन की योग्यता।‒देखें [[ आगम#4.1 | आगम - 4.1]]।<br /> | <li class="HindiText"> शब्द में अर्थ प्रतिपादन की योग्यता।‒देखें [[ आगम#4.1 | आगम - 4.1]]।<br /> | ||
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<li>[[नय#III.6.8 | सर्व प्रयोगों को दूषित बताने से व्याकरण शास्त्र के साथ विरोध आता है?।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#III.6.8 | सर्व प्रयोगों को दूषित बताने से व्याकरण शास्त्र के साथ विरोध आता है?।]]<br /> | ||
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<li><strong> [[नय#III.7 | समभिरूढनय निर्देश]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#III.7 | समभिरूढनय निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li>[[नय#III.7.1 | समभिरूढनय के लक्षण]]‒ | <li class="HindiText">[[नय#III.7.1 | समभिरूढनय के लक्षण]]‒ | ||
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<li>[[नय#III.7.1.1 | अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढशब्द का प्रयोग) ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#III.7.1.1 | अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढशब्द का प्रयोग) ]] </li> | ||
<li>[[नय#III.7.1.2 | शब्दभेद से अर्थभेद। ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#III.7.1.2 | शब्दभेद से अर्थभेद। ]] </li> | ||
<li>[[नय#III.7.1.3 | वस्तु का निज स्वरूप में रूढ करना। ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#III.7.1.3 | वस्तु का निज स्वरूप में रूढ करना। ]] </li> | ||
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<li> इस नय के विषय की एकत्वता।‒देखें [[ नय#IV.3 | नय - IV.3]]। </li> | <li class="HindiText"> इस नय के विषय की एकत्वता।‒देखें [[ नय#IV.3 | नय - IV.3]]। </li> | ||
<li> शब्द प्रयोग की भेद-अभेद रूप दो अपेक्षाएँ।‒दे. [[नय#III.1.9 | नय - III.1.9]]</li> | <li class="HindiText"> शब्द प्रयोग की भेद-अभेद रूप दो अपेक्षाएँ।‒दे. [[नय#III.1.9 | नय - III.1.9]]</li> | ||
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<li>[[नय#III.7.2 | यद्यपि रूढ़िगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#III.7.2 | यद्यपि रूढ़िगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं।]]</li> | ||
<li>[[नय#III.7.3 | परंतु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं होते।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#III.7.3 | परंतु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं होते।]]</li> | ||
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<li> शब्द वस्तु का धर्म नहीं है, तब उसके भेद से अर्थभेद कैसे हो सकता है? ‒देखें [[ आगम#4.4 | आगम - 4.4]]। </li> | <li class="HindiText"> शब्द वस्तु का धर्म नहीं है, तब उसके भेद से अर्थभेद कैसे हो सकता है? ‒देखें [[ आगम#4.4 | आगम - 4.4]]। </li> | ||
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<li>[[नय#III.7.4 | शब्द व समभिरूढ़ नय में अंतर।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#III.7.4 | शब्द व समभिरूढ़ नय में अंतर।]]</li> | ||
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<li> यह पर्यायार्थिक शब्दनय है।‒देखें [[ नय#III.1 | नय - III.1]]। </li> | <li class="HindiText"> यह पर्यायार्थिक शब्दनय है।‒देखें [[ नय#III.1 | नय - III.1]]। </li> | ||
<li class="HindiText"> इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]। </li> | |||
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<li> वैयाकरणी समभिरूढ़ नयाभासी हैं।‒देखें [[ अनेकांत#2.9 | अनेकांत - 2.9 ]]। </li> | <li class="HindiText"> वैयाकरणी समभिरूढ़ नयाभासी हैं।‒देखें [[ अनेकांत#2.9 | अनेकांत - 2.9 ]]। </li> | ||
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<li><strong>[[नय#III.8 | एवंभूत नय निर्देश ]]</strong></li> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#III.8 | एवंभूत नय निर्देश ]]</strong></li> | ||
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<li>[[नय#III.8.1 | तत्क्रिया परिणत द्रव्य ही शब्द का वाच्य है। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#III.8.1 | तत्क्रिया परिणत द्रव्य ही शब्द का वाच्य है। ]]</li> | ||
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<li> सभी शब्द क्रियावाची हैं।‒देखें [[ नाम ]]। </li> | <li class="HindiText"> सभी शब्द क्रियावाची हैं।‒देखें [[ नाम ]]। </li> | ||
<li> शब्द प्रयोग की भेद-अभेद रूप दो अपेक्षाएँ।‒देखें [[ नय#III.1.9 | नय - III.1.9]]</li> | <li class="HindiText"> शब्द प्रयोग की भेद-अभेद रूप दो अपेक्षाएँ।‒देखें [[ नय#III.1.9 | नय - III.1.9]]</li> | ||
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<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li>[[नय#III.8.2 | तज्ज्ञान परिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#III.8.2 | तज्ज्ञान परिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है। ]]</li> | ||
<li>[[नय#III.8.3 | अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#III.8.3 | अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद। ]]</li> | ||
<li>[[नय#III.8.4 | इस नय की दृष्टि में वाक्य संभव नहीं। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#III.8.4 | इस नय की दृष्टि में वाक्य संभव नहीं। ]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[नय#III.8.5 | इस नय में पदसमास संभव नहीं। ]]</li> | |||
<li>[[नय#III.8.6 | इस नय में वर्णसमास तक भी संभव नहीं। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#III.8.6 | इस नय में वर्णसमास तक भी संभव नहीं। ]]</li> | ||
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<li> वाच्यवाचक भाव का समन्वय।‒देखें [[ आगम#4.4 | आगम - 4.4]]। </li> | <li class="HindiText"> वाच्यवाचक भाव का समन्वय।‒देखें [[ आगम#4.4 | आगम - 4.4]]। </li> | ||
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<li class="HindiText">[[नय#III.8.7 | समभिरूढ़ व एवंभूत में अंतर। ]]</li> | |||
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<li> यह पर्यायार्थिक शब्दनय है।‒देखें [[ नय#III.1 | नय - III.1]]। </li> | <li class="HindiText"> यह पर्यायार्थिक शब्दनय है।‒देखें [[ नय#III.1 | नय - III.1]]। </li> | ||
<li> इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]। </li> | <li class="HindiText"> इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]। </li> | ||
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<li class="HindiText">[[नय#III.8.8 | एवंभूत नयाभास का लक्षण। ]]</li> | |||
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<li> वैयाकरणी एवंभूत नयाभासी हैं।‒देखें [[ अनेकांत#2.9 | अनेकांत - 2.9 ]] । </li> | <li class="HindiText"> वैयाकरणी एवंभूत नयाभासी हैं।‒देखें [[ अनेकांत#2.9 | अनेकांत - 2.9 ]] । </li> | ||
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<li><strong> [[नय#IV | द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय ]]</strong> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#IV | द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय ]]</strong> | ||
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<li><strong> [[नय #IV.1 | द्रव्यार्थिक नय सामान्य निर्देश ]]</strong> | <li class="HindiText"><strong> [[नय #IV.1 | द्रव्यार्थिक नय सामान्य निर्देश ]]</strong> | ||
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<li>[[नय#IV.1.1 | द्रव्यार्थिकनय का लक्षण। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.1.1 | द्रव्यार्थिकनय का लक्षण। ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.1.2 | यह वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.1.2 | यह वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है।]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.1.3 | द्रव्य की अपेक्षा विषय की अद्वैतता। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.1.3 | द्रव्य की अपेक्षा विषय की अद्वैतता। ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.1.4 | क्षेत्र की अपेक्षा विषय की अद्वैतता। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.1.4 | क्षेत्र की अपेक्षा विषय की अद्वैतता। ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.1.5 | काल की अपेक्षा विषय की अद्वैतता। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.1.5 | काल की अपेक्षा विषय की अद्वैतता। ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.1.6 | भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.1.6 | भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता। ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.1.7 | इसी से यह नय एक अवक्तव्य व निर्विकल्प है।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.1.7 | इसी से यह नय एक अवक्तव्य व निर्विकल्प है।]]</li> | ||
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<li> द्रव्यार्थिक व प्रमाण में अंतर।‒देखें [[ नय#III.3.4 | नय - III.3.4]] । </li> | <li class="HindiText"> द्रव्यार्थिक व प्रमाण में अंतर।‒देखें [[ नय#III.3.4 | नय - III.3.4]] । </li> | ||
<li> द्रव्यार्थिक के तीन भेद नैगमादि।‒देखें [[ नय#III | नय - III]]।</li> | <li class="HindiText"> द्रव्यार्थिक के तीन भेद नैगमादि।‒देखें [[ नय#III | नय - III]]।</li> | ||
<li> द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक में अंतर।‒देखें [[ नय#V.4.3 | नय - V.4.3]] । </li> | <li class="HindiText"> द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक में अंतर।‒देखें [[ नय#V.4.3 | नय - V.4.3]] । </li> | ||
<li> इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#2 | निक्षेप - 2]]।</li> | <li class="HindiText"> इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#2 | निक्षेप - 2]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li><strong> [[नय#IV.2 | शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय निर्देश</strong> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#IV.2 | शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय निर्देश</strong> | ||
]] | ]] | ||
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<li>[[नय#IV.2.1 | द्रव्यार्थिकनय के दो भेद‒शुद्ध व अशुद्ध।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.1 | द्रव्यार्थिकनय के दो भेद‒शुद्ध व अशुद्ध।]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.2 | शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का लक्षण। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.2 | शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का लक्षण। ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.3 | द्रव्य क्षेत्रादि की अपेक्षा इस नय के विषय की अद्वैतता।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.3 | द्रव्य क्षेत्रादि की अपेक्षा इस नय के विषय की अद्वैतता।]]</li> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li> शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता।‒देखें [[ नय#V.3.4 | नय - V.3.4]]। </li> | <li class="HindiText"> शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता।‒देखें [[ नय#V.3.4 | नय - V.3.4]]। </li> | ||
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<li>[[नय#IV.2.4 | अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.4 | अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण।]]</li> | ||
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<li> अशुद्ध द्रव्यार्थिक व्यवहार नय है।‒देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]]। </li> | <li class="HindiText"> अशुद्ध द्रव्यार्थिक व्यवहार नय है।‒देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]]। </li> | ||
<li> अशुद्ध व शुद्ध द्रव्यार्थिक में हेयोपादेयता।‒देखें [[ नय#V.8 | नय - V.8]]। </li> | <li class="HindiText"> अशुद्ध व शुद्ध द्रव्यार्थिक में हेयोपादेयता।‒देखें [[ नय#V.8 | नय - V.8]]। </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
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<li>[[नय#IV.2.5 | द्रव्यार्थिक के दश भेदों का निर्देश। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.5 | द्रव्यार्थिक के दश भेदों का निर्देश। ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.6 | द्रव्यार्थिकनय दशक के लक्षण। | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.6 | द्रव्यार्थिकनय दशक के लक्षण। | ||
]] | ]] | ||
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<li>[[नय#IV.2.6.1 | कर्मोपाधि निरपेक्ष ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.6.1 | कर्मोपाधि निरपेक्ष ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.6.2 | सत्ता ग्राहक ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.6.2 | सत्ता ग्राहक ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.6.3 | भेद निरपेक्ष ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.6.3 | भेद निरपेक्ष ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.6.4 | कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.6.4 | कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.6.5 | उत्पादव्यय सापेक्ष ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.6.5 | उत्पादव्यय सापेक्ष ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.6.6 | भेद कल्पना सापेक्ष ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.6.6 | भेद कल्पना सापेक्ष ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.6.7 | अन्वय द्रव्यार्थिक]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.6.7 | अन्वय द्रव्यार्थिक]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.6.8 | स्व चतुष्टय ग्राहक]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.6.8 | स्व चतुष्टय ग्राहक]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.6.9 | पर चतुष्टय ग्राहक]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.6.9 | पर चतुष्टय ग्राहक]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.2.6.10 | परमभावग्राही शुद्ध द्रव्यार्थिक।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.2.6.10 | परमभावग्राही शुद्ध द्रव्यार्थिक।]]<br /> | ||
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<li><strong>[[नय#IV.3 | पर्यायार्थिक नय सामान्य निर्देश]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#IV.3 | पर्यायार्थिक नय सामान्य निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[नय#IV.3.1 | पर्यायार्थिक नय का लक्षण।]]<br /></li> | |||
<li class="HindiText">[[नय#IV.3.2 | यह वस्तु के विशेषांश को एकत्वरूप से ग्रहण करता है।]]<br /></li> | |||
<li>[[नय#IV.3.3 | द्रव्य की अपेक्षा विषय की एकत्वता]]‒<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.3 | द्रव्य की अपेक्षा विषय की एकत्वता]]‒<br /> | ||
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<li>[[नय#IV.3.3.1 | पर्याय से पृथक् द्रव्य कुछ नहीं।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.3.1 | पर्याय से पृथक् द्रव्य कुछ नहीं।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#IV.3.3.2 | गुण गुणी में सामान्याधिकरण्य नहीं है।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#IV.3.3.2 | गुण गुणी में सामान्याधिकरण्य नहीं है।]]<br /></li> | ||
<li>[[नय#IV.3.3.3 | काक कृष्ण नहीं हो सकता।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.3.3 | काक कृष्ण नहीं हो सकता।]]<br /></li> | ||
<li>[[नय#IV.3.3.4 | सभी पदार्थ एक संख्या से युक्त हैं।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.3.4 | सभी पदार्थ एक संख्या से युक्त हैं।]]<br /></li> | ||
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<li>[[नय#IV.3.4 | क्षेत्र की अपेक्षा विषय की एकत्वता]]‒<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.4 | क्षेत्र की अपेक्षा विषय की एकत्वता]]‒<br /> | ||
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<li>[[नय#IV.3.4.1 | प्रत्येक पदार्थ का अवस्थान अपने में ही है।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.4.1 | प्रत्येक पदार्थ का अवस्थान अपने में ही है।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#IV.3.4.2 | वस्तु अखंड व निरवयव होती है।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#IV.3.4.2 | वस्तु अखंड व निरवयव होती है।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#IV.3.4.3 | पलालदाह संभव नहीं।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#IV.3.4.3 | पलालदाह संभव नहीं।]]<br /></li> | ||
<li> [[नय#IV.3.4.4 | कुंभकार संज्ञा नहीं हो सकती।]]<br /></li> | <li class="HindiText"> [[नय#IV.3.4.4 | कुंभकार संज्ञा नहीं हो सकती।]]<br /></li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li>[[नय#IV.3.5 | काल की अपेक्षा विषय की एकत्वता]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.5 | काल की अपेक्षा विषय की एकत्वता]]<br /> | ||
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<li>[[नय#IV.3.5.1 | केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.5.1 | केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है।]]<br /></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> वर्तमान काल का स्पष्टीकरण।‒देखें [[ नय#III.5.7 | नय - III.5.7]]।<br /></li> | <li class="HindiText"> वर्तमान काल का स्पष्टीकरण।‒देखें [[ नय#III.5.7 | नय - III.5.7]]।<br /></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li>[[नय#IV.3.5.2 | क्षण स्थायी अर्थ ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.5.2 | क्षण स्थायी अर्थ ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[नय#IV.3.6| काल की अपेक्षा एकत्व विषयक उदाहरण]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#IV.3.6| काल की अपेक्षा एकत्व विषयक उदाहरण]]<br /> | ||
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<li> [[नय#IV.3.6.1 | कषायो भैषज्यम्| ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#IV.3.6.1 | कषायो भैषज्यम्| ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.3.6.2 | धान्य मापते समय ही प्रस्थ संज्ञा| ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.6.2 | धान्य मापते समय ही प्रस्थ संज्ञा| ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.3.6.3 | कहीं से भी नहीं आ रहा हूँ।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.6.3 | कहीं से भी नहीं आ रहा हूँ।]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.3.6.4 | श्वेत कृष्ण नहीं किया जा सकता। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.6.4 | श्वेत कृष्ण नहीं किया जा सकता। ]]</li> | ||
<li> [[नय#IV.3.6.5 | क्रोध का उदय ही क्रोध कषाय है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#IV.3.6.5 | क्रोध का उदय ही क्रोध कषाय है। ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.3.6.6 | पलाल दाह संभव नहीं| ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.6.6 | पलाल दाह संभव नहीं| ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.3.6.7 | पच्यमान पक्व।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.6.7 | पच्यमान पक्व।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<li>[[नय#IV.3.7 | भाव की अपेक्षा विषय की एकत्वता।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.7 | भाव की अपेक्षा विषय की एकत्वता।]]<br /> | ||
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<li>[[नय#IV.3.8 | किसी भी प्रकार का संबंध संभव नहीं।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.8 | किसी भी प्रकार का संबंध संभव नहीं।]]<br /> | ||
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<li>[[नय#IV.3.8.1 | विशेष्य-विशेषण संबंध ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.8.1 | विशेष्य-विशेषण संबंध ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.3.8.2 | संयोग व समवाय]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.8.2 | संयोग व समवाय]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.3.8.3 | कोई किसी के समान नहीं ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.8.3 | कोई किसी के समान नहीं ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.3.8.4 | ग्राह्यग्राहक संबंध ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.8.4 | ग्राह्यग्राहक संबंध ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.3.8.5 | वाच्य वाचक संबंध संभव नहीं]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.8.5 | वाच्य वाचक संबंध संभव नहीं]] </li> | ||
<li>[[नय#IV.3.8.6 | बंध्यबंधक आदि अन्य कोई भी संबंध नहीं।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.8.6 | बंध्यबंधक आदि अन्य कोई भी संबंध नहीं।]]<br /> | ||
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<li>[[नय#IV.3.9 | कारण कार्य भाव संभव नहीं‒]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.9 | कारण कार्य भाव संभव नहीं‒]]<br /> | ||
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<li>[[नय#IV.3.9.1 | कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.9.1 | कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है।]]<br /></li> | ||
<li>[[नय#IV.3.9.2 | विनाश व उत्पाद निर्हेतुक है।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.9.2 | विनाश व उत्पाद निर्हेतुक है।]]<br /></li> | ||
<li>[[नय#IV.3.9.3 | उत्पाद निर्हेतुक है।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.9.3 | उत्पाद निर्हेतुक है।]]<br /></li> | ||
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<li>[[नय#IV.3.10 | यह नय सकल व्यवहार का उच्छेद करता है।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.3.10 | यह नय सकल व्यवहार का उच्छेद करता है।]]<br /> | ||
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<li> पर्यायार्थिक का कथंचित् द्रव्यार्थिकपना।‒देखें [[ नय#III.5 | नय - III.5]]।<br /> | <li class="HindiText"> पर्यायार्थिक का कथंचित् द्रव्यार्थिकपना।‒देखें [[ नय#III.5 | नय - III.5]]।<br /> | ||
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<li> पर्यायार्थिक के चार भेद ऋजुसूत्रादि।‒देखें [[ नय#III | नय - III]]|<br /> | <li class="HindiText"> पर्यायार्थिक के चार भेद ऋजुसूत्रादि।‒देखें [[ नय#III | नय - III]]|<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li> इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#2 | निक्षेप - 2]]।<br /> | <li class="HindiText"> इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#2 | निक्षेप - 2]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><strong> [[नय#IV.4 |शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिक निर्देश]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#IV.4 |शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिक निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li> [[नय#IV.4.1 |शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिक के लक्षण।]]<br /> | <li class="HindiText"> [[नय#IV.4.1 |शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिक के लक्षण।]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li>[[नय#IV.4.2 | पर्यायार्थिक नय के छह भेदों का निर्देश व लक्षण]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.4.2 | पर्यायार्थिक नय के छह भेदों का निर्देश व लक्षण]]<br /> | ||
<li>[[नय#IV.4.3 | पर्यायार्थिक नय के छह भेदों के लक्षण]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.4.3 | पर्यायार्थिक नय के छह भेदों के लक्षण]]<br /> | ||
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<li>[[नय#IV.4.3.1 | अनादि नित्य ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.4.3.1 | अनादि नित्य ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.4.3.2 | सादिनित्य ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.4.3.2 | सादिनित्य ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.4.3.3 | सत्ता गौण अनित्य ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.4.3.3 | सत्ता गौण अनित्य ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.4.3.4 | सत्ता सापेक्ष नित्य ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.4.3.4 | सत्ता सापेक्ष नित्य ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.4.3.5 | कर्मोपाधि निरपेक्ष अनित्य ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#IV.4.3.5 | कर्मोपाधि निरपेक्ष अनित्य ]]</li> | ||
<li>[[नय#IV.4.3.6 | कर्मोपाधि सापेक्ष]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#IV.4.3.6 | कर्मोपाधि सापेक्ष]]<br /> | ||
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<li> अशुद्ध पर्यायार्थिक नय व्यवहारनय है।‒देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]]।<br /> | <li class="HindiText"> अशुद्ध पर्यायार्थिक नय व्यवहारनय है।‒देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]]।<br /> | ||
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<li><strong> [[नय#V | निश्चय व्यवहारनय ]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#V | निश्चय व्यवहारनय ]]</strong><br /> | ||
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<li><strong> [[नय#V.1 | निश्चयनय निर्देश]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#V.1 | निश्चयनय निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li>[[नय#V.1.1 | निश्चयनय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण।]]<br /></li> | <li class="HindiText">[[नय#V.1.1 | निश्चयनय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण।]]<br /></li> | ||
<li>[[नय#V.1.2 | निश्चयनय का लक्षण अभेद व अनुपचार ग्रहण।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.1.2 | निश्चयनय का लक्षण अभेद व अनुपचार ग्रहण।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.1.3 | निश्चयनय का लक्षण स्वाश्रय कथन]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.1.3 | निश्चयनय का लक्षण स्वाश्रय कथन]] </li> | ||
<li>[[नय#V.1.4 | निश्चयनय के भेद‒शुद्ध व अशुद्ध]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.1.4 | निश्चयनय के भेद‒शुद्ध व अशुद्ध]] </li> | ||
<li>[[नय#V.1.5 | शुद्ध निश्चय के लक्षण व उदाहरण]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#V.1.5 | शुद्ध निश्चय के लक्षण व उदाहरण]]<br /> | ||
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<li>[[नय#V.1.5.1 | परमभावग्राही की अपेक्षा।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.1.5.1 | परमभावग्राही की अपेक्षा।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.1.5.2 | क्षायिकभावग्राह की अपेक्षा।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.1.5.2 | क्षायिकभावग्राह की अपेक्षा।]] </li> | ||
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<li>[[नय#V.1.6 | एकदेश शुद्ध निश्चयनय का लक्षण।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.1.6 | एकदेश शुद्ध निश्चयनय का लक्षण।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.1.7 | शुद्ध, एकदेश शुद्ध व निश्चय सामान्य में अंतर व इनकी प्रयोग विधि।]]<br /> | <li class="HindiText">[[नय#V.1.7 | शुद्ध, एकदेश शुद्ध व निश्चय सामान्य में अंतर व इनकी प्रयोग विधि।]]<br /> | ||
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<li>[[नय#V.1.8 | अशुद्ध निश्चयनय का लक्षण व उदाहरण।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.1.8 | अशुद्ध निश्चयनय का लक्षण व उदाहरण।]]</li> | ||
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<li><strong>[[निश्चयनय निर्देश#V.2 | निश्चयनय की निर्विकल्पता]]</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong>[[निश्चयनय निर्देश#V.2 | निश्चयनय की निर्विकल्पता]]</strong><br /> | ||
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<li>[[नय#V.2.1 |शुद्ध व अशुद्ध निश्चयनय द्रव्यार्थिक के भेद हैं।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.2.1 |शुद्ध व अशुद्ध निश्चयनय द्रव्यार्थिक के भेद हैं।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.2.2 |निश्चयनय एक निर्विकल्प व वचनातीत है।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.2.2 |निश्चयनय एक निर्विकल्प व वचनातीत है।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.2.3 |निश्चयनय के भेद नहीं हो सकते।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.2.3 |निश्चयनय के भेद नहीं हो सकते।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.2.4 |शुद्धनिश्चय ही वास्तव में निश्चयनय है; अशुद्ध निश्चयनय तो व्यवहार है।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.2.4 |शुद्धनिश्चय ही वास्तव में निश्चयनय है; अशुद्ध निश्चयनय तो व्यवहार है।]]</li> | ||
<li>[[नय#V.2.5 | उदाहरण सहित तथा सविकल्प सभी नये व्यवहार हैं।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.2.5 | उदाहरण सहित तथा सविकल्प सभी नये व्यवहार हैं।]]</li> | ||
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<li> व्यवहार का निषेध ही निश्चय का वाच्य है।‒देखें [[ नय#V.9.2 | नय - V.9.2]]।</li> | <li class="HindiText"> व्यवहार का निषेध ही निश्चय का वाच्य है।‒देखें [[ नय#V.9.2 | नय - V.9.2]]।</li> | ||
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<li>[[नय#V.2.6 | निविकल्प होने से निश्चयनय में नयपना कैसे संभव है ?]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.2.6 | निविकल्प होने से निश्चयनय में नयपना कैसे संभव है ?]]</li> | ||
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<li><strong> [[नय#V.3 |निश्चयनय की प्रधानता]]</strong> | <li><strong> [[नय#V.3 |निश्चयनय की प्रधानता]]</strong> | ||
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<li>[[नय#V.3.1 |निश्चयनय ही सत्यार्थ है।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.3.1 |निश्चयनय ही सत्यार्थ है।]]</li> | ||
<li>[[नय#V.3.2 |निश्चयनय साधकतम व नयाधिपति है। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.3.2 |निश्चयनय साधकतम व नयाधिपति है। ]]</li> | ||
<li>[[नय#V.3.3 |निश्चयनय ही सम्यक्त्व का कारण है। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.3.3 |निश्चयनय ही सम्यक्त्व का कारण है। ]]</li> | ||
<li>[[नय#V.3.4 | निश्चयनय ही उपादेय है। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.3.4 | निश्चयनय ही उपादेय है। ]]</li> | ||
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<li><strong> [[नय#V.4 | व्यवहारनय सामान्य निर्देश]]</strong> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#V.4 | व्यवहारनय सामान्य निर्देश]]</strong> | ||
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<li>[[नय#V.4.1 | व्यवहारनय सामान्य के लक्षण‒ ]] | <li class="HindiText">[[नय#V.4.1 | व्यवहारनय सामान्य के लक्षण‒ ]] | ||
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<li>[[नय#V.4.1.1 |संग्रह गृहीत अर्थ में विधि पूर्वक भेद।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.1.1 |संग्रह गृहीत अर्थ में विधि पूर्वक भेद।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.4.1.2 | अभेद वस्तु में गुण गुणी आदि रूप भेद।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.1.2 | अभेद वस्तु में गुण गुणी आदि रूप भेद।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.4.1.3 | भिन्न पदार्थों में कारकादिरूप अभेदोपचार।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.1.3 | भिन्न पदार्थों में कारकादिरूप अभेदोपचार।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.4.1.4 | लोकव्यवहार गत वस्तु विषयक ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.1.4 | लोकव्यवहार गत वस्तु विषयक ]]</li> | ||
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<li>[[नय#V.4.2 | व्यवहारनय सामान्य के उदाहरण]] | <li class="HindiText">[[नय#V.4.2 | व्यवहारनय सामान्य के उदाहरण]] | ||
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<li>[[नय#V.4.2.1 | संग्रह गृहीत अर्थ में भेद करने संबंधी। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.2.1 | संग्रह गृहीत अर्थ में भेद करने संबंधी। ]]</li> | ||
<li>[[नय#V.4.2.2 | अभेद वस्तु में भेदोपचार संबंधी। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.2.2 | अभेद वस्तु में भेदोपचार संबंधी। ]]</li> | ||
<li>[[नय#V.4.2.3 | भिन्न वस्तुओं में अभेदोपचार संबंधी। ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.2.3 | भिन्न वस्तुओं में अभेदोपचार संबंधी। ]] </li> | ||
<li> [[नय#V.4.2.4 |लोकव्यवहार गत वस्तु संबंधी।]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.4.2.4 |लोकव्यवहार गत वस्तु संबंधी।]]</li> | ||
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<li>[[नय#V.4.3 | व्यवहार नय की भेद प्रवृत्ति की सीमा। ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.3 | व्यवहार नय की भेद प्रवृत्ति की सीमा। ]] </li> | ||
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<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li>[[नय#V.4.4 |व्यवहार नय के भेद व लक्षणादि ]] | <li class="HindiText">[[नय#V.4.4 |व्यवहार नय के भेद व लक्षणादि ]] | ||
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<li> [[नय#V.4.4.1 |पृथक्त्व व एकत्व व्यवहार। ]] </li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.4.4.1 |पृथक्त्व व एकत्व व्यवहार। ]] </li> | ||
<li>[[नय#V.4.4.2 | सद्भूत व असद्भूत व्यवहार। ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.4.2 | सद्भूत व असद्भूत व्यवहार। ]] </li> | ||
<li>[[नय#V.4.4.3 | सामान्य व विशेष संग्रह भेदक व्यवहार।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.4.3 | सामान्य व विशेष संग्रह भेदक व्यवहार।]] </li> | ||
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<li>[[नय#V.4.5 | व्यवहार नयाभास का लक्षण। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.5 | व्यवहार नयाभास का लक्षण। ]]</li> | ||
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</li> | </li> | ||
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<li> चार्वाक मत व्यवहार नयाभासी है।‒देखें [[अनेकांत#2.9 | अनेकांत - 2.9 ]]।</li> | <li class="HindiText"> चार्वाक मत व्यवहार नयाभासी है।‒देखें [[अनेकांत#2.9 | अनेकांत - 2.9 ]]।</li> | ||
<li> यह द्रव्यार्थिक व अर्थनय है।‒देखें [[ नय#III.1 | नय - III.1]]। </li> | <li class="HindiText"> यह द्रव्यार्थिक व अर्थनय है।‒देखें [[ नय#III.1 | नय - III.1]]। </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="6"> | <ol start="6"> | ||
<li>[[नय#V.4.6 | व्यवहारनय अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.6 | व्यवहारनय अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।]]</li> | ||
<li>[[नय#V.4.7| पर्यायार्थिक नय भी कथंचित् व्यवहार है। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.7| पर्यायार्थिक नय भी कथंचित् व्यवहार है। ]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#2 | निक्षेप - 2]]।</li> | <li class="HindiText"> इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें [[ निक्षेप#2 | निक्षेप - 2]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="8"> | <ol start="8"> | ||
<li>[[नय#V.4.8 |उपनय निर्देश]] | <li class="HindiText">[[नय#V.4.8 |उपनय निर्देश]] | ||
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<li>[[नय#V.4.8.1 | उपनय का लक्षण व इसके भेद। ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.8.1 | उपनय का लक्षण व इसके भेद। ]] </li> | ||
<li>[[नय#V.4.8.2 | उपनय भी व्यवहारनय है। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.4.8.2 | उपनय भी व्यवहारनय है। ]]</li> | ||
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</li> | </li> | ||
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<li><strong> [[नय#V.5 |सद्भूत असद्भूत व्यवहार निर्देश ]]</strong> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#V.5 |सद्भूत असद्भूत व्यवहार निर्देश ]]</strong> | ||
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<li><strong>[[नय#V.5.1 | सद्भूत व्यवहार नय सामान्य निर्देश]]</strong> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#V.5.1 | सद्भूत व्यवहार नय सामान्य निर्देश]]</strong> | ||
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<li>[[नय#V.5.1.1 | लक्षण व उदाहरण ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.5.1.1 | लक्षण व उदाहरण ]] </li> | ||
<li>[[नय#V.5.1.2 | कारण व प्रयोजन ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.5.1.2 | कारण व प्रयोजन ]] </li> | ||
<li>[[नय#V.5.1.3 | व्यवहार सामान्य व सद्भूत व्यवहार में अंतर। ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.5.1.3 | व्यवहार सामान्य व सद्भूत व्यवहार में अंतर। ]] </li> | ||
<li>[[नय#V.5.1.4 | सद्भूत व्यवहार नय के भेद। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.5.1.4 | सद्भूत व्यवहार नय के भेद। ]]</li> | ||
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<li><strong>[[नय#V.5.2 | अनुपचरित या अशुद्ध सद्भूत व्यवहार निर्देश ]]</strong> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#V.5.2 | अनुपचरित या अशुद्ध सद्भूत व्यवहार निर्देश ]]</strong> | ||
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<li>[[नय#V.5.2.1 | क्षायिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.5.2.1 | क्षायिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.5.2.2 |पारिणामिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.5.2.2 |पारिणामिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.5.2.3 |अनुपचरित व शुद्ध सद्भूत की एकार्थता। ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.5.2.3 |अनुपचरित व शुद्ध सद्भूत की एकार्थता। ]] </li> | ||
<li>[[नय#V.5.2.4 |इस नय के कारण व प्रयोजन।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.5.2.4 |इस नय के कारण व प्रयोजन।]]</li> | ||
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<li><strong>[[नय#V.5.3 | उपचरित या अशुद्ध सद्भूत निर्देश]]</strong> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#V.5.3 | उपचरित या अशुद्ध सद्भूत निर्देश]]</strong> | ||
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<li>[[नय#V.5.3.1 | क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण। ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.5.3.1 | क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण। ]] </li> | ||
<li> [[नय#V.5.3.2 |पारिणामिक भाव में उपचार की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।]] </li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.5.3.2 |पारिणामिक भाव में उपचार की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।]] </li> | ||
<li>[[नय#V.5.3.3 | उपचरित व अशुद्ध सद्भूत की एकार्थता। ]] </li> | <li class="HindiText">[[नय#V.5.3.3 | उपचरित व अशुद्ध सद्भूत की एकार्थता। ]] </li> | ||
<li>[[नय#V.5.3.4 | इस नय के कारण व प्रयोजन। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.5.3.4 | इस नय के कारण व प्रयोजन। ]]</li> | ||
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<li><strong>[[नय#V.5.4 | असद्भूत व्यवहार सामान्य निर्देश]]</strong> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#V.5.4 | असद्भूत व्यवहार सामान्य निर्देश]]</strong> | ||
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<li> [[नय#V.5.4.1 |लक्षण व उदाहरण।]] </li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.5.4.1 |लक्षण व उदाहरण।]] </li> | ||
<li> [[नय#V.5.4.2 |इस नय के कारण व प्रयोजन।]] </li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.5.4.2 |इस नय के कारण व प्रयोजन।]] </li> | ||
<li> [[नय#V.5.4.3 |असद्भूत व्यवहारनय के भेद। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.5.4.3 |असद्भूत व्यवहारनय के भेद। ]]</li> | ||
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<li><strong>[[नय#V.5.5 | अनुपचरित असद्भूत व्यवहार निर्देश]]</strong> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#V.5.5 | अनुपचरित असद्भूत व्यवहार निर्देश]]</strong> | ||
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<li> [[नय#V.5.5.1 | भिन्न द्रव्य में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण। ]] </li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.5.5.1 | भिन्न द्रव्य में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण। ]] </li> | ||
<li> [[नय#V.5.5.2 | विभाव भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.5.5.2 | विभाव भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण। ]]</li> | ||
<li> [[नय#V.5.5.3 | इस नय का कारण व प्रयोजन। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.5.5.3 | इस नय का कारण व प्रयोजन। ]]</li> | ||
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<li><strong> [[नय#V.5.6 |उपचरित असद्भूत व्यवहार नय निर्देश]]</strong> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#V.5.6 |उपचरित असद्भूत व्यवहार नय निर्देश]]</strong> | ||
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<li> [[नय#V.5.6.1 |भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण। ]] </li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.5.6.1 |भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण। ]] </li> | ||
<li> [[नय#V.5.6.2 |विभाव भावों की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण। ]] </li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.5.6.2 |विभाव भावों की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण। ]] </li> | ||
<li> [[नय#V.5.6.3 |इस नय के कारण व प्रयोजन। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.5.6.3 |इस नय के कारण व प्रयोजन। ]]</li> | ||
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<li> उपचार नय संबंधी।‒देखें [[ उपचार ]]।</li> | <li class="HindiText"> उपचार नय संबंधी।‒देखें [[ उपचार#5.1 |उपचार-5.1 ]]।</li> | ||
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<li><strong>[[नय#V.6 | व्यवहार नय की कथंचित् गौणता ]]</strong> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#V.6 | व्यवहार नय की कथंचित् गौणता ]]</strong> | ||
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<li> [[नय#V.6.1 |व्यवहार नय असत्यार्थ है, तथा उसका हेतु।]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.1 |व्यवहार नय असत्यार्थ है, तथा उसका हेतु।]]</li> | ||
<li> [[नय#V.6.2 |व्यवहार नय उपचारमात्र है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.2 |व्यवहार नय उपचारमात्र है। ]]</li> | ||
<li> [[नय#V.6.3 |व्यवहार नय व्यभिचारी है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.3 |व्यवहार नय व्यभिचारी है। ]]</li> | ||
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<li> [[नय#V.6.5 |व्यवहारन य अध्यवसान है।]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.5 |व्यवहारन य अध्यवसान है।]]</li> | ||
<li> [[नय#V.6.6 |व्यवहार नय कथनमात्र है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.6 |व्यवहार नय कथनमात्र है। ]]</li> | ||
<li> [[नय#V.6.7 |व्यवहार नय साधकतम नहीं है।]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.7 |व्यवहार नय साधकतम नहीं है।]]</li> | ||
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<li> व्यवहार नय निश्चय द्वारा निषिद्ध है।‒देखें [[ नय#V.9.2 | नय - V.9.2]]। </li> | <li class="HindiText"> व्यवहार नय निश्चय द्वारा निषिद्ध है।‒देखें [[ नय#V.9.2 | नय - V.9.2]]। </li> | ||
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<li> [[नय#V.6.8 |व्यवहार नय सिद्धांत विरुद्ध तथा नयाभास है।]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.8 |व्यवहार नय सिद्धांत विरुद्ध तथा नयाभास है।]]</li> | ||
<li> [[नय#V.6.9 |व्यवहार नय का विषय सदा गौण होता है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.9 |व्यवहार नय का विषय सदा गौण होता है। ]]</li> | ||
<li> [[नय#V.6.10 |शुद्ध दृष्टि में व्यवहार को स्थान नहीं।]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.10 |शुद्ध दृष्टि में व्यवहार को स्थान नहीं।]]</li> | ||
<li> [[नय#V.6.11 |व्यवहार नय का विषय निष्फल है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.11 |व्यवहार नय का विषय निष्फल है। ]]</li> | ||
<li> [[नय#V.6.12 |व्यवहार नय का आश्रय मिथ्यात्व है।]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.12 |व्यवहार नय का आश्रय मिथ्यात्व है।]]</li> | ||
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<li> तत्त्व निर्णय करने में लोक व्यवहार को विच्छेद होने का भय नहीं किया जाता।‒देखें [[ निक्षेप#3.3 | निक्षेप - 3.3]], [[ नय#III.6.10 | नय - III.6.10]] तथा [[ नय#IV.3.10 | नय - IV.3.10]]। </li> | <li class="HindiText"> तत्त्व निर्णय करने में लोक व्यवहार को विच्छेद होने का भय नहीं किया जाता।‒देखें [[ निक्षेप#3.3 | निक्षेप - 3.3]], [[ नय#III.6.10 | नय - III.6.10]] तथा [[ नय#IV.3.10 | नय - IV.3.10]]। </li> | ||
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<li> [[नय#V.6.13 |व्यवहार नय हेय है।]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.6.13 |व्यवहार नय हेय है।]]</li> | ||
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<li><strong> [[नय#V.7 |व्यवहार नय की कथंचित् प्रधानता ]]</strong> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#V.7 |व्यवहार नय की कथंचित् प्रधानता ]]</strong> | ||
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<li>[[नय#V.7.1 |व्यवहार नय सर्वथा निषिद्ध नहीं है (व्यवहार दृष्टि से यह सत्यार्थ है)। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.7.1 |व्यवहार नय सर्वथा निषिद्ध नहीं है (व्यवहार दृष्टि से यह सत्यार्थ है)। ]]</li> | ||
<li>[[नय#V.7.2 |निचली भूमिका में व्यवहार प्रयोजनीय है। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.7.2 |निचली भूमिका में व्यवहार प्रयोजनीय है। ]]</li> | ||
<li>[[नय#V.7.3| मंद बुद्धियों के लिए व्यवहार उपकारी है। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.7.3| मंद बुद्धियों के लिए व्यवहार उपकारी है। ]]</li> | ||
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<li> व्यवहार नय निश्चयनय का साधक है।‒देखें [[ नय#V.9.2 | नय - V.9.2]]। </li> | <li class="HindiText"> व्यवहार नय निश्चयनय का साधक है।‒देखें [[ नय#V.9.2 | नय - V.9.2]]। </li> | ||
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<li> [[नय#V.7.4 |व्यवहार पूर्वक ही निश्चय तत्त्व का ज्ञान होना संभव है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.7.4 |व्यवहार पूर्वक ही निश्चय तत्त्व का ज्ञान होना संभव है। ]]</li> | ||
<li> [[नय#V.7.5 |व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन शक्य नहीं। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.7.5 |व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन शक्य नहीं। ]]</li> | ||
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<li> तीर्थ प्रवृत्ति की रक्षार्थ व्यवहार नय प्रयोजनीय है।‒देखें [[ नय#V.8.4 | नय - V.8.4]]। </li> | <li class="HindiText"> तीर्थ प्रवृत्ति की रक्षार्थ व्यवहार नय प्रयोजनीय है।‒देखें [[ नय#V.8.4 | नय - V.8.4]]। </li> | ||
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<li> [[नय#V.7.6 |वस्तु में आस्तिक्य बुद्धि के अर्थ प्रयोजनीय है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.7.6 |वस्तु में आस्तिक्य बुद्धि के अर्थ प्रयोजनीय है। ]]</li> | ||
<li> [[नय#V.7.7 |वस्तु की निश्चित प्रतिपत्ति के अर्थ यही प्रधान है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.7.7 |वस्तु की निश्चित प्रतिपत्ति के अर्थ यही प्रधान है। ]]</li> | ||
<li> [[नय#V.7.8 |व्यवहार शून्य निश्चयनय कल्पनामात्र है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.7.8 |व्यवहार शून्य निश्चयनय कल्पनामात्र है। ]]</li> | ||
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<li><strong>[[नय#V.8 | व्यवहार व निश्चय की हेयोपादेयता का समन्वय ]]</strong> | <li class="HindiText"><strong>[[नय#V.8 | व्यवहार व निश्चय की हेयोपादेयता का समन्वय ]]</strong> | ||
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<li> [[नय#V.8.1 |निश्चय नय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.8.1 |निश्चय नय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन। ]]</li> | ||
<li> [[नय#V.8.2 |व्यवहार नय के निषेध का कारण। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.8.2 |व्यवहार नय के निषेध का कारण। ]]</li> | ||
<li> [[नय#V.8.3 |व्यवहार नय के निषेध का प्रयोजन। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.8.3 |व्यवहार नय के निषेध का प्रयोजन। ]]</li> | ||
<li> [[नय#V.8.4 |व्यवहार नय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.8.4 |व्यवहार नय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन। ]]</li> | ||
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<li> परमार्थ से निश्चय व व्यवहार दोनों हेय हैं।‒देखें [[ नय#I.3 | नय - I.3]]। </li> | <li class="HindiText"> परमार्थ से निश्चय व व्यवहार दोनों हेय हैं।‒देखें [[ नय#I.3 | नय - I.3]]। </li> | ||
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<li><strong> [[नय#V.9 |निश्चय व्यवहार के विषयों का समन्वय ]]</strong></li> | <li class="HindiText"><strong> [[नय#V.9 |निश्चय व्यवहार के विषयों का समन्वय ]]</strong></li> | ||
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<li> [[नय#V.9.1 |दोनों नयों में विषय विरोध निर्देश। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[नय#V.9.1 |दोनों नयों में विषय विरोध निर्देश। ]]</li> | ||
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<li> निश्चय व्यवहार निषेध्य निषेधक भाव का समन्वय।‒देखें [[ नय#V.9.2 | नय - V.9.2]]। </li> | <li class="HindiText"> निश्चय व्यवहार निषेध्य निषेधक भाव का समन्वय।‒देखें [[ नय#V.9.2 | नय - V.9.2]]। </li> | ||
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<li>[[नय#V.9.3 | दोनों में मुख्य गौण व्यवस्था का प्रयोजन ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.9.3 | दोनों में मुख्य गौण व्यवस्था का प्रयोजन ]]</li> | ||
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<li> नयों में परस्पर मुख्य गौण व्यवस्था।‒देखें [[ स्याद्वाद#3 | स्याद्वाद-3 ]] । </li> | <li class="HindiText"> नयों में परस्पर मुख्य गौण व्यवस्था।‒देखें [[ स्याद्वाद#3 | स्याद्वाद-3 ]] । </li> | ||
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<li>[[नय#V.9.4 | दोनों में साध्य साधन भाव का प्रयोजन दोनों की परस्पर सापेक्षता। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.9.4 | दोनों में साध्य साधन भाव का प्रयोजन दोनों की परस्पर सापेक्षता। ]]</li> | ||
<li>[[नय#V.9.5 | दोनों की सापेक्षता का कारण व प्रयोजन। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.9.5 | दोनों की सापेक्षता का कारण व प्रयोजन। ]]</li> | ||
<li>[[नय#V.9.6 | दोनों की सापेक्षता के उदाहरण। ]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.9.6 | दोनों की सापेक्षता के उदाहरण। ]]</li> | ||
<li>[[नय#V.9.7 | इसलिए दोनों ही नय उपादेय हैं।]]</li> | <li class="HindiText">[[नय#V.9.7 | इसलिए दोनों ही नय उपादेय हैं।]]</li> | ||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I" id="I"> नय सामान्य <br /></strong></span> | ||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.1" id="I.1"> नय सामान्य निर्देश<br /></strong></span> | ||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.1.1" id="I.1.1"> नय सामान्य का लक्षण<br /></strong></span> | ||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.1.1.1" id="I.1.1.1"> निरुक्त्यर्थ‒</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला १/१,१,१/ ३,४/१०</span> <span class="PrakritText">उच्चारियमत्थपदं णिक्खेवं वा कयं तु दट्ठूण। अत्थं णयंति पच्चंतमिदि तदो ते णया भणिया।३। णयदि त्ति णयो भणिओ बहूहि गुण-पज्जएहि जं दव्वं। परिणामखेत्तकालं-तरेसु अविणट्ठसब्भावं।४।</span>=<span class="HindiText">उच्चारण किये अर्थ, पद और उसमें किये गये निक्षेप को देखकर अर्थात समझकर पदार्थ को ठीक निर्णय तक पहुँचा देता है, इसलिए वे नय कहलाते हैं।३। <span class="GRef">(कषाय पाहुड १/१३-१४/२१०/गाथा११८/२५९)</span>। अनेक गुण और अनेक पर्यायों सहित, अथवा उनके द्वारा, एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में और एक काल से दूसरे काल में अविनाशी स्वभाव रूप से रहने वाले द्रव्य को जो ले जाता है, अर्थात् उसका ज्ञान करा देता है, उसे नय कहते हैं।३।</span><br /> | |||
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३५ <span class="SanskritText">जीवादीन् पदार्थान् नयन्ति प्राप्नुवन्ति, कारयन्ति, साधयन्ति, निर्वर्तयन्ति, निर्भासयन्ति, उपलम्भयन्ति, व्यञ्जयन्ति इति नय:।</span>=<span class="HindiText">जीवादि पदार्थों को जो लाते हैं, प्राप्त कराते हैं, बनाते हैं, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रगट कराते हैं, वे नय हैं।</span><br /> | <span class="GRef">तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३५</span> <span class="SanskritText">जीवादीन् पदार्थान् नयन्ति प्राप्नुवन्ति, कारयन्ति, साधयन्ति, निर्वर्तयन्ति, निर्भासयन्ति, उपलम्भयन्ति, व्यञ्जयन्ति इति नय:।</span>=<span class="HindiText">जीवादि पदार्थों को जो लाते हैं, प्राप्त कराते हैं, बनाते हैं, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रगट कराते हैं, वे नय हैं।</span><br /> | ||
आलाप पद्धति/ | <span class="GRef">आलाप पद्धति/181</span> <span class="SanskritText">नानास्वभावेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन्स्वभावे वस्तु नयति प्रापयतीति वा नय:।</span>=<span class="HindiText">नाना स्वभावों से हटाकर वस्तु को एक स्वभाव में जो प्राप्त कराये उसे नय कहते हैं। </span><span class="GRef">(नयचक्र श्रुत भवन दीपक/पृष्ठ १)</span> <span class="GRef">(नयचक्रवृत्ति/पृष्ठ ५२६)</span> <span class="GRef">(नयचक्रवृत्ति/सूत्र ६)</span> <span class="GRef">(न्यायावतार टीका/पृष्ठ ८२)</span>, <span class="GRef">(स्याद्वाद मंजरी/२८/३१०/१०)</span>।<br /> | ||
स्याद्वाद मंजरी/२७/३०५/२८ <span class="SanskritText">नीयते एकदेशविशिष्टोऽर्थ: प्रतीतिविषयमाभिरिति नीतयो नया:।</span>=<span class="HindiText">जिस नीति के द्वारा एकदेश विशिष्ट पदार्थ लाया जाता है अर्थात् प्रतीति के विषय को प्राप्त कराया जाता है, उसे नय कहते हैं। (स्याद्वाद मंजरी/२८/३०७/१५)।<br /> | <span class="GRef">स्याद्वाद मंजरी/२७/३०५/२८</span> <span class="SanskritText">नीयते एकदेशविशिष्टोऽर्थ: प्रतीतिविषयमाभिरिति नीतयो नया:।</span>=<span class="HindiText">जिस नीति के द्वारा एकदेश विशिष्ट पदार्थ लाया जाता है अर्थात् प्रतीति के विषय को प्राप्त कराया जाता है, उसे नय कहते हैं। <span class="GRef">(स्याद्वाद मंजरी/२८/३०७/१५)</span>।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.1.1.2" id="I.1.1.2"> वक्ता का अभिप्राय</strong></span><br /> | ||
तिलोय पण्णत्ति/१/८३<span class="PrakritText"> णाणं होदि पमाणं णओ वि | <span class="GRef">तिलोय पण्णत्ति/१/८३</span><span class="PrakritText"> णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिदियभावत्थो।८३।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के हृदय के अभिप्राय को नय कहते हैं। <span class="GRef">(सिद्धि विनिश्चय/मूल/१०/२/६६३)</span>।</span><br /> | ||
धवला १/१,१,१/ ११/१७ <span class="SanskritGatha">ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते। नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रह:।११।</span> <span class="HindiText">सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, और ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। लघीयस्त्रय/का ५२); (लघीयस्त्रय स्व वृत्ति/का.३०); (प्रमाण संग्रह/श्लोक ८६); (कषाय पाहुड१/१३-१४/१६८/श्लोक ७५/२००) (धवला ३/१,२,२/ १५/१८) (धवला ९/४,१,४५/१६२/७) (पंचास्तिकाय संग्रह/तात्पर्य वृत्ति/४३/८६/१२)।</span><br /> | <span class="GRef">धवला १/१,१,१/ ११/१७</span> <span class="SanskritGatha">ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते। नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रह:।११।</span> <span class="HindiText">सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, और ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। <span class="GRef">लघीयस्त्रय/का ५२)</span>; <span class="GRef">(लघीयस्त्रय स्व वृत्ति/का.३०)</span>; <span class="GRef">(प्रमाण संग्रह/श्लोक ८६)</span>; <span class="GRef">(कषाय पाहुड१/१३-१४/१६८/श्लोक ७५/२००)</span> <span class="GRef">(धवला ३/१,२,२/ १५/१८)</span> <span class="GRef">(धवला ९/४,१,४५/१६२/७)</span> <span class="GRef">(पंचास्तिकाय संग्रह/तात्पर्य वृत्ति/४३/८६/१२)</span>।</span><br /> | ||
आलाप पद्धति/ | <span class="GRef">आलाप पद्धति/181</span> <span class="SanskritText">ज्ञातुभिप्रायो वा नय:।</span>=<span class="HindiText">ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं।<span class="GRef">( नयचक्रवृत्ति/१७४)</span> <span class="GRef">(न्याय दीपिका/३/८२/१२५)</span>।</span><br /> | ||
प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ.६७६ <span class="SanskritText">अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नय:।</span>=<span class="HindiText">प्रतिपक्षी अर्थात् विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय है।</span><br /> | <span class="GRef">प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ.६७६</span> <span class="SanskritText">अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नय:।</span>=<span class="HindiText">प्रतिपक्षी अर्थात् विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय है।</span><br /> | ||
प्रमाणनय तत्त्वालंकार/७/१ (स्याद्वाद मंजरी/२८/३१६/२९ पर उद्धृत) <span class="SanskritText">प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नय इति।</span>=<span class="HindiText">वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। (स्याद्वाद मंजरी/२८/३१०/१२)।<br /> | <span class="GRef">प्रमाणनय तत्त्वालंकार/७/१</span> <span class="GRef">(स्याद्वाद मंजरी/२८/३१६/२९ पर उद्धृत)</span> <span class="SanskritText">प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नय इति।</span>=<span class="HindiText">वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। <span class="GRef">(स्याद्वाद मंजरी/२८/३१०/१२)</span>।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.1.1.3" id="I.1.1.3"> एकदेश वस्तुग्राही</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/१/३३/१४०/७</span><span class="SanskritText"> वस्तन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवण: प्रयोगो नय:।</span>=<span class="HindiText">अनेकान्तात्मक वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्य विशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं। <span class="GRef">(हरिवंश पुराण/५८/३९)</span>।</span><br /> | |||
सारसंग्रह से उद्धृत (कषाय पाहुड १/१३-१४/२१०/१)<span class="SanskritText">‒अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्युक्त्यपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय:।</span>=<span class="HindiText">अनन्तपर्यायात्मक वस्तु की किसी एक पर्याय का ज्ञान करते समय निर्दोष युक्ति की अपेक्षा से जो | <span class="GRef">सारसंग्रह से उद्धृत (कषाय पाहुड १/१३-१४/२१०/१)</span><span class="SanskritText">‒अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्युक्त्यपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय:।</span>=<span class="HindiText">अनन्तपर्यायात्मक वस्तु की किसी एक पर्याय का ज्ञान करते समय निर्दोष युक्ति की अपेक्षा से जो दोष रहित प्रयोग किया जाता है वह नय है। <span class="GRef">(धवला ९/४,१,४५/१६७/२)</span>।</span><br /> | ||
श्लोक वार्तिक २/१/६/४/३२१ <span class="SanskritText">स्वार्थैकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नय: स्मृत:।४।</span>=<span class="HindiText">अपने को और अर्थ को एकदेशरूप से जानना नय का लक्षण माना गया है। (श्लोक वार्तिक २/१/६/१७/३६०/११)।</span><br /> | <span class="GRef">श्लोक वार्तिक २/१/६/४/३२१</span> <span class="SanskritText">स्वार्थैकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नय: स्मृत:।४।</span>=<span class="HindiText">अपने को और अर्थ को एकदेशरूप से जानना नय का लक्षण माना गया है। <span class="GRef">(श्लोक वार्तिक २/१/६/१७/३६०/११)</span>।</span><br /> | ||
नयचक्रवृत्ति/१७४ <span class="PrakritText">वत्थुअंससंगहणं। तं इह णयं...।</span>-)।=<span class="HindiText">वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला नय होता है। ( | <span class="GRef">नयचक्रवृत्ति/१७४</span> <span class="PrakritText">वत्थुअंससंगहणं। तं इह णयं...।</span>-)।=<span class="HindiText">वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला नय होता है। <span class="GRef">(नयचक्र वृत्ति/१७२)</span> <span class="GRef">(कार्तिकेय अनुप्रेक्षा/मूल/२६३)</span>।</span><br /> | ||
प्रवचन सार/तात्पर्य वृत्ति/१८१/२४५/१२ <span class="SanskritText">क्स्त्वेकदेशपरीक्षा तावन्नयलक्षणं।</span>=<span class="HindiText">वस्तु की एकदेश परीक्षा नय का लक्षण है। (पंचास्तिकाय संग्रह/तात्पर्य वृत्ति/४६/८६/१२)।</span><br /> | <span class="GRef">प्रवचन सार/तात्पर्य वृत्ति/१८१/२४५/१२</span> <span class="SanskritText">क्स्त्वेकदेशपरीक्षा तावन्नयलक्षणं।</span>=<span class="HindiText">वस्तु की एकदेश परीक्षा नय का लक्षण है। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय संग्रह/तात्पर्य वृत्ति/४६/८६/१२)</span>।</span><br /> | ||
कार्तिकेय अनुप्रेक्षा/मूल/२६४ <span class="PrakritGatha">णाणाधम्मजुदं पि य एयं धम्मं पि वुच्चदे अत्थं। तस्सेय विवक्खादो णत्थि विवक्खा हु सेसाणं।२६४।</span>=<span class="HindiText">नाना धर्मों से युक्त भी पदार्थ के एक धर्म को ही नय कहता है, क्योंकि उस समय उस ही धर्म की विवक्षा है, शेष धर्म की विवक्षा नहीं है।</span><br /> | <span class="GRef">कार्तिकेय अनुप्रेक्षा/मूल/२६४</span> <span class="PrakritGatha">णाणाधम्मजुदं पि य एयं धम्मं पि वुच्चदे अत्थं। तस्सेय विवक्खादो णत्थि विवक्खा हु सेसाणं।२६४।</span>=<span class="HindiText">नाना धर्मों से युक्त भी पदार्थ के एक धर्म को ही नय कहता है, क्योंकि उस समय उस ही धर्म की विवक्षा है, शेष धर्म की विवक्षा नहीं है।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय संग्रह/पू./५०४ <span class="SanskritText">इत्युक्तलक्षणेऽस्मिन् विरुद्धधर्मद्वयात्मके तत्त्वे। तत्राप्यन्यतरस्य स्यादिह धर्मस्य वाचकश्च नय:।</span>=<span class="HindiText">दो विरुद्धधर्मवाले तत्त्व में किसी एक धर्म का वाचक नय होता है।<br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय संग्रह/पू./५०४</span> <span class="SanskritText">इत्युक्तलक्षणेऽस्मिन् विरुद्धधर्मद्वयात्मके तत्त्वे। तत्राप्यन्यतरस्य स्यादिह धर्मस्य वाचकश्च नय:।</span>=<span class="HindiText">दो विरुद्धधर्मवाले तत्त्व में किसी एक धर्म का वाचक नय होता है।<br /> | ||
और भी देखो‒पीछे निरुक्त्यर्थ | और भी देखो‒पीछे निरुक्त्यर्थ में‒’आलाप -पद्धत्ति ’ तथा ‘स्याद्वाद मंजरी’। तथा वक्तु: अभिप्राय में ‘प्रमेयकमलमार्तण्ड’। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.1.1.4" id="I.1.1.4"> प्रमाण गृहीत वस्तु का एकअंश ग्राही</strong></span><br /> | ||
आप्त मीमांसा/१०६ <span class="SanskritGatha">सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यादविरोधत:। स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नय:।१०६।</span>=<span class="HindiText">साधर्मी का विरोध न करते हुए, साधर्म्य से ही साध्य को सिद्ध करने वाला तथा स्याद्वाद से प्रकाशित पदार्थों की पर्यायों को प्रगट करने वाला नय है। ( | <span class="GRef">आप्त मीमांसा/१०६</span> <span class="SanskritGatha">सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यादविरोधत:। स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नय:।१०६।</span>=<span class="HindiText">साधर्मी का विरोध न करते हुए, साधर्म्य से ही साध्य को सिद्ध करने वाला तथा स्याद्वाद से प्रकाशित पदार्थों की पर्यायों को प्रगट करने वाला नय है। <span class="GRef">(धवला ९/४,१,४५/गाथा ५९/१६७)</span> <span class="GRef">(कषाय पाहुड १/१३-१४/१७४/८३/२१०‒तत्त्वार्थभाष्य से उद्धृत)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/१/६/२०/७</span> <span class="SanskritText">एवं ह्युक्तं प्रगृह्य प्रमाणत: परिणतिविशेषादर्थावधारणं नय:।</span>=<span class="HindiText">आगम में ऐसा कहा है कि वस्तु को प्रमाण से जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है।</span><br /> | |||
राज वार्तिक/१/३३/१/९४/२१ <span class="SanskritText">प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नय:।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण द्वारा प्रकाशित किये गये पदार्थ का विशेष प्ररूपण करने वाला नय है। (श्लोक वार्तिक४/१/३३/ | <span class="GRef">राज वार्तिक/१/३३/१/९४/२१</span> <span class="SanskritText">प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नय:।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण द्वारा प्रकाशित किये गये पदार्थ का विशेष प्ररूपण करने वाला नय है। <span class="GRef">(श्लोक वार्तिक४/१/३३/श्लोक ६/२१८)</span>।</span><br /> | ||
आलाप पद्धत्ति/९ <span class="SanskritText">प्रमाणेन वस्तुसंगृहीतार्थैकांशो नय:।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण के द्वारा संगृहीत वस्तु के अर्थ के एक अंश को नय कहते हैं। (नयचक्र/श्रुत/ | <span class="GRef">आलाप पद्धत्ति/९</span> <span class="SanskritText">प्रमाणेन वस्तुसंगृहीतार्थैकांशो नय:।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण के द्वारा संगृहीत वस्तु के अर्थ के एक अंश को नय कहते हैं। <span class="GRef">(नयचक्र/श्रुत/पृष्ठ २)</span>। <span class="GRef">(न्याय दीपिका/३/८२/१२५/७)</span>।</span><br /> | ||
प्रमाणनयतत्त्वालंकार/७/१ से | <span class="GRef">प्रमाणनयतत्त्वालंकार/७/१ से स्याद्वादमंजरी/२८/३१६/२७ पर उद्धृत</span>‒<span class="SanskritText">नीयते येन श्रुताख्यानप्रमाणविषयीकृतस्य अर्थस्य अंशस्तदितरांशौदासीन्यत: स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नय: इति।</span>=<span class="HindiText">श्रुतज्ञान प्रमाण से जाने हुए पदार्थों का एक अंश जानकर अन्य अंशों के प्रति उदासीन रहते हुए वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं। <span class="GRef">(नय रहस्य/पृ.७१)</span>; <span class="GRef">(जैन तर्क/भाषा/पृष्ठ २१)</span> <span class="GRef">(नय प्रदीप/यशोविजय/पृष्ठ ९७)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला १/१,१,१/८३/९</span> <span class="SanskritText">प्रमाणपरिगृहीतार्थैकदेशे वस्त्वध्यवसायो नय:।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण के द्वारा ग्रहण की गयी वस्तु के एक अंश में वस्तु का निश्चय करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। <span class="GRef">(धवला ९/४,१,४५/१६३/१)</span> <span class="GRef">(कषायपाहुड १/१३-१४/१६८/१९९/४)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला ९/४,१,४५/६</span> <span class="SanskritText">तथा प्रभाचन्द्रभट्टारकैरप्यभाणि‒प्रमाणव्यपाश्रयपरिणामविकल्पवशीकृतार्थविशेषप्ररूपणप्रवण: प्रणिधिर्य: स नय इति। प्रमाणव्यपाश्रयस्तत्परिणामविकल्पवशीकृतानां अर्थविशेषाणां प्ररूपणे प्रवण: प्रणिधानं प्रणिधि: प्रयोगो व्यवहारात्मा प्रयोक्ता वा स नय:।</span>=<span class="HindiText">प्रभाचन्द्र भट्टारक ने भी कहा है‒प्रमाण के आश्रित परिणाम भेदों से वशीकृत पदार्थ विशेषों के प्ररूपण में समर्थ जो प्रयोग हो है वह नय है। उसी को स्पष्ट करते हैं‒जो प्रमाण के आश्रित है तथा उसके आश्रय से होने वाले ज्ञाता के भिन्न-भिन्न अभिप्रायों के आधीन हुए पदार्थ विशेषों के प्ररूपण में समर्थ है, ऐसे प्रणिधान अर्थात् प्रयोग अथवा व्यवहार स्वरूप प्रयोक्ता का नाम नय है। <span class="GRef">(कषाय पाहुड १/१३-१४/१७५/२१०)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">स्याद्वाद मंजरी /२८/३१०/९</span> <span class="SanskritText">प्रमाणप्रतिपन्नार्थैकदेशपरमर्शो नय:।...प्रमाणप्रवृत्तेरुत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थ:।</span> =<span class="HindiText">प्रमाण से निश्चित किये हुए पदार्थों के एक अंश ज्ञान करने को नय कहते हैं। अर्थात् प्रमाण द्वारा निश्चय होने जाने पर उसके उत्तरकालभावी परामर्श को नय कहते हैं।<br /></span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.1.1.5" id="I.1.1.5"> श्रुतज्ञान का विकल्प—</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">श्लोक वार्तिक २/१/६/श्लोक २७/३६७</span> <span class="SanskritText">श्रुतमूला नया: सिद्धा...।</span>=<span class="HindiText">श्रुतज्ञान को मूल कारण मान कर ही नय ज्ञानों की प्रवृत्ति होना सिद्ध माना गया है।</span><br /> <span class="GRef">आलाप पद्धत्ति /९</span> <span class="SanskritText">श्रुतविकल्पो वा (नय:) <span class="HindiText">=श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं। <span class="GRef">(नयचक्रवृत्ति/१७४)</span> <span class="GRef">(कार्तिकेय अनुप्रेक्षा /मूल/२६३</span>)</span>।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.1.2" id="I.1.2"> उपरोक्त लक्षणों का समीकरण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला ९/४,१,४५/१६२/७</span> <span class="SanskritText">को नयो नाम। ज्ञातुरभिप्रायो नय:। अभिप्राय इत्यस्य कोऽर्थ:। प्रमाणपरिगृहीतार्थैकदेशवस्त्वध्यवसाय: अभिप्राय:। युक्तित: प्रमाणात् अर्थपरिग्रह: द्रव्यपर्याययोरन्यतस्य अर्थ इति परिग्रहो वा नय:। प्रमाणेन परिच्छिन्नस्य वस्तुन: द्रव्ये पर्याये वा वस्त्वध्यवसायो नय इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒नय किसे कहते हैं? उत्तर‒ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। प्रश्न‒अभिप्राय इसका क्या अर्थ है ? उत्तर‒प्रमाण से गृहीत वस्तु के एक देश में वस्तु का निश्चय ही अभिप्राय है। (स्पष्ट ज्ञान होने से पूर्व तो) युक्ति अर्थात् प्रमाण से अर्थ के ग्रहण करने अथवा द्रव्य और पर्यायों में से किसी एक को ग्रहण करने का नाम नय है। (और स्पष्ट ज्ञान होने के पश्चात्) प्रमाण से जानी हुई वस्तु के द्रव्य अथवा पर्याय में अर्थात् सामान्य या विशेष में वस्तु के निश्चय को नय कहते हैं, ऐसा अभिप्राय है। और भी देखें - [[ नय#III.2.2 | नय - III.2.2]]। (प्रमाण गृहीत वस्तु में नय प्रवृत्ति सम्भव है)<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.1.3" id="I.1.3"> नय के मूल भेदों के नाम निर्देश</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">तत्त्वार्थ सूत्र /१/३३</span> <span class="SanskritText">नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नया:।</span>=<span class="HindiText">नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं। <span class="GRef">(हरिवंश पुराण /५८/४१)</span>, <span class="GRef">(धवला १/१,१,१/८०/५)</span>, <span class="GRef">(नयचक्रवृत्ति/१८५)</span>, <span class="GRef">(आलाप पद्धत्ति/५)</span>; <span class="GRef">(स्याद्वाद मंजरी/२८/३१०/१५)</span>; (इन सबके विशेष उत्तर भेद देखो [[नय#III | नय - III ]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि /१/३३/१४०/८ </span><span class="SanskritText">स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।</span>=<span class="HindiText">उस (नय) के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। <span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि/१/६/२०/९)</span>, <span class="GRef">(राज वार्तिक /१/१/२/४/४)</span>, <span class="GRef">(राज वार्तिक/१/३३/१/९४/२५)</span>, <span class="GRef">(धवला १/१,१,१/८३/१०)</span>; <span class="GRef">(धवला.९/४,१,४५/१६७/१०)</span>, <span class="GRef">(कषाय पाहुड १/१३-१४/१७७/२११/४)</span>, <span class="GRef">(आलाप पद्धत्ति/५/गाथा ४)</span>, <span class="GRef">(नय चक्र वृत्ति/१४८)</span>, <span class="GRef">(समयसार/आत्मख्याति/१३/कलश ८ की टीका)</span>, <span class="GRef">(पंचास्तिकाय/तत्त्व प्रदीपिका/४)</span>, <span class="GRef">(स्याद्वाद मंजरी/२८/३१७/१)</span>, (इनके विशेष उत्तर भेद देखें - [[ नय#IV | नय / IV ]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef">आलाप पद्धत्ति/५/गाथा ४ </span><span class="PrakritText">णिच्छयववहारणया मूलभेयाण ताण सव्वाणं।</span>=<span class="HindiText">सब नयों के मूल दो भेद हैं‒निश्चय और व्यवहार <span class="GRef">(नय चक्र वृत्ति/१८३)</span>, (इनके विशेष उत्तर भेद देखें - [[ नय#V | नय / V ]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef">कार्तिकेय अनुप्रेक्षा/मूल/२६५</span> <span class="PrakritText">सो च्चिय एक्को धम्मो वाचयसद्दो वि तस्स धम्मस्स। जं जाणदि तं णाणं ते तिण्णि वि णय विसेसा य।</span>=<span class="HindiText">वस्तु का एक धर्म अर्थात् ‘अर्थ’ इस धर्म का वाचक शब्द और उस धर्म को जानने वाला ज्ञान ये तीनों ही नय के भेद हैं। (इन नयों सम्बन्धी चर्चा देखें - [[ नय#I.4 | नय / I / ४ ]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५०५</span><span class="SanskritText"> द्रव्यनयो भावनय: स्यादिति भेदाद्द्विधा च सोऽपि यथा।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यनय और भावनय के भेद से नय दो प्रकार का है। (इन सम्बन्धी लक्षण देखें - [[ नय#I.4 | नय / I / ४ ]])।<br /> | |||
देखें - [[ नय#I.5 | नय / I / ५ ]](वस्तु के एक-एक धर्म को आश्रय करके नय के संख्यात, असंख्यात व अनन्त भेद हैं)। <br /> | देखें - [[ नय#I.5 | नय / I / ५ ]](वस्तु के एक-एक धर्म को आश्रय करके नय के संख्यात, असंख्यात व अनन्त भेद हैं)। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> <strong name="I.1.4" id="I.1.4"> नयों के भेद प्रभेदों का चार्ट—<br /></strong> | <li class="HindiText"> <strong name="I.1.4" id="I.1.4"> नयों के भेद प्रभेदों का चार्ट—<br /></strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.1.5" id="I.1.5"> द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक तथा निश्चय व्यवहार ही मूल भेद हैं </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला १/१,१,१/गाथा ५/१२</span> <span class="PrakritGatha">तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवायरणी। दव्वट्ठियो य पज्जयणयो य सेसा वियप्पा सि।५।</span>=<span class="HindiText">तीर्थंकरों के वचनों के सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिक नय है, और उन्हीं वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिक नय है। शेष सभी नय इन दोनों नयों के विकल्प अर्थात् भेद हैं। <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक/४/१/३३/श्लोक १२/२२३)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/५८/४०)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला ५/१,६,१/३/१०</span> <span class="PrakritText">दुविहो णिद्देसो दव्वट्ठिय पजजववट्ठिय णयावलंबणेण। तिविहो णिद्देसो किण्ण होज्ज। ण तइजस्स णयस्स अभावा।</span>=<span class="HindiText">दो प्रकार का निर्देश है; क्योंकि वह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का अवलंबन करने वाला है। प्रश्न‒तीन प्रकार का निर्देश क्यों नहीं होता है ? उत्तर‒नहीं; क्योंकि तीसरे प्रकार का कोई नय ही नहीं है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">आलाप पद्धत्ति /५/गाथा ४</span> <span class="PrakritGatha">णिच्छयववहारणया मूलभेयाण ताण सव्वाणं। णिच्छयसाहणहेओ दव्वयपज्जत्थिया मुणह।४।</span> =<span class="HindiText">सर्व नयों के मूल निश्चय व व्यवहार ये दो नय हैं। द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक ये दोनों निश्चयनय के साधन या हेतु हैं। (नयचक्र वृत्ति/१८३)।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.1.6" id="I.1.6"> गुणार्थिक नय का निर्देश क्यों नहीं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">राज वार्तिक/५/३८/३/५०१/९</span> <span class="SanskritText">यदि गुणोऽपि विद्यते, ननु चोक्तम् तद्विषयस्तृतीयो मूलनय: प्राप्तनोतीति; नैष दोष:; द्रव्यस्य द्वावात्मानौ सामान्यं विशेषश्चेति। तन्न सामान्यमुत्सर्गोऽन्वय: गुण इत्यनर्थान्तरम् । विशेषो भेद: पर्याय इति पर्यायशब्द:। तत्र सामान्यविषयो नय: द्रव्यार्थिक:। विशेषविषय: पर्यायार्थिक:। तदुभयं समुदितमयुतसिद्धरूपं द्रव्यमित्युच्यते, न तद्विषयस्तृतीयो नयो भवितुमर्हति, विकलादेशत्वान्नयानाम् । तत्समुदयोऽपि प्रमाणगोचर: सकलादेशत्वात्प्रमाणस्य।</span> =<span class="HindiText">प्रश्न‒(द्रव्य व पर्याय से अतिरिक्त) यदि गुण नाम का पदार्थ विद्यमान है तो उसको विषय करने वाली एक तीसरी (गुणार्थिक नाम की) मूल नय भी होनी चाहिए ? उत्तर‒यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि द्रव्य के सामान्य और विशेष ये दो स्वरूप हैं। सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एकार्थ शब्द हैं। विशेष, भेद और पर्याय ये पर्यायवाची (एकार्थ) शब्द हैं। सामान्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थिक नय है, और विशेष को विषय करने वाला पर्यायार्थिक। दोनों से समुदित अयुतसिद्धरूप द्रव्य है। अत: गुण जब द्रव्य का ही सामान्य रूप है तब उसके ग्रहण के लिए द्रव्यार्थिक से पृथक् गुणार्थिक नय की कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि, नय विकलादेशी है और समुदाय रूप द्रव्य सकलादेशी प्रमाण का विषय होता है। <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक ४/१/३३/श्लोक ८/२२०)</span>; <span class="GRef">(प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका/११४)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला ५/१,६,१/३/११</span> <span class="PrakritGatha">तं पि कधं णव्वदे। संगहासंगहवदिरित्ततव्विसयाणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒यह कैसे जाना कि तीसरे प्रकार का कोई नय नहीं है? उत्तर‒क्योंकि संग्रह और असंग्रह अथवा सामान्य और विशेष को छोड़कर किसी अन्य नय का विषयभूत कोई पदार्थ नहीं पाया जाता।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.2" id="I.2"> नय-प्रमाण सम्बन्ध<br /></strong></span> | ||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.2.1" id="I.2.1"> नय व प्रमाण में कथंचित् अभेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला १/१,१,१/८०/९</span> <span class="SanskritText">कथं नयानां प्रामाण्यं। न प्रमाणकार्याणां नयानामुपचारत: प्रामाण्याविरोधात् ।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒नयों में प्रमाणता कैसे सम्भव है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि नय प्रमाण के कार्य हैं ( देखें - [[ नय#II.2 | नय / II / २ ]]), इसलिए उपचार से नयों में प्रमाणता के मान लेने में कोई विरोध नहीं आता।</span><br /> | |||
<span class="GRef">स्याद्वाद मंजरी/२८/३०९/२१</span> <span class="SanskritText">मुख्यवृत्त्या च प्रमाणस्यैव प्रामाण्यम् । यच्च अत्र नयानां प्रमाणतुल्यकक्षताख्यापनं तत् तेषामनुयोगद्वारभूततया प्रज्ञापनाङ्गत्वज्ञापनार्थम् ।</span>=<span class="HindiText">मुख्यता से तो प्रमाण को ही प्रमाणता (सत्यपना) है, परन्तु अनुयोगद्वार से प्रज्ञापना तक पहुँचने के लिए नयों को प्रमाण के समान कहा गया है। (अर्थात् सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में कारणभूत होने से नय भी उपचार से प्रमाण है।)</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/६७९</span> <span class="SanskritText">ज्ञानविशेषो नय इति ज्ञानविशेष: प्रमाणमिति नियमात् । उभयोरन्तर्भेदो विषयविशेषान्न वस्तुतो।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार नय ज्ञानविशेष है उसी प्रकार प्रमाण भी ज्ञान विशेष है, अत: दोनों में वस्तुत: कोई भेद नहीं है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText"> <strong name="I.2.2" id="I.2.2">नय व प्रमाण में कथंचित् भेद</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText"> <strong name="I.2.2" id="I.2.2">नय व प्रमाण में कथंचित् भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला ९/४,१,४५/१६३/४</span> <span class="SanskritText">प्रमाणमेव नय: इति केचिदाचक्षते, तन्न घटते; नयानामभावप्रसंगात् । अस्तु चेन्न नयाभावे एकान्तव्यवहारस्य दृश्यमानस्याभावप्रसङ्गात् ।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण ही नय है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने पर नयों के अभाव का प्रसंग आता है। यदि कहा जाये कि नयों का अभाव हो जाने दो, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे देखे जाने वाले (जगत्प्रसिद्ध) एकान्त व्यवहार के (एक धर्म द्वारा वस्तु का निरूपण करने रूप व्यवहार के) लोप का प्रसंग आता है।<br /> | |||
देखें - [[ सप्तभंगी#2 | सप्तभंगी | देखें - [[ सप्तभंगी#2.3 | सप्तभंगी-2.3 ]] (स्यात्कारयुक्त प्रमाणवाक्य होता है और उससे रहित नय-वाक्य)।</span><br /> | ||
<span class="GRef">पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५०७,६७९</span> <span class="SanskritText">ज्ञानविकल्पो नय इति तत्रेयं प्रक्रियापि संयोज्या। ज्ञानं ज्ञानं न नयो नयोऽपि न ज्ञानमिह विकल्पत्वात् ।५०७। उभयोरन्तर्भेदो विषयविशेषान्न वस्तुत:।६७९।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं, इसलिए ज्ञान ज्ञान है और नय नय है। ज्ञान नय नहीं और नय ज्ञान नहीं। (इन दोनों में विषय की विशेषता से ही भेद हैं, वस्तुत: नहीं)।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.2.3" id="I.2.3"> श्रुत प्रमाण में ही नय होती है अन्य ज्ञानों में नहीं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक २/१/६/श्लोक २४-२७/३६६</span> <span class="SanskritText">मतेरवधितो वापि मन:पर्ययतोपि वा। ज्ञातस्यार्थस्य नांशोऽस्ति नयानां वर्तंनं ननु।२४। नि:शेषदेशकालार्थागोचरत्वविनिश्चयात् । तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टितम् ।२५। त्रिकालगोचराशेषपदार्थांशेषु वृत्तित:। केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते।२६। परोक्षाकारतावृत्ते: स्पष्टत्वात् केवलस्य तु। श्रुतमूला नया: सिद्धा वक्ष्यमाणा: प्रमाणवत् ।२७।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒(नय-I/१/१/४ में ऐसा कहा गया है कि प्रमाण से जान ली गयी वस्तु के अंशों में नय ज्ञान प्रवर्तता है) किन्तु मति, अवधि व मन:पर्यय इन तीन ज्ञानों से जान लिये गये अर्थ के अंशों में तो नयों की प्रवृत्ति नहीं हो रही है, क्योंकि वे तीनों सम्पूर्ण देश व काल के अर्थों को विषय करने को समर्थ नहीं हैं, ऐसा विशेषरूप से निर्णीत हो चुका है। (और नयज्ञान की प्रवृत्ति सम्पूर्ण देशकालवर्ती वस्तु का समीचीन ज्ञान होने पर ही मानी गयी है‒ देखें - [[ नय#II.2 | नय / II / २ ]])। उत्तर‒आपकी बात युक्त है और वह हमें इष्ट है। प्रश्न‒त्रिकालगोचर अशेष पदार्थों के अंशों में वृत्ति होने के कारण केवलज्ञान को नय का मूल मान लें तो? उत्तर‒यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि अपने विषयों की परोक्षरूप से विकल्पना करते हुए ही नय की प्रवृत्ति होती है, प्रत्यक्ष करते हुए नहीं। किन्तु केवलज्ञान का प्रतिभास तो स्पष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष होता है। अत: परिशेष न्याय से श्रुतज्ञान को मूल मानकर ही नयज्ञानों की प्रवृत्ति होना सिद्ध है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.2.4" id="I.2.4"> प्रमाण व नय में कथंचित् प्रधान व अप्रधानपना </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/१/६/२०/६</span> <span class="SanskritText">अभ्यर्हितत्वात्प्रमाणस्य पूर्वनिपात:।...कुतोऽभ्यर्हितत्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात् ।</span>=<span class="HindiText">सूत्र में ‘प्रमाण’ शब्द पूज्य होने के कारण पहले रखा गया है। नय प्ररूपणा का योनिभूत होने के कारण प्रमाण श्रेष्ठ है। <span class="GRef">(राज वार्तिक/१/६/१/३३/४)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> नय चक्र /श्रुत/३२</span> <span class="SanskritText">न ह्येवं, व्यवहारस्य पूज्यतरत्वान्निश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् । ननु प्रमाणलक्षणो योऽसौ व्यवहार: स व्यवहारनिश्चयमनुभयं च गृह्णन्नप्यधिकविषयत्वात्कथं न पूज्यतमो। नैवं नयपक्षातीतमानं कर्तुमशक्यत्वात् । तद्यथा। निश्चयं गृह्णन्नपि अन्ययोगव्यवच्छेदनं न करोतीत्यन्ययोगव्यवच्छेदाभावे व्यवहारलक्षणभावक्रियां निरोद्धुमशक्त:। अत एव ज्ञानचैतन्ये स्थापयितुमशक्य एवात्मानमिति।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय पूज्यतर है और निश्चयनय पूज्यतम है। (दोनों नयों की अपेक्षा प्रमाण पूज्य नहीं है)। प्रश्न‒प्रमाण ज्ञान व्यवहार को, निश्चय को, उभय को तथा अनुभय को विषय करने के कारण अधिक विषय वाला है। फिर भी उसको पूज्यतम क्यों नहीं कहते ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि इसके द्वारा आत्मा को नयपक्ष से अतीत नहीं किया जा सकता वह ऐसे कि‒निश्चय को ग्रहण करते हुए भी वह अन्य के मत का निषेध नहीं करता है, और अन्यमत निराकरण न करने पर वह व्यवहारलक्षण भाव व क्रिया को रोकने में असमर्थ होता है, इसीलिए यह आत्मा को चैतन्य में स्थापित करने के लिए असमर्थ रहता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.2.5" id="I.2.5"> प्रमाण का विषय सामान्य विशेष दोनों है—</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">परीक्षा मुख/४/१,२</span><span class="SanskritText"> सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषय:।१। अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्पूर्वोत्तराकारापरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च।२। </span>=<span class="HindiText">सामान्य विशेष स्वरूप अर्थात् द्रव्य और पर्याय स्वरूप पदार्थ प्रमाण का विषय है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ में अनुवृत्त प्रत्यय (सामान्य) और व्यावृत्त प्रत्यय (विशेष) होते हैं। तथा पूर्व आकार का त्याग, उत्तर आकार की प्राप्ति और स्वरूप की स्थितिरूप परिणामों से अर्थक्रिया होती है।<br /> | |||
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<li> <span class="HindiText"> <strong name="I.2.6" id="I.2.6">प्रमाण अनेकान्तग्राही है और नय एकान्तग्राही </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText"> <strong name="I.2.6" id="I.2.6">प्रमाण अनेकान्तग्राही है और नय एकान्तग्राही </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">स्वयम्भू स्तोत्र/१०३</span> <span class="SanskritText">अनेकान्तोऽप्यनेकान्त: प्रमाणनयसाधन:। अनेकान्त: प्रमाणान्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नायात् ।१८।</span>=<span class="HindiText">आपके मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनों को लिये हुए अनेकान्त स्वरूप है। प्रमाण की दृष्टि से अनेकान्त रूप सिद्ध होता है और विवक्षित नय की अपेक्षा से एकान्त रूप सिद्ध होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">राज वार्तिक/१६/७/३५/२८</span> <span class="SanskritText">सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते। सम्यग्नेकान्त: प्रमाणम् । नयार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवणत्वात्, प्रमाणार्पणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">सम्यगेकान्त नय कहलाता है और सम्यगनेकान्त प्रमाण। नय विवक्षा वस्तु के एक धर्म का निश्चय कराने वाली होने से एकान्त है और प्रमाणविवक्षा वस्तु के अनेक धर्मों की निश्चय स्वरूप होने के कारण अनेकान्त है। <span class="GRef">(न्यायदीपिका/३/२५/१२९/१)</span>। <span class="GRef">(सप्तभंगीतरंगीनी./७४/४)</span> <span class="GRef">(पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/३३४)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला ९/४,१,४५/१६३/५</span> <span class="SanskritText">किं च न प्रमाणं नय: तस्यानेकान्तविषयत्वात् । न नय: प्रमाणम्, तस्यैकान्तविषयत्वात् । न च ज्ञानमेकान्तविषयमस्ति, एकान्तस्य नीरूपत्वतोऽवस्तुन: कर्मरूपत्वाभावात् । न चानेकान्तविषयो नयोऽस्ति, अवस्तुनि वस्त्वर्पणाभावात् ।</span> <span class="HindiText">प्रमाण नय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका विषय अनेक धर्मात्मक वस्तु हैं। न नय प्रमाण हो सकता है, क्योंकि, उसका एकान्त विषय है। और ज्ञान एकान्त को विषय करने वाला है नहीं, क्योंकि, एकान्त नीरूप होने से अवस्तुस्वरूप है, अत: वह कर्म (ज्ञान का विषय) नहीं हो सकता। तथा नय अनेकान्त को विषय करने वाला नहीं है, क्योंकि, अवस्तु में वस्तु का आरोप नहीं हो सकता।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका/परिशिष्ठ का अन्त</span>‒<span class="SanskritText"> प्रत्येकमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयैर्निरूप्यमाणं...अनन्तधर्माणां परस्परमतद्भावमात्रेणाशक्यविवेचनत्वादमेचकस्वभावैकधर्मव्यापकैकधर्मित्वाद्यथोदितैकान्तात्मात्मद्रव्यम् । युगपदनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याख्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणेन निरूप्यमाणं तु...अनन्तधर्माणां वस्तुत्वेनाशक्यविवेचनत्वान्मेचकस्वभावानन्तधर्मव्याप्येकधर्मित्वात् यथोदितानेकान्तात्मात्मद्रव्यं।</span> =<span class="HindiText">एक एक धर्म में एक एक नय, इस प्रकार अनन्त धर्मों में व्यापक अनन्त नयों से निरूपण किया जाय तो, अनन्तधर्मों को परस्पर अतद्भावमात्र से पृथक् करने में अशक्य होने से, आत्मद्रव्य अमेचकस्वभाव वाला, एकधर्म में व्याप्त होने वाला, एक धर्मी होने से यथोक्त एकान्तात्मक है। परन्तु युगपत् अनन्त धर्मों में व्यापक ऐसे अनन्त नयों में व्याप्य होने वाला एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण से निरूपण किया जाय तो, अनन्तधर्मों को वस्तुरूप से पृथक् करना अशक्य होने से आत्मद्रव्य मेचकस्वभाववाला, अनन्त धर्मों में व्याप्त होने वाला, एक धर्मी होने से यथोक्त अनेकान्तात्मक है। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.2.7" id="I.2.7"> प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/१/६/२०/८ में उद्धृत</span>‒<span class="SanskritText">सकलादेश: प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति।</span>=<span class="HindiText">सकलादेश प्रमाण का विषय है और विकलादेश नय का विषय है। <span class="GRef">(राज वार्तिक/१/६/३/३३/९)</span>, <span class="GRef">(पंचास्तिकाय/तात्त्पर्य वृत्ति/१४/३२/१९)</span> (और भी देखें - [[ सप्तभंगी#2 | सप्तभंगी / २ ]]) (विशेष देखें - [[ सकलादेश ]][[ विकलादेश ]])।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.2.8" id="I.2.8"> प्रमाण सकल वस्तुग्राहक है और नय तदंशग्राहक </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">नय चक्र वृत्ति/२४७</span> <span class="PrakritGatha">इदि तं पमाणविसयं सत्तारूवं खु जं हवे दव्वं। णयविसयं तस्संसं सियभणितं तं पि पुव्वुत्तं।२४७।</span>=<span class="HindiText">केवल सत्तारूप द्रव्य अर्थात् सम्पूर्ण धर्मों की निर्विकल्प अखण्ड सत्ता प्रमाण का विषय है और जो उसके अंश अर्थात् अनेकों धर्म कहे गये हैं वे नय के विषय हैं। (विशेष दे. [[नय#I.1.1.3 | नय - I.1.1.3 ]])।</span><br /> | |||
<span class="GRef">आलाप पद्धत्ति /९</span> <span class="SanskritText">सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणं।</span>=<span class="HindiText">सकल वस्तु अर्थात् अखण्ड वस्तु ग्राहक प्रमाण है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला ९/४,१,४५/१६६/१</span> <span class="SanskritText">प्रकर्षेण मानं प्रमाणम्, सकलादेशीत्यर्थ:। तेन प्रकाशितानां प्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थ:। तेषामर्थानामस्तित्वनास्तित्व-नित्यत्वानित्यत्वाद्यननन्तात्मकानां जीवादीनां ये विशेषा: पर्याया: तेषां प्रकर्षेण रूपक: प्ररूपक: निरुद्धदोषानुषङ्गद्वारेणेत्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">प्रकर्ष से अर्थात् संशयादि से रहित वस्तु का ज्ञान प्रमाण है। अभिप्राय यह है कि जो समस्त धर्मों को विषय करने वाला हो वह प्रमाण है, उससे प्रकाशित उन अस्तित्वादि व नित्यत्व अनित्यत्वादि अनन्त धर्मात्मक जीवादिक पदार्थों के जो विशेष अर्थात् पर्यायें हैं, उनका प्रकर्ष से अर्थात् संशय आदि दोषों से रहित होकर निरूपण करने वाला नय है। <span class="GRef">(कषायपाहुड १/१३-१४/१७४/२१०/३)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/६६६</span> <span class="SanskritText">अयमर्थोऽर्थविकल्पो ज्ञानं किल लक्षणं स्वतस्तस्य। एकविकल्पो नयस्यादुभयविकल्प: प्रमाणमिति बोध:।६६६। तत्रोक्तं लक्षणमिह सर्वस्वग्राहकं प्रमाणमिति। विषयो वस्तुसमस्तं निरंशदेशादिभूरुदाहरणम् ।६७६।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान अर्थाकार होता है। वही प्रमाण है। उसमें केवल सामान्यात्मक या केवल विशेषात्मक विकल्प नय कहलाता है और उभय विकल्पात्मक प्रमाण है।६६६। वस्तु का सर्वस्व ग्रहण करना प्रमाण का लक्षण है। समस्त वस्तु उसका विषय है और निरंशदेश आदि ‘भू’ उसके उदाहरण हैं।६७६।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.2.9" id="I.2.9"> प्रमाण सब धर्मों को युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रम से एक एक को </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला ९/४,१,४५/१६३</span> <span class="SanskritText">किं च, न प्रमाणेन विधिमात्रमेव परिच्छिद्यते, परव्यावृत्तिमनादधानस्य तस्य प्रवृत्ते साङ्कर्यप्रसङ्गादप्रतिपत्तिसमानताप्रसङ्गो वा। न प्रतिषेधमात्रम्, विधिमपरिछिंदानस्य इदमस्माद् व्यावृत्तमिति गृहीतुमशक्यत्वात् । न च विधिप्रतिषेधौ मिथो भिन्नौ प्रतिभासेत, उभयदोषानुषङ्गात् । ततो विधिप्रतिषेधात्मकं वस्तु प्रमाणसमधिगम्यमिति नास्त्येकान्तविषयं विज्ञानम् ।...प्रमाणपरिगृहीतवस्तुनि यो व्यवहार एकान्तरूप: नयनिबन्धन:। तत: सकलो व्यवहारो नयाधीन:।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण केवल विधि या केवल प्रतिषेध को नहीं जानता; क्योंकि, दूसरे पदार्थों की व्यावृत्ति किये बिना ज्ञान में संकरता का या अज्ञानरूपता का प्रसंग आता है, और विधि को जाने बिना ‘यह इससे भिन्न है’ ऐसा ग्रहण करना अशक्य है। प्रमाण में विधि व प्रतिषेध दोनों भिन्न-भिन्न भी भासित नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसा होने पर पूर्वोक्त दोनों दोषों का प्रसंग आता है। इस कारण विधि प्रतिषेधरूप वस्तु प्रमाण का विषय है। अतएव ज्ञान एकान्त (एक धर्म) को विषय करने वाला नहीं है।‒प्रमाण से गृहीत वस्तु में जो एकान्त रूप व्यवहार होता है वह नय निमित्तक है। ([[नय#V.9.4 | नय - V.9.4]]) <span class="GRef">(पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/६६५)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">नय चक्र वृत्ति/७१</span><span class="PrakritGatha"> इत्थित्ताइसहावा सव्वा सब्भाविणो ससब्भावा। उहयं जुगवपमाणं गहइ णओ गउणमुक्खभावेण।७१।</span>=<span class="HindiText">अस्तित्वादि जितने भी वस्तु के निज स्वभाव हैं, उन सबको अथवा विरोधी धर्मों को युगपत् ग्रहण करने वाला प्रमाण है, और उन्हें गौण मुख्य भाव से ग्रहण करने वाला नय है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">न्याय दीपिका/३/८५/१२९/१</span> <span class="SanskritText">अनियतानेकधर्मवद्वस्तुविषयत्वात्प्रमाणस्य, नियतैकधर्मवद्वस्तुविषयत्वाच्च नयस्य।</span>=<span class="HindiText">अनियत अनेक धर्म विशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला प्रमाण है और नियत एक धर्म विशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला नय है। <span class="GRef">(पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/६८०)</span>। (और भी दे०‒[[अनेकांत#5.4 | अनेकांत-5.4]])।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.2.10" id="I.2.10"> प्रमाण स्यात्पद युक्त होने से सर्व नयात्मक होता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">स्वयम्भू स्तोत्र/६५</span> <span class="SanskritText">नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे, रसोपविद्धा इव लोहधातव:। भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्या: प्रणता हितैषिण:।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार रसों के संयोग से लोहा अभीष्ट फल का देने वाला बन जाता है, इसी तरह नयों में ‘स्यात्’ शब्द लगाने से भगवान् के द्वारा प्रतिपादित नय इष्ट फल को देते हैं। <span class="GRef">(स्याद्वादमंजरी/२८/३२१/३ पर उद्धृत)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">राज वार्तिक/१/७/५/३८/१५</span> <span class="SanskritText">तदुभयसंग्रह: प्रमाणम् ।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक दोनों नयों का संग्रह प्रमाण है। <span class="GRef">(पं.सं./पू./६६५)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/२८/३२१/१</span><span class="SanskritText"> प्रमाणं तु सम्यगर्थनिर्णयलक्षणं सर्वनयात्मकम् । स्याच्छब्दलाञ्छितानां नयानामेव प्रमाणव्यपदेशभाक्त्वात् । तथा च श्री विमलनाथस्तवे श्रीसमन्तभद्र:।</span>=<span class="HindiText">सम्यक् प्रकार से अर्थ के निर्णय करने को प्रमाण कहते हैं। प्रमाण सर्वनय रूप होता है। क्योंकि नय वाक्यों में ‘स्यात्' शब्द लगाकर बोलने को प्रमाण कहते हैं। श्री समन्त स्वामी ने भी यही बात स्वयंभू स्तोत्र में विमलनाथ स्वामी की स्तुति करते हुए कही है। (देखें - [[ प्रमाण ]])।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.2.11" id="I.2.11"> प्रमाण व नय के उदाहरण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/७४७-७६७</span> <span class="SanskritText">तत्त्वमनिर्वचनीयं शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतम् । गुणपर्ययवद्द्रव्यं पर्यायार्थिकनयस्य पक्षोऽयम् ।७४७। यदिदमनिर्वचनीयं गुणपर्ययवत्तदेव नास्त्यन्यत् । गुणपर्ययवद्यदिदं तदेव तत्त्वं तथा प्रमाणमिति।७४८।</span>=<span class="HindiText">’तत्त्व अनिर्वचनीय है’ यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का पक्ष है और ‘द्रव्य गुणपर्यायवान है’ यह पर्यायार्थिक नय का पक्ष है।७४७। जो यह अनिर्वचनीय है वही गुणपर्यायवान है, कोई अन्य नहीं, और जो यह गुणपर्यायवान् है वही तत्त्व है, ऐसा प्रमाण का पक्ष है।७४८।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.2.12" id="I.2.12"> नय के एकान्तग्राही होने में शंका</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला ९/४,१,४७/२३९/५</span> <span class="PrakritText">एयंतो अवत्थू कधं ववहारकारणं। एयंतो अवत्थूण संववहारकारणं किंतु तक्कारणमणेयंतो पमाणविसईकओ, वत्थुत्तादो। कधं पुण णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि। वुच्चदे‒को एवं भणदि णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि। पमाणं पमाणविसईकयट्ठा च सयलसंववहाराणंकारणं। किंतु सव्वो संववहारो पमाणणिबंधणो णयसरूवो त्ति परूवेमो, सव्वसंववहारेसु गुण-पहाणभावोवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒जब कि एकान्त अवस्तु स्वरूप है, तब वह व्यवहार का कारण कैसे हो सकता है ? उत्तर‒अवस्तु स्वरूप एकान्त संव्यवहार का कारण नहीं है, किन्तु उसका कारण प्रमाण से विषय किया गया अनेकान्त है, क्योंकि वह वस्तु स्वरूप है। प्रश्न‒यदि ऐसा है तो फिर सब संव्यवहारों का कारण नय कैसे हो सकता है ? उत्तर‒इसका उत्तर कहते हैं‒कौन ऐसा कहता है कि नय सब संव्यवहारों का कारण है; या प्रमाण तथा प्रमाण से विषय किये गये पदार्थ भी समस्त संव्यवहारों के कारण हैं? किन्तु प्रमाण निमित्तक सब संव्यवहार नय स्वरूप हैं, ऐसा हम कहते हैं, क्योंकि सब संव्यवहार में गौणता प्रधानता पायी जाती है। विशेष‒ देखें - [[ नय#II.2 | नय / II / २ ]]।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.3" id="I.3"> नय की कथंचित् हेयोपादेयता<br /></strong></span> | ||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.3.1" id="I.3.1"> तत्त्व नय पक्षों से अतीत है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">समयसार/मूल/१४२</span><span class="PrakritGatha"> कम्मं बद्धमबद्धे जीवे एव तु जाण णयपक्खं। पक्खातिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो।१४२।</span>=<span class="HindiText">जीव में कर्म बद्ध है अथवा अबद्ध है इस प्रकार तो नयपक्ष जानो, किन्तु जो पक्षातिक्रान्त कहलाता है वह समयसार है। <span class="GRef">(नय चक्र /श्रुत/२९/१)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">नय चक्र /श्रुत/३२</span>‒<span class="SanskritText">प्रत्यक्षानुभूतिर्नयपक्षातीत:।</span>=<span class="HindiText">प्रत्यक्षानुभूति ही नय पक्षातीत है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.3.2" id="I.3.2"> नय पक्ष कथंचित् हेय है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/परिशिष्ठ/कलश २७०</span> <span class="SanskritText">चित्रात्मशक्तिसमुदायमथोऽयमात्मा, सद्य: प्रणश्यति नयेक्षणखण्डयमान:। तस्मादखण्डमनिराकृतखण्डमेकमेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोस्मि।२७०।</span>=<span class="HindiText">आत्मा में अनेक शक्तियाँ हैं, और एक-एक शक्ति का ग्राहक एक-एक नय है इसलिए यदि नयों की एकान्त दृष्टि से देखा जाये तो आत्मा का खण्ड-खण्ड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होने से स्याद्वादी, नयों का विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तु को अनेक शक्ति समूह रूप सामान्य विशेष रूप सर्व शक्तिमय एक ज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है, इसमें कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें - [[ अनेकांत#2.6| अनेकांत-2.6 ]]), <span class="GRef">(पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५१०)</span>। </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"> <strong name="I.3.3" id="I.3.3"> नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं </strong></span><br> | ||
<li> <span class="HindiText"><strong name="I.3.4" id="I.3.4"> नय पक्ष को हेय कहने का कारण व प्रयोजन</strong></span> <br> | <span class="GRef">समयसार/मूल/१४३</span> <span class="PrakritGatha">दोण्हविणयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धा। ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो।</span>=<span class="HindiText">नय पक्ष से रहित जीव समय से प्रतिबद्ध होता हुआ, दोनों ही नयों के कथन को मात्र जानता ही है, किन्तु नय पक्ष को किंचित् मात्र भी ग्रहण नहीं करता। </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText"><strong name="I.3.4" id="I.3.4"> नय पक्ष को हेय कहने का कारण व प्रयोजन</strong></span> <br><span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/१४४/कलश ९३-९५</span> <span class="SanskritText">आक्रामन्नविकल्पभावनचलं पक्षैर्नयानां विना, सारो य: समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमान: स्वयम् । विज्ञानैकरस: स एष भगवान्पुण्य: पुराण: पुमान्, ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोऽप्ययम् ।९३। दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो, दूरादेव विवकेनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् । विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्मा हरन्, आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ।९४। विकल्पक: परं कर्ता विकल्प: कर्म केवलम् । न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति।९५।</span>=<span class="HindiText">नयों के पक्षों से रहित अचल निर्विकल्प भाव को प्राप्त होता हुआ, जो समय का सार प्रकाशित करता है, वह यह समयसार, जो कि आत्मलीन पुरुषों के द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है, वह विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान् है, पवित्र पुराण पुरुष है। उसे चाहे ज्ञान कहो या दर्शन वह तो यही (प्रत्यक्ष) ही है, अधिक क्या कहें ? जो कुछ है, सो यह एक ही है।९३। जैसे पानी अपने समूह से च्युत होता हुआ दूर गहन वन में बह रहा हो, उसे दूर से ही ढाल वाले मार्ग के द्वारा अपने समूह की ओर बल पूर्वक मोड़ दिया जाये, तो फिर वह पानी, पानी को पाने के लिए समूह की ओर खेंचता हुआ प्रवाह-रूप होकर अपने समूह में आ मिलता है। इसी प्रकार यह आत्मा अपने विज्ञानघनस्वभाव से च्युत होकर प्रचुर विकल्पजालों के गहन वन में दूर परिभ्रमण कर रहा था। उसे दूर से ही विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा अपने विज्ञानघनस्वभाव की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया। इसलिए केवल विज्ञानघन के ही रसिक पुरुषों को जो एक विज्ञान रसवाला ही अनुभव में आता है ऐसा वह आत्मा, आत्मा को आत्मा में खींचता हुआ, सदा विज्ञानघनस्वभाव में आ मिलता है।९४। <span class="GRef">(समयसार/आत्मख्याति/१४४)</span>। विकल्प करने वाला ही केवल कर्ता है, और विकल्प ही केवल कर्म हैं, जो जीव विकल्प सहित है, उसका कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता।९५। </span><br> | |||
<span class="GRef"> नियमसार/तात्त्पर्यवृत्ति/४८/कलश ७२</span> <span class="SanskritText">शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्यादृशि प्रत्यहं, शुद्धं कारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्दृशि प्रत्यहं। इत्थं य: परमागमार्थमतुलं जानाति सदृक् स्वयं, सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ।७२।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध अशुद्ध की जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टि को सदैव होती है; सम्यग्दृष्टि को तो सदा कारणतत्त्व और कार्यतत्त्व दोनों शुद्ध हैं। इस प्रकार परमागम के अतुल अर्थ को, सारासार के विचार वाली सुन्दर बुद्धि द्वारा, जो सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते हैं।</span> <span class="GRef">समयसार/तात्त्पर्यवृत्ति/१४४/२०२/१३</span> <span class="SanskritText">समस्तमतिज्ञानविकल्परहित: सन् बद्धाबद्धादिनयपक्षपातरहित: समयसारमनुभवन्नेव निर्विकल्पसमाधिस्थै: पुरुषैर्दृश्यते ज्ञायते च यत आत्मा तत: कारणात् नवरि केवलं सकलविमलकेवलदर्शनज्ञानरूपव्यपदेशसंज्ञां लभते। न च बद्धाबद्धादिव्यपदेशाविति।</span>=<span class="HindiText">समस्त मतिज्ञान के विकल्पों से रहित होकर बद्धाबद्ध आदि नयपक्षपात से रहित समयसार का अनुभव करके ही, क्योंकि, निर्विकल्प समाधि में स्थित पुरुषों द्वारा आत्मा देखा जाता है, इसलिए वह केवलदर्शन ज्ञान संज्ञा को प्राप्त होता है, बद्ध या अबद्ध आदि व्यपदेश को प्राप्त नहीं होता। <span class="GRef">(समयसार/तात्त्पर्यवृत्ति/१३/३२/७)</span>। </span><br> | |||
<li | <span class="GRef"> पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५०६</span> <span class="SanskritText">यदि वा ज्ञानविकल्पो नयो विकल्पोऽस्ति सोऽप्यपरमार्थ:। नयतो ज्ञानं गुण इति शुद्धं ज्ञेयं च किंतु तद्योगात् ।५०६।</span>=<span class="HindiText">अथवा ज्ञान के विकल्प का नाम नय है और वह विकल्प भी परमार्थभूत नहीं है, क्योंकि वह ज्ञान के विकल्परूप नय न तो शुद्ध ज्ञानगुण ही है और न शुद्ध ज्ञेय ही, परन्तु ज्ञेय के सम्बन्ध से होने वाला ज्ञान का विकल्प मात्र है। स.सा./पं.जयचन्द/१२/क.६ भाषार्थ‒यदि सर्वथा नयों का पक्षपात हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है। </span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="I.3.5" id="I.3.5"> परमार्थ से निश्चय व व्यवहार दोनों ही का पक्ष विकल्परूप होने से हेय है </strong></span><br><span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/१४२</span> <span class="SanskritText">यस्तावज्जीवे बद्धं कर्मेति विकल्पयति स जीवेऽबद्धं कर्मेति एकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति। यस्तु जीवेऽबद्धं कर्मेति विकल्पयति सोऽपि जीवे बद्धं कर्मेत्येकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति। य: पुनर्जीवे बद्धमबद्धं च कर्मेति विकल्पयति स तु तं द्वितयमपि पक्षमनतिक्रामन्न विकल्पमतिक्रामति। ततो य एव समस्तनयपक्षमतिक्रामति स एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति। य एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति स एव समयसारं विन्दति।८।</span>=<span class="HindiText">’जीव में कर्म बन्धा है’ जो ऐसा एक विकल्प करता है, वह यद्यपि ‘जीव में कर्म नहीं बन्धा है’ ऐसे एक पक्ष को छोड़ देता है, परन्तु विकल्प को नहीं छोड़ता। जो ‘जीव में कर्म नहीं बन्धा है’ ऐसा विकल्प करता है, वह पहले ‘जीव में कर्म बन्धा है’ इस पक्ष को यद्यपि छोड़ देता है, परन्तु विकल्प को नहीं छोड़ता। जो ‘जीव में कर्म कथंचित् बन्धा है और कथंचित् नहीं भी बन्धा है’ ऐसा उभयरूप विकल्प करता है, वह तो दोनों ही पक्षों को नहीं छोड़ने के कारण विकल्प को नहीं छोड़ता है। (अर्थात् व्यवहार या निश्चय इन दोनों में से किसी एक नय का अथवा उभय नय का विकल्प करने वाला यद्यपि उस समय अन्य नय का पक्ष नहीं करता पर विकल्प तो करता ही है), समस्त नयपक्ष का छोड़ने वाला ही विकल्पों को छोड़ता है और वही समयसार का अनुभव करता है। </span><br /> | |||
<li | <span class="GRef">पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/६४५-६४८</span> <span class="SanskritText">ननु चैवं परसमय: कथं स निश्चयनयावलम्बी स्यात् । अविशेषादपि स यथा व्यवहारनयावलम्बी य:।६४५।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न‒</strong>व्यवहार नयावलम्बी जैसे सामान्य रूप से भी परसमय होता है, वैसे ही निश्चयनयावलम्बी परसमय कैसे हो सकता है।६४५। <strong>उत्तर‒</strong>(उपरोक्त प्रकार यहाँ भी दोनों नयों को विकल्पात्मक कहकर समाधान किया है)।६४६-६४८। </span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="I.3.6" id="I.3.6"> प्रत्यक्षानुभूति के समय निश्चयव्यवहार के विकल्प नहीं रहते </strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> नय चक्र वृत्ति/२६६</span> <span class="PrakritText">तच्चाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण। णो आराहणसमये पच्चक्खो अणुहओ जम्हा।</span>=<span class="HindiText">तत्त्वान्वेषण काल में ही युक्तिमार्ग से अर्थात् निश्चय व्यवहार नयों द्वारा आत्मा जाना जाता है, परन्तु आत्मा की आराधना के समय वे विकल्प नहीं होते, क्योंकि उस समय तो आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही है।</span><span class="GRef"> नय चक्र/श्रुत/३२</span> <span class="SanskritText">एवमात्मा यावद्व्यवहारनिश्चयाभ्यां तत्त्वानुभूति: तावत्परोक्षानुभूति:। प्रत्यक्षानुभूति: नयपक्षातीत:।</span>=<span class="HindiText">आत्मा जब तक व्यवहार व निश्चय के द्वारा तत्त्व का अनुभव करता है तब तक उसे परोक्ष अनुभूति होती है, प्रत्यक्षानुभूति तो नय पक्षों से अतीत है। </span><br /> | |||
<span class="GRef">समयसार/आत्मख्याति/१४३</span> <span class="SanskritText">तथा किल य: व्यवहारनिश्चयनयपक्षयो:... परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुकतया स्वरूपमेव केवलं जानाति न तु...चिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् ...समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कथंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति स खलु निखिलविकल्पेभ्य: परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्र: समयसार:।</span>=<span class="HindiText">जो श्रुतज्ञानी, पर का ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होने से, व्यवहार व निश्चय नयपक्षों के स्वरूप को केवल जानता ही है, परन्तु चिन्मय समय से प्रतिबद्धता के द्वारा, अनुभव के समय स्वयं ही विज्ञानघन हुआ होने से, तथा समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुआ होने से, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह वास्तव में समस्त विकल्पों से पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है।</span> <span class="GRef">पुरूषार्थसिद्धि उपाय/८</span> <span class="SanskritText">व्यवहारनिश्चयौ य: प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थ:। प्राप्नोति देशनाया: स एव फलमविकलं शिष्य:।</span>=<span class="HindiText">जो जीव व्यवहार और निश्चय नय के द्वारा वस्तुस्वरूप को यथार्थरूप जानकर मध्यस्थ होता है अर्थात् उभय नय के पक्ष से अतिक्रान्त होता है, वही शिष्य उपदेश के सकल फल को प्राप्त होता है। </span><br /> | |||
<li | <span class="GRef"> समयसार/तात्त्पर्यवृत्ति/१४२ का अन्तिम वाक्य/१९९/११ </span><span class="PrakritText">समयाख्यानकाले या बुद्धिर्नयद्वयात्मिका वर्तते, बुद्धतत्त्वस्य सा स्वस्थस्य निवर्तते, हेयोपादेयतत्त्वे तु विनिश्चित्य नयद्वयात्, त्यक्त्वा हेयमुपादेयेऽवस्थानं साधुसम्मतं।</span>=<span class="HindiText">तत्त्व के व्याख्यान काल में जो बुद्धि निश्चय व व्यवहार इन दोनों रूप होती है, वही बुद्धि स्व में स्थित उस पुरुष की नहीं रहती जिसने वास्तविक तत्त्व का बोध प्राप्त कर लिया होता है; क्योंकि दोनों नयों से हेय व उपादेय तत्त्व का निर्णय करके हेय को छोड़ उपादेय में अवस्थान पाना ही साधु सम्मत है। </span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="I.3.7" id="I.3.7"> परन्तु तत्त्व निर्णयार्थ नय कार्यकारी है </strong></span><br /> | |||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/१/६ </span><span class="SanskritText">प्रमाणनयैरधिगम:।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण और नय से पदार्थ का ज्ञान होता है।</span><span class="GRef">धवला १/१,१,१/गाथा१०/१६</span><span class="SanskritText"> प्रमाणनयनिक्षेपैर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते। युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ।१०।</span>=<span class="HindiText">जिस पदार्थ का प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा नयों के द्वारा या निक्षेपों के द्वारा सूक्ष्म दृष्टि से विचार नहीं किया जाता है, वह पदार्थ कभी युक्त होते हुए भी अयुक्त और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्त की तरह प्रतीत होता है।१०। <span class="GRef">(धवला ३/१,२,१५/गाथा ६१/१२६)</span>, <span class="GRef">(तिलोयपण्णति/१/८२)</span> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला १/१,१,१/गाथा ६८-६९/९१</span> <span class="PrakritGatha">णत्थि णएहिं विहूणं सुत्तं अत्थो व्व जिणवरमदम्हि। तो णयवादे णिउणा मुणिणो सिद्धंतिया होंति।६८। तम्हा अहिगय सुत्तेण अत्थसंपायणम्हि जइयव्वं। अत्थ गई वि य णयवादगहणलीणा दुरहियम्मा।६९।</span>=<span class="HindiText">जिनेन्द्र भगवान् के मत में नयवाद के बिना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं कहा गया है। इसलिए जो मुनि नयवाद में निपुण होते हैं वे सच्चे सिद्धान्त के ज्ञाता समझने चाहिए।६८। अत: जिसने सूत्र अर्थात् परमागम को भले प्रकार जान लिया है, उसे ही अर्थ संपादन में अर्थात् नय और प्रमाण के द्वारा पदार्थ का परिज्ञान करने में, प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि पदार्थों का परिज्ञान भी नयवादरूपी जंगल में अन्तर्निहित है अतएव दुरधिगम्य है।६९।</span> <span class="GRef">कषायपाहुड १/१३-१४/१७६/गाथा ८५/२११</span> <span class="SanskritText">स एष याथात्म्योपलब्धिनिमित्तत्वाद्भावनां श्रेयोऽपदेश:।८५।</span>=<span class="HindiText">यह नय, पदार्थों का जैसा का जैसा स्वरूप है उस रूप से उनके ग्रहण करने में निमित्त होने से मोक्ष का कारण है। <span class="GRef">(धवला ९/४,१,४५/१६६/९)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला १/१,१,१/८३/९</span> <span class="SanskritText">नयैर्विना लोकव्यवहारानुपपत्तेर्नया उच्यन्ते।</span>=<span class="HindiText">नयों के बिना लोक व्यवहार नहीं चल सकता है। इसलिए यहाँ पर नयों का वर्णन करते हैं।</span> <span class="GRef">कषायपाहुड | |||
<li | १/१३-१४/१७४/२०९/७</span> <span class="SanskritText">प्रमाणादिव नयवाक्याद्वस्त्ववगममवलोक्य प्रमाणनयैर्वस्त्वधिगम: इति प्रतिपादितत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार प्रमाण से वस्तु का बोध होता है, उसी प्रकार नय से भी वस्तु का बोध होता है, यह देखकर तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण और नयों से वस्तु का बोध होता है, इस प्रकार प्रतिपादन किया है। </span><br /> | ||
<span class="GRef">नय चक्र वृत्ति/गाथा नं.</span> <span class="PrakritGatha">जम्हा णयेण ण विणा होइ णरस्स सियवायपडिवत्ती। तम्हा सो णायव्वो एयन्तं हंतुकामेण।१७५। झाणस्स भावणाविय ण हु सो आराहओ हवे णियमा। जो ण विजाणइ वत्थुं पमाणणयणिच्छयं किच्चा।१७९। णिक्खेव णयपमाणं णादूणं भावयंति ते तच्चं। ते तत्थतच्चमग्गेलहंति लग्गा हु तत्थयं तच्चं।२८१।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि नय ज्ञान के बिना स्याद्वाद की प्रतिपत्ति नहीं होती, इसलिए एकान्त बुद्धि का विनाश करने की इच्छा रखने वालों को नय सिद्धान्त अवश्य जानना चाहिए।१७५। जो प्रमाण व नय द्वारा निश्चय करके वस्तु को नहीं जानता, वह ध्यान की भावना से भी आराधक कदापि नहीं हो सकता।१७९। जो निक्षेप नय और प्रमाण को जानकर तत्त्व को भाते हैं, वे तथ्य तत्त्वमार्ग में तत्थतत्त्व अर्थात् शुद्धात्मतत्त्व को प्राप्त करते हैं।१८१। </span><br /> <span class="GRef">नय चक्र/श्रुत./३६/१०</span> <span class="SanskritText">परस्परविरुद्धधर्माणामेकवस्तुन्यविरोधसिद्धयर्थं नय:।</span>=<span class="HindiText">एक वस्तु के परस्पर विरोधी अनेक धर्मों में अविरोध सिद्ध करने के लिए नय होता है। </span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.3.8" id="I.3.8"> सम्यक् नय ही कार्यकारी है, मिथ्या नहीं </strong></span><br> | |||
<li | <span class="GRef">नय चक्र/श्रुत./पृष्ठ६३/११</span> <span class="SanskritGatha">दुर्नयैकान्तमारूढा भावा न स्वार्थिकाहिता:। स्वार्थिकास्तद्विपर्यस्ता नि:कलङ्कस्तथा यत:।१।</span>=<span class="HindiText">दुर्नयरूप एकान्त में आरूढ भाव स्वार्थ क्रियाकारी नहीं है। उससे विपरीत अर्थात् सुनय के आश्रित निष्कलंक तथा शुद्धभाव ही कार्यकारी है। </span><br /> | ||
<span class="GRef">कार्तिकेय अनुप्रेक्षा /मूल/२६६</span> <span class="PrakritText">सयलववहारसिद्धि सुणयादो होदि।</span>=<span class="HindiText">सुनय से ही समस्त संव्यवहारों की सिद्धि होती है। (विशेष के लिए देखें - <span class="GRef">धवला.९/४,१,४७/२३९/४)</span>। </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="I.3.9" id="I.3.9"> निरपेक्ष नय भी कथंचित् कार्यकारी है </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/१/३३/१४६/६</span> <span class="SanskritText">अथ तन्त्वादिषु पटादिकार्यं शक्त्यपेक्षया अस्तीत्युच्यते। नयेष्वपि निरपेक्षेषु बद्धयभिधानरूपेषु कारणवशात्सम्यग्दर्शनहेतुत्वविपरिणतिसद्भावात् शक्त्यात्मनास्तित्वमिति साम्यमेवोपन्यासस्य।</span>=<span class="HindiText">(परस्पर सापेक्ष रहकर ही नयज्ञान सम्यक् है, निरपेक्ष नहीं, जिस प्रकार परस्पर सापेक्ष रहकर ही तन्तु आदिक पटरूप कार्य का उत्पादन करते हैं। ऐसा दृष्टान्त दिया जाने पर शंकाकार कहता है।) प्रश्न‒निरपेक्ष रहकर भी तन्तु आदिक में तो शक्ति की अपेक्षा पटादि कार्य विद्यमान है (पर निरपेक्ष नय में ऐसा नहीं है; अत: दृष्टान्त विषम है)। उत्तर‒यही बात ज्ञान व शब्दरूप नयों के विषय में भी जानना चाहिए। उनमें भी ऐसी शक्ति पायी जाती है, जिससे वे कारणवश सम्यग्दर्शन के हेतु रूप से परिणमन करने में समर्थ हैं। इसलिए दृष्टान्त का दार्ष्टान्त के साथ साम्य ही है। <span class="GRef">(राज वार्तिक /१/३३/१२/९९/२६)</span> </span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="I.3.10" id="I.3.10"> नय पक्ष की हेयोपादेयता का समन्वय </strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५०८</span> <span class="SanskritText">उन्मज्जति नयपक्षो भवति विकल्पो हि यदा। न विवक्षितो विकल्प: स्वयं निमज्जति तदा हि नयपक्ष:।</span>=<span class="HindiText">जिस समय विकल्प विवक्षित होता है, उस समय नयपक्ष उदय को प्राप्त होता है और जिस समय विकल्प विवक्षित नहीं होता उस समय वह (नय पक्ष) स्वयं अस्त को प्राप्त हो जाता है। और भी दे.[[नय#I.3.6 | नय - I.3.6]] प्रत्यक्षानुभूति के समय नय विकल्प नहीं होते। </span></li> | |||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li> <span class="HindiText"><strong name="I.4" id="I.4">शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश</strong></span> | <li> <span class="HindiText"><strong name="I.4" id="I.4">शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश</strong></span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="I.4.1" id="I.4.1"> शब्द अर्थ व ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">श्लोकवार्तिक/२/१/५/६८/२७८/३३ में उद्धृत समन्तभद्र स्वामी का वाक्य</span>‒</span><span class="SanskritText">बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तास्तिस्रो बुद्धयादिवाचका:।</span>=<span class="HindiText">जगत् के व्यवहार में कोई भी पदार्थ बुद्धि (ज्ञान) शब्द और अर्थ इन तीन भागों में विभक्त हो सकता है। </span><br /><span class="GRef">राजवार्तिक ४/४२/१५/२५६/२५</span> <span class="SanskritText">जीवार्थो जीवशब्दो जीवप्रत्यय: इत्येतत्त्रितयं लोके अविचारसिद्धम् ।</span>=<span class="HindiText">जीव नामक पदार्थ, ‘जीव’ यह शब्द और जीव विषयक ज्ञान ये तीन इस लोक में अविचार सिद्ध हैं अर्थात इन्हें सिद्ध करने के लिए कोई विचार विशेष करने की आवश्यकता नहीं। <span class="GRef">(श्लोतकवार्तिक २/१/५/६८/२७८/१६)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/तात्त्पर्यवृत्ति/३/९/२४</span> <span class="SanskritText">शब्दज्ञानार्थरूपेण त्रिधाभिधेयतां समयशब्दस्य...।</span>=<span class="HindiText">शब्द, ज्ञान व अर्थ ऐसे तीन प्रकार से भेद को प्राप्त समय अर्थात् आत्मा नाम का अभिधेय या वाच्य है। </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="I.4.2" id="I.4.2"> शब्दादि नय निर्देश व लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक १/६/४/३३/११</span> <span class="SanskritText">अधिगमहेतुर्द्विविध: स्वाधिगमहेतु: पराधिगमहेतुश्च। स्वाधिगमहेतुर्ज्ञानात्मक: प्रमाणनयविकल्प:, पराधिगमहेतु: वचनात्मक:।</span>=<span class="HindiText">पदार्थों का ग्रहण दो प्रकार से होता है‒स्वाधिगम द्वारा और पराधिगम द्वारा। तहाँ स्वाधिगम हेतुरूप प्रमाण व नय तो ज्ञानात्मक है और पराधिगम हेतुरूप वचनात्मक है। </span><br /> <span class="GRef">राजवार्तिक /१/३३/८/६८/१०</span> <span class="SanskritText">शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायतीति शब्द:।८। उच्चरित: शब्द: कृतसंगीते: पुरुषस्य स्वाभिधेये प्रत्ययमादधाति इति शब्द इत्युच्यते।</span><span class="HindiText">=जो पदार्थ को बुलाता है अर्थात उसे कहता है या उसका निश्चय कराता है, उसे शब्दनय कहते हैं। जिस व्यक्ति ने संकेत ग्रहण किया है उसे अर्थबोध कराने वाला शब्द होता है। <span class="GRef">(स्यासद्वाद मंजरी/२८/३१३/२९)</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला १/१,१,१/८६/६</span> <span class="SanskritText">शब्दपृष्ठतोऽर्थग्रहणप्रवण: शब्दनय:।</span>=<span class="HindiText">शब्द को ग्रहण करने के बाद अर्थ के ग्रहण करने में समर्थ शब्दनय है।</span><br /> <span class="GRef">धवला १/१,१,१/८६/१ </span><span class="SanskritText">तत्रार्थव्यञ्जनपर्यायैर्विभिन्नलिङ्गसंख्याकालकारकपुरुषोपग्रहभेदैरभिन्नं वर्तमानमात्रं वस्त्वध्यवस्यन्तोऽर्थनया:, न शब्दभेदनार्थभेद इत्यर्थ:। व्यञ्जनभेदेन वस्तुभेदाध्यवसायिनो व्यञ्जननया:। </span>=<span class="HindiText">अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय से भेदरूप और लिंग, संख्या, काल, कारक और उपग्रह के भेद से अभेदरूप केवल वर्तमान समयवर्ती वस्तु के निश्चय करने वाले नयों को अर्थ नय कहते हैं, यहाँ पर शब्दों के भेद से अर्थ में भेद की विवक्षा नहीं होती। व्यंजन के भेद से वस्तु में भेद का निश्चय करने वाले नय को व्यंजन नय कहते हैं। </span><br /> | |||
नोट‒(शब्दनय सम्बन्धी विशेष‒ देखें - [[ नय#III.6 | नय / III / ६ ]]-८)। | नोट‒(शब्दनय सम्बन्धी विशेष‒ देखें - [[ नय#III.6 | नय / III / ६ ]]-८)। | ||
<span class="GRef">कषायपाहुड़ १/१३-१४/१८४/२२२/३</span> <span class="SanskritText">वस्तुन: स्वरूपं स्वधर्मभेदेन भिन्दानो अर्थनय:, अभेदको वा। अभेदरूपेण सर्वं वस्तु इयर्ति एति गच्छति इत्यर्थनय:।=वाचकभेदेन भेदको व्यञ्जननय:।</span>=<span class="HindiText">वस्तु के स्वरूप में वस्तुगत धर्मों के भेद से भेद करने वाला अथवा अभेद रूप से (उस अनन्त धर्मात्मक) वस्तु को ग्रहण करने वाला अर्थनय है तथा वाचक शब्द के भेद से भेद करने वाला व्यंजननय है। </span><br /> | |||
<span class="GRef">नय चक्र वृत्ति२१४</span> <span class="PrakritGatha">अहवा सिद्धे सद्दे कीरइ जं किंपि अत्थववहरणं। सो खलु सद्दे विसओ देवो सद्देण जह देवो।२१४।</span>=<span class="HindiText">व्याकरण आदि द्वारा सिद्ध किये गये शब्द से जो अर्थ का ग्रहण करता है सो शब्दनय है, जैसे‒‘देव’ शब्द कहने पर देव का ग्रहण करना।</span></li> | |||
<li> <span class="HindiText"><strong name="I.4.3" id="I.4.3">वास्तव में नय ज्ञानात्मक ही है, शब्दादि को नय कहना उपचार है। </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText"><strong name="I.4.3" id="I.4.3">वास्तव में नय ज्ञानात्मक ही है, शब्दादि को नय कहना उपचार है। </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला ९/४,१,४५/१६४/५ </span><span class="SanskritText">प्रमाणनयाभ्यामुत्पन्नवाक्येऽप्युपचारत: प्रमाणनयौ, ताभ्यामुत्पन्नबोधौ विधिप्रतिषेधात्मकवस्तुविषयत्वात् प्रमाणतामदधानावपि कार्ये कारणोपचारत: प्रमाणनयावित्यस्मिन् सूत्रे परिगृहीतौ।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण और नय से उत्पन्न वाक्य भी उपचार से प्रमाण और नय हैं, उन दोनों (ज्ञान व वाक्य) से उत्पन्न अभय बोध विधि प्रतिषेधात्मक वस्तु को विषय करने के कारण प्रमाणता को धारण करते हुए भी कार्य में कारण का उपचार करने से नय है। <span class="GRef">(पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५१३)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">कार्तिकेय अनुप्रेक्षा/टीका/२६५</span><span class="SanskritText"> ते त्रयो नयविशेषा: ज्ञातव्या:। ते के। स एव एको धर्म: नित्योऽनित्यो वा... इत्याद्येकस्वभाव: नय:। नयग्राह्यत्वात् इत्येकनय:।...तत्प्रतिपादकशब्दोऽपि नय: कथ्यते। ज्ञानस्य करणे कार्ये च शब्दे नयोपचारात् इति द्वितीयो वाचकनय: तं नित्याद्येकधर्मं जानाति तत् ज्ञानं तृतीयो नय:। सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणम्, तदेकदेशग्राहको नय:, इतिवचनात् ।</span>=<span class="HindiText">नय के तीन रूप हैं‒अर्थरूप, शब्दरूप और ज्ञानरूप। वस्तु का नित्य अनित्य आदि एकधर्म अर्थरूपनय है। उसका प्रतिपादक शब्द शब्दरूपनय है। यहाँ ज्ञानरूप कारण में शब्दरूप कार्य का तथा ज्ञानरूप कार्य में शब्दरूप कारण का उपचार किया गया है। उसी नित्यादि धर्म को जानता होने से तीसरा वह ज्ञान भी ज्ञाननय है। क्योंकि ‘सकल वस्तु ग्राहक ज्ञान प्रमाण है और एकदेश ग्राहक ज्ञान नय है, ऐसा आगम का वचन है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="I.4.4" id="I.4.4"> तीनों नयों में परस्पर सम्बन्ध </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">श्लोतकवार्तिक/४/१/३३/श्लोक ९६-९७/२८८</span> <span class="SanskritText">सर्वे शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने। स्वार्थप्रकाशने मातुरिमे ज्ञाननया: स्थिता:।९६। वैधीयमानवस्त्वंशा: कथ्यन्तेऽर्थ नयाश्च ते। त्रैविध्यं व्यवतिष्ठन्ते प्रधानगुणभावत:।९७।</span>=<span class="HindiText">श्रोताओं के प्रति वाच्य अर्थ का प्रतिपादन करने पर तो सभी नय शब्दनय स्वरूप हैं, और स्वयं अर्थ का ज्ञान करने पर सभी नय स्वार्थप्रकाशी होने से ज्ञाननय हैं।९६। ‘नीयतेऽनेन इति नय:’ ऐसी करण साधनरूप व्युत्पत्ति करने पर सभी नय ज्ञाननय हो जाते हैं। और ‘नीयते ये इति नय:’ ऐसी कर्म साधनरूप व्युत्पत्ति करने पर सभी नय अर्थनय हो जाते हैं, क्योंकि नयों के द्वारा अर्थ ही जाने जाते हैं। इस प्रकार प्रधान और गौणरूप से ये नय तीन प्रकार से व्यवस्थित होते हैं। (और भी दे. [[नय#III.1.4 | नय - III.1.4]])।<br /> | |||
नोट‒अर्थनयों व शब्दनयों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता (दे.[[नय#III.1.7 | नय - III.1.7 ]])।<br /> | नोट‒अर्थनयों व शब्दनयों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता (दे.[[नय#III.1.7 | नय - III.1.7 ]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="I.4.5" id="I.4.5"> शब्दनय का विषय </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला ९/४,१,४५/१८६/७</span> <span class="PrakritText">पज्जवट्ठिए खणक्खएण सद्दत्थविसेसभावेण संकेतकरणाणुवत्तीए वाचियवाचयभेदाभावादो। कधं सद्दणएसु तिसु वि सद्दवववहारो। अणप्पिदअत्थगयभेयाणमप्पिदसद्दणिबंधणभेयाणं तेसिं तदविरोहादो।</span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय क्योंकि क्षणक्षयी होता है इसलिए उसमें शब्द और अर्थ की विशेषता से संकेत करना न बन सकने के कारण वाच्यवाचक भेद का अभाव है। (विशेष दे. [[नय#IV.3.8.5 | नय - IV.3.8.5]]) प्रश्न–तो फिर तीनों ही शब्दनयों में शब्द का व्यवहार कैसे होता है? उत्तर–अर्थगत भेद की अप्रधानता और शब्द निमित्तक भेद की प्रधानता रखने वाले उक्त नयों के शब्दव्यवहार में कोई विरोध नहीं है। (विशेष दे.निक्षेप/३/६)।<br /> | |||
दे.[[नय#III.1.9 | नय - III.1.9]] (शब्दनयों में दो अपेक्षा से शब्दों का प्रयोग ग्रहण किया जाता है‒शब्दभेद से अर्थ में भेद करने की अपेक्षा और अर्थ भेद होने पर शब्दभेद की अपेक्षा इस प्रकार भेदरूप शब्द व्यवहार; तथा दूसरा अनेक शब्दों का एक अर्थ और अनेक अर्थों का वाचक एक शब्द इस प्रकार अभेदरूप शब्द व्यवहार)।<br /> | दे.[[नय#III.1.9 | नय - III.1.9]] (शब्दनयों में दो अपेक्षा से शब्दों का प्रयोग ग्रहण किया जाता है‒शब्दभेद से अर्थ में भेद करने की अपेक्षा और अर्थ भेद होने पर शब्दभेद की अपेक्षा इस प्रकार भेदरूप शब्द व्यवहार; तथा दूसरा अनेक शब्दों का एक अर्थ और अनेक अर्थों का वाचक एक शब्द इस प्रकार अभेदरूप शब्द व्यवहार)।<br /> | ||
दे. [[नय#III.6 | नय - III.6 ]], [[नय#III.7 | नय - III.7 ]], [[नय#III.8 | नय - III.8 ]] (तहां शब्दनय केवल लिंगादि अपेक्षा भेद करता है पर समानलिंगी आदि एकार्थवाची शब्दों में अभेद करता है। समभिरूढनय समान लिंगादि वाले शब्दों में भी व्युत्पत्ति भेद करता है, परन्तु रूढि वश हर अवस्था में पदार्थ को एक ही नाम से पुकारकर अभेद करता है। और एवंभूतनय क्रियापरिणति के अनुसार अर्थ भेद स्वीकार करता हुआ उसके वाचक शब्द में भी सर्वथा भेद स्वीकार करता है। यहाँ तक कि पद समास या वर्णसमास तक को स्वीकार नहीं करता)।<br /> | दे. [[नय#III.6 | नय - III.6 ]], [[नय#III.7 | नय - III.7 ]], [[नय#III.8 | नय - III.8 ]] (तहां शब्दनय केवल लिंगादि अपेक्षा भेद करता है पर समानलिंगी आदि एकार्थवाची शब्दों में अभेद करता है। समभिरूढनय समान लिंगादि वाले शब्दों में भी व्युत्पत्ति भेद करता है, परन्तु रूढि वश हर अवस्था में पदार्थ को एक ही नाम से पुकारकर अभेद करता है। और एवंभूतनय क्रियापरिणति के अनुसार अर्थ भेद स्वीकार करता हुआ उसके वाचक शब्द में भी सर्वथा भेद स्वीकार करता है। यहाँ तक कि पद समास या वर्णसमास तक को स्वीकार नहीं करता)।<br /> | ||
दे.आगम/४/४ (यद्यपि यहाँ पदसमास आदि की सम्भावना न होने से शब्द व वाक्यों का होना सम्भव नहीं, परन्तु क्रम पूर्वक उत्पन्न होने वाले वर्णों व पदों से उत्पन्न ज्ञान क्योंकि अक्रम से रहता है; इसलिए, तहाँ वाच्यवाचक सम्बन्ध भी बन जाता है)।<br /> | दे.आगम/४/४ (यद्यपि यहाँ पदसमास आदि की सम्भावना न होने से शब्द व वाक्यों का होना सम्भव नहीं, परन्तु क्रम पूर्वक उत्पन्न होने वाले वर्णों व पदों से उत्पन्न ज्ञान क्योंकि अक्रम से रहता है; इसलिए, तहाँ वाच्यवाचक सम्बन्ध भी बन जाता है)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="I.4.6" id="I.4.6"> शब्दादि नयों के उदाहरण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला १/१,१,१११/३४८/१०</span> <span class="SanskritText">शब्दनयाश्रयणे क्रोधकषाय इति भवति तस्य शब्दपृष्ठतोऽर्थप्रतिपत्तिप्रवणत्वात् । अर्थनयाश्रयणे क्रोधकषायीति स्याच्छब्दोऽर्थस्य भेदाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">शब्दनय का आश्रय करने पर ‘क्रोध कषाय’ इत्यादि प्रयोग बन जाते हैं, क्योंकि शब्दनय शब्दानुसार अर्थज्ञान कराने में समर्थ है। अर्थनय का आश्रय करने पर ‘क्रोध कषायी’ इत्यादि प्रयोग होते हैं, क्योंकि इस नय की दृष्टि में शब्द से अर्थ का कोई भेद नहीं है।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५१४</span> <span class="SanskritText">अथ तद्यथा यथाऽग्नेरौष्ण्यं धर्मं समक्षतोऽपेक्ष्य। उष्णोऽग्निरिति वागिह तज्ज्ञानं वा नयोपचार: स्यात् ।५१४।</span>=<span class="HindiText">जैसे अग्नि के उष्णता धर्मरूप ‘अर्थ’ को देखकर ‘अग्नि उष्ण है’ इत्याकारक ज्ञान और उस ज्ञान का वाचक ‘उष्णोऽग्नि:’ यह वचन दोनों ही उपचार से नय कहलाते हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="I.4.7" id="I.4.7"> द्रव्यनय व भावनय निर्देश</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५०५</span><span class="SanskritText"> द्रव्यनयो भावनय: स्यादिति भेदाद्द्विधा च सोऽपि यथा। पौद्गलिक: किल शब्दो द्रव्यं भावश्च चिदिति जीवगुण:।५०५।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यनय और भावनय के भेद से नय दो प्रकार है, जैसे कि निश्चय से पौद्गलिक शब्द द्रव्यनय कहलाता है, तथा जीव का ज्ञान गुण भावनय कहलाता है। अर्थात् उपरोक्त तीन भेदों में से शब्दनय तो द्रव्यनय है और ज्ञाननय भावनय है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="I.5" id="I.5"> अन्य अनेकों नयों का निर्देश<br /></strong></span> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="I.5.1" id="I.5.1"> भूत भावि आदि प्रज्ञापन नयों का निर्देश</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/५/३९/३१२/१०</span> <span class="SanskritText">अणोरप्येकप्रदेशस्य पूर्वोत्तरभावप्रज्ञापननयापेक्षयोपचरकल्पनया प्रदेशप्रचय उक्त:।</span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/२/६/१६०/२</span> <span class="SanskritText">पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया योऽसौ योगप्रवृत्ति: कषायानुरञ्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते।</span><br /> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/१०/९/पृष्ठ/पंक्ति</span> <span class="SanskritText">भूतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धि:। (४७१/१२)। प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धयन् सिद्धो भवति। भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सर्पिण्यवसर्पिण्यीर्जात: सिध्यति विशेषेणावसर्पिण्यां सुषमादुषमायां अन्त्यभागे संहरणत: सर्वस्मिन्काले। (४७२/१)। भूतपूर्वनयापेक्षया तु...क्षेत्रसिद्धा द्विविधा‒जन्मत: संहरणतश्च। (४७३/६)।</span>=<span class="HindiText">पूर्व और उत्तरभाव प्रज्ञापन नय की अपेक्षा से उपचार कल्पना द्वारा एकप्रदेशी भी अणु को प्रदेश प्रचय (बहुप्रदेशी) कहा है। पूर्वभावप्रज्ञापननय की अपेक्षा से उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानों में भी शुक्ललेश्या को औदयिकी कहा है, क्योंकि जो योगप्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित थी वही यह है। भूतग्राहिनय की अपेक्षा जन्म से १५ कर्मभूमियों में और संहरण की अपेक्षा सर्व मनुष्यक्षेत्र से सिद्धि होती है। वर्तमानग्राही नय की अपेक्षा एक समय में सिद्ध होता है। भूत प्रज्ञापन नय की अपेक्षा जन्म से सामान्यत: उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में सिद्ध होता है, विशेष की अपेक्षा सुषमादुषमा के अन्तिम भाग में और संहरण की अपेक्षा सब कालों में सिद्ध होता है। भूतपूर्व नय की अपेक्षा से क्षेत्रसिद्ध दो प्रकार है‒जन्म से व संहरण से। <span class="GRef">(राजवार्तिक /१०/९)</span>; <span class="GRef">(तत्त्वार्थसार/८/४२)</span>।<br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक /१०/९/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति</span> (उपरोक्त नयों का ही कुछ अन्य प्रकार निर्देश किया है)‒वर्तमान विषय नय (५/६४६/३२); अतीतगोचरनय (५/६४६/३३); भूत विषय नय (५/६४७/१) प्रत्युत्पन्न भावप्रज्ञापन नय (१४/६४८/२३)... </span><br> | |||
<span class="GRef">कषाय पाहुड १/१३-१४/२१७/२७०/१</span> <span class="SanskritText">भूदपुव्वगईए आगमववएसुववत्तीदो।</span>=<span class="HindiText">जिसका आगमजनित संस्कार नष्ट हो गया है ऐसे जीव में भी भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा आगम संज्ञा बन जाती है। </span><span class="GRef">गोम्मटसार जीवकाण्ड/मूल/५३३/९२९</span> <span class="PrakritText">अट्ठकसाये लेस्या उच्चदि सा भूदपुव्वगदिणाया</span>।=<span class="HindiText">उपशान्त कषाय आदिक गुणस्थानों में भूतपूर्वन्याय से लेश्या कही गयी है। </span><br><span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/१४/४८/१०</span> <span class="SanskritText">अन्तरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतघटवत् । परमात्मस्वरूपं तु शक्तिरूपेण, भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च।</span>=<span class="HindiText">अन्तरात्मा की अवस्था में अन्तरात्मा भूतपूर्व न्याय से घृत के घट के समान और परमात्मा का स्वरूप शक्तिरूप से तथा भावीनैगम नय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी जानना चाहिए। नोट‒काल की अपेक्षा करने पर नय तीन प्रकार की है‒भूतग्राही, वर्तमानग्राही और भावीकालग्राही। उपरोक्त निर्देशों में इनका विभिन्न नामों में प्रयोग किया गया है। यथा‒ </span> | |||
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<li class="HindiText" name="I.5.1.1" id="I.5.1.1"> पूर्वभाव प्रज्ञापन नय, भूतग्राही नय, भूत प्रज्ञापन नय, भूतपूर्व नय, अतीतगोचर नय, भूतविषय नय, भूतपूर्व प्रज्ञापननय, भूतपूर्व न्याय आदि। </strong></li> | <li class="HindiText" name="I.5.1.1" id="I.5.1.1"> पूर्वभाव प्रज्ञापन नय, भूतग्राही नय, भूत प्रज्ञापन नय, भूतपूर्व नय, अतीतगोचर नय, भूतविषय नय, भूतपूर्व प्रज्ञापननय, भूतपूर्व न्याय आदि। </strong></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="I.5.1.2" id="I.5.1.2">उत्तरभावप्रज्ञापननय, भाविनैगमनय </strong></span></li> | <li> <span class="HindiText" name="I.5.1.2" id="I.5.1.2">उत्तरभावप्रज्ञापननय, भाविनैगमनय </strong></span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="I.5.1.3" id="I.5.1.3"> प्रत्युत्पन्न या वर्तमानग्राहीनय, वर्तमानविषयनय, प्रत्युत्पन्न भाव प्रज्ञापन नय, इत्यादि। तहाँ ये तीनों काल विषयक नयें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावि नयें तो द्रव्यार्थिकनय में तथा वर्तमाननय पर्यायार्थिक में। अथवा नैगमादि सात नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावी नयें तो नैगमादि तीन नयों में और वर्तमान नय ऋजुसूत्रादि चार नयों में। अथवा नैगम व ऋजुसूत्र इन दो में गर्भित हो जाती हैं‒भूत व भावि नयें तो नैगमनय में और वर्तमाननय ऋजुसूत्र में। श्लोक वार्तिक में कहा भी है‒ </span><br> | <li><span class="HindiText" name="I.5.1.3" id="I.5.1.3"> प्रत्युत्पन्न या वर्तमानग्राहीनय, वर्तमानविषयनय, प्रत्युत्पन्न भाव प्रज्ञापन नय, इत्यादि। तहाँ ये तीनों काल विषयक नयें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावि नयें तो द्रव्यार्थिकनय में तथा वर्तमाननय पर्यायार्थिक में। अथवा नैगमादि सात नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावी नयें तो नैगमादि तीन नयों में और वर्तमान नय ऋजुसूत्रादि चार नयों में। अथवा नैगम व ऋजुसूत्र इन दो में गर्भित हो जाती हैं‒भूत व भावि नयें तो नैगमनय में और वर्तमाननय ऋजुसूत्र में। श्लोक वार्तिक में कहा भी है‒ </span><br> | ||
<span class="GRef">श्लो्कवार्तिक ४/१/३३/३</span> <span class="SanskritText">ऋजुसूत्रनय: शब्दभेदाश्च त्रय, प्रत्युत्पन्नविषयग्राहिण:। शेषा नया उभयभावविषया:। </span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्र नय को तथा तीन शब्दनयों को प्रत्युत्पन्ननय कहते हैं। शेष तीन नयों को प्रत्युत्पन्न भी कहते हैं और प्रज्ञापननय भी। (भूत व भावि प्रज्ञापन नयें तो स्पष्ट ही भूत भावी नैगम नय हैं। वर्तमानग्राही दो प्रकार की हैं‒एक अर्ध निष्पन्न में निष्पन्न का उपचार करने वाली और दूसरी साक्षात् शुद्ध वर्तमान के एक समयमात्र को सत्रूप से अंगीकार करने वाली। तहाँ पहली तो वर्तमान नैगम नय है और दूसरी सूक्ष्म ऋजुसूत्र। विशेष के लिए देखो आगे [[नय#III | नय - III]] में नैगमादि नयों के लक्षण भेद व उदाहरण)। </span></li> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="I.5.2" id="I.5.2"> अस्तित्वादि सप्तभंगी नयों का निर्देश</strong></span> <br><span class="GRef">प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/परिशिष्ठ नय नं.३-९</span> <span class="SanskritText"> अस्तित्वनयेनायोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थलक्ष्योन्मुखविशिखवत् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैरस्तित्ववत् ।३। नास्तित्वनयेनानयोमयागुणकार्मुकान्तरालवर्त्यसंहितावस्थालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् परद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्नास्तित्ववत् ।४। अस्तित्वनास्तित्वनयेन...प्राक्तनविशिखवत् क्रमत: स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैरस्तित्वनास्तित्ववत् ।५। अवक्तव्यनयेन ...प्राक्तनविशिखवत् युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैरवक्तव्यम् ।६। अस्तित्वावक्तव्यनयेन...प्राक्तनविशिखवत् अस्तित्ववदवक्तव्यम् ।७। नास्तित्वावक्तव्यनयेन...प्राक्तनविशिखवत् ...नास्तित्ववदवक्तव्यम् ।८। अस्तित्वनास्तित्वावक्तव्यनयेन...प्राक्तनविशिखवत् ...अस्तित्वनास्तित्ववदवक्तव्यम् ।९।</span>= | ||
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<li class="HindiText" name="I.5.2.1" id="I.5.2.1"> आत्मद्रव्य अस्तित्वनय से स्वद्रव्यक्षेत्र काल व भाव से अस्तित्ववाला है। जैसे कि द्रव्य की अपेक्षा लोहमयी, क्षेत्र की अपेक्षा त्यंचा और धनुष के मध्य में निहित, काल की अपेक्षा सन्धान दशा में रहे हुए और भाव की अपेक्षा लक्ष्योन्मुख बाण का अस्तित्व है।३। ( | <li class="HindiText" name="I.5.2.1" id="I.5.2.1"> आत्मद्रव्य अस्तित्वनय से स्वद्रव्यक्षेत्र काल व भाव से अस्तित्ववाला है। जैसे कि द्रव्य की अपेक्षा लोहमयी, क्षेत्र की अपेक्षा त्यंचा और धनुष के मध्य में निहित, काल की अपेक्षा सन्धान दशा में रहे हुए और भाव की अपेक्षा लक्ष्योन्मुख बाण का अस्तित्व है।३। <span class="GRef">(पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/७५६)</span> </li> | ||
<li class="HindiText" name="I.5.2.2" id="I.5.2.2"> आत्मद्रव्य नास्तित्वनय से परद्रव्य क्षेत्र काल व भाव से नास्तित्ववाला है। जैसे कि द्रव्य की अपेक्षा अलोहमयी, क्षेत्र की अपेक्षा प्रत्यंचा और धनुष के बीच में अनिहित, काल की अपेक्षा सन्धान दशा में न रहे हुए और भाव की अपेक्षा अलक्ष्योन्मुख पहले वाले बाण का नास्तित्व है, अर्थात् ऐसे किसी बाण का अस्तित्व नहीं है।४। ( | <li class="HindiText" name="I.5.2.2" id="I.5.2.2"> आत्मद्रव्य नास्तित्वनय से परद्रव्य क्षेत्र काल व भाव से नास्तित्ववाला है। जैसे कि द्रव्य की अपेक्षा अलोहमयी, क्षेत्र की अपेक्षा प्रत्यंचा और धनुष के बीच में अनिहित, काल की अपेक्षा सन्धान दशा में न रहे हुए और भाव की अपेक्षा अलक्ष्योन्मुख पहले वाले बाण का नास्तित्व है, अर्थात् ऐसे किसी बाण का अस्तित्व नहीं है।४। <span class="GRef">(पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/७५७)</span> </li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="I.5.2.3" id="I.5.2.3">आत्मद्रव्य अस्तित्वनास्तित्व नय से पूर्व के बाण की भाँति ही क्रमश: स्व व पर द्रव्य क्षेत्र काल भाव से अस्तित्व नास्तित्ववाला है।५। </span></li> | <li> <span class="HindiText" name="I.5.2.3" id="I.5.2.3">आत्मद्रव्य अस्तित्वनास्तित्व नय से पूर्व के बाण की भाँति ही क्रमश: स्व व पर द्रव्य क्षेत्र काल भाव से अस्तित्व नास्तित्ववाला है।५। </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="I.5.2.4" id="I.5.2.4">आत्मद्रव्य अवक्तव्य नय से पूर्व के वाण की भाँति ही युगपत् स्व व पर द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से अवक्तव्य है।६। </span></li> | <li> <span class="HindiText" name="I.5.2.4" id="I.5.2.4">आत्मद्रव्य अवक्तव्य नय से पूर्व के वाण की भाँति ही युगपत् स्व व पर द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से अवक्तव्य है।६। </span></li> | ||
<li class="HindiText" name="I.5.2.5" id="I.5.2.5"> आत्म द्रव्य अस्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भाँति (पहले अस्तित्व रूप और पीछे अवक्तव्य रूप देखने पर) अस्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है।७। </li> | <li class="HindiText" name="I.5.2.5" id="I.5.2.5"> आत्म द्रव्य अस्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भाँति (पहले अस्तित्व रूप और पीछे अवक्तव्य रूप देखने पर) अस्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है।७। </li> | ||
<li class="HindiText" name="I.5.2.6" id="I.5.2.6"> आत्मद्रव्य नास्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भाँति ही (पहले नास्तित्वरूप और पीछे अवक्तव्यरूप देखने पर) नास्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है।८। </li> | <li class="HindiText" name="I.5.2.6" id="I.5.2.6"> आत्मद्रव्य नास्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भाँति ही (पहले नास्तित्वरूप और पीछे अवक्तव्यरूप देखने पर) नास्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है।८। </li> | ||
<li class="HindiText" name="I.5.2.7" id="I.5.2.7"> आत्मद्रव्य <span class="HindiText">अस्तित्व नास्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भांति ही (क्रम से तथा युगपत् देखने पर) अस्तित्व व नास्तित्व वाला अवक्तव्य है।९। (विशेष दे.सप्तभंगी)। </span></li> | <li class="HindiText" name="I.5.2.7" id="I.5.2.7"> आत्मद्रव्य <span class="HindiText">अस्तित्व नास्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भांति ही (क्रम से तथा युगपत् देखने पर) अस्तित्व व नास्तित्व वाला अवक्तव्य है।९। (विशेष दे.[[सप्तभंगी]])। </span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="I.5.3" id="I.5.3"> नामादि निक्षेपरूप नयों का निर्देश </strong></span><br> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/परिशिष्ठ/नय नं.१२-१५</span> <span class="SanskritText">नामनयेन तदात्मवत् शब्दब्रह्मामर्शि।१२। स्थापनानयेन मूर्तित्ववत्सकलपुद्गलावलम्बि।१३। द्रव्यनयेन माणवकश्रेष्ठिश्रमणपार्थिववदनागतातीतपर्यायोद्भासि।१४। भावनयेन पुरुषायितप्रवृत्तयोषिद्वत्तदात्वपर्यायोल्लासि।१५।</span>=<span class="HindiText">आत्मद्रव्य नाम नय से, नाम वाले (किसी देवदत्त नामक व्यक्ति) की भांति शब्दब्रह्म को स्पर्श करने वाला है; अर्थात् पदार्थ को शब्द द्वारा कहा जाता है।१२। आत्मद्रव्य स्थापनानय मूर्तित्व की भांति सर्व पुद्गलों का अवलम्बन करने वाला है, (अर्थात् आत्मा की मूर्ति या प्रतिमा काष्ठ पाषाण आदि में बनायी जाती है)।१३। आत्मद्रव्य द्रव्यनय से बालक सेठ की भांति और श्रमण राजा की भांति अनागत व अतीत पर्याय से प्रतिभासित होता है। (अर्थात् वर्तमान में भूत या भावि पर्याय का उपचार किया जा सकता है।१४। आत्मद्रव्य भावनय से पुरुष के समान प्रवर्तमान स्त्री की भांति तत्काल की (वर्तमान की) पर्याय रूपसे प्रकाशित होता है।१५। (विशेष दे.[[निक्षेप]])। </span></li> | |||
<li> <span class="HindiText"><strong name="I.5.4" id="I.5.4">सामान्य विशेष आदि धर्मोरूप ४७ नयों का निर्देश </strong></span><br> | <li> <span class="HindiText"><strong name="I.5.4" id="I.5.4">सामान्य विशेष आदि धर्मोरूप ४७ नयों का निर्देश </strong></span><br> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/परिशिष्ठ/नय नं.</span></span><span class="SanskritText"> तत्तु द्रव्यनयेन पटमात्रवच्चिन्मात्रम् ।१। पर्यायनयेन तन्तुमात्रवद्दर्शनज्ञानादिमात्रम् ।२। विकल्पनयेन शिशुकुमारस्थविरैकपुरुषवत्सविकल्पम् ।१०। अविकल्पनयेनैकपुरुषमात्रवदविकल्पम् ।११। सामान्यनयेन हारस्रग्दामसूत्रवद्व्यापि।१६। विशेषनयेन तदेकमुक्ताफलवदव्यापि।१७। नित्यनयेन नटवदवस्थायि।१८। अनित्यनयेन रामरावणवदनवस्थायिं।१९। सर्वगतनयेन विस्फुरिताक्षचक्षुर्वत्सर्ववर्ति।२०। असर्वगतनयेन मीलिताक्षचक्षुर्वंदात्मवर्ति।२१। शून्यनयेन शून्यागारवत्केवलोद्भासि।२२। अशून्यनयेन लोकाक्रान्तनौवन्मिलितोद्भासि।२३। ज्ञानज्ञेयाद्वैतनयेन महदिन्धनभारपरिणतधूमकेतुवदेकम् ।२४। ज्ञानज्ञेतद्वैतनयेन परप्रतिबिम्बसंपृक्तदर्पणवदनेकम् ।२५। नियतिनयेन नियमितौष्ण्य वह्नि वन्नियत स्वभावभासि।२६। अनियतिनयेन नित्यनियमितौष्ण्यपानीयवदनियतस्वभावभासि।२७। स्वभावनयेनानिशिततीक्ष्णकण्टकवत्संस्कारसार्थक्यकारि।२८। अस्वभावनयेनायस्कारनिशिततीक्ष्णविशिखवत्ससंस्कारसार्थक्यकारि।२९। कालनयेन निदाघदिवसानुसारिपच्यमानसहकारफलवत्समयायत्तसिद्धि:।३० अकालनयेन कृत्रिमोष्मपाच्यमानसहकारफलवत्समयानायत्तसिद्धि:।३१। पुरुषाकारनयेन पुरुषाकारोपलब्धमधुकुक्कुटोकपुरुषकारवादीवद्यत्नसाध्यसिद्धि:।३२। दैवेनयेन पुरुषाकारवादिदत्तमधुकुक्कुटीगर्भलब्धमाणिक्यदैववादिवदयत्नसाध्यसिद्धि:।३३। ईश्वरनयेन धात्रीहटावलेह्यमानपान्थबालकवत्पारतन्त्र्यभोक्तृ।३४। अनीश्वरनयेन स्वच्छन्ददारितकुरङ्गकण्ठीरववतन्त्र्यभोक्तृ।३५। गुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकवद्गुणग्राहि।३६। अगुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकाध्यक्षवत् केवलमेव साक्षि।३७। कर्तृनयेन रञ्जकवद्रागादिपरिणामकर्तृ।३८। अकर्तृनयेन स्वकर्मप्रवृत्तरञ्जकाध्यक्षवत्केवलमेव साक्षि।३९। भोक्तृनयेन हिताहितान्नभोक्तृव्याधितवत्सुखदु:खादिभोक्तृ।४०। अभोक्तृनयेन हिताहितान्नभोक्तृब्याधिताध्यक्षधन्वन्तरिचरवत् केवलमेव साक्षी।४१। क्रियानयेन स्थाणुभिन्नमूर्धजातदृष्टिलब्धनिधानान्धवदनुष्ठानप्राधान्यसाध्यसिद्धि:।४२। ज्ञाननयेन चणकमुष्टिक्रीतचिन्तामणिगृहकाणवाणिजवद्विवेकप्राधान्यसाध्यसिद्धि:।४३। व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तरसंयुज्यमानवियुज्यमानपरमाणुवद्बन्धमोक्षयोर्द्वैतानुवर्ति।४४। निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानबन्धमोक्षोचितस्निग्धरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुवद्बन्धमोक्षयोरद्वैतानुवर्ति।४५। अशुद्धनयेन घटशरावविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधिस्वभावम् ।४६। शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरुपाधिस्वभावम् ।४७।</span>=<span class="HindiText">१. आत्मद्रव्य द्रव्यनय से, पटमात्र की भांति चिन्मात्र है। २. पर्यायनय से वह तन्तुमात्र की भांति दर्शनज्ञानादि मात्र है। १०. विकल्पनय से बालक, कुमार, और वृद्ध ऐसे एक पुरुष की भांति सविकल्प है। ११. अविकल्पनय से एक पुरुषमात्र की भांति अविकल्प है। १६. सामान्यनय से हार माला कण्ठी के डोरे की भांति व्यापक है। १७. विशेष नय से उसके एक मोती की भांति, अव्यापक है। १८. नित्यनय से, नट की भांति अवस्थायी है। १९. अनित्यनय से राम-रावण की भांति अनवस्थायी है। <span class="GRef">(पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/७६०-७६१)</span>। २०. सर्वगतनय से खुली हुई आँख की भांति सर्ववर्ती है। २१. असर्वगतनय से मिची हुई आँख की भांति आत्मवर्ती है। २२. शून्यनय से शून्यघर की भांति एकाकी भासित होता है। २३. अशून्यनय से लोगों से भरे हुए जहाज की भांति मिलित भासित होता है। २४. ज्ञानज्ञेय अद्वैतनय से महान् ईन्धनसमूहरूप परिणत अग्नि की भांति एक है। २५. ज्ञानज्ञेय द्वैतनय से, पर के प्रतिबिम्बों से संपृक्त दर्पण की भांति अनेक है। २६. आत्मद्रव्य नियतिनय से नियतस्वभाव रूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित होती है ऐसी अग्नि की भांति। २७. अनियतनय से अनियतस्वभावरूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित नहीं है ऐसे पानी की भांति। २८. स्वभावनय से संस्कार को निरर्थक करने वाला है, जिसकी किसी से नोक नहीं निकाली जाती है, ऐसे पैने कांटे की भांति। २९. अस्वभावनय से संस्कार को सार्थक करने वाला है, जिसकी लुहार के द्वारा नोक निकाली गयी है, ऐसे पैने बाण की भांति। ३०. कालनय से जिसकी सिद्धि समय पर आधार रखती है ऐसा है, गर्मी के दिनों के अनुसार पकने वाले आम्र फल की भांति। ३१. अकालनय से जिसकी सिद्धि समय पर आधार नहीं रखती ऐसा है, कृत्रिम गर्मी से पकाये गये आम्रफल की भांति। ३२. पुरुषाकारनय से जिसकी सिद्धि यत्नसाध्य है ऐसा है, जिसे पुरुषाकार से नींबू का वृक्ष प्राप्त होता है, ऐसे पुरुषाकारवादी की भांति। ३३. दैवनय से जिसकी सिद्धि अयत्नसाध्य है ऐसा है, पुरुषाकारवादी द्वारा प्रदत्त नींबू के वृक्ष के भीतर से जिसे माणिक प्राप्त हो जाता है, ऐसे दैववादी की भांति। ३४. ईश्वरनय से परतंत्रता भोगनेवाला है, धाय की दुकान पर दूध पिलाये जाने वाले राहगीर के बालक की भांति। ३५. अनीश्वरनय से स्वतन्त्रता भोगनेवाला है, हिरन को स्वच्छन्दतापूर्वक फाड़कर खा जाने वाले सिंह की भांति। ३६. आत्मद्रव्य गुणीनय से गुणग्राही है, शिक्षक के द्वारा जिसे शिक्षा दी जाती है ऐसे कुमार की भांति। ३७. अगुणीनय से केवल साक्षी ही है। ३८. कर्तृनय से रंगरेज की भांति रागादि परिणामों का कर्ता है। ३९. अकर्तृनय से केवल साक्षी ही है, अपने कार्य में प्रवृत्त रंगरेज को देखने वाले पुरुष की भांति। ४०. भोक्तृनय से सुख-दुखादि का भोक्ता है, हितकारी-अहितकारी अन्न को खाने वाले रोगी की भांति। ४१. अभोक्तृनय से केवल साक्षी ही है, हितकारी-अहिकारी अन्न को खाने वाले रोगी को देखने वाले वैद्य की भांति। ४२. क्रियानय से अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि साधित हो ऐसा है, खम्भे से सिर फूट जाने पर दृष्टि उत्पन्न होकर जिसे निधान प्राप्त हो जाय, ऐसे अन्धे की भांति। ४३. ज्ञाननय से विवेक की प्रधानता से सिद्धि साधित हो ऐसा है; मुट्ठीभर चेन देकर चिन्तामणि रत्न खरीदनेवाले घर के कोने में बैठै हुए व्यापारी की भांति। ४४. आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बन्ध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करने वाला है; बन्धक और मोचक अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होने वाले और उससे वियुक्त होने वाले परमाणु की भांति। ४५. निश्चयनय से बन्ध और मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करने वाला है; अकेले बध्यमान और मुच्यमान ऐसे बन्ध मोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्वगुणरूप परिणत परमाणु की भांति ४६. अशुद्धनय से घट और रामपात्र से विशिष्ट मिट्टी मात्र की भांति सोपाधि स्वभाव वाला है। ४७. शुद्धनय से, केवलमिट्टी मात्र की भांति, निरुपाधि स्वभाववाला है। </span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/श्लोक</span>‒<span class="SanskritText">अस्ति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्यायस्तत्त्रयं मिथोऽनेकम् । व्यवहारैकविशिष्टो नय: स वानेकसंज्ञको न्यायात् ।७५२। एकं सदिति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्ययोऽथवा नाम्ना। इतरद्वयमन्यतरं लब्धमनुक्तं स एकनयपक्ष:।७५३। परिणममानेऽपि तथाभूतैर्भावैर्विनश्यमानेऽपि। नायमपूर्वों भाव: पर्यायार्थिकविशिष्टभावनय:।७६५। अभिनवभावपरिणतेर्योऽयं वस्तुन्यपूर्वसमयो य:। इति यो वदति स कश्चित्पर्यायार्थिकनयेष्वभावनय:।७६४। अस्तित्वं नामगुण: स्यादिति साधारण: स तस्य। तत्पर्ययश्च नय: समासतोऽस्तित्वनय इति वा।५९३। कर्तृत्वं जीवगुणोऽस्त्वथ वैभाविकोऽथवा भाव:। तत्पर्यायविशिष्ट: कर्तृत्वनयो यथा नाम।५९४।</span>=<span class="HindiText">३७. व्यवहार नय से द्रव्य, गुण, पर्याय अपने अपने स्वरूप से परस्पर में पृथक्-पृथक् हैं, ऐसी अनेकनय है।७५२। ३८. नाम की अपेक्षा पृथक्-पृथक् हुए भी द्रव्य गुण पर्याय तीनों सामान्यरूप से एक सत् हैं, इसलिए किसी एक के कहने पर शेष अनुक्त का ग्रहण हो जाता है। यह एकनय है।७५३। ३९. परिणमन होते हुए पूर्व पूर्व परिणमन का विनाश होने पर भी यह कोई अपूर्व भाव नहीं है, इस प्रकार का जो कथन है वह पर्यायार्थिक विशेषण विशिष्ट भावनय है।७६५। ४०. तथा नवीन पर्याय उत्पन्न होने पर जो उसे अपूर्वभाव कहता ऐसा पर्यायार्थिक नय रूप अभाव नय है।७६४। ४१. अस्तित्वगुण के कारण द्रव्य सत् है, ऐसा कहने वाला अस्तित्व नय है।५९३। ४२. जीव का वैभाविक गुण ही उसका कर्तृत्वगुण है। इसलिए जीव को कर्तृत्व गुणवाला कहना सो कर्तृत्व नय है।५९४। </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="I.5.5" id="I.5.5"> अनन्तों नय होनी सम्भव हैं </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला १/१,१,१/गाथा ६७/८०</span> <span class="PrakritText">जावदिया वयण-वहा तावदिया चेव होंति णयवादा।</span>=<span class="HindiText">जितने भी वचनमार्ग हैं, उतने ही नयवाद अर्थात् नय के भेद हैं।</span> <span class="GRef">(धवला १/४,१,४५/गाथा ६२/१८१)</span>, <span class="GRef">(कषाय पाहुड १/१३-१४/२०२/गाथा ९३/२४५)</span>, <span class="GRef">(धवला १/१,१,९/गाथा १०५/१६२)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण /५८/५२)</span>, <span class="GRef">(गोम्मटसार कर्मकाण्ड/मूल/८९४/१०७३)</span>, <span class="GRef">(प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/परिशिष्ठ में उद्धृत)</span>; <span class="GRef">(स्या्द्वाद मंजरी/२८/३१०/१३ में उद्धृत)</span></span><br> | |||
। <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/१/३३/१४५/७</span> <span class="SanskritText">द्रव्यस्यानन्तशक्ते: प्रतिशक्ति विभिद्यमाना: बहुविकल्पा जायन्ते।</span>=<span class="HindiText">द्रव्य की अनन्त शक्ति है। इसलिए प्रत्येक शक्ति की अपेक्षा भेद को प्राप्त होकर ये नय अनेक (अनन्त) विकल्प रूप हो जाते हैं। </span><span class="GRef">(राजवार्तिक/१/३३/१२/९९/१८)</span>, <span class="GRef">(प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/परिशिष्ठ का अन्त)</span>, <span class="GRef">(स्यााद्वाद मंजरी/२८/३१०/११)</span>; <span class="GRef">(पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५८९,५९५)</span>। <br /> | |||
<span class="GRef">श्लोधकवार्तिक ४/१/३३/श्लोक ३-४/२१५</span> <span class="SanskritText">संक्षेपाद्द्वौ विशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरौ।३। विस्तरेणेति सप्तैते विज्ञेया नैगमादय:। तथातिविस्तरेणोक्ततद्भेदा: संख्यातविग्रहा:।४।</span>=<span class="HindiText">संक्षेप से नय दो प्रकार हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक।३। विस्तार से नैगमादि सात प्रकार हैं और अति विस्तार से संख्यात शरीरवाले इन नयों के भेद हो जाते हैं।</span> <span class="GRef">(स्याधद्वाद मंजरी/२८/३१७/१)</span>। <span class="GRef">धवला १/१,१,१/९१/१</span> <span class="SanskritText">एवमेते संक्षेपेण नया: सप्तविधा:। अवान्तरभेदेन पुनरसंख्येया:।</span>=<span class="HindiText">इस तरह संक्षेप से नय सात प्रकार के हैं और अवान्तर भेदों से असंख्यात प्रकार के समझना चाहिए।</span></li> | |||
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<li><span class="HindiText" name="II.1" id="II.1"><strong> नय सम्यक् भी है और मिथ्या भी </strong></span><br> | <li><span class="HindiText" name="II.1" id="II.1"><strong> नय सम्यक् भी है और मिथ्या भी </strong></span><br> | ||
नयचक्र बृहद्/181 <span class="PrakritGatha">एयंतो एयणयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो। तं खलु णाणवियप्पं सम्मं मिच्छं च णायव्वं।181।</span>=<span class="HindiText">एक नय तो एकांत है और उसका समूह अनेकांत है। वह ज्ञान का विकल्प सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी। ऐसा जानना चाहिए। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/558,560 )। </span></li> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/181</span> <span class="PrakritGatha">एयंतो एयणयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो। तं खलु णाणवियप्पं सम्मं मिच्छं च णायव्वं।181।</span>=<span class="HindiText">एक नय तो एकांत है और उसका समूह अनेकांत है। वह ज्ञान का विकल्प सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी। ऐसा जानना चाहिए। <span class="GRef">(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/558,560)</span>। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="II.2" id="II.2"> <strong>सम्यक् व मिथ्या नयों के लक्षण </strong></span><br> स्याद्वादमंजरी/74/4 <span class="SanskritText">सम्यगेकांतो नय: मिथ्यैकांतो नयाभास:।=सम्यगेकांत को नय कहते हैं और मिथ्या एकांत को नयाभास या मिथ्या नय। (देखें [[ एकांत#1 | एकांत - 1]]), (विशेष देखें | <li><span class="HindiText" name="II.2" id="II.2"> <strong>सम्यक् व मिथ्या नयों के लक्षण </strong></span><br> <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/74/4</span> <span class="SanskritText">सम्यगेकांतो नय: मिथ्यैकांतो नयाभास:।=सम्यगेकांत को नय कहते हैं और मिथ्या एकांत को नयाभास या मिथ्या नय। (देखें [[ एकांत#1.1 | एकांत - 1. 1]]), (विशेष देखें अगले शीर्षक )। स्याद्वादमंजरी/ मू.व टीका/28/307,10 सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधार्थो मीयते दुर्नीतिनयप्रमाणै:। यथार्थदर्शी तु नयप्रमाणपथेन दुर्नीतिपथं त्वमास्थ:।28।...नीयते परिच्छिद्यते एकदेशविशिष्टोऽर्थ आभिरिति नीतयो नया:। दुष्टा नीतयो दुर्नीतयो दुर्नया इत्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">पदार्थ ‘सर्वथा सत् है’, ‘सत् है’ और कथंचित् सत् है’ इस प्रकार क्रम से दुर्नय, नय और प्रमाण से पदार्थों का ज्ञान होता है। यथार्थ मार्ग को देखने वाले आपने ही नय और प्रमाणमार्ग के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया है।28। जिसके द्वारा पदार्थों के एक अंश का ज्ञान हो उसे नय (सम्यक् नय) कहते हैं। खोटे नयों को या दुर्नीतियों को दुर्नय कहते हैं। ( स्याद्वादमंजरी/27/305/28 )। और भी देखें [[नय#I.1.1 | नय - I.1.1 ]], (पहिले जो नय सामान्य का लक्षण किया गया वह सम्यक् नय का है।) और भी देखें अगले शीर्षक ‒(सम्यक् व मिथ्या नय के विशेष लक्षण अगले शीर्षकों में स्पष्ट किये गये हैं)। </span></li> | ||
<li><span name="II.3" id="II.3" class="HindiText"><strong> अन्य पक्ष का निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होता </strong></span><br> कषायपाहुड़ 1/13-14/206/257/1 <span class="SanskritText">त चैकांतेन नया: मिथ्यादृष्टय: एव; परपक्षानिकरिष्णूनां सपक्षसत्त्वावधारणे व्यापृतानां स्यात्सम्यग्दृष्टित्वदर्शनात् । उक्तं च‒णिययवयणिनसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।117।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय सर्वथा मिथ्यादृष्टि ही हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो नय परपक्ष का निराकरण नहीं करते हुए (विशेष देखें आगे [[ नय#II.4 | नय - II.4]]) ही अपने पक्ष का निश्चय करने में व्यापार करते हैं उनमें कथंचित् समीचीनता पायी जाती है। कहा भी है‒ये सभी नय अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं, और दूसरे नयों के निराकरण करने में मूढ़ हैं। अनेकांत रूप समय के ज्ञाता पुरुष ‘यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है’ इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं।117। </span> नयचक्र बृहद्/292 <span class="PrakritText">ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्धं।</span>=<span class="HindiText">नयपक्ष मिथ्या नहीं होता, क्योंकि वह अनेकांत द्रव्य की सिद्धि करता है। इसलिए ‘स्यात्’ शब्द से चिह्नित तथा जिनेंद्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट नय शुद्ध है। </span></li> | <li><span name="II.3" id="II.3" class="HindiText"><strong> अन्य पक्ष का निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होता </strong></span><br> <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/206/257/1</span> <span class="SanskritText">त चैकांतेन नया: मिथ्यादृष्टय: एव; परपक्षानिकरिष्णूनां सपक्षसत्त्वावधारणे व्यापृतानां स्यात्सम्यग्दृष्टित्वदर्शनात् । उक्तं च‒णिययवयणिनसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।117।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय सर्वथा मिथ्यादृष्टि ही हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो नय परपक्ष का निराकरण नहीं करते हुए (विशेष देखें आगे [[ नय#II.4 | नय - II.4]]) ही अपने पक्ष का निश्चय करने में व्यापार करते हैं उनमें कथंचित् समीचीनता पायी जाती है। कहा भी है‒ये सभी नय अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं, और दूसरे नयों के निराकरण करने में मूढ़ हैं। अनेकांत रूप समय के ज्ञाता पुरुष ‘यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है’ इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं।117। </span> <br> | ||
<li><span name="II.4" id="II.4" class="HindiText"><strong> अन्य पक्ष का निषेध करने से ही मिथ्या हो जाता है </strong></span><br> धवला 9/4,1,45/182/1 | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/292</span> <span class="PrakritText">ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्धं।</span>=<span class="HindiText">नयपक्ष मिथ्या नहीं होता, क्योंकि वह अनेकांत द्रव्य की सिद्धि करता है। इसलिए ‘स्यात्’ शब्द से चिह्नित तथा जिनेंद्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट नय शुद्ध है। </span></li> | ||
<li><span name="II.5" id="II.5" class="HindiText"> <strong>अन्य पक्ष का संग्रह करने पर वही नय सम्यक् हो जाते हैं </strong></span><br> | <li><span name="II.4" id="II.4" class="HindiText"><strong> अन्य पक्ष का निषेध करने से ही मिथ्या हो जाता है </strong></span><br> <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/182/1 </span> <span class="SanskritText">त एव दुरवधीरता मिथ्यादृष्टय: प्रतिपक्षनिराकरणमुखेन प्रवृत्तत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">ये (नय) ही जब दुराग्रहपूर्वक वस्तुस्वरूप का अवधारण करने वाले होते हैं, तब मिथ्या नय कहे जाते हैं, क्योंकि वे प्रतिपक्ष का निराकरण करने की मुख्यता से प्रवृत्त होते हैं। (विशेष दे. [[एकांत#1.2 | एकांत - 1.2 ]]), <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/183/10)</span>, <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 3/22/513/292/2)</span>।</span> <br/> <span class="GRef">प्रमाणनयतत्त्वालंकार/7/1/( स्याद्वादमंजरी/28/316/29 पर उद्धृत)</span> <span class="SanskritText">स्वाभिप्रेताद् अंशाद् इतरांशपलापी पुनर्दुर्नयाभास:।</span>=<span class="HindiText">अपने अभीष्ट धर्म के अतिरिक्त वस्तु के अन्य धर्मों के निषेध करने को नयाभास कहते हैं। </span> <br /><span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/308/1</span> <span class="SanskritText"> ‘अस्त्येव घट:’ इति। अयं वस्तुनि एकांतास्तित्वमेव अभ्युपगच्छन् इतरधर्माणां तिरस्कारेण स्वाभिप्रेतमेव धर्म व्यवस्थापयति। </span> =<span class="HindiText">किसी वस्तु में अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट एकांत अस्तित्व को सिद्ध करने को दुर्नय कहते हैं, जैसे ‘यह घट ही है’। </span></li> | ||
धवला 9/4,1,45/239/4 <span class="PrakritText">सुणया कधं सविसया। एयंतेण पडिवक्खणिसेहाकरणादो गुणपहाणभावेण ओसादिदपमाणबाहादो।</span>=<span class="HindiText">ये सभी नय वस्तुस्वरूप का अवधारण न करने पर समीचीन नय होते हैं, क्योंकि वे प्रतिपक्ष धर्म का निराकरण नहीं करते। प्रश्न‒सुनयों के अपने विषयों की व्यवस्था कैसे संभव है? उत्तर‒चूँकि सुनय सर्वथा प्रतिपक्षभूत विषयों का निषेध नहीं करते, अत: उनके गौणता और प्रधानता की अपेक्षा प्रमाणबाधा के दूर कर देने से उक्त विषय व्यवस्था भले प्रकार संभव है। </span> | <li><span name="II.5" id="II.5" class="HindiText"> <strong>अन्य पक्ष का संग्रह करने पर वही नय सम्यक् हो जाते हैं </strong></span><br><span class="GRef">स्वयम्भू स्तोत्र/62</span> <span class="SanskritGatha">यथैकश: कारकमर्थसिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पत:।62। </span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार एक-एक कारक शेष अन्य को अपना सहायकरूप कारक अपेक्षित करके अर्थ की सिद्धि के लिए समर्थ होता है, उसी प्रकार आपके मत में सामान्य और विशेष से उत्पन्न होने वाले अथवा सामान्य और विशेष को विषय करने वाले जो नय हैं वे मुख्य और गौण की कल्पना से इष्ट हैं। </span> <br /> | ||
<li><span name="II.6" id="II.6" class="HindiText"> <strong>जो नय सर्वथा के कारण मिथ्या है वही कथंचित् के कारण सम्यक् है </strong></span><br> स्वयंभू स्तोत्र/101 <span class="SanskritGatha">सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च यो नया:। सर्वथेति प्रदुष्यंति पुष्यंति स्यादितीह ते।101।</span> =<span class="HindiText">सत्, एक, नित्य, वक्तव्य तथा असत्, अनेक, अनित्य, व अवक्तव्य ये जो नय पक्ष हैं वे यहाँ सर्वथारूप में तो अति दूषित हैं और स्यात्रूप में पुष्टि को प्राप्त होते हैं। </span> गोम्मटसार कर्मकांड/894-895/1073 | <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/239/4</span> <span class="PrakritText">सुणया कधं सविसया। एयंतेण पडिवक्खणिसेहाकरणादो गुणपहाणभावेण ओसादिदपमाणबाहादो।</span>=<span class="HindiText">ये सभी नय वस्तुस्वरूप का अवधारण न करने पर समीचीन नय होते हैं, क्योंकि वे प्रतिपक्ष धर्म का निराकरण नहीं करते। प्रश्न‒सुनयों के अपने विषयों की व्यवस्था कैसे संभव है? उत्तर‒चूँकि सुनय सर्वथा प्रतिपक्षभूत विषयों का निषेध नहीं करते, अत: उनके गौणता और प्रधानता की अपेक्षा प्रमाणबाधा के दूर कर देने से उक्त विषय व्यवस्था भले प्रकार संभव है। </span><br /> <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/308/4</span> <span class="SanskritText">स हि ‘अस्ति घट:’ इति घटे स्वाभिमतमस्तित्वधर्मं प्रसाधयन् शेषधर्मेषु गजनिमिलिकामालंबते। न चास्य दुर्नयत्वं धर्मांतरातिरस्कारात् ।</span><span class="HindiText">=वस्तु में इष्ट धर्म को सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर वस्तु के विवेचन करने को नय कहते हैं। जैसे ‘यह घट है’। नय में दुर्नय की तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता, इसलिए उसे दुर्नय नहीं कहा जा सकता। </span></li> | ||
नयचक्र बृहद्/292 <span class="PrakritText">ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्धं।</span> | <li><span name="II.6" id="II.6" class="HindiText"> <strong>जो नय सर्वथा के कारण मिथ्या है वही कथंचित् के कारण सम्यक् है </strong></span><br> <span class="GRef">स्वयंभू स्तोत्र/101</span> <span class="SanskritGatha">सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च यो नया:। सर्वथेति प्रदुष्यंति पुष्यंति स्यादितीह ते।101।</span> =<span class="HindiText">सत्, एक, नित्य, वक्तव्य तथा असत्, अनेक, अनित्य, व अवक्तव्य ये जो नय पक्ष हैं वे यहाँ सर्वथारूप में तो अति दूषित हैं और स्यात्रूप में पुष्टि को प्राप्त होते हैं। </span> <br /><span class="GRef">गोम्मटसार कर्मकांड/894-895/1073</span> <span class="PrakritText">जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया।894। परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा वयणा। जेणाणं पुण वयणं सम्मं सु कहंचिव वयणादो।895।</span>=<span class="HindiText">जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं। परसमयवालों के वचन ‘सर्वथा’ शब्द सहित होने से मिथ्या होते हैं और जैनों के वही वचन ‘कथंचित्’ शब्द सहित होने से सम्यक् होते हैं। (देखें [[ नय#I.5 | नय - I.5 ]]में धवला 1 )</span><br /> | ||
<li><span name="II.7" id="II.7" class="HindiText"> <strong>सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या होती है </strong></span><br> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/292</span> <span class="PrakritText">ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्धं।</span><span class="HindiText">=अनेकांत द्रव्य की सिद्धि करने के कारण नयपक्ष मिथ्या नहीं होता। स्यात् पद से अलंकृत होकर वह जिनवचन के अंतर्गत आने से शुद्ध अर्थात् समीचीन हो जाता है।</span> <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/249)</span><br /> <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/30/336/13</span> <span class="SanskritText">ननु प्रत्येकं नयानां विरुद्धत्वे कथं समुदितानां निर्विरोधिता। उच्येत। यथा हि समीचीनं मध्यस्थं न्यायनिर्णेतारमासाद्य परस्परं विवादमाना अपि वादिनो विवादाद् विरमंति एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सर्वज्ञशासनमुपेत्य स्याच्छब्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तय: संत: परस्परमत्यंतं सुहृद्भूयावतिष्ठंते।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒यदि प्रत्येक नय परस्पर विरुद्ध हैं, तो उन नयों के एकत्र मिलाने से उनका विरोध किस प्रकार नष्ट होता है? उत्तर‒जैसे परस्पर विवाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायी के द्वारा न्याय किये जाने पर विवाद करना बंद करके आपस में मिल जाते हैं, वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवान् के शासन की शरण लेकर ‘स्यात्’ शब्द से विरोध के शांत हो जाने पर परस्पर मैत्री भाव से एकत्र रहने लगते हैं।</span><br /> <span class="GRef">पंचाध्यायी x`/ पुर्वार्ध/336-337</span> <span class="SanskritGatha">ननु किं नित्यमनित्यं किमथोभयमनुभयं च तत्त्वं स्यात् । व्यस्तं किमथ समस्तं क्रमत: किमथाक्रमादेतत् ।336। सत्यं स्वपरनिहत्यै सर्वं किल सर्वथेति पदपूर्वम् । स्वपरोपकृतिनिमित्तं सर्वं स्यात्स्यात्पदांकितं तु पदम् ।337।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒तत्त्व नित्य है या अनित्य, उभय या अनुभय, व्यस्त या समस्त, क्रम से या अक्रम से? उत्तर‒ ‘सर्वथा’ इस पद पूर्वक सब ही कथन स्व पर घात के लिए हैं, किंतु स्यात् पद के द्वारा युक्त सब ही पद स्वपर उपकार के लिए हैं। </span></li> | ||
<li><span name="II.8" id="II.8" class="HindiText"> <strong>मिथ्या नय निर्देश का कारण व प्रयोजन </strong></span><br> स्याद्वादमंजरी/27/306/1 <span class="SanskritText">यद् व्यसनम् अत्यासक्ति: औचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावद् दुर्नीतिवादव्यसनम् ।</span>=<span class="HindiText">दुर्नयवाद एक व्यसन है। व्यसन का अर्थ यहाँ अति आसक्ति अर्थात् अपने पक्ष की हठ है, जिसके कारण उचित और अनुचित के विचार से निरपेक्ष प्रवृत्ति होती है।</span> | <li><span name="II.7" id="II.7" class="HindiText"> <strong>सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या होती है </strong></span><br><span class="GRef">आप्त मीमांसा/108</span><span class="SanskritText"> निरपेक्षया नया: मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकत् ।</span>=<span class="HindiText">निरपेक्षनय मिथ्या है और सापेक्ष नय वस्तुस्वरूप है।</span> <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 80/268)</span>। <br /> <span class="GRef">स्वयंभू स्तोत्र/61 </span> <span class="SanskritText">य एव नित्यक्षणिकादयो नया;, मिथोऽनपेक्षा: स्व–परप्रणाशिन:। त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुने:, परस्परेक्षा: स्वपरोपकारिण:।61।</span>=<span class="HindiText">जो ये नित्य व क्षणिकादि नय हैं वे परस्पर निरपेक्ष होने से स्वपर प्रणाशी हैं। हे प्रत्यक्षज्ञानी विमलजिन ! आपके मत में वे ही सब नय परस्पर सापेक्ष होने से स्व व पर के उपकार के लिए हैं।</span><br /> <span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/13-14/205/ गाथा 102/249 </span><span class="PrakritText">तम्हा मिच्छादिट्ठी सव्वे वि णया सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सिया उण लहंति सम्मत्तसब्भावं।102।</span>=<span class="HindiText">केवल अपने-अपने पक्ष से प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं। परंतु यदि परस्पर सापेक्ष हों तो सभी नय समीचीनपने को प्राप्त होते हैं, अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं।</span><br /> <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/9</span> <span class="SanskritText">ते एते गुणप्रधानतया परस्परतंत्रा: सम्यग्दर्शनहेतव: पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तंत्वादय इव यथोपाय विनिवेश्यमाना: पटादिसंज्ञा: स्वतंत्राश्चासमर्था:।</span><span class="HindiText">=ये सब नय गौण-मुख्यरूप से एक दूसरे की अपेक्षा करके ही सम्यग्दर्शन के हेतु हैं। जिस प्रकार पुरुष की अर्थक्रिया और साधनों की सामर्थ्यवश यथायोग्य निवेशित किये गये तंतु आदिक पट संज्ञा को प्राप्त होते हैं। (तथा पटरूप में अर्थक्रिया करने को समर्थ होते हैं। और स्वतंत्र रहने पर (पटरूप में) कार्यकारी नहीं होते, वैसे ही ये नय भी समझने चाहिए।</span> <span class="GRef">( तत्त्वसार/1/51)</span>।</span><br /> <span class="GRef">सिद्धि विनिश्चय/ मूल/10/27/691</span> <span class="SanskritText">सापेक्षा नया: सिद्धा; दुर्नया अपि लोकत:। स्याद्वादिनां व्यवहारात् कुक्कुटग्रामवासितम् ।</span><span class="HindiText">=लोक में प्रयोग की जाने वाली जो दुर्नय हैं वे भी स्याद्वादियों के ही सापेक्ष हो जाने से सुनय बन जाती हैं। यह बात आगम से सिद्ध है। जैसे कि एक किसी घर में रहने वाले अनेक गृहवासी परस्पर मैत्री पूर्वक रहते हैं।</span><br /> <span class="GRef">लघीयस्त्रय/30</span> <span class="SanskritGatha">भेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदाभेदाभिसंधय:। ये तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यंते नयदुर्नया:।30।</span> <span class="HindiText">=भेदाभेदात्मक ज्ञेय में भेद व अभेदपने की अभिसंधि होने के कारण, उनको बतलाने वाले नय भी सापेक्ष होने से नय और निरपेक्ष होने दुर्नय कहलाते हैं। <span class="GRef">(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/590)</span></span>।<br /> <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/249</span> <span class="PrakritText">सियसावेक्खा सम्मा मिच्छारूवा हु तेहिं णिरवेक्खा। तम्हा सियसद्दादो विसयं दोण्हं पि णायव्वं।</span><span class="HindiText">=क्योंकि सापेक्ष नय सम्यक् और निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं, इसलिए प्रमाण व नय दोनों प्रकार के वाक्यों के साथ स्यात् शब्द युक्त करना चाहिए। </span><br /> <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/266</span> <span class="PrakritText">ते सावेक्खा सुणया णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होंति। सयलववहारसिद्धी सुणयादो होदि णियमेण।</span>=<span class="HindiText">ये नय सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और निरपेक्ष हों तो दुर्नय होते हैं। सुनय से ही समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है। </span></li> | ||
<li><span name="II.9" id="II.9" class="HindiText"> <strong>सम्यग्दृष्टिकी नय सम्यक् है और मिथ्यादृष्टिकी मिथ्या </strong></span><br> | <li><span name="II.8" id="II.8" class="HindiText"> <strong>मिथ्या नय निर्देश का कारण व प्रयोजन </strong></span><br> <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/27/306/1</span> <span class="SanskritText">यद् व्यसनम् अत्यासक्ति: औचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावद् दुर्नीतिवादव्यसनम् ।</span>=<span class="HindiText">दुर्नयवाद एक व्यसन है। व्यसन का अर्थ यहाँ अति आसक्ति अर्थात् अपने पक्ष की हठ है, जिसके कारण उचित और अनुचित के विचार से निरपेक्ष प्रवृत्ति होती है।</span> <br /> <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/566 </span> <span class="SanskritText">अथ संति नयाभासा यथोपचाराख्यहेतुदृष्टांता:। अत्रोच्यंते केचिद्धेयतया वा नयादिशुद्धयर्थम् ।</span><span class="HindiText">=उपचार के अनुकूल संज्ञा हेतु और दृष्टांतवाली जो नयाभास हैं, उनमें से कुछ का कथन यहाँ त्याज्यपने से अथवा नय आदि की शुद्धि के लिए कहते हैं। </span></li> | ||
<li><span name="II.10" id="II.10" class="HindiText"> <strong>प्रमाण ज्ञान होने के पश्चात् ही नय प्रवृत्ति सम्यक् होती है, उसके बिना नहीं </strong></span><br> सर्वार्थसिद्धि/1/6/20/5 <span class="SanskritText">कुतोऽभ्यर्हितत्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात् । एवं ह्युक्तं ‘प्रगृह्य प्रमाणत: परिणतिविशेषादर्थावधारणं नय’ इति।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒प्रमाण श्रेष्ठ क्यों है ? उत्तर‒क्योंकि प्रमाण से ही नय प्ररूपणा की उत्पत्ति हुई है, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। आगम में ऐसा कहा है कि वस्तु को प्रमाण से जानकर अनंतर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है। देखें [[ नय#I.1.1.4 | नय - I.1.1.4 ]](प्रमाण गृहीत वस्तु के एक देश को जानना नय का लक्षण है।)</span> | <li><span name="II.9" id="II.9" class="HindiText"> <strong>सम्यग्दृष्टिकी नय सम्यक् है और मिथ्यादृष्टिकी मिथ्या </strong></span><br><span class="GRef">पंचास्तिकाय/तात्पर्य वृत्ति/43 की प्रक्षेपक गाथा नं.6/87</span> <span class="PrakritText">मिच्छत्ता अण्णाणं अविरदिभावो य भावआवरणा। णेयं पडुच्चकाले तह दुण्णं दुप्पमाणं च।6।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार मिथ्यात्व के उदय से ज्ञान अज्ञान हो जाता है, अविरतिभाव उदित होते हैं, और सम्यक्त्वरूप भाव ढक जाता है, वैसे ही सुनय दुर्नय हो जाती है और प्रमाण दु:प्रमाण हो जाता है।</span> <br /> <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/237</span> <span class="PrakritGatha">भेदुवयारं णिच्छय मिच्छादिट्ठीण मिच्छरूवं खु। सम्मे सम्मा भणिया तेहि दु बंधो व मोक्खो वा।237।</span>=<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टियों के भेद या उपचार का ज्ञान नियम से मिथ्या होता है। और सम्यक्त्व हो जाने पर वही सम्यक् कहा गया है। तहाँ उस मिथ्यारूप ज्ञान से बंध और सम्यक्रूप ज्ञान से मोक्ष होता है। </span></li> | ||
<li><span name="II.10" id="II.10" class="HindiText"> <strong>प्रमाण ज्ञान होने के पश्चात् ही नय प्रवृत्ति सम्यक् होती है, उसके बिना नहीं </strong></span><br> <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/6/20/5</span> <span class="SanskritText">कुतोऽभ्यर्हितत्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात् । एवं ह्युक्तं ‘प्रगृह्य प्रमाणत: परिणतिविशेषादर्थावधारणं नय’ इति।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒प्रमाण श्रेष्ठ क्यों है ? उत्तर‒क्योंकि प्रमाण से ही नय प्ररूपणा की उत्पत्ति हुई है, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। आगम में ऐसा कहा है कि वस्तु को प्रमाण से जानकर अनंतर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है। देखें [[ नय#I.1.1.4 | नय - I.1.1.4 ]](प्रमाण गृहीत वस्तु के एक देश को जानना नय का लक्षण है।)</span><br /> <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/6/2/33/6</span> <span class="SanskritText">यत: प्रमाणप्रकाशितेष्वर्थेषु नयप्रवृत्तिर्व्यवहारहेतुर्भवति नान्येषु अतोऽस्याभ्यर्हितत्वम् ।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि प्रमाण से प्रकाशित पदार्थों में ही नय की प्रवृत्ति का व्यवहार होता है, अन्य पदार्थों में नहीं, इसलिए प्रमाण को श्रेष्ठपना प्राप्त होता है। </span><br /><span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/1/6/ श्लो.23/365</span> <span class="SanskritText">नाशेषवस्तुनिर्णीते: प्रमाणादेव कस्यचित् । तादृक् सामर्थ्यशून्यत्वात् सन्नयस्यापि सर्वदा।23।</span>=<span class="HindiText">किसी भी वस्तु का संपूर्णरूप से निर्णय करना प्रमाण ज्ञान से ही संभव है। समीचीन से भी समीचीन किसी नय की तिस प्रकार वस्तु का निर्णय कर लेने की सर्वदा सामर्थ्य नहीं है।</span><br /> <span class="GRef">धवला 9/4,1,47/240/2</span> <span class="PrakritText">पमाणादो णयाणमुप्पत्ती, अणवगयट्ठे गुणप्पहाणभावाहिप्पायाणुप्पत्तीदो।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण से नयों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि, वस्तु के अज्ञात होने पर, उसमें गौणता और प्रधानता का अभिप्राय नहीं बनता है।</span><br /><span class="GRef">आलापपद्धति/8/ गाथा 10</span> <span class="SanskritGatha">नानास्वभावसंयुक्तं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणत:। तच्च सापेक्षसिद्धयर्थं स्यान्नयमिश्रितं कुरु।10।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण के द्वारा नानास्वभावसंयुक्त द्रव्य को जानकर, उन स्वभावों में परस्परसापेक्षता की सिद्धि के अर्थ (अथवा उनमें परस्पर निरपेक्षतारूप एकांत के विनाशार्थ) <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/173</span> ), उस ज्ञान को नयों से मिश्रित करना चाहिए।<span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/173)</span>। </span></li> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.1" id="III.1.1"><strong> सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.1" id="III.1.1"><strong> सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/140/8 <span class="SanskritText">स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।...तयोर्भेदा नैगमादय:।</span> =<span class="HindiText">नय के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इन दोनों नयों के उत्तर भेद नैगमादि हैं। </span>( राजवार्तिक/1/33/1/94/25 ) (देखें [[ नय#I.1.4 | नय - I.1.4]])<br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/140/8</span> <span class="SanskritText">स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।...तयोर्भेदा नैगमादय:।</span> =<span class="HindiText">नय के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इन दोनों नयों के उत्तर भेद नैगमादि हैं। </span><span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/1/94/25)</span> (देखें [[ नय#I.1.4 | नय - I.1.4]])<br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/ पृष्ठ/पंक्ति‒स,</span> <span class="SanskritText">एवंविधो नयो द्विविध:, द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति। (167/10)। तत्र योऽसौ द्रव्यार्थिकनय: स त्रिविधो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदेन।(168/4)। पर्यायार्थिको नयश्चतुर्विध: ऋजुसूत्रशब्द-समभिरूढैवंभूतभेदेन।</span>((171/7)।=<span class="HindiText">इस प्रकार की वह नय दो प्रकार है‒द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक। तहाँ जो द्रव्यार्थिक नय है वह तीन प्रकार है‒नैगम, संग्रह व व्यवहार। पर्यायार्थिकनय चार प्रकार है‒ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ व एवंभूत <span class="GRef">(धवला 1/1,1,1/ गाथा 5-7/12-13)</span>, <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/181-182/ गाथा 87-89/218-220)</span>, <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 3/215)</span> <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/58/42)</span>, <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/83/10 +84/2+85/2+86/3+86/6)</span>; <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/13-14/177/211/4 +182/219/1 +184/222/1 + 197/235/1)</span>; <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/ श्रुत/217)</span> <span class="GRef">(नयचक्र /पृष्ठ 20)</span> <span class="GRef">( तत्त्वसार/1/41-42/36)</span>; <span class="GRef">(स्याद्वादमंजरी/82/317/1 +318/22)</span>।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.1.2" id="III.1.2"><strong>इनमें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग का कारण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.2" id="III.1.2"><strong>इनमें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग का कारण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/84/7</span> <span class="SanskritText">एते त्रयोऽपि नया: नित्यवादिन: स्वविषये पर्यायाभावत: सामान्यविशेषकालयोरभावात् ।...द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययो: किंकृतो भेदश्चेदुच्यते ऋजुसूत्रवचनविच्छेदो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका:। विच्छिद्यतेऽस्मिन्काल इति विच्छेद:। ऋजुसूत्रवचनं नाम वर्तमानवचनं, तस्य विच्छेद: ऋजुसूत्रवचनविच्छेद:। स कालो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका:। ऋजुसूत्रवचनविच्छेदादारम्य आ एक समयाद्वस्तुस्थित्यध्यवसायिन: पर्यायार्थिका इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">ये तीनों ही (नैगम, संग्रह और व्यवहार) नय नित्यवादी हैं, क्योंकि इन तीनों ही नयों का विषय पर्याय न होने के कारण इन तीनों नयों के विषय में सामान्य और विशेषकाल का अभाव है। (अर्थात इन तीनों नयों में काल की विवक्षा नहीं होती।) प्रश्न‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक में किस प्रकार भेद है? उत्तर‒ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों का विच्छेद जिस काल में होता है, वह (काल) जिन नयों का मूल आधार है, वे पर्यायार्थिक नय हैं। विच्छेद अथवा अंत जिसकाल में होता है, उस काल को विच्छेद कहते हैं। वर्तमान वचन को ऋजुसूत्रवचन कहते हैं और उसके विच्छेद को ऋजुसूत्रवचनविच्छेद कहते हैं। वह ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों का विच्छेदरूप काल जिन नयों का मूल आधार है उन्हें पर्यायार्थिकनय कहते हैं। अर्थात् ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों के विच्छेदरूप समय से लेकर एकसमय पर्यंत वस्तु की स्थिति का निश्चय करने वाले पर्यायार्थिक नय हैं। (भावार्थ‒’देवदत्त’ इस शब्द का अंतिम अक्षर ‘त’ मुख से निकल चुकने के पश्चात् से लेकर एक समय आगे तक ही देवदत्त नाम का व्यक्ति है, दूसरे समय में वह कोई अन्य हो गया है। ऐसा पर्यायार्थिक नय का मंतव्य है। <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3)</span><br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.3" id="III.1.3"><strong> सातों में अर्थ शब्द व ज्ञाननय विभाग </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.3" id="III.1.3"><strong> सातों में अर्थ शब्द व ज्ञाननय विभाग </strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/4/42/17/361/2 <span class="SanskritText">संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रा अर्थनया:। शेषा: शब्दनया:।</span>=<span class="HindiText">संग्रह, व्यवहार, व ऋजुसूत्र ये अर्थनय हैं और शेष (शब्द, समभिरूढ और एवंभूत) शब्द या व्यंजननय हैं। </span>( धवला 9/4,1,45/181/1 )।<br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/4/42/17/361/2</span> <span class="SanskritText">संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रा अर्थनया:। शेषा: शब्दनया:।</span>=<span class="HindiText">संग्रह, व्यवहार, व ऋजुसूत्र ये अर्थनय हैं और शेष (शब्द, समभिरूढ और एवंभूत) शब्द या व्यंजननय हैं। </span>( धवला 9/4,1,45/181/1 )।<br /> | ||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 81/269</span><span class="SanskritGatha"> तत्रर्जुसूत्रपर्यंताश्चत्वारोऽर्थनया मता:। त्रय: शब्दनया: शेषा: शब्दवाच्यार्थगोचरा:।81।</span>=<span class="HindiText">इन सातों में से नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय तो अर्थनय मानी गयी हैं, और शेष तीन (शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत) वाचक शब्द द्वारा अर्थ को विषय करने वाले शब्दनय हैं। <span class="GRef">(धवला 1/1,1,1/86/3)</span>, <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/184/222/1 +197/1)</span>, <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/217)</span> <span class="GRef">( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 20)</span> <span class="GRef">( तत्त्वसार/1/43)</span> <span class="GRef">(स्या.प्र./28/319/29)</span>।<br /> | ||
नोट‒यद्यपि ऊपर कहीं भी ज्ञाननय का जिक्र नहीं किया गया है, परंतु जैसा कि आगे नैगमनय के लक्षणों पर से विदित है, इनमें से नैगमनय ज्ञाननय व अर्थनय दोनों रूप है। अर्थ को विषय करते समय यह अर्थनय है और संकल्प मात्र को ग्रहण करते समय ज्ञाननय है। इसके भूत, भावी आदि भेद भी ज्ञान को ही आश्रय करके किये गये हैं, क्योंकि वस्तु की भूत भावी पर्यायें वस्तु में नहीं ज्ञान में रहती हैं (देखें [[ नय#III.3.6 | नय - III.3.6 ]]में श्लोकवार्तिक )। इसके अतिरिक्त भी ऊपर के दो प्रमाणों में प्रथम प्रमाण में इस नय को अर्थनयरूप से ग्रहण न करने का भी यही कारण प्रतीत होता है। दूसरे प्रमाण में इसे अर्थनय कहना भी विरोध को प्राप्त नहीं होता क्योंकि यह ज्ञाननय होने के साथ-साथ अर्थनय भी अवश्य है।)<br /> | नोट‒यद्यपि ऊपर कहीं भी ज्ञाननय का जिक्र नहीं किया गया है, परंतु जैसा कि आगे नैगमनय के लक्षणों पर से विदित है, इनमें से नैगमनय ज्ञाननय व अर्थनय दोनों रूप है। अर्थ को विषय करते समय यह अर्थनय है और संकल्प मात्र को ग्रहण करते समय ज्ञाननय है। इसके भूत, भावी आदि भेद भी ज्ञान को ही आश्रय करके किये गये हैं, क्योंकि वस्तु की भूत भावी पर्यायें वस्तु में नहीं ज्ञान में रहती हैं (देखें [[ नय#III.3.6 | नय - III.3.6 ]]में श्लोकवार्तिक )। इसके अतिरिक्त भी ऊपर के दो प्रमाणों में प्रथम प्रमाण में इस नय को अर्थनयरूप से ग्रहण न करने का भी यही कारण प्रतीत होता है। दूसरे प्रमाण में इसे अर्थनय कहना भी विरोध को प्राप्त नहीं होता क्योंकि यह ज्ञाननय होने के साथ-साथ अर्थनय भी अवश्य है।)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.4" id="III.1.4"> <strong> सातों में अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.4" id="III.1.4"> <strong> सातों में अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/86/3 <span class="SanskritText">अर्थनय: ऋजुसूत्र:। कुत:। ऋजु प्रगुणं सूत्रयतीति तत्सिद्धे:।...संत्वेतेऽर्थनया: अर्थव्यापृतत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">शब्दभेद की विवक्षा न करके केवल पदार्थ के धर्मों का निश्चय करने वाला अर्थनय है, और शब्दभेद से उसमें भेद करने वाला व्यंजननय है‒देखें [[ नय#I.4.2 | नय - I.4.2]]) यहाँ | <span class="GRef">धवला 1/1,1,1/86/3</span> <span class="SanskritText">अर्थनय: ऋजुसूत्र:। कुत:। ऋजु प्रगुणं सूत्रयतीति तत्सिद्धे:।...संत्वेतेऽर्थनया: अर्थव्यापृतत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">शब्दभेद की विवक्षा न करके केवल पदार्थ के धर्मों का निश्चय करने वाला अर्थनय है, और शब्दभेद से उसमें भेद करने वाला व्यंजननय है‒देखें [[ नय#I.4.2 | नय - I.4.2]]) यहाँ ऋजुसूत्र नय को अर्थनय समझना चाहिए। क्योंकि ऋजु सरल अर्थात् वर्तमान समयवर्ती पर्याय मात्र को जो ग्रहण करे उसे ऋजुसूत्र नय कहते हैं। इस तरह वर्तमान पर्यायरूप से अर्थ को ग्रहण करने वाला होने के कारण यह नय अर्थनय है, यह बात सिद्ध हो जाती है। अर्थ को विषय करने वाले होने के कारण नैगम, संग्रह और व्यवहार भी अर्थनय हैं। (शब्दभेद की अपेक्षा करके अर्थ में भेद डालने वाले होने के कारण शेष तीन नय व्यंजननय हैं।)</span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/310/16 <span class="SanskritText">अभिप्रायस्तावद् अर्थद्वारेण शब्दद्वारेण वा प्रवर्तते, गत्यंतराभावात् । तत्र ये केचनार्थनिरूपणप्रवणा: प्रमात्राभिप्रायास्ते सर्वेऽपि आद्ये नयचतुष्टयेऽंतर्भवंति। ये च शब्दविचारचतुरास्ते शब्दादिनयत्रये इति।</span>=<span class="HindiText">अभिप्राय प्रगट करने के दो ही द्वार हैं‒अर्थ या शब्द। क्योंकि, इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। तहाँ प्रमाता के जो अभिप्राय अर्थ का प्ररूपण करने में प्रवीण हैं वे तो अर्थनय हैं जो नैगमादि चार नयों में अंतर्भूत हो जाते हैं और जो शब्द विचार करने में चतुर हैं वे शब्दादि तीन व्यंजननय हैं। ( स्याद्वादमंजरी/28/319/29 )।<br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/310/16</span> <span class="SanskritText">अभिप्रायस्तावद् अर्थद्वारेण शब्दद्वारेण वा प्रवर्तते, गत्यंतराभावात् । तत्र ये केचनार्थनिरूपणप्रवणा: प्रमात्राभिप्रायास्ते सर्वेऽपि आद्ये नयचतुष्टयेऽंतर्भवंति। ये च शब्दविचारचतुरास्ते शब्दादिनयत्रये इति।</span>=<span class="HindiText">अभिप्राय प्रगट करने के दो ही द्वार हैं‒अर्थ या शब्द। क्योंकि, इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। तहाँ प्रमाता के जो अभिप्राय अर्थ का प्ररूपण करने में प्रवीण हैं वे तो अर्थनय हैं जो नैगमादि चार नयों में अंतर्भूत हो जाते हैं और जो शब्द विचार करने में चतुर हैं वे शब्दादि तीन व्यंजननय हैं। ( स्याद्वादमंजरी/28/319/29 )।<br /> | ||
देखें [[ नय#I.4.5 | नय - I.4.5 ]]शब्दनय केवल शब्द को विषय करता है अर्थ को नहीं।<br /> | देखें [[ नय#I.4.5 | नय - I.4.5 ]]शब्दनय केवल शब्द को विषय करता है अर्थ को नहीं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.5" id="III.1.5"> <strong> नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.5" id="III.1.5"> <strong> नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/181/4</span> <span class="SanskritText">नव नया: क्वचिच्छ्रूयंत इति चेन्न नयानामियत्तासंख्यानियमाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒कहीं पर नौ नय सुने जाते हैं ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि ‘नय इतने हैं’ ऐसी संख्या के नियम का अभाव है। (विशेष देखें [[ नय#I.5.5 | नय - I.5.5]]) <span class="GRef">(कषायपाहुड़/1/13-14/202/245/2)</span><br /> | |||
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<li> <span class="HindiText" name="III.1.6" id="III.1.6"> <strong> पूर्व पूर्व का नय अगले अगले का कारण है</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.1.6" id="III.1.6"> <strong> पूर्व पूर्व का नय अगले अगले का कारण है</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/7 | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/7 </span> <span class="SanskritText">एषां क्रम: पूर्वपूर्वहेतुकत्वाच्च।</span>=<span class="HindiText">पूर्व पूर्व का नय अगले-अगले नय का हेतु है, इसलिए भी यह क्रम (नैगम, संग्रह, व्यवहार एवंभूत) कहा गया है। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/12/99/17)</span> <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक/ पु. 4/1/33/श्लोक 82/269)</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.7" id="III.1.7"> <strong> सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.7" id="III.1.7"> <strong> सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/7 <span class="SanskritText">उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वादेषां क्रम:...। एवमेते नया: पूर्वपूर्वविरुद्धमहाविषया उत्तरोत्तरानुकूलाल्पविषया:।</span>=<span class="HindiText">उत्तरोत्तर | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/7 </span> <span class="SanskritText">उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वादेषां क्रम:...। एवमेते नया: पूर्वपूर्वविरुद्धमहाविषया उत्तरोत्तरानुकूलाल्पविषया:।</span>=<span class="HindiText">उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय वाले होने के कारण इनका यह क्रम कहा है। इस प्रकार ये नय पूर्व पूर्व विरुद्ध महा विषयवाले और उत्तरोत्तर अनुकूल अल्प विषयवाले हैं <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/12/99/17 )</span>, <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 82/269 )</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/58/50 )</span>, <span class="GRef">(तत्त्वसार/1/43 )</span></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 98,100/289 </span> <span class="SanskritText">यत्र प्रवर्त्तते स्वार्थे नियमादुत्तरो नय:। पूर्वपूर्वनयस्तत्र वर्तमानो न वार्यते।98। पूर्वत्र नोत्तरा संख्या यथायातानुवर्त्यते। तथोत्तरनय: पूर्वनयार्थसकले सदा।100।</span>=<span class="HindiText">जहाँ जिस अर्थ को विषय करने वाला उत्तरवर्ती नय नियम से प्रवर्तता है तिस तिस में पूर्ववर्ती नय की प्रवृत्ति नहीं रोकी जा सकती।98। परंतु उत्तरवर्ती नयें पूर्ववर्ती नयों के पूर्ण विषय में नहीं प्रवर्तती हैं। जैसे बड़ी संख्या में छोटी संख्या समा जाती है पर छोटी में बड़ी नहीं (पूर्व पूर्व का विरुद्ध विषय और उत्तर उत्तर का अनुकूल विषय होने का भी यही अर्थ है <span class="GRef">(राजवार्तिक/ हिन्दी /1/33/12/494 )</span></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 82-89/269 </span> <span class="SanskritText">पूर्व: पूर्वो नयो भूमविषय: कारणात्मक:। पर: पर: पुन: सूक्ष्मगोचरो हेतुमानिह।82। सन्मात्रविषयत्वेन संग्रहस्य न युज्यते। महाविषयताभावाभावार्थान्नैगममान्नयात् ।83। यथा हि सति संकल्पस्यैवासति वेद्यते। तत्र प्रवर्तमानस्य नैगमस्य महार्थता।84। संग्रहाद्वयवहारोऽपि सद्विशेषावबोधक:। न भूमविषयोऽशेषसत्समूहोपदर्शिन:।85। नर्जूसूत्र: प्रभूतार्थो वर्तमानार्थगोचर:। कालात्रितयवृत्त्यर्थगोचराद्वयवहारत:।86। कालादिभेदतोऽप्यर्थमभिन्नमुपगच्छत:। नर्जुसूत्रान्महार्थोऽत्रशब्दस्तद्विपरीतवित् ।87। शब्दात्पर्यायभेदाभिन्नमर्थमभीप्सित:। न स्यात्समभिरूढोऽपि महार्थस्तद्विपर्यय:।88। क्रियाभेदेऽपि चाभिन्नमर्थमभ्युपगच्छत:। नैवंभूत: प्रभूतार्थो नय: समभिरूढत:।89।</span>=<span class="HindiText">इन नयों में पहले पहले के नय अधिक विषयवाले हैं, और आगे आगे के नय सूक्ष्म विषयवाले हैं। </span> | ||
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<li class="HindiText"> संग्रहनय सन्मात्र को जानता है और नैगमनय संकल्प द्वारा विद्यमान व अविद्यमान दोनों को जानता है, इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है। </li> | <li class="HindiText"> संग्रहनय सन्मात्र को जानता है और नैगमनय संकल्प द्वारा विद्यमान व अविद्यमान दोनों को जानता है, इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है। </li> | ||
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<li class="HindiText"> समभिरूढ़नय इंद्र शक्र आदि (समान काल, लिंग आदि वाले) एकार्थवाची शब्दों को भी व्युत्पत्ति की अपेक्षा भिन्नरूप से जानता है, (अथवा उनमें से किसी एक ही शब्द को वाचकरूप से रूढ़ करता है), परंतु शब्दनय में यह सूक्ष्मता नहीं रहती, अतएव समभिरूढ़ से शब्दनय का विषय अधिक है। </li> | <li class="HindiText"> समभिरूढ़नय इंद्र शक्र आदि (समान काल, लिंग आदि वाले) एकार्थवाची शब्दों को भी व्युत्पत्ति की अपेक्षा भिन्नरूप से जानता है, (अथवा उनमें से किसी एक ही शब्द को वाचकरूप से रूढ़ करता है), परंतु शब्दनय में यह सूक्ष्मता नहीं रहती, अतएव समभिरूढ़ से शब्दनय का विषय अधिक है। </li> | ||
<li class="HindiText"> समभिरूढ़नय से जाने हुए पदार्थों में क्रिया के भेद से वस्तु में भेद मानना (अर्थात् समभिरूढ़ द्वारा रूढ़ शब्द को उसी समय उसका वाचक मानना जबकि वह वस्तु तदनुकूल क्रियारूप से परिणत हो) एवंभूत है। जैसे कि समभिरूढ़ की अपेक्षा पुरंदर और शचीपति (इन शब्दों के अर्थ) में भेद होने पर भी नगरों का नाश न करने के समय भी पुरंदर शब्द इंद्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परंतु एवंभूत की अपेक्षा नगरों का नाश करते समय ही इंद्र को पुरंदर नाम से कहा जा सकता है।) अतएव एवंभूत से समभिरूढ़नय का विषय अधिक है। </li> | <li class="HindiText"> समभिरूढ़नय से जाने हुए पदार्थों में क्रिया के भेद से वस्तु में भेद मानना (अर्थात् समभिरूढ़ द्वारा रूढ़ शब्द को उसी समय उसका वाचक मानना जबकि वह वस्तु तदनुकूल क्रियारूप से परिणत हो) एवंभूत है। जैसे कि समभिरूढ़ की अपेक्षा पुरंदर और शचीपति (इन शब्दों के अर्थ) में भेद होने पर भी नगरों का नाश न करने के समय भी पुरंदर शब्द इंद्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परंतु एवंभूत की अपेक्षा नगरों का नाश करते समय ही इंद्र को पुरंदर नाम से कहा जा सकता है।) अतएव एवंभूत से समभिरूढ़नय का विषय अधिक है। </li> | ||
<li class="HindiText"> (और अंतिम एवंभूत का विषय सर्वत: स्तोक है; क्योंकि, इसके आगे वाचक शब्द में किसी अपेक्षा भी भेद किया जाना संभव नहीं है।) ( स्याद्वादमंजरी/28/319/30 ) ( राजवार्तिक/ | <li class="HindiText"> (और अंतिम एवंभूत का विषय सर्वत: स्तोक है; क्योंकि, इसके आगे वाचक शब्द में किसी अपेक्षा भी भेद किया जाना संभव नहीं है।) <span class="GRef">(स्याद्वादमंजरी/28/319/30 )</span> <span class="GRef">( राजवार्तिक/ हिन्दी /1/33/493 )</span> (और भी देखो आगे शीर्षक नं.9)।<br /> | ||
धवला 1/1,1,1/13/11 (विशेषार्थ)‒वर्तमान समयवर्ती पर्याय को विषय करना ऋजुसूत्रनय है, इसलिए जब तक द्रव्यगत भेदों की ही मुख्यता रहती है तब तक व्यवहारनय चलता है। (देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]],4,3), और जब कालकृत भेद प्रारंभ हो जाता है, तभी से ऋजुसूत्रनय का प्रारंभ होता है। शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीनों नयों का विषय भी वर्तमान पर्यायमात्र है। परंतु उनमें ऋजुसूत्र के विषयभूत अर्थ के वाचक शब्दों की मुख्यता है, इसलिए उनका विषय ऋजुसूत्र से सूक्ष्म सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम माना गया है। अर्थात् ऋजुसूत्र के विषय में लिंग आदि से भेद करने वाला शब्दनय है। शब्दनय से स्वीकृत (समान) लिंग वचन आदि वाले शब्दों में व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद करने वाले समभिरूढ़नय हैं। और पर्यायशब्द को उस शब्द से ध्वनित होने वाला क्रियाकाल में ही वाचक मानने वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। इस तरह ये शब्दादिनय उस ऋजुसूत्र की शाखा उपशाखा हैं।<br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,1/13/11 </span> (विशेषार्थ)‒वर्तमान समयवर्ती पर्याय को विषय करना ऋजुसूत्रनय है, इसलिए जब तक द्रव्यगत भेदों की ही मुख्यता रहती है तब तक व्यवहारनय चलता है। (देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]],4,3), और जब कालकृत भेद प्रारंभ हो जाता है, तभी से ऋजुसूत्रनय का प्रारंभ होता है। शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीनों नयों का विषय भी वर्तमान पर्यायमात्र है। परंतु उनमें ऋजुसूत्र के विषयभूत अर्थ के वाचक शब्दों की मुख्यता है, इसलिए उनका विषय ऋजुसूत्र से सूक्ष्म सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम माना गया है। अर्थात् ऋजुसूत्र के विषय में लिंग आदि से भेद करने वाला शब्दनय है। शब्दनय से स्वीकृत (समान) लिंग वचन आदि वाले शब्दों में व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद करने वाले समभिरूढ़नय हैं। और पर्यायशब्द को उस शब्द से ध्वनित होने वाला क्रियाकाल में ही वाचक मानने वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। इस तरह ये शब्दादिनय उस ऋजुसूत्र की शाखा उपशाखा हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.8" id="III.1.8"> <strong> सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.8" id="III.1.8"> <strong> सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2,1,4/ गाथा 1-6/28-29 </span> <span class="PrakritGatha">णयाणामभिप्पाओ एत्थ उच्चदे। तं जहा‒कं पि णरं दठ्ठूण य पावजणसमागमं करेमाणं। णेगमणएण भण्णई णेरइओ एस पुरिसो त्ति।1। ववहारस्सा दु वयणं जइया कोदंडकंडगयहत्थो। भमइ मए मग्गंतो तइया सो होइ णेरइओ।2। उज्जुसुदस्स दु वयणं जइया इर ठाइदूण ठाणम्मि। आहणदि मए पावो तइया सो होइ णेरइओ।3। सद्दणयस्स दु वयणं जइया पाणेहि मोइदो जंतू। तइया सो णेरइओ हिसाकम्मेण संजुतो।4। वयणं तु समभिरूढं णारयकम्मस्स बंधगो जइया। तइया सो णेरइओ णारयकम्मेण संजुत्तो।5। णिरयगइं संपत्तो जइया अणुहवइ णारयं दुक्खं। तइया सो णेरइओ एवंभूदो णओ भणदि।6।</span>=<span class="HindiText">यहाँ (नरक गति के प्रकरण में) नयों का अभिप्राय बतलाते हैं। वह इस प्रकार है‒ </span> | |||
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<li class="HindiText"> किसी मनुष्य को पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है।1। </li> | <li class="HindiText"> किसी मनुष्य को पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है।1। </li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.9" id="III.1.9"> <strong> शब्दादि तीन नयों में अंतर </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.9" id="III.1.9"> <strong> शब्दादि तीन नयों में अंतर </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/42/17/261/11 </span> <span class="SanskritText"> व्यंजनपर्यायास्तु शब्दनया द्विविधं वचनं प्रकल्पयंति‒अभेदनाभिधानं भेदेन च। यथा शब्दे पर्यायशब्दांतरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद:। समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य अप्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् । एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् भेदेनाभिधानम् ।<br /> | |||
अथवा, अन्यथा द्वैविध्यम् ‒ एकस्मिन्नर्थेऽनेकशब्दवृत्ति:, प्रत्यर्थं वा शब्दविनिवेश इति। यथा शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक: समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य: एक:। एवंभूते वर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:।</span> = | अथवा, अन्यथा द्वैविध्यम् ‒ एकस्मिन्नर्थेऽनेकशब्दवृत्ति:, प्रत्यर्थं वा शब्दविनिवेश इति। यथा शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक: समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य: एक:। एवंभूते वर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:।</span> = | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"> वाचक शब्द की अपेक्षा‒शब्दनय (वस्तु की) व्यंजनपर्यायों को विषय करते हैं (शब्द का विषय बनाते हैं) वे अभेद तथा भेद दो प्रकार के वचन प्रयोग को सामने लाते हैं (दो प्रकार के वाचक शब्दों का प्रयोग करते हैं।) शब्दनय में पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग होने पर भी उसी अर्थ का कथन होता है अत: अभेद है। समभिरूढ़नय में घटन क्रिया में परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घट का निरूपण होता है। एवंभूत में प्रवृत्तिनिमित्त से भिन्न ही अर्थ का निरूपण होता है। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> वाच्य पदार्थ की अपेक्षा‒अथवा एक अर्थ में अनेक शब्दों की प्रवृत्ति या प्रत्येक में स्वतंत्र शब्दों का प्रयोग, इस तरह भी दो प्रकार हैं। शब्दनय में अनेक पर्यायवाची शब्दों का वाच्य एक ही होता है। समभिरूढ़ में चूँकि शब्द नैमित्तिक है, अत: एक शब्द का वाच्य एक ही होता है। एवंभूत वर्तमान निमित्त को पकड़ता है। अत: उसके मत में भी एक शब्द का वाच्य एक ही है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2" id="III.2"><strong> | <li><span class="HindiText" name="III.2" id="III.2"><strong> नैगम नय के भेद व लक्षण</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.1" id="III.2.1"><strong> | <li><span class="HindiText" name="III.2.1" id="III.2.1"><strong> नैगम नय सामान्य के लक्षण</strong><br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.2.1.1" id="III.2.1.1"><strong>निगम अर्थात् संकल्पग्राही</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.2.1.1" id="III.2.1.1"><strong>निगम अर्थात् संकल्पग्राही</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/2 <span class="SanskritText"> अनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगम:।</span>=<span class="HindiText">अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगम है। ( राजवार्तिक/1/33/2/95/13 ); ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/2 </span><span class="SanskritText"> अनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगम:।</span>=<span class="HindiText">अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगम है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/33/2/95/13 )</span>; <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 7/230 )</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/58/43 )</span>; <span class="GRef">(तत्त्वसार/1/44 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/33/2/95/12 </span> <span class="SanskritText"> निर्गच्छंति तस्मिन्निति निगमनमात्रं वा निगम: निगमे कुशलो भवो वा नैगम:।</span>=<span class="HindiText">उसमें अर्थात् आत्मा में जो उत्पन्न हो या अवतारमात्र निगम कहलाता है। उस निगम में जो कुशल हो अर्थात् निगम या संकल्प को जो विषय करे उसे नैगम कहते हैं।</span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 18/230 </span> <span class="SanskritText">संकल्पो निगमस्तत्र भवोऽयं तत्प्रयोजन:।</span>=<span class="HindiText">नैगम शब्द को भव अर्थ या प्रयोजन अर्थ में तद्धितका अण् प्रत्यय कर बनाया गया है। निगम का अर्थ संकल्प है, उस संकल्प में जो उपजे अथवा वह संकल्प जिसका प्रयोजन हो वह नैगम नय है। <span class="GRef">( आलापपद्धति/9 )</span>; <span class="GRef">(नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/271 </span> <span class="PrakritGatha">जो साहेदि अदीदं वियप्परूवं भविस्समट्ठं च। संपडि कालाविट्ठं सो हु णओ णेगमो णेओ।271।</span>=<span class="HindiText">जो नय अतीत, अनागत और वर्तमान को विकल्परूप से साधता है वह नैगमनय है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.1.2" id="III.2.1.2"><strong> ‘नैकं गमो’ अर्थात् द्वैतग्राही</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.1.2" id="III.2.1.2"><strong> ‘नैकं गमो’ अर्थात् द्वैतग्राही</strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 21/232 </span> <span class="SanskritText">यद्वा नैकं गमो योऽत्र सतां नैगमो मत:। धर्मयोर्धर्मिणोर्वापि विवक्षा धर्मधर्मिणो:।</span>=<span class="HindiText">जो एक को विषय नहीं करता उसे नैगमनय कहते हैं। अर्थात् जो मुख्य गौणरूप से दो धर्मों को, दो धर्मियों को अथवा धर्म व धर्मी दोनों को विषय करता है वह नैगम नय है। <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/181/2 )</span>; <span class="GRef">( धवला 13/5,5,7/199/1 )</span>; <span class="GRef">(स्याद्वादमंजरी/28/-311/3,317/2 )</span>।</span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/315/14 में उद्धृत=<span class="SanskritText">अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नय:।</span>=<span class="HindiText">अभिन्न ज्ञान का कारण जो सामान्य है, वह अन्य है और विशेष अन्य है, ऐसा नैगमनय मानता है।<br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/315/14 में उद्धृत </span>=<span class="SanskritText">अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नय:।</span>=<span class="HindiText">अभिन्न ज्ञान का कारण जो सामान्य है, वह अन्य है और विशेष अन्य है, ऐसा नैगमनय मानता है।<br /> | ||
देखें आगे [[ नय#III.3.2 | नय - III.3.2 ]](संग्रह व व्यवहार दोनों को विषय करता है।)<br /> | देखें आगे [[ नय#III.3.2 | नय - III.3.2 ]](संग्रह व व्यवहार दोनों को विषय करता है।)<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.2.2" id="III.2.2"><strong>‘संकल्पग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.2.2" id="III.2.2"><strong>‘संकल्पग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण </strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/2 <span class="SanskritText">कश्चित्पुरुषं परिगृहीतपरशुं गच्छंतमवलोक्य कश्चित्पृच्छति किमर्थं भवान्गच्छतीति। स आह प्रस्थमानेतुमिति। नासौ तदा प्रस्थपर्याय: संनिहित: तदभिनिवृत्तये संकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहार:। तथा एधोदकाद्याहरणे व्याप्रियमाणं कश्चित्पृच्छति किं करोति भवानिति स आह ओदनं पचामीति। न तदौदनपर्याय:, संनिहित:, तदर्थे व्यापारे स प्रयुज्यते। एवं प्रकारो लोकसंव्यवहारोऽअंनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रविषयो नैगमस्य गोचर:।</span>= | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/2 </span> <span class="SanskritText">कश्चित्पुरुषं परिगृहीतपरशुं गच्छंतमवलोक्य कश्चित्पृच्छति किमर्थं भवान्गच्छतीति। स आह प्रस्थमानेतुमिति। नासौ तदा प्रस्थपर्याय: संनिहित: तदभिनिवृत्तये संकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहार:। तथा एधोदकाद्याहरणे व्याप्रियमाणं कश्चित्पृच्छति किं करोति भवानिति स आह ओदनं पचामीति। न तदौदनपर्याय:, संनिहित:, तदर्थे व्यापारे स प्रयुज्यते। एवं प्रकारो लोकसंव्यवहारोऽअंनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रविषयो नैगमस्य गोचर:।</span>= | ||
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<li | <li class="HindiText"> हाथ में फरसा लिये जाते हुए किसी पुरुष को देखकर कोई अन्य पुरुष पूछता है, ‘आप किस काम के लिए जा रहे हैं।’ वह कहता है कि प्रस्थ लेने के लिए जा रहा हूँ। उस समय वह प्रस्थ पर्याय, सन्निहित नहीं है। केवल उसके बनाने का संकल्प होने से उसमें (जिस काठ को लेने जा रहा है उस काठ में) प्रस्थ-व्यवहार किया गया है। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> इसी प्रकार ईंधन और जल आदि के लाने में लगे हुए किसी पुरुष से कोई पूछता है, कि ‘आप क्या कर रहे हैं। उसने कहा, भात पका रहा हूँ। उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भात के लिए किये गये व्यापार में भात का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार का जितना लोकव्यवहार है वह अनिष्पन्न अर्थ के आलंबन से संकल्पमात्र को विषय करता है, वह सब नैगमनय का विषय है। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/2/95/13)</span>; <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 18/230)</span>।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.3" id="III.2.3"><strong> ‘द्वैतग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.3" id="III.2.3"><strong> ‘द्वैतग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम/12/4,2,9/ सूत्र.2/295 1</span>. <span class="PrakritText">णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा सिया जीवस्स वा।2</span>।=<span class="HindiText">नैगम और व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना कथंचित् जीव के होती है। (यहाँ जीव तथा उसका कर्मानुभव दोनों का ग्रहण किया है। वेदना प्रधान है और जीव गौण)।</span><br /> | |||
षट्खंडागम 10/4,2,3/ | <span class="GRef">षट्खंडागम 10/4,2,3/ सूत्र 1/13 2.</span> <span class="PrakritText">णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा दंसणावरणीयवेयणा वेयणीवेयणा...। </span>=<span class="HindiText">नैगम व व्यवहारनय से वेदना ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय...(आदि आठ भेदरूप है)। (यहाँ वेदना सामान्य गौण और ज्ञानावरणीय आदि भेद प्रधान–ऐसे दोनों का ग्रहण किया है।)</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/257/297/1 3 ‒<span class="PrakritText">जं मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पणो सो तत्तो पुधभूदो संतो कधं कोहो। होंत ऐसो दोसो जदि संगहादिणया अवलंबिदा, किंतु णइगमणओ अइवसहाइरिएण जेणाबलंबिदो तेण ण एस दोसो। तत्थ कधं ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकज्जब्भुवगमादो।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒जिस मनुष्य के निमित्त से क्रोध उत्पन्न हुआ है, वह मनुष्य उस क्रोध से अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है? उत्तर‒यदि यहाँ पर संग्रह आदि नयों का अवलंबन लिया होता, तो ऐसा होता, अर्थात् संग्रह आदि नयों की अपेक्षा क्रोध से भिन्न मनुष्य आदिक क्रोध नहीं कहलाये जा सकते हैं। किंतु यतिवृषभाचार्य ने चूँकि यहाँ नैगमनय का अवलंबन लिया है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न‒दोष कैसे नहीं है ? उत्तर‒क्योंकि नैगमनय की अपेक्षा कारण में कार्य का सद्भाव स्वीकार किया गया है। (और भी दे. | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/257/297/1 3</span> ‒<span class="PrakritText">जं मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पणो सो तत्तो पुधभूदो संतो कधं कोहो। होंत ऐसो दोसो जदि संगहादिणया अवलंबिदा, किंतु णइगमणओ अइवसहाइरिएण जेणाबलंबिदो तेण ण एस दोसो। तत्थ कधं ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकज्जब्भुवगमादो।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒जिस मनुष्य के निमित्त से क्रोध उत्पन्न हुआ है, वह मनुष्य उस क्रोध से अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है? उत्तर‒यदि यहाँ पर संग्रह आदि नयों का अवलंबन लिया होता, तो ऐसा होता, अर्थात् संग्रह आदि नयों की अपेक्षा क्रोध से भिन्न मनुष्य आदिक क्रोध नहीं कहलाये जा सकते हैं। किंतु यतिवृषभाचार्य ने चूँकि यहाँ नैगमनय का अवलंबन लिया है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न‒दोष कैसे नहीं है ? उत्तर‒क्योंकि नैगमनय की अपेक्षा कारण में कार्य का सद्भाव स्वीकार किया गया है। (और भी दे.‒[[उपचार#5.3 |उपचार-5.3]])</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/171/5 4</span> .<span class="SanskritText"> परस्परविभिन्नोभयविषयालंबनो नैगमनय:; शब्द–शील-कर्म-कार्य-कारणाधाराधेय-भूत-भावि-भविष्यद्वर्तमान-मेयोन्मेयादिकमाश्रित्य स्थितोपचारप्रभव इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">परस्पर भिन्न (भेदाभेद) दो विषयों का अवलंबन करने वाला नैगमनय है। अभिप्राय यह कि जो शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, भूत, भविष्यत्, वर्तमान, मेय व उन्मेयादि का आश्रयकर स्थित उपचार से उत्पन्न होने वाला है, वह नैगमनय कहा जाता है। <span class="GRef">( कषायपाहुड़/1/13-14/183/221/1)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,3,12/13/1 5</span> .<span class="PrakritText"> धम्मदव्वं धम्मदव्वेण पुस्सज्जदि, असंगहियणेगमणयमस्सिदूण लोगागासपदेसमेत्तधम्मदव्वपदेसाणं पुध-पुध लद्धदव्वववएसाणमण्णोण्णं पासुवलंभादो। अधम्मदव्वमधम्मदव्वेण पुसिज्जदि, तक्खंध-देस-पदेस-परमाणूणमसंगहियणेगमणएण पत्तदव्वभावाणमेयत्तदंसणादो।</span>=<span class="HindiText">धर्म द्रव्य धर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्श को प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनय की अपेक्षा लोकाकाश के प्रदेशप्रमाण और पृथक्-पृथक् द्रव्य संज्ञा को प्राप्त हुए धर्मद्रव्य के प्रदेशों का परस्पर में स्पर्श देखा जाता है। अधर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्श को प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनय की अपेक्षा द्रव्यभाव को प्राप्त हुए अधर्मद्रव्य के स्कंध, देश, प्रदेश, और परमाणुओं का एकत्व देखा जाता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/317/2 6 </span>. <span class="SanskritText">धर्मयोर्धर्मिणोर्धर्मंधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगम:। सत् चैतन्यमात्मनीति धर्मयो:। वस्तुपर्यायवद्द्रव्यमिति धर्मिणो:। क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्मधर्मिणो:।</span> =<span class="HindiText">दो धर्म और दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मी में प्रधानता और गौणता की विवक्षा को नैगमनय कहते हैं। जैसे (1) सत् और चैतन्य दोनों आत्मा के धर्म हैं। यहाँ सत् और चैतन्य धर्मों में चैतन्य विशेष्य होने से प्रधान धर्म है और सत् विशेषण होने से गौण धर्म है। (2) पर्यायवान् द्रव्य को वस्तु कहते हैं। यहाँ द्रव्य और वस्तु दो धर्मियों में द्रव्य मुख्य और वस्तु गौण है। अथवा पर्यायवान् वस्तु को द्रव्य कहते हैं, यहाँ वस्तु मुख्य और द्रव्य गौण है। (3) विषयासक्तजीव क्षण भरके लिए सुखी हो जाता है। यहाँ विषयासक्त जीवरूप धर्मी मुख्य और सुखरूप धर्म गौण है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/311/3</span> <span class="SanskritText">तत्र नैगम: सत्तालक्षणं महासामान्यं, अवांतरसामांयानि च, द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादीनि; तथांत्यां विशेषान् सकलासाधारणरूपलक्षणान्, अवांतरविशेषांश्चापेक्षया पररूपव्यावृत्तनक्षमान् सामान्यान् अत्यंतविनिर्लुठितस्वरूपानभिप्रैति।</span>=<span class="HindiText">नैगमनय सत्तारूप महासामान्य को; अवांतरसामांय को; द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व आदि को; सकल असाधारणरूप अंत्य विशेषों को; तथा पररूप से व्यावृत और सामान्य से भिन्न अवांतर विशेषों को, अत्यंत एकमेकरूप से रहने वाले सर्वधर्मों को (मुख्य गौण करके) जानता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.4" id="III.2.4"><strong> नैगमनय के भेद</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.4" id="III.2.4"><strong> नैगमनय के भेद</strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/48/239/18 <span class="SanskritText">त्रिविधस्तावन्नैगम:। पर्यायनैगम: द्रव्यनैगम:, द्रव्यपर्यायनैगमश्चेति। तत्र प्रथमस्त्रेधा। अर्थपर्यायनैगमो व्यंजनपर्यायनैगमोऽर्थव्यंजनपर्यायनैगमश्च इति। द्वितीयो द्विधा-शुद्धद्रव्यनैगम: अशुद्धद्रव्यनैगमश्चेति। तृतीयश्चतुर्धा। शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगमश्चेति नवधा नैगम: साभास उदाहृत: परीक्षणीय:। </span>=<span class="HindiText">नैगमनय तीन प्रकार का है‒पर्यायनैगम, द्रव्यनैगम, द्रव्यपर्यायनैगम। तहाँ पर्यायनैगम तीन प्रकार का है‒अर्थपर्यायनैगम, व्यंजनपर्यायनैगम और अर्थव्यंजनपर्यायनैगम। द्रव्यनैगमनय दो प्रकार का है‒ शुद्धद्रव्यनैगम और अशुद्धद्रव्यनैगम। द्रव्यपर्यायनैगम चार प्रकार है‒शुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम, अशुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, अशुद्ध द्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम। ऐसे नौ प्रकार का नैगमनय और इन नौ ही प्रकार का नैगमाभास उदाहरण पूर्वक कहे गये हैं। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/202/244/1 ); ( धवला 9/4,1,45/181/3 )।</span><br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/48/239/18</span> <span class="SanskritText">त्रिविधस्तावन्नैगम:। पर्यायनैगम: द्रव्यनैगम:, द्रव्यपर्यायनैगमश्चेति। तत्र प्रथमस्त्रेधा। अर्थपर्यायनैगमो व्यंजनपर्यायनैगमोऽर्थव्यंजनपर्यायनैगमश्च इति। द्वितीयो द्विधा-शुद्धद्रव्यनैगम: अशुद्धद्रव्यनैगमश्चेति। तृतीयश्चतुर्धा। शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगमश्चेति नवधा नैगम: साभास उदाहृत: परीक्षणीय:। </span>=<span class="HindiText">नैगमनय तीन प्रकार का है‒पर्यायनैगम, द्रव्यनैगम, द्रव्यपर्यायनैगम। तहाँ पर्यायनैगम तीन प्रकार का है‒अर्थपर्यायनैगम, व्यंजनपर्यायनैगम और अर्थव्यंजनपर्यायनैगम। द्रव्यनैगमनय दो प्रकार का है‒ शुद्धद्रव्यनैगम और अशुद्धद्रव्यनैगम। द्रव्यपर्यायनैगम चार प्रकार है‒शुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम, अशुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, अशुद्ध द्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम। ऐसे नौ प्रकार का नैगमनय और इन नौ ही प्रकार का नैगमाभास उदाहरण पूर्वक कहे गये हैं। <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/13-14/202/244/1)</span>; <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/181/3)</span>।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 | <span class="GRef">आलापपद्धति/5 </span> <span class="SanskritText">नैगमस्त्रेधा भूतभाविवर्तमानकालभेदात् ।</span>=<span class="HindiText">भूत, भावि और वर्तमानकाल के भेद से (संकल्पग्राही) नैगमनय तीन प्रकार का है। <span class="GRef">(नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19)</span>।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.2.5" id="III.2.5"><strong> भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.5" id="III.2.5"><strong> भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText"> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5 </span><span class="SanskritText">त्कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमो। </span>=<span class="HindiText">अतीत कार्य में ‘आज हुआ है’ ऐसा वर्तमान का आरोप या उपचार करना भूत नैगमनय है। होने वाले कार्य को ‘हो चुका’ ऐसा भूतवत् कथन करना भावी नैगमनय है। और जो कार्य करना प्रारंभ कर दिया गया है, परंतु अभी तक जो निष्पन्न नहीं हुआ है, कुछ निष्पन्न है और कुछ अनिष्पन्न उस कार्य को ‘हो गया’ ऐसा निष्पन्नवत् कथन करना वर्तमान नैगमनय है। <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/206-208)</span>; <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.12)</span>।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.2.6" id="III.2.6"><strong> भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के उदाहरण</strong><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.6" id="III.2.6"><strong> भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के उदाहरण</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.6.1" id="III.2.6.1"><strong> भूत नैगम</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.6.1" id="III.2.6.1"><strong> भूत नैगम</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">भूतनैगमो यथा, अद्य दीपोत्सवदिने श्रीवर्द्धमानस्वामी मोक्षंगत:।</span> =<span class="HindiText">आज दीपावली के दिन भगवान् वर्द्धमान मोक्ष गये हैं, ऐसा कहना भूत नैगमनय है। <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/206)</span>; <span class="GRef">( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 10)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19</span> <span class="SanskritText">भूतनैगमनयापेक्षया भगवतां सिद्धानामपि व्यंजनपर्यायत्वमशुद्धत्वं च संभवति। पूर्वकाले ते भगवंत: संसारिण इति व्यवहारात् ।</span>=<span class="HindiText">भूत नैगमनय की अपेक्षा से भगवंत सिद्धों को भी व्यंजनपर्यायवानपना और अशुद्धपना संभावित होता है, क्योंकि पूर्वकाल में वे भगवंत संसारी थे ऐसा व्यवहार है।</span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह टीका/14/48/9 <span class="SanskritText">अंतरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतघटवत् ...परमात्मावस्थायां पुनरंतरात्मबहिरात्मद्वयं भूतपूर्वनयेनेति।</span>=<span class="HindiText">अंतरात्मा की अवस्था में बहिरात्मा और परमात्मा की अवस्था में अंतरात्मा व बहिरात्मा दोनों घी के घड़ेवत् भूतपूर्व न्याय से जानने चाहिए।<br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/14/48/9</span> <span class="SanskritText">अंतरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतघटवत् ...परमात्मावस्थायां पुनरंतरात्मबहिरात्मद्वयं भूतपूर्वनयेनेति।</span>=<span class="HindiText">अंतरात्मा की अवस्था में बहिरात्मा और परमात्मा की अवस्था में अंतरात्मा व बहिरात्मा दोनों घी के घड़ेवत् भूतपूर्व न्याय से जानने चाहिए।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.2.6.2" id="III.2.6.2"><strong> भावी नैगमनय</strong><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.2.6.2" id="III.2.6.2"><strong> भावी नैगमनय</strong><br /> | ||
आलापपद्धति/5 | <span class="GRef">आलापपद्धति/5 </span> <span class="SanskritText">भावि नैगमो यथा‒अर्हन् सिद्ध एव।</span>=<span class="HindiText">भावी नैगमनय की अपेक्षा अर्हंत भगवान् सिद्ध ही हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/207</span> <span class="PrakritGatha">णिप्पण्णमिव पजंपदि भाविपदत्थं णरो अणिप्पण्णं। अप्पत्थे जह पत्थं भण्णइ सो भाविणइगमत्ति णओ।207।</span>=<span class="HindiText">जो पदार्थ अभी अनिष्पन्न है, और भावी काल में निष्पन्न होने वाला है, उसे निष्पन्नवत् कहना भावी नैगमनय है। जैसे‒जो अभी प्रस्थ नहीं बना है ऐसे काठ के टुकड़े को ही प्रस्थ कह देना। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 11)</span> (और भी‒देखें पीछे संकल्पग्राही नैगमनय का उदाहरण [[ नय#III.2.2 | नय-III.2.2]])।</span><br /> | |||
धवला 12/4,2,10,2/303/5 <span class="SanskritText">उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेश:, फलदातृत्वेन परिणतत्वात् । न बध्यमानोपशांतयो:, तत्र तदभावादिति। न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृतिशब्दसिद्धे:। </span>...<span class="PrakritText">भूदभविस्सपज्जायाणं वट्टमाणत्तब्भुवगमादो वा णेगमणयम्मि एसा वुप्पत्ती घडदे।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒उदीर्ण कर्मपुद्गलस्कंध की प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योंकि, वह फलदान स्वरूप से परिणत है। बध्यमान और उपशांत कर्म पुद्गलस्कंधों की यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, उनमें फलदान स्वरूप का अभाव है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, तीनों ही कालों में प्रकृति शब्द की सिद्धि की गयी है। भूत व भविष्यत् पर्यायों को वर्तमानरूप स्वीकार कर लेने से नैगमनय में व्युत्पत्ति बैठ जाती है। <br>देखें [[ अपूर्वकरण#4 | अपूर्वकरण - 4 ]](भूत व भावी नैगमनय से 8वें गुणस्थान में उपशामक व क्षपक संज्ञा बन जाती है, भले ही वहाँ एक भी कर्म का उपशम या क्षय नहीं होता। </span><br /> | <span class="GRef">धवला 12/4,2,10,2/303/5</span> <span class="SanskritText">उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेश:, फलदातृत्वेन परिणतत्वात् । न बध्यमानोपशांतयो:, तत्र तदभावादिति। न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृतिशब्दसिद्धे:। </span>...<span class="PrakritText">भूदभविस्सपज्जायाणं वट्टमाणत्तब्भुवगमादो वा णेगमणयम्मि एसा वुप्पत्ती घडदे।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒उदीर्ण कर्मपुद्गलस्कंध की प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योंकि, वह फलदान स्वरूप से परिणत है। बध्यमान और उपशांत कर्म पुद्गलस्कंधों की यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, उनमें फलदान स्वरूप का अभाव है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, तीनों ही कालों में प्रकृति शब्द की सिद्धि की गयी है। भूत व भविष्यत् पर्यायों को वर्तमानरूप स्वीकार कर लेने से नैगमनय में व्युत्पत्ति बैठ जाती है। <br>देखें [[ अपूर्वकरण#4 | अपूर्वकरण - 4 ]](भूत व भावी नैगमनय से 8वें गुणस्थान में उपशामक व क्षपक संज्ञा बन जाती है, भले ही वहाँ एक भी कर्म का उपशम या क्षय नहीं होता। </span><br /><span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/14/48/8</span> <span class="SanskritText">बहिरात्मावस्थायामंतरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च विज्ञेयम्, अंतरात्मावस्थायां...परमात्मस्वरूपं तु शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च।</span>=<span class="HindiText">बहिरात्मा की दशा में अंतरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से तो रहते ही हैं, परंतु भाविनैगमनय से व्यक्तिरूप से भी रहते हैं। इसी प्रकार अंतरात्मा की दशा में परमात्मस्वरूप शक्तिरूप से तो रहता ही है, परंतु भाविनैगमनय से व्यक्तिरूप से भी रहता है। </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/621 <span class="SanskritGatha"> तेभ्योऽर्वागपि छद्मस्थरूपास्तद्रूपधारिण:। गुरव: स्युर्गुरोर्न्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।621। </span>=<span class="HindiText">देव होने से पहले भी, छद्मस्थ रूप में विद्यमान मुनि को देवरूप का धारी होने करि गुरु कह दिया जाता है। वास्तव में तो देव ही गुरु हैं। ऐसा भावि नैगमनय से ही कहा जा सकता है। अन्य अवस्था विशेष में तो किसी भी प्रकार गुरु संज्ञा घटित होती नहीं। </span></li> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/621</span> <span class="SanskritGatha"> तेभ्योऽर्वागपि छद्मस्थरूपास्तद्रूपधारिण:। गुरव: स्युर्गुरोर्न्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।621। </span>=<span class="HindiText">देव होने से पहले भी, छद्मस्थ रूप में विद्यमान मुनि को देवरूप का धारी होने करि गुरु कह दिया जाता है। वास्तव में तो देव ही गुरु हैं। ऐसा भावि नैगमनय से ही कहा जा सकता है। अन्य अवस्था विशेष में तो किसी भी प्रकार गुरु संज्ञा घटित होती नहीं। </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="III.2.6.3" id="III.2.6.3"><strong>वर्तमान नैगमनय </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.2.6.3" id="III.2.6.3"><strong>वर्तमान नैगमनय </strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">वर्तमाननैगमो यथा‒ओदन: पच्यते।</span>=<span class="HindiText">वर्तमान नैगमनय से अधपके चावलों को भी ‘भात पकता है’ ऐसा कह दिया जाता है।</span> ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">वर्तमाननैगमो यथा‒ओदन: पच्यते।</span>=<span class="HindiText">वर्तमान नैगमनय से अधपके चावलों को भी ‘भात पकता है’ ऐसा कह दिया जाता है।</span> <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 11)</span>।<br /> <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/208</span> <span class="PrakritGatha">परद्धा जा किरिया पयणविहाणादि कहइ जो सिद्धा। लोएसे पुच्छमाणे भण्णइ तं वट्टमाणणयं।208।</span>=<span class="HindiText">पाकक्रिया के प्रारंभ करने पर ही किसी के पूछने पर यह कह दिया जाता है, कि भात पक गया है या भात पकाता हूँ, ऐसा वर्तमान नैगमनय है। (और भी देखें पीछे संकल्पग्राही नैगमनय का उदाहरण[[ नय#III.2.2 |नय-III.2.2 ]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.7" id="III.2.7"><strong> पर्याय, द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्य के लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.7" id="III.2.7"><strong> पर्याय, द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्य के लक्षण </strong></span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/181/2 <span class="SanskritText">न एकगमो नैगम इति न्यायात् शुद्धाशुद्धपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: पर्यायार्थिकनैगम:; द्रव्यार्थिकनयद्वयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:; द्रव्यपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: नैगमो द्वंद्वज:। </span>=<span class="HindiText">जो एक को विषय न करे अर्थात् भेद व अभेद दोनों को विषय करे वह नैगमनय है’ इस न्याय से जो शुद्ध व अशुद्ध दोनों पर्यायार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला हो वह पर्यायार्थिकनैगमनय है। शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्वंद्वज अर्थात् द्रव्य पर्यायार्थिक नैगमनय है। </span><br /> | <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/181/2</span> <span class="SanskritText">न एकगमो नैगम इति न्यायात् शुद्धाशुद्धपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: पर्यायार्थिकनैगम:; द्रव्यार्थिकनयद्वयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:; द्रव्यपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: नैगमो द्वंद्वज:। </span>=<span class="HindiText">जो एक को विषय न करे अर्थात् भेद व अभेद दोनों को विषय करे वह नैगमनय है’ इस न्याय से जो शुद्ध व अशुद्ध दोनों पर्यायार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला हो वह पर्यायार्थिकनैगमनय है। शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्वंद्वज अर्थात् द्रव्य पर्यायार्थिक नैगमनय है। </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/202/244/3 <span class="SanskritText">युक्त्यवष्टंभबलेन संग्रहव्यवहारनयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:। ऋजुसूत्रादिनयचतुष्टयविषयं युक्त्यवष्टंभबलेन प्रतिपन्न: पर्यायार्थिकनैगम:। द्रव्यार्थिकनयविषयं पर्यायार्थिकविषयं च प्रतिपन्न: द्रव्यपर्यायार्थिकनैगम:।</span>=<span class="HindiText">युक्तिरूप आधार के बल से संग्रह और व्यवहार इन दोनों (शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक) नयों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। ऋजुसूत्र आदि चार नयों के विषय को स्वीकार करने वाला पर्यायार्थिक नय है तथा द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक इन दोनों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यपर्यायार्थिक नैगमनय है। <br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/202/244/3</span> <span class="SanskritText">युक्त्यवष्टंभबलेन संग्रहव्यवहारनयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:। ऋजुसूत्रादिनयचतुष्टयविषयं युक्त्यवष्टंभबलेन प्रतिपन्न: पर्यायार्थिकनैगम:। द्रव्यार्थिकनयविषयं पर्यायार्थिकविषयं च प्रतिपन्न: द्रव्यपर्यायार्थिकनैगम:।</span>=<span class="HindiText">युक्तिरूप आधार के बल से संग्रह और व्यवहार इन दोनों (शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक) नयों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। ऋजुसूत्र आदि चार नयों के विषय को स्वीकार करने वाला पर्यायार्थिक नय है तथा द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक इन दोनों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यपर्यायार्थिक नैगमनय है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.8" id="III.2.8"><strong> द्रव्य व पर्याय आदि नैगमनय के भेदों के लक्षण व उदाहरण </strong> | <li><span class="HindiText" name="III.2.8" id="III.2.8"><strong> द्रव्य व पर्याय आदि नैगमनय के भेदों के लक्षण व उदाहरण </strong> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.8.1" id="III.2.8.1"><strong> अर्थ, व्यंजन व तदुभय पर्याय नैगम </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.8.1" id="III.2.8.1"><strong> अर्थ, व्यंजन व तदुभय पर्याय नैगम </strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 28-35/34</span> <span class="SanskritText"> अर्थपर्याययोस्तावद्गुणमुख्यस्वभावत:। क्वचिद्वस्तुन्यभिप्राय: प्रतिपत्तु: प्रजायते।28। यथा प्रतिक्षणं ध्वंसि सुखसंविच्छरीरिण:। इति सत्तार्थपर्यायो विशेषणतया गुण:।29। संवेदनार्थपर्यायो विशेष्यत्वेन मुख्यताम् । प्रतिगच्छन्नभिप्रेतो नान्यथैवं वचो गति:।30। कश्चिद्वयंजनपर्यायौ विषयीकुरुतेऽंजसा। गुणप्रधानभावेन धर्मिण्येकत्र नैगम:।32। सच्चैतन्यं नरीत्येवं सत्त्वस्य गुणभावत:। प्रधानभावतश्चापि चैतन्यस्याभिसिद्धित:।33। अर्थव्यंजनपर्यायौ गोचरीकुरुते पर:। धार्मिके सुखजीवित्वमित्येवमनुरोधत:।35।</span>=<span class="HindiText">एक वस्तु में दो अर्थपर्यायों को गौण मुख्यरूप से जानने के लिए नयज्ञानों का जो अभिप्राय उत्पन्न होता है, उसे अर्थ पर्यायनैगम नय कहते हैं। जैसे कि शरीरधारी आत्मा का सुखसंवेदन प्रतिक्षणध्वंसी है। यहाँ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप सत्ता सामान्य की अर्थपर्याय तो विशेषण हो जाने से गौण है, और संवेदनरूप अर्थपर्याय विशेष्य होने से मुख्य है। अन्यथा किसी कथन द्वारा इस अभिप्राय की ज्ञप्ति नहीं हो सकती।28-30। एक धर्मी में दो व्यंजनपर्यायों को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला व्यंजनपर्यायनैगमनय है। जैसे ‘आत्मा में सत्त्व और चैतन्य है’। यहाँ विशेषण होने के कारण सत्ता की गौणरूप से और विशेष्य होने के कारण चैतन्य को प्रधानरूप से ज्ञप्ति होती है।32-33। एक धर्मी में अर्थ व व्यंजन दोनों पर्यायों को विषय करने वाला अर्थव्यंजनपर्याय नैगमनय है, जैसे कि धर्मात्मा व्यक्ति में सुखपूर्वक जीवन वर्त रहा है। (यहाँ धर्मात्मारूप धर्मी में सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने के कारण गौण है और जीवीपनारूप व्यंजनपर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है।35। <span class="GRef">(राजवार्तिक/ हिंदी/1/33/198-199)</span>/<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.8.2" id="III.2.8.2"><strong> शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य नैगम </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.8.2" id="III.2.8.2"><strong> शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य नैगम </strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 37-39/236</span> <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यमशुद्धं च तथाभिप्रैति यो नय:। स तु नैगम एवेह संग्रहव्यवहारत:।37। सद्द्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगंतव्य:...।38। यस्तु पर्यायवद्द्रव्यं गुणवद्वेति निर्णय:। व्यवहारनयाज्जात: सोऽशुद्धद्रव्यनैगम:।39।</span> =<span class="HindiText">शुद्धद्रव्य या अशुद्धद्रव्य को विषय करने वाले संग्रह व व्यवहार नय से उत्पन्न होने वाले अभिप्राय ही क्रम से शुद्धद्रव्यनैगम और अशुद्धद्रव्यनैगमनय हैं। जैसे कि अन्वय का निश्चय हो जाने से संपूर्ण वस्तुओं को ‘सत् द्रव्य’ कहना शुद्धद्रव्य नैगमनय है।37-38। (यहाँ ‘सत्’ तो विशेषण होने के कारण गौण है और ‘द्रव्य’ विशेष्य होने के कारण मुख्य है।) जो नय ‘पर्यायवान् द्रव्य है’ अथवा ‘गुणवान् द्रव्य है’ इस प्रकार निर्णय करता है, वह व्यवहारनय से उत्पन्न होने वाला अशुद्धद्रव्यनैगमनय है। (यहाँ ‘पर्यायवान्’ तथा ‘गुणवान्’ ये तो विशेषण होने के कारण गौण हैं और ‘द्रव्य’ विशेष्य होने के कारण मुख्य है।) <span class="GRef">(राजवार्तिक/ हिंदी/1/33/198)</span> नोट‒(संग्रह व्यवहारनय तथा शुद्ध, अशुद्ध द्रव्यनैगमनय में अंतर के लिए‒देखें आगे [[ नय#III.3 | नय - III.3]])।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.8.3" id="III.2.8.3"><strong> शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यपर्याय नैगम </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.8.3" id="III.2.8.3"><strong> शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यपर्याय नैगम </strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 41-46/237</span> <span class="SanskritGatha">शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमोऽस्ति परो यथा। सत्सुखं क्षणिकं शुद्धं संसारेऽस्मिन्नितीरणम् ।41। क्षणमेकं सुखी जीवो विषयीति विनिश्चय:। विनिर्दिष्टोऽर्थपर्यायोऽशुद्धद्रव्यार्थनैगम:।43। गोचरीकुरुते शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्ययौ। नैगमोऽन्यो यथा सच्चित्सामान्यमिति निर्णय:।45। विद्यते चापरो शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्ययौ। अर्थीकरोति य: सोऽत्र ना गुणीति निगद्यते।46। </span>=<span class="HindiText">(शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक अर्थपर्याय को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला शुद्धद्रव्य अर्थपर्याय-नैगमनय है) जैसे कि संसार में सुख पदार्थ शुद्ध सत्स्वरूप होता हुआ क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है। (यहाँ उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप सत्पना तो शुद्ध द्रव्य है और सुख अर्थपर्याय है। तहाँ विशेषण होने के कारण सत् तो गौण है और विशेष्य होने के कारण सुख मुख्य है।41।) (अशुद्ध द्रव्य व उसकी किसी एक अर्थ पर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला अशुद्धद्रव्यअर्थपर्याय-नैगमनय है।) जैसे कि संसारी जीव क्षणमात्र को सुखी है। (यहाँ सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने के कारण गौण है और संसारी जीवरूप अशुद्धद्रव्य विशेष्य होने के कारण मुख्य है)।43। शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक व्यंजनपर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला शुद्धद्रव्य-व्यंजनपर्याय-नैगमनय है। जैसे कि यह सत् सामान्य चैतन्यस्वरूप है। (यहाँ सत् सामान्यरूप शुद्धद्रव्य तो विशेषण होने के कारण गौण है और उसकी चैतन्यपनेरूप व्यंजनपर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है)।45। अशुद्धद्रव्य और उसकी किसी एक व्यंजन पर्याय को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला अशुद्धद्रव्य-व्यंजनपर्याय-नैगमनय है। जैसे ‘मनुष्य गुणी है’ ऐसा कहना। (यहाँ ‘मनुष्य’ रूप अशुद्धद्रव्य तो विशेष्य होने के कारण मुख्य है और ‘गुणी’ रूप व्यंजनपर्याय विशेषण होने के कारण गौण है।46।) <span class="GRef">(राजवार्तिक/ हिंदी/1/33/199)</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.9" id="III.2.9"><strong> नैगमाभास सामान्य का लक्षण व उदाहरण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.9" id="III.2.9"><strong> नैगमाभास सामान्य का लक्षण व उदाहरण </strong></span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/317/5 <span class="SanskritText">धर्मद्वयादीनामैकांतिकपार्थक्याभिसंधिर्नैगमाभास:। यथा आत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यंतपृथग्भूते इत्यादि:। </span>=<span class="HindiText">दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म व एक धर्मी में सर्वथा भिन्नता दिखाने को नैगमाभास कहते हैं। जैसे‒आत्मा में सत् और चैतन्य परस्पर अत्यंत भिन्न हैं ऐसा कहना। (विशेष देखो अगला शीर्षक)<br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/317/5</span> <span class="SanskritText">धर्मद्वयादीनामैकांतिकपार्थक्याभिसंधिर्नैगमाभास:। यथा आत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यंतपृथग्भूते इत्यादि:। </span>=<span class="HindiText">दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म व एक धर्मी में सर्वथा भिन्नता दिखाने को नैगमाभास कहते हैं। जैसे‒आत्मा में सत् और चैतन्य परस्पर अत्यंत भिन्न हैं ऐसा कहना। (विशेष देखो अगला शीर्षक)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.10" id="III.2.10"><strong> नैगमाभास विशेषों के लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.10" id="III.2.10"><strong> नैगमाभास विशेषों के लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक नं./पृष्ठ 235-239</span> <span class="SanskritGatha">सर्वथा सुखसंवित्त्योर्नानात्वेऽभिमति: पुन:। स्वाश्रयाच्चार्थपर्यायनैगमाभोऽप्रतीतित:।31। तयोरत्यंतभेदोक्तिरंयोंयं स्वाश्रयादपि। ज्ञेयो व्यंजनपर्यायनैगमाभो विरोधत:।34। भिन्ने तु सुखजीवित्वे योऽभिमन्येत सर्वथा। सोऽर्थव्यंजनपर्यायनैगमाभास एव न:।36। सद्द्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगंतव्यस्तद्भेदोक्तिस्तु दुर्नय:।38। तद्भेदैकांतवादस्तु तदाभासोऽनुमन्यते। तथोक्तेर्बहिरंतश्च प्रत्यक्षादिविरोधत:।40। सत्त्वं सुखार्थपर्यायाद्भिन्नमेवेति संमति:। दुर्नीति: स्यात्सबाधत्वादिति नीतिविदो विदु:।42। सुखजीवभिदोक्तिस्तु सर्वथा मानबाधिता। दुर्नीतिरेव बोद्धव्या शुद्धबोधैरसंशयात् ।44। भिदाभिदाभिरत्यंतं प्रतीतेरपलापत:। पूर्ववन्नैगमाभासौ प्रत्येतव्यौ तयोरपि।47।</span>= | ||
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<li | <li class="HindiText"> (नैगमाभास के सामान्य लक्षणवत् यहाँ भी धर्मधर्मी आदि में सर्वथा भेद दर्शाकर पर्यायनैगम व द्रव्यनैगम आदि के आभासों का निरूपण किया गया है।) जैसे‒</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> शरीरधारी आत्मा में सुख व संवेदन का सर्वथा नानापने का अभिप्राय रखना अर्थपर्यायनैगमाभास है। क्योंकि द्रव्य के गुणों का परस्पर में अथवा अपने आश्रयभूत द्रव्य के साथ ऐसा भेद प्रतीतिगोचर नहीं है।31।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> आत्मा से सत्ता और चैतन्य का अथवा सत्ता और चैतन्य का परस्पर में अत्यंत भेद मानना व्यंजनपर्याय नैगमाभास है।34। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> धर्मात्मा पुरुष में सुख व जीवनपने का सर्वथा भेद मानना अर्थव्यंजनपर्याय-नैगमाभास है।36। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> सब द्रव्यों में अन्वयरूप से रहने का निश्चय किये बिना द्रव्यपने और सत्पने को सर्वथा भेदरूप कहना शुद्धद्रव्यनैगमाभास है।38।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> पर्याय व पर्यायवान् में सर्वथा भेद मानना अशुद्ध-द्रव्यनैगमाभास है। क्योंकि घट पट आदि बहिरंग पदार्थों में तथा आत्मा ज्ञान आदि अंतरंग पदार्थों में इस प्रकार का भेद प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध है।40। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> सुखस्वरूप अर्थपर्याय से सत्त्वस्वरूप शुद्धद्रव्य को सर्वथा भिन्न मानना शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमाभास है। क्योंकि इस प्रकार का भेद अनेक बाधाओं सहित है।42। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> सुख और जीव को सर्वथा भेदरूप से कहना अशुद्धद्रव्यार्थपर्याय नैगमाभास है। क्योंकि गुण व गुणी में सर्वथा भेद प्रमाणों से बाधित है।44। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> सत् व चैतन्य के सर्वथा भेद या अभेद का अभिप्राय रखना शुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय-नैगमाभास है।47। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> मनुष्य व गुणी का सर्वथा भेद या अभेद मानना अशुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय नैगमाभास है।47। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.3.1" id="III.3.1"><strong> नैगम नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.3.1" id="III.3.1"><strong> नैगम नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है</strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 17/230</span> <span class="SanskritGatha">तत्र संकल्पमात्रो ग्राहको नैगमो नय:। सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थिकस्याभिधानात् ।17।</span>=<span class="HindiText">संकल्पमात्र ग्राही नैगमनय अशुद्ध द्रव्य का कथन करने से सोपाधि है। (क्योंकि सत्त्व प्रस्थादि उपाधियाँ अशुद्धद्रव्य में ही संभव हैं और अभेद में भेद विवक्षा करने से भी उसमें अशुद्धता आती है।) (और भी देखें [[ नय#III.2.1 | नय - III.2.1]], [[ नय#III.2.2 | नय - III.2.2]])।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.3.2" id="III.3.2"><strong> शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नैगम के पेट में समा जाते हैं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.3.2" id="III.3.2"><strong> शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नैगम के पेट में समा जाते हैं</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/84/6 <span class="SanskritText">यदस्ति न तद् द्वयमतिलङ्ध्य वर्तत इति नैकगमो नैगम:, संग्रहासंग्रहस्वरूपद्रव्यार्थिको नैगम इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">जो है वह उक्त दोनों (संग्रह और व्यवहार नय) को छोड़कर नहीं रहता है। इस तरह जो एक को ही प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् अनेक को प्राप्त होता है उसे नैगमनय कहते हैं। अर्थात् संग्रह और असंग्रहरूप जो द्रव्यार्थिकनय है वही नैगम नय है। ( कषायपाहुड़ 1/21/353/376/3 )। (और भी देखें [[ नय#III.3.3 | नय - III.3.3]])।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,1/84/6</span> <span class="SanskritText">यदस्ति न तद् द्वयमतिलङ्ध्य वर्तत इति नैकगमो नैगम:, संग्रहासंग्रहस्वरूपद्रव्यार्थिको नैगम इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">जो है वह उक्त दोनों (संग्रह और व्यवहार नय) को छोड़कर नहीं रहता है। इस तरह जो एक को ही प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् अनेक को प्राप्त होता है उसे नैगमनय कहते हैं। अर्थात् संग्रह और असंग्रहरूप जो द्रव्यार्थिकनय है वही नैगम नय है। <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/21/353/376/3)</span>। (और भी देखें [[ नय#III.3.3 | नय - III.3.3]])।</span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला 9/4,1,45/171/4</span> <span class="SanskritText">यदस्ति न तद् द्वयमतिलङ्ध्य वर्तत इति संग्रह व्यवहारयो: परस्परविभिन्नोभयविषयावलंबनो नैगमनय:।</span>=<span class="HindiText">जो है वह भेद व अभेद दोनों को उल्लंघन कर नहीं रहता, इस प्रकार संग्रह और व्यवहार नयों के परस्पर भिन्न (भेदाभेद) दो विषयों का अवलंबन करने वाला नैगमनय है। <span class="GRef">( धवला 12/4,2,10,2/303/1)</span>; <span class="GRef">(कषायपाहुड़/1/13-14/183/231/1)</span>; (और भी देखें [[ नय#III.2.3 | नय - III.2.3]])।</span><br /> | |||
धवला 13/5,5,7/199/1 | <span class="GRef">धवला 13/5,5,7/199/1 </span> <span class="SanskritText">नैकगमो नैगम:, द्रव्यपर्यायद्वयं मिथो विभिन्नमिच्छन् नैगम इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">जो एक को नहीं प्राप्त होता अर्थात् अनेक को प्राप्त होता है वह नैगमनय है। जो द्रव्य और पर्याय इन दोनों को आपस में अलग-अलग स्वीकार करता है वह नैगमनय है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।</span><br /> | ||
धवला 13/5,3,7/4/9 <span class="PrakritText">णेगमणयस्स असंगहियस्स एदे तेरसविफासा होंति त्ति बोद्धव्वा, परिग्गहिदसव्वणयविसयत्तादो।</span>=<span class="HindiText">असंग्राहिक नैगमनय के ये तेरह के तेरह स्पर्श विषय होते हैं, ऐसा यहाँ जानना चाहिए; क्योंकि, यह नय सब नयों के विषयों को स्वीकार करता है।<br /> | <span class="GRef">धवला 13/5,3,7/4/9</span> <span class="PrakritText">णेगमणयस्स असंगहियस्स एदे तेरसविफासा होंति त्ति बोद्धव्वा, परिग्गहिदसव्वणयविसयत्तादो।</span>=<span class="HindiText">असंग्राहिक नैगमनय के ये तेरह के तेरह स्पर्श विषय होते हैं, ऐसा यहाँ जानना चाहिए; क्योंकि, यह नय सब नयों के विषयों को स्वीकार करता है।<br /> | ||
देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]-(यह नय सब निक्षेपों को स्वीकार करता है।)<br /> | देखें [[ निक्षेप#3 | निक्षेप - 3]]-(यह नय सब निक्षेपों को स्वीकार करता है।)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.3.3" id="III.3.3"><strong> नैगम तथा संग्रह व व्यवहार नय में अंतर</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.3.3" id="III.3.3"><strong> नैगम तथा संग्रह व व्यवहार नय में अंतर</strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/60/245/17 <span class="SanskritText">न चैवं व्यवहारस्य नैगमत्वप्रसक्ति: संग्रहविषयप्रविभागपरत्वात्, सर्वस्य नैगमस्य तु गुणप्रधानोभय विषयत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार वस्तु के उत्तरोत्तर भेदों को ग्रहण करने वाला होने से इस व्यवहारनय को नैगमपना प्राप्त नहीं हो जाता; क्योंकि, व्यवहारनय तो संग्रह गृहीत पदार्थ का व्यवहारोपयोगी विभाग करने में तत्पर है, और नैगमनय सर्वदा गौण प्रधानरूप से दोनों को विषय करता है।</span><br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/60/245/17</span> <span class="SanskritText">न चैवं व्यवहारस्य नैगमत्वप्रसक्ति: संग्रहविषयप्रविभागपरत्वात्, सर्वस्य नैगमस्य तु गुणप्रधानोभय विषयत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार वस्तु के उत्तरोत्तर भेदों को ग्रहण करने वाला होने से इस व्यवहारनय को नैगमपना प्राप्त नहीं हो जाता; क्योंकि, व्यवहारनय तो संग्रह गृहीत पदार्थ का व्यवहारोपयोगी विभाग करने में तत्पर है, और नैगमनय सर्वदा गौण प्रधानरूप से दोनों को विषय करता है।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/21/354-355/376/8 <span class="PrakritText">ऐसो णेगमो संगमो संगहिओ असंगहिओ चेदि जइ दुविहो तो णत्थि णेगमो; विसयाभावादो।...ण च संगहविसेसेहिंतो वदिरित्तो विसओ अत्थि, जेण णेगमणयस्स अत्थित्तं होज्ज। एत्थ परिहारो वुच्चदे‒संगह-ववहारणयविसएसु अक्कमेण वट्टमाणो णेगमो।...ण च एगविसएहि दुविसओ सरिसो; विरोहादो। तो क्खहिं ‘दुविहो णेगमो’ त्ति ण घटदे, ण; एयम्मि वट्टमाणअहिप्पायस्स आलंबणभेएण दुब्भावं गयस्स आधारजीवस्स दुब्भावत्ताविरोहादो।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒यह नैगमनय संग्राहिक और असंग्राहिक के भेद से यदि दो प्रकार का है, तो नैगमनय कोई स्वतंत्र नय नहीं रहता। क्योंकि, संग्रहनय के विषयभूत सामान्य और व्यवहारनय के विषयभूत विशेष से अतिरिक्त कोई विषय नहीं पाया जाता, जिसको विषय करने के कारण नैगमनय का अस्तित्व सिद्ध होवे। उत्तर‒अब इस शंका का समाधान कहते हैं‒नैगमनय संग्रहनय और व्यवहारनय के विषय में एक साथ प्रवृत्ति करता है, अत: वह उन दोनों में अंतर्भूत नहीं होता है। केवल एक-एक को विषय करने वाले उन नयों के साथ दोनों को (युगपत्) विषय करने वाले इस नय की समानता नहीं हो सकती है, क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है। ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/21/354-355/376/8</span> <span class="PrakritText">ऐसो णेगमो संगमो संगहिओ असंगहिओ चेदि जइ दुविहो तो णत्थि णेगमो; विसयाभावादो।...ण च संगहविसेसेहिंतो वदिरित्तो विसओ अत्थि, जेण णेगमणयस्स अत्थित्तं होज्ज। एत्थ परिहारो वुच्चदे‒संगह-ववहारणयविसएसु अक्कमेण वट्टमाणो णेगमो।...ण च एगविसएहि दुविसओ सरिसो; विरोहादो। तो क्खहिं ‘दुविहो णेगमो’ त्ति ण घटदे, ण; एयम्मि वट्टमाणअहिप्पायस्स आलंबणभेएण दुब्भावं गयस्स आधारजीवस्स दुब्भावत्ताविरोहादो।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒यह नैगमनय संग्राहिक और असंग्राहिक के भेद से यदि दो प्रकार का है, तो नैगमनय कोई स्वतंत्र नय नहीं रहता। क्योंकि, संग्रहनय के विषयभूत सामान्य और व्यवहारनय के विषयभूत विशेष से अतिरिक्त कोई विषय नहीं पाया जाता, जिसको विषय करने के कारण नैगमनय का अस्तित्व सिद्ध होवे। उत्तर‒अब इस शंका का समाधान कहते हैं‒नैगमनय संग्रहनय और व्यवहारनय के विषय में एक साथ प्रवृत्ति करता है, अत: वह उन दोनों में अंतर्भूत नहीं होता है। केवल एक-एक को विषय करने वाले उन नयों के साथ दोनों को (युगपत्) विषय करने वाले इस नय की समानता नहीं हो सकती है, क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है। <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 24/233)</span>। प्रश्न‒यदि ऐसा है, तो संग्रह और असंग्रहरूप दो प्रकार का नैगमनय नहीं बन सकता ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि एक जीव में विद्यमान अभिप्राय आलंबन के भेद से दो प्रकार का हो जाता है, और उससे उसका आधारभूत जीव तथा यह नैगमनय भी दो प्रकार का हो जाता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.3.4" id="III.3.4"><strong> नैगमनय व प्रमाण में अंतर </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.3.4" id="III.3.4"><strong> नैगमनय व प्रमाण में अंतर </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 22-23/232 </span><span class="SanskritText">प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वत: इत्ययुक्तं इव ज्ञप्ते: प्रधानगुणभावत:।2। प्राधान्येनोभयात्मानमथ गृह्णद्धि वेदनम् । प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपंचेन निवेदितम् ।23।</span> =<span class="HindiText">प्रश्न‒धर्म व धर्मी दोनों का (अक्रमरूप से) ग्राहक होने के कारण नैगमनय प्रमाणात्मक है ? उत्तर‒ऐसा कहना युक्त नहीं है;क्योंकि, यहाँ गौण मुख्य भाव से दोनों की ज्ञप्ति की जाती है। और धर्म व धर्मी दोनों को प्रधानरूप से ग्रहण करते हुए उभयात्मक वस्तु के जानने को प्रमाण कहते हैं। अन्य ज्ञान अर्थात् केवल धर्मीरूप सामान्य को जानने वाला संग्रहनय या केवल धर्मरूप विशेष को जानने वाला व्यवहारनय, या दोनों को गौणमुख्यरूप से ग्रहण करने वाला नैगमनय, प्रमाणज्ञानरूप नहीं हो सकते।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 2/1/6/ श्लोक 19-20/361</span> <span class="SanskritText">तत्रांशिन्यापि नि:शेषधर्माणां गुणतागतौ। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपत:।19। धर्मिधर्मसमूहस्य प्राधान्यार्पणया विद:। प्रमाणत्वेन निर्णीते: प्रमाणादपरो नय:।20।</span>=<span class="HindiText">जब संपूर्ण अंशों को गौणरूप से और अंशी को प्रधानरूप से जानना इष्ट होता है, तब मुख्यरूप से द्रव्यार्थिकनय का व्यापार होता है, प्रमाण का नहीं।19। और जब धर्म व धर्मी दोनों के समूह को (उनके अखंड व निर्विकल्प एकरसात्मक रूप को) प्रधानपने की विवक्षा से जानना अभीष्ट हो, तब उस ज्ञान को प्रमाणपने से निर्णय किया जाता है।20। जैसे‒(देखो अगला उद्धरण)।</span><br /> | |||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/754-755 <span class="SanskritGatha">न द्रव्यं नापि गुणो न च पर्यायो निरंशदेशत्वात् । व्यक्तं न विकल्पादपि शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतमेतत् ।754। द्रव्यगुणपर्यायाख्यैर्यदनेकं सद्विभिद्यते हेतो:। तदभेद्यमनंशत्वादेकं सदिति प्रमाणमतमेतत् ।755।</span>=<span class="HindiText">अखंडरूप होने से वस्तु न द्रव्य है, न गुण है, न पर्याय है, और न वह किसी अन्य विकल्प के द्वारा व्यक्त की जा सकती है, यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का मत है। युक्ति के वश से जो सत् द्रव्य, गुण व पर्यायों के नाम से अनेकरूप से भेदा जाता है, वही सत् अंशरहित होने से अभेद्य एक है, इस प्रकार प्रमाण का पक्ष है।755।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/754-755 <span class="SanskritGatha">न द्रव्यं नापि गुणो न च पर्यायो निरंशदेशत्वात् । व्यक्तं न विकल्पादपि शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतमेतत् ।754। द्रव्यगुणपर्यायाख्यैर्यदनेकं सद्विभिद्यते हेतो:। तदभेद्यमनंशत्वादेकं सदिति प्रमाणमतमेतत् ।755।</span>=<span class="HindiText">अखंडरूप होने से वस्तु न द्रव्य है, न गुण है, न पर्याय है, और न वह किसी अन्य विकल्प के द्वारा व्यक्त की जा सकती है, यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का मत है। युक्ति के वश से जो सत् द्रव्य, गुण व पर्यायों के नाम से अनेकरूप से भेदा जाता है, वही सत् अंशरहित होने से अभेद्य एक है, इस प्रकार प्रमाण का पक्ष है।755।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.3.5" id="III.3.5"><strong>भावी नैगम नय निश्चित अर्थ में ही लागू होता है </strong><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.3.5" id="III.3.5"><strong>भावी नैगम नय निश्चित अर्थ में ही लागू होता है </strong><br /> | ||
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देखें [[ पर्याप्ति#2 | पर्याप्ति - 2 ]](शरीर की निष्पत्ति न होने पर भी निवृत्त्यपर्याप्त जीव को नैगमनय से पर्याप्त कहा जा सकता है। क्योंकि वह नियम से शरीर की निष्पत्ति करने वाला है)।<br /> | देखें [[ पर्याप्ति#2 | पर्याप्ति - 2 ]](शरीर की निष्पत्ति न होने पर भी निवृत्त्यपर्याप्त जीव को नैगमनय से पर्याप्त कहा जा सकता है। क्योंकि वह नियम से शरीर की निष्पत्ति करने वाला है)।<br /> | ||
देखें [[ दर्शन#7.2 | दर्शन - 7.2 ]](लब्ध्यपर्याप्त जीवों में चक्षुदर्शन नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनमें उसकी निष्पत्ति संभव नहीं, परंतु निवृत्त्यपर्याप्त जीवों में वह अवश्य माना गया है, क्योंकि उत्तरकाल में उसकी समुत्पत्ति वहाँ निश्चित है)।</span><br /> | देखें [[ दर्शन#7.2 | दर्शन - 7.2 ]](लब्ध्यपर्याप्त जीवों में चक्षुदर्शन नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनमें उसकी निष्पत्ति संभव नहीं, परंतु निवृत्त्यपर्याप्त जीवों में वह अवश्य माना गया है, क्योंकि उत्तरकाल में उसकी समुत्पत्ति वहाँ निश्चित है)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/14/48/1</span> <span class="SanskritText"> मिथ्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्माव्यक्तिरूपेण अंतरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव भाविनैगमनयापेक्षया व्यक्तिरूपेण च। अभव्यजीवे पुनर्बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण अंतरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव न च व्यक्तिरूपेण भाविनैगमनयेनेति।</span>=<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि भव्यजीव में बहिरात्मा तो व्यक्तिरूप से रहता है और अंतरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से रहते हैं, एवं भावि नैगमनय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी रहते हैं। मिथ्यादृष्टि अभव्य जीव में बहिरात्मा व्यक्तिरूप से और अंतरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से ही रहते हैं। वहाँ भाविनैगमनय की अपेक्षा भी ये व्यक्तिरूप में नहीं रहते।</span><br /> | |||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/623 <span class="SanskritText"> भाविनैगमनयायत्तो भूष्णुस्तद्वानिवेष्यते। अवश्यंभावतो व्याप्ते: सद्भावात्सिद्धिसाधनात् ।</span>=<span class="HindiText">भाविनैगमनय की अपेक्षा होने वाला हो चुके हुए के समान माना गया है, क्योंकि ऐसा कहना अवश्यंभावी व्याप्ति के पाये जाने से युक्तियुक्त है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/623</span> <span class="SanskritText"> भाविनैगमनयायत्तो भूष्णुस्तद्वानिवेष्यते। अवश्यंभावतो व्याप्ते: सद्भावात्सिद्धिसाधनात् ।</span>=<span class="HindiText">भाविनैगमनय की अपेक्षा होने वाला हो चुके हुए के समान माना गया है, क्योंकि ऐसा कहना अवश्यंभावी व्याप्ति के पाये जाने से युक्तियुक्त है।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.3.6" id="III.3.6"><strong>कल्पनामात्र होते हुए भी भावीनैगम व्यर्थ नहीं है </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.3.6" id="III.3.6"><strong>कल्पनामात्र होते हुए भी भावीनैगम व्यर्थ नहीं है </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक 1/33/3/95/21</span> <span class="SanskritText">स्यादेतत् नैगमनयवक्तव्ये उपकारी नोपलभ्यते, भाविसंज्ञाविषये तु राजादावुपलभ्यते ततो नायं युक्त इति। तन्न, किं कारणम् । अप्रतिज्ञानात् । नैतदस्माभि: प्रतिज्ञातम् ‒‘उपकारे ‘सति भवितव्यम्’ इति। किं तर्हि। अस्य नयस्य विषय: प्रदर्श्यते। अपि च, उपकारं प्रत्यभिमुखत्वादुपकारवानेव।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒भाविसंज्ञा में तो यह आशा है कि आगे उपकार आदि हो सकते हैं, पर नैगमनय में तो केवल कल्पना ही कल्पना है, इसके वक्तव्य में किसी भी उपकार की उपलब्धि नहीं होती अत: यह संव्यवहार के योग्य नहीं है? उत्तर‒नयों के विषय के प्रकरण में यह आवश्यक नहीं है कि उपकार या उपयोगिता का विचार किया जाये। यहाँ तो केवल उनका विषय बताना है। इस नय से सर्वथा कोई उपकार न हो ऐसा भी तो नहीं है, क्योंकि संकल्प के अनुसार निष्पन्न वस्तु से, आगे जाकर उपकारादिक की भी संभावना है ही।</span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 19-20/231</span><span class="SanskritGatha"> नन्वयं भाविनीं संज्ञां समाश्रित्योपचर्यते। अप्रस्थादिषु तद्भावस्तंडुलेष्वोदनादिवत् ।19। इत्यसद्बहिरर्थेषुतथानध्यवसानत:। स्ववेद्यमानसंकल्पे सत्येवास्य प्रवृत्तित:।20।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒भावी संज्ञा का आश्रय कर वर्तमान में भविष्य का उपचार करना नैगमनय माना गया है। प्रस्थादिके न होने पर काठ के टुकड़े में प्रस्थ की अथवा भात के न होने पर भी चावलों में भात की कल्पना मात्र कर ली गयी है ? उत्तर‒वास्तव में बाह्य पदार्थों में उस प्रकार भावी संज्ञा का अध्यवसाय नहीं किया जा रहा है, परंतु अपने द्वारा जाने गये संकल्प के होने पर ही इस नय की प्रवृत्ति मानी गयी है (अर्थात् इस नय में अर्थ की नहीं ज्ञान की प्रधानता है, और इसलिए यह नय ज्ञान नय मानी गयी है।)<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.4.1" id="III.4.1"><strong>संग्रह नय का लक्षण</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.4.1" id="III.4.1"><strong>संग्रह नय का लक्षण</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/8 <span class="SanskritText">स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रांतभेदानविशेषण समस्तग्रहणात्संग्रह:।</span> =<span class="HindiText">भेद सहित सब पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रहनय है। ( राजवार्तिक 1/33/5/95/26 ); ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.49/240); ( हरिवंशपुराण/58/44 ); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/8</span> <span class="SanskritText">स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रांतभेदानविशेषण समस्तग्रहणात्संग्रह:।</span> =<span class="HindiText">भेद सहित सब पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रहनय है। <span class="GRef">( राजवार्तिक 1/33/5/95/26)</span>; <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.49/240)</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/58/44)</span>; <span class="GRef">( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 13)</span>; <span class="GRef">( तत्त्वसार/1/45)</span>।</span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 50/240</span><span class="SanskritText"> सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते। निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते।</span>=<span class="HindiText">संपूर्ण पदार्थों का एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थों में ‘सम’ शब्द वर्तता है। उस पर से ही ‘संग्रह’ शब्द का निरुक्त्यर्थ विचारा जाता है, कि समस्त पदार्थों को सम्यक् प्रकार एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।</span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/170/5 <span class="SanskritText">सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलंकभावेन अद्वैतमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स: संग्रह:।</span>=<span class="HindiText">जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी एकता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/1 )।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/170/5</span> <span class="SanskritText">सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलंकभावेन अद्वैतमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स: संग्रह:।</span>=<span class="HindiText">जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी एकता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/1)</span>।</span><br /> | ||
धवला 13/5,5,7/199/2 <span class="SanskritText">व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहक: संग्रहनय:।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार की अपेक्षा न करके जो सत्तादिरूप से सकल पदार्थों का संग्रह करता है वह संग्रहनय है। ( धवला 1/1,1,1/84/3 )।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 13/5,5,7/199/2</span> <span class="SanskritText">व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहक: संग्रहनय:।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार की अपेक्षा न करके जो सत्तादिरूप से सकल पदार्थों का संग्रह करता है वह संग्रहनय है। <span class="GRef">(धवला 1/1,1,1/84/3)</span>।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 | <span class="GRef">आलापपद्धति/9 </span> <span class="SanskritText">अभेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रह:।</span>=<span class="HindiText">अभेद रूप से समस्त वस्तुओं को जो संग्रह करके, जो कथन करता है, वह संग्रह नय है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/272</span> <span class="PrakritGatha">जो संगहेदि सव्वं देसं वा विविहदव्वपज्जायं। अणुगमलिंगविसिट्ठं सो वि णओ संगहो होदि।272।</span>=<span class="HindiText">जो नय समस्त वस्तु का अथवा उसके देश का अनेक द्रव्यपर्यायसहित अन्वयलिंगविशिष्ट संग्रह करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं।</span><br /> | |||
स्याद्वादमंजरी/28/311/7 <span class="SanskritText">संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते।</span>=<span class="HindiText">विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानने को संग्रह नय कहते हैं। ( स्याद्वादमंजरी/28/317/6 )।<br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/311/7</span> <span class="SanskritText">संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते।</span>=<span class="HindiText">विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानने को संग्रह नय कहते हैं। (<span class="GRef" स्याद्वादमंजरी/28/317/6 )</span>।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.4.2" id="III.4.2"> <strong> संग्रह नय के उदाहरण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.4.2" id="III.4.2"> <strong> संग्रह नय के उदाहरण</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/9 | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/9 </span> <span class="SanskritText">सत् द्रव्यं, घट इत्यादि। सदित्युक्ते सदिति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिंगानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रह:। द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां संग्रह:। तथा ‘घट’ इत्युक्तेऽपि घटबुद्ध्यभिधानानुगमलिंगानुमितसकलार्थसंग्रह:। एवंप्रकारोऽन्योऽपि संग्रहनयस्य विषय:। </span>=<span class="HindiText">यथा‒ सत्, द्रव्य और घट आदि। ‘सत्’ ऐसा कहने पर ‘सत्’ इस प्रकार के वचन और विज्ञान की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधारभूत पदार्थों का सामान्यरूप से संग्रह हो जाता है। ‘द्रव्य’ ऐसा कहने पर भी ‘उन-उन पर्यायों को द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है’ इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है। तथा ‘घट’ ऐसा कहने पर भी ‘घट’ इस प्रकार की बुद्धि और ‘घट’ इस प्रकार के शब्द की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित (मृद्घट सुवर्णघट आदि) सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रहनय का विषय समझ लेना। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/5/95/30)</span>।</span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/315/ में उद्धृत श्लोक नं.2 <span class="SanskritGatha">सद्रूपतानतिक्रांतं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मत:।2। </span>=<span class="HindiText">अस्तित्वधर्म को न छोड़कर संपूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित है। इसलिए संपूर्ण पदार्थों के सामान्यरूप से ज्ञान करने को संग्रहनय कहते हैं। ( राजवार्तिक/4/42/17/261/4 )।<br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/315/ में उद्धृत श्लोक नं.2</span> <span class="SanskritGatha">सद्रूपतानतिक्रांतं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मत:।2। </span>=<span class="HindiText">अस्तित्वधर्म को न छोड़कर संपूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित है। इसलिए संपूर्ण पदार्थों के सामान्यरूप से ज्ञान करने को संग्रहनय कहते हैं। <span class="GRef">(राजवार्तिक/4/42/17/261/4)</span>।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.4.3" id="III.4.3"><strong> संग्रहनय के भेद </strong><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.4.3" id="III.4.3"><strong> संग्रहनय के भेद </strong><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 51,55/240</span> (दो प्रकार के संग्रह नय के लक्षण किये हैं‒पर संग्रह और अपर संग्रह)। ( स्याद्वादमंजरी/28/317/7 )।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">संग्रहो द्विविध:। सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो।</span>=<span class="HindiText">संग्रह दो प्रकार का है‒सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">संग्रहो द्विविध:। सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो।</span>=<span class="HindiText">संग्रह दो प्रकार का है‒सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 13)</span>।</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/186,209 <span class=" | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/186,209</span> <span class="PrakritText">दुविहं पुण संगहं तत्थ।186। सुद्धसंगहेण...।209।</span>=<span class="HindiText">संग्रहनय दो प्रकार का है‒शुद्ध संग्रह और अशुद्धसंग्रह। नोट‒पर, सामान्य व शुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं और अपर, विशेष व अशुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.4.4" id="III.4.4"><strong> पर अपर तथा सामान्य व विशेष संग्रहनय के लक्षण व उदाहरण </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.4.4" id="III.4.4"><strong> पर अपर तथा सामान्य व विशेष संग्रहनय के लक्षण व उदाहरण </strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 51,55,56</span> <span class="SanskritGatha">शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मात्रं संग्रह: पर:। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह।51। द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रैति चापर:। पर्यायत्वं च नि:शेषपर्यायव्यापिसंग्रह:।55। तथैवावांतरां भेदान् संगृह्यैकत्वतो बहु:। वर्ततेयं नय: सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृते:।56।</span>=<span class="HindiText">संपूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको ‘सत्’ है ऐसा एकपने रूप से (अर्थात् महासत्ता मात्र को) ग्रहण करता है वह पर संग्रह (शुद्ध संग्रह) है।51। अपने से प्रतिकूल पक्ष का निराकरण न करते हुए जो परसंग्रह के व्याप्य–भूत सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को द्रव्यत्व व पर्यायत्वरूप सामान्य धर्मों द्वारा, और इसी प्रकार उनके भी व्याप्यभूत अवांतर भेदों का एकपने से संग्रह करता है वह अपर संग्रह नय है (जैसे नारक मनुष्यादिकों का एक ‘जीव’ शब्द द्वारा; और ‘खट्टा’, ‘मीठा’ आदिका एक ‘रस’ शब्द ग्रहण करना‒); <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/209)</span>; <span class="GRef">(स्याद्वादमंजरी/28/317/7)</span>।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 13</span> <span class="SanskritText">परस्पराविरोधेन समस्तपदार्थसंग्रहैकवचनप्रयोगचातुर्येण कथ्यमानं सर्वं सदित्येतत् सेना वनं नगरमित्येतत् प्रभृत्यनेकजातिनिश्चयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं सामान्यसंग्रहनय: जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरगनिचयरथनिचयपदातिनिचय इति निंबुजंबीरजंबूमाकंदनालिकेरनिचय इति। द्विजवर, वणिग्वर, तलवराद्यष्टादशश्रेणीनिचय इत्यादि दृष्टांतै: प्रत्येकजातिनिचयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं विशेषसंग्रहनय:। तथा चोक्त‒‘यदन्योऽन्याविरोधेन सर्वं सर्वस्य वक्ति य:। सामान्यसंग्रह: प्रोक्तचैकजातिविशेषक:।’</span> =<span class="HindiText">परस्पर अविरोधरूप से संपूर्ण पदार्थों के संग्रहरूप एकवचन के प्रयोग के चातुर्य से कहा जाने वाला ‘सर्व सत् स्वरूप है’, इस प्रकार सेना-समूह, वन, नगर वगैरह को आदि लेकर अनेक जाति के समूह को एकवचनरूप से स्वीकार करके, कथन करने को सामान्य संग्रह नय कहते हैं। जीवसमूह, अजीवसमूह; हाथियों का झुंड, घोड़ों का झुंड, रथों का समूह, पियादे सिपाहियों का समूह; निंबू, जामुन, आम, वा नारियल का समूह, इसी प्रकार द्विजवर, वणिक्श्रेष्ठ, कोटपाल वगैरह अठारह श्रेणि का समूह इत्यादिक दृष्टांतों के द्वारा प्रत्येक जाति के समूह को नियम से एकवचन के द्वारा स्वीकार करके कथन करने को विशेष संग्रह नय कहते हैं। कहा भी है‒ <br /> | ||
जो परस्पर अविरोधरूप से सबके सबको कहता है वह सामान्य संग्रहनय बतलाया गया है, और जो एक जातिविशेष का ग्राहक अभिप्रायवाला है वह विशेष संग्रहनय है।</span><br /> | जो परस्पर अविरोधरूप से सबके सबको कहता है वह सामान्य संग्रहनय बतलाया गया है, और जो एक जातिविशेष का ग्राहक अभिप्रायवाला है वह विशेष संग्रहनय है।</span><br /> | ||
धवला 12/4,2,9,11/299-300 <span class="PrakritText">संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा जीवस्स। (मूल | <span class="GRef">धवला 12/4,2,9,11/299-300</span> <span class="PrakritText">संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा जीवस्स। (मूल सूत्र 11)।...एदं सुद्धसंगहणयवयणं, जीवाणं तेहिं सह णोजीवाणं च एयत्तब्भुवगमादो।...संपहि असुद्धसंगहविसए सामित्तपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि। ‘जीवाणं’ वा। (मूल सूत्र 12)। संगहिय णोजीव-जीवबहुत्तब्भुवगमादो। एदमसुद्धसंगहणयवयणं। </span>=<span class="HindiText">‘संग्रहनय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के होती है। मूल सूत्र 11।’’ यह कथन शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा है, क्योंकि जीवों के और उनके साथ नोजीवों की एकता स्वीकार की गयी है।...अथवा जीवों के होती है। मूल सूत्र 12। कारण कि संग्रह अपेक्षा नोजीव और जीव बहुत स्वीकार किये गये हैं। यह अशुद्ध संग्रह नय की अपेक्षा कथन है।<br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/71/123/19 | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/71/123/19</span> <span class="SanskritText"> सर्वजीवसाधारणकेवलज्ञानाद्यनंतगुणसमूहेन शुद्धजीवजातिरूपेण संग्रहनयेनैकश्चैव महात्मा।</span> =<span class="HindiText">सर्व जीवसामान्य, केवलज्ञानादि अनंतगुणसमूह के द्वारा शुद्ध जीव जातिरूप से देखे जायें तो संग्रहनय की अपेक्षा एक महात्मा ही दिखाई देता है।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.4.5" id="III.4.5"><strong> संग्रहाभास के लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.4.5" id="III.4.5"><strong> संग्रहाभास के लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 52-57</span> <span class="SanskritGatha">निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायण:। तदाभास: समाख्यात: सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् ।52। अभिन्नं व्यक्तिभेदेभ्य: सर्वथां बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्ति: केषांचिद्दुर्नयस्तथा।53। शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि। संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ।54। स्वव्यक्त्यात्मकतैकांतस्तदाभासोऽप्यनेकधा। प्रतीतिबाधितो बोध्यो नि:शेषोऽप्यनया दिशा।57।</span>=<span class="HindiText">संपूर्ण विशेषों का निराकरण करते हुए जो सत्ताद्वैतवादियों का ‘केवल सत् है,’ अन्य कुछ नहीं, ऐसा कहना; अथवा सांख्य मत का अहंकार तन्मात्रा आदि से सर्वथा अभिन्न प्रधान नामक महासामान्य है’ ऐसा कहना; अथवा शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणियों का केवल शब्द है’, पुरुषाद्वैतवादियों का ‘केवल ब्रह्म है’, संविदाद्वैतवादी बौद्धों का ‘केवल संवेदन है’ ऐसा कहना, सब परसंग्रहाभास है। <span class="GRef">(स्याद्वादमंजरी/28/316/9 तथा 317/9)</span>। अपनी व्यक्ति व जाति से सर्वथा एकात्मकपने का एकांत करना अपर संग्रहाभास है, क्योंकि वह प्रतीतियों से बाधित है।</span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/317/12 <span class="SanskritText">तद्द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निह्नुवानस्तदाभास:।</span>=<span class="HindiText">धर्म अधर्म आदिकों को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं।<br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/317/12</span> <span class="SanskritText">तद्द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निह्नुवानस्तदाभास:।</span>=<span class="HindiText">धर्म अधर्म आदिकों को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.4.6" id="III.4.6"><strong> संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक नय है </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.4.6" id="III.4.6"><strong> संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक नय है </strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/ | <span class="GRef">धवला 1/1,1,1/ गाथा 6/12</span> <span class="PrakritText">दव्वटि्ठय-णय-पवई सुद्धा संगह परूवणा विसयो। </span>=<span class="HindiText">संग्रहनय की प्ररूपणा को विषय करना द्रव्यार्थिक नय की शुद्ध प्रकृति है। <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.37/236)</span>; <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/ गाथा 89/220)</span>; (विशेष दे. [[नय#IV.1 | नय - IV.1 ]])।<br /> | ||
और भी देखें [[ नय#III.1.1 | नय - III.1.1-2]] यह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | और भी देखें [[ नय#III.1.1 | नय - III.1.1-2]] यह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> व्यवहार नय निर्देश—देखें पृ - 556<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.5.1.1" id="III.5.1.1"><strong>निरुक्त्यर्थ</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.5.1.1" id="III.5.1.1"><strong>निरुक्त्यर्थ</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/9 <span class="SanskritText">ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तंत्रयतीति ऋजुसूत्र:। </span>=<span class="HindiText">ऋजु का अर्थ प्रगुण है। ऋजु अर्थात् सरल को सूचित करता है अर्थात् स्वीकार करता है, वह ऋजुसूत्र नय है। ( राजवार्तिक/1/33/7/96/30 ) ( कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3 ) ( आलापपद्धति/9 )<br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/9</span> <span class="SanskritText">ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तंत्रयतीति ऋजुसूत्र:। </span>=<span class="HindiText">ऋजु का अर्थ प्रगुण है। ऋजु अर्थात् सरल को सूचित करता है अर्थात् स्वीकार करता है, वह ऋजुसूत्र नय है। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/7/96/30)</span> <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3)</span> <span class="GRef">(आलापपद्धति/9)</span><br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.5.1.2" id="III.5.1.2"><strong> वर्तमानकालमात्र ग्राही</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.5.1.2" id="III.5.1.2"><strong> वर्तमानकालमात्र ग्राही</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/9 <span class="SanskritText">पूर्वापरांस्त्रिकालविषयानतिशय्य वर्तमानकालविषयानादत्ते अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् । </span>=<span class="HindiText">यह नय पहिले और पीछेवाले तीनों कालों के विषय को ग्रहण न करके वर्तमान काल के विषयभूत पदार्थों को ग्रहण करता है, क्योंकि अतीत के विनष्ट और अनागत के अनुत्पन्न होने से उनमें व्यवहार नहीं हो सकता। ( राजवार्तिक/1/33/7/96/11 ), राजवार्तिक/4/42/17/261/5 ), ( हरिवंशपुराण/58/46 ), ( धवला 9/4,1,45/171/7 ), ( | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/9</span> <span class="SanskritText">पूर्वापरांस्त्रिकालविषयानतिशय्य वर्तमानकालविषयानादत्ते अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् । </span>=<span class="HindiText">यह नय पहिले और पीछेवाले तीनों कालों के विषय को ग्रहण न करके वर्तमान काल के विषयभूत पदार्थों को ग्रहण करता है, क्योंकि अतीत के विनष्ट और अनागत के अनुत्पन्न होने से उनमें व्यवहार नहीं हो सकता। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/7/96/11)</span>, <span class="GRef">(राजवार्तिक/4/42/17/261/5)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/58/46)</span>, <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/171/7)</span>, <span class="GRef">(न्यायदीपिका/3/85/128)</span>। <br /> | ||
और भी देखें [[नय#III.1.2 | नय -III.1.2 ]] , [[नय#IV.3 | नय - IV.3]] <br /> | और भी देखें [[नय#III.1.2 | नय -III.1.2 ]] , [[नय#IV.3 | नय - IV.3]] <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.5.2" id="III.5.2"><strong> ऋजुसूत्र नय के भेद</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.5.2" id="III.5.2"><strong> ऋजुसूत्र नय के भेद</strong></span><br /> | ||
धवला 9/4,1,49/244/2 <span class="PrakritText">उजुसुदो दुविहो सुद्धो असुद्धो चेदि।</span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्रनय शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 9/4,1,49/244/2</span> <span class="PrakritText">उजुसुदो दुविहो सुद्धो असुद्धो चेदि।</span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्रनय शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">ऋजुसूत्रो द्विविध:। सूक्ष्मर्जुसूत्रो...स्थूलर्जुसूत्रो।</span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्रनय दो प्रकार का है–सूक्ष्म ऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्र।<br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">ऋजुसूत्रो द्विविध:। सूक्ष्मर्जुसूत्रो...स्थूलर्जुसूत्रो।</span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्रनय दो प्रकार का है–सूक्ष्म ऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्र।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.5.3" id="III.5.3"><strong> सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्रन्य के लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.5.3" id="III.5.3"><strong> सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्रन्य के लक्षण </strong></span><br /> | ||
धवला 9/4,1,49/242/2 <span class="PrakritText">तत्थ सुद्धो वसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्खणं विवट्टमाणासेसत्थो अप्पणो विसयादो ओसारिदसारिच्छ-तब्भाव-लक्खणसामण्णो। ‘‘...तत्थ जो असुद्धो उजुसुदणओ ओ चक्खुपासिय वेंजणपज्जयविसओ।’’</span> =<span class="HindiText">अर्थपर्याय को विषय करने वाला शुद्ध ऋजुसूत्र नय है। वह प्रत्येक क्षण में परिणमन करने वाले समस्त पदार्थों को विषय करता हुआ अपने विषय से सादृश्यसामान्य व तद्भावरूप सामान्य को दूर करने वाला है। जो अशुद्ध ऋजुसूत्र नय है, वह चक्षु इंद्रिय की विषयभूत व्यंजन पर्यायों को विषय करने वाला है? </span><br /> | <span class="GRef">धवला 9/4,1,49/242/2</span> <span class="PrakritText">तत्थ सुद्धो वसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्खणं विवट्टमाणासेसत्थो अप्पणो विसयादो ओसारिदसारिच्छ-तब्भाव-लक्खणसामण्णो। ‘‘...तत्थ जो असुद्धो उजुसुदणओ ओ चक्खुपासिय वेंजणपज्जयविसओ।’’</span> =<span class="HindiText">अर्थपर्याय को विषय करने वाला शुद्ध ऋजुसूत्र नय है। वह प्रत्येक क्षण में परिणमन करने वाले समस्त पदार्थों को विषय करता हुआ अपने विषय से सादृश्यसामान्य व तद्भावरूप सामान्य को दूर करने वाला है। जो अशुद्ध ऋजुसूत्र नय है, वह चक्षु इंद्रिय की विषयभूत व्यंजन पर्यायों को विषय करने वाला है? </span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">सूक्ष्मर्जुसूत्रो यथा‒एकसमयावस्थायी पर्याय: स्थूलर्जसूत्रो यथा‒मनुष्यादिपर्यायास्तदायु: प्रमाणकालं तिष्ठंति।</span>=<span class="HindiText">सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय एकसमय अवस्थायी पर्याय को विषय करता है। और स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा मनुष्यादि पर्यायें स्व स्व आयुप्रमाणकाल पर्यंत ठहरती हैं। ( नयचक्र बृहद्/211-212 ) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">सूक्ष्मर्जुसूत्रो यथा‒एकसमयावस्थायी पर्याय: स्थूलर्जसूत्रो यथा‒मनुष्यादिपर्यायास्तदायु: प्रमाणकालं तिष्ठंति।</span>=<span class="HindiText">सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय एकसमय अवस्थायी पर्याय को विषय करता है। और स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा मनुष्यादि पर्यायें स्व स्व आयुप्रमाणकाल पर्यंत ठहरती हैं। <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/211-212)</span> <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 16)</span></span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/274 <span class="PrakritGatha"> जो वट्टमाणकाले अत्थपज्जायपरिणदं अत्थं। संतं साहदि सव्वं तं पि णयं उज्जुयं जाण।274।</span>=<span class="HindiText">वर्तमानकाल में अर्थ पर्यायरूप परिणत अर्थ को जो सत् रूप साधता है वह ऋजुसूत्रनय है। (यह लक्षण यद्यपि सामान्य ऋजुसूत्र के लिए किया गया है, परंतु सूक्ष्मऋजुसूत्र पर घटित होता है)<br /> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/274</span> <span class="PrakritGatha"> जो वट्टमाणकाले अत्थपज्जायपरिणदं अत्थं। संतं साहदि सव्वं तं पि णयं उज्जुयं जाण।274।</span>=<span class="HindiText">वर्तमानकाल में अर्थ पर्यायरूप परिणत अर्थ को जो सत् रूप साधता है वह ऋजुसूत्रनय है। (यह लक्षण यद्यपि सामान्य ऋजुसूत्र के लिए किया गया है, परंतु सूक्ष्मऋजुसूत्र पर घटित होता है)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.5.4" id="III.5.4"><strong> ऋजुसूत्राभास का लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.5.4" id="III.5.4"><strong> ऋजुसूत्राभास का लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 62/148</span> <span class="SanskritText">निराकरोति यद्द्रव्यं बहिरंतश्च सर्वथा। स तदाभोऽभिमंतव्य: प्रतीतेरपलापत:।...एतेन चित्राद्वैतं, संवेदनाद्वैतं क्षणिकमित्यपि मननमृजुसूत्राभासमायातीत्युक्तं वेदितव्यं।</span> (पृष्ठ 253/4)।=<span class="HindiText">बहिरंग व अंतरंग दोनों द्रव्यों का सर्वथा अपलाप करने वाले चित्राद्वैतवादी, विज्ञानाद्वैतवादी व क्षणिकवादी बौद्धों की मान्यता में ऋजुसूत्रनय का आभास है, क्योंकि उनकी सब मान्यताएँ प्रतीति व प्रमाण से बाधित हैं। (विशेष देखें <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 63-67/248-255)</span>; <span class="GRef">(स्याद्वादमंजरी/28/318/24)</span><br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.5.5" id="III.5.5"><strong> ऋजुसूत्रनय शुद्ध पर्यायार्थिक है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.5.5" id="III.5.5"><strong> ऋजुसूत्रनय शुद्ध पर्यायार्थिक है</strong></span><br /> | ||
न्यायदीपिका/3/85/128/7 <span class="SanskritText">ऋजुसूत्रनयस्तु परमपर्यायार्थिक:।</span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्रनय परम (शुद्ध) पर्यायार्थिक नय है। (सूक्ष्म ऋजुसूत्र शुद्ध पर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिक‒[[नय#IV.3 | नय - IV.3]]) (और भी देखें [[नय#III.1.1 | नय - III.1.1 ]], [[नय#III.1.2 | नय - III.1.2 ]])<br /> | <span class="GRef">न्यायदीपिका/3/85/128/7</span> <span class="SanskritText">ऋजुसूत्रनयस्तु परमपर्यायार्थिक:।</span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्रनय परम (शुद्ध) पर्यायार्थिक नय है। (सूक्ष्म ऋजुसूत्र शुद्ध पर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिक‒[[नय#IV.3 | नय - IV.3]]) (और भी देखें [[नय#III.1.1 | नय - III.1.1 ]], [[नय#III.1.2 | नय - III.1.2 ]])<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.5.6" id="III.5.6"><strong> ऋजुसूत्रनय को द्रव्यार्थिक कहने का कथंचित् विधि निषेध</strong><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.5.6" id="III.5.6"><strong> ऋजुसूत्रनय को द्रव्यार्थिक कहने का कथंचित् विधि निषेध</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.5.6.1" id="III.5.6.1"><strong> कथंचित् निषेध</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.5.6.1" id="III.5.6.1"><strong> कथंचित् निषेध</strong></span><br /> | ||
धवला 10/4,2,2,3/11/4 <span class="PrakritText">तब्भवसारिच्छसामण्णप्पयदव्वमिच्छंतो उजुसुदो कधं ण दव्वट्ठियो। ण, घड-पडत्यंभादिवंजणपज्जायपरिच्छिण्णसगपुव्वावरभावविरहियउजुवट्टविसयस्स दव्वट्ठियणयत्तविरोहादो।</span> =<span class="HindiText">प्रश्न‒तद्भावसामान्य व सादृश्यसामान्यरूप द्रव्य को स्वीकार करने वाला ऋजुसूत्रनय (देखें [[ नय#III.5.3 | स्थूल ऋजुसूत्रनय का लक्षण ]]) द्रव्यार्थिक कैसे नहीं है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, ऋजुसूत्रनय घट, पट व स्तंभादि स्वरूप व्यंजनपर्यायों से परिच्छिन्न ऐसे अपने पूर्वापर भावों से रहित वर्तमान मात्र को विषय करता है, अत: उसे द्रव्यार्थिक नय मानने में विरोध आता है।<br /> | <span class="GRef">धवला 10/4,2,2,3/11/4</span> <span class="PrakritText">तब्भवसारिच्छसामण्णप्पयदव्वमिच्छंतो उजुसुदो कधं ण दव्वट्ठियो। ण, घड-पडत्यंभादिवंजणपज्जायपरिच्छिण्णसगपुव्वावरभावविरहियउजुवट्टविसयस्स दव्वट्ठियणयत्तविरोहादो।</span> =<span class="HindiText">प्रश्न‒तद्भावसामान्य व सादृश्यसामान्यरूप द्रव्य को स्वीकार करने वाला ऋजुसूत्रनय (देखें [[ नय#III.5.3 | स्थूल ऋजुसूत्रनय का लक्षण ]]) द्रव्यार्थिक कैसे नहीं है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, ऋजुसूत्रनय घट, पट व स्तंभादि स्वरूप व्यंजनपर्यायों से परिच्छिन्न ऐसे अपने पूर्वापर भावों से रहित वर्तमान मात्र को विषय करता है, अत: उसे द्रव्यार्थिक नय मानने में विरोध आता है।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.5.6.2" id="III.5.6.2"><strong>कथंचित् विधि </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.5.6.2" id="III.5.6.2"><strong>कथंचित् विधि </strong></span><br /> | ||
धवला 10/4,2,3,3/15/9 <span class="PrakritText"> उजुसुदस्स पज्जवट्ठियस्स कधं दव्वं विसओ। ण, वंजणपज्जायमहिट्ठियस्स दव्वस्स तव्विसयत्ताविरोहादो। ण च उप्पादविणासलक्खणत्तं तव्विसयदव्वस्स विरुज्झदे, अप्पिदपज्जायभावाभावलक्खण-उप्पादविणासविदिरित्त अवट्ठाणाणुवलंभादो। ण च पढमसमए उप्पण्णस्स विदियादिसमएसु अवट्ठाणं, तत्थ पढमविदियादिसमयकप्पणए कारणाभावादो। ण च उत्पादो चेव अवट्ठाणं, विरोहादो उप्पादलक्खणभावविदिरित्तअवट्ठाणलक्खणाणुवलंभादो च। तदो अव्वट्ठाणाभावादो उप्पादविणासलक्खणं दव्वमिदि सिद्धं। </span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒ऋजुसूत्र चूँकि पर्यायार्थिक है, अत: उसका द्रव्य विषय कैसे हो सकता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, व्यंजन पर्याय को प्राप्त द्रव्य उसका विषय है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। (अर्थात् अशुद्ध ऋजुसूत्र को द्रव्यार्थिक मानने में कोई विरोध नहीं है‒ धवला/9 ) ( धवला 9/4,1,58/265/9 ), ( धवला 12/4,2,8,14/290/5 ) (निक्षेप/3/4) प्रश्न‒ऋजुसूत्र के विषयभूत द्रव्य को उत्पाद विनाश लक्षण मानने में विरोध आता है? उत्तर‒सो भी बात नहीं है; क्योंकि, विवक्षित पर्याय का सद्भाव ही उत्पाद है और उसका अभाव ही व्यय है। इसके सिवा अवस्थान स्वतंत्र रूप से नहीं पाया जाता। प्रश्न‒प्रथम समय में पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समयों में उसका अवस्थान होता है? उत्तर‒यह बात नहीं बनती; क्योंकि उसमें प्रथम व द्वितीयादि समयों की कल्पना का कोई कारण नहीं है। प्रश्न‒फिर तो उत्पाद ही अवस्थान बन बैठेगा ? उत्तर‒सो भी बात नहीं है; क्योंकि, एक तो ऐसा मानने में विरोध आता है, दूसरे उत्पादस्वरूप भाव को छोड़कर अवस्थान का और कोई लक्षण पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थान का अभाव होने से उत्पाद व विनाश स्वरूप द्रव्य है, यह सिद्ध हुआ। (वही व्यंजन पर्यायरूप द्रव्य स्थूल ऋजुसूत्र का विषय है।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 10/4,2,3,3/15/9</span> <span class="PrakritText"> उजुसुदस्स पज्जवट्ठियस्स कधं दव्वं विसओ। ण, वंजणपज्जायमहिट्ठियस्स दव्वस्स तव्विसयत्ताविरोहादो। ण च उप्पादविणासलक्खणत्तं तव्विसयदव्वस्स विरुज्झदे, अप्पिदपज्जायभावाभावलक्खण-उप्पादविणासविदिरित्त अवट्ठाणाणुवलंभादो। ण च पढमसमए उप्पण्णस्स विदियादिसमएसु अवट्ठाणं, तत्थ पढमविदियादिसमयकप्पणए कारणाभावादो। ण च उत्पादो चेव अवट्ठाणं, विरोहादो उप्पादलक्खणभावविदिरित्तअवट्ठाणलक्खणाणुवलंभादो च। तदो अव्वट्ठाणाभावादो उप्पादविणासलक्खणं दव्वमिदि सिद्धं। </span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒ऋजुसूत्र चूँकि पर्यायार्थिक है, अत: उसका द्रव्य विषय कैसे हो सकता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, व्यंजन पर्याय को प्राप्त द्रव्य उसका विषय है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। (अर्थात् अशुद्ध ऋजुसूत्र को द्रव्यार्थिक मानने में कोई विरोध नहीं है‒ <span class="GRef">धवला/9)</span> <span class="GRef">(धवला 9/4,1,58/265/9)</span>, <span class="GRef">(धवला 12/4,2,8,14/290/5)</span> (निक्षेप/3/4) प्रश्न‒ऋजुसूत्र के विषयभूत द्रव्य को उत्पाद विनाश लक्षण मानने में विरोध आता है? उत्तर‒सो भी बात नहीं है; क्योंकि, विवक्षित पर्याय का सद्भाव ही उत्पाद है और उसका अभाव ही व्यय है। इसके सिवा अवस्थान स्वतंत्र रूप से नहीं पाया जाता। प्रश्न‒प्रथम समय में पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समयों में उसका अवस्थान होता है? उत्तर‒यह बात नहीं बनती; क्योंकि उसमें प्रथम व द्वितीयादि समयों की कल्पना का कोई कारण नहीं है। प्रश्न‒फिर तो उत्पाद ही अवस्थान बन बैठेगा ? उत्तर‒सो भी बात नहीं है; क्योंकि, एक तो ऐसा मानने में विरोध आता है, दूसरे उत्पादस्वरूप भाव को छोड़कर अवस्थान का और कोई लक्षण पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थान का अभाव होने से उत्पाद व विनाश स्वरूप द्रव्य है, यह सिद्ध हुआ। (वही व्यंजन पर्यायरूप द्रव्य स्थूल ऋजुसूत्र का विषय है।</span><br /> | ||
धवला 12/4,2,14/290/6 <span class="PrakritText">वट्टमाणकालविसयउजुसुदवत्थुस्स दवणाभावादो ण तत्थ दव्वमिदि णाणावरणीयवेयणा णत्थि त्ति वुत्ते‒ण, वट्टमाणकालस्स वंजणपज्जाए पडुच्च अवट्टियस्स सगाससावयवाणं गदस्स दव्वत्तं पडि विरोहाभावादो। अप्पिदपज्जाएण वट्टमाणत्तमा वण्णस्स वत्थुस्स अणप्पिद पज्जाएसु दवणविरोहाभावादो वा अत्थि उजुसुदणयविसए दव्वमिदि।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒वर्तमानकाल विषयक ऋजुसूत्रनय की विषयभूत वस्तु का द्रवण नहीं होने से चूँकि उसका विषय, द्रव्य नहीं हो सकता है, अत: ज्ञानावरणीय वेदना उसका विषय नहीं है ? उत्तर‒ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं, कि ऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तमानकाल व्यंजन पर्याय का आलंबन करके अवस्थित है (देखें [[ नय#III.5.7 | अगला शीर्षक ]]), एवं अपने समस्त अवयवों को प्राप्त है, अत: उसके द्रव्य होने में कोई विरोध नहीं है। अथवा विवक्षित पर्याय से वर्तमानता को प्राप्त वस्तु को अविवक्षित पर्यायों में द्रव्य का विरोध न होने से, ऋजुसूत्र के विषय में द्रव्य संभव है ही।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 12/4,2,14/290/6</span> <span class="PrakritText">वट्टमाणकालविसयउजुसुदवत्थुस्स दवणाभावादो ण तत्थ दव्वमिदि णाणावरणीयवेयणा णत्थि त्ति वुत्ते‒ण, वट्टमाणकालस्स वंजणपज्जाए पडुच्च अवट्टियस्स सगाससावयवाणं गदस्स दव्वत्तं पडि विरोहाभावादो। अप्पिदपज्जाएण वट्टमाणत्तमा वण्णस्स वत्थुस्स अणप्पिद पज्जाएसु दवणविरोहाभावादो वा अत्थि उजुसुदणयविसए दव्वमिदि।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒वर्तमानकाल विषयक ऋजुसूत्रनय की विषयभूत वस्तु का द्रवण नहीं होने से चूँकि उसका विषय, द्रव्य नहीं हो सकता है, अत: ज्ञानावरणीय वेदना उसका विषय नहीं है ? उत्तर‒ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं, कि ऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तमानकाल व्यंजन पर्याय का आलंबन करके अवस्थित है (देखें [[ नय#III.5.7 | अगला शीर्षक ]]), एवं अपने समस्त अवयवों को प्राप्त है, अत: उसके द्रव्य होने में कोई विरोध नहीं है। अथवा विवक्षित पर्याय से वर्तमानता को प्राप्त वस्तु को अविवक्षित पर्यायों में द्रव्य का विरोध न होने से, ऋजुसूत्र के विषय में द्रव्य संभव है ही।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/213/263/6 <span class="PrakritText">वंजणपज्जायविसयस्स उजुसुदस्स बहुकालावट्ठाणं होदि त्ति णासंकणिज्ज; अप्पिदवंजणपज्जायअवट्टाणकालस्स दव्वस्स वि वट्टमाणत्तणेण गहणादो।</span>=<span class="HindiText">यदि कहा जाय कि व्यंजन पर्याय को विषय करने वाला ऋजुसूत्रनय बहुत काल तक अवस्थित रहता है; इसलिए, वह ऋजुसूत्र नहीं हो सकता है; क्योंकि उसका काल वर्तमानमात्र है। सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, विवक्षित पर्याय के अवस्थान कालरूप द्रव्य को भी ऋजुसूत्रनय वर्तमान रूप से ही ग्रहण करता है।<br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/1,13-14/213/263/6</span> <span class="PrakritText">वंजणपज्जायविसयस्स उजुसुदस्स बहुकालावट्ठाणं होदि त्ति णासंकणिज्ज; अप्पिदवंजणपज्जायअवट्टाणकालस्स दव्वस्स वि वट्टमाणत्तणेण गहणादो।</span>=<span class="HindiText">यदि कहा जाय कि व्यंजन पर्याय को विषय करने वाला ऋजुसूत्रनय बहुत काल तक अवस्थित रहता है; इसलिए, वह ऋजुसूत्र नहीं हो सकता है; क्योंकि उसका काल वर्तमानमात्र है। सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, विवक्षित पर्याय के अवस्थान कालरूप द्रव्य को भी ऋजुसूत्रनय वर्तमान रूप से ही ग्रहण करता है।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.5.7" id="III.5.7"><strong>सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वर्तमान काल का प्रमाण </strong> <br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.5.7" id="III.5.7"><strong>सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वर्तमान काल का प्रमाण </strong> <br /> | ||
दे./नय/III/1/2 वर्तमान वचन को ऋजुसूत्र वचन कहते हैं। ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों के विच्छेद रूप समय से लेकर एक समय पर्यंत वस्तु की स्थिति का निश्चय करने वाले पर्यायार्थिक नय हैं। (अर्थात् मुखद्वार से पदार्थ का नामोच्चारण हो चुकने के पश्चात् से लेकर एक समय पर्यंत ही उस पदार्थ की स्थिति का निश्चय करने वाला पर्यायार्थिक नय है।</span><br /> | दे./[[नय#III/1/2 | नय-III/1/2]] वर्तमान वचन को ऋजुसूत्र वचन कहते हैं। ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों के विच्छेद रूप समय से लेकर एक समय पर्यंत वस्तु की स्थिति का निश्चय करने वाले पर्यायार्थिक नय हैं। (अर्थात् मुखद्वार से पदार्थ का नामोच्चारण हो चुकने के पश्चात् से लेकर एक समय पर्यंत ही उस पदार्थ की स्थिति का निश्चय करने वाला पर्यायार्थिक नय है।</span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/172/1 <span class="SanskritText">कोऽत्र वर्तमानकाल:। आरंभात्प्रभृत्या उपरमादेष वर्तमानकाल:। एष चानेकप्रकार:, अर्थव्यंजनपर्यायास्थितेरनेकविधत्वात् ।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/172/1</span> <span class="SanskritText">कोऽत्र वर्तमानकाल:। आरंभात्प्रभृत्या उपरमादेष वर्तमानकाल:। एष चानेकप्रकार:, अर्थव्यंजनपर्यायास्थितेरनेकविधत्वात् ।</span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला 9/4,1,49/244/2</span> <span class="PrakritText">तत्थ सुद्धो विसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्खणं विवट्टमाण...जो सो असुद्धो... तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा। कुदो। चक्खिदियगेज्झवेंजणपज्जायाणमप्पहाणीभूदव्वाणेमेत्तियं कालमवट्ठाणुवलंभादो। जदि एरिसो वि पज्जवट्ठियणओ अत्थि तो‒उप्पज्जंति वियंति य भावा णियमेव पज्जवणयस्स। इच्चेएण सम्मइसुत्तेण सह विरोहो होदि त्ति उत्ते ण होदि, असुद्धउजुसुदेण विसईवयवेंजणपज्जाए अप्पहाणीकयसेसपज्जाए पुव्वावरकोटीणमभावेण उप्पत्तिविणासे मोत्तूण उवट्ठाणमुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒यहाँ वर्तमानकाल का क्या स्वरूप है ? उत्तर‒विवक्षित पर्याय के प्रारंभकाल से लेकर उसका अंत होने तक जो काल है वह वर्तमान काल है। अर्थ और व्यंजन पर्यायों की स्थिति के अनेक प्रकार होने से यह काल अनेक प्रकार है। तहाँ शुद्ध ऋजुसूत्र प्रत्येक क्षण में परिणमन करने वाले पदार्थों को विषय करता है (अर्थात् शुद्ध ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा वर्तमानकाल का प्रमाण एक समय मात्र है) और अशुद्ध ऋजुसूत्र के विषयभूत पदार्थों का काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से छ: मास अथवा संख्यात वर्ष है; क्योंकि, चक्षु इंद्रिय से ग्राह्य व्यंजनपर्यायें द्रव्य की प्रधानता से रहित होती हुई इतने काल तक अवस्थित पायी जाती हैं। प्रश्न‒यदि ऐसा भी पर्यायार्थिकनय है तो‒पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं, इस सन्मतिसूत्र के साथ विरोध होगा? उत्तर‒नहीं होगा; क्योंकि, अशुद्ध ऋजुसूत्र के द्वारा व्यंजन पर्यायें ही विषय की जाती हैं, और शेष पर्यायें अप्रधान हैं। (किंतु प्रस्तुत सूत्र में शुद्धऋजुसूत्र की विवक्षा होने से) पूर्वा पर कोटियों का अभाव होने के कारण उत्पत्ति व विनाश को छोड़कर अवस्थान पाया ही नहीं जाता।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.6.1" id="III.6.1"><strong> शब्दनय का सामान्य लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.1" id="III.6.1"><strong> शब्दनय का सामान्य लक्षण </strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">शब्दाद् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्ध: शब्द: शब्दनय:।</span> =<span class="HindiText">शब्द अर्थात् व्याकरण से प्रकृति व प्रत्यय आदि के द्वारा सिद्ध कर लिये गये शब्द का यथायोग्य प्रयोग करना शब्दनय है।<br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/9</span> <span class="SanskritText">शब्दाद् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्ध: शब्द: शब्दनय:।</span> =<span class="HindiText">शब्द अर्थात् व्याकरण से प्रकृति व प्रत्यय आदि के द्वारा सिद्ध कर लिये गये शब्द का यथायोग्य प्रयोग करना शब्दनय है।<br /> | ||
देखें [[ नय#I.4.2 | नय - I.4.2 ]](शब्द पर से अर्थ का बोध कराने वाला शब्दनय है)।<br /> | देखें [[ नय#I.4.2 | नय - I.4.2 ]](शब्द पर से अर्थ का बोध कराने वाला शब्दनय है)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="III.6.2" id="III.6.2"><strong>अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है। </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.6.2" id="III.6.2"><strong>अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है। </strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/4/42/17/261/16 <span class="SanskritText">शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक:। </span>=<span class="HindiText">शब्दनय में अनेक पर्यायवाची शब्दों का वाच्य एक होता है।</span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/4/42/17/261/16</span> <span class="SanskritText">शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक:। </span>=<span class="HindiText">शब्दनय में अनेक पर्यायवाची शब्दों का वाच्य एक होता है।</span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/313/2 <span class="SanskritText">शब्दस्तु रूढ़ितो यावंतो ध्वनय: कस्मिश्चिदर्थे प्रवर्तंते यथा इंद्रशक्रपुरंदरादय: सुरपतौ तेषां सर्वेषामप्येकमर्थमभिप्रैति किल प्रतीतिवशाद् ।</span>=<span class="HindiText">रूढि से संपूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को शब्दनय कहते हैं। जैसे इंद्र शक्र पुरंदर आदि शब्द एक अर्थ के द्योतक हैं।<br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/313/2</span> <span class="SanskritText">शब्दस्तु रूढ़ितो यावंतो ध्वनय: कस्मिश्चिदर्थे प्रवर्तंते यथा इंद्रशक्रपुरंदरादय: सुरपतौ तेषां सर्वेषामप्येकमर्थमभिप्रैति किल प्रतीतिवशाद् ।</span>=<span class="HindiText">रूढि से संपूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को शब्दनय कहते हैं। जैसे इंद्र शक्र पुरंदर आदि शब्द एक अर्थ के द्योतक हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.6.3" id="III.6.3"><strong> पर्यायवाची शब्दों में अभेद मानता है </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.3" id="III.6.3"><strong> पर्यायवाची शब्दों में अभेद मानता है </strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/4/42/17/261/11 | <span class="GRef">राजवार्तिक/4/42/17/261/11 </span> <span class="SanskritText">शब्दे पर्यायशब्दांतरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद:। </span>=<span class="HindiText">शब्दनय में पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग होने पर भी, उसी अर्थ का कथन होता है, अत: अभेद है।</span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/313/26 <span class="SanskritText"> न च इंद्रशक्रपुरंदरादय: पर्यायशब्दा विभिन्नार्थवाचितया कदाचन प्रतीतयंते। तेभ्य: सर्वदा एकाकारपरामर्शोत्पत्तेरस्खलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात् । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति। शब्द्यते आहूयतेऽनेनाभिप्रायेणार्थ: इति निरुक्तात् एकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीनां प्रयोगात् ।</span>=<span class="HindiText">इंद्र, शक्र और पुरंदर आदि पर्यायवाची शब्द कभी भिन्न अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते; क्योंकि, उनसे सर्वदा अस्खलित वृत्ति से एक ही अर्थ के ज्ञान होने का व्यवहार देखा जाता है। अत: पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ है। ‘जिस अभिप्राय से शब्द कहा जाय या बुलाया जाय उसे शब्द कहते हैं’, इस निरुक्ति पर से भी उपरोक्त ही बात सिद्ध होती है, क्योंकि एकार्थ प्रतिपादन के अभिप्राय से ही पर्यायवाची शब्द कहे जाते हैं।<br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/313/26</span> <span class="SanskritText"> न च इंद्रशक्रपुरंदरादय: पर्यायशब्दा विभिन्नार्थवाचितया कदाचन प्रतीतयंते। तेभ्य: सर्वदा एकाकारपरामर्शोत्पत्तेरस्खलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात् । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति। शब्द्यते आहूयतेऽनेनाभिप्रायेणार्थ: इति निरुक्तात् एकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीनां प्रयोगात् ।</span>=<span class="HindiText">इंद्र, शक्र और पुरंदर आदि पर्यायवाची शब्द कभी भिन्न अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते; क्योंकि, उनसे सर्वदा अस्खलित वृत्ति से एक ही अर्थ के ज्ञान होने का व्यवहार देखा जाता है। अत: पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ है। ‘जिस अभिप्राय से शब्द कहा जाय या बुलाया जाय उसे शब्द कहते हैं’, इस निरुक्ति पर से भी उपरोक्त ही बात सिद्ध होती है, क्योंकि एकार्थ प्रतिपादन के अभिप्राय से ही पर्यायवाची शब्द कहे जाते हैं।<br /> | ||
देखें [[ नय#III.7.4 | नय - III.7.4 ]](परंतु यह एकार्थता समान काल व लिंग आदि वाले शब्दों में ही है, सब पर्यायवाचियों में नहीं)।<br /> | देखें [[ नय#III.7.4 | नय - III.7.4 ]](परंतु यह एकार्थता समान काल व लिंग आदि वाले शब्दों में ही है, सब पर्यायवाचियों में नहीं)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.6.4" id="III.6.4"><strong> पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंग आदि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.4" id="III.6.4"><strong> पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंग आदि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता </strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/143/4 <span class="SanskritText">लिंगसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपर: शब्दनय:।</span>=<span class="HindiText">लिंग, संख्या, साधन आदि (पुरुष, काल व उपग्रह) के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला शब्दनय है। ( राजवार्तिक/1/33/9/98/12 ); ( हरिवंशपुराण/58/47 ); ( धवला 1/1,1,1/87/1 ); ( धवला 9/4,1,45/176/5 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/235 ); ( तत्त्वसार/1/48 )।</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/143/4</span> <span class="SanskritText">लिंगसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपर: शब्दनय:।</span>=<span class="HindiText">लिंग, संख्या, साधन आदि (पुरुष, काल व उपग्रह) के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला शब्दनय है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/33/9/98/12)</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/58/47)</span>; <span class="GRef">(धवला 1/1,1,1/87/1)</span>; <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/176/5)</span>; <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/235)</span>; <span class="GRef">( तत्त्वसार/1/48)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/33/9/98/23</span> <span class="SanskritText"> एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ता:। कुत:। अन्यार्थस्याऽन्यार्थेन संबंधाभावात् । यदि स्यात् घट: पटो भवतु पटो वा प्रासाद इति। तस्माद्यथालिंग यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् ।</span>=<span class="HindiText">इत्यादि व्यभिचार (देखें [[ नय#III.6.6 | आगे ]]) अयुक्त हैं, क्योंकि अन्य अर्थ का अन्य अर्थ से कोई संबंध नहीं है। अन्यथा घट पट हो जायेगा और पट मकान बन बैठेगा। अत: यथालिंग यथावचन और यथासाधन प्रयोग करना चाहिए। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/1 ) <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 72/256)</span> <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/89/1)</span> <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/178/3)</span>; <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/237/3)</span>।</span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 68/255</span> <span class="SanskritText">कालादिभेदतोऽर्थस्य भेदं य: प्रतिपादयेत् । सोऽत्र शब्दनय: शब्दप्रधानत्वादुदाहृत:।</span>=<span class="HindiText">जो नय काल कारक आदि के भेद से अर्थ के भेद को समझता है, वह शब्द प्रधान होने के कारण शब्दनय कहा जाता है। <span class="GRef">(प्रमेय कमल मार्तंड/पृ.206)</span> <span class="GRef">(कार्तिकेयानुप्रेक्षा 275)</span>।</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/213 <span class="PrakritGatha">जो वहणं ण मण्णइ एयत्थे भिण्ण्लिंग आईणं। सो सद्दणओ भणिओ णेओ पुंसाइआण जहा।213।</span>=<span class="HindiText">जो भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों को एक अर्थ में वृत्ति नहीं मानता वह शब्दनय है, जैसे पुरुष, स्त्री आदि।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/213</span> <span class="PrakritGatha">जो वहणं ण मण्णइ एयत्थे भिण्ण्लिंग आईणं। सो सद्दणओ भणिओ णेओ पुंसाइआण जहा।213।</span>=<span class="HindiText">जो भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों को एक अर्थ में वृत्ति नहीं मानता वह शब्दनय है, जैसे पुरुष, स्त्री आदि।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.17 <span class="SanskritText">शब्दप्रयोगस्यार्थं जानामीति कृत्वा तत्र एकार्थमेकशब्देन ज्ञाने सति पर्यायशब्दस्य अर्थक्रमो यथेति चेत् पुष्यतारका नक्षत्रमित्येकार्थो भवति। अथवा दारा: कलत्रं भार्या इति एकार्थो भवतीति कारणेन लिंगसंख्यासाधनादिव्यभिचारं मुक्त्वा शब्दानुसारार्थं स्वीकर्तव्यमिति शब्दनय:। उक्तं च‒लक्षणस्य प्रवृत्तौ वा स्वभावाविष्टालिंगत:। शब्दो लिंगं स्वसंख्यां च न परित्यज्य वर्तते। </span>=<span class="HindiText">’शब्दप्रयोग के अर्थ को मैं जानता हूँ’ इस प्रकार के अभिप्राय को धारण करके एक शब्द के द्वारा एक अर्थ के जान लेने पर पर्यायवाची शब्दों के अर्थक्रम को (भी भली भाँति जान लेता है)। जैसे पुष्य तारका और नक्षत्र, भिन्न लिंगवाले तीन शब्द (यद्यपि) एकार्थवाची है’ अथवा दारा कलत्र भार्या ये तीनों भी (यद्यपि) एकार्थवाची हैं। परंतु कारणवशात् लिंग संख्या साधन वगैरह व्यभिचार को छोड़कर शब्द के अनुसार अर्थ का स्वीकार करना चाहिए इस प्रकार शब्दनय है। कहा भी है‒लक्षण की प्रवृत्ति में या स्वभाव से आविष्ट-युक्त लिंग से शब्दनय, लिंग और स्वसंख्या को न छोड़ते हुए रहता है। इस प्रकार शब्दनय बतलाया गया है।<br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.17</span> <span class="SanskritText">शब्दप्रयोगस्यार्थं जानामीति कृत्वा तत्र एकार्थमेकशब्देन ज्ञाने सति पर्यायशब्दस्य अर्थक्रमो यथेति चेत् पुष्यतारका नक्षत्रमित्येकार्थो भवति। अथवा दारा: कलत्रं भार्या इति एकार्थो भवतीति कारणेन लिंगसंख्यासाधनादिव्यभिचारं मुक्त्वा शब्दानुसारार्थं स्वीकर्तव्यमिति शब्दनय:। उक्तं च‒लक्षणस्य प्रवृत्तौ वा स्वभावाविष्टालिंगत:। शब्दो लिंगं स्वसंख्यां च न परित्यज्य वर्तते। </span>=<span class="HindiText">’शब्दप्रयोग के अर्थ को मैं जानता हूँ’ इस प्रकार के अभिप्राय को धारण करके एक शब्द के द्वारा एक अर्थ के जान लेने पर पर्यायवाची शब्दों के अर्थक्रम को (भी भली भाँति जान लेता है)। जैसे पुष्य तारका और नक्षत्र, भिन्न लिंगवाले तीन शब्द (यद्यपि) एकार्थवाची है’ अथवा दारा कलत्र भार्या ये तीनों भी (यद्यपि) एकार्थवाची हैं। परंतु कारणवशात् लिंग संख्या साधन वगैरह व्यभिचार को छोड़कर शब्द के अनुसार अर्थ का स्वीकार करना चाहिए इस प्रकार शब्दनय है। कहा भी है‒लक्षण की प्रवृत्ति में या स्वभाव से आविष्ट-युक्त लिंग से शब्दनय, लिंग और स्वसंख्या को न छोड़ते हुए रहता है। इस प्रकार शब्दनय बतलाया गया है।<br /> | ||
भावार्थ‒(यद्यपि ‘भिन्न लिंग आदि वाले शब्द भी व्यवहार में एकार्थवाची समझे जाते हैं,’ ऐसा यह नय जानता है, और मानता भी है; परंतु वाक्य में उनका प्रयोग करते समय उनमें लिंगादि का व्यभिचार आने नहीं देता। अभिप्राय में उन्हें एकार्थवाची समझते हुए भी वाक्य में प्रयोग करते समय कारणवशात् लिंगादि के अनुसार ही उनमें अर्थभेद स्वीकार करता है।) ( आलापपद्धति/5 )।</span><br /> | भावार्थ‒(यद्यपि ‘भिन्न लिंग आदि वाले शब्द भी व्यवहार में एकार्थवाची समझे जाते हैं,’ ऐसा यह नय जानता है, और मानता भी है; परंतु वाक्य में उनका प्रयोग करते समय उनमें लिंगादि का व्यभिचार आने नहीं देता। अभिप्राय में उन्हें एकार्थवाची समझते हुए भी वाक्य में प्रयोग करते समय कारणवशात् लिंगादि के अनुसार ही उनमें अर्थभेद स्वीकार करता है।) <span class="GRef">(आलापपद्धति/5)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/313/30</span> <span class="SanskritText"> यथा चायं पर्यायशब्दानामेकमर्थमभिप्रैति तथा तटस्तटी तटम् इति विरुद्धलिंगलक्षणधर्माभिसंबंधाद् वस्तुनो भेदं चाभिधत्ते। न हि विरुद्धधर्मकृतं भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्मायोगो युक्त:। एवं संख्याकालकारकपुरुषादिभेदाद् अपि भेदोऽभ्युपगंतव्य:।</span><br /> | |||
स्याद्वादमंजरी/28/316 पर उद्धृत श्लोक नं.5 <span class="SanskritGatha">विरोधिलिंगसंख्यादिभेदाद् भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्द: प्रत्यवतिष्ठत।5।</span>=<span class="HindiText">जैसे इंद्र शक्र पुरंदर ये तीनों समान लिंगी शब्द एक अर्थ को द्योतित करते हैं; वैसे तट:, तटी, तटम् इन शब्दों से विरुद्ध लिंगरूप धर्म से संबंध होने के कारण, वस्तु का भेद भी समझा जाता है। विरुद्ध धर्मकृत भेद का अनुभव करने वाली वस्तु में विरुद्ध धर्म का संबंध न मानना भी युक्त नहीं है। इस प्रकार संख्या काल कारक पुरुष आदि के भेद से पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में भेद भी समझना चाहिए।</span><br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/316 पर उद्धृत श्लोक नं.5</span> <span class="SanskritGatha">विरोधिलिंगसंख्यादिभेदाद् भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्द: प्रत्यवतिष्ठत।5।</span>=<span class="HindiText">जैसे इंद्र शक्र पुरंदर ये तीनों समान लिंगी शब्द एक अर्थ को द्योतित करते हैं; वैसे तट:, तटी, तटम् इन शब्दों से विरुद्ध लिंगरूप धर्म से संबंध होने के कारण, वस्तु का भेद भी समझा जाता है। विरुद्ध धर्मकृत भेद का अनुभव करने वाली वस्तु में विरुद्ध धर्म का संबंध न मानना भी युक्त नहीं है। इस प्रकार संख्या काल कारक पुरुष आदि के भेद से पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में भेद भी समझना चाहिए।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/ गाथा 7/13</span> <span class="PrakritText">मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुदवयणविच्छेदो। तस्स दु सद्दादीया साह पसाहा सुहुमभेया।</span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्र वचन का विच्छेदरूप वर्तमानकाल ही पर्यायार्थिक नय का मूल आधार है, और शब्दादि नय शाखा उपशाखा रूप उसके उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद हैं।</span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/68/255/17 <span class="SanskritText">कालकारकलिंगसंख्यासाधनोपग्रहभेदाद्भिन्नमर्थं शपतीति शब्दो नय: शब्दप्रधानत्वादुदाहृत:। यस्तु व्यवहारनय: कालादिभेदेऽप्यभिन्नमर्थमभिप्रैति।</span>=<span class="HindiText">काल, कारक, लिंग, संख्या, साधन और उपग्रह आदि के भेदों से जो नय भिन्न अर्थ को समझाता है वह नय शब्द प्रधान होने से शब्दनय कहा गया है, और इसके पूर्व जो व्यवहारनय कहा गया है वह तो (व्याकरण शास्त्र के अनुसार) काल आदि के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को समझाने का अभिप्राय रखता है। (नय | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/68/255/17</span> <span class="SanskritText">कालकारकलिंगसंख्यासाधनोपग्रहभेदाद्भिन्नमर्थं शपतीति शब्दो नय: शब्दप्रधानत्वादुदाहृत:। यस्तु व्यवहारनय: कालादिभेदेऽप्यभिन्नमर्थमभिप्रैति।</span>=<span class="HindiText">काल, कारक, लिंग, संख्या, साधन और उपग्रह आदि के भेदों से जो नय भिन्न अर्थ को समझाता है वह नय शब्द प्रधान होने से शब्दनय कहा गया है, और इसके पूर्व जो व्यवहारनय कहा गया है वह तो (व्याकरण शास्त्र के अनुसार) काल आदि के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को समझाने का अभिप्राय रखता है। ([[नय#III.1.7 | नय#III.1.7 ]]तथा [[निक्षेप]])।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.6.5" id="III.6.5"><strong> शब्दनयाभास का लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.5" id="III.6.5"><strong> शब्दनयाभास का लक्षण </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/318/26</span> <span class="SanskritText">तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभास:। यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकाला शब्दाभिन्नमेव अर्थमभिदधति भिन्नकालशब्दत्वात् तादृक्सिद्धान्यशब्दवत् इत्यादि:।</span>=<span class="HindiText">काल आदि के भेद से शब्द और अर्थ को सर्वथा अलग मानने को शब्दनयाभास कहते हैं। जैसे‒सुमेरु था, सुमेरु है, और सुमेरु होगा आदि भिन्न भिन्न काल के शब्द, भिन्न कालवाची होने से, अन्य भिन्नकालवाची शब्दों की भाँति ही, भिन्न भिन्न अर्थों का ही प्रतिपादन करते हैं।<br /> | |||
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<li> <span class="HindiText" name="III.6.6" id="III.6.6"><strong>लिंगादि व्यभिचार का तात्पर्य </strong><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.6.6" id="III.6.6"><strong>लिंगादि व्यभिचार का तात्पर्य </strong><br /> | ||
नोट‒यद्यपि व्याकरण शास्त्र भी शब्द प्रयोग के दोषों को स्वीकार नहीं करता, परंतु कहीं-कहीं अपवादरूप से भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों का भी सामानाधिकरण्य रूप से प्रयोग कर देता है। तहाँ शब्दनय उन दोषों का भी निराकरण करता है। वे दोष निम्न प्रकार हैं—</span><br /> | नोट‒यद्यपि व्याकरण शास्त्र भी शब्द प्रयोग के दोषों को स्वीकार नहीं करता, परंतु कहीं-कहीं अपवादरूप से भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों का भी सामानाधिकरण्य रूप से प्रयोग कर देता है। तहाँ शब्दनय उन दोषों का भी निराकरण करता है। वे दोष निम्न प्रकार हैं—</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/9/98/14 <span class="SanskritText">तत्र लिंगव्यभिचारस्तावत्स्त्रीलिंगे पुल्लिंगाभिधानं तारका स्वातिरिति। पुंल्लिंगे स्त्र्यभिधानम् अवगमो विद्येति। स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानम् वीणा आतोद्यमिति। नपुंसके स्त्र्यभिधानम् आयुधं शक्तिरिति। पुंल्लिंगे नपुंसकाभिधानं पटो वस्त्रमिति। नपुंसके पुंल्लिंगाभिधानं द्रव्यं परशुरिति। संख्या व्यभिचार:‒एकत्वे द्वित्वम् ‒गोदौ ग्राम इति। द्वित्वे बहुत्वम् पुनर्वसू पंचतारका इति। बहुत्वे एकत्वम् ‒आम्रा वनमिति। बहुत्वे द्वित्वम् ‒देवमनुषा उभौ राशी इति। साधनव्यभिचार:‒एहि मंथे रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि यातस्ते पितेति। आदिशब्देन कालादिव्यभिचारो गृह्यते। विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता, भावि कृत्यमासीदिति कालव्यभिचार:। संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति उपग्रहव्यभिचार:।</span>=<span class="HindiText">1. स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग का कथन करना और पुलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग का कथन करना आदि लिंग व्यभिचार हैं। जैसे‒(1)‒</span><span class="SanskritText">‘तारका स्वाति:’</span><span class="HindiText"> स्वाति नक्षत्र तारका है। यहाँ पर तारका शब्द स्त्रीलिंग और स्वाति शब्द पुंलिंग है। इसलिए स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। (2) </span><span class="SanskritText">‘अवगमो विद्या’</span><span class="HindiText"> ज्ञान विद्या है। इसलिए पुंल्लिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। इसी प्रकार (3) </span><span class="SanskritText">‘वीणा आतोद्यम्’</span><span class="HindiText"> वीणा बाजा आतोद्य कहा जाता है। यहाँ पर वीणा शब्द स्त्रीलिंग और आतोद्य शब्द, नपुंसकलिंग है। (4)</span><span class="SanskritText"> ‘आयुधं शक्ति:’</span><span class="HindiText"> शक्ति आयुध है। यहाँ पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और शक्ति शब्द स्त्रीलिंग है। (5) ‘पटो वस्त्रम्’ पट वस्त्र है। यहाँ पर पट शब्द पुंल्लिंग और वस्त्र शब्द नपुंसकलिंग है। (6) </span><span class="SanskritText">‘आयुधं परशु:’</span><span class="HindiText"> फरसा आयुध है। यहाँ पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और परशु शब्द पुंलिंग है। 2. एकवचन की जगह द्विवचन आदि का कथन करना संख्या व्यभिचार है। जैसे (1) </span><span class="SanskritText">‘नक्षत्रं पुनर्वसू’</span><span class="HindiText"> पुनर्वसू नक्षत्र है। यहाँ पर नक्षत्र शब्द एकवचनांत और पुनर्वसू शब्द द्विवचनांत है। इसलिए एकवचन के स्थान पर द्विवचन का कथन करने से संख्या व्यभिचार है। इसी प्रकार‒(2) ‘नक्षत्रं शतभिषज:’ शतभिषज नक्षत्र है। यहाँ पर नक्षत्र शब्द एकवचनांत और शतभिषज् शब्द बहुवचनांत है। (3) </span><span class="SanskritText">‘गोदौ ग्राम:’ </span><span class="HindiText">गायों को देनेवाला ग्राम है। यहाँ पर गोद शब्द द्विवचनांत और ग्राम शब्द एकवचनांत है। (4) </span><span class="SanskritText">‘पुनर्वसू पंचतारका:’</span><span class="HindiText"> पुनर्वसू पाँच तारे हैं। यहाँ पुनर्वसू द्विवचनांत और पंचतारका शब्द बहुवचनांत है। (5) </span><span class="SanskritText">‘आम्रा: वनम्’ </span><span class="HindiText">आमों के वृक्ष वन हैं। यहाँ पर आम्र शब्द बहुवचनांत और वन शब्द एकवचनांत है। (6) </span><span class="SanskritText">‘देवमनुष्या उभौ राशी’</span><span class="HindiText"> देव और मनुष्य ये दो राशि हैं। यहाँ पर देवमनुष्य शब्द बहुवचनांत और राशि शब्द द्विवचनांत है। 3. भविष्यत आदि काल के स्थान पर भूत आदि काल का प्रयोग करना कालव्यभिचार है। जैसे‒(1)</span><span class="SanskritText"> ‘विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता’</span><span class="HindiText"> जिसने समस्त विश्व को देख लिया है ऐसा इसके पुत्र उत्पन्न होगा। यहाँ पर विश्व का देखना भविष्यत् काल का कार्य है, परंतु उसका भूतकाल के प्रयोग द्वारा कथन किया गया है। इसलिए भविष्यत् काल का कार्य भूत काल में कहने से कालव्यभिचार है। इसी तरह (2) </span><span class="SanskritText">‘भाविकृत्यमासीत्’</span><span class="HindiText"> आगे होने वाला कार्य हो चुका। यहाँ पर भूतकाल के स्थान पर भविष्य काल का कथन किया गया है। 4. एक साधन अर्थात् एक कारक के स्थान पर दूसरे कारक के प्रयोग करने को साधन या कारक व्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’ग्राममधिशेते’ वह ग्रामों में शयन करता है। यहाँ पर सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति या कारक का प्रयोग किया गया है, इसलिए यह साधन व्यभिचार है। 5. उत्तम पुरुष के स्थान पर मध्यम पुरुष और मध्यम पुरुष के स्थान पर उत्तम पुरुष आदि के कथन करने को पुरुषव्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पिता’ आओ, तुम समझते हो कि मैं रथ से जाऊँगा परंतु अब न जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता चला गया। यहाँ पर उपहास करने के लिए ‘मन्यसे’ के स्थान पर ‘मन्ये’ ऐसा उत्तम पुरुष का और ‘यास्यामि’ के स्थान पर ‘यास्यासि’ ऐसा मध्यम पुरुष का प्रयोग हुआ है। इसलिए पुरुषव्यभिचार है। 6. उपसर्ग के निमित्त से परस्मैपद के स्थान पर आत्मनेपद और आत्मनेपद के स्थान पर परस्मैपद का कथन कर देने को उपग्रह व्यभिचार कहते हैं। जैसे ‘रमते’ के स्थान पर ‘विरमति’; ‘तिष्ठति’ के स्थान पर ‘संतिष्ठते’ और ‘विशति’ के स्थान पर ‘निविशते’ का प्रयोग व्याकरण में किया जाना प्रसिद्ध है। ( सर्वार्थसिद्धि/1/33/143/4 ); ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/9/98/14</span> <span class="SanskritText">तत्र लिंगव्यभिचारस्तावत्स्त्रीलिंगे पुल्लिंगाभिधानं तारका स्वातिरिति। पुंल्लिंगे स्त्र्यभिधानम् अवगमो विद्येति। स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानम् वीणा आतोद्यमिति। नपुंसके स्त्र्यभिधानम् आयुधं शक्तिरिति। पुंल्लिंगे नपुंसकाभिधानं पटो वस्त्रमिति। नपुंसके पुंल्लिंगाभिधानं द्रव्यं परशुरिति। संख्या व्यभिचार:‒एकत्वे द्वित्वम् ‒गोदौ ग्राम इति। द्वित्वे बहुत्वम् पुनर्वसू पंचतारका इति। बहुत्वे एकत्वम् ‒आम्रा वनमिति। बहुत्वे द्वित्वम् ‒देवमनुषा उभौ राशी इति। साधनव्यभिचार:‒एहि मंथे रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि यातस्ते पितेति। आदिशब्देन कालादिव्यभिचारो गृह्यते। विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता, भावि कृत्यमासीदिति कालव्यभिचार:। संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति उपग्रहव्यभिचार:।</span>=<span class="HindiText">1. स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग का कथन करना और पुलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग का कथन करना आदि लिंग व्यभिचार हैं। जैसे‒(1)‒</span><span class="SanskritText">‘तारका स्वाति:’</span><span class="HindiText"> स्वाति नक्षत्र तारका है। यहाँ पर तारका शब्द स्त्रीलिंग और स्वाति शब्द पुंलिंग है। इसलिए स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। (2) </span><span class="SanskritText">‘अवगमो विद्या’</span><span class="HindiText"> ज्ञान विद्या है। इसलिए पुंल्लिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। इसी प्रकार (3) </span><span class="SanskritText">‘वीणा आतोद्यम्’</span><span class="HindiText"> वीणा बाजा आतोद्य कहा जाता है। यहाँ पर वीणा शब्द स्त्रीलिंग और आतोद्य शब्द, नपुंसकलिंग है। (4)</span><span class="SanskritText"> ‘आयुधं शक्ति:’</span><span class="HindiText"> शक्ति आयुध है। यहाँ पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और शक्ति शब्द स्त्रीलिंग है। (5) ‘पटो वस्त्रम्’ पट वस्त्र है। यहाँ पर पट शब्द पुंल्लिंग और वस्त्र शब्द नपुंसकलिंग है। (6) </span><span class="SanskritText">‘आयुधं परशु:’</span><span class="HindiText"> फरसा आयुध है। यहाँ पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और परशु शब्द पुंलिंग है। 2. एकवचन की जगह द्विवचन आदि का कथन करना संख्या व्यभिचार है। जैसे (1) </span><span class="SanskritText">‘नक्षत्रं पुनर्वसू’</span><span class="HindiText"> पुनर्वसू नक्षत्र है। यहाँ पर नक्षत्र शब्द एकवचनांत और पुनर्वसू शब्द द्विवचनांत है। इसलिए एकवचन के स्थान पर द्विवचन का कथन करने से संख्या व्यभिचार है। इसी प्रकार‒(2) ‘नक्षत्रं शतभिषज:’ शतभिषज नक्षत्र है। यहाँ पर नक्षत्र शब्द एकवचनांत और शतभिषज् शब्द बहुवचनांत है। (3) </span><span class="SanskritText">‘गोदौ ग्राम:’ </span><span class="HindiText">गायों को देनेवाला ग्राम है। यहाँ पर गोद शब्द द्विवचनांत और ग्राम शब्द एकवचनांत है। (4) </span><span class="SanskritText">‘पुनर्वसू पंचतारका:’</span><span class="HindiText"> पुनर्वसू पाँच तारे हैं। यहाँ पुनर्वसू द्विवचनांत और पंचतारका शब्द बहुवचनांत है। (5) </span><span class="SanskritText">‘आम्रा: वनम्’ </span><span class="HindiText">आमों के वृक्ष वन हैं। यहाँ पर आम्र शब्द बहुवचनांत और वन शब्द एकवचनांत है। (6) </span><span class="SanskritText">‘देवमनुष्या उभौ राशी’</span><span class="HindiText"> देव और मनुष्य ये दो राशि हैं। यहाँ पर देवमनुष्य शब्द बहुवचनांत और राशि शब्द द्विवचनांत है। 3. भविष्यत आदि काल के स्थान पर भूत आदि काल का प्रयोग करना कालव्यभिचार है। जैसे‒(1)</span><span class="SanskritText"> ‘विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता’</span><span class="HindiText"> जिसने समस्त विश्व को देख लिया है ऐसा इसके पुत्र उत्पन्न होगा। यहाँ पर विश्व का देखना भविष्यत् काल का कार्य है, परंतु उसका भूतकाल के प्रयोग द्वारा कथन किया गया है। इसलिए भविष्यत् काल का कार्य भूत काल में कहने से कालव्यभिचार है। इसी तरह (2) </span><span class="SanskritText">‘भाविकृत्यमासीत्’</span><span class="HindiText"> आगे होने वाला कार्य हो चुका। यहाँ पर भूतकाल के स्थान पर भविष्य काल का कथन किया गया है। 4. एक साधन अर्थात् एक कारक के स्थान पर दूसरे कारक के प्रयोग करने को साधन या कारक व्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’ग्राममधिशेते’ वह ग्रामों में शयन करता है। यहाँ पर सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति या कारक का प्रयोग किया गया है, इसलिए यह साधन व्यभिचार है। 5. उत्तम पुरुष के स्थान पर मध्यम पुरुष और मध्यम पुरुष के स्थान पर उत्तम पुरुष आदि के कथन करने को पुरुषव्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पिता’ आओ, तुम समझते हो कि मैं रथ से जाऊँगा परंतु अब न जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता चला गया। यहाँ पर उपहास करने के लिए ‘मन्यसे’ के स्थान पर ‘मन्ये’ ऐसा उत्तम पुरुष का और ‘यास्यामि’ के स्थान पर ‘यास्यासि’ ऐसा मध्यम पुरुष का प्रयोग हुआ है। इसलिए पुरुषव्यभिचार है। 6. उपसर्ग के निमित्त से परस्मैपद के स्थान पर आत्मनेपद और आत्मनेपद के स्थान पर परस्मैपद का कथन कर देने को उपग्रह व्यभिचार कहते हैं। जैसे ‘रमते’ के स्थान पर ‘विरमति’; ‘तिष्ठति’ के स्थान पर ‘संतिष्ठते’ और ‘विशति’ के स्थान पर ‘निविशते’ का प्रयोग व्याकरण में किया जाना प्रसिद्ध है। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/1/33/143/4)</span>; <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 60-71/255)</span>; <span class="GRef">(धवला 1/1,1,1/81/1)</span>; <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/176/6)</span>; <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/235/3)</span>।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.6.7" id="III.6.7"><strong> उक्त व्यभिचारों में दोष प्रदर्शन </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.7" id="III.6.7"><strong> उक्त व्यभिचारों में दोष प्रदर्शन </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 4/1/33/72/257/16</span> <span class="SanskritGatha">यो हि वैयाकरणव्यवहारनयानुरोधेन ‘धातुसंबंधे प्रत्यय:’ इति सूत्रमारभ्य विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता भाविकृत्यमासीदित्यत्र कालभेदेऽप्येकपदार्थमादृता यो विश्वं द्रक्ष्यति सोऽस्य पुत्रो जनितेति भविष्यकालेनातीतकालस्याभेदोऽभिमत: तथा व्यवहारदर्शनादिति। तन्न श्रेय: परीक्षायां मूलक्षते: कालभेदेऽप्यर्थस्याभेदेऽतिप्रसंगात् रावणशंखचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्ते:। आसीद्रावणो राजा शंखचक्रवर्ती भविष्यतीति शब्दयोर्भिन्नविषयत्वान्नैकार्थतेति चेत्, विश्वदृश्वा जनितेत्यनयोरपि मा भूत् तत् एव। न हि विश्व दृष्टवानिति विश्वदृश्वेति शब्दस्य योऽर्थोऽतीतकालस्य जनितेति शब्दस्यानागतकाल:। पुत्रस्य भाविनोऽतीतत्वविरोधात् । अतीतकालस्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थताभिप्रेतेति चेत्, तर्हि न परमार्थत: कालभेदेऽप्यभिन्नार्थव्यवस्था। तथा करोति क्रियते इति कारकयो: कर्तृकर्मणोर्भेदेऽप्यभिन्नमर्थत एवाद्रियते स एव करोति किंचित् स एव क्रियते केनचिदिति प्रतीतेरिति। तदपि न श्रेय: परीक्षायां। देवदत्त: कटं करोतीत्यत्रापि कर्तृकर्मणोर्देवदत्तकटयोरभेदप्रसंगात् । तथा पुष्यस्तारकेत्यत्र व्यक्तिभेदेऽपि तत्कृतार्थमेकमाद्रियंते, लिंगमशिष्यं लोकाश्रयत्वादि। तदपि न श्रेय:, पटकुटोत्यत्रापि कुटकुट्योरेकत्वप्रसंगात् तल्लिंगभेदाविशेषात् । तथापोऽभ्य इत्यत्र संख्याभेदेऽप्येकमर्थं जलाख्यतादृता: संख्याभेदस्याभेदकत्वात् गुर्वादिवदिति। तदपि न श्रेय: परीक्षायाम् । घस्तंतव इत्यत्रापि तथाभावानुषंगात् संख्याभेदाविशेषात् । एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि स यातस्ते पिता इति साधनभेदेऽपि पदार्थमभिन्नमादृता: ‘‘प्रहसे मन्यवाचि युष्मन्मन्यतरस्मादेकवच्च’’ इति वचनात् । तदपि न श्रेय: परीक्षायां, अहं पचामि त्वं पचसीत्यत्रापि अस्मद्युष्मत्साधनाभेदेऽप्येकार्थत्वप्रसंगात् । तथा ‘संतिष्ठते अवतिष्ठत’ इत्यत्रोपसर्गभेदेऽप्यभिन्नमर्थमादृता उपसर्गस्य धात्वर्धमात्रद्योतकत्वादिति। तदपि न श्रेय:। तिष्ठति प्रतिष्ठत इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसंगात् । तत: कालादिभेदाद्भिन्न एवार्थोऽन्यथातिप्रसंगादिति शब्दनय: प्रकाशयति। तद्भेदेऽप्यर्थाभेदे ‘दूषणांतरं च दर्शयति‒तथा कालादिनानात्वकल्पनं निष्प्रयोजनम् । सिद्धं कालादिनैकेन कार्यस्येष्टस्य तत्त्वत:।73। कालाद्यन्यतमस्यैव कल्पनं तैर्विधीयताम् । येषां कालादिभेदेऽपि पदार्थैकत्वनिश्चय:।74। शब्दकालादिभिर्भिन्नाभिन्नार्थप्रतिपादक:। कालादिभिन्नशब्दत्वादृक्सिद्धान्यशब्दवत् ।75।</span> =<span class="HindiText">1. काल व्यभिचार विषयक—वैयाकरणीजन व्यवहारनय के अनुरोध से ‘धातु संबंध से प्रत्यय बदल जाते हैं’ इस सूत्र का आश्रय करके ऐसा प्रयोग करते हैं कि ‘विश्व को देख चुकने वाला पुत्र इसके उत्पन्न होवेगा’ अथवा ‘होने वाला कार्य हो चुका’। इस प्रकार कालभेद होने पर भी वे इनमें एक ही वाच्यार्थ का आदर करते हैं। ‘जो आगे जाकर विश्व को देखेगा ऐसा पुत्र इसके उत्पन्न होगा’ ऐसा न कहकर उपरोक्त प्रकार भविष्यत् काल के साथ अतीत काल का अभेद मान लेते हैं, केवल इसलिए कि लोक में इस प्रकार के प्रयोग का व्यवहार देखा जाता है। परीक्षा करने पर उनका यह मंतव्य श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि एक तो ऐसा मानने से मूलसिद्धांत की क्षति होती है और दूसरे अतिप्रसंग का दोष प्राप्त होता है। क्योंकि, ऐसा मानने पर भूतकालीन रावण और अनागत कालीन शंख चक्रवर्ती में भी एकपना प्राप्त हो जाना चाहिए। वे दोनों एक बन बैठेंगे। यदि तुम यह कहो कि रावण राजा हुआ था और शंख चक्रवर्ती होगा, इस प्रकार इन शब्दों की भिन्न विषयार्थता बन जाती है, तब तो विश्वदृश्वा और जनिता इन दोनों शब्दों की भी एकार्थता न होओ। क्योंकि ‘जिसने विश्व को देख लिया है’ ऐसे इस अतीतकालवाची विश्वदृश्वा शब्द का जो अर्थ है, वह ‘उत्पन्न होवेगा’ ऐसे इस भविष्यकालवाची जनिता शब्द का अर्थ नहीं है। कारण कि भविष्यत् काल में होने वाले पुत्र को अतीतकाल संबंधीपने का विरोध है। फिर भी यदि यह कहो कि भूतकाल में भविष्य काल का अध्यारोप करने से दोनों शब्दों का एक अर्थ इष्ट कर लिया गया है, तब तो काल-भेद होने पर भी वास्वविकरूप से अर्थों के अभेद की व्यवस्था नहीं हो सकती। और यही बात शब्दनय समझा रहा है। 2. साधन या कारक व्यभिचार विषयक—तिस ही प्रकार वे वैयाकरणीजन कर्ताकारक वाले ‘करोति’ और कर्मकारक वाले ‘क्रियते’ इन दोनों शब्दों में कारक भेद होने पर भी, इनका अभिन्न अर्थ मानते हैं; कारण कि, ‘देवदत्त कुछ करता है’ और ‘देवदत्त के द्वारा कुछ किया जाता है’ इन दोनों वाक्यों का एक अर्थ प्रतीत हो रहा है। परीक्षा करने पर इस प्रकार मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो ‘देवदत्त चटाई को बनाता है’ इस वाक्य में प्रयुक्त कर्ताकारक रूप देवदत्त और कर्मकारक रूप चटाई में भी अभेद का प्रसंग आता है। 3. लिंग व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वे वैयाकरणीजन ‘पुष्यनक्षत्र तारा है’ यहाँ लिंग भेद होने पर भी, उनके द्वारा किये गये एक ही अर्थ का आदर करते हैं, क्योंकि लोक में कई तारकाओं से मिलकर बना एक पुष्य नक्षत्र माना गया है। उनका कहना है कि शब्द के लिंग का नियत करना लोक के आश्रय से होता है। उनका ऐसा कहना श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो पुल्लिंगी पट, और स्त्रीलिंगी झोंपड़ी इन दोनों शब्दों के भी एकार्थ हो जाने का प्रसंग प्राप्त होता है। 4. संख्या व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वे वैयाकरणी जन ‘आप:’ इस स्त्रीलिंगी बहुवचनांत शब्द का और ‘अंभ:’ इस नपुंसकलिंगी एकवचनांत शब्द का, लिंग व संख्या भेद होने पर भी, एक जल नामक अर्थ ग्रहण करते हैं। उनके यहाँ संख्याभेद से अर्थ में भेद नहीं पड़ता जैसे कि गुरुत्व साधन आदि शब्द। उनका ऐसा मानना श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो एक घट और अनेक तंतु इन दोनों का भी एक ही अर्थ होने का प्रसंग प्राप्त होता है। 5. पुरुष व्यभिचार विषयक—‘‘हे विदूषक, इधर आओ। तुम मन में मान रहे होगे कि मैं रथ द्वारा मेले में जाऊँगा, किंतु तुम नहीं जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता भी गया था?’’ इस प्रकार यहाँ साधन या पुरुष का भेद होने पर भी वे वैयाकरणी जन एक ही अर्थ का आदर करते हैं। उनका कहना है कि उपहास के प्रसंग में ‘मन्य’ धातु के प्रकृतिभूत होने पर दूसरी धातुओं के उत्तमपुरुष के बदले मध्यम पुरुष हो जाता है, और मन्यति धातु को उत्तमपुरुष हो जाता है, जो कि एक अर्थ का वाचक है। किंतु उनका यह कहना भी उत्तम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो ‘मैं पका रहा हूँ’, ‘तू पकाता है’ इत्यादि स्थलों में भी अस्मद् और युष्मद् साधन का अभेद होने पर एकार्थपने का प्रसंग होगा। 6. उपसर्ग व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वैयाकरणीजन ‘संस्थान करता है’, ‘अवस्थान करता है’ इत्यादि प्रयोगों में उपसर्ग के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को पकड़ बैठे हैं। उनका कहना है कि उपसर्ग केवल धातु के अर्थ का द्योतन करने वाले होते हैं। वे किसी नवीन अर्थ के वाचक नहीं हैं। उनका यह कहना भी प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो ‘तिष्ठति’ अर्थात ठहरता है और ‘प्रतिष्ठते’ अर्थात् गमन करता है, इन दोनों प्रयोगों में भी एकार्थता का प्रसंग आता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText" name="III.6.8" id="III.6.8"> इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक दूषण आते हैं। (1) लकार या कृदंत में अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगों में कालादि के नानापने की कल्पना व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि एक ही काल या उपसर्ग आदि से वास्तविक रूप से इष्टकार्य की सिद्धि हो जायेगी।73। काल आदि के भेद से अर्थ भेद न मानने वालों को कोई सा एक काल या कारक आदि ही मान लेना चाहिए।74। काल आदि का भिन्न-भिन्न स्वीकार किया जाना ही उनकी भिन्नार्थता का द्योतक है।75। <br /> | <li class="HindiText" name="III.6.8" id="III.6.8"> इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक दूषण आते हैं। (1) लकार या कृदंत में अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगों में कालादि के नानापने की कल्पना व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि एक ही काल या उपसर्ग आदि से वास्तविक रूप से इष्टकार्य की सिद्धि हो जायेगी।73। काल आदि के भेद से अर्थ भेद न मानने वालों को कोई सा एक काल या कारक आदि ही मान लेना चाहिए।74। काल आदि का भिन्न-भिन्न स्वीकार किया जाना ही उनकी भिन्नार्थता का द्योतक है।75। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.6.9" id="III.6.9"><strong> सर्व प्रयोगों को दूषित बताने से तो व्याकरणशास्त्र के साथ विरोध आता है? </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.9" id="III.6.9"><strong> सर्व प्रयोगों को दूषित बताने से तो व्याकरणशास्त्र के साथ विरोध आता है? </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/1</span> <span class="SanskritText">एवं प्रकारं व्यवहारमन्याय्यं मन्यते; अन्यार्थस्यान्यार्थेन संबंधाभावात् । लोकसमयविरोध इति चेत् । विरुध्यताम् । तत्त्वमिह मीमांस्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुवर्ति।</span>=<span class="HindiText">यद्यपि व्यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं, तथापि इस प्रकार के व्यवहार को शब्दनय अनुचित मानता है, क्योंकि पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अन्य अर्थ का अन्य अर्थ के साथ संबंध नहीं बन सकता। प्रश्न‒इससे लोक समय का (व्याकरण शास्त्र का) विरोध होता है? उत्तर‒यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं है, क्योंकि यहाँ तत्त्व की मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगों की इच्छा का अनुकरण करने वाली नहीं होती। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/33/9/98/25)</span>।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.1.1" id="III.7.1.1"> <strong>अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग)</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.1.1" id="III.7.1.1"> <strong>अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग)</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/4 <span class="SanskritText"> नानार्थ समभिरोहणात्समभिरूढ:। यतो नानार्थान्समतीत्यैकमर्थमाभिमुख्येन रूढ: समभिरूढ:। गौरित्ययं शब्दो वागादिष्वर्द्येषु वर्तमान: पशावभिरूढ:।</span> =<span class="HindiText">नाना अर्थों का समभिरोहण करने वाला होने से समभिरूढ नय कहलाता है। चूँकि जो नाना अर्थों को ‘सम’ अर्थात् छोड़कर प्रधानता से एक अर्थ में रूढ होता है वह समभिरूढ नय है। उदाहरणार्थ—‘गो’ इस शब्द की वचन, पृथिवी आदि 11 अर्थों में प्रवृत्ति मानी जाती है, तो भी इस नय की अपेक्षा वह एक पशु विशेष के अर्थ में रूढ है। ( राजवार्तिक/1/33/10/98/26 ); ( आलापपद्धति/5 ); ( नयचक्र बृहद्/215 ) | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/4</span> <span class="SanskritText"> नानार्थ समभिरोहणात्समभिरूढ:। यतो नानार्थान्समतीत्यैकमर्थमाभिमुख्येन रूढ: समभिरूढ:। गौरित्ययं शब्दो वागादिष्वर्द्येषु वर्तमान: पशावभिरूढ:।</span> =<span class="HindiText">नाना अर्थों का समभिरोहण करने वाला होने से समभिरूढ नय कहलाता है। चूँकि जो नाना अर्थों को ‘सम’ अर्थात् छोड़कर प्रधानता से एक अर्थ में रूढ होता है वह समभिरूढ नय है। उदाहरणार्थ—‘गो’ इस शब्द की वचन, पृथिवी आदि 11 अर्थों में प्रवृत्ति मानी जाती है, तो भी इस नय की अपेक्षा वह एक पशु विशेष के अर्थ में रूढ है। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/10/98/26)</span>; <span class="GRef">( आलापपद्धति/5)</span>; <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/215)</span> <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.18)</span>; <span class="GRef">( तत्त्वसार/1/49)</span>; <span class="GRef">(कार्तिकेयानुप्रेक्षा/276)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/42/17/261/12</span> <span class="SanskritText">समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् (अभेद:)।</span> =<span class="HindiText">समभिरूढ नय में घटनक्रिया से परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घट का निरूपण होता है। अर्थात् जो शब्द जिस पदार्थ के लिए रूढ कर दिया गया है, वह शब्द हर अवस्था में उस पदार्थ का वाचक होता है।</span><br /> | |||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.18 <span class="SanskritText">एकबारमष्टोपवासं कृत्वा मुक्तेऽपि तपोधनं रूढिप्रधानतया यावज्जीवमष्टोपवासीति व्यवहरंति स तु समभिरूढनय:।</span> =<span class="HindiText">एक बार आठ उपवास करके मुक्त हो जाने पर भी तपोधन को रूढि की प्रधानता से यावज्जीव अष्टोपवासी कहना समभिरूढ नय है।<br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.18</span> <span class="SanskritText">एकबारमष्टोपवासं कृत्वा मुक्तेऽपि तपोधनं रूढिप्रधानतया यावज्जीवमष्टोपवासीति व्यवहरंति स तु समभिरूढनय:।</span> =<span class="HindiText">एक बार आठ उपवास करके मुक्त हो जाने पर भी तपोधन को रूढि की प्रधानता से यावज्जीव अष्टोपवासी कहना समभिरूढ नय है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.1.2" id="III.7.1.2"> <strong>शब्दभेद अर्थभेद</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.1.2" id="III.7.1.2"> <strong>शब्दभेद अर्थभेद</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/5</span> <span class="SanskritText">अथवा अर्थगत्यर्थ: शब्दप्रयोग:। तत्रैकस्यार्थस्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक:। शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति। नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढ:। इंदनादिंद्र:, शकनाच्छक्र:, पूर्दारणात् पुरंदर इत्येवं सर्वत्र।</span>=<span class="HindiText">अथवा अर्थ का ज्ञान कराने के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ऐसी हालत में एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है। इसलिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार नाना अर्थों का समभिरोहण करने वाला होने समभिरूढ नय कहलाता है। जैसे इंद्र, शक्र और पुरंदर ये तीन शब्द होने से इनके अर्थ भी तीन हैं। क्योंकि व्युत्पत्ति की अपेक्षा ऐश्वर्यवान् होने से इंद्र, समर्थ होने से शक्र और नगरों का दारण करने से पुरंदर होता है। इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/10/98/30)</span>, <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 4/1/33 श्लो.76-77/263)</span>; <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/58/48)</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/9/4)</span>; <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/179/1)</span>; <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/13-14/200/239/6)</span>; <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/215)</span>; <span class="GRef">( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक ./पृ.18)</span>; <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/28/314/15;316/3;318/28)</span>।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/4/42/17/261/16 | <span class="GRef">राजवार्तिक/4/42/17/261/16 </span> <span class="SanskritText">समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य एक:।</span> =<span class="HindiText">समभिरूढ नय चूँकि शब्दनैमित्तिक है अत: एक शब्द का वाच्य एक ही होता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.1.3" id="III.7.1.3"> <strong>वस्तु का निजस्वरूप में रूढ रहना </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.1.3" id="III.7.1.3"> <strong>वस्तु का निजस्वरूप में रूढ रहना </strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/8 <span class="SanskritText">अथवा यो यत्राभिरूढ: स तत्र समेत्याभिसुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते। आत्मनीति। कुत:। वस्त्वंतरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्रवृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">अथवा जो जहाँ अभिरूढ है वह वहाँ ‘सम्’ अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ होने के कारण समभिरूढ़ नय कहलाता है? यथा‒आप कहाँ रहते हैं? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति होती है, ऐसा माना जाये तो ज्ञानादिक की और रूपदिक की आकाश में वृत्ति होने लगे। ( राजवार्तिक/1/33/10/99/2 )।<br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/8</span> <span class="SanskritText">अथवा यो यत्राभिरूढ: स तत्र समेत्याभिसुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते। आत्मनीति। कुत:। वस्त्वंतरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्रवृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">अथवा जो जहाँ अभिरूढ है वह वहाँ ‘सम्’ अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ होने के कारण समभिरूढ़ नय कहलाता है? यथा‒आप कहाँ रहते हैं? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति होती है, ऐसा माना जाये तो ज्ञानादिक की और रूपदिक की आकाश में वृत्ति होने लगे। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/10/99/2)</span>।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.2" id="III.7.2"> <strong>यद्यपि रूढिगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.2" id="III.7.2"> <strong>यद्यपि रूढिगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">परस्परेणाभिरूढा: समभिरूढा:। शब्दभेदेऽत्यर्थभेदो नास्ति। शक्र इंद्र: पुरंदर इत्यादय: समभिरूढा:।</span> =<span class="HindiText">जो शब्द परस्पर में अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं वे समभिरूढ हैं। उन शब्दों में भेद होते हुए भी अर्थभेद नहीं होता। जैसे‒शक्र, इंद्र व पुरंदर ये तीनों शब्द एक देवराज के लिए अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं। (विशेष देखें [[ मतिज्ञान#3.4 | मतिज्ञान - 3.4]])।<br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/9</span> <span class="SanskritText">परस्परेणाभिरूढा: समभिरूढा:। शब्दभेदेऽत्यर्थभेदो नास्ति। शक्र इंद्र: पुरंदर इत्यादय: समभिरूढा:।</span> =<span class="HindiText">जो शब्द परस्पर में अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं वे समभिरूढ हैं। उन शब्दों में भेद होते हुए भी अर्थभेद नहीं होता। जैसे‒शक्र, इंद्र व पुरंदर ये तीनों शब्द एक देवराज के लिए अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं। (विशेष देखें [[ मतिज्ञान#3.4 | मतिज्ञान - 3.4]])।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.3" id="III.7.3"> <strong>परंतु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं हो सकते </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.3" id="III.7.3"> <strong>परंतु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं हो सकते </strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/6 | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/6 </span> <span class="SanskritText">तत्रैकस्यार्थस्येकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक:। शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति।</span> =<span class="HindiText">जब एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है तो पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/10/98/30)</span>।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/200/240/1 <span class="SanskritText">अस्मिन्नये न संति पर्यायशब्दा: प्रतिपदमर्थभेदाभ्युपगमात् । न च द्वौ शब्दावेकस्मिन्नर्थे वर्तेते; भिन्नयोरकार्थवृत्तिविरोधात् । न च समानशक्तित्वात्तत्र वर्तेते; समानशक्त्यो: शब्दयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेन भाव्यमिति।</span>=<span class="HindiText">इस नय में पर्यायवाची शब्द नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि यह नय प्रत्येक पद का भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। दो शब्द एक अर्थ में रहते हैं, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न दो शब्दों का एक अर्थ में सद्भाव मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाये कि उन दोनों शब्दों में समान शक्ति पायी जाती है, इसलिए वे एक अर्थ में रहते हैं, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो शब्दों में सर्वथा समान शक्ति मानने से वे वास्तव में दो न रहकर एक हो जायेंगे। इसलिए जब वाचक शब्दों में भेद पाया जाता है तो उनके वाच्यभूत अर्थ में भी भेद होना ही चाहिए। ( धवला 1/1,1,1/89/5 )।</span><br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/200/240/1</span> <span class="SanskritText">अस्मिन्नये न संति पर्यायशब्दा: प्रतिपदमर्थभेदाभ्युपगमात् । न च द्वौ शब्दावेकस्मिन्नर्थे वर्तेते; भिन्नयोरकार्थवृत्तिविरोधात् । न च समानशक्तित्वात्तत्र वर्तेते; समानशक्त्यो: शब्दयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेन भाव्यमिति।</span>=<span class="HindiText">इस नय में पर्यायवाची शब्द नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि यह नय प्रत्येक पद का भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। दो शब्द एक अर्थ में रहते हैं, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न दो शब्दों का एक अर्थ में सद्भाव मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाये कि उन दोनों शब्दों में समान शक्ति पायी जाती है, इसलिए वे एक अर्थ में रहते हैं, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो शब्दों में सर्वथा समान शक्ति मानने से वे वास्तव में दो न रहकर एक हो जायेंगे। इसलिए जब वाचक शब्दों में भेद पाया जाता है तो उनके वाच्यभूत अर्थ में भी भेद होना ही चाहिए। <span class="GRef">(धवला 1/1,1,1/89/5 )</span>।</span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/180/1 <span class="SanskritText">न स्वतो व्यतिरिक्ताशेषार्थव्यवच्छेदक: शब्द: अयोग्यत्वात् । योग्य: शब्दो योग्यार्थस्य व्यवच्छेदक इति...न च शब्दद्वयोर्द्वैविध्ये तत्सामर्थ्ययोरेकत्वं न्यायम्, भिन्नकालोत्पन्नद्रव्योपादानभिन्नाधारयोरेकत्वविरोधात् । न च सादृश्यमपि तयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेनापि भवितव्यमिति। </span>=<span class="HindiText">शब्द अपने से भिन्न समस्त पदार्थों का व्यवच्छेदक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें वैसी योग्यता नहीं है, किंतु योग्य शब्द योग्य अर्थ का व्यवच्छेदक होता है। दूसरे, शब्दों के दो प्रकार होने पर उनकी शक्तियों को एक मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि भिन्न काल में उत्पन्न व उपादान एवं भिन्न आधारवाली शब्दशक्तियों के अभिन्न होने का विरोध है। इनमें सादृश्य भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर एकता की आपत्ति आती है। इस कारण वाचक के भेद से वाच्य भेद अवश्य होना चाहिए।<br /> | <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/180/1</span> <span class="SanskritText">न स्वतो व्यतिरिक्ताशेषार्थव्यवच्छेदक: शब्द: अयोग्यत्वात् । योग्य: शब्दो योग्यार्थस्य व्यवच्छेदक इति...न च शब्दद्वयोर्द्वैविध्ये तत्सामर्थ्ययोरेकत्वं न्यायम्, भिन्नकालोत्पन्नद्रव्योपादानभिन्नाधारयोरेकत्वविरोधात् । न च सादृश्यमपि तयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेनापि भवितव्यमिति। </span>=<span class="HindiText">शब्द अपने से भिन्न समस्त पदार्थों का व्यवच्छेदक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें वैसी योग्यता नहीं है, किंतु योग्य शब्द योग्य अर्थ का व्यवच्छेदक होता है। दूसरे, शब्दों के दो प्रकार होने पर उनकी शक्तियों को एक मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि भिन्न काल में उत्पन्न व उपादान एवं भिन्न आधारवाली शब्दशक्तियों के अभिन्न होने का विरोध है। इनमें सादृश्य भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर एकता की आपत्ति आती है। इस कारण वाचक के भेद से वाच्य भेद अवश्य होना चाहिए।<br /> | ||
नोट‒शब्द व अर्थ में वाच्य-वाचक संबंध व उसकी सिद्धि के लिए देखें [[ आगम#4 | आगम - 4]]।<br /> | नोट‒शब्द व अर्थ में वाच्य-वाचक संबंध व उसकी सिद्धि के लिए देखें [[ आगम#4 | आगम - 4]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.4" id="III.7.4"> <strong>शब्द व समभिरूढ नय में अंतर </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.4" id="III.7.4"> <strong>शब्द व समभिरूढ नय में अंतर </strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/76/263/21 <span class="SanskritText">विश्वदृश्वा सर्वदृश्वेति पर्यायभेदेऽपि शब्दोऽभिन्नार्थमभिप्रैति भविता भविष्यतीति च कालभेदाभिमननात् । क्रियते विधीयते करोति विदधाति पुष्यस्तिष्य: तारकोडु: आपो वा: अंभ: सलिलमित्यादिपर्यायभेदेऽपि चाभिन्नमर्थं शब्दो मन्यते कारकादिभेदादेवार्थभेदाभिमननात् । समभिरूढ: पुन: पर्यायभेदेऽपि भिन्नार्थानामभिप्रैति। कथं-इंद्र: पुरंदर: शक्र इत्याद्याभिन्नगोचर:। यद्वा विभिन्नशब्दत्वाद्वाजिवारणशब्दवत् ।77। </span>=<span class="HindiText">जो विश्व को देख चुका है या जो सबको देख चुका है इन शब्दों में पर्यायभेद होने पर भी शब्द नय इनके अर्थ को अभिन्न मानता है। भविता (लुट्) और भविष्यति (लृट्) इस प्रकार पर्यायभेद होने पर भी, कालभेद न होने के कारण शब्दनय दोनों का एक अर्थ मानता है। तथा किया जाता है, विधान किया जाता है इन शब्दों का तथा इसी प्रकार; पुष्य व तिष्य इन दोनों पुंल्लिंगी शब्दों का; तारका व उडुका इन दोनों स्त्रीलिंगी शब्दों का; स्त्रीलिंगी ‘अप’ व वार् शब्दों का नपुंसकलिंगी अंभस् और सलिल शब्दों का; इत्यादि समानकाल कारक लिंग आदि वाले पर्यायवाची शब्दों का वह एक ही अर्थ मानता है। वह केवल कारक आदि का भेद हो जाने से ही पर्यायवाची शब्दों में अर्थभेद मानता है, परंतु कारकादिका भेद न होने पर अर्थात् समान कारकादि वाले पर्यायवाची शब्दों में अभिन्न अर्थ स्वीकार करता है। किंतु समभिरूढ नय तो पर्यायभेद होने पर भी उन शब्दों में अर्थभेद मानता है। जैसे‒कि इंद्र, पुरंदर व शक्र इत्यादि पर्यायवाची शब्द उसी प्रकार भिन्नार्थ गोचर हैं, जैसे कि बाजी (घोड़ा) व वारण (हाथी) ये शब्द।<br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/76/263/21</span> <span class="SanskritText">विश्वदृश्वा सर्वदृश्वेति पर्यायभेदेऽपि शब्दोऽभिन्नार्थमभिप्रैति भविता भविष्यतीति च कालभेदाभिमननात् । क्रियते विधीयते करोति विदधाति पुष्यस्तिष्य: तारकोडु: आपो वा: अंभ: सलिलमित्यादिपर्यायभेदेऽपि चाभिन्नमर्थं शब्दो मन्यते कारकादिभेदादेवार्थभेदाभिमननात् । समभिरूढ: पुन: पर्यायभेदेऽपि भिन्नार्थानामभिप्रैति। कथं-इंद्र: पुरंदर: शक्र इत्याद्याभिन्नगोचर:। यद्वा विभिन्नशब्दत्वाद्वाजिवारणशब्दवत् ।77। </span>=<span class="HindiText">जो विश्व को देख चुका है या जो सबको देख चुका है इन शब्दों में पर्यायभेद होने पर भी शब्द नय इनके अर्थ को अभिन्न मानता है। भविता (लुट्) और भविष्यति (लृट्) इस प्रकार पर्यायभेद होने पर भी, कालभेद न होने के कारण शब्दनय दोनों का एक अर्थ मानता है। तथा किया जाता है, विधान किया जाता है इन शब्दों का तथा इसी प्रकार; पुष्य व तिष्य इन दोनों पुंल्लिंगी शब्दों का; तारका व उडुका इन दोनों स्त्रीलिंगी शब्दों का; स्त्रीलिंगी ‘अप’ व वार् शब्दों का नपुंसकलिंगी अंभस् और सलिल शब्दों का; इत्यादि समानकाल कारक लिंग आदि वाले पर्यायवाची शब्दों का वह एक ही अर्थ मानता है। वह केवल कारक आदि का भेद हो जाने से ही पर्यायवाची शब्दों में अर्थभेद मानता है, परंतु कारकादिका भेद न होने पर अर्थात् समान कारकादि वाले पर्यायवाची शब्दों में अभिन्न अर्थ स्वीकार करता है। किंतु समभिरूढ नय तो पर्यायभेद होने पर भी उन शब्दों में अर्थभेद मानता है। जैसे‒कि इंद्र, पुरंदर व शक्र इत्यादि पर्यायवाची शब्द उसी प्रकार भिन्नार्थ गोचर हैं, जैसे कि बाजी (घोड़ा) व वारण (हाथी) ये शब्द।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.7.5" id="III.7.5"> <strong>समभिरूढ नयाभास का लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.7.5" id="III.7.5"> <strong>समभिरूढ नयाभास का लक्षण </strong></span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/318/30 <span class="SanskritText">पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कुक्षीकुर्वाणस्तदाभास:। यथेंद्र: शक्र: पुरंदर इत्यादय: शब्दा: भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात् करिकुरंगतुरंगशब्दवद् इत्यादि:। </span>=<span class="HindiText">पर्यायवाची शब्दों के वाच्य में सर्वथा नानापना मानना समभिरूढाभास है। जैसे कि इंद्र, शक्र, पुरंदर इत्यादि शब्दों का अर्थ, भिन्न शब्द होने के कारण उसी प्रकार से भिन्न मानना जैसे कि हाथी, हिरण, घोड़ा इन शब्दों का अर्थ।<br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/318/30</span> <span class="SanskritText">पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कुक्षीकुर्वाणस्तदाभास:। यथेंद्र: शक्र: पुरंदर इत्यादय: शब्दा: भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात् करिकुरंगतुरंगशब्दवद् इत्यादि:। </span>=<span class="HindiText">पर्यायवाची शब्दों के वाच्य में सर्वथा नानापना मानना समभिरूढाभास है। जैसे कि इंद्र, शक्र, पुरंदर इत्यादि शब्दों का अर्थ, भिन्न शब्द होने के कारण उसी प्रकार से भिन्न मानना जैसे कि हाथी, हिरण, घोड़ा इन शब्दों का अर्थ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.8.1" id="III.8.1"><strong> तत्क्रियापरिणत द्रव्य ही शब्द का वाच्य है </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.8.1" id="III.8.1"><strong> तत्क्रियापरिणत द्रव्य ही शब्द का वाच्य है </strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/3 <span class="SanskritText"> येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसायतीति एवंभूत:। स्वाभिप्रेतक्रियापरिणतिक्षणे एव स शब्दो युक्तो नान्यथेति। यदैवेंदति तदैवेंद्रो नाभिषेचको न पूजक इति। यदैव गच्छति तदैव गौर्न स्थितो न शयित इति।</span> =<span class="HindiText">जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है उसी रूप निश्चय करने वाले (नाम देने वाले) नय को एवंभूत नय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्द का जो वाच्य है उस रूप क्रिया के परिणमन के समय ही उस शब्द का प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयों में नहीं। जैसे‒जिस समय आज्ञा व ऐश्वर्यवान् हो उस समय ही इंद्र है, अभिषेक या पूजा करने वाला नहीं। जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी या सोती हुई नहीं। ( राजवार्तिक/1/33/11/99/5 ); ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/3</span> <span class="SanskritText"> येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसायतीति एवंभूत:। स्वाभिप्रेतक्रियापरिणतिक्षणे एव स शब्दो युक्तो नान्यथेति। यदैवेंदति तदैवेंद्रो नाभिषेचको न पूजक इति। यदैव गच्छति तदैव गौर्न स्थितो न शयित इति।</span> =<span class="HindiText">जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है उसी रूप निश्चय करने वाले (नाम देने वाले) नय को एवंभूत नय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्द का जो वाच्य है उस रूप क्रिया के परिणमन के समय ही उस शब्द का प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयों में नहीं। जैसे‒जिस समय आज्ञा व ऐश्वर्यवान् हो उस समय ही इंद्र है, अभिषेक या पूजा करने वाला नहीं। जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी या सोती हुई नहीं। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/11/99/5)</span>; <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 78-79/262)</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/58/49)</span>; <span class="GRef">(आलापपद्धति/5 व 9)</span>; <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.19 पर उद्धत श्लोक)</span>; <span class="GRef">( तत्त्वसार/1/50)</span>; <span class="GRef">(कार्तिकेयानुप्रेक्षा/277)</span>; <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/28/315/3)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/90/3</span> <span class="SanskritText">एवं भेदे भवनादेवंभूत:। </span>=<span class="HindiText">एवंभेद अर्थात् जिस शब्द का जो वाच्य है वह तद्रूप क्रिया से परिणत समय में ही पाया जाता है। उसे जो विषय करता है उसे एवंभूतनय कहते हैं। <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/201/242/1)</span>।</span><br /> | |||
नयचक्र बृहद्/216 <span class=" | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/216</span> <span class="PrakritText">जं जं करेइ कम्मं देही मणवयणकायचेवादो। तं तं खु णामजुत्तो एवंभूदो हवे स णओ।216।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.19 <span class="SanskritText">य: कश्चित्पुरुष: रागपरिणतो परिणमनकाले रागीति भवति। द्वेषपरिणतो परिणमनकाले द्वेषीति कथ्यते।...शेषकाले तथा न कथ्यते। इति तप्ताय: पिंडवत् तत्काले यदाकृतिस्तद्विशेषे वस्तुपरिणमनं तदा काले ‘तक्काले तम्मपत्तादो’ इति वचनमस्तीति क्रियाविशेषाभिदानं स्वीकरोति अथवा अभिदानं न स्वीकरोतीति व्यवहरणमेवंभूतनयो भवति।</span>=<span class="HindiText">1. यह जीव मन वचन काय से जब जो-जो चेष्टा करता है, तब उस-उस नाम से युक्त हो जाता है, ऐसा एवंभूत नय कहता है। 2. जैसे राग से परिणत जीव रागपरिणति के काल में ही रागी होता है और द्वेष परिणत जीव द्वेष परिणति के काल में ही द्वेष्टा कहलाता है। अन्य समयों में वह वैसा नहीं कहा जाता। इस प्रकार अग्नि से तपे हुए लोहे के गोलेवत्, उस-उस काल में जिस-जिस आकृति विशेष में वस्तु का परिणमन होता है, उस काल में उस रूप से तन्मय होता है। इस प्रकार आगम का वचन है। अत: क्रियाविशेष के नामकथन को स्वीकार करता है, अन्यथा नामकथन को ग्रहण नहीं करता। इस प्रकार से व्यवहार करना एवंभूत होता है। </span></li> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.19</span> <span class="SanskritText">य: कश्चित्पुरुष: रागपरिणतो परिणमनकाले रागीति भवति। द्वेषपरिणतो परिणमनकाले द्वेषीति कथ्यते।...शेषकाले तथा न कथ्यते। इति तप्ताय: पिंडवत् तत्काले यदाकृतिस्तद्विशेषे वस्तुपरिणमनं तदा काले ‘तक्काले तम्मपत्तादो’ इति वचनमस्तीति क्रियाविशेषाभिदानं स्वीकरोति अथवा अभिदानं न स्वीकरोतीति व्यवहरणमेवंभूतनयो भवति।</span>=<span class="HindiText">1. यह जीव मन वचन काय से जब जो-जो चेष्टा करता है, तब उस-उस नाम से युक्त हो जाता है, ऐसा एवंभूत नय कहता है। 2. जैसे राग से परिणत जीव रागपरिणति के काल में ही रागी होता है और द्वेष परिणत जीव द्वेष परिणति के काल में ही द्वेष्टा कहलाता है। अन्य समयों में वह वैसा नहीं कहा जाता। इस प्रकार अग्नि से तपे हुए लोहे के गोलेवत्, उस-उस काल में जिस-जिस आकृति विशेष में वस्तु का परिणमन होता है, उस काल में उस रूप से तन्मय होता है। इस प्रकार आगम का वचन है। अत: क्रियाविशेष के नामकथन को स्वीकार करता है, अन्यथा नामकथन को ग्रहण नहीं करता। इस प्रकार से व्यवहार करना एवंभूत होता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.8.2" id="III.8.2"><strong> तज्ज्ञानपरिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है </strong> | <li><span class="HindiText" name="III.8.2" id="III.8.2"><strong> तज्ज्ञानपरिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है </strong> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.8.2.1" id="III.8.2.1"> निर्देश </span><br> सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/5 <span class="SanskritText">अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूत: परिणतस्तेनैवाध्यवसाययति। यथेंद्राग्निज्ञानपरिणत आत्मैवेंद्रोऽग्निश्चेति। </span>=<span class="HindiText">अथवा जिस रूप से अर्थात् जिस ज्ञान से आत्मा परिणत हो उसी रूप से उसका निश्चय कराने वाला नय एवंभूतनय है। यथा‒इंद्ररूप ज्ञान से परिणत आत्मा इंद्र है और अग्निरूप ज्ञान से परिणत आत्मा अग्नि है। ( राजवार्तिक 1/33/11/99/10 )।</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.8.2.1" id="III.8.2.1"> निर्देश </span><br> <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/5</span> <span class="SanskritText">अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूत: परिणतस्तेनैवाध्यवसाययति। यथेंद्राग्निज्ञानपरिणत आत्मैवेंद्रोऽग्निश्चेति। </span>=<span class="HindiText">अथवा जिस रूप से अर्थात् जिस ज्ञान से आत्मा परिणत हो उसी रूप से उसका निश्चय कराने वाला नय एवंभूतनय है। यथा‒इंद्ररूप ज्ञान से परिणत आत्मा इंद्र है और अग्निरूप ज्ञान से परिणत आत्मा अग्नि है। ( राजवार्तिक 1/33/11/99/10 )।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/1/5/5/1 <span class="SanskritText">यथा...आत्मा तत्परिणामादग्निव्यपदेशभाग् भवति, स एवंभूतनयवक्तव्यतया उष्णपर्यायादनन्य:, तथा एवंभूतनयवक्तव्यवशाज् ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वभाव्यात् ।</span>=<span class="HindiText">एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान क्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है और दर्शनक्रिया में परिणत आत्मा दर्शन है; जैसे कि उष्णपर्याय में परिणत आत्मा अग्नि है। </span> राजवार्तिक/1/33/12/99/13 <span class="SanskritText">स्यादेतत्-अग्न्यादिव्यपदेशो यद्यात्मनि क्रियते दाहकत्वाद्यतिप्रसज्यते इति; उच्यते-तदव्यतिरेकादप्रसंग:। तानि नामादीनि येन रूपेण व्यपदिश्यंते ततस्तेषामव्यतिरेक: प्रतिनियतार्थवृत्तित्वाद्धर्माणाम् । ततो नो आगमभावाग्नौ वर्तमानं दाहकत्वं कथमागमभावाग्नौ वर्तेत। </span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒ज्ञान या आत्मा में अग्नि व्यपदेश यदि किया जायेगा तो उसमें दाहकत्व आदि का | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/1/5/5/1</span> <span class="SanskritText">यथा...आत्मा तत्परिणामादग्निव्यपदेशभाग् भवति, स एवंभूतनयवक्तव्यतया उष्णपर्यायादनन्य:, तथा एवंभूतनयवक्तव्यवशाज् ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वभाव्यात् ।</span>=<span class="HindiText">एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान क्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है और दर्शनक्रिया में परिणत आत्मा दर्शन है; जैसे कि उष्णपर्याय में परिणत आत्मा अग्नि है। </span><br> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/12/99/13</span> <span class="SanskritText">स्यादेतत्-अग्न्यादिव्यपदेशो यद्यात्मनि क्रियते दाहकत्वाद्यतिप्रसज्यते इति; उच्यते-तदव्यतिरेकादप्रसंग:। तानि नामादीनि येन रूपेण व्यपदिश्यंते ततस्तेषामव्यतिरेक: प्रतिनियतार्थवृत्तित्वाद्धर्माणाम् । ततो नो आगमभावाग्नौ वर्तमानं दाहकत्वं कथमागमभावाग्नौ वर्तेत। </span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒ज्ञान या आत्मा में अग्नि व्यपदेश यदि किया जायेगा तो उसमें दाहकत्व आदि का अति प्रसंग प्राप्त होगा ? उत्तर‒नहीं; क्योंकि नाम स्थापना आदि निक्षेपों में पदार्थ के जो-जो धर्म वाच्य होते हैं, वे ही उनमें रहेंगे, नोआगम भाव (भौतिक) अग्नि में ही दाहकत्व आदि धर्म होते हैं उनका प्रसंग आगमभाव (ज्ञानात्मक) अग्नि में देना उचित नहीं है। </span></li> | |||
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<li> <span class="HindiText" name="III.8.3" id="III.8.3"><strong>अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद करता है</strong></span> <br> राजवार्तिक 1/4/42/17/261/13 <span class="SanskritText">एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् भेदेनाभिधानम् । ...एवंभूवर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:। </span>=<span class="HindiText">एवंभूतनय में प्रवृत्तिनिमित्त से भिन्न एक ही अर्थ का निरूपण होता है, इसलिए यहाँ सब शब्दों में अर्थभेद है। एवंभूतनय वर्तमान निमित्त को पकड़ता है, अत: उसके मत से एक शब्द का वाच्य एक ही है। </span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.8.3" id="III.8.3"><strong>अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद करता है</strong></span> <br> <span class="GRef">राजवार्तिक 1/4/42/17/261/13</span> <span class="SanskritText">एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् भेदेनाभिधानम् । ...एवंभूवर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:। </span>=<span class="HindiText">एवंभूतनय में प्रवृत्तिनिमित्त से भिन्न एक ही अर्थ का निरूपण होता है, इसलिए यहाँ सब शब्दों में अर्थभेद है। एवंभूतनय वर्तमान निमित्त को पकड़ता है, अत: उसके मत से एक शब्द का वाच्य एक ही है। </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/90/5 <span class="SanskritText"> तत: पदमेकमेकार्थस्य वाचकमित्यध्यवसाय: इत्येवंभूतनय:। एतस्मिन्नये एको गोशब्दो नानार्थे न वर्तते एकस्यैकस्वभावस्य बहुषु वृत्तिविरोधात् ।</span>=<span class="HindiText">एक पद एक ही अर्थ का वाचक होता है, इस प्रकार के विषय करने वाले नय को एवंभूतनय कहते हैं। इस नय की दृष्टि में एक ‘गो’ शब्द नाना अर्थों में नहीं रहता, क्योंकि एक स्वभाववाले एक पद का अनेक अर्थों में रहना विरुद्ध है।</span> धवला 9/4,1,45/180/7 <span class="SanskritText">गवाद्यर्थभेदेन गवादिशब्दस्य च भेदक: एवंभूत:। क्रियाभेदे न अर्थभेदक: एवंभूत:, ‘शब्दनयांतर्भूतस्य एवंभूतस्य अर्थनयत्वविरोधात् ।</span>=<span class="HindiText">गौ आदि शब्द का भेदक है, वह एवंभूतनय है। क्रिया का भेद होने पर एवंभूतनय अर्थ का भेदक नहीं है; क्योंकि शब्द नयों के अंतर्गत आने वाले एवंभूतनय के अर्थनय होने का विरोध है। </span><br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,1/90/5</span> <span class="SanskritText"> तत: पदमेकमेकार्थस्य वाचकमित्यध्यवसाय: इत्येवंभूतनय:। एतस्मिन्नये एको गोशब्दो नानार्थे न वर्तते एकस्यैकस्वभावस्य बहुषु वृत्तिविरोधात् ।</span>=<span class="HindiText">एक पद एक ही अर्थ का वाचक होता है, इस प्रकार के विषय करने वाले नय को एवंभूतनय कहते हैं। इस नय की दृष्टि में एक ‘गो’ शब्द नाना अर्थों में नहीं रहता, क्योंकि एक स्वभाववाले एक पद का अनेक अर्थों में रहना विरुद्ध है।</span> <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/180/7</span> <span class="SanskritText">गवाद्यर्थभेदेन गवादिशब्दस्य च भेदक: एवंभूत:। क्रियाभेदे न अर्थभेदक: एवंभूत:, ‘शब्दनयांतर्भूतस्य एवंभूतस्य अर्थनयत्वविरोधात् ।</span>=<span class="HindiText">गौ आदि शब्द का भेदक है, वह एवंभूतनय है। क्रिया का भेद होने पर एवंभूतनय अर्थ का भेदक नहीं है; क्योंकि शब्द नयों के अंतर्गत आने वाले एवंभूतनय के अर्थनय होने का विरोध है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/316/ उद्धृत श्लो.नं.7</span> <span class="SanskritText">एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोत्पद्यते। क्रियाभेदेन भिन्नत्वाद् एवंभूतोऽभिमन्यते । </span>=<span class="HindiText">वस्तु अमुक क्रिया करने के समय ही अमुक नाम से कही जा सकती है, वह सदा एक शब्द का वाच्य नहीं हो सकती, इसे एवंभूतनय कहते हैं। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="III.8.4" id="III.8.4"><strong> इस नय की दृष्टि में वाक्य संभव नहीं है। </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.8.4" id="III.8.4"><strong> इस नय की दृष्टि में वाक्य संभव नहीं है। </strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/90/3 | <span class="GRef">धवला 1/1,1,1/90/3 </span> <span class="SanskritText">न पदानां...परस्परव्यपेक्षाप्यस्ति वर्णार्थसंख्याकालादिभिर्भिन्नानां पदानां भिन्नपदापेक्षायोगात् । ततो न वाक्यमप्यस्तीति सिद्धम् । </span>=<span class="HindiText">शब्दों में परस्पर सापेक्षता भी नहीं है, क्योंकि वर्ण अर्थ संख्या और काल आदि के भेद से भेद को प्राप्त हुए पदों के दूसरे पदों की अपेक्षा नहीं बन सकती। जब कि एक पद दूसरे पद की अपेक्षा नहीं रखता है, तो इस नय की दृष्टि में वाक्य भी नहीं बन सकता है यह बात सिद्ध हो जाती है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.8.5" id="III.8.5"><strong> इस नय में | <li><span class="HindiText" name="III.8.5" id="III.8.5"><strong> इस नय में पद समास संभव नहीं </strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/13-14/201/242/1 <span class="SanskritText">अस्मिन्नये न पदानां समासोऽस्ति; स्वरूपत: कालभेदेन च भिन्नानामेकत्वविरोधात् । न पदानामेककालवृत्तिसमास: क्रमोत्पन्नानां क्षणक्षयिणां तदनुपपत्ते:। नैकार्थे वृत्ति: समास: भिन्नपदानामेकार्थे वृत्त्यनुपपत्ते:। </span>=<span class="HindiText">इस नय में पदों का समास नहीं होता है; क्योंकि, जो पद काल व स्वरूप की अपेक्षा भिन्न हैं, उन्हें एक मानने में विरोध आता है। | <span class="GRef">कषायपाहुड़/1/13-14/201/242/1</span> <span class="SanskritText">अस्मिन्नये न पदानां समासोऽस्ति; स्वरूपत: कालभेदेन च भिन्नानामेकत्वविरोधात् । न पदानामेककालवृत्तिसमास: क्रमोत्पन्नानां क्षणक्षयिणां तदनुपपत्ते:। नैकार्थे वृत्ति: समास: भिन्नपदानामेकार्थे वृत्त्यनुपपत्ते:। </span>=<span class="HindiText">इस नय में पदों का समास नहीं होता है; क्योंकि, जो पद काल व स्वरूप की अपेक्षा भिन्न हैं, उन्हें एक मानने में विरोध आता है। एक काल वृत्ति समास कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पद क्रम से उत्पन्न होते हैं और क्षणध्वंसी हैं। एकार्थ वृत्ति समास कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न पदों का एक अर्थ में रहना बन नहीं सकता। <span class="GRef">(धवला 1/1,1,1/90/3)</span> </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.8.6" id="III.8.6"><strong> इस नय में | <li><span class="HindiText" name="III.8.6" id="III.8.6"><strong> इस नय में वर्ण समास तक भी संभव नहीं</strong> | ||
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<br> धवला 1/4,1,45/190/7 <span class="SanskritText"> वाचकगतवर्णभेदेनार्थस्य...भेदक: एवंभूत:।</strong></span> =<span class="HindiText">जो शब्दगत ‘घ’ ‘ट’ आदि वर्णों के भेद से अर्थ का भेदक है, वह एवंभूतनय है। </span> कषायपाहुड़/1/13-14/201/242/4 <span class="SanskritText"> न वर्णसमासोऽप्यस्ति तत्रापि पदसमासोक्तदोषप्रसंगात् । तत एक एव वर्ण एकार्थवाचक इति पदगतवर्णमात्रार्थ: एकार्थ इत्येवंभूताभिप्रायवान् एवंभूतनय:। </span>=<span class="HindiText">इस नय में जिस प्रकार पदों का समास नहीं बन सकता, उसी प्रकार ‘घ’ ‘ट’ आदि अनेक वर्णों का भी समास नहीं बन सकता है, क्योंकि ऊपर पदसमास मानने में जो दोष कह आये हैं, वे सब दोष यहाँ भी प्राप्त होते हैं। इसलिए एवंभूतनय की दृष्टि में एक ही वर्ण एक अर्थ का वाचक है। अत: ‘घट’ आदि पदों में रहने वाला घ्, अ, ट्, अ आदि वर्णमात्र अर्थ ही एकार्थ हैं, इस प्रकार के अभिप्राय वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। (विशेष तथा समन्वय देखें [[ आगम#4.4 | आगम - 4.4]]) <br /> | <br> <span class="GRef">धवला 1/4,1,45/190/7</span> <span class="SanskritText"> वाचकगतवर्णभेदेनार्थस्य...भेदक: एवंभूत:।</strong></span> =<span class="HindiText">जो शब्दगत ‘घ’ ‘ट’ आदि वर्णों के भेद से अर्थ का भेदक है, वह एवंभूतनय है। </span> <span class="GRef">कषायपाहुड़/1/13-14/201/242/4</span> <span class="SanskritText"> न वर्णसमासोऽप्यस्ति तत्रापि पदसमासोक्तदोषप्रसंगात् । तत एक एव वर्ण एकार्थवाचक इति पदगतवर्णमात्रार्थ: एकार्थ इत्येवंभूताभिप्रायवान् एवंभूतनय:। </span>=<span class="HindiText">इस नय में जिस प्रकार पदों का समास नहीं बन सकता, उसी प्रकार ‘घ’ ‘ट’ आदि अनेक वर्णों का भी समास नहीं बन सकता है, क्योंकि ऊपर पदसमास मानने में जो दोष कह आये हैं, वे सब दोष यहाँ भी प्राप्त होते हैं। इसलिए एवंभूतनय की दृष्टि में एक ही वर्ण एक अर्थ का वाचक है। अत: ‘घट’ आदि पदों में रहने वाला घ्, अ, ट्, अ आदि वर्णमात्र अर्थ ही एकार्थ हैं, इस प्रकार के अभिप्राय वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। (विशेष तथा समन्वय देखें [[ आगम#4.4 | आगम - 4.4]]) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.8.7" id="III.8.7"><strong> समभिरूढ व एवंभूत में अंतर </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.8.7" id="III.8.7"><strong> समभिरूढ व एवंभूत में अंतर </strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/78/266/7 <span class="SanskritText"> समभिरूढो हि शकनक्रियायां सत्यामसत्यां च देवराजार्थस्य शक्रव्यपदेशमभिप्रैति, पशोर्गमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्तथारूढे: सद्भावात् । एवंभूतस्तु शकनक्रियापरिणतमेवार्थं तत्क्रियाकाले शक्रमभिप्रैति नान्यदा।</span> =<span class="HindiText">समभिरूढनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया के होने पर अथवा नहीं होने पर भी देवों के राजा इंद्र को ‘शक्र’ कहने का, तथा गमन क्रिया के होने पर अथवा न होने पर भी अर्थात् बैठी या सोती हुई अवस्था में भी पशुविशेष को ‘गो’ कहने का अभिप्राय रखता है, क्योंकि तिस प्रकार रूढि का सद्भाव पाया जाता है। किंतु एवंभूतनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया से परिणत ही देवराज को ‘शक्र’ और गमन क्रिया से परिणत ही पशुविशेष को ‘गौ’ कहने का अभिप्राय रखता है, अन्य अवस्थाओं में नहीं। <br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/78/266/7</span> <span class="SanskritText"> समभिरूढो हि शकनक्रियायां सत्यामसत्यां च देवराजार्थस्य शक्रव्यपदेशमभिप्रैति, पशोर्गमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्तथारूढे: सद्भावात् । एवंभूतस्तु शकनक्रियापरिणतमेवार्थं तत्क्रियाकाले शक्रमभिप्रैति नान्यदा।</span> =<span class="HindiText">समभिरूढनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया के होने पर अथवा नहीं होने पर भी देवों के राजा इंद्र को ‘शक्र’ कहने का, तथा गमन क्रिया के होने पर अथवा न होने पर भी अर्थात् बैठी या सोती हुई अवस्था में भी पशुविशेष को ‘गो’ कहने का अभिप्राय रखता है, क्योंकि तिस प्रकार रूढि का सद्भाव पाया जाता है। किंतु एवंभूतनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया से परिणत ही देवराज को ‘शक्र’ और गमन क्रिया से परिणत ही पशुविशेष को ‘गौ’ कहने का अभिप्राय रखता है, अन्य अवस्थाओं में नहीं। <br /> | ||
नोट‒(यद्यपि दोनों ही नयें व्युत्पत्ति भेद से शब्द के अर्थ में भेद मानती हैं, परंतु समभिरूढनय तो उस व्युत्पत्ति को सामान्य रूप से अंगीकार करके वस्तु की हर अवस्था में उसे स्वीकार कर लेता है। परंतु एवंभूत तो उस व्युत्पत्ति का अर्थ तभी ग्रहण करता है, जब कि वस्तु तत्क्रिया परिणत होकर साक्षात् रूप से उस व्युत्पत्ति की विषय बन रही हो ( स्याद्वादमंजरी/28/315 .3) </span></li> | नोट‒(यद्यपि दोनों ही नयें व्युत्पत्ति भेद से शब्द के अर्थ में भेद मानती हैं, परंतु समभिरूढनय तो उस व्युत्पत्ति को सामान्य रूप से अंगीकार करके वस्तु की हर अवस्था में उसे स्वीकार कर लेता है। परंतु एवंभूत तो उस व्युत्पत्ति का अर्थ तभी ग्रहण करता है, जब कि वस्तु तत्क्रिया परिणत होकर साक्षात् रूप से उस व्युत्पत्ति की विषय बन रही हो <span class="GRef">(स्याद्वादमंजरी/28/315 .3)</span> </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.8.8" id="III.8.8"><strong> एवंभूतनयाभास का लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.8.8" id="III.8.8"><strong> एवंभूतनयाभास का लक्षण </strong></span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/319/3 <span class="SanskritText"> क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपंस्तु तदाभास:। यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यम्, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तक्रियाशून्यत्वात् पटवद् इत्यादि:। </span>=<span class="HindiText">क्रियापरिणति के समय से अतिरिक्त अन्य समय में पदार्थ को उस शब्द का वाच्य सर्वथा न समझना एवंभूतनयाभास है। जैसे‒जल लाने आदि की क्रियारहित खाली रखा हुआ घड़ा बिलकुल भी ‘घट’ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पट की भाँति वह भी घटन क्रिया से शून्य है।</span></li> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/319/3</span> <span class="SanskritText"> क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपंस्तु तदाभास:। यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यम्, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तक्रियाशून्यत्वात् पटवद् इत्यादि:। </span>=<span class="HindiText">क्रियापरिणति के समय से अतिरिक्त अन्य समय में पदार्थ को उस शब्द का वाच्य सर्वथा न समझना एवंभूतनयाभास है। जैसे‒जल लाने आदि की क्रियारहित खाली रखा हुआ घड़ा बिलकुल भी ‘घट’ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पट की भाँति वह भी घटन क्रिया से शून्य है।</span></li> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.1.1.1" id="IV.1.1.1"><strong>द्रव्य ही प्रयोजन जिसका</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.1.1.1" id="IV.1.1.1"><strong>द्रव्य ही प्रयोजन जिसका</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/6/21/1 <span class="SanskritText"> द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य जिसका प्रयोजन है, सो द्रव्यार्थिक है। ( राजवार्तिक/1/33/1/95/8 ); ( धवला 1/1,1,1/83/11 ) ( धवला 9/4,1,45/170/1 ) ( कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/6 ) ( आलापपद्धति/9 ) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19 )।<br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/6/21/1</span> <span class="SanskritText"> द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य जिसका प्रयोजन है, सो द्रव्यार्थिक है। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/1/95/8)</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/83/11)</span> <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/170/1)</span> <span class="GRef">(कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/6)</span> <span class="GRef">(आलापपद्धति/9)</span> <span class="GRef">(नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19)</span>।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.1.1.2" id="IV.1.1.2"><strong> पर्याय को गौण करके द्रव्य का ग्रहण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.1.1.2" id="IV.1.1.2"><strong> पर्याय को गौण करके द्रव्य का ग्रहण </strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 2/1/6/ श्लो.19/361 <span class="SanskritGatha">तत्रांशिन्यपि नि:शेषधर्माणां गुणतागतौ। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपत:।19।</span> =<span class="HindiText">जब सब अंशों को गौणरूप से तथा अंशी को मुख्यरूप से जानना इष्ट हो, तब द्रव्यार्थिकनय का व्यापार होता है।</span><br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 2/1/6/ श्लो.19/361</span> <span class="SanskritGatha">तत्रांशिन्यपि नि:शेषधर्माणां गुणतागतौ। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपत:।19।</span> =<span class="HindiText">जब सब अंशों को गौणरूप से तथा अंशी को मुख्यरूप से जानना इष्ट हो, तब द्रव्यार्थिकनय का व्यापार होता है।</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/190 <span class="PrakritText">पज्जयगउणं किच्चा दव्वंपि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ...।190।</span>=<span class="HindiText">पर्याय को गौण करके जो इस लोक में द्रव्य को ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/190</span> <span class="PrakritText">पज्जयगउणं किच्चा दव्वंपि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ...।190।</span>=<span class="HindiText">पर्याय को गौण करके जो इस लोक में द्रव्य को ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/13</span> <span class="SanskritText">द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु में जो द्रव्य को मुख्यरूप से अनुभव करावे सो द्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> न.दी./3/82/125</span><span class="SanskritText"> तत्र द्रव्यार्थिकनय: द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकांतं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थं विभज्य पर्यायार्थिकनयविषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमभ्यनुजानन् स्वविषयं द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, नयांतरविषयसापेक्ष: सन्नय: इत्यभिधानात् । यथा सुवर्णमानयेति। अत्र द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्णद्रव्यानयनचोदनायां कटकं कुंडलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय प्रमाण के विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानेकात्मक अनेकांतस्वरूप अर्थ का विभाग करके पर्यायार्थिकनय के विषयभूत भेद को गौण करता हुआ, उसकी स्थितिमात्र को स्वीकार कर अपने विषयभूत द्रव्य को अभेदरूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता। इसलिए दूसरे नय के विषय की अपेक्षा रखने वाले नय को सद्नय कहा है। जैसे‒यह कहना कि ‘सोना लाओ’। यहाँ द्रव्यार्थिकनय के अभिप्राय से ‘सोना लाओ’ के कहने पर लाने वाला कड़ा, कुंडल, केयूर (या सोने की डली) इनमें से किसी को भी ले आने से कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोना रूप से कड़ा आदि में कोई भेद नहीं है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="IV.1.2" id="IV.1.2"><strong> द्रव्यार्थिकनय वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.1.2" id="IV.1.2"><strong> द्रव्यार्थिकनय वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/140/9 <span class="SanskritText">द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग: अनुवृत्तिरियर्त्थ:। तद्विषयो द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। और इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिकनय है। ( तत्त्वसार/1/39 )।</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/140/9</span> <span class="SanskritText">द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग: अनुवृत्तिरियर्त्थ:। तद्विषयो द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। और इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिकनय है। <span class="GRef">(तत्त्वसार/1/39 )।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/13-14/ | <span class="GRef">कषायपाहुड़/1/13-14/ गाथा 107/205/252</span><span class="PrakritGatha"> पज्जवणयवाक्कंतं वत्थू [त्थं] द्रव्वट्ठियस्स वयणिज्जं। जाव दवियोपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।107। </span>=<span class="HindiText">जिस के पश्चात् विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसा द्रव्योपयोग अर्थात् सामान्यज्ञान जहाँ तक होता है, वहाँ तक वह वस्तु द्रव्यार्थिकनय का विषय है। तथा वह पर्यायार्थिकनय से आक्रांत है। अथवा जो वस्तु पर्यायार्थिकनय के द्वारा ग्रहण करके छोड़ दी गयी है, वह द्रव्यार्थिकनय का विषय है। <span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि/1/6/20/10)</span>; <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/58/42)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 4/1/33/3/215/10</span> <span class="SanskritText"> द्रव्यविषयो द्रव्यार्थ:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थ है। <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/189)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/7</span> <span class="SanskritText"> तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">तद्भावलक्षण वाले सामान्य से अर्थात् पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले ऊर्ध्वता सामान्य से जो अभिन्न हैं, और सादृश्य लक्षण सामान्य से अर्थात् अनेक समान जातीय पदार्थों में पाये जाने वाले तिर्यग्सामान्य से जो कथंचित् अभिन्न है, ऐसी वस्तु को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/169/11)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/114</span> <span class="SanskritText">पर्यायार्थिकमेकांतनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यंङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यमेकमवलोकयतामनवलोकितविशेषाणां तत्सर्वजीवद्रव्यमिति प्रतिभाति।</span> =<span class="HindiText">पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, तिर्यंक्त्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीव सामान्य को देखने वाले और विशेषों को न देखने वाले जीवों को ‘यह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/269</span> <span class="PrakritText"> जो साहदि सामण्णं अविणाभूदं विसेसरूवेहिं। णाणाजुत्तिबलादो दव्वत्थो सो णओ होदि।</span>=<span class="HindiText">जो नय वस्तु के विशेषरूपों से अविनाभूत सामान्यरूप को नाना युक्तियों के बल से साधता है, वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="IV.1.3" id="IV.1.3"><strong> द्रव्य की अपेक्षा विषय की अद्वैतता</strong><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.1.3" id="IV.1.3"><strong> द्रव्य की अपेक्षा विषय की अद्वैतता</strong><br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.1.3.1" id="IV.1.3.1"><strong>द्रव्य से भिन्न पर्याय नाम की कोई वस्तु नहीं</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.1.3.1" id="IV.1.3.1"><strong>द्रव्य से भिन्न पर्याय नाम की कोई वस्तु नहीं</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/1/94/25 <span class="SanskritText">द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव नातोऽन्ये भावविकारा:, नाप्यभाव: तद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरिति द्रव्यास्तिक:। ...अथवा, द्रव्यमेवार्थोऽस्य न गुणकर्मणी तदवस्थारूपत्वादिति द्रव्यार्थिक:।...।</span>=<span class="HindiText">द्रव्य का होना ही द्रव्य का अस्तित्व है उससे अन्य भावविकार या पर्याय नहीं है, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यास्तिकनय है। अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ या विषय है, गुण व कर्म (क्रिया या पर्याय) नहीं, क्योंकि वे भी तदवस्थारूप अर्थात् द्रव्यरूप ही हैं, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/1/94/25</span> <span class="SanskritText">द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव नातोऽन्ये भावविकारा:, नाप्यभाव: तद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरिति द्रव्यास्तिक:। ...अथवा, द्रव्यमेवार्थोऽस्य न गुणकर्मणी तदवस्थारूपत्वादिति द्रव्यार्थिक:।...।</span>=<span class="HindiText">द्रव्य का होना ही द्रव्य का अस्तित्व है उससे अन्य भावविकार या पर्याय नहीं है, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यास्तिकनय है। अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ या विषय है, गुण व कर्म (क्रिया या पर्याय) नहीं, क्योंकि वे भी तदवस्थारूप अर्थात् द्रव्यरूप ही हैं, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/1 <span class="SanskritText">द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् । न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते; सत्तादिव्यतिरिक्तपर्यायानुपलंभात् । न चोत्पत्तिरप्यस्ति; असत: खरविषाणस्योत्पत्तिविरोधात् ।... एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। पर्याय द्रव्य से पृथक् उत्पन्न होती है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्तादिरूप द्रव्य से पृथक् पर्यायें नहीं पायी जाती हैं। तथा सत्तादिरूप द्रव्य से उनको पृथक् मानने पर वे | <span class="GRef">कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/1</span> <span class="SanskritText">द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् । न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते; सत्तादिव्यतिरिक्तपर्यायानुपलंभात् । न चोत्पत्तिरप्यस्ति; असत: खरविषाणस्योत्पत्तिविरोधात् ।... एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। पर्याय द्रव्य से पृथक् उत्पन्न होती है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्तादिरूप द्रव्य से पृथक् पर्यायें नहीं पायी जाती हैं। तथा सत्तादिरूप द्रव्य से उनको पृथक् मानने पर वे असत् रूप हो जाती हैं, अत: उनकी उत्पत्ति भी नहीं बन सकती है, क्योंकि खर विषाण की तरह असत् की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। ऐसा द्रव्य जिस नय का प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | ||
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<li class="HindiText" name="IV.1.3.2" id="IV.1.3.2"><strong> वस्तु के सब धर्म अभिन्न व एकरस हैं</strong><br /> | <li class="HindiText" name="IV.1.3.2" id="IV.1.3.2"><strong> वस्तु के सब धर्म अभिन्न व एकरस हैं</strong><br /> | ||
देखें [[ सप्तभंगी#5.8 | सप्तभंगी - 5.8 ]](द्रव्यार्थिक नय से काल, | देखें [[ सप्तभंगी#5.8 | सप्तभंगी - 5.8 ]](द्रव्यार्थिक नय से काल, आत्म स्वरूप आदि 8 अपेक्षाओं से द्रव्य के सर्व धर्मों में अभेद वृत्ति है)। और भी देखो‒ [[नय#IV.2.3.1 | नय - IV.2.3.1 ]], [[नय#IV.2.6.3 | नय - IV.2.6.3 ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.1.4" id="IV.1.4"><strong> क्षेत्र की अपेक्षा विषय की अद्वैतता है।</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.1.4" id="IV.1.4"><strong> क्षेत्र की अपेक्षा विषय की अद्वैतता है।</strong></span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/6 <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकनयेन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि भवंति, जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि। </span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं और जीव पुद्गल व काल ये तीन द्रव्य अनेक अनेक हैं। (देखें [[ द्रव्य#3.4 | द्रव्य - 3.4]])।<br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/6</span> <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकनयेन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि भवंति, जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि। </span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं और जीव पुद्गल व काल ये तीन द्रव्य अनेक अनेक हैं। (देखें [[ द्रव्य#3.4 | द्रव्य - 3.4]])।<br /> | ||
और भी देखो [[नय#IV.2.6.3 | नय - IV.2.6.3 ]] भेद निरपेक्ष | और भी देखो [[नय#IV.2.6.3 | नय - IV.2.6.3 ]] भेद निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश व जीव इन चारों में एक प्रदेशीपना है।<br /> | ||
देखें [[ नय#IV.2.3.2 | नय - IV.2.3.2 ]]प्रत्येक द्रव्य अपने अपने में स्थित है।<br /> | देखें [[ नय#IV.2.3.2 | नय - IV.2.3.2 ]]प्रत्येक द्रव्य अपने अपने में स्थित है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.1.5" id="IV.1.5"><strong> काल की अपेक्षा विषय की अद्वैतता </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.1.5" id="IV.1.5"><strong> काल की अपेक्षा विषय की अद्वैतता </strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/ | <span class="GRef">धवला 1/1,1,1/ गाथा 8/13</span> <span class="PrakritText">दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पणमविणट्ठं।8। </span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाववाले हैं। <span class="GRef">( धवला 4/1,5,4/ गाथा 29/337)</span> <span class="GRef">(धवला 9/4,1,49/ गाथा 94/244)</span> <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/ गाथा 95/204/248)</span> <span class="GRef">( पंचास्तिकाय/11)</span> <span class="GRef">(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 247 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/13-14/180/216/1</span> <span class="SanskritText">अयं सर्वोऽपि द्रव्यप्रस्तार: सदादि परमाणुपर्यंतो नित्य:; द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् ।...सत: आविर्भाव एव उत्पाद: तस्यैव तिरोभाव एव विनाश:, इति द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तुनित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेत् स्थितम् । एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">सत् से लेकर परमाणु पर्यंत ये सब द्रव्यप्रस्तार नित्य हैं, क्योंकि द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। सत् का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है ऐसा समझना चाहिए। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से समस्त वस्तुएँ नित्य हैं। इसलिए न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है। यह निश्चय हो जाता है। इस प्रकार का द्रव्य जिस नय का प्रयोजन या विषय है, वह द्रव्यार्थिकनय है। <span class="GRef">(धवला 1/1,1,1/84/7)</span>।<br /> | |||
और भी देखो‒[[नय#IV.2.3.3 | नय - IV.2.3.3 ]], [[नय#IV.2.6.2 | नय - IV.2.6.2 ]] ।<br /> | और भी देखो‒[[नय#IV.2.3.3 | नय - IV.2.3.3 ]], [[नय#IV.2.6.2 | नय - IV.2.6.2 ]] ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.1.6" id="IV.1.6"><strong> भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.1.6" id="IV.1.6"><strong> भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/1/95/4 <span class="SanskritText">अथवा अर्यते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थ: कार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवार्थोऽस्य कारणमेव कार्यं नार्थांतरत्वम्, न कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वांगुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:।...अथवा अर्थनमर्थ: प्रयोजनम्, द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिंगदर्शनस्य निह्नोतुमशक्यत्वादिति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">अथवा जो प्राप्त होता है या निष्पन्न होता है, ऐसा कार्य ही अर्थ है। और परिणमन करता है या प्राप्त करता है ऐसा द्रव्य कारण है। द्रव्य ही उस कारण का अर्थ या कार्य है। अर्थात् कारण ही कार्य है, जो कार्य से भिन्न नहीं है। कारण व कार्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है। उंगली व उसकी पोरी की भाँति दोनों एकाकार हैं। ऐसा द्रव्यार्थिकनय कहता है। अथवा अर्थन या अर्थ का अर्थ प्रयोजन है। द्रव्य ही जिसका अर्थ या प्रयोजन है सो द्रव्यार्थिक नय है। इसके विचार में अन्वय विज्ञान, अनुगताकार वचन और अनुगत धर्मों का अर्थात् ज्ञान, शब्द व अर्थ तीनों का लोप नहीं किया जा सकता। तीनों एकरूप हैं। </span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/1/95/4</span> <span class="SanskritText">अथवा अर्यते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थ: कार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवार्थोऽस्य कारणमेव कार्यं नार्थांतरत्वम्, न कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वांगुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:।...अथवा अर्थनमर्थ: प्रयोजनम्, द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिंगदर्शनस्य निह्नोतुमशक्यत्वादिति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">अथवा जो प्राप्त होता है या निष्पन्न होता है, ऐसा कार्य ही अर्थ है। और परिणमन करता है या प्राप्त करता है ऐसा द्रव्य कारण है। द्रव्य ही उस कारण का अर्थ या कार्य है। अर्थात् कारण ही कार्य है, जो कार्य से भिन्न नहीं है। कारण व कार्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है। उंगली व उसकी पोरी की भाँति दोनों एकाकार हैं। ऐसा द्रव्यार्थिकनय कहता है। अथवा अर्थन या अर्थ का अर्थ प्रयोजन है। द्रव्य ही जिसका अर्थ या प्रयोजन है सो द्रव्यार्थिक नय है। इसके विचार में अन्वय विज्ञान, अनुगताकार वचन और अनुगत धर्मों का अर्थात् ज्ञान, शब्द व अर्थ तीनों का लोप नहीं किया जा सकता। तीनों एकरूप हैं। </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/180/216/2 <span class="SanskritText">न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते ...असदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभावाच्च।...एतद्द्रव्यमर्थं प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य से पृथग्भूत पर्यायों की उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि असत् पदार्थ किया नहीं जा सकता; कार्य को उत्पन्न करने के लिए उपादानकारण का ग्रहण किया जाता है; सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पायी जाती; समर्थ कारण भी शक्य कार्य को ही करते हैं; तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है। ऐसा द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/180/216/2</span> <span class="SanskritText">न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते ...असदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभावाच्च।...एतद्द्रव्यमर्थं प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य से पृथग्भूत पर्यायों की उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि असत् पदार्थ किया नहीं जा सकता; कार्य को उत्पन्न करने के लिए उपादानकारण का ग्रहण किया जाता है; सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पायी जाती; समर्थ कारण भी शक्य कार्य को ही करते हैं; तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है। ऐसा द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | ||
और भी दे.‒[[नय#IV.2.3.4 | नय - IV.2.3.4 ]]; [[ नय#IV.2.6.7 | नय - IV.2.6.7]], [[नय#IV.2.6.10 | 10 ]]।<br /> | और भी दे.‒[[नय#IV.2.3.4 | नय - IV.2.3.4 ]]; [[ नय#IV.2.6.7 | नय - IV.2.6.7]], [[नय#IV.2.6.10 | 10 ]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.1.7" id="IV.1.7"><strong>इसी से यह नय वास्तव में एक, अवक्तव्य व निर्विकल्प है </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.1.7" id="IV.1.7"><strong>इसी से यह नय वास्तव में एक, अवक्तव्य व निर्विकल्प है </strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/ | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/ गाथा 107/205</span> <span class="PrakritText">जाव दविओपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।107। </span>=<span class="HindiText">जिसके पीछे विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसे अंतिमविशेष तक द्रव्योपयोग की प्रवृत्ति होती है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/518 <span class="SanskritText"> भवति द्रव्यार्थिक इति नय: स्वधात्वर्थसंज्ञकश्चैक: </span>=<span class="HindiText">वह अपने धात्वर्थ के अनुसार संज्ञावाला द्रव्यार्थिक नय एक है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/518</span> <span class="SanskritText"> भवति द्रव्यार्थिक इति नय: स्वधात्वर्थसंज्ञकश्चैक: </span>=<span class="HindiText">वह अपने धात्वर्थ के अनुसार संज्ञावाला द्रव्यार्थिक नय एक है।<br /> | ||
और भी देखो‒[[नय#V.2 | नय - V.2]]<br /> | और भी देखो‒[[नय#V.2 | नय - V.2]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.2" id="IV.2"><strong> शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय निर्देश</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2" id="IV.2"><strong> शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय निर्देश</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/170/5 </span> <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:...अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:।</span> =<span class="HindiText">संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक है और व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक। <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/1)</span> <span class="GRef">(तत्त्वसार/1/41 )</span>।</span><br /> | |||
आलापपद्धति/9 <span class=" | <span class="GRef">आलापपद्धति/9</span> <span class="SanskritText">शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदो।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध निश्चय व अशुद्ध निश्चय दोनों द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.2.2.1" id="IV.2.2.1"><strong> शुद्ध, एक व वचनातीत तत्त्व का प्रयोजक </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.2.1" id="IV.2.2.1"><strong> शुद्ध, एक व वचनातीत तत्त्व का प्रयोजक </strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 | <span class="GRef">आलापपद्धति/9 </span> <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध द्रव्य ही है अर्थ और प्रयोजन जिसका सो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.43<span class="SanskritText"> शुद्धद्रव्यार्थेन चरतीति शुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">जो शुद्धद्रव्य के अर्थरूप से आचरण करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.43</span><span class="SanskritText"> शुद्धद्रव्यार्थेन चरतीति शुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">जो शुद्धद्रव्य के अर्थरूप से आचरण करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | ||
<span class="GRef">पद्मनन्दी पंचविंशति/1/157</span> <span class="SanskritText">शुद्धं वागतिवर्तितत्त्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति...। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध तत्त्व वचन के अगोचर है, ऐसे शुद्ध तत्त्व को ग्रहण करने वाला नय शुद्धादेश है। <span class="GRef">(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/747)</span>।</span><br /> | |||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/33,133 <span class="SanskritText">अथ शुद्धनयादेशाच्छुद्धश्चैकविधोऽपि य:।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध नय की अपेक्षा से जीव एक तथा शुद्ध है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/33,133</span> <span class="SanskritText">अथ शुद्धनयादेशाच्छुद्धश्चैकविधोऽपि य:।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध नय की अपेक्षा से जीव एक तथा शुद्ध है।<br /> | ||
और भी देखें [[ नय#III.4 | नय - III.4]]‒(सत्मात्र है अन्य कुछ नहीं)।<br /> | और भी देखें [[ नय#III.4 | नय - III.4]]‒(सत्मात्र है अन्य कुछ नहीं)।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.2.3.1" id="IV.2.3.1"><strong>द्रव्य की अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.2.3.1" id="IV.2.3.1"><strong>द्रव्य की अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य</strong></span><br /> | ||
समयसार/14 <span class="PrakritGatha">जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।14। </span>=<span class="HindiText">जो नय आत्मा को बंध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे पाँच भावरूप से देखता है, उसे हे शिष्य ! तू शुद्धनय जान।14। ( | <span class="GRef">समयसार/14</span> <span class="PrakritGatha">जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।14। </span>=<span class="HindiText">जो नय आत्मा को बंध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे पाँच भावरूप से देखता है, उसे हे शिष्य ! तू शुद्धनय जान।14। <span class="GRef">(पद्मनन्दि पंचविंशति/11/17)।</span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/170/5 | <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/170/5 </span> <span class="SanskritText">सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलंकाभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:।</span> =<span class="HindiText">जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी अद्वैतता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। (विशेष देखें [[ नय#III.4 | नय - III.4]]) <span class="GRef">(कषायपाहुड़/1/13-14/182/219/1)</span> <span class="GRef">( न्यायदीपिका/3/84/128)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/125</span><span class="SanskritText"> शुद्धद्रव्यनिरूपणायां परद्रव्यसंपर्कासंभवात्पर्यायाणां द्रव्यांत:प्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते। </span>=<span class="HindiText">शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य के संपर्क का असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर लीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है।<br /> | |||
और भी देखो [[नय#V.1.2 | नय - V.1.2]] (निश्चय से न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है (आत्मा तो एक ज्ञायक मात्र है)।<br /> | और भी देखो [[नय#V.1.2 | नय - V.1.2]] (निश्चय से न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है (आत्मा तो एक ज्ञायक मात्र है)।<br /> | ||
और भी देखो [[नय#IV.1.3 | नय - IV.1.3 ]] (द्रव्यार्थिक नय सामान्य में द्रव्य का अद्वैत)।<br /> | और भी देखो [[नय#IV.1.3 | नय - IV.1.3 ]] (द्रव्यार्थिक नय सामान्य में द्रव्य का अद्वैत)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.2.3.2" id="IV.2.3.2"><strong> क्षेत्र की अपेक्षा स्व में स्थिति</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.3.2" id="IV.2.3.2"><strong> क्षेत्र की अपेक्षा स्व में स्थिति</strong></span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश/ | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश/ मूल/1/29/32</span> <span class="PrakritGatha">देहादेहिं जो वसइ भेयाभेयणएण। सो अप्पा मुणि जीव तुहुं किं अण्णें बहुएण।29।</span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/2 | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश टीका/2 </span> <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयनयेन तु अभेदनयेन स्वदेहाद्भिन्ने स्वात्मनि वसति य: तमात्मानं मन्यस्व। </span>=<span class="HindiText">जो व्यवहार नय से देह में तथा निश्चयनय से आत्मा में बसता है उसे ही हे जीव तू आत्मा जान।29। शुद्धनिश्चयनय अर्थात् अभेदनय से अपनी देह से भिन्न रहता हुआ वह निजात्मा में बसता है।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/19/58/2 <span class="SanskritText">सर्वद्रव्याणि निश्चयनयेन स्वकीयप्रदेशेषु तिष्ठंति।</span> =<span class="HindiText">सभी द्रव्य निश्चयनय से निज निज प्रदेशों में रहते हैं। और भी देखो‒[[नय#IV.1.4 | नय - IV.1.4 ]]; [[नय#IV.2.6.3 | नय - IV.2.6.3 ]]।<br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/19/58/2</span> <span class="SanskritText">सर्वद्रव्याणि निश्चयनयेन स्वकीयप्रदेशेषु तिष्ठंति।</span> =<span class="HindiText">सभी द्रव्य निश्चयनय से निज निज प्रदेशों में रहते हैं। और भी देखो‒[[नय#IV.1.4 | नय - IV.1.4 ]]; [[नय#IV.2.6.3 | नय - IV.2.6.3 ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.2.3.3" id="IV.2.3.3"><strong> काल की अपेक्षा उत्पादव्यय रहित है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.3.3" id="IV.2.3.3"><strong> काल की अपेक्षा उत्पादव्यय रहित है</strong></span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/11/27/19 | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/11/27/19 </span> <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन नरनारकादिविभावपरिणामोत्पत्तिविनाशरहितम् । </span>=<span class="HindiText">शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से नर नारकादि विभाव परिणामों की उत्पत्ति तथा विनाश से रहित है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/216 <span class="SanskritText">यदि वा शुद्धत्वनयान्नाप्युप्पादो व्ययोऽपि न ध्रौव्यम् । ...केवलं सदिति।216। </span>=<span class="HindiText">शुद्धनय की अपेक्षा न उत्पाद है, न व्यय है और न ध्रौव्य है, केवल सत् है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/216</span> <span class="SanskritText">यदि वा शुद्धत्वनयान्नाप्युप्पादो व्ययोऽपि न ध्रौव्यम् । ...केवलं सदिति।216। </span>=<span class="HindiText">शुद्धनय की अपेक्षा न उत्पाद है, न व्यय है और न ध्रौव्य है, केवल सत् है।<br /> | ||
और भी देखो‒[[नय#IV.1.5 | नय - IV.1.5 ]]; [[नय#IV.2.6.2 | नय - IV.2.6.2 ]]।<br /> | और भी देखो‒[[नय#IV.1.5 | नय - IV.1.5 ]]; [[नय#IV.2.6.2 | नय - IV.2.6.2 ]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.2.3.4" id="IV.2.3.4"><strong> भाव की अपेक्षा एक व शुद्ध स्वभावी है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.3.4" id="IV.2.3.4"><strong> भाव की अपेक्षा एक व शुद्ध स्वभावी है</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/8 | <span class="GRef">आलापपद्धति/8 </span> <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभाव:।</span> =<span class="HindiText">(पुद्गल का भी) शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से शुद्धस्वभाव है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परिशिष्ठ/नय नं.47</span> <span class="SanskritText">शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरूपाधिस्वभावम् । </span>=<span class="HindiText">शुद्धनय से आत्मा केवल मिट्टीमात्र की भाँति शुद्धस्वभाव वाला है। (घट, रामपात्र आदि की भाँति पर्यायगत स्वभाव वाला नहीं)।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति 1/4/21 <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव होता है।<br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति 1/4/21</span> <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव होता है।<br /> | ||
और भी देखें [[ नय#V.1.5.1 | नय - V.1.5.1 ]](जीव तो बंध व मोक्ष से अतीत है)।<br /> | और भी देखें [[ नय#V.1.5.1 | नय - V.1.5.1 ]](जीव तो बंध व मोक्ष से अतीत है)।<br /> | ||
और भी देखो आगे [[नय#IV.2.6.10 | नय - IV.2.6.10 ]]।<br /> | और भी देखो आगे [[नय#IV.2.6.10 | नय - IV.2.6.10 ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.2.4" id="IV.2.4"><strong> अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.4" id="IV.2.4"><strong> अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण </strong></span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/171/3 <span class="SanskritText"> पर्यायकलंकिततया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:। </span>=<span class="HindiText">(अनेक भेदों रूप) पर्यायकलंक से युक्त होने के कारण व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक है। (विशेष देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]]) ( कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/2 )।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/171/3 </span><span class="SanskritText"> पर्यायकलंकिततया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:। </span>=<span class="HindiText">(अनेक भेदों रूप) पर्यायकलंक से युक्त होने के कारण व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक है। (विशेष देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]]) <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/2)</span>।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">अशुद्धद्रव्यार्थिकेन अशुद्धस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय से (पुद्गल द्रव्य का) अशुद्ध स्वभाव है।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/8</span> <span class="SanskritText">अशुद्धद्रव्यार्थिकेन अशुद्धस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय से (पुद्गल द्रव्य का) अशुद्ध स्वभाव है।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 | <span class="GRef">आलापपद्धति/9 </span> <span class="SanskritText">अशुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध द्रव्य ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। <span class="GRef">( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.43)।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परिशिष्ठ/नय.नं.46</span> <span class="SanskritText">अशुद्धनयेन घटशराबविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधि स्वभावम् ।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध नय से आत्मा घट शराब आदि विशिष्ट (अर्थात् पर्यायकृत भेदों से विशिष्ट) मिट्टी मात्र की भाँति सोपाधिस्वभाव वाला है।</span><br /> | ||
<span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशतिका./1/17,27</span><span class="SanskritText">...इतरद्वाच्यं च तद्वाचकं।...प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कल्पितम् ।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध तत्त्व वचनगोचर है। उसका वाचक तथा भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध नय है।<br /> | |||
समयसार/ पं.जयचंद/6 अन्य परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषय हैं।<br /> | <span class="GRef">समयसार/ पं.जयचंद/6</span><span class="HindiText"> अन्य परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषय हैं।<br /> | ||
और भी देखो [[नय#V.4 | नय - V.4 ]] (व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होने से, उसके ही सर्व विकल्प अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विकल्प हैं।<br /> | और भी देखो [[नय#V.4 | नय - V.4 ]] (व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होने से, उसके ही सर्व विकल्प अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विकल्प हैं।<br /> | ||
और भी देखो [[नय#IV.2.6 | नय - IV.2.6 ]] (अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय पाँच विकल्पों द्वारा लक्षण किया गया है)।<br /> | और भी देखो [[नय#IV.2.6 | नय - IV.2.6 ]] (अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय पाँच विकल्पों द्वारा लक्षण किया गया है)।<br /> | ||
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</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.2.5" id="IV.2.5"><strong> द्रव्यार्थिक के दश भेदों का निर्देश</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.5" id="IV.2.5"><strong> द्रव्यार्थिक के दश भेदों का निर्देश</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 | <span class="GRef">आलापपद्धति/5 </span> <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकस्य दश भेदा:। कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको, ...उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिक:, ...भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिक:, ...कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको,...उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको,...स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको।</span> =<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय के 10 भेद हैं––1. कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; 2. उत्पादव्यय गौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक; 3. भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; 4. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; 5. उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; 6. भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक; 7. अन्वय द्रव्यार्थिक; 8. स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; 9. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; 10. परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.36-37)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.2.6" id="IV.2.6"><strong> द्रव्यार्थिक नयदशक के लक्षण</strong><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6" id="IV.2.6"><strong> द्रव्यार्थिक नयदशक के लक्षण</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.2.6.1" id="IV.2.6.1"> <strong>कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.1" id="IV.2.6.1"> <strong>कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक </strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारी जीवो सिद्धसदृक् शुद्धात्मा।</span>=<span class="HindiText">’संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्धात्मा है’ ऐसा कहना कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारी जीवो सिद्धसदृक् शुद्धात्मा।</span>=<span class="HindiText">’संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्धात्मा है’ ऐसा कहना कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/191</span> <span class="PrakritGatha"> कम्माणं मज्झगदं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं। भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो। </span>=<span class="HindiText">कर्मों से बँधे हुए जीव को जो सिद्धों के सदृश शुद्ध बताता है, वह कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय है। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 40/श्लो.3)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 3</span><span class="SanskritText"> मिथ्यात्वादिगुणस्थाने सिद्धत्वं वदति स्फुटं। कर्मभिर्निरपेक्षो य: शुद्धद्रव्यार्थिको हि स:।1।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में अर्थात् अशुद्ध भावों में स्थित जीव का जो सिद्धत्व कहता है वह कर्मनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/107 </span><span class="SanskritText"> कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ताग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्तम् ।</span>=<span class="HindiText">कर्मोपाधि निरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्धनिश्चयरूप द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा इन द्रव्य व भाव कर्मों से निर्मुक्त है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.2.6.2" id="IV.2.6.2"><strong> सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.2" id="IV.2.6.2"><strong> सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 | <span class="GRef">आलापपद्धति/5 </span> उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा, द्रव्यं नित्यम् ।=<span class="HindiText">उत्पादव्ययगौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक नय से द्रव्य नित्य या नित्यस्वभावी है। <span class="GRef">( आलापपद्धति/8)</span>, <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 4/श्लोक 2)</span></span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/192 <span class="PrakritGatha">उप्पादवयं गउणं किच्चा जो गहइ केवला सत्ता। भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहिओ समये।192।</span> =<span class="HindiText">उत्पाद और व्यय को गौण करके मुख्य रूप से जो केवल सत्ता को ग्रहण करता है, वह सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/40/ | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/192</span> <span class="PrakritGatha">उप्पादवयं गउणं किच्चा जो गहइ केवला सत्ता। भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहिओ समये।192।</span> =<span class="HindiText">उत्पाद और व्यय को गौण करके मुख्य रूप से जो केवल सत्ता को ग्रहण करता है, वह सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/40/ श्लोक 4)</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19</span> <span class="SanskritText">सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन पूर्वोक्तव्यंजनपर्यायेभ्य: सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्तजीवराशय: सर्वथा व्यतिरिक्ता एव।</span> =<span class="HindiText">सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के बल से, मुक्त तथा अमुक्त सभी जीव पूर्वोक्त (नर नारक आदि) व्यंजन पर्यायों से सर्वथा व्यतिरिक्त ही हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.2.6.3" id="IV.2.6.3"><strong> भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.3" id="IV.2.6.3"><strong> भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक </strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिको यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद् द्रव्यमभिन्नम् ।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिको यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद् द्रव्यमभिन्नम् ।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्षेणैकस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य निज गुणपर्यायों के स्वभाव से अभिन्न है तथा एक स्वभावी है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/श्लो.3)</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/8</span> <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्षेणैकस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य निज गुणपर्यायों के स्वभाव से अभिन्न है तथा एक स्वभावी है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/श्लो.3)</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/193 <span class="SanskritGatha">गुणगुणिआइचउक्के अत्थे जो णो करइ खलु भेयं। सुद्धो सो दव्वत्थो भेयवियप्पेण णिरवेक्खो।193।</span>=<span class="HindiText">गुण-गुणी और पर्याय-पर्यायी रूप ऐसे चार प्रकार के अर्थ में जो भेद नहीं करता है अर्थात् उन्हें एकरूप ही कहता है, वह भेदविकल्पों से निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है। (और भी देखें [[ नय#V.1.2 | नय - V.1.2]]) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/193</span> <span class="SanskritGatha">गुणगुणिआइचउक्के अत्थे जो णो करइ खलु भेयं। सुद्धो सो दव्वत्थो भेयवियप्पेण णिरवेक्खो।193।</span>=<span class="HindiText">गुण-गुणी और पर्याय-पर्यायी रूप ऐसे चार प्रकार के अर्थ में जो भेद नहीं करता है अर्थात् उन्हें एकरूप ही कहता है, वह भेदविकल्पों से निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है। (और भी देखें [[ नय#V.1.2 | नय - V.1.2]]) <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लोक 5)</span></span><br /> | ||
आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां धर्माधर्माकाशजीवानां चाखंडत्वादेकप्रदेशत्वम् ।</span>=<span class="HindiText">भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश और जीव इन चारों बहुप्रदेशी द्रव्यों के अखंडता होने के कारण एकप्रदेशपना है।<br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/8</span> <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां धर्माधर्माकाशजीवानां चाखंडत्वादेकप्रदेशत्वम् ।</span>=<span class="HindiText">भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश और जीव इन चारों बहुप्रदेशी द्रव्यों के अखंडता होने के कारण एकप्रदेशपना है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.2.6.4" id="IV.2.6.4"><strong>कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.2.6.4" id="IV.2.6.4"><strong>कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा। </span>=<span class="HindiText">कर्मजनित क्रोधादि भाव ही आत्मा है ऐसा कहना कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | |||
नयचक्र बृहद्/194 <span class="SanskritGatha">भावे सरायमादी सव्वे जीवम्मि जो दु जंपदि। सो हु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो।194। </span>=<span class="HindiText">जो सर्व रागादि भावों को जीव में कहता है अर्थात् जीव को रागादिस्वरूप कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/194</span> <span class="SanskritGatha">भावे सरायमादी सव्वे जीवम्मि जो दु जंपदि। सो हु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो।194। </span>=<span class="HindiText">जो सर्व रागादि भावों को जीव में कहता है अर्थात् जीव को रागादिस्वरूप कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लोक 1)</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/श्लोक 4</span> <span class="SanskritGatha">औदयिकादित्रिभावान् यो ब्रूते सर्वात्मसत्तया। कर्मोपाधिविशिष्टात्मा स्यादशुद्धस्तु निश्चय:।4।</span> =<span class="HindiText">जो नय औदयिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक इन तीन भावों को आत्मसत्ता से युक्त बतलाता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।<br /> | |||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.2.6.5" id="IV.2.6.5"><strong>उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.2.6.5" id="IV.2.6.5"><strong>उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथैकस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम् ।</span>=<span class="HindiText">उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य एक समय में ही उत्पाद व्यय व ध्रौव्य रूप इस प्रकार त्रयात्मक है। ( नयचक्र बृहद्/195 ), ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/ | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथैकस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम् ।</span>=<span class="HindiText">उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य एक समय में ही उत्पाद व्यय व ध्रौव्य रूप इस प्रकार त्रयात्मक है। <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/195)</span>, <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/श्लोक 5)</span> <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लोक 2)</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.2.6.6" id="IV.2.6.6"><strong> भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.6" id="IV.2.6.6"><strong> भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText"> भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथात्मनो ज्ञानदर्शनज्ञानादयो गुणा:।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText"> भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथात्मनो ज्ञानदर्शनज्ञानादयो गुणा:।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">भेदकल्पनासापेक्षेण चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम् । </span>=<span class="HindiText">भेद कल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा ज्ञान दर्शन आदि आत्मा के गुण हैं, (ऐसा गुण गुणी भेद होता है)–तथा धर्म, अधर्म, आकाश व जीव ये चारों द्रव्य अनेक प्रदेश स्वभाव वाले हैं।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/8</span> <span class="SanskritText">भेदकल्पनासापेक्षेण चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम् । </span>=<span class="HindiText">भेद कल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा ज्ञान दर्शन आदि आत्मा के गुण हैं, (ऐसा गुण गुणी भेद होता है)–तथा धर्म, अधर्म, आकाश व जीव ये चारों द्रव्य अनेक प्रदेश स्वभाव वाले हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/196</span> <span class="PrakritText">भेए सदि सबंधं गुणगुणियाईहि कुणदि जो दव्वे। सो वि अशुद्धो दिट्टी सहिओ सो भेदकप्पेण।</span>=<span class="HindiText">जो द्रव्य में गुण-गुणी भेद करके उनमें संबंध स्थापित करता है (जैसे द्रव्य गुण व पर्याय वाला है अथवा जीव ज्ञानवान् है) वह भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/5/ श्लोक 6 तथा/41/ख.3)</span> (विशेष देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]])<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="IV.2.6.7" id="IV.2.6.7"><strong> अन्वय द्रव्यार्थिक </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.7" id="IV.2.6.7"><strong> अन्वय द्रव्यार्थिक </strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको यथा, गुणपर्यायस्वभावं द्रव्यम् ।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको यथा, गुणपर्यायस्वभावं द्रव्यम् ।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">अन्वयद्रव्यार्थिकत्वेनैकस्याप्यनेकस्वभावत्वम् ।</span> =<span class="HindiText">अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है और इसीलिए इस नय की अपेक्षा एक द्रव्य के भी अनेक स्वभावीपना है। (जैसे–जीव ज्ञानस्वरूप है, जीव दर्शनस्वरूप है इत्यादि)</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/8</span> <span class="SanskritText">अन्वयद्रव्यार्थिकत्वेनैकस्याप्यनेकस्वभावत्वम् ।</span> =<span class="HindiText">अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है और इसीलिए इस नय की अपेक्षा एक द्रव्य के भी अनेक स्वभावीपना है। (जैसे–जीव ज्ञानस्वरूप है, जीव दर्शनस्वरूप है इत्यादि)</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/197 <span class="PrakritGatha"> निस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदव्वेहिं। विवहावणाहि जो सो अण्णयदव्वत्थिओ भणिदो।197। </span>=<span class="HindiText">नि:शेष स्वभावों को जो सर्व द्रव्यों के साथ अन्वय या अनुस्यूत रूप से कहता है वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/197</span> <span class="PrakritGatha"> निस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदव्वेहिं। विवहावणाहि जो सो अण्णयदव्वत्थिओ भणिदो।197। </span>=<span class="HindiText">नि:शेष स्वभावों को जो सर्व द्रव्यों के साथ अन्वय या अनुस्यूत रूप से कहता है वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लोक 4)</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.5/श्लोक 7</span> <span class="SanskritGatha">नि:शेषगुणपर्यायान् प्रत्येकं द्रव्यमब्रबीत् । सोऽन्वयो निश्चयो हेम यथा सत्कटकादिषु।7।</span> =<span class="HindiText">जो संपूर्ण गुणों और पर्यायों में से प्रत्येक को द्रव्य बतलाता है, वह विद्यमान कड़े वगैरह में अनुबद्ध रहने वाले स्वर्ण की भाँति अन्वयद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/101/140/11 <span class="SanskritText">पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्यार्थिकनय:। </span>= <span class="HindiText">जो पूर्वोक्त उत्पाद आदि तीन का तथा स्वसंवेदन ज्ञान दर्शन चारित्र इन तीन गुणों का (उपलक्षण से संपूर्ण गुण व पर्यायों का) आधार है वह अन्वय द्रव्य कहलाता है। वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है।<br /> | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/101/140/11</span> <span class="SanskritText">पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्यार्थिकनय:। </span>= <span class="HindiText">जो पूर्वोक्त उत्पाद आदि तीन का तथा स्वसंवेदन ज्ञान दर्शन चारित्र इन तीन गुणों का (उपलक्षण से संपूर्ण गुण व पर्यायों का) आधार है वह अन्वय द्रव्य कहलाता है। वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.2.6.8" id="IV.2.6.8"><strong>स्वद्रव्यादि ग्राहक</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.2.6.8" id="IV.2.6.8"><strong>स्वद्रव्यादि ग्राहक</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति।</span> =<span class="HindiText">स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव इस स्वचतुष्टय से ही द्रव्य का अस्तित्व है या इन चारों रूप ही द्रव्य का अस्तित्व स्वभाव है। ( आलापपद्धति/8 ); ( नयचक्र बृहद्/198 ); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3 व पृ.41/ | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति।</span> =<span class="HindiText">स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव इस स्वचतुष्टय से ही द्रव्य का अस्तित्व है या इन चारों रूप ही द्रव्य का अस्तित्व स्वभाव है। <span class="GRef">(आलापपद्धति/8)</span>; <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/198)</span>; <span class="GRef">( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3 व पृ.41/श्लोक 5)</span>; ([[नय#I.5.2 | नय - I.5.2 ]])<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.2.6.9" id="IV.2.6.9"><strong> परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.9" id="IV.2.6.9"><strong> परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति।</span>=<span class="HindiText">परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव इस परचतुष्टय से द्रव्य का नास्तित्व है। अर्थात् परचतुष्टय की अपेक्षा द्रव्य का नास्तित्व स्वभाव है। <span class="GRef">(आलापपद्धति/8)</span>; <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/198 )</span>; <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3 तथा 41/श्लोक 6)</span>; ([[नय#I.5.2 | नय - I.5.2 ]])<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.2.6.10" id="IV.2.6.10"><strong> परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.10" id="IV.2.6.10"><strong> परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक </strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–ज्ञानस्वरूप आत्मा। </span>=<span class="HindiText">परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा ज्ञानस्वभाव में स्थित है।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–ज्ञानस्वरूप आत्मा। </span>=<span class="HindiText">परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा ज्ञानस्वभाव में स्थित है।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभाव:। ...कर्मनोकर्मणोरचेतनस्वभाव:। ... कर्मनोकर्मणोर्मूर्तस्वभाव:।...पुद्गलं विहाय इतरेषाममूर्त्तस्वभाव:। ...कालपरमाणूनामेकप्रदेशस्वभावम् । </span>=<span class="HindiText">परमभावग्राहक नय से भव्य व अभव्य पारिणामिक स्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म अचेतनस्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म मूर्तस्वभावी हैं, पुद्गल के अतिरिक्त शेष द्रव्य अमूर्तस्वभावी हैं; काल व परमाणु एकप्रदेशस्वभावी है।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभाव:। ...कर्मनोकर्मणोरचेतनस्वभाव:। ... कर्मनोकर्मणोर्मूर्तस्वभाव:।...पुद्गलं विहाय इतरेषाममूर्त्तस्वभाव:। ...कालपरमाणूनामेकप्रदेशस्वभावम् । </span>=<span class="HindiText">परमभावग्राहक नय से भव्य व अभव्य पारिणामिक स्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म अचेतनस्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म मूर्तस्वभावी हैं, पुद्गल के अतिरिक्त शेष द्रव्य अमूर्तस्वभावी हैं; काल व परमाणु एकप्रदेशस्वभावी है।</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/199 <span class="SanskritGatha">गेह्णइ दव्वसहावं असुद्धसुद्धोवयारपरिचत्तं। सो परमभावगाही णायव्वो सिद्धिकामेण।199। </span>=<span class="HindiText">जो औदयिकादि अशुद्धभावों से तथा शुद्ध क्षायिकभाव के उपचार से रहित केवल द्रव्य के त्रिकाली परिणामाभावरूप स्वभाव को ग्रहण करता है उसे परमभावग्राही नय जानना चाहिए। ( नयचक्र बृहद्/116 )</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/199</span> <span class="SanskritGatha">गेह्णइ दव्वसहावं असुद्धसुद्धोवयारपरिचत्तं। सो परमभावगाही णायव्वो सिद्धिकामेण।199। </span>=<span class="HindiText">जो औदयिकादि अशुद्धभावों से तथा शुद्ध क्षायिकभाव के उपचार से रहित केवल द्रव्य के त्रिकाली परिणामाभावरूप स्वभाव को ग्रहण करता है उसे परमभावग्राही नय जानना चाहिए। <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/116)</span></span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3 <span class="SanskritText">संसारमुक्तपर्यायाणामाधारं भूत्वाप्यात्मद्रव्यकर्मबंधमोक्षाणां कारणं न भवतीति परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकनय:। </span>=<span class="HindiText">परमभाव ग्राहकनय की अपेक्षा आत्मा संसार व मुक्त पर्यायों का आधार होकर भी कर्मों के बंध व मोक्ष का कारण नहीं होता है।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3</span> <span class="SanskritText">संसारमुक्तपर्यायाणामाधारं भूत्वाप्यात्मद्रव्यकर्मबंधमोक्षाणां कारणं न भवतीति परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकनय:। </span>=<span class="HindiText">परमभाव ग्राहकनय की अपेक्षा आत्मा संसार व मुक्त पर्यायों का आधार होकर भी कर्मों के बंध व मोक्ष का कारण नहीं होता है।</span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/320/408/5 <span class="SanskritText">सर्वविशुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धोपादानभूतेन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन कर्तृत्व-भोक्तृत्वमोक्षादिकारणपरिणामशून्यो जीव इति सूचित:। </span>=<span class="HindiText">सर्वविशुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक, शुद्ध उपादानभूत शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से, जीव कर्ता, भोक्ता व मोक्ष आदि के कारणरूप परिणमों से शून्य है।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / तात्पर्यवृत्ति/320/408/5</span> <span class="SanskritText">सर्वविशुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धोपादानभूतेन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन कर्तृत्व-भोक्तृत्वमोक्षादिकारणपरिणामशून्यो जीव इति सूचित:। </span>=<span class="HindiText">सर्वविशुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक, शुद्ध उपादानभूत शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से, जीव कर्ता, भोक्ता व मोक्ष आदि के कारणरूप परिणमों से शून्य है।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236 <span class="SanskritText">यस्तु शुद्धशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न। </span>=<span class="HindiText">जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्ध-पारिणामिक परमभावरूप परम निश्चय मोक्ष है वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है। वह अब प्रकट होगी, ऐसा नहीं है।<br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/57/236</span> <span class="SanskritText">यस्तु शुद्धशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न। </span>=<span class="HindiText">जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्ध-पारिणामिक परमभावरूप परम निश्चय मोक्ष है वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है। वह अब प्रकट होगी, ऐसा नहीं है।<br /> | ||
और भी देखें [[नय#V.1.5 | नय - V.1.5]](शुद्धनिश्चय नय बंध मोक्ष से अतीत शुद्ध जीव को विषय करता है)।<br /> | और भी देखें [[नय#V.1.5 | नय - V.1.5]](शुद्धनिश्चय नय बंध मोक्ष से अतीत शुद्ध जीव को विषय करता है)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.1.1" id="IV.3.1.1"><strong> पर्याय ही है प्रयोजन जिसका</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.1.1" id="IV.3.1.1"><strong> पर्याय ही है प्रयोजन जिसका</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/6/21/1</span> <span class="SanskritText">पर्यायोऽर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">पर्याय ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो पर्यायार्थिक नय। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/1/95/9)</span>; <span class="GRef">( धवला 1/1,1,1/84/1)</span>; <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/170/3)</span>; <span class="GRef">(कषायपाहुड़/1/13-14/181/217/1 )</span> <span class="GRef">(आलापपद्धति/9)</span> <span class="GRef">( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19)</span>; <span class="GRef">(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/519)</span>।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.1.2" id="IV.3.1.2"><strong> द्रव्य को गौण करके पर्याय का ग्रहण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.1.2" id="IV.3.1.2"><strong> द्रव्य को गौण करके पर्याय का ग्रहण</strong></span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/190 <span class="PrakritText">पज्जय गउणं किज्जा दव्वं पि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ विवरीओ पज्जयत्थिओ। </span>=<span class="HindiText">पर्याय को गौण करके जो द्रव्य को ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिकनय है। और उससे विपरीत पर्यायार्थिक नय है। अर्थात् द्रव्य को गौण करके जो पर्याय को ग्रहण करता है सो पर्यायार्थिकनय है।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/190</span> <span class="PrakritText">पज्जय गउणं किज्जा दव्वं पि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ विवरीओ पज्जयत्थिओ। </span>=<span class="HindiText">पर्याय को गौण करके जो द्रव्य को ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिकनय है। और उससे विपरीत पर्यायार्थिक नय है। अर्थात् द्रव्य को गौण करके जो पर्याय को ग्रहण करता है सो पर्यायार्थिकनय है।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/13 <span class="SanskritText"> द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि...पर्यायं मुख्यतयानुभवतीति पर्यायार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में पर्याय को ही मुख्यरूप से जो अनुभव करता है, सो पर्यायार्थिक नय है।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/13</span> <span class="SanskritText"> द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि...पर्यायं मुख्यतयानुभवतीति पर्यायार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में पर्याय को ही मुख्यरूप से जो अनुभव करता है, सो पर्यायार्थिक नय है।</span><br /> | ||
न्यायदीपिका/3/82/126 <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकनयमुपसर्जनीकृत्य प्रवर्तमानपर्यायार्थिकनयमवलंब्य कुंडलमानयेत्युक्ते न कटकादौ प्रवर्त्तते, कटकादिपर्यायात् कुंडलपर्यायस्य भिन्नत्वात् । </span>=<span class="HindiText">जब पर्यायार्थिक नय की विवक्षा होती है तब द्रव्यार्थिकनय को गौण करके प्रवृत्त होने वाले पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से ‘कुंडल लाओ’ यह कहने पर लाने वाला कड़ा आदि के लाने में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा आदि पर्याय से कुंडलपर्याय भिन्न है।<br /> | <span class="GRef">न्यायदीपिका/3/82/126</span> <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकनयमुपसर्जनीकृत्य प्रवर्तमानपर्यायार्थिकनयमवलंब्य कुंडलमानयेत्युक्ते न कटकादौ प्रवर्त्तते, कटकादिपर्यायात् कुंडलपर्यायस्य भिन्नत्वात् । </span>=<span class="HindiText">जब पर्यायार्थिक नय की विवक्षा होती है तब द्रव्यार्थिकनय को गौण करके प्रवृत्त होने वाले पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से ‘कुंडल लाओ’ यह कहने पर लाने वाला कड़ा आदि के लाने में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा आदि पर्याय से कुंडलपर्याय भिन्न है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.2" id="IV.3.2"><strong> पर्यायार्थिक नय वस्तु के विशेष अंश को एकत्व रूप से विषय करता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.2" id="IV.3.2"><strong> पर्यायार्थिक नय वस्तु के विशेष अंश को एकत्व रूप से विषय करता है</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/1 <span class="SanskritText"> पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थ:। तद्विषय: पर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति (भेद) है, और इसको विषय करने वाला नय पर्यायार्थिकनय है ( तत्त्वसार/1/40 )।</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/1</span> <span class="SanskritText"> पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थ:। तद्विषय: पर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति (भेद) है, और इसको विषय करने वाला नय पर्यायार्थिकनय है <span class="GRef">(तत्त्वसार/1/40 )</span>।</span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/3/215/10 <span class="SanskritText">पर्यायविषय: पर्यायार्थ:।</span> =<span class="HindiText">पर्याय को विषय करने वाला पर्यायार्थ नय है। ( नयचक्र बृहद्/189 )</span><br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/3/215/10</span> <span class="SanskritText">पर्यायविषय: पर्यायार्थ:।</span> =<span class="HindiText">पर्याय को विषय करने वाला पर्यायार्थ नय है। <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/189)</span></span><br /> | ||
हरिवंशपुराण/58/42 <span class="SanskritText">स्यु: पर्यायार्थिकस्यान्मे विशेषविषया: नया:।42।</span><span class="HindiText"> =ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक नय के भेद हैं। वे सब वस्तु के विशेष अंश को विषय करते हैं।</span><br /> | <span class="GRef">हरिवंशपुराण/58/42</span> <span class="SanskritText">स्यु: पर्यायार्थिकस्यान्मे विशेषविषया: नया:।42।</span><span class="HindiText"> =ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक नय के भेद हैं। वे सब वस्तु के विशेष अंश को विषय करते हैं।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/114 <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकमेकांतनिमीलितं केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनलोकितसामान्यानामन्यत्प्रतिभाति। द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत् ।</span>=<span class="HindiText">जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके मात्र खुली हुईं पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब जीवद्रव्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों को (वह जीवद्रव्य) अन्य–अन्य भासित होता है क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषों के समय तन्मय होने से उन-उन विशेषों से अनन्य है–कंडे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भाँति।</span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/114</span> <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकमेकांतनिमीलितं केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनलोकितसामान्यानामन्यत्प्रतिभाति। द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत् ।</span>=<span class="HindiText">जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके मात्र खुली हुईं पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब जीवद्रव्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों को (वह जीवद्रव्य) अन्य–अन्य भासित होता है क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषों के समय तन्मय होने से उन-उन विशेषों से अनन्य है–कंडे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भाँति।</span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/270 <span class="PrakritText">जो साहेदि विसेसे बहुविहसामण्णसंजुदे सव्वे। साहणलिंग-वसादो पज्जयविसओ णओ होदि।</span>=<span class="HindiText">जो अनेक प्रकार के सामान्य सहित सब विशेषों को साधक लिंग के बल से साधता है, वह पर्यायार्थिक नय है।<br /> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/270</span> <span class="PrakritText">जो साहेदि विसेसे बहुविहसामण्णसंजुदे सव्वे। साहणलिंग-वसादो पज्जयविसओ णओ होदि।</span>=<span class="HindiText">जो अनेक प्रकार के सामान्य सहित सब विशेषों को साधक लिंग के बल से साधता है, वह पर्यायार्थिक नय है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.3" id="IV.3.3"><strong> द्रव्य की अपेक्षा विषय की एकत्वता</strong><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.3" id="IV.3.3"><strong> द्रव्य की अपेक्षा विषय की एकत्वता</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.3.1" id="IV.3.3.1"><strong> पर्याय से पृथक् द्रव्य कुछ नहीं है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.3.1" id="IV.3.3.1"><strong> पर्याय से पृथक् द्रव्य कुछ नहीं है</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/1/95/3 <span class="SanskritText"> पर्याय एवार्थोऽस्य रूपाद्युत्क्षेपणादिलक्षणो, न ततोऽन्यद् द्रव्यमिति पर्यायार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">रूपादि गुण तथा उत्क्षेपण अवक्षेपण आदि कर्म या क्रिया लक्षणवाली ही पर्याय होती है। ये पर्याय ही जिसका अर्थ हैं, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, ऐसा पर्यायार्थिक नय है। ( धवला 12/4,2,8,15/292/12 )।</span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/1/95/3</span> <span class="SanskritText"> पर्याय एवार्थोऽस्य रूपाद्युत्क्षेपणादिलक्षणो, न ततोऽन्यद् द्रव्यमिति पर्यायार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">रूपादि गुण तथा उत्क्षेपण अवक्षेपण आदि कर्म या क्रिया लक्षणवाली ही पर्याय होती है। ये पर्याय ही जिसका अर्थ हैं, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, ऐसा पर्यायार्थिक नय है। <span class="GRef">( धवला 12/4,2,8,15/292/12)</span>।</span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/2/2/2/4/15/6 <span class="SanskritText">अभिधेयस्य शब्दनयोपकल्पितत्वाद्विशेषस्य ऋजुसूत्रोपकल्पितत्वादभावस्य। </span>=<span class="HindiText">शब्द का वाच्यभूत अभिधेय तो शब्दनय के द्वारा और सामान्य द्रव्य से रहित माना गया कोरा विशेष ऋजुसूत्रनय से कल्पित कर लिया जाता है। </span><br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/2/2/2/4/15/6</span> <span class="SanskritText">अभिधेयस्य शब्दनयोपकल्पितत्वाद्विशेषस्य ऋजुसूत्रोपकल्पितत्वादभावस्य। </span>=<span class="HindiText">शब्द का वाच्यभूत अभिधेय तो शब्दनय के द्वारा और सामान्य द्रव्य से रहित माना गया कोरा विशेष ऋजुसूत्रनय से कल्पित कर लिया जाता है। </span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/13-14/278/314/4 | <span class="GRef">कषायपाहुड़/1/13-14/278/314/4 </span> <span class="PrakritText">ण च सामण्णमत्थि; विसेसेसु अणुगमअतुट्टसरूवसामण्णाणुवलंभादो।</span> =<span class="HindiText">इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि में सामान्य है भी नहीं, क्योंकि विशेषों में अनुगत और जिसकी संतान नहीं टूटी है, ऐसा सामान्य नहीं पाया जाता। <span class="GRef">(धवला 13/5,5,7/199/6)</span></span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/13-14/279/316/6 <span class="PrakritText">तस्स विसए दव्वाभावादो।</span> =<span class="HindiText">शब्दनय के विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता। ( कषायपाहुड़/1/13-14/285/320/4 )</span><br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़/1/13-14/279/316/6</span> <span class="PrakritText">तस्स विसए दव्वाभावादो।</span> =<span class="HindiText">शब्दनय के विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता। <span class="GRef">(कषायपाहुड़/1/13-14/285/320/4)</span></span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परिशिष्ठ/नय नं.2</span> <span class="SanskritText">तत् तु...पर्यायनयेन तंतुमात्रवद्दर्शनज्ञानादिमात्रम् ।</span>=<span class="HindiText">इस आत्मा को यदि पर्यायार्थिक नय से देखें तो तंतुमात्र की भाँति ज्ञान दर्शन मात्र है। अर्थात् जैसे तंतुओं से भिन्न वस्त्र नाम की कोई वस्तु नहीं हैं, वैसे ही ज्ञानदर्शन से पृथक् आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.3.2" id="IV.3.3.2"><strong> गुण गुणी में सामानाधिकरण्य नहीं है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.3.2" id="IV.3.3.2"><strong> गुण गुणी में सामानाधिकरण्य नहीं है</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/97/20 | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/7/97/20 </span> <span class="SanskritText">न सामानाधिकरण्यम् – एकस्य पर्यायेभ्योऽनन्यत्वात् पर्याया एव विविक्तशक्तयो द्रव्य नाम न किंचिदस्तीति। </span>=<span class="HindiText">(ऋजुसूत्र नय में गुण व गुणी में) सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता क्योंकि भिन्न शक्तिवाली पर्यायें ही यहाँ अपना अस्तित्व रखती हैं, द्रव्य नाम की कोई वस्तु नहीं है। <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/174/7)</span>; <span class="GRef">(कषायपाहुड़/1/13-14/89/226/5)</span><br /> | ||
देखें [[ नय#IV.3.8 | आगे शीर्षक नं - 8 ]]ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में विशेष्य-विशेषण, ज्ञेय-ज्ञायक; वाच्य-वाचक, बंध्य-बंधक आदि किसी प्रकार का भी संबंध संभव नहीं है।<br /> | देखें [[ नय#IV.3.8 | आगे शीर्षक नं - 8 ]]ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में विशेष्य-विशेषण, ज्ञेय-ज्ञायक; वाच्य-वाचक, बंध्य-बंधक आदि किसी प्रकार का भी संबंध संभव नहीं है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.3.3" id="IV.3.3.3"><strong> काक कृष्ण नहीं हो सकता</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.3.3" id="IV.3.3.3"><strong> काक कृष्ण नहीं हो सकता</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/97/17 <span class="SanskritText">न कृष्ण: काक: उभयोरपि स्वात्मकत्वात् – कृष्ण: कृष्णात्मको न काकात्मक:। यदि काकात्मक: स्यात्; भ्रमरादीनामपि काकत्वप्रसंग:। काकश्च काकात्मको न कृष्णात्मक:; यदि कृष्णात्मक:, शुक्लकाकाभाव: स्यात् । पंचवर्णत्वाच्च, पित्तास्थिरुधिरादीनां पीतशुक्लादिवर्णत्वात्, तद्व्यतिरेकेण काकाभावाच्च। </span>=<span class="HindiText">इसकी दृष्टि में काक कृष्ण नहीं होता, दोनों अपने-अपने स्वभावरूप हैं। जो कृष्ण है वह कृष्णात्मक ही है काकात्मक नहीं; क्योंकि, ऐसा मानने पर भ्रमर आदिकों के भी काक होने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार काक भी काकात्मक ही है कृष्णात्मक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर सफेद काक के अभाव का प्रसंग आता है। तथा उसके पित्त अस्थि व रुधिर आदि को भी कृष्णता का प्रसंग आता है, परंतु वे तो पीत शुक्ल व रक्त वर्ण वाले हैं और उनसे अतिरिक्त काक नहीं। ( धवला 9/4,1,45/174/3 ); ( कषायपाहुड़/1/13-14/188/226/2 )<br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/7/97/17</span> <span class="SanskritText">न कृष्ण: काक: उभयोरपि स्वात्मकत्वात् – कृष्ण: कृष्णात्मको न काकात्मक:। यदि काकात्मक: स्यात्; भ्रमरादीनामपि काकत्वप्रसंग:। काकश्च काकात्मको न कृष्णात्मक:; यदि कृष्णात्मक:, शुक्लकाकाभाव: स्यात् । पंचवर्णत्वाच्च, पित्तास्थिरुधिरादीनां पीतशुक्लादिवर्णत्वात्, तद्व्यतिरेकेण काकाभावाच्च। </span>=<span class="HindiText">इसकी दृष्टि में काक कृष्ण नहीं होता, दोनों अपने-अपने स्वभावरूप हैं। जो कृष्ण है वह कृष्णात्मक ही है काकात्मक नहीं; क्योंकि, ऐसा मानने पर भ्रमर आदिकों के भी काक होने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार काक भी काकात्मक ही है कृष्णात्मक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर सफेद काक के अभाव का प्रसंग आता है। तथा उसके पित्त अस्थि व रुधिर आदि को भी कृष्णता का प्रसंग आता है, परंतु वे तो पीत शुक्ल व रक्त वर्ण वाले हैं और उनसे अतिरिक्त काक नहीं। <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/174/3)</span>; <span class="GRef">(कषायपाहुड़/1/13-14/188/226/2)</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.3.4" id="IV.3.3.4"><strong> सभी पदार्थ एक संख्या से युक्त हैं </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.3.4" id="IV.3.3.4"><strong> सभी पदार्थ एक संख्या से युक्त हैं </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">षट्खण्डागम 12/4,2,9/सूत्र 14/300</span> <span class="PrakritText">सद्दुजुसुदाणं णाणावरणीयवेयणा जीवस्स।14।</span><br /> | |||
धवला 12/4,2,9,14/300/10 <span class="PrakritText"> किमट्ठं जीव-वेयणाणं सद्दुजुसुदा वहुवयणं णेच्छंति। ण एस दोसो, बहुत्ताभावादो। तं जहासव्वं पि वत्थु एगसंखाविसिट्ठं, अण्णहा तस्साभावप्पसंगादो। ण च एगत्तपडिग्गहिए वत्थुम्हि दुब्भावादीणं संभवो अत्थि, सीदुण्हाणं व तेसु सहाणवट्ठाणलक्खणविरोहदंसणादो। </span>=<span class="HindiText">शब्द और ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के होती है।14। प्रश्न–ये नय बहुवचन को क्यों नहीं स्वीकार करते ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं; क्योंकि, यहाँ बहुत्व की संभावना नहीं है। वह इस प्रकार कि–सभी वस्तु एक संख्या से संयुक्त हैं; क्योंकि, इसके बिना उसके अभाव का प्रसंग आता है। एकत्व को स्वीकार करने वाली वस्तु में द्वित्वादि की संभावना भी नहीं है, क्योंकि उनमें शीत व उष्ण के समान सहानवस्थानरूप विरोध देखा जाता है। (और भी देखो आगे [[नय#IV.3.4.2 | शीर्षक नं.4/2 ]] तथा [[नय#IV.3.6 | शीर्षक नं.6 ]] ।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 12/4,2,9,14/300/10</span> <span class="PrakritText"> किमट्ठं जीव-वेयणाणं सद्दुजुसुदा वहुवयणं णेच्छंति। ण एस दोसो, बहुत्ताभावादो। तं जहासव्वं पि वत्थु एगसंखाविसिट्ठं, अण्णहा तस्साभावप्पसंगादो। ण च एगत्तपडिग्गहिए वत्थुम्हि दुब्भावादीणं संभवो अत्थि, सीदुण्हाणं व तेसु सहाणवट्ठाणलक्खणविरोहदंसणादो। </span>=<span class="HindiText">शब्द और ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के होती है।14। प्रश्न–ये नय बहुवचन को क्यों नहीं स्वीकार करते ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं; क्योंकि, यहाँ बहुत्व की संभावना नहीं है। वह इस प्रकार कि–सभी वस्तु एक संख्या से संयुक्त हैं; क्योंकि, इसके बिना उसके अभाव का प्रसंग आता है। एकत्व को स्वीकार करने वाली वस्तु में द्वित्वादि की संभावना भी नहीं है, क्योंकि उनमें शीत व उष्ण के समान सहानवस्थानरूप विरोध देखा जाता है। (और भी देखो आगे [[नय#IV.3.4.2 | शीर्षक नं.4/2 ]] तथा [[नय#IV.3.6 | शीर्षक नं.6 ]] ।</span><br /> | ||
धवला 9/4,1,59/266/1 <span class="PrakritText">उजुसुदेकिमिदि अणेयसंखा णत्थि। एयसद्दस्स एयपमाणस्य य एगत्थं मोत्तूण अणेगत्थेसु एक्ककाले पवुत्तिविरोहादो। ण च सद्द-पमाणाणि बहुसत्तिजुत्ताणि अत्थि, एक्कम्हि विरुद्धाणेयसत्तीणं संभवविरोहादो एयसंखं मोत्तूण अणेयसंखाभावादो वा। </span>=<span class="HindiText">प्रश्न–ऋजुसूत्रनय में अनेक संख्या क्यों संभव नहीं ? उत्तर–चूँकि इस नय की अपेक्षा एक शब्द और एक प्रमाणकी एक अर्थ को छोड़कर अनेक अर्थों में एक काल में प्रवृत्ति का विरोध है, अत: उसमें एक संख्या संभव नहीं है। और शब्द व प्रमाण बहुत शक्तियों से युक्त हैं नहीं; क्योंकि, एक में विरुद्ध अनेक शक्तियों के होने का विरोध है। अथवा एक संख्या को छोड़कर अनेक संख्याओं का वहाँ (इन नयों में) अभाव है। ( कषायपाहुड़/1/13-14/277/313/5;315/1 )।<br /> | <span class="GRef">धवला 9/4,1,59/266/1</span> <span class="PrakritText">उजुसुदेकिमिदि अणेयसंखा णत्थि। एयसद्दस्स एयपमाणस्य य एगत्थं मोत्तूण अणेगत्थेसु एक्ककाले पवुत्तिविरोहादो। ण च सद्द-पमाणाणि बहुसत्तिजुत्ताणि अत्थि, एक्कम्हि विरुद्धाणेयसत्तीणं संभवविरोहादो एयसंखं मोत्तूण अणेयसंखाभावादो वा। </span>=<span class="HindiText">प्रश्न–ऋजुसूत्रनय में अनेक संख्या क्यों संभव नहीं ? उत्तर–चूँकि इस नय की अपेक्षा एक शब्द और एक प्रमाणकी एक अर्थ को छोड़कर अनेक अर्थों में एक काल में प्रवृत्ति का विरोध है, अत: उसमें एक संख्या संभव नहीं है। और शब्द व प्रमाण बहुत शक्तियों से युक्त हैं नहीं; क्योंकि, एक में विरुद्ध अनेक शक्तियों के होने का विरोध है। अथवा एक संख्या को छोड़कर अनेक संख्याओं का वहाँ (इन नयों में) अभाव है। ( कषायपाहुड़/1/13-14/277/313/5;315/1 )।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.1" id="IV.3.4.1"><strong> प्रत्येक पदार्थ का अवस्थान अपने में ही है</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.1" id="IV.3.4.1"><strong> प्रत्येक पदार्थ का अवस्थान अपने में ही है</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/9 <span class="SanskritText">अथवा यो यत्राभिरूढ़: स तत्र समेत्याभिमुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते। आत्मनीति। कुत:। वस्त्वंतरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् । </span>=<span class="HindiText">अथवा जो जहाँ अभिरूढ है वह वहाँ सम् अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ़ होने के कारण समभिरूढनय कहलाता है ? यथा–आप कहाँ रहते हैं ? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति मानी जाये तो ज्ञानादि व रूपादि की भी आकाश में वृत्ति होने लगे। ( राजवार्तिक/1/33/10/99/2 )।</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/9</span> <span class="SanskritText">अथवा यो यत्राभिरूढ़: स तत्र समेत्याभिमुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते। आत्मनीति। कुत:। वस्त्वंतरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् । </span>=<span class="HindiText">अथवा जो जहाँ अभिरूढ है वह वहाँ सम् अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ़ होने के कारण समभिरूढनय कहलाता है ? यथा–आप कहाँ रहते हैं ? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति मानी जाये तो ज्ञानादि व रूपादि की भी आकाश में वृत्ति होने लगे। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/10/99/2)</span>।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/97/16 | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/7/97/16 </span> <span class="SanskritText">यमेवाकाशदेशमवगाढुं समर्थ आत्मपरिणामं वा तत्रैवास्य वसति:। </span>=<span class="HindiText">जितने आकाश प्रदेशों में कोई ठहरा है, उतने ही प्रदेशों में उसका निवास है अथवा स्वात्मा में; अत: ग्रामनिवास गृहनिवास आदि व्यवहार नहीं हो सकते। <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/174/2 )</span>; <span class="GRef">(कषायपाहुड़/1/13-14/187/226/1)</span>।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.2" id="IV.3.4.2"><strong> वस्तु अखंड व निरवयव होती है</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.2" id="IV.3.4.2"><strong> वस्तु अखंड व निरवयव होती है</strong></span><br /> | ||
धवला 12/4,2,9,15/301/1 <span class="PrakritText">ण च एगत्तविसिट्ठ वत्थु अत्थि जेण अणेगत्तस्स तदाहारो होज्ज। एक्कम्मि खंभम्मि मूलग्गमज्झभेएण अणेयत्तं दिस्सदि त्ति भणिदे ण तत्थ एयत्तं मोत्तूण अणेयत्तस्स अणुवलंभादो। ण ताव थंभगयमणेयत्तं, तत्थ एयत्तुवलंभादो। ण मूलगयमग्गगयं मज्झगयं वा, तत्थ वि एयत्तं मोत्तूण अणेयत्ताणुवलंभादो। ण तिण्णिमेगेगवत्थूणं समूहो अणेयत्तस्स आहारो, तव्वदिरेगेण तस्समूहाणूवलंभादो। तम्हा णत्थि बहुत्तं।</span> =<span class="HindiText">एकत्व से अतिरिक्त वस्तु है भी नहीं, जिससे कि वह अनेकत्व का आधार हो सके। प्रश्न–एक खंभे में मूल अग्र व मध्य के भेद से अनेकता देखी जाती है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उसमें एकत्व को छोड़कर अनेकत्व पाया नहीं जाता। कारण कि स्तंभ में तो अनेकत्व की संभावना है नहीं, क्योंकि उसमें एकता पायी जाती है। मूलगत, अग्रगत अथवा मध्यगत अनेकता भी संभव नहीं है, क्योंकि उनमें भी एकत्व को छोड़कर अनेकता नहीं पायी जाती। यदि कहा जाय कि तीन एक-एक वस्तुओं का समूह अनेकता का आधार है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे भिन्न उनका समूह पाया नहीं जाता। इस कारण इन नयों की अपेक्षा बहुत्व संभव नहीं है। (स्तंभादि स्कंधों का ज्ञान भ्रांत है। वास्तव में शुद्ध परमाणु ही सत् है (देखें [[ नय#IV.3.8.2 | आगे शीर्षक नं - 8.2]])।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 12/4,2,9,15/301/1</span> <span class="PrakritText">ण च एगत्तविसिट्ठ वत्थु अत्थि जेण अणेगत्तस्स तदाहारो होज्ज। एक्कम्मि खंभम्मि मूलग्गमज्झभेएण अणेयत्तं दिस्सदि त्ति भणिदे ण तत्थ एयत्तं मोत्तूण अणेयत्तस्स अणुवलंभादो। ण ताव थंभगयमणेयत्तं, तत्थ एयत्तुवलंभादो। ण मूलगयमग्गगयं मज्झगयं वा, तत्थ वि एयत्तं मोत्तूण अणेयत्ताणुवलंभादो। ण तिण्णिमेगेगवत्थूणं समूहो अणेयत्तस्स आहारो, तव्वदिरेगेण तस्समूहाणूवलंभादो। तम्हा णत्थि बहुत्तं।</span> =<span class="HindiText">एकत्व से अतिरिक्त वस्तु है भी नहीं, जिससे कि वह अनेकत्व का आधार हो सके। प्रश्न–एक खंभे में मूल अग्र व मध्य के भेद से अनेकता देखी जाती है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उसमें एकत्व को छोड़कर अनेकत्व पाया नहीं जाता। कारण कि स्तंभ में तो अनेकत्व की संभावना है नहीं, क्योंकि उसमें एकता पायी जाती है। मूलगत, अग्रगत अथवा मध्यगत अनेकता भी संभव नहीं है, क्योंकि उनमें भी एकत्व को छोड़कर अनेकता नहीं पायी जाती। यदि कहा जाय कि तीन एक-एक वस्तुओं का समूह अनेकता का आधार है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे भिन्न उनका समूह पाया नहीं जाता। इस कारण इन नयों की अपेक्षा बहुत्व संभव नहीं है। (स्तंभादि स्कंधों का ज्ञान भ्रांत है। वास्तव में शुद्ध परमाणु ही सत् है (देखें [[ नय#IV.3.8.2 | आगे शीर्षक नं - 8.2]])।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/13-14/193/230/4 <span class="SanskritText">ते च परमाणवो निरवयवा: ऊर्ध्वाधोमध्यभागाद्यवयवेषु सत्सु अनवस्थापत्ते:, परमाणोर्वापरमाणुत्वप्रसंगाच्च। </span>=<span class="HindiText">(इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में सजातीय और विजातीय उपाधियों से रहित) वे परमाणु निरवयव हैं, क्योंकि उनके ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि अवयवों के मानने पर अनवस्था दोष की आपत्ति प्राप्त होती है, और परमाणु को अपरमाणुपने का प्रसंग प्राप्त होता है। (और भी देखें [[ नय#IV.3.7 | नय - IV.3.7 ]]में स.म.)।<br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़/1/13-14/193/230/4</span> <span class="SanskritText">ते च परमाणवो निरवयवा: ऊर्ध्वाधोमध्यभागाद्यवयवेषु सत्सु अनवस्थापत्ते:, परमाणोर्वापरमाणुत्वप्रसंगाच्च। </span>=<span class="HindiText">(इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में सजातीय और विजातीय उपाधियों से रहित) वे परमाणु निरवयव हैं, क्योंकि उनके ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि अवयवों के मानने पर अनवस्था दोष की आपत्ति प्राप्त होती है, और परमाणु को अपरमाणुपने का प्रसंग प्राप्त होता है। (और भी देखें [[ नय#IV.3.7 | नय - IV.3.7 ]]में स.म.)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.4.3" id="IV.3.4.3"><strong> पलालदाह संभव नहीं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.4.3" id="IV.3.4.3"><strong> पलालदाह संभव नहीं</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/97/26 <span class="SanskritText">न पलालादिदाहाभाव:...यत्पलालं तद्दहतीति चेत्; न; सावशेषात् । ...अवयवानेकत्वे यद्यवयवदाहात् सर्वत्र दाहोऽवयवांतरादाहात् ननु सर्वदाहाभाव:। अथ दाह: सर्वत्र कस्मान्नादाह:। अतो न दाह:। एवं पानभोजनादिव्यवहाराभाव:।</span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता। जो पलाल है वह जलता है यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि, बहुत पलाल बिना जला भी शेष है। यदि अनेक अवयव होने से कुछ अवयवों में दाह की अपेक्षा लेकर सर्वत्र दाह माना जाता है, तो कुछ अवयवों में अदाह की अपेक्षा लेकर सर्वत्र अदाह क्यों नहीं माना जायेगा ? अत: पान-भोजनादि व्यवहार का अभाव है।</span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/7/97/26</span> <span class="SanskritText">न पलालादिदाहाभाव:...यत्पलालं तद्दहतीति चेत्; न; सावशेषात् । ...अवयवानेकत्वे यद्यवयवदाहात् सर्वत्र दाहोऽवयवांतरादाहात् ननु सर्वदाहाभाव:। अथ दाह: सर्वत्र कस्मान्नादाह:। अतो न दाह:। एवं पानभोजनादिव्यवहाराभाव:।</span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता। जो पलाल है वह जलता है यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि, बहुत पलाल बिना जला भी शेष है। यदि अनेक अवयव होने से कुछ अवयवों में दाह की अपेक्षा लेकर सर्वत्र दाह माना जाता है, तो कुछ अवयवों में अदाह की अपेक्षा लेकर सर्वत्र अदाह क्यों नहीं माना जायेगा ? अत: पान-भोजनादि व्यवहार का अभाव है।</span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/175/9 <span class="SanskritText">न पलालावयवी दह्यते, तस्यासत्त्वात् । नावयवा दह्यंते, निरवयवत्वतस्तेषामप्यसत्त्वात् ।</span> =<span class="HindiText">पलाल अवयवी का दाह नहीं होता, क्योंकि, अवयवी की (इस नय में) सत्ता ही नहीं है। न अवयव जलते हैं, क्योंकि स्वयं निरवयव होने से उनका भी असत्त्व है।<br /> | <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/175/9</span> <span class="SanskritText">न पलालावयवी दह्यते, तस्यासत्त्वात् । नावयवा दह्यंते, निरवयवत्वतस्तेषामप्यसत्त्वात् ।</span> =<span class="HindiText">पलाल अवयवी का दाह नहीं होता, क्योंकि, अवयवी की (इस नय में) सत्ता ही नहीं है। न अवयव जलते हैं, क्योंकि स्वयं निरवयव होने से उनका भी असत्त्व है।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.4" id="IV.3.4.4"><strong> कुंभकार संज्ञा नहीं हो सकती</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.4" id="IV.3.4.4"><strong> कुंभकार संज्ञा नहीं हो सकती</strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/186/225/1 <span class="SanskritText">न कुंभकारोऽस्ति। तद्यथा–न शिवकादिकरणेन तस्य स व्यपदेश:, शिवकादिषु कुंभभावानुपलंभात् । न कुंभं करोति; स्वावयवेभ्य एव तन्निष्पत्त्युपलंभात् । न बहुभ्य एक: घट: उत्पद्यते; तत्र यौगपद्येन भूयो धर्माणां सत्त्वविरोधात् । अविरोधे वा न तदेकं कार्यम्; विरुद्धधर्माध्यासत: प्राप्तानेकरूपत्वात् । न चैकेन कृतकार्य एव शेषसहकारिकारणानि व्याप्रियंते; तद्व्यापारवैफल्यप्रसंगात् । न चान्यत्र व्याप्रियंते; कार्यंबहुत्वप्रसंगात् । न चैतदपि एकस्य घटस्य बहुत्वाभावात् । </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में कुंभकार संज्ञा भी नहीं बन सकती है। वह इस प्रकार कि–शिवकादि पर्यायों को करने से उसे कुंभकार कह नहीं सकते, क्योंकि शिवकादि में कुंभपना पाया नहीं जाता और कुंभ को वह बनाता नहीं है; क्योंकि, अपने शिवकादि अवयवों से ही उसकी उत्पत्ति होती है। अनेक कारणों से उसकी उत्पत्ति माननी भी ठीक नहीं है; क्योंकि घट में युगपत् अनेक धर्मों का अस्तित्व मानने में विरोध आता है। उसमें अनेक धर्मों का यदि अविरोध माना जायेगा तो वह घट एक कार्य नहीं रह जायेगा, बल्कि विरुद्ध अनेक धर्मों का आधार होने से अनेक रूप हो जायेगा। यदि कहा जाय कि एक उपादान कारण से उत्पन्न होने वाले उस घट में अन्य अनेकों सहकारी कारण भी सहायता करते हैं, तो उनके व्यापार की विफलता प्राप्त होती है। यदि कहा जाये कि उसी घट में वे सहकारीकारण उपादान के कार्य से भिन्न ही किसी अन्य कार्य को करते हैं, तो एक घट में कार्य बहुत्व का प्रसंग आता है, और ऐसा माना नहीं जा सकता, क्योंकि एक घट अनेक कार्यरूप नहीं हो सकता। ( राजवार्तिक/1/33/7/97/12 ); ( धवला 9/4,1,45/173/7 )।<br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/186/225/1</span> <span class="SanskritText">न कुंभकारोऽस्ति। तद्यथा–न शिवकादिकरणेन तस्य स व्यपदेश:, शिवकादिषु कुंभभावानुपलंभात् । न कुंभं करोति; स्वावयवेभ्य एव तन्निष्पत्त्युपलंभात् । न बहुभ्य एक: घट: उत्पद्यते; तत्र यौगपद्येन भूयो धर्माणां सत्त्वविरोधात् । अविरोधे वा न तदेकं कार्यम्; विरुद्धधर्माध्यासत: प्राप्तानेकरूपत्वात् । न चैकेन कृतकार्य एव शेषसहकारिकारणानि व्याप्रियंते; तद्व्यापारवैफल्यप्रसंगात् । न चान्यत्र व्याप्रियंते; कार्यंबहुत्वप्रसंगात् । न चैतदपि एकस्य घटस्य बहुत्वाभावात् । </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में कुंभकार संज्ञा भी नहीं बन सकती है। वह इस प्रकार कि–शिवकादि पर्यायों को करने से उसे कुंभकार कह नहीं सकते, क्योंकि शिवकादि में कुंभपना पाया नहीं जाता और कुंभ को वह बनाता नहीं है; क्योंकि, अपने शिवकादि अवयवों से ही उसकी उत्पत्ति होती है। अनेक कारणों से उसकी उत्पत्ति माननी भी ठीक नहीं है; क्योंकि घट में युगपत् अनेक धर्मों का अस्तित्व मानने में विरोध आता है। उसमें अनेक धर्मों का यदि अविरोध माना जायेगा तो वह घट एक कार्य नहीं रह जायेगा, बल्कि विरुद्ध अनेक धर्मों का आधार होने से अनेक रूप हो जायेगा। यदि कहा जाय कि एक उपादान कारण से उत्पन्न होने वाले उस घट में अन्य अनेकों सहकारी कारण भी सहायता करते हैं, तो उनके व्यापार की विफलता प्राप्त होती है। यदि कहा जाये कि उसी घट में वे सहकारीकारण उपादान के कार्य से भिन्न ही किसी अन्य कार्य को करते हैं, तो एक घट में कार्य बहुत्व का प्रसंग आता है, और ऐसा माना नहीं जा सकता, क्योंकि एक घट अनेक कार्यरूप नहीं हो सकता। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/33/7/97/12 ); <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/173/7 )।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.3.5.1" id="IV.3.5.1"><strong> केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.5.1" id="IV.3.5.1"><strong> केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है </strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/181/217/1 <span class="SanskritText">परि भेदं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदं एति गच्छतीति पर्याय:, स पर्याय: अर्थ: प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिक:। सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च द्रव्यार्थिकाशेषविषयं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदेन पाटयन् पर्यायार्थिक इत्यवगंतव्य:। अत्रोपयोगिन्यौ गाथे–‘मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुद्दवयणिविच्छेदो। तस्स उ सद्दादीया साहपसाहा सुहुमभेया।88।</span>=<span class="HindiText">’परि’ का अर्थ भेद है। ऋजुसूत्र के वचन के विच्छेदरूप वर्तमान समयमात्र (देखें [[ नय#III.1.2 | नय - III.1.2]]) काल को जो प्राप्त होती है, वह पर्याय है। वह पर्याय ही जिस नय का प्रयोजन है सो पर्यायार्थिकनय है। सादृश्यलक्षण सामान्य से भिन्न और अभिन्न जो द्रव्यार्थिकनय का समस्त विषय है (देखें [[ नय#IV.1.2 | नय - IV.1.2]]) ऋजुसूत्रवचन के विच्छेदरूप काल के द्वारा उसका विभाग करने वाला पर्यायार्थिकनय है, ऐसा उक्त कथन का तात्पर्य है। इस विषय में यह उपयोगी गाथा है–ऋजुसूत्र वचन अर्थात् वचन का विच्छेद जिस काल में होता है वह काल पर्यायार्थिकनय का मूल आधार है, और उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेदरूप शब्दादि नय उसी ऋजुसूत्र की शाखा उपशाखा है।88।<br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/181/217/1</span> <span class="SanskritText">परि भेदं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदं एति गच्छतीति पर्याय:, स पर्याय: अर्थ: प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिक:। सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च द्रव्यार्थिकाशेषविषयं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदेन पाटयन् पर्यायार्थिक इत्यवगंतव्य:। अत्रोपयोगिन्यौ गाथे–‘मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुद्दवयणिविच्छेदो। तस्स उ सद्दादीया साहपसाहा सुहुमभेया।88।</span>=<span class="HindiText">’परि’ का अर्थ भेद है। ऋजुसूत्र के वचन के विच्छेदरूप वर्तमान समयमात्र (देखें [[ नय#III.1.2 | नय - III.1.2]]) काल को जो प्राप्त होती है, वह पर्याय है। वह पर्याय ही जिस नय का प्रयोजन है सो पर्यायार्थिकनय है। सादृश्यलक्षण सामान्य से भिन्न और अभिन्न जो द्रव्यार्थिकनय का समस्त विषय है (देखें [[ नय#IV.1.2 | नय - IV.1.2]]) ऋजुसूत्रवचन के विच्छेदरूप काल के द्वारा उसका विभाग करने वाला पर्यायार्थिकनय है, ऐसा उक्त कथन का तात्पर्य है। इस विषय में यह उपयोगी गाथा है–ऋजुसूत्र वचन अर्थात् वचन का विच्छेद जिस काल में होता है वह काल पर्यायार्थिकनय का मूल आधार है, और उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेदरूप शब्दादि नय उसी ऋजुसूत्र की शाखा उपशाखा है।88।<br /> | ||
देखें [[ नय#III.5.1.2 | नय - III.5.1.2 ]](अतीत व अनागत काल को छोड़कर जो केवल वर्तमान को ग्रहण करे सो ऋजुसूत्र अर्थात् पर्यायार्थिक नय है।)<br /> | देखें [[ नय#III.5.1.2 | नय - III.5.1.2 ]](अतीत व अनागत काल को छोड़कर जो केवल वर्तमान को ग्रहण करे सो ऋजुसूत्र अर्थात् पर्यायार्थिक नय है।)<br /> | ||
देखें [[ नय#III.5.7 | नय - III.5.7 ]](सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वह काल भी दो प्रकार का है। सूक्ष्म एक समय मात्र है और स्थूल अंतर्मुहूर्त या संख्यात वर्ष।)</span><br /> | देखें [[ नय#III.5.7 | नय - III.5.7 ]](सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वह काल भी दो प्रकार का है। सूक्ष्म एक समय मात्र है और स्थूल अंतर्मुहूर्त या संख्यात वर्ष।)</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/1/95/6 <span class="SanskritText"> पर्याय एवार्थं: कार्यमस्य न द्रव्यम् अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् ।...पर्यायोऽर्थ: प्रयोजनमस्य वाग्विज्ञानव्यावृत्तिनिबंधनव्यवहारप्रसिद्धेरिति।</span>=<span class="HindiText">वर्तमान पर्याय ही अर्थ या कार्य है, द्रव्य नहीं, क्योंकि अतीत विनष्ट हो जाने के कारण और अनागत अभी उत्पन्न न होने के कारण (खरविषाण की तरह (स.म.) उनमें किसी प्रकार का भी व्यवहार संभव नहीं। [तथा अर्थ क्रियाशून्य होने के कारण वे अवस्तुरूप हैं (स.म.)] वचन व ज्ञान के व्यवहार की प्रसिद्धि के अर्थ वह पर्याय ही नय का प्रयोजन है।<br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/1/95/6</span> <span class="SanskritText"> पर्याय एवार्थं: कार्यमस्य न द्रव्यम् अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् ।...पर्यायोऽर्थ: प्रयोजनमस्य वाग्विज्ञानव्यावृत्तिनिबंधनव्यवहारप्रसिद्धेरिति।</span>=<span class="HindiText">वर्तमान पर्याय ही अर्थ या कार्य है, द्रव्य नहीं, क्योंकि अतीत विनष्ट हो जाने के कारण और अनागत अभी उत्पन्न न होने के कारण (खरविषाण की तरह (स.म.) उनमें किसी प्रकार का भी व्यवहार संभव नहीं। [तथा अर्थ क्रियाशून्य होने के कारण वे अवस्तुरूप हैं (स.म.)] वचन व ज्ञान के व्यवहार की प्रसिद्धि के अर्थ वह पर्याय ही नय का प्रयोजन है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.5.2" id="IV.3.5.2"><strong> क्षणस्थायी अर्थ ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.5.2" id="IV.3.5.2"><strong> क्षणस्थायी अर्थ ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/ | <span class="GRef">धवला 1/1,1,1/ गाथा 8/13</span> <span class="PrakritText">उप्पज्जंति वियेति य भावा णियतेण पज्जवणयस्स।8। </span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं। <span class="GRef">धवला 4/1,5,4/ गाथा 29/337)</span>, <span class="GRef">( धवला 9/4,1,49/ गाथा 94/244)</span>, <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/13-14/ गाथा 95/204/248)</span>, <span class="GRef">(पंचास्तिकाय/11)</span>, <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/247)</span>।<br /> | ||
देखें आगे [[नय#IV.3.7 | नय - IV.3.7]]–(पदार्थ का जन्म ही उसके नाश में हेतु है।)</span><br /> | देखें आगे [[नय#IV.3.7 | नय - IV.3.7]]–(पदार्थ का जन्म ही उसके नाश में हेतु है।)</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/ | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/190/ गाथा 91/228</span><span class="PrakritGatha"> प्रत्येकं जायते चित्तं जातं जातं प्रणश्यति। नष्टं नावर्तते भूयो जायते च नवं नवम् ।91। </span>=<span class="HindiText">प्रत्येक चित्त (ज्ञान) उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर नाश को प्राप्त हो जाता है। तथा जो नष्ट हो जाता है, वह पुन: उत्पन्न नहीं होता, किंतु प्रति समय नया नया चित्त ही उत्पन्न होता है। <span class="GRef">(धवला 6/1,9-9,5/420/5)</span>।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/1/95/1 <span class="SanskritText">पर्याय एवास्ति इति मतिरस्य जन्मादिभावविकारमात्रमेव भवनं, न ततोऽन्यद् द्रव्यमस्ति तद्वयतिरेकेणानुपलब्धिरिति पर्यायास्तिक:। </span>=<span class="HindiText">जन्म आदि भावविकार मात्र का होना ही पर्याय है। उस पर्याय का ही अस्तित्व है, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, क्योंकि उस पर्याय से पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं होती है। ऐसी जिनकी मान्यता है, सो पर्यायास्तिक नय है।<br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/1/95/1</span> <span class="SanskritText">पर्याय एवास्ति इति मतिरस्य जन्मादिभावविकारमात्रमेव भवनं, न ततोऽन्यद् द्रव्यमस्ति तद्वयतिरेकेणानुपलब्धिरिति पर्यायास्तिक:। </span>=<span class="HindiText">जन्म आदि भावविकार मात्र का होना ही पर्याय है। उस पर्याय का ही अस्तित्व है, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, क्योंकि उस पर्याय से पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं होती है। ऐसी जिनकी मान्यता है, सो पर्यायास्तिक नय है।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.3.6" id="IV.3.6"><strong>काल एकत्व विषयक उदाहरण</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.6" id="IV.3.6"><strong>काल एकत्व विषयक उदाहरण</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/ | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/7/ पंक्ति</span>–<span class="SanskritText">कषायो भैषज्यम् इत्यत्र च संजातरस: कषायो भैषज्यं न प्राथमिककषायोऽल्पोऽनभिव्यक्तरसत्वादस्य विषय:। (1)। ‘‘....’’ तथा प्रतिष्ठंतेऽस्मिंनिति प्रस्थ:, यदैव मिमीते, अतीतानागतधान्यमानासंभवात् । (11) ‘‘....’’ स्थितप्रश्ने च ‘कुतोऽद्यागच्छसि इति। ‘न कुतश्चित्’ इत्यर्थं मन्यते, तत्कालक्रियापरिणामाभावात् ।(14)।</span>= | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText" name="IV.3.6.1" id="IV.3.6.1"> ‘कषायो भैषज्यम्’ में वर्तमानकालीन वह कषाय भैषज हो सकती है जिसमें रस का परिपाक हुआ है, न कि प्राथमिक अल्प रस वाला कच्चा कषाय। </li> | <li class="HindiText" name="IV.3.6.1" id="IV.3.6.1"> ‘कषायो भैषज्यम्’ में वर्तमानकालीन वह कषाय भैषज हो सकती है जिसमें रस का परिपाक हुआ है, न कि प्राथमिक अल्प रस वाला कच्चा कषाय। </li> | ||
<li class="HindiText" name="IV.3.6.2" id="IV.3.6.2"> जिस समय प्रस्थ से धान्य आदि मापा जाता है उसी समय उसे प्रस्थ कह सकते हैं, क्योंकि वर्तमान में अतीत और अनागत वाले धान्य का माप नहीं होता है। ( धवला 9/4,1,45/173/5 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/186/224/8 ) </li> | <li class="HindiText" name="IV.3.6.2" id="IV.3.6.2"> जिस समय प्रस्थ से धान्य आदि मापा जाता है उसी समय उसे प्रस्थ कह सकते हैं, क्योंकि वर्तमान में अतीत और अनागत वाले धान्य का माप नहीं होता है। <span class="GRef">( धवला 9/4,1,45/173/5)</span>; <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/186/224/8 )</span> </li> | ||
<li class="HindiText" name="IV.3.6.3" id="IV.3.6.3"> जिस समय जो बैठा है उससे यदि पूछा जाय कि आप अब कहाँ से आ रहे हैं, तो वह यही कहेगा कि ‘कहीं से भी नहीं आ रहा हूँ’ क्योंकि, उस समय आगमन क्रिया नहीं हो रही है। ( धवला 9/4,1,45/174/1 ), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/187/225/7 )<br /></li> | <li class="HindiText" name="IV.3.6.3" id="IV.3.6.3"> जिस समय जो बैठा है उससे यदि पूछा जाय कि आप अब कहाँ से आ रहे हैं, तो वह यही कहेगा कि ‘कहीं से भी नहीं आ रहा हूँ’ क्योंकि, उस समय आगमन क्रिया नहीं हो रही है। <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/174/1)</span>, <span class="GRef">( कषायपाहुड़ 1/13-14/187/225/7 )</span><br /></li> | ||
<li name="IV.3.6.4" id="IV.3.6.4"> राजवार्तिक/1/33/7/98/7 <span class="SanskritText">न शुक्ल: कृष्णीभवति; उभयोर्भिन्नकालावस्थत्वात्, प्रत्युत्पन्नविषये निवृत्तपर्यायानभिसंबंधात् ।</span>= | <li name="IV.3.6.4" id="IV.3.6.4"> राजवार्तिक/1/33/7/98/7</span> <span class="SanskritText">न शुक्ल: कृष्णीभवति; उभयोर्भिन्नकालावस्थत्वात्, प्रत्युत्पन्नविषये निवृत्तपर्यायानभिसंबंधात् ।</span>= | ||
<span class="HindiText">ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से सफेद चीज काली नहीं बन सकती, क्योंकि दोनों का समय भिन्न-भिन्न है। वर्तमान के साथ अतीत का कोई संबंध नहीं है। ( धवला 9/4,1,45/176/3 ), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/194/230/6 )</span><br /></li> | <span class="HindiText">ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से सफेद चीज काली नहीं बन सकती, क्योंकि दोनों का समय भिन्न-भिन्न है। वर्तमान के साथ अतीत का कोई संबंध नहीं है। <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/176/3)</span>, <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/194/230/6)</span></span><br /></li> | ||
<li name="IV.3.6.5" id="IV.3.6.5">कषायपाहुड़ 1/13-14/279/316/5 | <li name="IV.3.6.5" id="IV.3.6.5"><span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/279/316/5 </span> <span class="PrakritText">सद्दणयस्स कोहोदओ कोहकसाओ, तस्स विसए दव्वाभावादो। </span>= | ||
<span class="HindiText"> शब्दनय की अपेक्षा क्रोध का उदय ही क्रोध कषाय है; क्योंकि, इस नय के विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता।<br /> | <span class="HindiText"> शब्दनय की अपेक्षा क्रोध का उदय ही क्रोध कषाय है; क्योंकि, इस नय के विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.6.6" id="IV.3.6.6"> पलाल दाह संभव नहीं</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.6.6" id="IV.3.6.6"> पलाल दाह संभव नहीं</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/97/26 <span class="SanskritText">अत: पलालादिदाहाभाव: प्रतिविशिष्टकालपरिग्रहात् । अस्य हि नयस्याविभागो वर्तमानसमयो विषय:। अग्निसंबंधनदीपनज्वलनदहनानि असंख्येयसमयांतरालानि यतोऽस्य दहनाभाव:। किंच यस्मिन्समये दाह: न तस्मिन्पलालम्, भस्मताभिनिवृत्ते: यस्मिंश्च पलालं न तस्मिन् दाह इति। एवं क्रियमाणकृत-भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिध्यत्सिद्धादयो योज्या:। </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता; क्योंकि इस नय का विषय अविभागी वर्तमान समयमात्र है। अग्नि सुलगाना धौंकना और जलाना आदि असंख्य समय की क्रियाएँ वर्तमान क्षण में नहीं हो सकतीं। तथा जिस समय दाह है, उस समय पलाल नहीं है, और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं है, फिर पलाल दाह कैसा? इसी प्रकार क्रियमाण-कृत, भुज्यमान-भुक्त, बध्यमान-बद्ध, सिद्धयत्-सिद्ध आदि विषयों में लागू करना चाहिए। ( धवला 9/4,1,45/175/8 )<br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/7/97/26</span> <span class="SanskritText">अत: पलालादिदाहाभाव: प्रतिविशिष्टकालपरिग्रहात् । अस्य हि नयस्याविभागो वर्तमानसमयो विषय:। अग्निसंबंधनदीपनज्वलनदहनानि असंख्येयसमयांतरालानि यतोऽस्य दहनाभाव:। किंच यस्मिन्समये दाह: न तस्मिन्पलालम्, भस्मताभिनिवृत्ते: यस्मिंश्च पलालं न तस्मिन् दाह इति। एवं क्रियमाणकृत-भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिध्यत्सिद्धादयो योज्या:। </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता; क्योंकि इस नय का विषय अविभागी वर्तमान समयमात्र है। अग्नि सुलगाना धौंकना और जलाना आदि असंख्य समय की क्रियाएँ वर्तमान क्षण में नहीं हो सकतीं। तथा जिस समय दाह है, उस समय पलाल नहीं है, और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं है, फिर पलाल दाह कैसा? इसी प्रकार क्रियमाण-कृत, भुज्यमान-भुक्त, बध्यमान-बद्ध, सिद्धयत्-सिद्ध आदि विषयों में लागू करना चाहिए। <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/175/8 )<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.6.7" id="IV.3.6.7"> पच्यमान ही पक्व है</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.6.7" id="IV.3.6.7"> पच्यमान ही पक्व है</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/97/3 <span class="SanskritText">पच्यमान: पक्व:। पक्वस्तु स्यात्पच्यमान: स्यादुपरतपाक इति। असदेतत्; विरोधात् । ‘पच्यमान:’ इति वर्तमान: ‘पक्व:’ इत्यतीत: तयोरेकस्मिन्नवरोधो विरोधीति; नैष दोष:; पचनस्यादावविभागसमये कश्चिदंशो निर्वृत्तो वा, न वा। यदि न निर्वृत्त:; तद्द्वितीयादिष्वप्यनिर्वृत्त: पाकाभाव: स्यात् । ततोऽभिनिर्वृत्त: तदपेक्षया ‘पच्यमान: पक्व:’ इतरथा हि समयस्य त्रैविध्यप्रसंग:। स एवौदन: पच्यमान: पक्व:, स्यात्पच्यमान इत्युच्यते, पक्तुरभिप्रायस्यानिर्वृत्ते:, पक्तुर्हि सुविशदसुस्विन्नौदने पक्वाभिप्राय:, स्यादुपरतपाक इति चोच्यते कस्यचित् पक्तुस्तावतैव कृतार्थत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय का विषय पच्यमान पक्व है और ‘कथंचित् पकने वाला’ और ‘कथंचित् पका हुआ’ हुआ। प्रश्न–पच्यमान (पक रहा) वर्तमानकाल को, और पक्व (पक चुका) भूतकाल को सूचित करता है, अत: दोनों का एक में रहना विरुद्ध है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है। पाचन क्रिया के प्रारंभ होने के प्रथम समय में कुछ अंश पका या नहीं? यदि नहीं तो द्वितीयादि समयों में भी इसी प्रकार न पका। इस प्रकार पाक के अभाव का प्रसंग आता है। यदि कुछ अंश पक गया है तो उस अंश की अपेक्षा तो वह पच्यमान भी ओदन पक्व क्यों न कहलायेगा। अन्यथा समय के तीन खंड होने का प्रसंग प्राप्त होगा। (और पुन: उस समय खंड में भी उपरोक्त ही शंका समाधान होने से अनवस्था आयेगी) वही पका हुआ ओदन कथंचित् ‘पच्यमान’ ऐसा कहा जाता है; क्योंकि, विशदरूप से पूर्णतया पके हुए ओदन में पाचक का पक्व से अभिप्राय है। कुछ अंशों में पचनक्रिया के फल की उत्पत्ति के विराम होने की अपेक्षा वही ओदन ‘उपरत पाक’ अर्थात् कथंचित् पका हुआ कहा जाता है। इसी प्रकार क्रियमाण-कृत; भुज्यमान-भुक्त; बध्यमान-बद्ध; और सिद्धयत्-सिद्ध इत्यादि ऋजुसूत्र नय के विषय जानने चाहिए। ( धवला 9/4,1,45/172 .3), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3 )<br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/7/97/3</span> <span class="SanskritText">पच्यमान: पक्व:। पक्वस्तु स्यात्पच्यमान: स्यादुपरतपाक इति। असदेतत्; विरोधात् । ‘पच्यमान:’ इति वर्तमान: ‘पक्व:’ इत्यतीत: तयोरेकस्मिन्नवरोधो विरोधीति; नैष दोष:; पचनस्यादावविभागसमये कश्चिदंशो निर्वृत्तो वा, न वा। यदि न निर्वृत्त:; तद्द्वितीयादिष्वप्यनिर्वृत्त: पाकाभाव: स्यात् । ततोऽभिनिर्वृत्त: तदपेक्षया ‘पच्यमान: पक्व:’ इतरथा हि समयस्य त्रैविध्यप्रसंग:। स एवौदन: पच्यमान: पक्व:, स्यात्पच्यमान इत्युच्यते, पक्तुरभिप्रायस्यानिर्वृत्ते:, पक्तुर्हि सुविशदसुस्विन्नौदने पक्वाभिप्राय:, स्यादुपरतपाक इति चोच्यते कस्यचित् पक्तुस्तावतैव कृतार्थत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय का विषय पच्यमान पक्व है और ‘कथंचित् पकने वाला’ और ‘कथंचित् पका हुआ’ हुआ। प्रश्न–पच्यमान (पक रहा) वर्तमानकाल को, और पक्व (पक चुका) भूतकाल को सूचित करता है, अत: दोनों का एक में रहना विरुद्ध है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है। पाचन क्रिया के प्रारंभ होने के प्रथम समय में कुछ अंश पका या नहीं? यदि नहीं तो द्वितीयादि समयों में भी इसी प्रकार न पका। इस प्रकार पाक के अभाव का प्रसंग आता है। यदि कुछ अंश पक गया है तो उस अंश की अपेक्षा तो वह पच्यमान भी ओदन पक्व क्यों न कहलायेगा। अन्यथा समय के तीन खंड होने का प्रसंग प्राप्त होगा। (और पुन: उस समय खंड में भी उपरोक्त ही शंका समाधान होने से अनवस्था आयेगी) वही पका हुआ ओदन कथंचित् ‘पच्यमान’ ऐसा कहा जाता है; क्योंकि, विशदरूप से पूर्णतया पके हुए ओदन में पाचक का पक्व से अभिप्राय है। कुछ अंशों में पचनक्रिया के फल की उत्पत्ति के विराम होने की अपेक्षा वही ओदन ‘उपरत पाक’ अर्थात् कथंचित् पका हुआ कहा जाता है। इसी प्रकार क्रियमाण-कृत; भुज्यमान-भुक्त; बध्यमान-बद्ध; और सिद्धयत्-सिद्ध इत्यादि ऋजुसूत्र नय के विषय जानने चाहिए। <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/172 .3)</span>, <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3)</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.7" id="IV.3.7"><strong> भाव की अपेक्षा विषय की एकत्वता </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.7" id="IV.3.7"><strong> भाव की अपेक्षा विषय की एकत्वता </strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/1/95/7 <span class="SanskritText">स एव एक: कार्यकारणव्यपदेशभागिति पर्यायार्थिक:। </span>= <span class="HindiText">वह पर्याय ही अकेली कार्य व कारण दोनों नामों को प्राप्त होती हैं, ऐसा पर्यायार्थिक नय है।</span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/1/95/7</span> <span class="SanskritText">स एव एक: कार्यकारणव्यपदेशभागिति पर्यायार्थिक:। </span>= <span class="HindiText">वह पर्याय ही अकेली कार्य व कारण दोनों नामों को प्राप्त होती हैं, ऐसा पर्यायार्थिक नय है।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/ | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/190/ गाथा 90/227</span> <span class="SanskritText">जातिरेव हि भावानां निरोधे हेतुरिष्यते।</span> =<span class="HindiText">जन्म ही पदार्थ के विनाश में हेतु है।</span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/176/2 <span class="SanskritText"> य: पलालो न स दह्यते, तत्राग्निसंबंधजनितातिशयांतराभावात्, भावो वा न स पलालप्राप्तोऽन्यस्वरूपत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">अग्नि जनित अतिशयांतर का अभाव होने से पलाल नहीं जलता। उस स्वरूप न होने से वह अतिशयांतर पलाल को प्राप्त नहीं है।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/176/2</span> <span class="SanskritText"> य: पलालो न स दह्यते, तत्राग्निसंबंधजनितातिशयांतराभावात्, भावो वा न स पलालप्राप्तोऽन्यस्वरूपत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">अग्नि जनित अतिशयांतर का अभाव होने से पलाल नहीं जलता। उस स्वरूप न होने से वह अतिशयांतर पलाल को प्राप्त नहीं है।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/278/315/1 <span class="SanskritGatha"> उजुसुदेसु बहुअग्गहो णत्थि त्ति एयसत्तिसहियएयमणब्भुवगमादो। </span>=<span class="HindiText">एक क्षण में एक शक्ति से युक्त एक ही मन पाया जाता है, इसलिए ऋजुसूत्रनय में बहुअवग्रह नहीं होता।</span><br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/278/315/1 </span><span class="SanskritGatha"> उजुसुदेसु बहुअग्गहो णत्थि त्ति एयसत्तिसहियएयमणब्भुवगमादो। </span>=<span class="HindiText">एक क्षण में एक शक्ति से युक्त एक ही मन पाया जाता है, इसलिए ऋजुसूत्रनय में बहुअवग्रह नहीं होता।</span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/313/1 <span class="SanskritText">तदपि च निरंशमभ्युपगंतव्यम् । अंशव्याप्तेर्युक्तिरिक्तत्वात् । एकस्य अनेकस्वभावतामंतरेण अनेकस्यावयवव्यापनायोगात् । अनेकस्वभावता एवास्तु इति चेत् । न, विरोधव्याघ्रातत्वात् । तथाहि–यदि एकस्वभाव: कथमनेक: अनेकश्चेत्कथमेक:। अनेकानेकयो: परस्परपरिहारेणावस्थानात् । तस्मात् स्वरूपनिमग्ना: परमाणव एव परस्परापसर्णद्वारेण न स्थूलतां धारयत् पारमार्थिकमिति। </span>=<span class="HindiText">वस्तु का स्वरूप निरंश मानना चाहिए, क्योंकि वस्तु को अंश सहित मानना युक्ति से सिद्ध नहीं होता। प्रश्न–एक वस्तु के अनेकस्वभाव माने बिना वह अनेक अवयवों में नहीं रह सकती, इसलिए वस्तु में अनेकस्वभाव मानना चाहिए? उत्तर–यह ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध होने से एक स्वभाव वाली वस्तु में अनेक स्वभाव और अनेक स्वभाव वाली वस्तु में एकस्वभाव नहीं बन सकते। अतएव अपने स्वरूप में स्थित परमाणु ही परस्पर के संयोग से कथंचित् समूह रूप होकर संपूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा स्थूलरूप को न धारण करने वाले स्वरूप में स्थित परमाणु ही यथार्थ में सत् कहे जा सकते हैं।<br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/313/1</span> <span class="SanskritText">तदपि च निरंशमभ्युपगंतव्यम् । अंशव्याप्तेर्युक्तिरिक्तत्वात् । एकस्य अनेकस्वभावतामंतरेण अनेकस्यावयवव्यापनायोगात् । अनेकस्वभावता एवास्तु इति चेत् । न, विरोधव्याघ्रातत्वात् । तथाहि–यदि एकस्वभाव: कथमनेक: अनेकश्चेत्कथमेक:। अनेकानेकयो: परस्परपरिहारेणावस्थानात् । तस्मात् स्वरूपनिमग्ना: परमाणव एव परस्परापसर्णद्वारेण न स्थूलतां धारयत् पारमार्थिकमिति। </span>=<span class="HindiText">वस्तु का स्वरूप निरंश मानना चाहिए, क्योंकि वस्तु को अंश सहित मानना युक्ति से सिद्ध नहीं होता। प्रश्न–एक वस्तु के अनेकस्वभाव माने बिना वह अनेक अवयवों में नहीं रह सकती, इसलिए वस्तु में अनेकस्वभाव मानना चाहिए? उत्तर–यह ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध होने से एक स्वभाव वाली वस्तु में अनेक स्वभाव और अनेक स्वभाव वाली वस्तु में एकस्वभाव नहीं बन सकते। अतएव अपने स्वरूप में स्थित परमाणु ही परस्पर के संयोग से कथंचित् समूह रूप होकर संपूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा स्थूलरूप को न धारण करने वाले स्वरूप में स्थित परमाणु ही यथार्थ में सत् कहे जा सकते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.8" id="IV.3.8"><strong> किसी भी प्रकार का संबंध संभव नहीं</strong><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8" id="IV.3.8"><strong> किसी भी प्रकार का संबंध संभव नहीं</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.8.1" id="IV.3.8.1"><strong> विशेष्य विशेषण भाव संभव नहीं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8.1" id="IV.3.8.1"><strong> विशेष्य विशेषण भाव संभव नहीं</strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/229/6 | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/193/229/6 </span> <span class="SanskritText">नास्य विशेषणविशेष्यभावोऽपि। तद्यथा–न तावद्भिन्नयो:; अव्यवस्थापत्ते:। नाभिन्नयो: एकस्मिंस्तद्विरोधात् । </span>=<span class="HindiText">इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि से विशेष्य विशेषण भाव भी नहीं बनता। वह ऐसे कि–दो भिन्न पदार्थों में तो वह बन नहीं सकता; क्योंकि, ऐसा मानने से अव्यवस्था की आपत्ति आती है। और अभिन्न दो पदार्थों में अर्थात् गुण गुणी में भी वह बन नहीं सकता क्योंकि जो एक है उसमें इस प्रकार का द्वैत करने से विरोध आता है। <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/200/240/6)</span>, <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/174/7, तथा पृ.179/6)</span>।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.8.2" id="IV.3.8.2"><strong> संयोग व समवाय संबंध संभव नहीं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8.2" id="IV.3.8.2"><strong> संयोग व समवाय संबंध संभव नहीं</strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/229/7 <span class="SanskritText">न भिन्नाभिन्नयोरस्य नयस्य संयोग: समवायो वास्ति; सर्वथैकत्वमापन्नयो: परित्यक्तस्वरूपयोस्तद्विरोधात् । नैकत्वमापन्नयोस्तौ; अव्यवस्थापत्ते:। तत: सजातीयविजातीयविनिर्मुक्ता: केवला: परमाणव एव संतीति भ्रांत: स्तंभादिस्कंधप्रत्यय:। </span>=<span class="HindiText">इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि से सर्वथा अभिन्न दो पदार्थों में संयोग व समवाय संबंध नहीं बन सकता; क्योंकि, सर्वथा एकत्व को प्राप्त हो गये हैं और जिन्होंने अपने स्वरूप को छोड़ दिया है ऐसे दो पदार्थों में संबंध मानने में विरोध आता है। इसी प्रकार सर्वथा भिन्न दो पदार्थों में भी संयोग या समवाय संबंध मानने में विरोध आता है, तथा अव्यवस्था की आपत्ति भी आती है अर्थात् किसी का भी किसी के साथ संबंध हो जायेगा। इसलिए सजातीय और विजातीय दोनों प्रकार की उपाधियों से रहित शुद्ध परमाणु ही सत् है। अत: जो स्तंभादिरूप स्कंधों का प्रत्यय होता है, वह ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में भ्रांत है। (और भी देखें [[ नय#IV.3.4.2 | पीछे शीर्षक नं - 4.2]]), ( स्याद्वादमंजरी/28/313/5 )।<br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/193/229/7</span> <span class="SanskritText">न भिन्नाभिन्नयोरस्य नयस्य संयोग: समवायो वास्ति; सर्वथैकत्वमापन्नयो: परित्यक्तस्वरूपयोस्तद्विरोधात् । नैकत्वमापन्नयोस्तौ; अव्यवस्थापत्ते:। तत: सजातीयविजातीयविनिर्मुक्ता: केवला: परमाणव एव संतीति भ्रांत: स्तंभादिस्कंधप्रत्यय:। </span>=<span class="HindiText">इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि से सर्वथा अभिन्न दो पदार्थों में संयोग व समवाय संबंध नहीं बन सकता; क्योंकि, सर्वथा एकत्व को प्राप्त हो गये हैं और जिन्होंने अपने स्वरूप को छोड़ दिया है ऐसे दो पदार्थों में संबंध मानने में विरोध आता है। इसी प्रकार सर्वथा भिन्न दो पदार्थों में भी संयोग या समवाय संबंध मानने में विरोध आता है, तथा अव्यवस्था की आपत्ति भी आती है अर्थात् किसी का भी किसी के साथ संबंध हो जायेगा। इसलिए सजातीय और विजातीय दोनों प्रकार की उपाधियों से रहित शुद्ध परमाणु ही सत् है। अत: जो स्तंभादिरूप स्कंधों का प्रत्यय होता है, वह ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में भ्रांत है। (और भी देखें [[ नय#IV.3.4.2 | पीछे शीर्षक नं - 4.2]]), <span class="GRef">(स्याद्वादमंजरी/28/313/5)</span>।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.8.3" id="IV.3.8.3"><strong> कोई किसी के समान नहीं है </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8.3" id="IV.3.8.3"><strong> कोई किसी के समान नहीं है </strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/230/3 <span class="SanskritText">नास्य नयस्य समानमस्ति; सर्वथा द्वयो: समानत्वे एकत्वापत्ते:। न कथंचित्समानतापि; विरोधात् । </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में कोई किसी के समान नहीं है, क्योंकि दो को सर्वथा समान मान लेने पर, उन दोनों में एकत्व की आपत्ति प्राप्त होती है। कथंचित् समानता भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।<br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/193/230/3</span> <span class="SanskritText">नास्य नयस्य समानमस्ति; सर्वथा द्वयो: समानत्वे एकत्वापत्ते:। न कथंचित्समानतापि; विरोधात् । </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में कोई किसी के समान नहीं है, क्योंकि दो को सर्वथा समान मान लेने पर, उन दोनों में एकत्व की आपत्ति प्राप्त होती है। कथंचित् समानता भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.3.8.4" id="IV.3.8.4"><strong>ग्राह्यग्राहकभाव संभव नहीं </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.8.4" id="IV.3.8.4"><strong>ग्राह्यग्राहकभाव संभव नहीं </strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/195/230/8 <span class="SanskritText">नास्य नयस्य ग्राह्यग्राहकभावोऽप्यस्ति। तद्यथा–नासंबद्धोऽर्थो गृह्यते; अव्यवस्थापत्ते:। न संबद्ध:; तस्यातीतत्वात्, चक्षुषा व्यभिचाराच्च। न समानो गृह्यते; तस्यासत्त्वात् मनस्कारेण व्यभिचारात् । </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में ग्राह्यग्राहक भाव भी नहीं बनता। वह ऐसे कि–असंबद्ध अर्थ के ग्रहण मानने में अव्यवस्था की आपत्ति और संबद्ध का ग्रहण मानने में विरोध आता है, क्योंकि वह पदार्थ ग्रहणकाल में रहता ही नहीं है, तथा चक्षु इंद्रिय के साथ व्यभिचार भी आता है, क्योंकि चक्षु इंद्रिय अपने को नहीं जान सकती। समान अर्थ का भी ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि एक तो समान पदार्थ है ही नहीं (देखें [[ नय#IV.3.8.3 | ऊपर ]]) और दूसरे ऐसा मानने से मनस्कार के साथ व्यभिचार आता है अर्थात् समान होते हुए भी पूर्वज्ञान उत्तर ज्ञान के द्वारा गृहीत नहीं होता है।<br /> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/195/230/8</span> <span class="SanskritText">नास्य नयस्य ग्राह्यग्राहकभावोऽप्यस्ति। तद्यथा–नासंबद्धोऽर्थो गृह्यते; अव्यवस्थापत्ते:। न संबद्ध:; तस्यातीतत्वात्, चक्षुषा व्यभिचाराच्च। न समानो गृह्यते; तस्यासत्त्वात् मनस्कारेण व्यभिचारात् । </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में ग्राह्यग्राहक भाव भी नहीं बनता। वह ऐसे कि–असंबद्ध अर्थ के ग्रहण मानने में अव्यवस्था की आपत्ति और संबद्ध का ग्रहण मानने में विरोध आता है, क्योंकि वह पदार्थ ग्रहणकाल में रहता ही नहीं है, तथा चक्षु इंद्रिय के साथ व्यभिचार भी आता है, क्योंकि चक्षु इंद्रिय अपने को नहीं जान सकती। समान अर्थ का भी ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि एक तो समान पदार्थ है ही नहीं (देखें [[ नय#IV.3.8.3 | ऊपर ]]) और दूसरे ऐसा मानने से मनस्कार के साथ व्यभिचार आता है अर्थात् समान होते हुए भी पूर्वज्ञान उत्तर ज्ञान के द्वारा गृहीत नहीं होता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.8.5" id="IV.3.8.5"><strong> वाच्यवाचकभाव संभव नहीं </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8.5" id="IV.3.8.5"><strong> वाच्यवाचकभाव संभव नहीं </strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/196/231/3 <span class="SanskritText">नास्य शुद्धस्य (नयस्य) वाच्यवाचकभावोऽस्ति। तद्यथा–न संबद्धार्थ: शब्दवाच्य:; तस्यातीतत्वात् । नासंबद्ध: अव्यवस्थापत्ते:। नार्थेन शब्द उत्पाद्यते; ताल्वादिभ्यस्तदुत्पत्त्युपलंभात् । न शब्दादर्थ उत्पद्यते, शब्दोत्पत्ते: प्रागपि अर्थसत्त्वोपलंभात् । न शब्दार्थयोस्तादात्म्यलक्षण: प्रतिबंध: करणाधिकरणभेदेन प्रतिपन्नभेदयोरेकत्वविरोधात्, क्षुरमोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटनपूरणप्रसंगात् । ततो न वाच्यवाचकभाव इति। </span>= | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/196/231/3</span> <span class="SanskritText">नास्य शुद्धस्य (नयस्य) वाच्यवाचकभावोऽस्ति। तद्यथा–न संबद्धार्थ: शब्दवाच्य:; तस्यातीतत्वात् । नासंबद्ध: अव्यवस्थापत्ते:। नार्थेन शब्द उत्पाद्यते; ताल्वादिभ्यस्तदुत्पत्त्युपलंभात् । न शब्दादर्थ उत्पद्यते, शब्दोत्पत्ते: प्रागपि अर्थसत्त्वोपलंभात् । न शब्दार्थयोस्तादात्म्यलक्षण: प्रतिबंध: करणाधिकरणभेदेन प्रतिपन्नभेदयोरेकत्वविरोधात्, क्षुरमोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटनपूरणप्रसंगात् । ततो न वाच्यवाचकभाव इति। </span>= | ||
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<li class="HindiText"> इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में वाच्यवाचक भाव भी नहीं होता। वह ऐसे कि–शब्दप्रयोग काल में उसके वाच्यभूत अर्थ का अभाव हो जाने से संबद्ध अर्थ उसका वाच्य नहीं हो सकता। असंबद्ध अर्थ भी वाच्य नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने से अव्यवस्थादोष की आपत्ति आती है। </li> | <li class="HindiText"> इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में वाच्यवाचक भाव भी नहीं होता। वह ऐसे कि–शब्दप्रयोग काल में उसके वाच्यभूत अर्थ का अभाव हो जाने से संबद्ध अर्थ उसका वाच्य नहीं हो सकता। असंबद्ध अर्थ भी वाच्य नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने से अव्यवस्थादोष की आपत्ति आती है। </li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.8.6" id="IV.3.8.6"><strong> बंध्यबंधक आदि अन्य भी कोई संबंध संभव नहीं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8.6" id="IV.3.8.6"><strong> बंध्यबंधक आदि अन्य भी कोई संबंध संभव नहीं</strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/191/228/3 <span class="SanskritText">ततोऽस्य नयस्य न बंध्यबंधक-बध्यघातक-दाह्यदाहक-संसारादय: संति।</span> =<span class="HindiText">इसलिए इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में बंध्यबंधकभाव, बध्यघातकभाव, दाह्यदाहकभाव और संसारादि कुछ भी नहीं बन सकते हैं। </span></li> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/191/228/3</span> <span class="SanskritText">ततोऽस्य नयस्य न बंध्यबंधक-बध्यघातक-दाह्यदाहक-संसारादय: संति।</span> =<span class="HindiText">इसलिए इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में बंध्यबंधकभाव, बध्यघातकभाव, दाह्यदाहकभाव और संसारादि कुछ भी नहीं बन सकते हैं। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.9.1" id="IV.3.9.1"><strong> कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.9.1" id="IV.3.9.1"><strong> कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है </strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/1/24/8/32 <span class="SanskritText">नेमौ ज्ञानदर्शनशब्दौ करणसाधनौ। किं तर्हि। कर्तृसाधनौ। तथा चारित्रशब्दोऽपि न कर्मसाधन:। किं तर्हि। कर्तृसाधन:। कथम् । एवंभूतनयवशात् । </span>=<span class="HindiText">एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन व चारित्र ये तीनों (तथा उपलक्षण से अन्य सभी) शब्द कर्म साधन नहीं होते, कर्तासाधन ही होते हैं। </span> कषायपाहुड़ 1/13-14/284/319/3 <span class="SanskritText">कर्तृसाधन: कषाय:। एदं णेगमसंगहववहारउजुसुदाणं; तत्थ कज्जकरणभावसंभवादो। तिण्हं सद्दणयाणं ण केण वि कसाओ; तत्थ कारणेण बिणा कज्जुप्पत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">’कषाय शब्द कर्तृसाधन है’, ऐसी बात नैगम (अशुद्ध) संग्रह, व्यवहार व (स्थूल) ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा समझनी चाहिए; क्योंकि, इन नयों में कार्य कारणभाव संभव है। परंतु (सूक्ष्म ऋजुसूत्र) शब्द, समभिरूढ व एवंभूत इन तीनों शब्द नयों की अपेक्षा कषाय किसी भी साधन से उत्पन्न नहीं होती है; क्योंकि इन नयों की दृष्टि में कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। </span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/1/24/8/32</span> <span class="SanskritText">नेमौ ज्ञानदर्शनशब्दौ करणसाधनौ। किं तर्हि। कर्तृसाधनौ। तथा चारित्रशब्दोऽपि न कर्मसाधन:। किं तर्हि। कर्तृसाधन:। कथम् । एवंभूतनयवशात् । </span>=<span class="HindiText">एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन व चारित्र ये तीनों (तथा उपलक्षण से अन्य सभी) शब्द कर्म साधन नहीं होते, कर्तासाधन ही होते हैं। </span><br> | ||
धवला 12/4,2,8,15/292/9 <span class="PrakritText">तिण्णं संद्दणयाणं णाणावरणीयपोग्गलक्खंदोदयजणिदण्णाणं वेयणा। ण सा जोगकसाएहिंतो उप्पज्जदे णिस्सत्तीदो सत्तिविसेसस्स उप्पत्तिविरोहादो। णोदयगदकम्मदव्वक्खंधादो, पज्जयवदिरित्तदव्वाभावादो। </span>=<span class="HindiText">तीनों शब्दनयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय संबंधी पौद्गलिक स्कंधों के उदय से उत्पन्न अज्ञान को ज्ञानावरणीय वेदना कहा जाता है। परंतु वह (ज्ञानावरणीय वेदना) योग व कषाय से उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि जिसमें जो शक्ति नहीं है, उससे उस शक्ति विशेष की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। तथा वह उदयगत कर्मस्कंध से भी उत्पन्न नहीं हो सकती; क्योंकि, (इन नयों में) पर्यायों से भिन्न द्रव्य का अभाव है। </span></li> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/284/319/3</span> <span class="SanskritText">कर्तृसाधन: कषाय:। एदं णेगमसंगहववहारउजुसुदाणं; तत्थ कज्जकरणभावसंभवादो। तिण्हं सद्दणयाणं ण केण वि कसाओ; तत्थ कारणेण बिणा कज्जुप्पत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">’कषाय शब्द कर्तृसाधन है’, ऐसी बात नैगम (अशुद्ध) संग्रह, व्यवहार व (स्थूल) ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा समझनी चाहिए; क्योंकि, इन नयों में कार्य कारणभाव संभव है। परंतु (सूक्ष्म ऋजुसूत्र) शब्द, समभिरूढ व एवंभूत इन तीनों शब्द नयों की अपेक्षा कषाय किसी भी साधन से उत्पन्न नहीं होती है; क्योंकि इन नयों की दृष्टि में कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। </span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला 12/4,2,8,15/292/9</span> <span class="PrakritText">तिण्णं संद्दणयाणं णाणावरणीयपोग्गलक्खंदोदयजणिदण्णाणं वेयणा। ण सा जोगकसाएहिंतो उप्पज्जदे णिस्सत्तीदो सत्तिविसेसस्स उप्पत्तिविरोहादो। णोदयगदकम्मदव्वक्खंधादो, पज्जयवदिरित्तदव्वाभावादो। </span>=<span class="HindiText">तीनों शब्दनयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय संबंधी पौद्गलिक स्कंधों के उदय से उत्पन्न अज्ञान को ज्ञानावरणीय वेदना कहा जाता है। परंतु वह (ज्ञानावरणीय वेदना) योग व कषाय से उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि जिसमें जो शक्ति नहीं है, उससे उस शक्ति विशेष की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। तथा वह उदयगत कर्मस्कंध से भी उत्पन्न नहीं हो सकती; क्योंकि, (इन नयों में) पर्यायों से भिन्न द्रव्य का अभाव है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.9.2" id="IV.3.9.2"><strong> विनाश निर्हेतुक होता है </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.9.2" id="IV.3.9.2"><strong> विनाश निर्हेतुक होता है </strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/226/8 <span class="SanskritText">अस्य नयस्य निर्हेतुको विनाश:। तद्यथा–न तावत्प्रसज्यरूप: परत उत्पद्यते; कारकप्रतिषेधे व्यापृतात्परस्माद् घटाभावविरोधात् । न पर्युदासो व्यतिरिक्त उत्पद्यते; ततो व्यतिरिक्तघटोत्पत्तावर्पितघटस्य विनाशविरोधात् । नाव्यतिरिक्त:; उत्पन्नस्योत्पत्तिविरोधात् । ततो निर्हेतुको विनाश इति सिद्धम् ।</span> = <span class="HindiText">इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में विनाश निर्हेतुक है। वह इस प्रकार कि–प्रसज्यरूप अभाव तो पर से उत्पन्न हो नहीं सकता; क्योंकि, तहाँ क्रिया के साथ निषेध वाचक ‘नञ्’ का संबंध होता है। अत: क्रिया का निषेध करने वाले उसके द्वारा घट का अभाव मानने में विरोध आता है। अर्थात् जब वह क्रिया का ही निषेध करता रहेगा तो विनाशरूप अभाव का भी कर्ता न हो सकेगा। पर्युदासरूप अभाव भी पर से उत्पन्न नहीं होता है। पर्युदास से व्यतिरिक्त घट की उत्पत्ति मानने पर विवक्षित घट के विनाश के साथ विरोध आता है। घट से अभिन्न पर्युदास की उत्पत्ति मानने पर दोनों की उत्पत्ति एकरूप हो जाती है, तब उसकी घट से उत्पत्ति हुई नहीं कही जा सकती। और घट तो उस अभाव से पहिले ही उत्पन्न हो चुका है, अत: उत्पन्न की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। इसलिए विनाश निर्हेतुक है यह सिद्ध होता है। ( धवला 9/4,1,45/175/2 )। </span></li> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/13-14/190/226/8</span> <span class="SanskritText">अस्य नयस्य निर्हेतुको विनाश:। तद्यथा–न तावत्प्रसज्यरूप: परत उत्पद्यते; कारकप्रतिषेधे व्यापृतात्परस्माद् घटाभावविरोधात् । न पर्युदासो व्यतिरिक्त उत्पद्यते; ततो व्यतिरिक्तघटोत्पत्तावर्पितघटस्य विनाशविरोधात् । नाव्यतिरिक्त:; उत्पन्नस्योत्पत्तिविरोधात् । ततो निर्हेतुको विनाश इति सिद्धम् ।</span> = <span class="HindiText">इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में विनाश निर्हेतुक है। वह इस प्रकार कि–प्रसज्यरूप अभाव तो पर से उत्पन्न हो नहीं सकता; क्योंकि, तहाँ क्रिया के साथ निषेध वाचक ‘नञ्’ का संबंध होता है। अत: क्रिया का निषेध करने वाले उसके द्वारा घट का अभाव मानने में विरोध आता है। अर्थात् जब वह क्रिया का ही निषेध करता रहेगा तो विनाशरूप अभाव का भी कर्ता न हो सकेगा। पर्युदासरूप अभाव भी पर से उत्पन्न नहीं होता है। पर्युदास से व्यतिरिक्त घट की उत्पत्ति मानने पर विवक्षित घट के विनाश के साथ विरोध आता है। घट से अभिन्न पर्युदास की उत्पत्ति मानने पर दोनों की उत्पत्ति एकरूप हो जाती है, तब उसकी घट से उत्पत्ति हुई नहीं कही जा सकती। और घट तो उस अभाव से पहिले ही उत्पन्न हो चुका है, अत: उत्पन्न की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। इसलिए विनाश निर्हेतुक है यह सिद्ध होता है। <span class="GRef">(धवला 9/4,1,45/175/2)</span>। </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.3.9.3" id="IV.3.9.3"><strong>उत्पाद भी निर्हेतुक है</strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.9.3" id="IV.3.9.3"><strong>उत्पाद भी निर्हेतुक है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/13-14/192/228/5</span> <span class="SanskritText">उत्पादोऽपि निर्हेतुक:। तद्यथा–नोत्पद्यमान उत्पादयति; द्वितीयक्षणे त्रिभुवनाभावप्रसंगात् । नोत्पन्न उत्पादयति; क्षणिकपक्षक्षते:। न विनष्ट उत्पादयति; अभावाद्भावोत्पत्तिविरोधात् । न पूर्वविनाशोत्तरोत्पादयो: समानकालतापि कार्यकारणभावसमर्थिका। तद्यथा–नातीतार्थाभावत उत्पद्यते; भावाभावयो: कार्यकारणभावविरोधात् । न तद्भावात्; स्वकाल एव तस्योत्पत्तिप्रसंगात् । किंच, पूर्वक्षणसत्ता यत: समानसंतानोत्तरार्थक्षणसत्त्वविरोधिनी ततो न सा तदुत्पादिका; विरुद्धयोस्सत्तयोरुत्पाद्योत्पादकभावविरोधात् । ततो निर्हेतुक उत्पाद इति सिद्धम् ।</span> <span class="HindiText">=इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में उत्पाद भी निर्हेतुक होता है। वह इस प्रकार कि–जो अभी स्वयं उत्पन्न हो रहा, उससे उत्पत्ति मानने में दूसरे ही क्षण तीन लोकों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। जो उत्पन्न हो चुका है, उससे उत्पत्ति मानने में क्षणिक पक्ष का विनाश प्राप्त होता है। जो नष्ट हो चुका है, उससे उत्पत्ति मानें तो अभाव से भाव की उत्पत्ति होने रूप विरोध प्राप्त होता है।<br /> | |||
पूर्वक्षण का विनाश और उत्तरक्षण का उत्पाद इन दोनों में परस्पर कार्यकारण भाव की समर्थन करने वाली समानकालता भी नहीं पायी जाती है। वह इस प्रकार कि–अतीत पदार्थ के अभाव से नवीन पदार्थ की उत्पत्ति मानें तो भाव और अभाव में कार्यकारण भाव माननेरूप विरोध प्राप्त होता है। अतीत अर्थ के सद्भाव से नवीन पदार्थ का उत्पाद मानें तो अतीत के सद्भाव में ही नवीन पदार्थ की उत्पत्ति का प्रसंग आता है। दूसरे, चूँकि पूर्व क्षण की सत्ता अपनी संतान में होने वाले उत्तर अर्थक्षण की सत्ता की विरोधिनी है, इसलिए पूर्व क्षण की सत्ता उत्तर क्षण की उत्पादक नहीं हो सकती है; क्योंकि विरुद्ध दो सत्ताओं में परस्पर उत्पाद्य-उत्पादकभाव के मानने में विरोध आता है। अतएव ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से उत्पाद भी निर्हेतुक होता है, यह सिद्ध होता है।<br /> | पूर्वक्षण का विनाश और उत्तरक्षण का उत्पाद इन दोनों में परस्पर कार्यकारण भाव की समर्थन करने वाली समानकालता भी नहीं पायी जाती है। वह इस प्रकार कि–अतीत पदार्थ के अभाव से नवीन पदार्थ की उत्पत्ति मानें तो भाव और अभाव में कार्यकारण भाव माननेरूप विरोध प्राप्त होता है। अतीत अर्थ के सद्भाव से नवीन पदार्थ का उत्पाद मानें तो अतीत के सद्भाव में ही नवीन पदार्थ की उत्पत्ति का प्रसंग आता है। दूसरे, चूँकि पूर्व क्षण की सत्ता अपनी संतान में होने वाले उत्तर अर्थक्षण की सत्ता की विरोधिनी है, इसलिए पूर्व क्षण की सत्ता उत्तर क्षण की उत्पादक नहीं हो सकती है; क्योंकि विरुद्ध दो सत्ताओं में परस्पर उत्पाद्य-उत्पादकभाव के मानने में विरोध आता है। अतएव ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से उत्पाद भी निर्हेतुक होता है, यह सिद्ध होता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.3.10" id="IV.3.10"><strong> सकल व्यवहार का उच्छेद करता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.10" id="IV.3.10"><strong> सकल व्यवहार का उच्छेद करता है</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/98/8 <span class="SanskritText">सर्वव्यवहारलोप इति चेत्; न; विषयमात्रप्रदर्शनात्, पूर्वनयवक्तव्यात् संव्यवहारसिद्धिरिति।</span>=<span class="HindiText">शंका–इस प्रकार इस नय को मानने से तो सर्व व्यवहार का लोप हो जायेगा? उत्तर–नहीं; क्योंकि यहाँ केवल उस नय का विषय दर्शाया गया है। व्यवहार की सिद्धि इससे पहले कहे गये व्यवहारनय के द्वारा हो जाती है (देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]])। ( कषायपाहुड़/1/13-14/196/232/2 ), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/228/278/4 )।<br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/33/7/98/8</span> <span class="SanskritText">सर्वव्यवहारलोप इति चेत्; न; विषयमात्रप्रदर्शनात्, पूर्वनयवक्तव्यात् संव्यवहारसिद्धिरिति।</span>=<span class="HindiText">शंका–इस प्रकार इस नय को मानने से तो सर्व व्यवहार का लोप हो जायेगा? उत्तर–नहीं; क्योंकि यहाँ केवल उस नय का विषय दर्शाया गया है। व्यवहार की सिद्धि इससे पहले कहे गये व्यवहारनय के द्वारा हो जाती है (देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]])। <span class="GRef">(कषायपाहुड़/1/13-14/196/232/2)</span>, <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/228/278/4)</span>।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.4.1" id="IV.4.1"><strong> शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिकनय के लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.4.1" id="IV.4.1"><strong> शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिकनय के लक्षण</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">शुद्धपर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येति शुद्धपर्यायार्थिक:। अशुद्धपर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धपर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध पर्याय अर्थात् समयमात्र स्थायी, षड्गुण हानिवृद्धि द्वारा उत्पन्न, सूक्ष्म अर्थपर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। और अशुद्ध पर्याय अर्थात् चिरकाल स्थायी, संयोगी व स्थूल व्यंजन पर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/9</span> <span class="SanskritText">शुद्धपर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येति शुद्धपर्यायार्थिक:। अशुद्धपर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धपर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध पर्याय अर्थात् समयमात्र स्थायी, षड्गुण हानिवृद्धि द्वारा उत्पन्न, सूक्ष्म अर्थपर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। और अशुद्ध पर्याय अर्थात् चिरकाल स्थायी, संयोगी व स्थूल व्यंजन पर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.44</span> <span class="SanskritText">शुद्धपर्यायार्थेन चरतीति शुद्धपर्यायार्थिक:। अशुद्धपर्यायार्थेन चरतीति अशुद्धपर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध पर्याय के अर्थ रूप से आचरण करने वाला शुद्धपर्यायार्थिक नय है, और अशुद्ध पर्याय के अर्थरूप आचरण करने वाला अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।<br /> | |||
नोट–[सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय शुद्धपर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (देखें [[ नय#III.5.3 | नय - III.5.3]],[[ नय#III.5.4 | नय - III.5.4]],[[ नय#III.5.7 | नय - III.5.7]]) तथा व्यवहार नय भी कथंचित् अशुद्ध पर्यायार्थिकनय माना गया है–(देखें [[ नय#V.4.7 | नय - V.4.7]])]</span></li> | नोट–[सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय शुद्धपर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (देखें [[ नय#III.5.3 | नय - III.5.3]],[[ नय#III.5.4 | नय - III.5.4]],[[ नय#III.5.7 | नय - III.5.7]]) तथा व्यवहार नय भी कथंचित् अशुद्ध पर्यायार्थिकनय माना गया है–(देखें [[ नय#V.4.7 | नय - V.4.7]])]</span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.4.2" id="IV.4.2"><strong>पर्यायार्थिक नय के छ: भेदों का निर्देश </strong></span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.4.2" id="IV.4.2"><strong>पर्यायार्थिक नय के छ: भेदों का निर्देश </strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">पर्यायार्थिकस्य षड्भेदा उच्यंते—अनादिनित्यपर्यायार्थिको, सादिनित्यपर्यायार्थिको, .... स्वभावो नित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ...भावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ...कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावोऽनित्यशुद्धपर्यायार्थिको, ...कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको।</span> = <span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय के छ: भेद कहते हैं–1. अनादि नित्य पर्यायार्थिकनय; 2. सादिनित्य पर्यायार्थिकनय; 3. स्वभाव नित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय; 4. स्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय; 5. कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभाव अनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय; 6. कर्मोपाधि सापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय। </span></li> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">पर्यायार्थिकस्य षड्भेदा उच्यंते—अनादिनित्यपर्यायार्थिको, सादिनित्यपर्यायार्थिको, .... स्वभावो नित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ...भावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ...कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावोऽनित्यशुद्धपर्यायार्थिको, ...कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको।</span> = <span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय के छ: भेद कहते हैं–1. अनादि नित्य पर्यायार्थिकनय; 2. सादिनित्य पर्यायार्थिकनय; 3. स्वभाव नित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय; 4. स्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय; 5. कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभाव अनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय; 6. कर्मोपाधि सापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय। </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.4.3" id="IV.4.3"><strong>पर्यायार्थिक नयषट्क के लक्षण </strong> </span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.4.3" id="IV.4.3"><strong>पर्यायार्थिक नयषट्क के लक्षण </strong> </span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.6 <span class="SanskritText">भरतादिक्षेत्राणि हिमवदादिपर्वता: पद्मादिसरोवराणि, सुदर्शनादिमेरुनगा: लवणकालोदकादिसमुद्रा: एतानि मध्यस्थितानि कृत्वा परिणतसंख्यातद्वीपसमुद्रा: श्वभ्रपटलानि भवनवासिबाणव्यंतरविमानानि चंद्रार्कमंडलादिज्योतिर्विमानानि सौधर्मकल्पादिस्वर्गपटलानि यथायोग्यस्थाने परिणताकृत्रिमचैत्यचैत्यालया: मोक्षशिलाश्च बृहद्वातवलयाश्च इत्येवमाद्यनेकाश्चर्यरूपेण परिणतपुद्गलपर्यायाद्यनेकद्रव्यपर्यायै: सह परिणतलोकमहास्कंधपर्याया: त्रिकालस्थिता: संतोऽनादिनिधना इति अनादिनित्यपर्यायार्थिकनय:।1। शुद्धनिश्चयनयविवक्षामकृत्वा सकलकर्मक्षयोद्भूतचरमशरीराकारपर्यायपरिणतिरूपशुद्धसिद्धपर्याय: सादिनित्यपर्यायार्थिकनय:।2। अगुरुलघुकादिगुणा: स्वभावेन षट्हानिषड्वृद्धिरूपक्षणभंगपर्यायपरिणतोऽपरिणतसद्द्रव्यानंतगुणपर्यायासंक्रमणदोषपरिहारेण द्रव्यं नित्यस्वरूपेऽवतिष्ठमानमिति सत्तासापेक्षस्वभाव-नित्यशुद्ध-पर्यायार्थिकनय:।3। सद्गुणविवक्षाभावेन ध्रौव्योत्पत्तिव्ययाधीनतया द्रव्यं विनाशोत्पत्तिस्वरूपमिति सत्तानिरपेक्षोत्पादव्ययग्राहकस्वभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनय:।4। चराचरपर्यायपरिणतसमस्तसंसारिजीवनिकायेषु शुद्धसिद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिनिरपेक्ष विभावनित्यशुद्धपर्यायार्थिकनय:।5। शुद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिसंजनितनारकादिविभावपर्याया: जीवस्वरूपमिति कर्मोपाधिसापेक्ष–विभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनय:।6। =</span> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.6</span> <span class="SanskritText">भरतादिक्षेत्राणि हिमवदादिपर्वता: पद्मादिसरोवराणि, सुदर्शनादिमेरुनगा: लवणकालोदकादिसमुद्रा: एतानि मध्यस्थितानि कृत्वा परिणतसंख्यातद्वीपसमुद्रा: श्वभ्रपटलानि भवनवासिबाणव्यंतरविमानानि चंद्रार्कमंडलादिज्योतिर्विमानानि सौधर्मकल्पादिस्वर्गपटलानि यथायोग्यस्थाने परिणताकृत्रिमचैत्यचैत्यालया: मोक्षशिलाश्च बृहद्वातवलयाश्च इत्येवमाद्यनेकाश्चर्यरूपेण परिणतपुद्गलपर्यायाद्यनेकद्रव्यपर्यायै: सह परिणतलोकमहास्कंधपर्याया: त्रिकालस्थिता: संतोऽनादिनिधना इति अनादिनित्यपर्यायार्थिकनय:।1। शुद्धनिश्चयनयविवक्षामकृत्वा सकलकर्मक्षयोद्भूतचरमशरीराकारपर्यायपरिणतिरूपशुद्धसिद्धपर्याय: सादिनित्यपर्यायार्थिकनय:।2। अगुरुलघुकादिगुणा: स्वभावेन षट्हानिषड्वृद्धिरूपक्षणभंगपर्यायपरिणतोऽपरिणतसद्द्रव्यानंतगुणपर्यायासंक्रमणदोषपरिहारेण द्रव्यं नित्यस्वरूपेऽवतिष्ठमानमिति सत्तासापेक्षस्वभाव-नित्यशुद्ध-पर्यायार्थिकनय:।3। सद्गुणविवक्षाभावेन ध्रौव्योत्पत्तिव्ययाधीनतया द्रव्यं विनाशोत्पत्तिस्वरूपमिति सत्तानिरपेक्षोत्पादव्ययग्राहकस्वभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनय:।4। चराचरपर्यायपरिणतसमस्तसंसारिजीवनिकायेषु शुद्धसिद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिनिरपेक्ष विभावनित्यशुद्धपर्यायार्थिकनय:।5। शुद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिसंजनितनारकादिविभावपर्याया: जीवस्वरूपमिति कर्मोपाधिसापेक्ष–विभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनय:।6। =</span> | ||
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<li class="HindiText" name="IV.4.3.1" id="IV.4.3.1"> भरत आदि क्षेत्र, हिमवान आदि पर्वत, पद्म आदि सरोवर, सुदर्शन आदि मेरु, लवण व कालोद आदि समुद्र, इनको मध्यरूप या केंद्ररूप करके स्थित असंख्यात द्वीप समुद्र, नरक पटल, भवनवासी व व्यंतर देवों के विमान, चंद्र व सूर्य मंडल आदि ज्योतिषी देवों के विमान, सौधर्मकल्प आदि स्वर्गों के पटल, यथायोग्य स्थानों में परिणत अकृत्रिम चैत्यचैत्यालय, मोक्षशिला, बृहद् वातवलय तथा इन सबको आदि लेकर अन्य भी आश्चर्यरूप परिणत जो पुद्गल पर्याय तथा उनके साथ परिणत लोकरूप महास्कंध पर्याय जो कि त्रिकाल स्थित रहते हुए अनादिनिधन हैं, इनको विषय करने वाला अर्थात् इनकी सत्ता को स्वीकार करने वाला अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय है।</li> | <li class="HindiText" name="IV.4.3.1" id="IV.4.3.1"> भरत आदि क्षेत्र, हिमवान आदि पर्वत, पद्म आदि सरोवर, सुदर्शन आदि मेरु, लवण व कालोद आदि समुद्र, इनको मध्यरूप या केंद्ररूप करके स्थित असंख्यात द्वीप समुद्र, नरक पटल, भवनवासी व व्यंतर देवों के विमान, चंद्र व सूर्य मंडल आदि ज्योतिषी देवों के विमान, सौधर्मकल्प आदि स्वर्गों के पटल, यथायोग्य स्थानों में परिणत अकृत्रिम चैत्यचैत्यालय, मोक्षशिला, बृहद् वातवलय तथा इन सबको आदि लेकर अन्य भी आश्चर्यरूप परिणत जो पुद्गल पर्याय तथा उनके साथ परिणत लोकरूप महास्कंध पर्याय जो कि त्रिकाल स्थित रहते हुए अनादिनिधन हैं, इनको विषय करने वाला अर्थात् इनकी सत्ता को स्वीकार करने वाला अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय है।</li> | ||
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<li class="HindiText" name="IV.4.3.4" id="IV.4.3.4"> (व्याख्या की अपेक्षा यह नं.3)–अगुरुलघु आदि गुण स्वभाव से ही षट्गुण हानि वृद्धिरूप क्षणभंग अर्थात् एकसमयवर्ती पर्याय से परिणत हो रहे हैं। तो भी सत् द्रव्य के अनंतों गुण और पर्यायें परस्पर संक्रमण न करके अपरिणत अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं। द्रव्य को इस प्रकार का ग्रहण करने वाला नय सत्तासापेक्ष स्वभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिकनय है। </li> | <li class="HindiText" name="IV.4.3.4" id="IV.4.3.4"> (व्याख्या की अपेक्षा यह नं.3)–अगुरुलघु आदि गुण स्वभाव से ही षट्गुण हानि वृद्धिरूप क्षणभंग अर्थात् एकसमयवर्ती पर्याय से परिणत हो रहे हैं। तो भी सत् द्रव्य के अनंतों गुण और पर्यायें परस्पर संक्रमण न करके अपरिणत अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं। द्रव्य को इस प्रकार का ग्रहण करने वाला नय सत्तासापेक्ष स्वभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिकनय है। </li> | ||
<li class="HindiText" name="IV.4.3.5" id="IV.4.3.5"> चराचर पर्याय परिणत संसारी जीवधारियों के समूह में शुद्ध सिद्धपर्याय की विवक्षा से कर्मोपाधि से निरपेक्ष विभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय है। (यहाँ पर संसाररूप विभाव में यह नय नित्य शुद्ध सिद्धपर्याय को जानने की विवक्षा रखते हुए संसारी जीवों को भी सिद्ध सदृश बताता है। इसी को आलापपद्धति में कर्मोपाधि निरपेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है। </li> | <li class="HindiText" name="IV.4.3.5" id="IV.4.3.5"> चराचर पर्याय परिणत संसारी जीवधारियों के समूह में शुद्ध सिद्धपर्याय की विवक्षा से कर्मोपाधि से निरपेक्ष विभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय है। (यहाँ पर संसाररूप विभाव में यह नय नित्य शुद्ध सिद्धपर्याय को जानने की विवक्षा रखते हुए संसारी जीवों को भी सिद्ध सदृश बताता है। इसी को आलापपद्धति में कर्मोपाधि निरपेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है। </li> | ||
<li class="HindiText" name="IV.4.3.6" id="IV.4.3.6"> जो शुद्ध पर्याय की विवक्षा न करके कर्मोपाधि से उत्पन्न हुई नारकादि विभावपर्यायों को जीवस्वरूप बताता है वह कर्मोपाधिसापेक्ष विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (इसी को आलापपद्धति में कर्मोपाधिसापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है।) ( आलापपद्धति/5 ); ( नयचक्र बृहद्/200-205 ) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.9 पर उद्धृत श्लोक नं.1-6 तथा पृ.41/श्लोक 7-12)।</li> | <li class="HindiText" name="IV.4.3.6" id="IV.4.3.6"> जो शुद्ध पर्याय की विवक्षा न करके कर्मोपाधि से उत्पन्न हुई नारकादि विभावपर्यायों को जीवस्वरूप बताता है वह कर्मोपाधिसापेक्ष विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (इसी को आलापपद्धति में कर्मोपाधिसापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है।) <span class="GRef">(आलापपद्धति/5)</span>; <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/200-205)</span> <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.9 पर उद्धृत श्लोक नं.1-6 तथा पृ.41/श्लोक 7-12)</span>।</li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1" id="V.1"> निश्चयनय निर्देश</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.1" id="V.1.1">निश्चय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/159</span> <span class="PrakritText">केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं। </span><span class="HindiText">=निश्चय से केवलज्ञानी आत्मा को देखता है।</span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक/1/7/28/585/1 <span class="SanskritText"> निश्चनय एवंभूत:। </span>=<span class="HindiText">निश्चय नय एवंभूत है।</span><br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/1/7/28/585/1</span> <span class="SanskritText"> निश्चनय एवंभूत:। </span>=<span class="HindiText">निश्चय नय एवंभूत है।</span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/34/66/20 <span class="SanskritText"> ज्ञानमेव प्रत्याख्यानं नियमान्निश्चयान् मंतव्यं। </span>=<span class="HindiText">नियम से, निश्चय से ज्ञान को ही प्रत्याख्यान मानना चाहिए।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / तात्पर्यवृत्ति/34/66/20</span> <span class="SanskritText"> ज्ञानमेव प्रत्याख्यानं नियमान्निश्चयान् मंतव्यं। </span>=<span class="HindiText">नियम से, निश्चय से ज्ञान को ही प्रत्याख्यान मानना चाहिए।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/93/ से पहिले प्रक्षेपक गाथा नं.1/118/30 <span class="SanskritText">परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चय:। </span>=<span class="HindiText">परमार्थ के विशेषण से संशयादि रहित निश्चय अर्थ का ग्रहण किया गया है।</span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/93/ से पहिले प्रक्षेपक गाथा नं.1/118/30</span> <span class="SanskritText">परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चय:। </span>=<span class="HindiText">परमार्थ के विशेषण से संशयादि रहित निश्चय अर्थ का ग्रहण किया गया है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/41/164/11</span> <span class="SanskritText">श्रद्धानरुचिर्निश्चय इदमेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धि: सम्यग्दर्शनम् । </span>=<span class="HindiText">श्रद्धान यानी रुचि या निश्चय अर्थात् ‘तत्त्व का स्वरूप यह ही है, ऐसे ही है’ ऐसी निश्चयबुद्धि सो सम्यग्दर्शन है।<br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार/ पं.जयचंद/241</span> <span class="HindiText">जहाँ निर्बाध हेतु से सिद्धि होय वही निश्चय है।<br /> | |||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/2 | <span class="GRef">मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/2</span> <span class="HindiText"> साँचा निरूपण सो निश्चय।<br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/489/19 सत्यार्थ का नाम निश्चय है।<br /> | <span class="GRef">मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/489/19</span> <span class="HindiText">सत्यार्थ का नाम निश्चय है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.2" id="V.1.2"> निश्चय नय का लक्षण अभेद व अनुपचार ग्रहण </strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.2.1" id="V.1.2.1">लक्षण</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 <span class="SanskritText"> निश्चयनयोऽभेदविषयो।</span> =<span class="HindiText">निश्चय नय का विषय अभेद द्रव्य है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 )।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/10 </span><span class="SanskritText"> निश्चयनयोऽभेदविषयो।</span> =<span class="HindiText">निश्चय नय का विषय अभेद द्रव्य है। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25)</span>।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चय:।</span>=<span class="HindiText">जो अभेद व अनुपचार से वस्तु का निश्चय करता है वह निश्चय नय है। ( नयचक्र बृहद्/262 ) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.31) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/614 )।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/9</span> <span class="SanskritText">अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चय:।</span>=<span class="HindiText">जो अभेद व अनुपचार से वस्तु का निश्चय करता है वह निश्चय नय है। <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/262)</span> <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.31)</span> <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/614)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/663</span> <span class="SanskritText">अपि निश्चयस्य नियतं हेतु: सामान्यमिह वस्तु।</span>=<span class="HindiText">सामान्य वस्तु ही निश्चयनय का नियत हेतु है।<br /> | |||
और भी देखें [[ नय#IV.1.2 | नय - IV.1.2-5]]; [[ नय#IV.2.3 | नय - IV.2.3]]<br /> | और भी देखें [[ नय#IV.1.2 | नय - IV.1.2-5]]; [[ नय#IV.2.3 | नय - IV.2.3]]<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.2.2" id="V.1.2.2"> उदाहरण</strong><br /> | ||
देखें [[ मोक्षमार्ग#3.1 | मोक्षमार्ग - 3.1 ]]दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीन भेद व्यवहार से ही कहे जाते हैं निश्चय से तीनों एक आत्मा ही है।</span><br /> | देखें [[ मोक्षमार्ग#3.1 | मोक्षमार्ग - 3.1 ]]दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीन भेद व्यवहार से ही कहे जाते हैं निश्चय से तीनों एक आत्मा ही है।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/16/ | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/16/ कलश 18</span> <span class="SanskritGatha">परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैकक:। सर्वभावांतरध्वंसिस्वभावत्वादमेचक:।18।</span> =<span class="HindiText">परमार्थ से देखने पर ज्ञायक ज्योति मात्र आत्मा एकस्वरूप है, क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सभी अन्य द्रव्य के स्वभाव तथा अन्य के निमित्त से हुए विभावों को दूर करने रूप स्वभाव है। अत: यह अमेचक है अर्थात् एकाकार है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599 <span class="SanskritGatha">व्यवहार: स यथा स्यात्सद् द्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा। नेत्येतावन्मात्रो भवति स निश्चयनयो नयाधिपति:।</span> =<span class="HindiText">‘सत् द्रव्य है’ या ‘ज्ञानवान् जीव है’ ऐसा व्यवहारनय का पक्ष है। और ‘द्रव्य या जीव सत् या ज्ञान मात्र ही नहीं है’ ऐसा निश्चयनय का पक्ष है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599</span> <span class="SanskritGatha">व्यवहार: स यथा स्यात्सद् द्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा। नेत्येतावन्मात्रो भवति स निश्चयनयो नयाधिपति:।</span> =<span class="HindiText">‘सत् द्रव्य है’ या ‘ज्ञानवान् जीव है’ ऐसा व्यवहारनय का पक्ष है। और ‘द्रव्य या जीव सत् या ज्ञान मात्र ही नहीं है’ ऐसा निश्चयनय का पक्ष है।<br /> | ||
और भी देखें [[ नय#IV.1.3 | द्रव्य ]], [[ नय#IV.1.4 | क्षेत्र ]], [[ नय#IV.1.5 | काल ]] व [[ नय#IV.1.5 | भाव ]] - चारों अपेक्षा से अभेद।<br /> | और भी देखें [[ नय#IV.1.3 | द्रव्य ]], [[ नय#IV.1.4 | क्षेत्र ]], [[ नय#IV.1.5 | काल ]] व [[ नय#IV.1.5 | भाव ]] - चारों अपेक्षा से अभेद।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.3" id="V.1.3"> निश्चयनय का लक्षण स्वाश्रय कथन</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.3.1" id="V.1.3.1">लक्षण</strong></span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/272 <span class="SanskritText"> आत्माश्रितो निश्चयनय:। </span>=<span class="HindiText">निश्चय नय आत्मा के आश्रित है। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/159 )।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/272</span> <span class="SanskritText"> आत्माश्रितो निश्चयनय:। </span>=<span class="HindiText">निश्चय नय आत्मा के आश्रित है। <span class="GRef">(नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/159)</span>।</span><br /> | ||
तत्त्वानुशासन/59 <span class="SanskritText">अभिन्नकर्तृकर्मादिविषयो निश्चयो नय:।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय में कर्ता कर्म आदि भाव एक दूसरे से भिन्न नहीं होते। ( अनगारधर्मामृत/1/102/108 )।<br /> | <span class="GRef">तत्त्वानुशासन/59</span> <span class="SanskritText">अभिन्नकर्तृकर्मादिविषयो निश्चयो नय:।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय में कर्ता कर्म आदि भाव एक दूसरे से भिन्न नहीं होते। <span class="GRef">(अनगारधर्मामृत/1/102/108)</span>।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.3.2" id="V.1.3.2"> उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/7/38/22 <span class="SanskritText">पारिणामिकभावसाधनो निश्चयत:।</span> =<span class="HindiText">निश्चय से जीव की सिद्धि पारिणामिकभाव से होती है।</span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/1/7/38/22</span> <span class="SanskritText">पारिणामिकभावसाधनो निश्चयत:।</span> =<span class="HindiText">निश्चय से जीव की सिद्धि पारिणामिकभाव से होती है।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/56 <span class="SanskritText">निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलंब्योत्प्लवमान: परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति।</span> <span class="HindiText">=निश्चयनय द्रव्य के आश्रित होने से केवल एक जीव के स्वाभाविक भाव को अवलंबन कर प्रवृत्त होता है, वह सब परभावों को पर का बताकर उनका निषेध करता है।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/56</span> <span class="SanskritText">निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलंब्योत्प्लवमान: परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति।</span> <span class="HindiText">=निश्चयनय द्रव्य के आश्रित होने से केवल एक जीव के स्वाभाविक भाव को अवलंबन कर प्रवृत्त होता है, वह सब परभावों को पर का बताकर उनका निषेध करता है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 </span> <span class="SanskritText">रागादिपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपदाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनय:। </span>=<span class="HindiText">शुद्धद्रव्य का निरूपण करने वाले निश्चयनय की अपेक्षा आत्मा अपने रागादि परिणामों का ही कर्ता उपदाता या हाता (ग्रहण व त्याग करने वाला) है। <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह व टीका/8)</span>।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परिशिष्ठ/नय नं.45</span> <span class="SanskritText">निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानबंधमोक्षोचितस्निग्धरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुवद्बंधमोक्षयोरद्वैतानुवर्ति।</span> =<span class="HindiText">आत्मद्रव्य निश्चयनय से बंध व मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करने वाला है। अकेले बध्यमान और मुच्यमान ऐसे बंधमोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्व गुण रूप परिणत परमाणु की भाँति।</span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 <span class="SanskritText"> निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीव:। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय से भावप्राण धारण करने के कारण जीव है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/8 )।</span><br /> | <span class="GRef">नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9</span> <span class="SanskritText"> निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीव:। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय से भावप्राण धारण करने के कारण जीव है। <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/8)</span>।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/19/57/9 | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/19/57/9 </span> <span class="SanskritText">स्वकीयशुद्धप्रदेशेषु यद्यपि निश्चयनयेन सिद्धास्तिष्ठंति।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय से सिद्ध भगवान् स्वकीय शुद्ध प्रदेशों में ही रहते हैं।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/8/22/2 <span class="SanskritText">किंतु शुद्धाशुद्धभावानां परिणममानानामेव कर्तृत्वं ज्ञातव्यम्, न च हस्तादिव्यापाररूपाणामिति।</span>=<span class="HindiText">निश्चयनय से जीव को अपने शुद्ध या अशुद्ध भावरूप परिणामों का ही कर्तापना जानना चाहिए, हस्तादि व्यापाररूप कार्यों का नहीं।</span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/8/22/2</span> <span class="SanskritText">किंतु शुद्धाशुद्धभावानां परिणममानानामेव कर्तृत्वं ज्ञातव्यम्, न च हस्तादिव्यापाररूपाणामिति।</span>=<span class="HindiText">निश्चयनय से जीव को अपने शुद्ध या अशुद्ध भावरूप परिणामों का ही कर्तापना जानना चाहिए, हस्तादि व्यापाररूप कार्यों का नहीं।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/21 <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव है।<br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/21</span> <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.4" id="V.1.4"> निश्चयनय के भेद—शुद्ध व अशुद्ध</strong> </span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 <span class="SanskritText">तत्र निश्चयो द्विविध: शुद्धनिश्चयोऽशुद्धनिश्चयश्च।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय दो प्रकार का है–शुद्धनिश्चय और अशुद्धनिश्चय।<br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/10</span> <span class="SanskritText">तत्र निश्चयो द्विविध: शुद्धनिश्चयोऽशुद्धनिश्चयश्च।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय दो प्रकार का है–शुद्धनिश्चय और अशुद्धनिश्चय।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.5" id="V.1.5"> शुद्धनिश्चयनय के लक्षण व उदाहरण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.5.1" id="V.1.5.1"> परमभावग्राही की अपेक्षा</strong><br /> | ||
<strong>नोट</strong>–(परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय ही परमशुद्ध निश्चयनय है। अत: देखें [[ नय#IV.2.6.10 | नय - IV.2.6.10]])</span><br /> | <strong>नोट</strong>–(परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय ही परमशुद्ध निश्चयनय है। अत: देखें [[ नय#IV.2.6.10 | नय - IV.2.6.10]])</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/42 <span class="PrakritGatha">चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोयसोका य। कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो संति।42।</span>=<span class="HindiText">(शुद्ध निश्चयनय से तात्पर्य वृत्ति टीका) जीव को चार गति के भवों में परिभ्रमण, जाति, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणा स्थान नहीं है। <span class="GRef">( समयसार/50-55)</span>, <span class="GRef">(बारस अणुवेक्खा/37)</span> <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश/ मूल/1/19-21,68)</span></sp</span>an><br /> | |||
समयसार/56 <span class="PrakritGatha"> ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुण ठाणंता भावा ण दु केइ णिच्छयणयस्स।56। </span>=<span class="HindiText">ये जो (पहिले गाथा नं.50-55में) वर्ण को आदि लेकर गुणस्थान पर्यंत भाव कहे गये हैं वे व्यवहार नय से ही जीव के होते हैं परंतु (शुद्ध) निश्चयनय से तो इनमें से कोई भी जीव के नहीं है।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार/56</span> <span class="PrakritGatha"> ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुण ठाणंता भावा ण दु केइ णिच्छयणयस्स।56। </span>=<span class="HindiText">ये जो (पहिले गाथा नं.50-55में) वर्ण को आदि लेकर गुणस्थान पर्यंत भाव कहे गये हैं वे व्यवहार नय से ही जीव के होते हैं परंतु (शुद्ध) निश्चयनय से तो इनमें से कोई भी जीव के नहीं है।</span><br /> | ||
समयसार/68 <span class="PrakritGatha">मोहणकम्मसुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता।68।</span> | <span class="GRef">समयसार/68</span> <span class="PrakritGatha">मोहणकम्मसुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता।68।</span> | ||
समयसार / आत्मख्याति/68 <span class="SanskritText"> एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्म ...संयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलकर्मपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातं।</span> =<span class="HindiText">जो मोह कर्म के उदय से उत्पन्न होने से अचेतन कहे गये हैं, ऐसे गुणस्थान जीव कैसे हो सकते हैं। और इसी प्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म आदि तथा संयमलब्धि स्थान ये सब 19 बातें पुद्गलकर्म जनित होने से नित्य अचेतन स्वरूप हैं और इसलिए पुद्गल हैं जीव नहीं, यह बात स्वत: प्राप्त होती है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/16/53/3 )</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/68</span> <span class="SanskritText"> एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्म ...संयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलकर्मपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातं।</span> =<span class="HindiText">जो मोह कर्म के उदय से उत्पन्न होने से अचेतन कहे गये हैं, ऐसे गुणस्थान जीव कैसे हो सकते हैं। और इसी प्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म आदि तथा संयमलब्धि स्थान ये सब 19 बातें पुद्गलकर्म जनित होने से नित्य अचेतन स्वरूप हैं और इसलिए पुद्गल हैं जीव नहीं, यह बात स्वत: प्राप्त होती है। <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह टीका/16/53/3)</span></span><br /> | ||
<span class="GRef">वारसअनुवेक्षा/82</span> <span class="PrakritText">णिच्छयणयेण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय से जीव सागार व अनगार दोनों धर्मों से भिन्न है।</span><br /> | |||
परमात्मप्रकाश/ | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश/ मूल/1/65</span> <span class="PrakritGatha">बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ। अप्पा किं पि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउँ भणेइ।65।</span>=<span class="HindiText">बंध को या मोक्ष को करने वाला तो कर्म है। निश्चय से आत्मा तो कुछ भी नहीं करता। <span class="GRef">( पंचाध्यायी x`/ पुर्वार्ध/456)</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/115 <span class="PrakritGatha">सुद्धो जीवसहावो जो रहिओ दव्वभावकम्मेहिं। सो सुद्धणिच्छयादो समासिओ सुद्धणाणीहिं।115।</span>=<span class="HindiText">शुद्धनिश्चय नय से जीवस्वभाव द्रव्य व भावकर्मों से रहित कहा गया है।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/115</span> <span class="PrakritGatha">सुद्धो जीवसहावो जो रहिओ दव्वभावकम्मेहिं। सो सुद्धणिच्छयादो समासिओ सुद्धणाणीहिं।115।</span>=<span class="HindiText">शुद्धनिश्चय नय से जीवस्वभाव द्रव्य व भावकर्मों से रहित कहा गया है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/159</span> <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयत:...स भगवान् त्रिकालनिरूपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनाभ्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्यपरमात्मादि जानाति पश्यति च। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से भगवान् त्रिकाल निरुपाधि निरवधि नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहज दर्शन द्वारा निज कारणपरमात्मा को स्वयं कार्यपरमात्मा होने पर भी जानते और देखते हैं।</span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/4 <span class="SanskritText"> साक्षाच्छुद्धनिश्चयनयेन स्त्रीपुरुषसंयोगरहितपुत्रस्येव सुधाहरिद्रासंयोगरहितरंगविशेषस्येव तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं पृच्छाम इति।=</span><span class="HindiText">साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से तो, जैसे स्त्री व पुरुषसंयोग के बिना पुत्र की तथा चूना व हल्दी के संयोग बिना लालरंग की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार रागद्वेष की उत्पत्ति ही नहीं होती, फिर इस प्रश्न का उत्तर ही क्या? ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/111/171/23 )</span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/4 </span><span class="SanskritText"> साक्षाच्छुद्धनिश्चयनयेन स्त्रीपुरुषसंयोगरहितपुत्रस्येव सुधाहरिद्रासंयोगरहितरंगविशेषस्येव तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं पृच्छाम इति।=</span><span class="HindiText">साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से तो, जैसे स्त्री व पुरुषसंयोग के बिना पुत्र की तथा चूना व हल्दी के संयोग बिना लालरंग की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार रागद्वेष की उत्पत्ति ही नहीं होती, फिर इस प्रश्न का उत्तर ही क्या? <span class="GRef">(समयसार / तात्पर्यवृत्ति/111/171/23)</span></span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/57/235/7 में उद्धृत <span class="SanskritText">मुक्तश्चेत् प्राक्भवेद्बंधो नो बंधो मोचनं कथम् । अबंधे मोचनं नैव मुंचेरर्थो निरर्थक:। बंधश्च शुद्धनिश्चयनयेन नास्ति, तथा बंधपूर्वकमोक्षोऽपि। </span>=<span class="HindiText">जिसके बंध होता है उसको ही मोक्ष होता है। शुद्ध निश्चयनय से जीव को बंध ही नहीं है, फिर उसको मोक्ष कैसा। अत: इस नय में मुंच धातु का प्रयोग ही निरर्थक है। शुद्ध निश्चय नय से जीव के बंध ही नहीं है, तथा बंधपूर्वक होने से मोक्ष भी नहीं है। ( परमात्मप्रकाश टीका/1/68/69/1 )</span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/57/235/7 में उद्धृत</span> <span class="SanskritText">मुक्तश्चेत् प्राक्भवेद्बंधो नो बंधो मोचनं कथम् । अबंधे मोचनं नैव मुंचेरर्थो निरर्थक:। बंधश्च शुद्धनिश्चयनयेन नास्ति, तथा बंधपूर्वकमोक्षोऽपि। </span>=<span class="HindiText">जिसके बंध होता है उसको ही मोक्ष होता है। शुद्ध निश्चयनय से जीव को बंध ही नहीं है, फिर उसको मोक्ष कैसा। अत: इस नय में मुंच धातु का प्रयोग ही निरर्थक है। शुद्ध निश्चय नय से जीव के बंध ही नहीं है, तथा बंधपूर्वक होने से मोक्ष भी नहीं है। <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश टीका/1/68/69/1)</span></span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/8 <span class="SanskritText">यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न।</span>=<span class="HindiText">जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्धपारिणामिक भावरूप परम निश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी, ऐसा नहीं है।</span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/8</span> <span class="SanskritText">यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न।</span>=<span class="HindiText">जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्धपारिणामिक भावरूप परम निश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी, ऐसा नहीं है।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/13 <span class="SanskritText">आत्मा हि शुद्धनिश्चयेन सत्ताचैतन्यबोधादिशुद्धप्राणैर्जीवति...शुद्धज्ञानचेतनया ...युक्तत्वाच्चेतयिता...।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से आत्मा सत्ता, चैतन्य व ज्ञानादि शुद्ध प्राणों से जीता है और शुद्ध ज्ञानचेतना से युक्त होने के कारण चेतयिता है ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/3/11 )<br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/13</span> <span class="SanskritText">आत्मा हि शुद्धनिश्चयेन सत्ताचैतन्यबोधादिशुद्धप्राणैर्जीवति...शुद्धज्ञानचेतनया ...युक्तत्वाच्चेतयिता...।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से आत्मा सत्ता, चैतन्य व ज्ञानादि शुद्ध प्राणों से जीता है और शुद्ध ज्ञानचेतना से युक्त होने के कारण चेतयिता है <span class="GRef">(नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9)</span>; <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह टीका/3/11)</span><br /> | ||
और भी देखें [[ नय#IV.2.3 | नय - IV.2.3 ]](शुद्धद्रव्यार्थिकनय द्रव्यक्षेत्रादि चारों अपेक्षा से तत्त्व को ग्रहण करता है।<br /> | और भी देखें [[ नय#IV.2.3 | नय - IV.2.3 ]](शुद्धद्रव्यार्थिकनय द्रव्यक्षेत्रादि चारों अपेक्षा से तत्त्व को ग्रहण करता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.5.2" id="V.1.5.2"> क्षायिकभावग्राही की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 <span class="SanskritText">निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयक: शुद्धनिश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति। (स्फटिकवत्)</span> =<span class="HindiText">निरुपाधिक गुण व गुणी में अभेद दर्शानेवाला शुद्ध निश्चयनय है, जैसे केवलज्ञानादि ही जीव है अर्थात् जीव का स्वभावभूत लक्षण है।<br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/10</span> <span class="SanskritText">निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयक: शुद्धनिश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति। (स्फटिकवत्)</span> =<span class="HindiText">निरुपाधिक गुण व गुणी में अभेद दर्शानेवाला शुद्ध निश्चयनय है, जैसे केवलज्ञानादि ही जीव है अर्थात् जीव का स्वभावभूत लक्षण है।<br /> | ||
( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 ); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ | <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25)</span>; <span class="GRef">(प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परिशिष्ठ/368/12)</span>; <span class="GRef">(पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/61/113/12)</span>; <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/8)</span></span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/17 (शुद्ध) <span class="SanskritText">निश्चयेन केवलज्ञानदर्शनरूपशुद्धोपयोगेन...युक्तत्वादुपयोगविशेषता, ...मोक्षमोक्षकारणरूपशुद्धपरिणामपरिणमनसमर्थत्वात्...प्रभुर्भवति; शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धभावानां परिणामानां...कर्तृत्वात्कर्ता भवति;...शुद्धात्मोत्थवीतरागपरमानंदरूपसुखस्य भोर्क्तृत्वात् भोक्ता भवति।</span> =<span class="HindiText">यह आत्मा शुद्ध निश्चय नय से केवलज्ञान व केवलदर्शनरूप शुद्धोपयोग से युक्त होने के कारण उपयोग विशेषता वाला है; मोक्ष व मोक्ष के कारणरूप शुद्ध परिणामों द्वारा परिणमन करने में समर्थ होने से प्रभु है; शुद्ध भावों का या शुद्ध भावों को करता होने से कर्ता है और शुद्धात्मा से उत्पन्न वीतराग परम आनंद को भोगता होने से भोक्ता है।</span><br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/17</span> (शुद्ध) <span class="SanskritText">निश्चयेन केवलज्ञानदर्शनरूपशुद्धोपयोगेन...युक्तत्वादुपयोगविशेषता, ...मोक्षमोक्षकारणरूपशुद्धपरिणामपरिणमनसमर्थत्वात्...प्रभुर्भवति; शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धभावानां परिणामानां...कर्तृत्वात्कर्ता भवति;...शुद्धात्मोत्थवीतरागपरमानंदरूपसुखस्य भोर्क्तृत्वात् भोक्ता भवति।</span> =<span class="HindiText">यह आत्मा शुद्ध निश्चय नय से केवलज्ञान व केवलदर्शनरूप शुद्धोपयोग से युक्त होने के कारण उपयोग विशेषता वाला है; मोक्ष व मोक्ष के कारणरूप शुद्ध परिणामों द्वारा परिणमन करने में समर्थ होने से प्रभु है; शुद्ध भावों का या शुद्ध भावों को करता होने से कर्ता है और शुद्धात्मा से उत्पन्न वीतराग परम आनंद को भोगता होने से भोक्ता है।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/9/23/6 <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयनयेन परमात्मस्वभावसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानोत्पंनसदानंदैकलक्षणं सुखामृत भुक्त इति। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से परमात्मस्वभाव के सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान और आचरण से उत्पन्न अविनाशी आनंदरूप लक्षण का धारक जो सुखामृत है, उसको (आत्मा) भोगता है।<br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/9/23/6</span> <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयनयेन परमात्मस्वभावसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानोत्पंनसदानंदैकलक्षणं सुखामृत भुक्त इति। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से परमात्मस्वभाव के सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान और आचरण से उत्पन्न अविनाशी आनंदरूप लक्षण का धारक जो सुखामृत है, उसको (आत्मा) भोगता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.6" id="V.1.6"> एकदेश शुद्धनिश्चय नय का लक्षण व उदाहरण</strong> <br /> | ||
<strong>नोट</strong>–(एकदेश शुद्धभाव को जीव का स्वरूप कहना एकदेश शुद्ध निश्चयनय है। यथा–)</span><br /> | <strong>नोट</strong>–(एकदेश शुद्धभाव को जीव का स्वरूप कहना एकदेश शुद्ध निश्चयनय है। यथा–)</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/48/205 <span class="SanskritText">अत्राह शिष्य:–रागद्वेषादय: किं कर्मजनिता किं जीवजनिता इति। तत्रोत्तरं स्त्रीपुरुषसंयोगोत्पन्नपुत्र इव सुधाहरिद्रासंयोगोत्पन्नवर्णविशेष इवोभयसंयोगजनिता इति। पश्चान्नयविवक्षावशेन विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्मजनिता भण्यंते।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–रागद्वेषादि भाव कर्मों से उत्पन्न होते हैं या जीव से? <strong>उत्तर</strong>–स्त्री व पुरुष इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान और चूना तथा हल्दी इन दोनों के मेल से उत्पन्न हुए लालरंग के समान ये रागद्वेषादि कषाय जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। जब नय की विवक्षा होती है तो विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय से ये कषाय कर्म से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। (अशुद्धनिश्चय से जीवजनित कहे जाते हैं और साक्षात् शुद्धनिश्चय नय से ये हैं ही नहीं, तब किसके कहे? (देखें [[ नय#V.1.5.1 | शीर्षक नं - 5.1 ]]में द्रव्यसंग्रह )।</span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/48/205</span> <span class="SanskritText">अत्राह शिष्य:–रागद्वेषादय: किं कर्मजनिता किं जीवजनिता इति। तत्रोत्तरं स्त्रीपुरुषसंयोगोत्पन्नपुत्र इव सुधाहरिद्रासंयोगोत्पन्नवर्णविशेष इवोभयसंयोगजनिता इति। पश्चान्नयविवक्षावशेन विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्मजनिता भण्यंते।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–रागद्वेषादि भाव कर्मों से उत्पन्न होते हैं या जीव से? <strong>उत्तर</strong>–स्त्री व पुरुष इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान और चूना तथा हल्दी इन दोनों के मेल से उत्पन्न हुए लालरंग के समान ये रागद्वेषादि कषाय जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। जब नय की विवक्षा होती है तो विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय से ये कषाय कर्म से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। (अशुद्धनिश्चय से जीवजनित कहे जाते हैं और साक्षात् शुद्धनिश्चय नय से ये हैं ही नहीं, तब किसके कहे? (देखें [[ नय#V.1.5.1 | शीर्षक नं - 5.1 ]]में द्रव्यसंग्रह )।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/7 <span class="SanskritText">विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनयेन पूर्वं मोक्षमार्गो व्याख्यातस्तथा पर्यायरूपो मोक्षोऽपि। न च शुद्धनिश्चयेनेति।</span> =<span class="HindiText">पहिले जो मोक्षमार्ग या पर्यायमोक्ष कहा गया है, वह विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से कहा गया है, शुद्ध निश्चयनय से नहीं (क्योंकि उसमें तो मोक्ष या मोक्षमार्ग का विकल्प ही नहीं है)<br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/7</span> <span class="SanskritText">विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनयेन पूर्वं मोक्षमार्गो व्याख्यातस्तथा पर्यायरूपो मोक्षोऽपि। न च शुद्धनिश्चयेनेति।</span> =<span class="HindiText">पहिले जो मोक्षमार्ग या पर्यायमोक्ष कहा गया है, वह विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से कहा गया है, शुद्ध निश्चयनय से नहीं (क्योंकि उसमें तो मोक्ष या मोक्षमार्ग का विकल्प ही नहीं है)<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.7" id="V.1.7">शुद्ध, एकदेश शुद्ध, व निश्चय सामान्य में अंतर व इनकी प्रयोग विधि</strong> </span><br /> | ||
प<span class="GRef">रमात्मप्रकाश टीका/64/65/1</span> <span class="SanskritText">सांसारिकं सुखदु:खं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं तथापि शुद्धनिश्चयेन कर्मजनितं भवति।</span>=<span class="HindiText">सांसारिक सुख दुख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से जीव जनित हैं, फिर भी शुद्ध निश्चयनय से वे कर्मजनित हैं। (यहाँ एकदेश शुद्ध को भी शुद्धनिश्चयनय ही कह दिया है| ऐसा ही सर्वत्र यथा योग्य जानना चाहिए)</span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/11 <span class="SanskritText">शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धैकस्वभावेन यदा परिणमति तदानंतज्ञानसुखादिशुद्धभावानां छद्मस्थावस्थायां भावनारूपेण विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्ता, मुक्तावस्थायां तु शुद्धनयेनेति।</span>=<span class="HindiText">शुभाशुभ मन वचन काय के व्यापार से रहित जब शुद्धबुद्ध एकस्वभाव से परिणमन करता है, तब अनंतज्ञान अनंतसुख आदि शुद्धभावों को छद्मस्थ अवस्था में ही भावना रूप से, एकदेशशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा कर्ता होता है, परंतु मुक्तावस्था में उन्हीं भावों का कर्ता शुद्ध निश्चयनय से होता है। (इस पर से एकदेश शुद्ध व शुद्ध इन दोनों निश्चय नयों में क्या अंतर है यह जाना जा सकता है।)</span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/11</span> <span class="SanskritText">शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धैकस्वभावेन यदा परिणमति तदानंतज्ञानसुखादिशुद्धभावानां छद्मस्थावस्थायां भावनारूपेण विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्ता, मुक्तावस्थायां तु शुद्धनयेनेति।</span>=<span class="HindiText">शुभाशुभ मन वचन काय के व्यापार से रहित जब शुद्धबुद्ध एकस्वभाव से परिणमन करता है, तब अनंतज्ञान अनंतसुख आदि शुद्धभावों को छद्मस्थ अवस्था में ही भावना रूप से, एकदेशशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा कर्ता होता है, परंतु मुक्तावस्था में उन्हीं भावों का कर्ता शुद्ध निश्चयनय से होता है। (इस पर से एकदेश शुद्ध व शुद्ध इन दोनों निश्चय नयों में क्या अंतर है यह जाना जा सकता है।)</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/55/224/6 <span class="SanskritText">निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगनिश्चलपुरुषापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोगलक्षणविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयो ग्राह्य:। विशेषनिश्चय: पुनरग्रेवक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ:। ...‘मा चिट्ठह मा जंपह...।</span>=<span class="HindiText">निश्चय शब्द से–अभ्यास करने वाले प्राथमिक, जघन्य पुरुष की अपेक्षा तो व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए। निष्पन्न योग में निश्चल पुरुष की अपेक्षा अर्थात् मध्यम धर्मध्यान की अपेक्षा व्यवहाररत्नत्रय के अनुकूल निश्चय करना चाहिए। निष्पन्नयोग अर्थात् उत्कृष्ट धर्मध्यानी पुरुष की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय ग्रहण करना चाहिए। विशेष अर्थात् शुद्ध निश्चय आगे कहते हैं।–मन वचन काय से कुछ भी व्यापार न करो केवल आत्मा में रत हो जाओ। (यह कथन शुक्लध्यानी की अपेक्षा समझना)।<br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/55/224/6</span> <span class="SanskritText">निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगनिश्चलपुरुषापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोगलक्षणविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयो ग्राह्य:। विशेषनिश्चय: पुनरग्रेवक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ:। ...‘मा चिट्ठह मा जंपह...।</span>=<span class="HindiText">निश्चय शब्द से–अभ्यास करने वाले प्राथमिक, जघन्य पुरुष की अपेक्षा तो व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए। निष्पन्न योग में निश्चल पुरुष की अपेक्षा अर्थात् मध्यम धर्मध्यान की अपेक्षा व्यवहाररत्नत्रय के अनुकूल निश्चय करना चाहिए। निष्पन्नयोग अर्थात् उत्कृष्ट धर्मध्यानी पुरुष की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय ग्रहण करना चाहिए। विशेष अर्थात् शुद्ध निश्चय आगे कहते हैं।–मन वचन काय से कुछ भी व्यापार न करो केवल आत्मा में रत हो जाओ। (यह कथन शुक्लध्यानी की अपेक्षा समझना)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.1.8" id="V.1.8">अशुद्ध निश्चयनय का लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 | <span class="GRef">आलापपद्धति/10 </span> <span class="SanskritText">सोपाधिकविषयोऽशुद्धनिश्चयो यथा मतिज्ञानादिजीव इति।</span> =<span class="HindiText">सोपाधिक गुण व गुणी में अभेद दर्शाने वाला अशुद्धनिश्चयनय है। जैसे–मतिज्ञानादि ही जीव अर्थात् उसके स्वभावभूत लक्षण हैं। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.25)</span> <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश टीका/7/13/3)</span>।</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/114 <span class="PrakritGatha">ते चेव भावरूवा जीवे भूदा खओवसमदो य। ते हंति भावपाणा अशुद्धणिच्छयणयेण णायव्वा।114।</span>=<span class="HindiText">जीव में कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले जितने भाव हैं, वे जीव के भावप्राण होते हैं, ऐसा अशुद्धनिश्चयनय से जानना चाहिए। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/14 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/7 );</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/114</span> <span class="PrakritGatha">ते चेव भावरूवा जीवे भूदा खओवसमदो य। ते हंति भावपाणा अशुद्धणिच्छयणयेण णायव्वा।114।</span>=<span class="HindiText">जीव में कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले जितने भाव हैं, वे जीव के भावप्राण होते हैं, ऐसा अशुद्धनिश्चयनय से जानना चाहिए। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/14 )</span> <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/7 )</span>;</span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18 <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयनयेन सकलमोहरागद्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध निश्चयनय से जीव सकल मोह, | नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18</span> <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयनयेन सकलमोहरागद्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध निश्चयनय से जीव सकल मोह, राग, द्वेषादि रूप भावकर्मों का कर्ता है तथा उनके फलस्वरूप उत्पन्न हर्ष विषादादिरूप सुख दु:ख का भोक्ता है। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/9; तथा 9/23/5)</span>।</span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/64/65/1 <span class="SanskritText">सांसारिकसुखदु:खं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध निश्चयनय से सांसारिक सुख दुख जीव जनित हैं।</span><br /> | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश टीका/64/65/1</span> <span class="SanskritText">सांसारिकसुखदु:खं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध निश्चयनय से सांसारिक सुख दुख जीव जनित हैं।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परिशिष्ठ/368/13</span> <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयनयेन सोपाधिस्फटिकवत्समस्तरागादिविकल्पोपाधिसहितम् । </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध निश्चयनय से सोपाधिक स्फटिक की भाँति समस्त रागादि विकल्पों की उपाधि से सहित है। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/16/53/3)</span>; <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/1/103/108)</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/8/10/13</span> <span class="SanskritText">अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं भवति। </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध निश्चय नय से अशुद्ध आत्मा रागादिक का अशुद्ध उपादान कारण होता है।</span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/61/113/13 <span class="SanskritText">कर्मकर्तृत्वप्रस्तावादशुद्धनिश्चयेन रागादयोऽपि स्वभावा भण्यंते।</span>=<span class="HindiText">कर्मों का कर्तापना होने के कारण अशुद्ध निश्चयनय से रागादिक भी जीव के स्वभाव कहे जाते हैं।</span><br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/61/113/13</span> <span class="SanskritText">कर्मकर्तृत्वप्रस्तावादशुद्धनिश्चयेन रागादयोऽपि स्वभावा भण्यंते।</span>=<span class="HindiText">कर्मों का कर्तापना होने के कारण अशुद्ध निश्चयनय से रागादिक भी जीव के स्वभाव कहे जाते हैं।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/9 <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयस्यार्थ: कथ्यते–कर्मोपाधिसमुत्पन्नत्वादशुद्ध:, तत्काले तप्ताय: पिंडवत्तन्मयत्वाच्च निश्चय:। इत्युभयमेलापकेनाशुद्धनिश्चयो भण्यते। </span>=<span class="HindiText"> ‘अशुद्ध निश्चय’ इसका अर्थ कहते हैं–कर्मोपाधि से उत्पन्न होने से अशुद्ध कहलाता है और अपने काल में (अर्थात् रागादि के काल में जीव उनके साथ) अग्नि में तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय होने से निश्चय कहा जाता है। इस रीति से अशुद्ध और निश्चय इन दोनों को मिलाकर अशुद्ध निश्चय कहा जाता है।</span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/9</span> <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयस्यार्थ: कथ्यते–कर्मोपाधिसमुत्पन्नत्वादशुद्ध:, तत्काले तप्ताय: पिंडवत्तन्मयत्वाच्च निश्चय:। इत्युभयमेलापकेनाशुद्धनिश्चयो भण्यते। </span>=<span class="HindiText"> ‘अशुद्ध निश्चय’ इसका अर्थ कहते हैं–कर्मोपाधि से उत्पन्न होने से अशुद्ध कहलाता है और अपने काल में (अर्थात् रागादि के काल में जीव उनके साथ) अग्नि में तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय होने से निश्चय कहा जाता है। इस रीति से अशुद्ध और निश्चय इन दोनों को मिलाकर अशुद्ध निश्चय कहा जाता है।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/45/197/1 <span class="SanskritText"> यच्चाभ्यंतरे रागादिपरिहार: स पुनरशुद्धनिश्चयेनेति। </span>=<span class="HindiText">जो अंतरंग में रागादि का त्याग करना कहा जाता है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है।</span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/45/197/1</span> <span class="SanskritText"> यच्चाभ्यंतरे रागादिपरिहार: स पुनरशुद्धनिश्चयेनेति। </span>=<span class="HindiText">जो अंतरंग में रागादि का त्याग करना कहा जाता है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है।</span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/9 <span class="SanskritText"> भावकर्मदहनं पुनरशुद्धनिश्चयेन। </span>=<span class="HindiText">भावकर्मों का दहन करना अशुद्ध निश्चय नय से कहा जाता है।</span><br /> | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/9</span> <span class="SanskritText"> भावकर्मदहनं पुनरशुद्धनिश्चयेन। </span>=<span class="HindiText">भावकर्मों का दहन करना अशुद्ध निश्चय नय से कहा जाता है।</span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/10/5 <span class="SanskritText"> केवलज्ञानाद्यनंतगुणस्मरणरूपो भावनमस्कार: पुनरशुद्धनिश्चयेनेति।</span>=<span class="HindiText">भगवान् के केवलज्ञानादि अनंतगुणों का स्मरण करना रूप जो भाव नमस्कार है वह भी अशुद्ध निश्चयनय से कही जाती है।<br /> | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/10/5</span> <span class="SanskritText"> केवलज्ञानाद्यनंतगुणस्मरणरूपो भावनमस्कार: पुनरशुद्धनिश्चयेनेति।</span>=<span class="HindiText">भगवान् के केवलज्ञानादि अनंतगुणों का स्मरण करना रूप जो भाव नमस्कार है वह भी अशुद्ध निश्चयनय से कही जाती है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.2" id="V.2"> निश्चयनय की निर्विकल्पता</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.2.1" id="V.2.1"> शुद्ध व अशुद्ध निश्चय द्रव्यार्थिक के भेद है</strong> </span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदौ। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध और अशुद्ध ये दोनों निश्चयनय द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं। ( | <span class="GRef">आलापपद्धति/9</span> <span class="SanskritText">शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदौ। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध और अशुद्ध ये दोनों निश्चयनय द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं। <span class="GRef">(पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/660)</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.2.2" id="V.2.2"> निश्चयनय एक निर्विकल्प व वचनातीत है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">पंद्मनन्दि पंचविंशितिका/1/157</span> <span class="SanskritText">शुद्धं वागतिवर्तितत्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति प्रभेदजनकं शुद्धेतरं कल्पितम् ।</span> =<span class="HindiText">शुद्धतत्त्व वचन के अगोचर है, इसके विपरीत अशुद्ध तत्त्व वचन के गोचर है। शुद्धतत्त्व को प्रगट करने वाला शुद्धादेश अर्थात् शुद्धनिश्चयनय है और अशुद्ध व भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध निश्चय नय है। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/747)</span> <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/134)</span></span><br /> | |||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629 <span class="SanskritGatha">स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् । अविकल्पवदतिवागिव स्यादनुभवैकगम्यवाच्यार्थ:।629।</span>=<span class="HindiText">स्वयं ही यथार्थ अर्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके वह निश्चयनय सम्यक्त्व है, और निर्विकल्प व वचनगोचर होने से उसका वाच्यार्थ एक अनुभवगम्य ही होता है।</span><br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629</span> <span class="SanskritGatha">स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् । अविकल्पवदतिवागिव स्यादनुभवैकगम्यवाच्यार्थ:।629।</span>=<span class="HindiText">स्वयं ही यथार्थ अर्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके वह निश्चयनय सम्यक्त्व है, और निर्विकल्प व वचनगोचर होने से उसका वाच्यार्थ एक अनुभवगम्य ही होता है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/134 <span class="SanskritGatha">एक: शुद्धनय: सर्वो निर्द्वंद्वो निर्विकल्पक:। व्यवहारनयोऽनेक: सद्वंद्व: सविकल्पक:।134। </span>=<span class="HindiText">संपूर्ण शुद्ध अर्थात् निश्चय नय एक निर्द्वंद्व और निर्विकल्प है, तथा व्यवहारनय अनेक सद्वंद्व और सविकल्प है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/657 )<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/134</span> <span class="SanskritGatha">एक: शुद्धनय: सर्वो निर्द्वंद्वो निर्विकल्पक:। व्यवहारनयोऽनेक: सद्वंद्व: सविकल्पक:।134। </span>=<span class="HindiText">संपूर्ण शुद्ध अर्थात् निश्चय नय एक निर्द्वंद्व और निर्विकल्प है, तथा व्यवहारनय अनेक सद्वंद्व और सविकल्प है। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/657)</span><br /> | ||
और भी देखो [[नय#IV.1.7 | द्रव्यार्थिक नय अवक्तव्य व निर्विकल्प है। ]]<br /> | और भी देखो [[नय#IV.1.7 | द्रव्यार्थिक नय अवक्तव्य व निर्विकल्प है। ]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.2.3" id="V.2.3">निश्चयनय के भेद नहीं हो सकते</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/661</span> <span class="SanskritText">इत्यादिकाश्च बहवो भेदा निश्चयनयस्य यस्य मते। स हि मिथ्यादृष्टित्वात् सर्वज्ञाज्ञावमानितो नियमात् ।661।</span>=<span class="HindiText">(शुद्ध और अशुद्ध को) आदि लेकर निश्चयनय के भी बहुत से भेद हैं, ऐसा जिसका मत है, वह निश्चय करके मिथ्यादृष्टि होने से नियम से सर्वज्ञ की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.2.4" id="V.2.4"> शुद्धनिश्चय ही वास्तव में निश्चयनय है, अशुद्ध निश्चय तो व्यवहार है</strong></span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/57/97/13 <span class="SanskritText"> द्रव्यकर्मबंधापेक्षया योऽसौ असद्भूतव्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनार्थं रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते। वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्धनिश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थ:।57।</span> | <span class="GRef">समयसार / तात्पर्यवृत्ति/57/97/13</span> <span class="SanskritText"> द्रव्यकर्मबंधापेक्षया योऽसौ असद्भूतव्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनार्थं रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते। वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्धनिश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थ:।57।</span> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/68/108/11 <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्य कर्मापेक्षयाभ्यंतररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव। इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनयविचारकाले सर्वत्र ज्ञातव्यं।</span> =<span class="HindiText">द्रव्यकर्म-बंध की अपेक्षा से जो यह असद्भूत व्यवहार कहा जाता है उसकी अपेक्षा तारतम्यता दर्शाने के लिए ही रागादिकों को अशुद्धनिश्चयनय का विषय बनाया गया है। वस्तुत: तो शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार ही है। अथवा द्रव्य कर्मों की अपेक्षा रागादिक अभ्यंतर हैं और इसलिए चेतनात्मक हैं, ऐसा मानकर भले उन्हें निश्चय संज्ञा दे दी गयी हो परंतु शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा तो वह व्यवहार ही है। निश्चय व व्यवहारनय का विचार करते समय सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/115/174/21 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/3 )</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / तात्पर्यवृत्ति/68/108/11</span> <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्य कर्मापेक्षयाभ्यंतररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव। इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनयविचारकाले सर्वत्र ज्ञातव्यं।</span> =<span class="HindiText">द्रव्यकर्म-बंध की अपेक्षा से जो यह असद्भूत व्यवहार कहा जाता है उसकी अपेक्षा तारतम्यता दर्शाने के लिए ही रागादिकों को अशुद्धनिश्चयनय का विषय बनाया गया है। वस्तुत: तो शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार ही है। अथवा द्रव्य कर्मों की अपेक्षा रागादिक अभ्यंतर हैं और इसलिए चेतनात्मक हैं, ऐसा मानकर भले उन्हें निश्चय संज्ञा दे दी गयी हो परंतु शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा तो वह व्यवहार ही है। निश्चय व व्यवहारनय का विचार करते समय सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए। <span class="GRef">(समयसार / तात्पर्यवृत्ति/115/174/21)</span>, <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/3)</span></span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/254/11 <span class="SanskritText">परंपरया शुद्धात्मसाधकत्वादयमशुद्धनयोऽप्युपचारेण शुद्धनयो भण्यते निश्चयनयो न।</span>=<span class="HindiText">परंपरा से शुद्धात्मा का साधक होने के कारण (दे./V/8/1 में प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189 ) यह अशुद्धनय उपचार से शुद्धनय कहा गया है परंतु निश्चय नय नहीं कहा गया है।<br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/254/11</span> <span class="SanskritText">परंपरया शुद्धात्मसाधकत्वादयमशुद्धनयोऽप्युपचारेण शुद्धनयो भण्यते निश्चयनयो न।</span>=<span class="HindiText">परंपरा से शुद्धात्मा का साधक होने के कारण (दे./V/8/1 में प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189 ) यह अशुद्धनय उपचार से शुद्धनय कहा गया है परंतु निश्चय नय नहीं कहा गया है।<br /> | ||
देखें [[ नय#V.4.6 | नय - V.4.6]],[[ नय#V.4.8 | नय - V.4.8]] अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय वास्तव में पर्यायार्थिक होने के कारण व्यवहार नय है।<br /> | देखें [[ नय#V.4.6 | नय - V.4.6]],[[ नय#V.4.8 | नय - V.4.8]] अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय वास्तव में पर्यायार्थिक होने के कारण व्यवहार नय है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="V.2.5" id="V.2.5">उदाहरण सहित व सविकल्प सभी नयें व्यवहार हैं</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी x`/596,615-621,647 <span class="SanskritGatha">सोदाहरणो यावान्नयो विशेषणविशेष्यरूप: स्यात् । व्यवहारापरनामा पर्यायार्थो नयो न द्रव्यार्थ:।596। अथ चेत्सदेकमिति वा चिदेव जीवोऽथ निश्चयो वदति। व्यवहारांतर्भावो भवति सदेकस्य तद्द्विधापत्ते:।615। एवं सदुदाहरणे सल्लक्ष्यं लक्षणं तदेकमिति। लक्षणलक्ष्यविभागो भवति व्यवहारत: स नान्यत्र।616। अथवा चिदेव जीवो यदुदाह्रियतेऽप्यभेदबुद्धिमता। उक्तवदत्रापि तथा व्यवहारनयो न परमार्थ:।617। ननु केवलं सदेव हि यदि वा जीवो विशेषनिरपेक्ष:। भवति च तदुदाहरणं भेदाभावत्तदा हि को दोष:।619। अपि चैवं प्रतिनियतं व्यवहारस्यावकाश एव यथा। सदनेकं च सदेकं जीवाश्चिद्द्रव्यमात्मवानिति चेत् ।620। न यत: सदिति विकल्पो जीव: काल्पनिक इति विकल्पश्च। तत्तद्धर्मविशिष्टस्तदानुपचर्यते स यथा।621। इत्युक्तसूत्रादपि सविकल्पत्वात्तथानुभूतेश्च। सर्वोऽपि नयो यावान् परसमय: स च नयावलंबी च।647।</span> =<span class="HindiText">उदाहरण सहित विशेषण विशेष्यरूप जितना भी नय है वह सब ‘व्यवहार’ नामवाला पर्यायार्थिक नय है। परंतु द्रव्यार्थिक नहीं।596। <strong>प्रश्न</strong>–‘सत् एक है’ अथवा ‘चित् ही जीव है’ ऐसा कहने वाले नय निश्चयनय कहे गये हैं और एक सत् को ही दो आदि भेदों में विभाग करने वाला व्यवहार नय कहा गया है।615। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, इस उदाहरण में ‘सत् एक’ ऐसा कहने से ‘सत्’ लक्ष्य है और ‘एक’ उसका लक्षण है। और यह लक्ष्यलक्षण विभाग व्यवहारनय में होता है, निश्चय में नहीं।616। और दूसरा जो ‘चित् ही जीव है’ ऐसा कहने में भी उपरोक्तवत् लक्ष्य-लक्षण भाव से व्यवहारनय सिद्ध होता है, निश्चयनय नहीं।617। <strong>प्रश्न</strong>–विशेष निरपेक्ष केवल ‘सत् ही’ अथवा ‘जीव ही’ ऐसा कहना तो अभेद होने के कारण निश्चय नय के उदाहरण बन जायेंगे?।619। और ऐसा कहने से कोई दोष भी नहीं है, क्योंकि यहाँ ‘सत् एक है’ या ‘जीव चित् द्रव्य है’ ऐसा कहने का अवकाश होने से व्यवहारनय को भी अवकाश रह जाता है।620। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘सत्’ और ‘जीव’ यह दो शब्द करनेरूप दोनों विकल्प भी काल्पनिक हैं। कारण कि जो उस उस धर्म से युक्त होता है वह उस उस धर्मवाला उपचार से कहा जाता है।621। और आगम प्रमाण (देखें [[ नय#I.3.3 | नय - I.3.3]]) से भी यही सिद्ध होता है कि सविकल्प होने के कारण जितने भी नय हैं वे सब तथा उनका अवलंबन करने वाले पर-समय हैं।647।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी x`/596,615-621,647</span> <span class="SanskritGatha">सोदाहरणो यावान्नयो विशेषणविशेष्यरूप: स्यात् । व्यवहारापरनामा पर्यायार्थो नयो न द्रव्यार्थ:।596। अथ चेत्सदेकमिति वा चिदेव जीवोऽथ निश्चयो वदति। व्यवहारांतर्भावो भवति सदेकस्य तद्द्विधापत्ते:।615। एवं सदुदाहरणे सल्लक्ष्यं लक्षणं तदेकमिति। लक्षणलक्ष्यविभागो भवति व्यवहारत: स नान्यत्र।616। अथवा चिदेव जीवो यदुदाह्रियतेऽप्यभेदबुद्धिमता। उक्तवदत्रापि तथा व्यवहारनयो न परमार्थ:।617। ननु केवलं सदेव हि यदि वा जीवो विशेषनिरपेक्ष:। भवति च तदुदाहरणं भेदाभावत्तदा हि को दोष:।619। अपि चैवं प्रतिनियतं व्यवहारस्यावकाश एव यथा। सदनेकं च सदेकं जीवाश्चिद्द्रव्यमात्मवानिति चेत् ।620। न यत: सदिति विकल्पो जीव: काल्पनिक इति विकल्पश्च। तत्तद्धर्मविशिष्टस्तदानुपचर्यते स यथा।621। इत्युक्तसूत्रादपि सविकल्पत्वात्तथानुभूतेश्च। सर्वोऽपि नयो यावान् परसमय: स च नयावलंबी च।647।</span> =<span class="HindiText">उदाहरण सहित विशेषण विशेष्यरूप जितना भी नय है वह सब ‘व्यवहार’ नामवाला पर्यायार्थिक नय है। परंतु द्रव्यार्थिक नहीं।596। <strong>प्रश्न</strong>–‘सत् एक है’ अथवा ‘चित् ही जीव है’ ऐसा कहने वाले नय निश्चयनय कहे गये हैं और एक सत् को ही दो आदि भेदों में विभाग करने वाला व्यवहार नय कहा गया है।615। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, इस उदाहरण में ‘सत् एक’ ऐसा कहने से ‘सत्’ लक्ष्य है और ‘एक’ उसका लक्षण है। और यह लक्ष्यलक्षण विभाग व्यवहारनय में होता है, निश्चय में नहीं।616। और दूसरा जो ‘चित् ही जीव है’ ऐसा कहने में भी उपरोक्तवत् लक्ष्य-लक्षण भाव से व्यवहारनय सिद्ध होता है, निश्चयनय नहीं।617। <strong>प्रश्न</strong>–विशेष निरपेक्ष केवल ‘सत् ही’ अथवा ‘जीव ही’ ऐसा कहना तो अभेद होने के कारण निश्चय नय के उदाहरण बन जायेंगे?।619। और ऐसा कहने से कोई दोष भी नहीं है, क्योंकि यहाँ ‘सत् एक है’ या ‘जीव चित् द्रव्य है’ ऐसा कहने का अवकाश होने से व्यवहारनय को भी अवकाश रह जाता है।620। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘सत्’ और ‘जीव’ यह दो शब्द करनेरूप दोनों विकल्प भी काल्पनिक हैं। कारण कि जो उस उस धर्म से युक्त होता है वह उस उस धर्मवाला उपचार से कहा जाता है।621। और आगम प्रमाण (देखें [[ नय#I.3.3 | नय - I.3.3]]) से भी यही सिद्ध होता है कि सविकल्प होने के कारण जितने भी नय हैं वे सब तथा उनका अवलंबन करने वाले पर-समय हैं।647।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.2.6" id="V.2.6">निर्विकल्प होने से निश्चयनय में नयपना कैसे संभव है ?</strong></span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/600-610 <span class="SanskritGatha">ननु चोक्तं लक्षणमिह नयोऽस्ति सर्वोऽपि किल विकल्पात्मा। तदिह विकल्पाभावात् कथमस्य नयत्वमिदमिति चेत् ।600। तत्र यतोऽस्ति नयत्वं नेति यथा लक्षितस्य पक्षत्वात् । पक्षग्राही च नय: पक्षस्य विकल्पमात्रत्वात् ।601। प्रतिषेध्यो विधिरूपो भवति विकल्प: स्वयं विकल्पत्वात् । प्रतिषेधको विकल्पो भवति तथा स: स्वयं निषेधात्मा।602। एकांगत्वमसिद्धं न नेति निश्चयनयस्य तस्य पुन:। वस्तुनि शक्तिविशेषो यथा तथा तदविशेषशक्तित्वात् ।610। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जब नय का लक्षण ही यह है कि ‘सब नय विकल्पात्मक होती है (देखें [[ नय#I.1.1.5 | नय - I.1.1.5]]; तथा नय/I/2) तो फिर यहाँ पर विकल्प का अभाव होने से इस निश्चयनय को नयपना कैसे प्राप्त होगा?।600। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि निश्चयनय में भी निषेधसूचक ‘न’ इस शब्द के द्वारा लक्षित अर्थ को भी पक्षपना प्राप्त है और वही इस नय का नयपना है; कारण कि, पक्ष भी विकल्पात्मक होने से नय के द्वारा ग्राह्य है।601। जिस प्रकार प्रतिषेध्य होने के कारण ‘विधि’ एक विकल्प है; उसी प्रकार प्रतिषेधक होने के कारण निषेधात्मक ‘न’ भी एक विकल्प है।600। ‘न’ इत्याकार को विषय करने वाले उस निश्चयनय में एकांगपना (विकलादेशीपना) असिद्ध नहीं है; क्योंकि, जैसे वस्तु में ‘विशेष’ यह शक्ति एक अंग है, वैसे ही ‘सामान्य’ यह शक्ति भी उसका एक अंग है।610।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/600-610</span> <span class="SanskritGatha">ननु चोक्तं लक्षणमिह नयोऽस्ति सर्वोऽपि किल विकल्पात्मा। तदिह विकल्पाभावात् कथमस्य नयत्वमिदमिति चेत् ।600। तत्र यतोऽस्ति नयत्वं नेति यथा लक्षितस्य पक्षत्वात् । पक्षग्राही च नय: पक्षस्य विकल्पमात्रत्वात् ।601। प्रतिषेध्यो विधिरूपो भवति विकल्प: स्वयं विकल्पत्वात् । प्रतिषेधको विकल्पो भवति तथा स: स्वयं निषेधात्मा।602। एकांगत्वमसिद्धं न नेति निश्चयनयस्य तस्य पुन:। वस्तुनि शक्तिविशेषो यथा तथा तदविशेषशक्तित्वात् ।610। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जब नय का लक्षण ही यह है कि ‘सब नय विकल्पात्मक होती है (देखें [[ नय#I.1.1.5 | नय - I.1.1.5]]; तथा नय/I/2) तो फिर यहाँ पर विकल्प का अभाव होने से इस निश्चयनय को नयपना कैसे प्राप्त होगा?।600। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि निश्चयनय में भी निषेधसूचक ‘न’ इस शब्द के द्वारा लक्षित अर्थ को भी पक्षपना प्राप्त है और वही इस नय का नयपना है; कारण कि, पक्ष भी विकल्पात्मक होने से नय के द्वारा ग्राह्य है।601। जिस प्रकार प्रतिषेध्य होने के कारण ‘विधि’ एक विकल्प है; उसी प्रकार प्रतिषेधक होने के कारण निषेधात्मक ‘न’ भी एक विकल्प है।600। ‘न’ इत्याकार को विषय करने वाले उस निश्चयनय में एकांगपना (विकलादेशीपना) असिद्ध नहीं है; क्योंकि, जैसे वस्तु में ‘विशेष’ यह शक्ति एक अंग है, वैसे ही ‘सामान्य’ यह शक्ति भी उसका एक अंग है।610।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.3" id="V.3"> निश्चयनय की प्रधानता</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.3.1" id="V.3.1"> निश्चयनय ही सत्यार्थ है</strong> </span><br /> | ||
समयसार/11 | <span class="GRef">समयसार/11 </span> <span class="PrakritText">भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणयो। </span>=<span class="HindiText">शुद्धनय भूतार्थ है।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 <span class="SanskritText">निश्चयनय: परमार्थप्रतिपादकत्वाद्भूतार्थो।</span>=<span class="HindiText">परमार्थ का प्रतिपादक होने के कारण निश्चयनय भूतार्थ है। ( समयसार / आत्मख्याति/11 )।<br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32</span> <span class="SanskritText">निश्चयनय: परमार्थप्रतिपादकत्वाद्भूतार्थो।</span>=<span class="HindiText">परमार्थ का प्रतिपादक होने के कारण निश्चयनय भूतार्थ है। <span class="GRef">(समयसार / आत्मख्याति/11)</span>।<br /> | ||
और भी देखें [[ नय#V.1.1 | नय - V.1.1 ]](एवंभूत या सत्यार्थ ग्रहण ही निश्चयनय का लक्षण है।)<br /> | और भी देखें [[ नय#V.1.1 | नय - V.1.1 ]](एवंभूत या सत्यार्थ ग्रहण ही निश्चयनय का लक्षण है।)<br /> | ||
समयसार/ पं.जयचंद/6 द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है।<br /> | समयसार/ पं.जयचंद/6 द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.3.2" id="V.3.2"> निश्चयनय साधकतम व नयाधिपति है</strong></span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 <span class="SanskritText">निश्चयनय:...पूज्यतम:। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय पूज्यतम है।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32</span> <span class="SanskritText">निश्चयनय:...पूज्यतम:। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय पूज्यतम है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189</span> <span class="SanskritText"> साध्यस्य हि शद्धत्वेन द्रव्यत्व शुद्धत्वद्योतकत्वान्निश्चयनय एव साधकतमो।</span> =<span class="HindiText">साध्य वस्तु क्योंकि शुद्ध है अर्थात् पर संपर्क से रहित तथा अभेद है, इसलिए निश्चयनय ही द्रव्य के शुद्धत्व का द्योतक होने से साधक है। (देखें [[ नय#V.1.2 | नय - V.1.2]])।</span><br /> | |||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599 <span class="SanskritText">निश्चयनयो नयाधिपति:।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय नयाधिपति है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599</span> <span class="SanskritText">निश्चयनयो नयाधिपति:।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय नयाधिपति है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.3.3" id="V.3.3"> निश्चयनय ही सम्यक्त्व का कारण है</strong></span><br /> | ||
समयसार/ <span class="PrakritText">भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो। </span>=<span class="HindiText">जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है वह निश्चयनय से सम्यग्दृष्टि होता है।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार/</span> <span class="PrakritText">भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो। </span>=<span class="HindiText">जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है वह निश्चयनय से सम्यग्दृष्टि होता है।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 <span class="SanskritText"> अत्रैवाविश्रांतांतर्दृष्टिर्भवत्यात्मा। </span>=<span class="HindiText">इस नय का सहारा लेने से ही आत्मा अंतर्दृष्टि होता है।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32</span> <span class="SanskritText"> अत्रैवाविश्रांतांतर्दृष्टिर्भवत्यात्मा। </span>=<span class="HindiText">इस नय का सहारा लेने से ही आत्मा अंतर्दृष्टि होता है।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/11,414 <span class="SanskritText">ये भूतार्थमाश्रयंति त एव सम्यक् पश्यत: सम्यग्दृष्टयो भवंति न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्य।11। य एव परमार्थं परमार्थबुद्धया चेतयंते त एव समयसारं चेतयंते।</span> =<span class="HindiText">यहाँ शुद्धनय कतक फल के स्थान पर है (अर्थात् परसंयोग को दूर करने वाला है), इसलिए जो शुद्धनय का आश्रय लेते हैं, वे ही सम्यक् अवलोकन करने से सम्यग्दृष्टि हैं, अन्य नहीं।11। जो परमार्थ को परमार्थबुद्धि से अनुभव करते हैं वे ही समयसार का अनुभव करते हैं।414।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/11,414</span> <span class="SanskritText">ये भूतार्थमाश्रयंति त एव सम्यक् पश्यत: सम्यग्दृष्टयो भवंति न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्य।11। य एव परमार्थं परमार्थबुद्धया चेतयंते त एव समयसारं चेतयंते।</span> =<span class="HindiText">यहाँ शुद्धनय कतक फल के स्थान पर है (अर्थात् परसंयोग को दूर करने वाला है), इसलिए जो शुद्धनय का आश्रय लेते हैं, वे ही सम्यक् अवलोकन करने से सम्यग्दृष्टि हैं, अन्य नहीं।11। जो परमार्थ को परमार्थबुद्धि से अनुभव करते हैं वे ही समयसार का अनुभव करते हैं।414।</span><br /> | ||
<span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशितिका/80</span> <span class="SanskritGatha">निरूप्य तत्त्वं स्थिरतामुपागता, मति: सतां शुद्धनयावलंबिनी। अखंडमेकं विशदं चिदात्मकं, निरंतरं पश्यति तत्परं मह:।80।</span>=<span class="HindiText">शुद्धनय का आश्रय लेने वाली साधुजनों की बुद्धितत्त्व का निरूपण करके स्थिरता को प्राप्त होती हुई निरंतर, अखंड, एक, निर्मल एवं चेतनस्वरूप उस उत्कृष्ट ज्योति का ही अवलोकन करती है।</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/191/256/18 <span class="SanskritText">ततो ज्ञायते शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभएव।</span> =<span class="HindiText">इससे जाना जाता है कि शुद्धनय के अवलंबन से आत्मलाभ अवश्य होता है।</span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/191/256/18</span> <span class="SanskritText">ततो ज्ञायते शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभएव।</span> =<span class="HindiText">इससे जाना जाता है कि शुद्धनय के अवलंबन से आत्मलाभ अवश्य होता है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629 <span class="SanskritText">स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् ।</span> =<span class="HindiText">स्वयं ही भूतार्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके, यह निश्चयनय सम्यक्त्व है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629</span> <span class="SanskritText">स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् ।</span> =<span class="HindiText">स्वयं ही भूतार्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके, यह निश्चयनय सम्यक्त्व है।<br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/369/10 निश्चयनय तिनि ही कौं यथावत् निरूपै है, काहुकौं काहूविषैं न मिलावै है। ऐसे ही श्रद्धानतैं सम्यक्त्व हो है।<br /> | <span class="GRef">मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/369/10</span>=<span class="HindiText"> निश्चयनय तिनि ही कौं यथावत् निरूपै है, काहुकौं काहूविषैं न मिलावै है। ऐसे ही श्रद्धानतैं सम्यक्त्व हो है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.3.4" id="V.3.4">निश्चयनय ही उपादेय है</strong></span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/67 <span class="SanskritText">तस्माद्द्वावपि नाराध्यावाराध्य: पारमार्थिक:।</span>=<span class="HindiText">इसलिए व्यवहार व निश्चय दोनों ही नयें आराध्य नहीं है, केवल एक पारमार्थिक नय ही आराध्य है।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/67</span> <span class="SanskritText">तस्माद्द्वावपि नाराध्यावाराध्य: पारमार्थिक:।</span>=<span class="HindiText">इसलिए व्यवहार व निश्चय दोनों ही नयें आराध्य नहीं है, केवल एक पारमार्थिक नय ही आराध्य है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 <span class="SanskritText">निश्चयनय: साधकतमत्वादुपात्त:। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय साधकतम होने के कारण उपात्त है अर्थात् ग्रहण किया गया है।</span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189</span> <span class="SanskritText">निश्चयनय: साधकतमत्वादुपात्त:। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय साधकतम होने के कारण उपात्त है अर्थात् ग्रहण किया गया है।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/414/ | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/414/ कलश 244</span><span class="SanskritText"> अलमलमतिजल्पैर्दुविकल्पैरयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेक:। स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति। </span>=<span class="HindiText">बहुत कथन से और बहुत दुर्विकल्पों से बस होओ, बस होओ। यहाँ मात्र इतना ही कहना है, कि इस एकमात्र परमार्थ का ही नित्य अनुभव करो, क्योंकि निज रस के प्रसार से पूर्ण जो ज्ञान, उससे स्फुरायमान होने मात्र जो समयसार; उससे उच्च वास्तव में दूसरा कुछ भी नहीं है।</span><br /> | ||
<span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशितिका/1/157</span> <span class="SanskritText">तत्राद्य श्रयणीयमेव सुदृशा शेषद्वयोपायत:। </span>=<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि को शेष दो उपायों से प्रथम शुद्ध तत्त्व (जो कि निश्चयनय का वाच्य बताया गया है) का आश्रय लेना चाहिए।</span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/54/104/18 <span class="SanskritText"> अत्र यद्यपि पर्यायार्थिकनयेन सादि सनिधनं जीवद्रव्यं व्याख्यातं तथापि शुद्धनिश्चयेन यदेवानादिनिधनं टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं निर्विकारसदानंदैकस्वरूपं च तदेवोपादेयमित्यभिप्राय:। </span>=<span class="HindiText">यहाँ यद्यपि पर्यायार्थिकनय से सादिसनिधन जीव द्रव्य का व्याख्यान किया गया है, परंतु शुद्ध निश्चयनय से जो अनादि निधन टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एकस्वभावी निर्विकार सदानंद एकस्वरूप परमात्म तत्त्व है, वही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/16 )।</span><br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/54/104/18</span> <span class="SanskritText"> अत्र यद्यपि पर्यायार्थिकनयेन सादि सनिधनं जीवद्रव्यं व्याख्यातं तथापि शुद्धनिश्चयेन यदेवानादिनिधनं टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं निर्विकारसदानंदैकस्वरूपं च तदेवोपादेयमित्यभिप्राय:। </span>=<span class="HindiText">यहाँ यद्यपि पर्यायार्थिकनय से सादिसनिधन जीव द्रव्य का व्याख्यान किया गया है, परंतु शुद्ध निश्चयनय से जो अनादि निधन टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एकस्वभावी निर्विकार सदानंद एकस्वरूप परमात्म तत्त्व है, वही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/16)</span>।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/630 <span class="SanskritGatha">यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तद्दृष्टि: कार्यकारी स्यात् । तस्मात् स उपादेयो नोपादेयस्तदन्यनयवाद:।630।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि निश्चयनय पर दृष्टि रखने वाला ही सम्यग्दृष्टि व कार्यकारी है, इसलिए वह निश्चय ही ग्रहण करने योग्य है व्यवहार नहीं।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/630</span> <span class="SanskritGatha">यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तद्दृष्टि: कार्यकारी स्यात् । तस्मात् स उपादेयो नोपादेयस्तदन्यनयवाद:।630।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि निश्चयनय पर दृष्टि रखने वाला ही सम्यग्दृष्टि व कार्यकारी है, इसलिए वह निश्चय ही ग्रहण करने योग्य है व्यवहार नहीं।<br /> | ||
विशेष देखें [[ नय#V.8.1 | निश्चयनय की उपादेयता के कारण व प्रयोजन। यह जीव को नयपक्षातीत बना देता है]]।<br /> | विशेष देखें [[ नय#V.8.1 | निश्चयनय की उपादेयता के कारण व प्रयोजन। यह जीव को नयपक्षातीत बना देता है]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4" id="V.4"> व्यवहारनय सामान्य निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.1" id="V.4.1"> व्यवहारनय सामान्य के लक्षण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.1.1" id="V.4.1.1">संग्रहनय ग्रहीत अर्थ में विधिपूर्वक भेद</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/ गा.6/12 <span class="PrakritText">पडिरूवं पुण वयणत्थणिच्छयो तस्स ववहारो।</span> =<span class="HindiText">वस्तु के प्रत्येक भेद के प्रति शब्द का निश्चय करना (संग्रहनय का) व्यवहार है। ( कषायपाहुड़/1/13-14/182/89/220 )।</span><br /> | धवला 1/1,1,1/ गा.6/12 <span class="PrakritText">पडिरूवं पुण वयणत्थणिच्छयो तस्स ववहारो।</span> =<span class="HindiText">वस्तु के प्रत्येक भेद के प्रति शब्द का निश्चय करना (संग्रहनय का) व्यवहार है। ( कषायपाहुड़/1/13-14/182/89/220 )।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/2</span> <span class="SanskritText"> संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है। <span class="GRef">( राजवार्तिक 1/33/6/96/20)</span>, <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 58/244)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/58/45)</span>, <span class="GRef">(धवला 1/1,1,1/84/4)</span>, <span class="GRef">(तत्त्वसार/1/46)</span>, <span class="GRef">(स्याद्वादमंजरी/28/317/14 तथा 316 पृ.उद्धृत श्लोक नं. 3)</span>।</span><br /> | |||
आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवह्नियतेति व्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थ के भेदरूप से जो वस्तु में भेद करता है, वह व्यवहारनय है। ( नयचक्र बृहद्/210 ), ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/273 )।<br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/9</span> <span class="SanskritText">संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवह्नियतेति व्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थ के भेदरूप से जो वस्तु में भेद करता है, वह व्यवहारनय है। <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/210)</span>, <span class="GRef">(कार्तिकेयानुप्रेक्षा/273)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.1.2" id="V.4.1.2"> अभेद वस्तु में गुण-गुणी आदि रूप भेदोपचार</strong> </span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/262 <span class="PrakritText">जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स। =सो ववहारो भणियो ...।262।</span>=<span class="HindiText">एक अभेद वस्तु में जो धर्मों का अर्थात् गुण पर्यायों का भेदरूप उपचार करता है वह व्यवहारनय कहा जाता है। (विशेष देखें आगे [[ नय#V.5.1 | नय - V.5.1-3]]), ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/614 ), ( आलापपद्धति/9 )।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/262</span> <span class="PrakritText">जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स। =सो ववहारो भणियो ...।262।</span>=<span class="HindiText">एक अभेद वस्तु में जो धर्मों का अर्थात् गुण पर्यायों का भेदरूप उपचार करता है वह व्यवहारनय कहा जाता है। (विशेष देखें आगे [[ नय#V.5.1 | नय - V.5.1-3]]), <span class="GRef">(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/614)</span>, <span class="GRef">( आलापपद्धति/9)</span>।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/522 <span class="SanskritText">व्यवहरणं व्यवहार: स्यादिति शब्दार्थतो न परमार्थ:। स यथा गुणगुणिनोरिह सदभेदे भेदकरणं स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">विधिपूर्वक भेद करने का नाम व्यवहार है। यह इस निरुक्ति द्वारा किया गया शब्दार्थ है, परमार्थ नहीं। जैसा कि यहाँ पर गुण और गुणी में सत् रूप से अभेद होने पर भी जो भेद करना है वह व्यवहार नय कहलाता है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/522</span> <span class="SanskritText">व्यवहरणं व्यवहार: स्यादिति शब्दार्थतो न परमार्थ:। स यथा गुणगुणिनोरिह सदभेदे भेदकरणं स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">विधिपूर्वक भेद करने का नाम व्यवहार है। यह इस निरुक्ति द्वारा किया गया शब्दार्थ है, परमार्थ नहीं। जैसा कि यहाँ पर गुण और गुणी में सत् रूप से अभेद होने पर भी जो भेद करना है वह व्यवहार नय कहलाता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.1.3" id="V.4.1.3"> भिन्न पदार्थों में कारकादि रूप से अभेदोपचार</strong> </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/272 <span class="SanskritText">पराश्रितो व्यवहार:।</span>=<span class="HindiText">परपदार्थ के आश्रित कथन करना व्यवहार है। (विशेष देखो आगे असद्भूत व्यवहारनय – [[नय#V.5.4 | नय - V.5.4-6 ]])।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/272</span> <span class="SanskritText">पराश्रितो व्यवहार:।</span>=<span class="HindiText">परपदार्थ के आश्रित कथन करना व्यवहार है। (विशेष देखो आगे असद्भूत व्यवहारनय – [[नय#V.5.4 | नय - V.5.4-6 ]])।</span><br /> | ||
तत्त्वानुशासन/29 <span class="SanskritText">व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचर:।</span> =<span class="HindiText">व्यवहारनय भिन्न कर्ता कर्मादि विषयक है। ( अनगारधर्मामृत/1/102/108 )।<br /> | <span class="GRef">तत्त्वानुशासन/29</span> <span class="SanskritText">व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचर:।</span> =<span class="HindiText">व्यवहारनय भिन्न कर्ता कर्मादि विषयक है। <span class="GRef">(अनगारधर्मामृत/1/102/108)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.1.4" id="V.4.1.4"> लोकव्यवहारगत-वस्तुविषयक</strong></span><br /> | ||
धवला 13/5,5,7/199/1 <span class="SanskritText">लोकव्यवहारनिबंधनं द्रव्यमिच्छन् व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">लोकव्यवहार के कारणभूत द्रव्य को स्वीकार करने वाला पुरुष व्यवहारनय है।<br /> | <span class="GRef">धवला 13/5,5,7/199/1</span> <span class="SanskritText">लोकव्यवहारनिबंधनं द्रव्यमिच्छन् व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">लोकव्यवहार के कारणभूत द्रव्य को स्वीकार करने वाला पुरुष व्यवहारनय है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.2" id="V.4.2"> व्यवहारनय सामान्य के उदाहरण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.2.1" id="V.4.2.1"> संग्रह ग्रहीत अर्थ में भेद करने संबंधी</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/2 <span class="SanskritText">को विधि:। य: संगृहीतोऽर्थस्तदानुपूर्व्येणैव व्यवहार: प्रवर्तत इत्ययं विधि:। तद्यथा–सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं तच्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते। यत्सत्तद् द्रव्यं गुणो वेति। द्रव्येणापि संग्रहाक्षिप्तेन जीवाजीवविशेषानपेक्षेण न शक्य: संव्यवहार इति जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति वा व्यवहार आश्रीयते। जीवाजीवावपि च संग्रहाक्षिप्तौ नालं संव्यवहारायेति प्रत्येकं देवनारकादिर्घटादिश्च व्यवहारेणाश्रीयते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–भेद करने की विधि क्या है? <strong>उत्तर</strong>–जो संग्रहनय के द्वारा गृहीत अर्थ है उसी के आनुपूर्वीक्रम से व्यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि है। यथा–सर्व संग्रहनय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह अपने उत्तरभेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है। यथा–जो सत् है वह या तो द्रव्य है या गुण। इसी प्रकार संग्रहनय का विषय जो द्रव्य है वह भी जीव अजीव की अपेक्षा किये बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है, इस प्रकार के व्यवहार का आश्रय लिया जाता है। जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य भी जब तक संग्रहनय के विषय रहते हैं, तब तक वे व्यवहार कराने में असमर्थ हैं, इसलिए जीवद्रव्य के देव नारकी आदि रूप और अजीव द्रव्य के घटादि रूप भेदों का आश्रय लिया जाता है। ( राजवार्तिक/1/33/6/6/96/23 ), ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/60/244/25 ), ( स्याद्वादमंजरी/28/317/15 )।</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/2</span> <span class="SanskritText">को विधि:। य: संगृहीतोऽर्थस्तदानुपूर्व्येणैव व्यवहार: प्रवर्तत इत्ययं विधि:। तद्यथा–सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं तच्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते। यत्सत्तद् द्रव्यं गुणो वेति। द्रव्येणापि संग्रहाक्षिप्तेन जीवाजीवविशेषानपेक्षेण न शक्य: संव्यवहार इति जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति वा व्यवहार आश्रीयते। जीवाजीवावपि च संग्रहाक्षिप्तौ नालं संव्यवहारायेति प्रत्येकं देवनारकादिर्घटादिश्च व्यवहारेणाश्रीयते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–भेद करने की विधि क्या है? <strong>उत्तर</strong>–जो संग्रहनय के द्वारा गृहीत अर्थ है उसी के आनुपूर्वीक्रम से व्यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि है। यथा–सर्व संग्रहनय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह अपने उत्तरभेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है। यथा–जो सत् है वह या तो द्रव्य है या गुण। इसी प्रकार संग्रहनय का विषय जो द्रव्य है वह भी जीव अजीव की अपेक्षा किये बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है, इस प्रकार के व्यवहार का आश्रय लिया जाता है। जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य भी जब तक संग्रहनय के विषय रहते हैं, तब तक वे व्यवहार कराने में असमर्थ हैं, इसलिए जीवद्रव्य के देव नारकी आदि रूप और अजीव द्रव्य के घटादि रूप भेदों का आश्रय लिया जाता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/33/6/6/96/23)</span>, <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक/4/1/33/60/244/25)</span>, <span class="GRef">(स्याद्वादमंजरी/28/317/15)</span>।</span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/60/245/1 <span class="SanskritText">व्यवहारस्तद्विभज्यते यद्द्रव्यं तज्जीवादिषड्विधं, य: पर्याय: स द्विविध: क्रमभावी सहभावी चेति। पुनरपि संग्रह: सर्वानजीवादीन् संगृह्णाति।...व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति यो जीव: स मुक्त: संसारी च,...यदाकाशं तल्लोकाकाशमलोकाकाशं ...य: क्रमभावी पर्याय: स क्रियारूपोऽक्रियारूपश्च विशेष:, य: सहभावी पर्याय: स गुण: सदृशपरिणामश्च सामान्यमिति अपरापरसंग्रहव्यवहारप्रपंच:।</span>=<span class="HindiText">(उपरोक्त से आगे)–व्यवहारनय उसका विभाग करते हुए कहता है कि जो द्रव्य है वह जीवादि के भेद से छ: प्रकार का है, और जो पर्याय है वह क्रमभावी व सहभावी के भेद से दो प्रकार की है। पुन: संग्रहनय इन उपरोक्त जीवादिकों का संग्रह कर लेता है, तब व्यवहारनय पुन: इनका विभाग करता है कि जीव मुक्त व संसारी के भेद से दो प्रकार का है, आकाश लोक व अलोक के भेद से दो प्रकार का है। (इसी प्रकार पुद्गल व काल आदि का भी विभाग करता है)। जो क्रमभावी पर्याय है वह क्रिया रूप व अक्रिया (भाव) रूप है, सो विशेष है। और जो सहभावी पर्याय हैं वह गुण तथा सदृशपरिणामरूप होती हुई सामान्यरूप् हैं। इसी प्रकार अपर व पर संग्रह तथा व्यवहारनय का प्रपंच समझ लेना चाहिए।<br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक/4/1/33/60/245/1</span> <span class="SanskritText">व्यवहारस्तद्विभज्यते यद्द्रव्यं तज्जीवादिषड्विधं, य: पर्याय: स द्विविध: क्रमभावी सहभावी चेति। पुनरपि संग्रह: सर्वानजीवादीन् संगृह्णाति।...व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति यो जीव: स मुक्त: संसारी च,...यदाकाशं तल्लोकाकाशमलोकाकाशं ...य: क्रमभावी पर्याय: स क्रियारूपोऽक्रियारूपश्च विशेष:, य: सहभावी पर्याय: स गुण: सदृशपरिणामश्च सामान्यमिति अपरापरसंग्रहव्यवहारप्रपंच:।</span>=<span class="HindiText">(उपरोक्त से आगे)–व्यवहारनय उसका विभाग करते हुए कहता है कि जो द्रव्य है वह जीवादि के भेद से छ: प्रकार का है, और जो पर्याय है वह क्रमभावी व सहभावी के भेद से दो प्रकार की है। पुन: संग्रहनय इन उपरोक्त जीवादिकों का संग्रह कर लेता है, तब व्यवहारनय पुन: इनका विभाग करता है कि जीव मुक्त व संसारी के भेद से दो प्रकार का है, आकाश लोक व अलोक के भेद से दो प्रकार का है। (इसी प्रकार पुद्गल व काल आदि का भी विभाग करता है)। जो क्रमभावी पर्याय है वह क्रिया रूप व अक्रिया (भाव) रूप है, सो विशेष है। और जो सहभावी पर्याय हैं वह गुण तथा सदृशपरिणामरूप होती हुई सामान्यरूप् हैं। इसी प्रकार अपर व पर संग्रह तथा व्यवहारनय का प्रपंच समझ लेना चाहिए।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.2.2" id="V.4.2.2"> अभेद वस्तु में गुणगुणीरूप भेदोपचार संबंधी</strong></span><br /> | ||
समयसार/7 <span class="PrakritText">ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं।</span>=<span class="HindiText">ज्ञानी के चारित्र दर्शन व ज्ञान ये तीन भाव व्यवहार से कहे गये हैं। ( द्रव्यसंग्रह/6/17 ), ( समयसार / आत्मख्याति/16/ | <span class="GRef">समयसार/7</span> <span class="PrakritText">ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं।</span>=<span class="HindiText">ज्ञानी के चारित्र दर्शन व ज्ञान ये तीन भाव व्यवहार से कहे गये हैं। <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह/6/17)</span>, <span class="GRef">( समयसार / आत्मख्याति/16/ कलश 17)</span>।</span><br /> | ||
का./ | <span class="GRef">का./तात्पर्य वृत्ति/111/175/13</span> <span class="SanskritText">अनलानिलकायिका: तेषु पंचस्थावरेषु मध्ये चलनक्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसा: भण्यंते। </span>=<span class="HindiText">पाँच स्थावरों में से तेज वायुकायिक जीवों में चलनक्रिया देखकर व्यवहार से उन्हें त्रस कहा जाता है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599 <span class="SanskritText"> व्यवहार: स यथा स्यात्सद्द्रव्यं ज्ञानावांश्च जीवो वा। </span>=<span class="HindiText">जैसे ‘सत् द्रव्य है’ अथवा ‘ज्ञानवान् जीव है’ इस प्रकार का जो कथन है, वह व्यवहारनय है। और भी देखो– [[नय#IV.2.6.6 | नय - IV.2.6.6 ]], [[नय#V.5.1 | नय - V.5.1-3]]।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599</span> <span class="SanskritText"> व्यवहार: स यथा स्यात्सद्द्रव्यं ज्ञानावांश्च जीवो वा। </span>=<span class="HindiText">जैसे ‘सत् द्रव्य है’ अथवा ‘ज्ञानवान् जीव है’ इस प्रकार का जो कथन है, वह व्यवहारनय है। और भी देखो– [[नय#IV.2.6.6 | नय - IV.2.6.6 ]], [[नय#V.5.1 | नय - V.5.1-3]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.2.3" id="V.4.2.3">भिन्न पदार्थों में कारकरूप से अभेदोपचार संबंधी</strong> </span><br /> | ||
समयसार/59-60 <span class="PrakritGatha">तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं। जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो।59। गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति।60।</span>=<span class="HindiText">जीव में कर्मों व नोकर्मों का वर्ण देखकर, जीव का यह वर्ण है, ऐसा जिनदेव ने व्यवहार से कहा है।59। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्शरूप देह संस्थान आदिक, सभी व्यवहार से हैं, ऐसा निश्चयनय के देखने वाले कहते हैं।60। ( द्रव्यसंग्रह/7 ), (विशेष देखें [[ नय#V.5.5 | नय - V.5.5]])।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार/59-60</span> <span class="PrakritGatha">तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं। जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो।59। गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति।60।</span>=<span class="HindiText">जीव में कर्मों व नोकर्मों का वर्ण देखकर, जीव का यह वर्ण है, ऐसा जिनदेव ने व्यवहार से कहा है।59। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्शरूप देह संस्थान आदिक, सभी व्यवहार से हैं, ऐसा निश्चयनय के देखने वाले कहते हैं।60। <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह/7)</span>, (विशेष देखें [[ नय#V.5.5 | नय - V.5.5]])।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह/3,9 <span class="PrakritGatha">तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य। ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स।3। पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो।8। ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मफलं पभुंजेदि।9।</span> =<span class="HindiText">भूत भविष्यत् व वर्तमान तीनों कालों में जो इंद्रिय बल, आयु व श्वासोच्छ्वासरूप द्रव्यप्राणों से जीता है, उसे व्यवहार से जीव कहते हैं।3। व्यवहार से जीव पुद्गलकर्मों का कर्ता है।6। और व्यवहार से पुद्गलकर्मों के फल का भोक्ता है।9। (विशेष देखो [[नय#V.5.5 | नय - V.5.5]])।</span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/3,9</span> <span class="PrakritGatha">तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य। ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स।3। पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो।8। ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मफलं पभुंजेदि।9।</span> =<span class="HindiText">भूत भविष्यत् व वर्तमान तीनों कालों में जो इंद्रिय बल, आयु व श्वासोच्छ्वासरूप द्रव्यप्राणों से जीता है, उसे व्यवहार से जीव कहते हैं।3। व्यवहार से जीव पुद्गलकर्मों का कर्ता है।6। और व्यवहार से पुद्गलकर्मों के फल का भोक्ता है।9। (विशेष देखो [[नय#V.5.5 | नय - V.5.5]])।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परिशिष्ठ/नय नं.44</span> <span class="SanskritText">व्यवहारनयेन बंधकमोचकपरमाण्वंतरसंयुज्यमानवियुज्यमानपरमाणुवद्बंधमोक्षयोर्द्वैतानुवर्ती।44।</span> =<span class="HindiText">आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बंध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करने वाला है। बंधक और मोचक अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होने वाले और उससे वियुक्त होने वाले परमाणु की भाँति।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 <span class="SanskritText">यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मन: कर्म स एव पुण्यपापद्वैतं पुद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपदाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यार्थिकनिरूपणात्मको व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">जो ‘पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म है वही पुण्य पापरूप द्वैत है; आत्मा पुद्गल परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला और छोड़ने वाला है, यह अशुद्धद्रव्य का निरूपणस्वरूप व्यवहारनय है।</span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189</span> <span class="SanskritText">यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मन: कर्म स एव पुण्यपापद्वैतं पुद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपदाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यार्थिकनिरूपणात्मको व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">जो ‘पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म है वही पुण्य पापरूप द्वैत है; आत्मा पुद्गल परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला और छोड़ने वाला है, यह अशुद्धद्रव्य का निरूपणस्वरूप व्यवहारनय है।</span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश/1/55/54/4 <span class="SanskritText">य एव ज्ञानापेक्षया व्यवहानयेन लोकालोकव्यापको भणित:।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय से ज्ञान की अपेक्षा आत्मा लोकालोकव्यापी है।<br /> | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश/1/55/54/4</span> <span class="SanskritText">य एव ज्ञानापेक्षया व्यवहानयेन लोकालोकव्यापको भणित:।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय से ज्ञान की अपेक्षा आत्मा लोकालोकव्यापी है।<br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/17/369/8 व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौ वा तिनिके भावनिकौं वा कारणकार्यादिकौं काहूको काहूविषै मिलाय निरूपण करै है।<br /> | <span class="GRef">मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/17/369/8</span>=<span class="HindiText"> व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौ वा तिनिके भावनिकौं वा कारणकार्यादिकौं काहूको काहूविषै मिलाय निरूपण करै है।<br /> | ||
और भी देखें - [[नय#III.2.3 | नय - III.2.3]], [[नय#V.5.4 | नय - V.5.4-6]] ।<br /> | और भी देखें - [[नय#III.2.3 | नय - III.2.3]], [[नय#V.5.4 | नय - V.5.4-6]] ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.2.4" id="V.4.2.4"> लोक व्यवहारगत वस्तु संबंधी</strong></span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/311/23 <span class="SanskritText">व्यवहारस्त्वेवमाह। यथा लोकग्राहकमेव वस्तु, अस्तु, किमनया अदृष्टाव्यवह्नियमाणवस्तुपरिकल्पनकष्टपिष्टिकया। यदेव च लोकव्यवहारपथमवतरति तस्यैवानुग्राहकं प्रमाणमुपलभ्यते नेतरस्य। न हि सामान्यमनादिनिधनमेकं संग्रहाभिमतं प्रमाणभूमि:, तथानुभवाभावात् । सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसंगाच्च। नापि विशेषा: परमाणुलक्षणा: क्षणक्षयिण: प्रमाणगोचरा:, तथा प्रवृत्तेरभावात् । तस्माद् इदमेव निखिललोकाबाधितं प्रमाणसिद्धं कियत्कालभाविस्थूलतामाबिभ्राणमुदकाद्याहरणाद्यर्थक्रियानिर्वर्तनक्षमं घटादिकं वस्तुरूपं पारमार्थिकम् । पूर्वोत्तरकालभावितत्पर्यायपर्यालोचना पुनरज्यायसी तत्र प्रमाणप्रसाराभावात् । प्रमाणमंतरेण विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् । अवस्तुत्वाच्च तेषां किं तद्गोचरपर्यायालोचनेन। तथाहि। पूर्वोत्तरकालभाविनो द्रव्यविवर्ता: क्षणक्षयिपरमाणुलक्षणा वा विशेषा न कथंचन लोकव्यवहारमुपरचयंति। तन्न ते वस्तुरूपा:। लोकव्यवहारोपयोगिनामेव वस्तुत्वात् । अत एव पंथा गच्छति, कुंडिका स्रवति, गिरिर्दह्यते, मंचा: क्रोशंति इत्यादि व्यवहाराणां प्रामाण्यम् । तथा च वाचकमुख्य: ‘लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">व्यवहारनय ऐसा कहता है कि–लोकव्यवहार में आने वाली वस्तु ही मान्य है। अदृष्ट तथा अव्यवहार्य वस्तुओं की कल्पना करने से क्या लाभ ? लोकव्यवहार पथपर चलने वाली वस्तु ही अनुग्राहक है और प्रमाणता को प्राप्त होती है, अन्य नहीं। संग्रहनय द्वारा मान्य अनादि निधनरूप सामान्य प्रमाणभूमि को स्पर्श नहीं करता, क्योंकि सर्वसाधारण को उसका अनुभव नहीं होता। तथा उसे मानने पर सबको ही सर्वदर्शीपने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार ऋजुसूत्रनय द्वारा मान्य क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष भी प्रमाण बाह्य होने से हमारी व्यवहार प्रवृत्ति के विषय नहीं हो सकते। इसलिए लोक अबाधित, कियतकाल स्थायी व जलधारण आदि अर्थक्रिया करने में समर्थ ऐसी घट आदि वस्तुएँ ही पारमार्थिक व प्रमाण सिद्ध हैं। इसी प्रकार घट ज्ञान करते समय, नैगमनय मान्य उसकी पूर्वोत्तर अवस्थाओं का भी विचार करना व्यर्थ है, क्योंकि प्रमाणगोचर न होने से वे अवस्तु हैं। और प्रमाणभूत हुए बिना विचार करना अशक्य है। पूर्वोत्तरकालवर्ती द्रव्य की पर्याय अथवा क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष दोनों ही लोकव्यवहार में उपयोगी न होने से अवस्तु हैं, क्योंकि लोक व्यवहार में उपयोगी ही वस्तु है। अतएव ‘रास्ता जाता है, कुंड बहाता है, पहाड़ जलता है, मंच रोते हैं’ आदि व्यवहार भी लोकोपयोगी होने से प्रमाण हैं। वाचक मुख्य श्री उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थाधिगम भाष्य/1/35 में कहा है कि ‘लोक व्यवहार के अनुसार उपचरित अर्थ (देखें [[ उपचार ]] व आगे [[नय#V.5.4 | असद्भूत व्यवहार ]]) को बताने वाले विस्तृत अर्थ को व्यवहार कहते हैं।<br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/311/23</span> <span class="SanskritText">व्यवहारस्त्वेवमाह। यथा लोकग्राहकमेव वस्तु, अस्तु, किमनया अदृष्टाव्यवह्नियमाणवस्तुपरिकल्पनकष्टपिष्टिकया। यदेव च लोकव्यवहारपथमवतरति तस्यैवानुग्राहकं प्रमाणमुपलभ्यते नेतरस्य। न हि सामान्यमनादिनिधनमेकं संग्रहाभिमतं प्रमाणभूमि:, तथानुभवाभावात् । सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसंगाच्च। नापि विशेषा: परमाणुलक्षणा: क्षणक्षयिण: प्रमाणगोचरा:, तथा प्रवृत्तेरभावात् । तस्माद् इदमेव निखिललोकाबाधितं प्रमाणसिद्धं कियत्कालभाविस्थूलतामाबिभ्राणमुदकाद्याहरणाद्यर्थक्रियानिर्वर्तनक्षमं घटादिकं वस्तुरूपं पारमार्थिकम् । पूर्वोत्तरकालभावितत्पर्यायपर्यालोचना पुनरज्यायसी तत्र प्रमाणप्रसाराभावात् । प्रमाणमंतरेण विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् । अवस्तुत्वाच्च तेषां किं तद्गोचरपर्यायालोचनेन। तथाहि। पूर्वोत्तरकालभाविनो द्रव्यविवर्ता: क्षणक्षयिपरमाणुलक्षणा वा विशेषा न कथंचन लोकव्यवहारमुपरचयंति। तन्न ते वस्तुरूपा:। लोकव्यवहारोपयोगिनामेव वस्तुत्वात् । अत एव पंथा गच्छति, कुंडिका स्रवति, गिरिर्दह्यते, मंचा: क्रोशंति इत्यादि व्यवहाराणां प्रामाण्यम् । तथा च वाचकमुख्य: ‘लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">व्यवहारनय ऐसा कहता है कि–लोकव्यवहार में आने वाली वस्तु ही मान्य है। अदृष्ट तथा अव्यवहार्य वस्तुओं की कल्पना करने से क्या लाभ ? लोकव्यवहार पथपर चलने वाली वस्तु ही अनुग्राहक है और प्रमाणता को प्राप्त होती है, अन्य नहीं। संग्रहनय द्वारा मान्य अनादि निधनरूप सामान्य प्रमाणभूमि को स्पर्श नहीं करता, क्योंकि सर्वसाधारण को उसका अनुभव नहीं होता। तथा उसे मानने पर सबको ही सर्वदर्शीपने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार ऋजुसूत्रनय द्वारा मान्य क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष भी प्रमाण बाह्य होने से हमारी व्यवहार प्रवृत्ति के विषय नहीं हो सकते। इसलिए लोक अबाधित, कियतकाल स्थायी व जलधारण आदि अर्थक्रिया करने में समर्थ ऐसी घट आदि वस्तुएँ ही पारमार्थिक व प्रमाण सिद्ध हैं। इसी प्रकार घट ज्ञान करते समय, नैगमनय मान्य उसकी पूर्वोत्तर अवस्थाओं का भी विचार करना व्यर्थ है, क्योंकि प्रमाणगोचर न होने से वे अवस्तु हैं। और प्रमाणभूत हुए बिना विचार करना अशक्य है। पूर्वोत्तरकालवर्ती द्रव्य की पर्याय अथवा क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष दोनों ही लोकव्यवहार में उपयोगी न होने से अवस्तु हैं, क्योंकि लोक व्यवहार में उपयोगी ही वस्तु है। अतएव ‘रास्ता जाता है, कुंड बहाता है, पहाड़ जलता है, मंच रोते हैं’ आदि व्यवहार भी लोकोपयोगी होने से प्रमाण हैं। वाचक मुख्य श्री उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थाधिगम भाष्य/1/35 में कहा है कि ‘लोक व्यवहार के अनुसार उपचरित अर्थ (देखें [[ उपचार ]] व आगे [[नय#V.5.4 | असद्भूत व्यवहार ]]) को बताने वाले विस्तृत अर्थ को व्यवहार कहते हैं।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.3" id="V.4.3"> व्यवहारनय की भेद-प्रवृत्ति की सीमा</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/8 <span class="SanskritText">एवमयं नयस्तावद्वर्तते यावत्पुनर्नास्ति विभाग:। </span>=<span class="HindiText">संग्रह गृहीत अर्थ को विधिपूर्वक भेद करते हुए (देखें [[ नय#V.4.2.1 | पीछे शीर्षक नं - 2.1]]) इस नय की प्रवृत्ति वहाँ तक होती है, जहाँ तक कि वस्तु में अन्य कोई विभाग करना संभव नहीं रहता। ( राजवार्तिक/1/33/6/96/29 )।</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/8</span> <span class="SanskritText">एवमयं नयस्तावद्वर्तते यावत्पुनर्नास्ति विभाग:। </span>=<span class="HindiText">संग्रह गृहीत अर्थ को विधिपूर्वक भेद करते हुए (देखें [[ नय#V.4.2.1 | पीछे शीर्षक नं - 2.1]]) इस नय की प्रवृत्ति वहाँ तक होती है, जहाँ तक कि वस्तु में अन्य कोई विभाग करना संभव नहीं रहता। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/6/96/29)</span>।</span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/60/245/15 | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/60/245/15 </span> <span class="SanskritText">इति अपरापरसंग्रहव्यवहारप्रवंच: प्रागृजुसूत्रात्परसंग्रहादुत्तर: प्रतिपत्तव्य:, सर्वस्य वस्तुन: कथंचित्सामान्यविशेषात्मकत्वात् । </span>=<span class="HindiText">इस प्रकार उत्तरोत्तर हो रहा संग्रह और व्यवहारनय का प्रपंच ऋजुसूत्रनय से पहले-पहले और परसंग्रहनय से उत्तर उत्तर अंशों की विवक्षा करने पर समझ लेना चाहिए; क्योंकि, जगत् की सब वस्तुएँ कथंचित् सामान्यविशेषात्मक हैं। <span class="GRef">(श्लोकवार्तिक 4/1,33 श्लो.59/244)</span></span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/273 <span class="PrakritGatha">जं संगहेण गहिदं विसेसरहिदं पि भेददे सददं। परमाणूपज्जंतं ववहारणओ हवे सो हु।273। </span>=<span class="HindiText">जो नय संग्रहनय के द्वारा अभेद रूप से गृहीत वस्तुओं का परमाणुपर्यंत भेद करता है वह व्यवहार नय है।<br /> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/273</span> <span class="PrakritGatha">जं संगहेण गहिदं विसेसरहिदं पि भेददे सददं। परमाणूपज्जंतं ववहारणओ हवे सो हु।273। </span>=<span class="HindiText">जो नय संग्रहनय के द्वारा अभेद रूप से गृहीत वस्तुओं का परमाणुपर्यंत भेद करता है वह व्यवहार नय है।<br /> | ||
धवला 1/1,1,1/13/11 (विशेषार्थ) वर्तमान पर्याय को विषय करना ऋजु-सूत्र है। इसलिए जब तक द्रव्यगत (देखें [[ नय#III.1.2 | नय - III.1.2]]) भेदों की ही मुख्यता रहती है, तब तक व्यवहारनय चलता है और जब कालकृत भेद प्रारंभ हो जाता है तभी से ऋजुसूत्र नय का प्रारंभ होता है।<br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,1/13/11</span> (विशेषार्थ) वर्तमान पर्याय को विषय करना ऋजु-सूत्र है। इसलिए जब तक द्रव्यगत (देखें [[ नय#III.1.2 | नय - III.1.2]]) भेदों की ही मुख्यता रहती है, तब तक व्यवहारनय चलता है और जब कालकृत भेद प्रारंभ हो जाता है तभी से ऋजुसूत्र नय का प्रारंभ होता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.4" id="V.4.4">व्यवहारनय के भेद व लक्षणादि</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.4.1" id="V.4.4.1">पृथक्त्व व एकत्व व्यवहार</strong> </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय व भाषा/47 <span class="PrakritText">णाणं धणं च कुव्वदि धणिणं जह णाण्णं च दुविधेहिं। भण्णंति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तच्चण्हू। </span>=<span class="HindiText">धन पुरुष को धनवान् करता है, और ज्ञान आत्मा को ज्ञानी करता है। तैसे ही तत्त्वज्ञ पुरुष पृथक्त्व व एकत्व के भेद से संबंध दो प्रकार का कहते हैं। व्यवहार दो प्रकार का है–एक पृथक्त्व और एक एकत्व। जहाँ पर भिन्न द्रव्यों में एकता का संबंध दिखाया जाता है उसका नाम पृथक्त्व व्यवहार कहा जाता है। और एक वस्तु में भेद दिखाया जाय उसका नाम एकत्व व्यवहार कहा जाता है।</span><br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय व भाषा/47</span> <span class="PrakritText">णाणं धणं च कुव्वदि धणिणं जह णाण्णं च दुविधेहिं। भण्णंति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तच्चण्हू। </span>=<span class="HindiText">धन पुरुष को धनवान् करता है, और ज्ञान आत्मा को ज्ञानी करता है। तैसे ही तत्त्वज्ञ पुरुष पृथक्त्व व एकत्व के भेद से संबंध दो प्रकार का कहते हैं। व्यवहार दो प्रकार का है–एक पृथक्त्व और एक एकत्व। जहाँ पर भिन्न द्रव्यों में एकता का संबंध दिखाया जाता है उसका नाम पृथक्त्व व्यवहार कहा जाता है। और एक वस्तु में भेद दिखाया जाय उसका नाम एकत्व व्यवहार कहा जाता है।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.29 <span class="SanskritText">प्रमाणनयनिक्षेपात्मक: भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">प्रमाण नय व निक्षेपात्मक वस्तु को जो भेद द्वारा या उपचार द्वारा भेद या अभेदरूप करता है, वह व्यवहार है। (विशेष देखें [[ उपचार#1.2 | उपचार - 1.2]])।<br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.29</span> <span class="SanskritText">प्रमाणनयनिक्षेपात्मक: भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">प्रमाण नय व निक्षेपात्मक वस्तु को जो भेद द्वारा या उपचार द्वारा भेद या अभेदरूप करता है, वह व्यवहार है। (विशेष देखें [[ उपचार#1.2 | उपचार - 1.2]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.4.2" id="V.4.4.2">सद्भूत व असद्भूत व्यवहार</strong> </span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.25 <span class="SanskritText">व्यवहारो द्विविध:–सद्भूतव्यवहारो असद्भूतव्यवहारश्च। तत्रैकवस्तुविषय: सद्भूतव्यवहार:। भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहार दो प्रकार का है–सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहार। तहाँ सद्भूतव्यवहार एक वस्तुविषयक होता है और असद्भूत व्यवहार भिन्न वस्तु विषयक। (अर्थात् एक वस्तु में गुण-गुणी भेद करना सद्भूत या एकत्व व्यवहार है और भिन्न वस्तुओं में परस्पर कर्ता कर्म व स्वामित्व आदि संबंधी द्वारा अभेद करना असद्भूत या पृथक्त्व व्यवहार है।) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/525 ) (विशेष देखें आगे [[ नय#V.5 | नय - V.5]])<br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.25</span> <span class="SanskritText">व्यवहारो द्विविध:–सद्भूतव्यवहारो असद्भूतव्यवहारश्च। तत्रैकवस्तुविषय: सद्भूतव्यवहार:। भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहार दो प्रकार का है–सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहार। तहाँ सद्भूतव्यवहार एक वस्तुविषयक होता है और असद्भूत व्यवहार भिन्न वस्तु विषयक। (अर्थात् एक वस्तु में गुण-गुणी भेद करना सद्भूत या एकत्व व्यवहार है और भिन्न वस्तुओं में परस्पर कर्ता कर्म व स्वामित्व आदि संबंधी द्वारा अभेद करना असद्भूत या पृथक्त्व व्यवहार है।) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/525 ) (विशेष देखें आगे [[ नय#V.5 | नय - V.5]])<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.4.3" id="V.4.4.3"> सामान्य व विशेष संग्रह भेदक व्यवहार</strong> </span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/210 <span class="PrakritGatha"> जो संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्ध सुद्धं वा। सो ववहारो दुविहो असुद्धसुद्धत्थभेदकरो।210। </span>=<span class="HindiText">जो संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये गये शुद्ध या अशुद्ध पदार्थ का भेद करता है वह व्यवहार नय दो प्रकार का है–शुद्धार्थ भेदक और अशुद्धार्थभेदक। (शुद्धसंग्रह के विषय का भेद करने वाला शुद्धार्थ भेदक व्यवहार है और अशुद्धसंग्रह के विषय का भेद करने वाला अशुद्धार्थभेदक व्यवहार है।)</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/210</span> <span class="PrakritGatha"> जो संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्ध सुद्धं वा। सो ववहारो दुविहो असुद्धसुद्धत्थभेदकरो।210। </span>=<span class="HindiText">जो संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये गये शुद्ध या अशुद्ध पदार्थ का भेद करता है वह व्यवहार नय दो प्रकार का है–शुद्धार्थ भेदक और अशुद्धार्थभेदक। (शुद्धसंग्रह के विषय का भेद करने वाला शुद्धार्थ भेदक व्यवहार है और अशुद्धसंग्रह के विषय का भेद करने वाला अशुद्धार्थभेदक व्यवहार है।)</span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">व्यवहारोऽपि द्वेधा। सामान्यसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा––द्रव्याणि जीवाजीवा:। विशेषसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा––जीवा: संसारिणो मुक्ताश्च।</span> =<span class="HindiText">व्यवहार भी दो प्रकार का है–सामान्यसंग्रहभेदक और विशेष संग्रहभेदक। तहाँ सामान्य संग्रहभेदक तो ऐसा है जैसे कि ‘द्रव्य जीव व अजीव के भेद से दो प्रकार का है’। और विशेषसंग्रहभेदक ऐसा है जैसे कि ‘जीव संसारी व मुक्त के भेद से दो प्रकार का है’। (सामान्य संग्रहनय के विषय का भेद करने वाला सामान्य संग्रह भेदक और विशेष संग्रहनय का भेद करने वाला विशेषसंग्रहभेदक व्यवहार है।)</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">व्यवहारोऽपि द्वेधा। सामान्यसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा––द्रव्याणि जीवाजीवा:। विशेषसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा––जीवा: संसारिणो मुक्ताश्च।</span> =<span class="HindiText">व्यवहार भी दो प्रकार का है–सामान्यसंग्रहभेदक और विशेष संग्रहभेदक। तहाँ सामान्य संग्रहभेदक तो ऐसा है जैसे कि ‘द्रव्य जीव व अजीव के भेद से दो प्रकार का है’। और विशेषसंग्रहभेदक ऐसा है जैसे कि ‘जीव संसारी व मुक्त के भेद से दो प्रकार का है’। (सामान्य संग्रहनय के विषय का भेद करने वाला सामान्य संग्रह भेदक और विशेष संग्रहनय का भेद करने वाला विशेषसंग्रहभेदक व्यवहार है।)</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/14 <span class="SanskritText">अनेन सामान्यसंग्रहनयेन स्वीकृतसत्तासामान्यरूपार्थ भित्त्वा जीवपुद्गलादिकथनं, सेनाशब्देन स्वीकृतार्थं भित्त्वा हस्त्यश्वरथपदातिकथनं ...इति सामान्यसंग्रहभेदकव्यवहारनयो भवति। विशेषसंग्रहनयेन स्वीकृतार्थान् जीवपुद्गलनिचयान् भित्त्वा देवनारकादिकथनं, घटपटादिकथनम् । हस्त्यश्वरथपदातीन् भित्वा भद्रगज-जात्यश्व-महारथ-शतभटसहस्रभटादिकथनं ...इत्याद्यनेकविषयान् भित्त्वा कथनं विशेषसंग्रहभेदकव्यवहारनयो भवति। </span>=<span class="HindiText">सामान्य संग्रहनय के द्वारा स्वीकृत सत्ता सामान्यरूप अर्थ का भेद करके जीव पुद्गलादि कहना अथवा सेना शब्द का भेद करके हाथी, घोड़ा, रथ, पियादे कहना, ऐसा सामान्य संग्रहभेदक व्यवहार होता है। और विशेषसंग्रहनय द्वारा स्वीकृत जीव व पुद्गलसमूह का भेद करके देवनारकादि तथा घट पट आदि कहना, अथवा हाथी, घोड़ा, पदातिका भेद करके भद्र हाथी, जातिवाला घोड़ा, महारथ, शतभट, सहस्रभट आदि कहना, इत्यादि अनेक विषयों को भेद करके कहना विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय है।<br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/14</span> <span class="SanskritText">अनेन सामान्यसंग्रहनयेन स्वीकृतसत्तासामान्यरूपार्थ भित्त्वा जीवपुद्गलादिकथनं, सेनाशब्देन स्वीकृतार्थं भित्त्वा हस्त्यश्वरथपदातिकथनं ...इति सामान्यसंग्रहभेदकव्यवहारनयो भवति। विशेषसंग्रहनयेन स्वीकृतार्थान् जीवपुद्गलनिचयान् भित्त्वा देवनारकादिकथनं, घटपटादिकथनम् । हस्त्यश्वरथपदातीन् भित्वा भद्रगज-जात्यश्व-महारथ-शतभटसहस्रभटादिकथनं ...इत्याद्यनेकविषयान् भित्त्वा कथनं विशेषसंग्रहभेदकव्यवहारनयो भवति। </span>=<span class="HindiText">सामान्य संग्रहनय के द्वारा स्वीकृत सत्ता सामान्यरूप अर्थ का भेद करके जीव पुद्गलादि कहना अथवा सेना शब्द का भेद करके हाथी, घोड़ा, रथ, पियादे कहना, ऐसा सामान्य संग्रहभेदक व्यवहार होता है। और विशेषसंग्रहनय द्वारा स्वीकृत जीव व पुद्गलसमूह का भेद करके देवनारकादि तथा घट पट आदि कहना, अथवा हाथी, घोड़ा, पदातिका भेद करके भद्र हाथी, जातिवाला घोड़ा, महारथ, शतभट, सहस्रभट आदि कहना, इत्यादि अनेक विषयों को भेद करके कहना विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.5" id="V.4.5"> व्यवहार-नयाभास का लक्षण</strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक/60/244</span> <span class="SanskritGatha">कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् । प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् ।60। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य और पर्यायों के आरोपित किये गये कल्पित विभागों को जो वास्तविक मान लेता है वह प्रमाणबाधित होने से व्यवहारनयाभास है। ( स्याद्वादमंजरी के अनुसार जैसे चार्वाक दर्शन)। <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/28/317/15 में प्रमाणतत्त्वालोकालंकार/7/1-53 से उद्धृत)</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.6" id="V.4.6"> व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है</strong> </span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 2/1/7/28/585/1 <span class="SanskritText"> व्यवहारनयोऽशुद्धद्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 2/1/7/28/585/1</span> <span class="SanskritText"> व्यवहारनयोऽशुद्धद्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/171/3 <span class="SanskritText">पर्यायकलंकितया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय पर्याय (भेद) रूप कलंक से युक्त होने से अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/2 ); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 )।<br /> | <span class="GRef">धवला 9/4,1,45/171/3</span> <span class="SanskritText">पर्यायकलंकितया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय पर्याय (भेद) रूप कलंक से युक्त होने से अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। <span class="GRef">(कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/2 )</span>; <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189)</span>।<br /> | ||
(और भी देखें [[नय#IV.2.4 | नय - IV.2.4 ]]।<br /> | (और भी देखें [[नय#IV.2.4 | नय - IV.2.4 ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.7" id="V.4.7"> पर्यायार्थिक नय भी कथंचित् व्यवहार है</strong> </span><br /> | ||
गोम्मटसार जीवकांड/272/1016 <span class="PrakritText">ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्तिएयट्ठो।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार, विकल्प, भेद व पर्याय ये एकार्थवाची शब्द हैं।</span><br /> | <span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड/272/1016</span> <span class="PrakritText">ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्तिएयट्ठो।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार, विकल्प, भेद व पर्याय ये एकार्थवाची शब्द हैं।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/521 <span class="SanskritText">पर्यायार्थिकनय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति। एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र: स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक और व्यवहार ये दोनों एकार्थवाची हैं, क्योंकि सब ही व्यवहार केवल उपचाररूप होता है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/521</span> <span class="SanskritText">पर्यायार्थिकनय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति। एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र: स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक और व्यवहार ये दोनों एकार्थवाची हैं, क्योंकि सब ही व्यवहार केवल उपचाररूप होता है।<br /> | ||
समयसार/ पं.जयचंद/6 परसंयोगजनित भेद सब भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिक नय के विषय हैं। शुद्ध (अभेद) द्रव्य की दृष्टि में यह भी पर्यायार्थिक ही है। इसलिए व्यवहार नय ही है ऐसा आशय जानना। ( समयसार/ पं.जयचंद/12/ | <span class="GRef">समयसार/ पं.जयचंद/6</span> =<span class="HindiText">परसंयोगजनित भेद सब भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिक नय के विषय हैं। शुद्ध (अभेद) द्रव्य की दृष्टि में यह भी पर्यायार्थिक ही है। इसलिए व्यवहार नय ही है ऐसा आशय जानना। <span class="GRef">(समयसार/ पं.जयचंद/12/कलश 4)</span><br /> | ||
देखें [[ नय#V.2.4 | अशुद्धनिश्चय भी वास्तव में व्यवहार है ]]।<br /> | देखें [[ नय#V.2.4 | अशुद्धनिश्चय भी वास्तव में व्यवहार है ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.8" id="V.4.8">उपनय निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.8.1" id="V.4.8.1"> उपनय का लक्षण व इसके भेद</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">नयानां समीपा: उपनया:। सद्भूतव्यवहार: असद्भूतव्यवहार उपचरितासद्भूतव्यवहारश्चेत्युपनयस्त्रेधा। </span>=<span class="HindiText">जो नयों के समीप हों अर्थात् नय की भाँति ही ज्ञाता के अभिप्राय स्वरूप हों उन्हें उपनय कहते हैं, और वह उपनय, सद्भूत, असद्भूत व उपचरित असद्भूत के भेद से तीन प्रकार का है।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">नयानां समीपा: उपनया:। सद्भूतव्यवहार: असद्भूतव्यवहार उपचरितासद्भूतव्यवहारश्चेत्युपनयस्त्रेधा। </span>=<span class="HindiText">जो नयों के समीप हों अर्थात् नय की भाँति ही ज्ञाता के अभिप्राय स्वरूप हों उन्हें उपनय कहते हैं, और वह उपनय, सद्भूत, असद्भूत व उपचरित असद्भूत के भेद से तीन प्रकार का है।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/187-188 <span class="PrakritText"> उवणयभेया वि पभणामो।187। सब्भूदमसब्भूदं उपचरियं चेव दुविहं सब्भूवं। तिविहं पि असब्भूवं उवयरियं जाण तिविहं पि।188।</span>=<span class="HindiText">उपनय के भेद कहते हैं। वह सद्भूत, असद्भूत और उपचरित असद्भूत के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें भी सद्भूत दो प्रकार का है–शुद्ध व अशुद्ध–देखें आगे [[ नय#V.5 | नय - V.5]]); असद्भूत व उपचरित असद्भूत दोनों ही तीन-तीन प्रकार के है–(स्वजाति, विजाति और स्वजाति-विजाति।–देखें [[ उपचार#1.2 | उपचार - 1.2]]), ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.22)।<br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/187-188</span> <span class="PrakritText"> उवणयभेया वि पभणामो।187। सब्भूदमसब्भूदं उपचरियं चेव दुविहं सब्भूवं। तिविहं पि असब्भूवं उवयरियं जाण तिविहं पि।188।</span>=<span class="HindiText">उपनय के भेद कहते हैं। वह सद्भूत, असद्भूत और उपचरित असद्भूत के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें भी सद्भूत दो प्रकार का है–शुद्ध व अशुद्ध–देखें आगे [[ नय#V.5 | नय - V.5]]); असद्भूत व उपचरित असद्भूत दोनों ही तीन-तीन प्रकार के है–(स्वजाति, विजाति और स्वजाति-विजाति।–देखें [[ उपचार#1.2 | उपचार - 1.2]]), <span class="GRef">( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.22)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.4.8.2" id="V.4.8.2">उपनय भी व्यवहार नय है</strong></span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/29/17 <span class="SanskritText">उपनयोपजनितो व्यवहार:। प्रमाणनयनिक्षेपात्मक: भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहार:। कथमुपनयस्तस्य जनक इति चेत्, सद्भूतो भेदोत्पादकत्वात् असद्भूतस्तूपचारोत्पादकत्वात् ।</span> =<span class="HindiText">उपनय से व्यवहारनय उत्पन्न होता है। और प्रमाणनय व निक्षेपात्मक वस्तु का भेद व उपचार द्वारा भेद व अभेद करने को व्यवहार कहते हैं। प्रश्न–व्यवहार नय उपनय से कैसे उत्पन्न होता है? उत्तर–क्योंकि सद्भूतरूप उपनय तो अभेदरूप वस्तु में भेद उत्पन्न करता है और असद्भूत रूप उपनय भिन्न वस्तुओं में अभेद का उपचार करता है।<br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/29/17</span> <span class="SanskritText">उपनयोपजनितो व्यवहार:। प्रमाणनयनिक्षेपात्मक: भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहार:। कथमुपनयस्तस्य जनक इति चेत्, सद्भूतो भेदोत्पादकत्वात् असद्भूतस्तूपचारोत्पादकत्वात् ।</span> =<span class="HindiText">उपनय से व्यवहारनय उत्पन्न होता है। और प्रमाणनय व निक्षेपात्मक वस्तु का भेद व उपचार द्वारा भेद व अभेद करने को व्यवहार कहते हैं। प्रश्न–व्यवहार नय उपनय से कैसे उत्पन्न होता है? उत्तर–क्योंकि सद्भूतरूप उपनय तो अभेदरूप वस्तु में भेद उत्पन्न करता है और असद्भूत रूप उपनय भिन्न वस्तुओं में अभेद का उपचार करता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5" id="V.5">सद्भूत असद्भूत व्यवहारनय निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.1" id="V.5.1"> सद्भूत व्यवहारनय सामान्य निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.1.1" id="V.5.1.1"> लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 <span class="SanskritText"> एकवस्तुविषयसद्भूतव्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">एक वस्तु को विषय करने वाला सद्भूतव्यवहार है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 )।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/10</span> <span class="SanskritText"> एकवस्तुविषयसद्भूतव्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">एक वस्तु को विषय करने वाला सद्भूतव्यवहार है। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25)</span>।</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/220 <span class="PrakritGatha">गुणगुणिपज्जायदव्वे कारकसब्भावदो य दव्वेसु। तो णाऊणं भेयं कुणयं सब्भूयसद्धियरो।220।=</span><span class="HindiText">गुण व गुणी में अथवा पर्याय व द्रव्य में कर्ता कर्म करण व संबंध आदि कारकों का कथंचित् सद्भाव होता है। उसे जानकर जो द्रव्यों में भेद करता है वह सद्भूत व्यवहारनय है।( नयचक्र बृहद्/46 )।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/220</span> <span class="PrakritGatha">गुणगुणिपज्जायदव्वे कारकसब्भावदो य दव्वेसु। तो णाऊणं भेयं कुणयं सब्भूयसद्धियरो।220।=</span><span class="HindiText">गुण व गुणी में अथवा पर्याय व द्रव्य में कर्ता कर्म करण व संबंध आदि कारकों का कथंचित् सद्भाव होता है। उसे जानकर जो द्रव्यों में भेद करता है वह सद्भूत व्यवहारनय है।<span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/46)</span>।</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/221 | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/221 </span> <span class="PrakritGatha">दव्वाणां खु पएसा बहुआ ववहारदो य एक्केण। णण्णं य णिच्छयदो भणिया कायत्थ खलु हवे जुत्ती।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार अर्थात् सद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यों के बहुत प्रदेश हैं। और निश्चयनय से वही द्रव्य अनन्य है। <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/222)</span>।<br /> | ||
और भी देखें [[ नय#V.4.1 | गुणगुणी भेदकारी व्यवहार नय सामान्य के लक्षण ]] व [[ नय#V.4.2 | उदाहरण ]]।<br /> | और भी देखें [[ नय#V.4.1 | गुणगुणी भेदकारी व्यवहार नय सामान्य के लक्षण ]] व [[ नय#V.4.2 | उदाहरण ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.1.2" id="V.5.1.2"> कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/525-528 <span class="SanskritGatha"> सद्भूतस्तद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृत्तिमात्रत्वात् ।525। अस्यावगमे फलमिति तदितरवस्तुनि निषेधबुद्धि: स्यात् । इतरविभिन्नो नय इति भेदाभिव्यंजको न नय:।527। अस्तमितसर्वसंकरदोषं क्षतसर्वशून्यदोषं वा। अणुरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणमिदम् ।528। </span>=<span class="HindiText">विवक्षित उस वस्तु के गुणों का नाम सद्भूत है और उन गुणों की उस वस्तु में भेदरूप प्रवृत्तिमात्र का नाम व्यवहार है।525। इस नय का प्रयोजन यह है कि इसके अनुसार ज्ञान होने पर इतर वस्तुओं में निषेध बुद्धि हो जाती है, क्योंकि विकल्पवश दूसरे से भिन्न होना नय है। नय कुछ भेद का अभिव्यंजक नहीं है।527। संपूर्ण संकर व शून्य दोषों से रहित यह वस्तु इस नय के कारण ही अनन्य शरण सिद्ध होती है। क्योंकि इससे ऐसा ही ज्ञान होता है।528।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/525-528</span> <span class="SanskritGatha"> सद्भूतस्तद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृत्तिमात्रत्वात् ।525। अस्यावगमे फलमिति तदितरवस्तुनि निषेधबुद्धि: स्यात् । इतरविभिन्नो नय इति भेदाभिव्यंजको न नय:।527। अस्तमितसर्वसंकरदोषं क्षतसर्वशून्यदोषं वा। अणुरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणमिदम् ।528। </span>=<span class="HindiText">विवक्षित उस वस्तु के गुणों का नाम सद्भूत है और उन गुणों की उस वस्तु में भेदरूप प्रवृत्तिमात्र का नाम व्यवहार है।525। इस नय का प्रयोजन यह है कि इसके अनुसार ज्ञान होने पर इतर वस्तुओं में निषेध बुद्धि हो जाती है, क्योंकि विकल्पवश दूसरे से भिन्न होना नय है। नय कुछ भेद का अभिव्यंजक नहीं है।527। संपूर्ण संकर व शून्य दोषों से रहित यह वस्तु इस नय के कारण ही अनन्य शरण सिद्ध होती है। क्योंकि इससे ऐसा ही ज्ञान होता है।528।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.1.3" id="V.5.1.3">व्यवहार सामान्य व सद्भूत व्यवहार में अंतर</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/523/526 <span class="SanskritGatha">साधारणगुण इति वा यदि वासाधारण: सतस्तस्य। भवति विवक्ष्यो हि यदा व्यवहारनयस्तदा श्रेयान् ।523। अत्र निदानं च यथा सदसाधारणगुणो विवक्ष्य: स्यात् । अविवक्षितोऽथवापि च सत्साधारणगुणो न चान्यतरात् ।526।</span>=<span class="HindiText">सत् के साधारण व असाधारण इन दोनों प्रकार के गुणों में से किसी की भी विवक्षा होने पर व्यवहारनय श्रेय होता है।523। और सद्भूत व्यवहारनय में सत् के साधारण व असाधारण गुणों में परस्पर मुख्य गौण विवक्षा होती है। मुख्य गौण विवक्षा को छोड़कर इस नय की प्रवृत्ति नहीं होती।526।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/523/526</span> <span class="SanskritGatha">साधारणगुण इति वा यदि वासाधारण: सतस्तस्य। भवति विवक्ष्यो हि यदा व्यवहारनयस्तदा श्रेयान् ।523। अत्र निदानं च यथा सदसाधारणगुणो विवक्ष्य: स्यात् । अविवक्षितोऽथवापि च सत्साधारणगुणो न चान्यतरात् ।526।</span>=<span class="HindiText">सत् के साधारण व असाधारण इन दोनों प्रकार के गुणों में से किसी की भी विवक्षा होने पर व्यवहारनय श्रेय होता है।523। और सद्भूत व्यवहारनय में सत् के साधारण व असाधारण गुणों में परस्पर मुख्य गौण विवक्षा होती है। मुख्य गौण विवक्षा को छोड़कर इस नय की प्रवृत्ति नहीं होती।526।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.1.4" id="V.5.1.4"> सद्भूत व्यवहानय के भेद</strong> </span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 <span class="SanskritText"> तत्र सद्भूतव्यवहारो द्विविध:–उपचरितानुपचरितभेदात् ।=</span><span class="HindiText">सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार का है–सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार का है–उपचरित व अनुपचरित। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.25); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/534 )।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/10</span> <span class="SanskritText"> तत्र सद्भूतव्यवहारो द्विविध:–उपचरितानुपचरितभेदात् ।=</span><span class="HindiText">सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार का है–सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार का है–उपचरित व अनुपचरित। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.25)</span>; <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/534)</span>।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">सद्भूतव्यवहारो द्विधा–शुद्धसद्भूतव्यवहारो...अशुद्धसद्भूतव्यवहारो।</span> =<span class="HindiText">सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार की है–शुद्ध सद्भूत और अशुद्ध सद्भूत। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/21 )।<br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">सद्भूतव्यवहारो द्विधा–शुद्धसद्भूतव्यवहारो...अशुद्धसद्भूतव्यवहारो।</span> =<span class="HindiText">सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार की है–शुद्ध सद्भूत और अशुद्ध सद्भूत। <span class="GRef">( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/21)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.2" id="V.5.2"> अनुपचरित या शुद्धसद्भूत निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.2.1" id="V.5.2.1"> क्षायिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 <span class="SanskritText"> निरुपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषयोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा–जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणा:।</span> =<span class="HindiText">निरुपाधि गुण व गुणी में भेद को विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे–केवलज्ञानादि जीव के गुण है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 )।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/10</span> <span class="SanskritText"> निरुपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषयोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा–जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणा:।</span> =<span class="HindiText">निरुपाधि गुण व गुणी में भेद को विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे–केवलज्ञानादि जीव के गुण है। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25)</span>।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">शुद्धसद्भूतव्यवहारो यथा–शुद्धगुणशुद्धगुणिनो, शुद्धपर्यायशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् ।</span>=<span class="HindiText">शुद्धगुण व शुद्धगुणी में अथवा शुद्धपर्याय व शुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय है ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/21 )।</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">शुद्धसद्भूतव्यवहारो यथा–शुद्धगुणशुद्धगुणिनो, शुद्धपर्यायशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् ।</span>=<span class="HindiText">शुद्धगुण व शुद्धगुणी में अथवा शुद्धपर्याय व शुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय है <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/21)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/13,43</span> <span class="SanskritText">अन्या कार्यदृष्टि:...क्षायिकजीवस्य सकलविमलकेवलावबोधबुद्धभुवनत्रयस्य ... साद्यनिधनामूर्तातींद्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मकस्य ...तीर्थंकरपरमदेवस्य केवलज्ञानादियमपि युगपल्लोकालोकव्यापिनी।</span> =<span class="HindiText">दूसरी कार्य शुद्धदृष्टि...क्षायिक जीव को जिसने कि सकल विमल केवलज्ञान द्वारा तीनभुवन को जाना है, जो सादि अनिधन अमूर्त अतींद्रिय स्वभाववाले शुद्धसद्भूत व्यवहार नयात्मक है, ऐसे तीर्थंकर परमदेव को केवलज्ञान की भाँति यह भी युगपत् लोकालोक में व्याप्त होने वाली है। <br /></span> | |||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 <span class="SanskritText">शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादि शुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्यशुद्धजीव:।</span> =<span class="HindiText">=शुद्धसद्भूत व्यवहार से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधार होने के कारण ‘कार्यशुद्ध जीव’ है। ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परि/368/14)।<br /> | <span class="GRef">नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9</span> <span class="SanskritText">शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादि शुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्यशुद्धजीव:।</span> =<span class="HindiText">=शुद्धसद्भूत व्यवहार से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधार होने के कारण ‘कार्यशुद्ध जीव’ है। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परि/368/14)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.2.2" id="V.5.2.2"> पारिणामिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/28 <span class="SanskritText">परमाणुपर्याय: पुद्गलस्य शुद्धपर्याय: परमपारिणामिकभावलक्षण: वस्तुगतषट्प्रकारहानिवृद्धिरूप: अतिसूक्ष्म: अर्थपर्यायात्मक: सादिसनिधनोऽपि परद्रव्यनिरपेक्षत्वाच्छुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मक:। </span>=<span class="HindiText">परमाणुपर्याय पुद्गल की शुद्ध पर्याय है। जो कि परमपारिणामिकभाव स्वरूप है, वस्तु में होने वाली छह प्रकार की हानिवृद्धि रूप है, अति सूक्ष्म है, अर्थ पर्यायात्मक है, और सादि सांत होने पर भी परद्रव्य से निरपेक्ष होने के कारण शुद्धसद्भूत व्यवहारनयात्मक है।</span><br /> | <span class="GRef">नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/28</span> <span class="SanskritText">परमाणुपर्याय: पुद्गलस्य शुद्धपर्याय: परमपारिणामिकभावलक्षण: वस्तुगतषट्प्रकारहानिवृद्धिरूप: अतिसूक्ष्म: अर्थपर्यायात्मक: सादिसनिधनोऽपि परद्रव्यनिरपेक्षत्वाच्छुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मक:। </span>=<span class="HindiText">परमाणुपर्याय पुद्गल की शुद्ध पर्याय है। जो कि परमपारिणामिकभाव स्वरूप है, वस्तु में होने वाली छह प्रकार की हानिवृद्धि रूप है, अति सूक्ष्म है, अर्थ पर्यायात्मक है, और सादि सांत होने पर भी परद्रव्य से निरपेक्ष होने के कारण शुद्धसद्भूत व्यवहारनयात्मक है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी x`/535-536 | <span class="GRef">पंचाध्यायी x`/535-536</span> <span class="SanskritGatha">स्यादादिमो यथांतर्लीना या शक्तिरस्ति यस्य सत:। तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्विशेषनिरपेक्षम् ।535। इदमत्रोदाहरणं ज्ञानं जीवोपजीवि जीवगुण:। ज्ञेयालंबनकाले न तथा ज्ञेयोपजीवि स्यात् ।536।</span>=<span class="HindiText">जिस पदार्थ की जो अंतर्लीन (त्रिकाली) शक्ति है, उसके सामान्यपने से यदि उस पदार्थ विशेष की अपेक्षा न करके निरूपण किया जाता है तो वह अनुपचरित–सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है।535। जैसे कि ज्ञान जीव का जीवोपजीवी गुण है। घट पट आदि ज्ञेयों के अवलंबन काल में भी वह ज्ञेयोपजीवी नहीं हो जाता। (अर्थात् ज्ञान को ज्ञान कहना ही इस नय को स्वीकार है, घटज्ञान कहना नहीं।536।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.2.3" id="V.5.2.3"> अनुपचरित व शुद्ध सद्भूत की एकार्थता</strong> </span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/5 | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/5</span> <span class="SanskritText">केवलज्ञानदर्शनं प्रति शुद्धसद्भूतशब्दवाच्योऽनुपचरितसद्भूतव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">यहाँ जीव का लक्षण कहते समय केवलज्ञान व केवलदर्शन के प्रति शुद्धसद्भूत शब्द से वाच्य अनुपचरित सद्भूत व्यवहार है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.2.4" id="V.5.2.4"> इस नय के कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/539 <span class="SanskritText"> फलमास्तिक्यनिदानं सद्द्रव्ये वास्तवप्रतीति: स्यात् । भवति क्षणिकादिमते परमोपेक्षा यतो विनायासात् ।</span>=<span class="HindiText">सत्रूप द्रव्य में आस्तिक्य पूर्वक यथार्थ प्रतीति का होना ही इस नय का फल है, क्योंकि इस नय के द्वारा, बिना किसी परिश्रम के क्षणिकादि मतों में उपेक्षा हो जाती है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/539</span> <span class="SanskritText"> फलमास्तिक्यनिदानं सद्द्रव्ये वास्तवप्रतीति: स्यात् । भवति क्षणिकादिमते परमोपेक्षा यतो विनायासात् ।</span>=<span class="HindiText">सत्रूप द्रव्य में आस्तिक्य पूर्वक यथार्थ प्रतीति का होना ही इस नय का फल है, क्योंकि इस नय के द्वारा, बिना किसी परिश्रम के क्षणिकादि मतों में उपेक्षा हो जाती है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.3" id="V.5.3"> उपचरित या अशुद्ध सद्भूत निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.3.1" id="V.5.3.1">क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">अशुद्धसद्भूतव्यवहारो यथाशुद्धगुणाशुद्धगुणिनोरशुद्धपर्यायाशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् । </span>=<span class="HindiText">अशुद्धगुण व अशुद्धगुणी में अथवा अशुद्धपर्याय व अशुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना अशुद्धसद्भूत व्यवहार नय है <span class="GRef">( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/21</span> )।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 | <span class="GRef">आलापपद्धति/10</span> <span class="SanskritText">सोपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषय उपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा–जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणा:। </span>=<span class="HindiText">उपाधिसहित गुण व गुणी में भेद को विषय करने वाला उपचरित सद्भूत व्यवहारनय है। जैसे–मतिज्ञानादि जीव के गुण है।<span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25</span> )।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9</span> <span class="SanskritText">अशुद्धसद्भूतव्यवहारेण मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतत्वादशुद्धजीव:। </span>=<span class="HindiText">अशुद्धसद्भूत व्यवहार से मतिज्ञानादि विभावगुणों का आधार होने के कारण ‘अशुद्ध जीव’ है। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परिशिष्ठ/369/1)</span><br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.3.2" id="V.5.3.2"> पारिणामिक भाव में उपचार करने की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/540/541 | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/540/541</span> <span class="SanskritGatha">उपचरितो सद्भूतो व्यवहार: स्यान्नयो यथा नाम। अविरुद्धं हेतुवशात्परतोऽप्युपचर्यते यत: स्व गुण:।540। अर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽधुनापि यथा। अर्थ: स्वपरनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारम् ।541।</span>=<span class="HindiText">किसी हेतु के वश से अपने गुण का भी अविरोधपूर्वक दूसरे में उपचार किया जाये, तहाँ उपचरित सद्भूत व्यवहारनय होता है।540। जैसे–अर्थविकल्पात्मक ज्ञान को प्रमाण कहना। यहाँ पर स्व व पर के समुदाय को अर्थ तथा ज्ञान के उस स्व व पर में व्यवसाय को विकल्प कहते हैं। (अर्थात् ज्ञान गुण तो वास्तव में निर्विकल्प तेजमात्र है, फिर भी यहाँ बाह्य अर्थों का अवलंबन लेकर उसे अर्थ विकल्पात्मक कहना उपचार है, परमार्थ नहीं।541।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.3.3" id="V.5.3.3"> उपचरित व अशुद्ध सद्भूत की एकार्थता</strong></span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/6 | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/6</span> <span class="SanskritText">छद्मस्थज्ञानदर्शनापरिपूर्णापेक्षया पुनरशुद्धसद्भूतशब्दवाच्य उपचरितासद्भूतव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">छद्मस्थ जीव के ज्ञानदर्शन की अपेक्षा से अशुद्धसद्भूत शब्द से वाच्य उपचरित सद्भूत व्यवहार है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.3.4" id="V.5.3.4"> इस नय के कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/544-545 | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/544-545</span> <span class="SanskritGatha">हेतु: स्वरूपसिद्धिं विना न परसिद्धिरप्रमाणत्वात् । तदपि च शक्तिविशेषाद्द्रव्यविशेषे यथा प्रमाणं स्यात् ।544। अर्थो ज्ञेयज्ञायकसंकरदोषभ्रमक्षयो यदि वा। अविनाभावात् साध्यं सामान्यं साधको विशेष: स्यात् ।545।</span>=<span class="HindiText">स्वरूप सिद्धि के बिना पर की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि वह स्व निरपेक्ष पर अप्रमाणभूत है। तथा प्रमाण स्वयं भी स्वपर व्यवसायात्मक शक्तिविशेष के कारण द्रव्य विशेष के विषय में प्रवृत्त होता है, यही इस नय की प्रवृत्ति में हेतु है।544। ज्ञेय ज्ञायक भाव द्वारा संभव संकरदोष के भ्रम को दूर करना, तथा अविनाभावरूप से स्थित वस्तु के सामान्य व विशेष अंशों में परस्पर साध्य साधकपने की सिद्धि करना इसका प्रयोजन है।545। </span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.4" id="V.5.4">असद्भूत व्यवहार सामान्य निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.4.1" id="V.5.4.1"> लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 <span class="SanskritText"> भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">भिन्न वस्तु को विषय करने वाला असद्भूत व्यवहारनय है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 ); (और भी देखें [[ नय#V.4.1 | नय - V.4.1]] व [[ नय#V.4.2 | नय - V.4.2]] )</span><br /> | <span class="GRef">आलापपद्धति/10</span> <span class="SanskritText"> भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">भिन्न वस्तु को विषय करने वाला असद्भूत व्यवहारनय है। <span class="GRef">( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25</span> ); (और भी देखें [[ नय#V.4.1 | नय - V.4.1]] व [[ नय#V.4.2 | नय - V.4.2]] )</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/223-225 | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/223-225</span> <span class="PrakritGatha">अण्णेसिं अण्णगुणो भणइ असब्भूद तिविह ते दोवि। सज्जाइ इयर मिस्सो णायव्वो तिविहभेयजुदो।223।</span>=<span class="HindiText">अन्य द्रव्य के अन्य गुण कहना असद्भूत व्यवहारनय है। वह तीन प्रकार का है – स्वजाति, विजाति और मिश्र। ये तीनों भी द्रव्य गुण व पर्याय में परस्पर उपचार होने से तीन-तीन प्रकार के हो जाते हैं। (विशेष देखें [[ उपचार#5 | उपचार - 5]])।</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/113,320 <span class="PrakritGatha">मण वयण काय इंदिय आणप्पाणउगं च जं जीवे। तमसब्भूओ भणदि हु ववहारो लोयमज्झम्मि।113। णेयं खु जत्थ णाणं सद्धेयं जं दंसणं भणियं। चरियं खलु चारित्तं णायव्वं तं असब्भूवं।320।</span>=<span class="HindiText">मन, वचन, काय, इंद्रिय, आनप्राण और आयु ये जो दश प्रकार के प्राण जीव के हैं, ऐसा असद्भूत व्यवहारनय कहता है।113। ज्ञेय को ज्ञान कहना जैसे घटज्ञान, श्रद्धेय को दर्शन कहना, जैसे देव गुरु शास्त्र की श्रद्धा सम्यग्दर्शन है, आचरण करने योग्य को चारित्र कहते हैं जैसे हिंसा आदि का त्याग चारित्र है; यह सब कथन असद्भूतव्यवहार जानना चाहिए।320।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र बृहद्/113,320 </span> <span class="PrakritGatha">मण वयण काय इंदिय आणप्पाणउगं च जं जीवे। तमसब्भूओ भणदि हु ववहारो लोयमज्झम्मि।113। णेयं खु जत्थ णाणं सद्धेयं जं दंसणं भणियं। चरियं खलु चारित्तं णायव्वं तं असब्भूवं।320।</span>=<span class="HindiText">मन, वचन, काय, इंद्रिय, आनप्राण और आयु ये जो दश प्रकार के प्राण जीव के हैं, ऐसा असद्भूत व्यवहारनय कहता है।113। ज्ञेय को ज्ञान कहना जैसे घटज्ञान, श्रद्धेय को दर्शन कहना, जैसे देव गुरु शास्त्र की श्रद्धा सम्यग्दर्शन है, आचरण करने योग्य को चारित्र कहते हैं जैसे हिंसा आदि का त्याग चारित्र है; यह सब कथन असद्भूतव्यवहार जानना चाहिए।320।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/8 | <span class="GRef">आलापपद्धति/8</span> <span class="SanskritText">असद्भूतव्यवहारेण कर्मनोकर्मणोरपि चेतनस्वभाव:।...जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेण मूर्त्तस्वभाव: ...असद्भूतव्यवहारेणाप्युपचारेणामूर्तत्वं। ...असद्भूतव्यवहारेण उपचरितस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">असद्भूत व्यवहार से कर्म व नोकर्म भी चेतनस्वभावी है, जीव का भी मूर्त स्वभाव है, और पुद्गल का स्वभाव अमूर्त व उपचरित है।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/21 <span class="SanskritText">नमो जिनेभ्य: इति वचनात्मकद्रव्यनमस्कारोऽप्यसद्भूतव्यवहारनयेन।</span>=<span class="HindiText"> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/21</span> <span class="SanskritText">नमो जिनेभ्य: इति वचनात्मकद्रव्यनमस्कारोऽप्यसद्भूतव्यवहारनयेन।</span>=<span class="HindiText"> ‘जिनेंद्रभगवान को नमस्कार हो ऐसा वचनात्मक द्रव्य नमस्कार भी असद्भूतव्यवहारनय से होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/253/11</span> <span class="SanskritText">द्रव्यकर्माण्यात्मा करोति भुंक्ते चेत्यशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकासद्भूतव्यवहारनयो भण्यते।</span>=<span class="HindiText">आत्मा द्रव्यकर्म को करता है और उनको भोगता है, ऐसा जो अशुद्ध द्रव्य का निरूपण, उस रूप असद्भूत व्यवहारनय कहा जाता है। (विशेष देखें आगे [[ नय#V.5.5 | उपचरित ]] व [[ नय#V.5.6 | अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय के उदाहरण ]])</span><br /> | |||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/529-530 <span class="SanskritGatha">अपि चासद्भूतादिव्यवहारांतो नयश्च भवति यथा। अन्यद्रव्यस्य गुणा: संजायंते बलात्तदन्यत्र।529। स यथा वर्णादिमतो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम् । सत्संयोगत्वादिह मूर्ता: क्रोधादयोऽपि जीवभवा:।530।</span>=<span class="HindiText">जिसके कारण अन्य द्रव्य के गुण बलपूर्वक अर्थात् उपचार से अन्य द्रव्य के कहे जाते हैं, वह असद्भूत व्यवहारनय है।529। जैसे कि वर्णादिमान मूर्तद्रव्य के जो मूर्तकर्म हैं, उनके संयोग को देखकर, जीव में उत्पन्न होने वाले क्रोधादि भाव भी मूर्त कह दिये जाते हैं।530।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/529-530</span> <span class="SanskritGatha">अपि चासद्भूतादिव्यवहारांतो नयश्च भवति यथा। अन्यद्रव्यस्य गुणा: संजायंते बलात्तदन्यत्र।529। स यथा वर्णादिमतो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम् । सत्संयोगत्वादिह मूर्ता: क्रोधादयोऽपि जीवभवा:।530।</span>=<span class="HindiText">जिसके कारण अन्य द्रव्य के गुण बलपूर्वक अर्थात् उपचार से अन्य द्रव्य के कहे जाते हैं, वह असद्भूत व्यवहारनय है।529। जैसे कि वर्णादिमान मूर्तद्रव्य के जो मूर्तकर्म हैं, उनके संयोग को देखकर, जीव में उत्पन्न होने वाले क्रोधादि भाव भी मूर्त कह दिये जाते हैं।530।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.4.2" id="V.5.4.2"> इस नय के कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/531-532 <span class="SanskritGatha"> कारणमंतर्लीना द्रव्यस्य विभावभावशक्ति: स्यात् । सा भवति सहज-सिद्धा केवलमिह जीवपुद्गलयो:।531। फलमागंतुकभावादुपाधिमात्रं विहाय यावदिह। शेषस्तच्छुद्धगुण: स्यादिति मत्वा सुदृष्टिरिह कश्चित् ।532।</span>=<span class="HindiText">इस नय में कारण वह वैभाविकी शक्ति है, जो जीव पुद्गलद्रव्य में अंतर्लीन रहती है (और जिसके कारण वे परस्पर में बंध को प्राप्त होते हुए संयोगी द्रव्यों का निर्माण करते हैं।)।531। और इस नय को मानने का फल यह है कि क्रोधादि विकारी भावों को पर का जानकर, उपाधि मात्र को छोड़कर, शेष जीव के शुद्धगुणों को स्वीकार करता हुआ कोई जीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है।532। (और भी देखें [[ उपचार#4.6 | उपचार - 4.6]])<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/531-532</span> <span class="SanskritGatha"> कारणमंतर्लीना द्रव्यस्य विभावभावशक्ति: स्यात् । सा भवति सहज-सिद्धा केवलमिह जीवपुद्गलयो:।531। फलमागंतुकभावादुपाधिमात्रं विहाय यावदिह। शेषस्तच्छुद्धगुण: स्यादिति मत्वा सुदृष्टिरिह कश्चित् ।532।</span>=<span class="HindiText">इस नय में कारण वह वैभाविकी शक्ति है, जो जीव पुद्गलद्रव्य में अंतर्लीन रहती है (और जिसके कारण वे परस्पर में बंध को प्राप्त होते हुए संयोगी द्रव्यों का निर्माण करते हैं।)।531। और इस नय को मानने का फल यह है कि क्रोधादि विकारी भावों को पर का जानकर, उपाधि मात्र को छोड़कर, शेष जीव के शुद्धगुणों को स्वीकार करता हुआ कोई जीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है।532। (और भी देखें [[ उपचार#4.6 | उपचार - 4.6]])<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.4.3" id="V.5.4.3">असद्भूत व्यवहारनय के भेद</strong> </span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 | <span class="GRef">आलापपद्धति/10 </span> <span class="SanskritText">असद्भूतव्यवहारो द्विविध: उपचरितानुपचरितभेदात् ।</span>=<span class="HindiText">असद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार है–उपचरित असद्भूत और अनुपचरित असद्भूत। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25)</span>; <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/534)</span>।<br /> | ||
देखें [[ उपचार ]]–(असद्भूत नाम के उपनय के स्वजाति, विजाति आदि 27 भेद)<br /> | देखें [[ उपचार ]]–(असद्भूत नाम के उपनय के स्वजाति, विजाति आदि 27 भेद)<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.5" id="V.5.5"> अनुपचरित असद्भूत निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.5.1" id="V.5.5.1">भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 <span class="SanskritText">संश्लेषसहितवस्तुसंबंधविषयोऽनुपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा जीवस्य शरीरमिति।</span>=<span class="HindiText">संश्लेष सहित वस्तुओं के संबंध को विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे–‘जीव का शरीर है’ ऐसा कहना। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ | <span class="GRef">आलापपद्धति/10</span> <span class="SanskritText">संश्लेषसहितवस्तुसंबंधविषयोऽनुपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा जीवस्य शरीरमिति।</span>=<span class="HindiText">संश्लेष सहित वस्तुओं के संबंध को विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे–‘जीव का शरीर है’ ऐसा कहना। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 26)</span></span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18 <span class="SanskritText">आसन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयाद् द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदु:खानां भोक्ता च...अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता।</span>=<span class="HindiText">आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यकर्मों का कर्ता और उसके फलरूप सुखदु:ख का भोक्ता है तथा नोकम अर्थात् शरीर का भी कर्ता है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/22 की प्रक्षेपक गाथा की टीका/49/21); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/21 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/4; 9/23/4 )।</span><br /> | <span class="GRef">नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18</span> <span class="SanskritText">आसन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयाद् द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदु:खानां भोक्ता च...अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता।</span>=<span class="HindiText">आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यकर्मों का कर्ता और उसके फलरूप सुखदु:ख का भोक्ता है तथा नोकम अर्थात् शरीर का भी कर्ता है। <span class="GRef">(समयसार / तात्पर्यवृत्ति/22 की प्रक्षेपक गाथा की टीका/49/21)</span>; <span class="GRef">(पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/21)</span>; <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/4; 9/23/4 )</span>।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/15 | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/15 </span> <span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यप्राणैश्च यथासंभवं जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वश्चेति जीवो।</span>=<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यथा संभव द्रव्यप्राणों के द्वारा जीता है, जीवेगा, और पहले जीता था, इसलिए आत्मा जीव कहलाता है। <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/5)</span>; <span class="GRef">(नयचक्र बृहद्/113)</span></span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/58/109/14 <span class="SanskritText">जीवस्यौदयिकादिभावचतुष्टयमनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यकर्मकृतमिति। </span>=<span class="HindiText">जीव के औदयिक आदि चार भाव अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कर्मकृत हैं।</span><br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/58/109/14</span> <span class="SanskritText">जीवस्यौदयिकादिभावचतुष्टयमनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यकर्मकृतमिति। </span>=<span class="HindiText">जीव के औदयिक आदि चार भाव अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कर्मकृत हैं।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परिशिष्ठ/369/11</span> <span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन द्वयगुणकादिस्कंधसंश्लेषसंबंधस्थितपरमाणुवदौदारिकशरीरे वीतरागसर्वज्ञवद्वा विविक्षितैकदेहस्थितम् । </span>=<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से, द्वि अणुक आदि स्कंधों में संश्लेषसंबंधरूप से स्थित परमाणु की भाँति अथवा वीतराग सर्वज्ञ की भाँति, यह आत्मा औदारिक आदि शरीरों में से किसी एक विवक्षित शरीर में स्थित है। <span class="GRef">(परमात्मप्रकाश टीका/1/29/33/1)</span>।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/1 <span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारान्मूर्त्तो।</span>=<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह जीव मूर्त है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/3 )।</span><br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/1</span> <span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारान्मूर्त्तो।</span>=<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह जीव मूर्त है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/3 )।</span><br /> | ||
<span class="GRef">परमात्म प्रकाश/टीका/7/13/2</span> <span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारसंबंध: द्रव्यकर्मनोकर्मरहितम् ।</span> | |||
<span class="GRef">परमात्म प्रकाश/टीका/1/1/6/8</span><span class="SanskritText"> द्रव्यकर्मदहनमनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन।</span> | |||
<span class="GRef">परमात्म प्रकाश/टीका/1/14/21/17</span> <span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन देहादभिन्नं।</span> =<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से जीव द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित है, द्रव्यकर्मों का दहन करने वाला है, देह से अभिन्न है।<br /> | |||
और भी देखो [[नय#V.4.2.3 | व्यवहार सामान्य के उदाहरण ]]।<br /> | और भी देखो [[नय#V.4.2.3 | व्यवहार सामान्य के उदाहरण ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.5.2" id="V.5.5.2"> विभाव भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/546 | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/546</span> <span class="SanskritText">अपि वासद्भूतो योऽनुपचरिताख्यो नय: स भवति यथा। क्रोधाद्या जीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवा:। </span>=<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय, अबुद्धिपूर्वक होने वाले क्रोधादिक विभावभावों को जीव कहता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.5.3" id="V.5.5.3"> इस नय का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/547-548 | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/547-548</span> <span class="SanskritGatha">कारणमिह यस्य सतो या शक्ति: स्याद्विभावभावमयी। उपयोगदशाविष्टा सा शक्ति: स्यात्तदाप्यनन्यमयी।547। फलमागंतुकभावा: स्वपरनिमित्ता भवंति यावंत:। क्षणिकत्वान्नादेया इति बुद्धि: स्यादनात्मधर्मत्वात् ।548।</span>=<span class="HindiText">इस नय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि उपयोगात्मक दशा में जीव की वैभाविक शक्ति उसके साथ अनन्यमयरूप से प्रतीत होती है।547। और इसका फल यह है कि क्षणिक होने के कारण स्व-परनिमित्तक सर्व ही आगंतुक भावों में जीव की हेय बुद्धि हो जाती है।548।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.6" id="V.5.6">उपचरित असद्भूत व्यवहार निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.6.1" id="V.5.6.1"> भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
आलापपद्धति/10 | <span class="GRef">आलापपद्धति/10</span> <span class="SanskritText">संश्लेषरहितवस्तुसंबंधविषय उपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा–देवदत्तस्य धनमिति। </span>=<span class="HindiText">संश्लेष रहित वस्तुओं के संबंध को विषय करने वाला उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे–देवदत्त का धन ऐसा कहना। ( <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25</span> )।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 | <span class="GRef">आलापपद्धति/5</span> <span class="SanskritText">असद्भूतव्यवहार एवोपचार:। उपचारादप्युपचारं य: करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">असद्भूत व्यवहार ही उपचार है। उपचार का भी जो उपचार करता है वह उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/29)</span> (विशेष देखें [[ उपचार ]])।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18/</span> <span class="SanskritText">उपचरितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता।</span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से आत्मा घट, पट, रथ आदि का कर्ता है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/5 )।</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परिशिष्ठ/369/13</span> <span class="SanskritText">उपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन काष्ठासनाद्युपविष्टदेवदत्तवत्समवशरणस्थितवीतरागसर्वज्ञवद्वा विवक्षितैकग्रामगृहादिस्थिम् ।</span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह आत्मा, काष्ठ, आसन आदि पर बैठे हुए देवदत्त की भाँति, अथवा समवशरण में स्थित वीतराग सर्वज्ञ की भाँति, विवक्षित किसी एक ग्राम या घर आदि में स्थित है।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/19/57/10 <span class="SanskritText"> उपचरितासद्भूतव्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठंतीति भण्यते।</span> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/19/57/10</span> <span class="SanskritText"> उपचरितासद्भूतव्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठंतीति भण्यते।</span> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/9/23/3 <span class="SanskritText">उपचरितासद्भूतव्यवहारेणेष्टानिष्टपंचेंद्रियविषयजनितसुखदु:ख भुंक्ते।</span> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/9/23/3</span> <span class="SanskritText">उपचरितासद्भूतव्यवहारेणेष्टानिष्टपंचेंद्रियविषयजनितसुखदु:ख भुंक्ते।</span> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/45/196/11 <span class="SanskritText"> योऽसौ बहिर्विषये पंचेंद्रियविषयादिपरित्याग: स उपचरितासद्भूतव्यवहारेण। </span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से सिद्ध जीव मोक्षशिला पर तिष्ठते हैं। जीव इष्टानिष्ट पंचेंद्रियों के विषयों से उत्पन्न सुखदुख को भोगता है। बाह्यविषयों–पंचेंद्रिय के विषयों का त्याग कहना भी उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से है।<br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/45/196/11</span> <span class="SanskritText"> योऽसौ बहिर्विषये पंचेंद्रियविषयादिपरित्याग: स उपचरितासद्भूतव्यवहारेण। </span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से सिद्ध जीव मोक्षशिला पर तिष्ठते हैं। जीव इष्टानिष्ट पंचेंद्रियों के विषयों से उत्पन्न सुखदुख को भोगता है। बाह्यविषयों–पंचेंद्रिय के विषयों का त्याग कहना भी उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.6.2" id="V.5.6.2"> विभाव भावों की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/549 | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/549</span> <span class="SanskritGatha">उपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराख्यो नय: स भवति यथा। क्रोधाद्या: औदयिकाश्चेदबुद्धिजा विवक्ष्या: स्यु:।549।</span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से बुद्धिपूर्वक होने वाले क्रोधादि विभावभाव भी जीव के कहे जाते हैं।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.5.6.3" id="V.5.6.3"> इस नय का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/550-551 <span class="SanskritGatha">बीजं विभावभावा: स्वपरोभयहेतवस्तथा नियमात् । सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवंति यत:।550। तत्फलभविनाभावात्साध्यं तदबुद्धिपूर्वका भावा:। तत्सत्तामात्रं प्रति साधनमिह बुद्धिपूर्वका भावा:।551।</span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि उक्त क्रोधादिकरूप विभावभाव नियम से स्व व पर दोनों के निमित्त से होते हैं; क्योंकि शक्तिविशेष के रहने पर भी वे बिना निमित्त के नहीं हो सकते।550। और इस नय का फल यह है कि बुद्धिपूर्वक के क्रोधादि भावों के साधन से अबुद्धिपूर्वक के क्रोधादिभावों की सत्ता भी साध्य हो जाती है, अर्थात् सिद्ध हो जाती है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/550-551</span> <span class="SanskritGatha">बीजं विभावभावा: स्वपरोभयहेतवस्तथा नियमात् । सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवंति यत:।550। तत्फलभविनाभावात्साध्यं तदबुद्धिपूर्वका भावा:। तत्सत्तामात्रं प्रति साधनमिह बुद्धिपूर्वका भावा:।551।</span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि उक्त क्रोधादिकरूप विभावभाव नियम से स्व व पर दोनों के निमित्त से होते हैं; क्योंकि शक्तिविशेष के रहने पर भी वे बिना निमित्त के नहीं हो सकते।550। और इस नय का फल यह है कि बुद्धिपूर्वक के क्रोधादि भावों के साधन से अबुद्धिपूर्वक के क्रोधादिभावों की सत्ता भी साध्य हो जाती है, अर्थात् सिद्ध हो जाती है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6" id="V.6">व्यवहार नय की कथंचित् गौणता</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.1" id="V.6.1"> व्यवहारनय असत्यार्थ है तथा इसका हेतु</strong> </span><br /> | ||
समयसार/11 <span class="PrakritText">ववहारोऽभूयत्थो।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय अभूतार्थ है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/30 )।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार/11</span> <span class="PrakritText">ववहारोऽभूयत्थो।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय अभूतार्थ है। <span class="GRef">(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/30)</span>।</span><br /> | ||
आप्तमीमांसा/49 <span class="SanskritText">संवृत्तिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ।49। </span>=<span class="HindiText">संवृत्ति अर्थात् व्यवहार प्रवृत्तिरूप उपचार मिथ्या है। क्योंकि यह परमार्थ से विपरीत है।</span><br /> | <span class="GRef">आप्तमीमांसा/49</span> <span class="SanskritText">संवृत्तिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ।49। </span>=<span class="HindiText">संवृत्ति अर्थात् व्यवहार प्रवृत्तिरूप उपचार मिथ्या है। क्योंकि यह परमार्थ से विपरीत है।</span><br /> | ||
धवला 1/1,1,37/263/8 <span class="SanskritText">अथवा नेदं व्याख्यानं समीचीनं। </span>=<span class="HindiText">(द्रव्येंद्रियों के सद्भाव की अपेक्षा केवली को पंचेंद्रिय कहने रूप व्यवहारनय के) उक्त व्याख्यान को ठीक नहीं समझना।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,37/263/8</span> <span class="SanskritText">अथवा नेदं व्याख्यानं समीचीनं। </span>=<span class="HindiText">(द्रव्येंद्रियों के सद्भाव की अपेक्षा केवली को पंचेंद्रिय कहने रूप व्यवहारनय के) उक्त व्याख्यान को ठीक नहीं समझना।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/29-30 <span class="SanskritText"> योऽसौ भेदोपचारलक्षणोऽर्थ: सोऽपरमार्थ:। अभेदानुपचारस्यार्थस्यापरमार्थत्वात् । व्यवहारोऽपरमार्थप्रतिपादकत्वादभूतार्थ:।</span>=<span class="HindiText">जो यह भेद और उपचार लक्षण वाला पदार्थ है, सो अपरमार्थ है; क्योंकि, अभेद व अनुपचाररूप पदार्थ को ही परमार्थपना है। व्यवहार नय उस अपरमार्थ पदार्थ का प्रतिपादक होने से अभूतार्थ है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/522 )।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/29-30</span> <span class="SanskritText"> योऽसौ भेदोपचारलक्षणोऽर्थ: सोऽपरमार्थ:। अभेदानुपचारस्यार्थस्यापरमार्थत्वात् । व्यवहारोऽपरमार्थप्रतिपादकत्वादभूतार्थ:।</span>=<span class="HindiText">जो यह भेद और उपचार लक्षण वाला पदार्थ है, सो अपरमार्थ है; क्योंकि, अभेद व अनुपचाररूप पदार्थ को ही परमार्थपना है। व्यवहार नय उस अपरमार्थ पदार्थ का प्रतिपादक होने से अभूतार्थ है। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/522)</span>।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/631,635 <span class="SanskritGatha">ननु च व्यवहारनयो भवति स सर्वोऽपि कथमभूतार्थ:। गुणपर्ययवद्द्रव्यं यथोपदेशात्तथानुभूतेश्च।631। तदसत् गुणोऽस्ति यतो न द्रव्यं नोभयं न तद्योग:। केवलमद्वैतं सद् भवतु गुणो वा तदेव सद्द्रव्यम् ।635। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सब ही व्यवहारनय को अभूतार्थ क्यों कहते हो, क्योंकि द्रव्य जैसे व्यवहारोपदेश से गुणपर्याय वाला कहा जाता है, वैसा ही अनुभव से ही गुणपर्याय वाला प्रतीत होता है?।631। <strong>उत्तर</strong>–निश्चय करके वह ‘सत्’ न गुण, न द्रव्य है, न उभय है और न उन दोनों का योग है किंतु केवल अद्वैत सत् है। उसी सत् को चाहे गुण मान लो अथवा द्रव्य मान लो, परंतु वह भिन्न नहीं है।635।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/631,635</span> <span class="SanskritGatha">ननु च व्यवहारनयो भवति स सर्वोऽपि कथमभूतार्थ:। गुणपर्ययवद्द्रव्यं यथोपदेशात्तथानुभूतेश्च।631। तदसत् गुणोऽस्ति यतो न द्रव्यं नोभयं न तद्योग:। केवलमद्वैतं सद् भवतु गुणो वा तदेव सद्द्रव्यम् ।635। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सब ही व्यवहारनय को अभूतार्थ क्यों कहते हो, क्योंकि द्रव्य जैसे व्यवहारोपदेश से गुणपर्याय वाला कहा जाता है, वैसा ही अनुभव से ही गुणपर्याय वाला प्रतीत होता है?।631। <strong>उत्तर</strong>–निश्चय करके वह ‘सत्’ न गुण, न द्रव्य है, न उभय है और न उन दोनों का योग है किंतु केवल अद्वैत सत् है। उसी सत् को चाहे गुण मान लो अथवा द्रव्य मान लो, परंतु वह भिन्न नहीं है।635।<br /> | ||
पंचास्तिकाय/ पं.हेमराज/45 लोक व्यवहार से कुछ वस्तु का स्वरूप सधता नहीं।<br /> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय/ पं.हेमराज/45</span>=<span class="HindiText"> लोक व्यवहार से कुछ वस्तु का स्वरूप सधता नहीं।<br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/369/8 | <span class="GRef">मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/369/8</span> =<span class="HindiText"> व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौं वा तिनके भावनिकौं वा कारणकार्यादिककौं काहूकौ काहूविषै मिलाय निरूपण करै है। सो ऐसे श्रद्धानतै मिथ्यात्व है। तातै याका त्याग करना।<br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/407/2 करणानुयोगविषै भी कहीं उपदेश की मुख्यता लिये उपदेश हो है, ताकौ सर्वथा तैसै ही न मानना।<br /> | <span class="GRef">मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/407/2</span> =<span class="HindiText">करणानुयोगविषै भी कहीं उपदेश की मुख्यता लिये उपदेश हो है, ताकौ सर्वथा तैसै ही न मानना।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.2" id="V.6.2"> व्यवहारनय उपचार मात्र है</strong> </span><br /> | ||
समयसार/15 <span class="PrakritText">जीवम्हि हेदुभूदबंधस्स दु पस्सिदूण परिणायं। जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण। </span>=<span class="HindiText">जीव को निमित्तरूप होने से कर्मबंध का परिणाम होता है। उसे देखकर, ‘जीव ने कर्म किये हैं’ वह उपचार मात्र से कहा जाता है। ( समयसार / आत्मख्याति/107 )।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार/15</span> <span class="PrakritText">जीवम्हि हेदुभूदबंधस्स दु पस्सिदूण परिणायं। जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण। </span>=<span class="HindiText">जीव को निमित्तरूप होने से कर्मबंध का परिणाम होता है। उसे देखकर, ‘जीव ने कर्म किये हैं’ वह उपचार मात्र से कहा जाता है। <span class="GRef">(समयसार / आत्मख्याति/107)</span>।</span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/312/8 पर | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/312/8 पर उद्धृत</span>–<span class="SanskritText">‘‘तथा च वाचकमुख्य:’’ लौकिक समउपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">वाचकमुख श्री उमास्वामी ने <span class="GRef">(तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/1/3,5 में)</span> कहा है, कि लोक व्यवहार के अनुसार तथा उपचारप्राय विस्तृत व्याख्यान को उपचार कहते हैं।</span><br /> | ||
न.दी./1/14/12 <span class="SanskritText">चक्षुषा प्रमीयत इत्यादिव्यवहारे पुनरुपचार: शरणम् ।</span>=<span class="HindiText">‘आँखों से जानते हैं’ इत्यादि व्यवहार तो उपचार से प्रवृत्त होता है।</span><br /> | <span class="GRef">न.दी./1/14/12</span> <span class="SanskritText">चक्षुषा प्रमीयत इत्यादिव्यवहारे पुनरुपचार: शरणम् ।</span>=<span class="HindiText">‘आँखों से जानते हैं’ इत्यादि व्यवहार तो उपचार से प्रवृत्त होता है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/521 <span class="SanskritGatha">पर्यायार्थिक नय इति वा व्यवहार एव नामेति। एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र: स्यात् ।521। </span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय और व्यवहारनय दोनों ही एकार्थवाची हैं, क्योंकि सकल व्यवहार उपचार मात्र होता है।</span><br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/521</span> <span class="SanskritGatha">पर्यायार्थिक नय इति वा व्यवहार एव नामेति। एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र: स्यात् ।521। </span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय और व्यवहारनय दोनों ही एकार्थवाची हैं, क्योंकि सकल व्यवहार उपचार मात्र होता है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/113 <span class="SanskritText">तत्राद्वैतेऽपि यद्द्वैतं तद्द्विधाप्यौपचारिकम् । तत्राद्यं स्वांशसंकल्पश्चेत्सोपाधि द्वितीयकम् ।</span>=<span class="HindiText">अद्वैत में दो प्रकार से द्वैत किया जाता है–पहिला तो अभेद द्रव्य में गुण गुणी रूप अंश या भेद कल्पना के द्वारा तथा दूसरा सोपाधिक अर्थात् भिन्न द्रव्यों में अभेदरूप। ये दोनों ही द्वैत औपचारिक हैं।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/113</span> <span class="SanskritText">तत्राद्वैतेऽपि यद्द्वैतं तद्द्विधाप्यौपचारिकम् । तत्राद्यं स्वांशसंकल्पश्चेत्सोपाधि द्वितीयकम् ।</span>=<span class="HindiText">अद्वैत में दो प्रकार से द्वैत किया जाता है–पहिला तो अभेद द्रव्य में गुण गुणी रूप अंश या भेद कल्पना के द्वारा तथा दूसरा सोपाधिक अर्थात् भिन्न द्रव्यों में अभेदरूप। ये दोनों ही द्वैत औपचारिक हैं।<br /> | ||
और भी देखो [[उपचार#5 |उपचार कोई पृथक् नय नहीं है। व्यवहार का नाम ही उपचार है ]]।<br /> | और भी देखो [[उपचार#5 |उपचार कोई पृथक् नय नहीं है। व्यवहार का नाम ही उपचार है ]]।<br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/3 उपचार निरूपण सो व्यवहार। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/11 ); <br /> | <span class="GRef">मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/3</span>=<span class="HindiText"> उपचार निरूपण सो व्यवहार। <span class="GRef">(मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/11)</span>; <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="V.6.3" id="V.6.3">व्यवहारनय व्यभिचारी है</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="V.6.3" id="V.6.3">व्यवहारनय व्यभिचारी है</strong> <br /> | ||
समयसार/ पं.जयचंद/12/ | <span class="GRef">समयसार/ पं.जयचंद/12/कलश 6 </span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय जहाँ आत्मा को अनेक भेदरूप कहकर सम्यग्दर्शन को अनेक भेदरूप कहता है, वहाँ व्यभिचार दोष आता है, नियम नहीं रहता।<br /> | ||
और भी देखो [[नय#V.8.2 | व्यभिचारी होने के कारण व्यवहारनय निषिद्ध है ]]।<br /> | और भी देखो [[नय#V.8.2 | व्यभिचारी होने के कारण व्यवहारनय निषिद्ध है ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.4" id="V.6.4"> व्यवहारनय लौकिक रूढ़ि है</strong> </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/84 <span class="SanskritText"> कुलाल: कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्व्यवहार:।</span>=<span class="HindiText">कुम्हार कलश को बनाता है तथा भोगता है ऐसा लोगों का अनादि से प्रसिद्ध व्यवहार है।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/84</span> <span class="SanskritText"> कुलाल: कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्व्यवहार:।</span>=<span class="HindiText">कुम्हार कलश को बनाता है तथा भोगता है ऐसा लोगों का अनादि से प्रसिद्ध व्यवहार है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/567 <span class="SanskritText">अस्ति व्यवहार: किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति सजीवस्ततोऽप्यनन्यत्वात् । </span>=<span class="HindiText">अलब्धबुद्धि होने के कारण लोगों का यह व्यवहार होता है, कि जो ये मनुष्यादि का शरीर है, वह जीव है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/593 )।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/567</span> <span class="SanskritText">अस्ति व्यवहार: किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति सजीवस्ततोऽप्यनन्यत्वात् । </span>=<span class="HindiText">अलब्धबुद्धि होने के कारण लोगों का यह व्यवहार होता है, कि जो ये मनुष्यादि का शरीर है, वह जीव है। <span class="GRef">(पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/593)</span>।<br /> | ||
और भी देखो [[नय#V.4.2.7 | व्यवहार लोकानुसार प्रवर्तता है ]](स.म)।<br /> | और भी देखो [[नय#V.4.2.7 | व्यवहार लोकानुसार प्रवर्तता है ]](स.म)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.5" id="V.6.5"> व्यवहारनय अध्यवसान है</strong> </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/272 <span class="SanskritText">निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बंधहेतुत्वे मुमुक्षो: प्रतिषेधयता व्यवहानय एव किल प्रतिषिद्ध:, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् ।</span>=<span class="HindiText">बंध का हेतु होने के कारण, मुमुक्षु जनों को जो निश्चयनय के द्वारा पराश्रित समस्त अध्यवसान का त्याग करने को कहा गया है, सो उससे वास्तव में व्यवहारनय का ही निषेध कराया है; क्योंकि, (अध्यवसान की भाँति) व्यवहारनय के भी पराश्रितता समान ही है।<br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/272</span> <span class="SanskritText">निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बंधहेतुत्वे मुमुक्षो: प्रतिषेधयता व्यवहानय एव किल प्रतिषिद्ध:, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् ।</span>=<span class="HindiText">बंध का हेतु होने के कारण, मुमुक्षु जनों को जो निश्चयनय के द्वारा पराश्रित समस्त अध्यवसान का त्याग करने को कहा गया है, सो उससे वास्तव में व्यवहारनय का ही निषेध कराया है; क्योंकि, (अध्यवसान की भाँति) व्यवहारनय के भी पराश्रितता समान ही है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.6" id="V.6.6"> व्यवहारनय कथन मात्र है</strong> </span><br /> | ||
समयसार/ | <span class="GRef">समयसार/ गाथा </span><span class="PrakritGatha"> ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरितदंसणं णाणं। णवि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो।7। पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई।58। तह...जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो।59।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानी के चारित्र है, दर्शन है, ज्ञान है, ऐसा व्यवहार से कहा जाता है। निश्चय से तो न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है।7। मार्ग में जाते हुए पथिक को लुटता देखकर ही व्यवहारी जन ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है। वास्तव में तो कोई लुटता नहीं है।58। (इसी प्रकार जीव में कर्म नोकर्मों के वर्णादि का संयोग देखकर) जिनेंद्र भगवान् ने व्यवहारनय से ऐसा कह दिया है कि यह वर्ण (तथा देह के संस्थान आदि) जीव के हैं।59।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/414</span> <span class="SanskritText">द्विविधं द्रव्यलिंगं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकार:, स केवलं व्यवहार एव न परमार्थ:। </span>=<span class="HindiText">श्रावक व श्रमण के लिंग के भेद से दो प्रकार का मोक्षमार्ग होता है, यह केवल प्ररूपण करने का प्रकार या विधि है। वह केवल व्यवहार ही है, परमार्थ नहीं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.7" id="V.6.7">व्यवहारनय साधकतम नहीं है</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 <span class="SanskritText">निश्चयनय एव साधकतमो न पुनरशुद्धद्योतको व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">निश्चयनय ही साधकतम है, अशुद्ध का द्योतन करने वाला व्यवहारनय नहीं।<br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189</span> <span class="SanskritText">निश्चयनय एव साधकतमो न पुनरशुद्धद्योतको व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">निश्चयनय ही साधकतम है, अशुद्ध का द्योतन करने वाला व्यवहारनय नहीं।<br /> | ||
देखो [[नय#V.6.1 | व्यवहारनय से परमार्थवस्तु की सिद्धि नहीं होती ]]।<br /> | देखो [[नय#V.6.1 | व्यवहारनय से परमार्थवस्तु की सिद्धि नहीं होती ]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.8" id="V.6.8"> व्यवहारनय सिद्धांत विरुद्ध है तथा नयाभास है</strong></span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/ श्लोक नं. <span class="SanskritGatha">ननु चासद्भूतादिर्भवति स यत्रेत्यतद्गुणारोप:। दृष्टांतादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहास्त्विति चेत् ।552। तन्न यतो न नयास्ते किंतु नयाभाससंज्ञका: संति। स्वयमप्यतद्गुणत्वादव्यवहाराविशेषतो न्यायात् ।553। सोऽयं व्यवहार: स्यादव्यवहारो यथापसिद्धांतात् । अप्यपसिद्धांतत्वं नासिद्धं स्यादनेकधर्मित्वात् ।568। अथ चेद्धटकर्तासौ घटकारो जनपदोक्तिलेशोऽयम् । दुर्वारो भवतु तदा का नो हानिर्यदा नयाभास:।579।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–दूसरी वस्तु के गुणों को दूसरी वस्तु में आरोपित करने को असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं (देखें [[ नय#V.5.4 | नय - V.5.4-6]])। जैसे कि जीव को वर्णादिकमान कहना?।552। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अतद्गुण होने से, न्यायानुसार अव्यवहार के साथ कोई भी विशेषता न रखने के कारण, वे नय नहीं हैं, किंतु नयाभास संज्ञक हैं।553। ऐसा व्यवहार क्योंकि सिद्धांत विरुद्ध है, इसलिए अव्यवहार है। इसका अपसिद्धांतपना भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि यहाँ उपरोक्त दृष्टांत में जीव व शरीर ये दो भिन्न-भिन्न धर्मी हैं पर इन्हें एक कहा जा रहा है।568। <strong>प्रश्न</strong>–कुंभकार घड़े का कर्ता है, ऐसा जो लोकव्यवहार है वह दुर्निवार हो जायेगा अर्थात् उसका लोप हो जायेगा ?।579। <strong>उत्तर</strong>–दुर्निवार होता है तो होओ, इसमें हमारी क्या हानि है; क्योंकि वह लोकव्यवहार तो नयाभास है।(579)।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/ श्लोक नं.</span> <span class="SanskritGatha">ननु चासद्भूतादिर्भवति स यत्रेत्यतद्गुणारोप:। दृष्टांतादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहास्त्विति चेत् ।552। तन्न यतो न नयास्ते किंतु नयाभाससंज्ञका: संति। स्वयमप्यतद्गुणत्वादव्यवहाराविशेषतो न्यायात् ।553। सोऽयं व्यवहार: स्यादव्यवहारो यथापसिद्धांतात् । अप्यपसिद्धांतत्वं नासिद्धं स्यादनेकधर्मित्वात् ।568। अथ चेद्धटकर्तासौ घटकारो जनपदोक्तिलेशोऽयम् । दुर्वारो भवतु तदा का नो हानिर्यदा नयाभास:।579।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–दूसरी वस्तु के गुणों को दूसरी वस्तु में आरोपित करने को असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं (देखें [[ नय#V.5.4 | नय - V.5.4-6]])। जैसे कि जीव को वर्णादिकमान कहना?।552। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अतद्गुण होने से, न्यायानुसार अव्यवहार के साथ कोई भी विशेषता न रखने के कारण, वे नय नहीं हैं, किंतु नयाभास संज्ञक हैं।553। ऐसा व्यवहार क्योंकि सिद्धांत विरुद्ध है, इसलिए अव्यवहार है। इसका अपसिद्धांतपना भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि यहाँ उपरोक्त दृष्टांत में जीव व शरीर ये दो भिन्न-भिन्न धर्मी हैं पर इन्हें एक कहा जा रहा है।568। <strong>प्रश्न</strong>–कुंभकार घड़े का कर्ता है, ऐसा जो लोकव्यवहार है वह दुर्निवार हो जायेगा अर्थात् उसका लोप हो जायेगा ?।579। <strong>उत्तर</strong>–दुर्निवार होता है तो होओ, इसमें हमारी क्या हानि है; क्योंकि वह लोकव्यवहार तो नयाभास है।(579)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.9" id="V.6.9"> व्यवहारनय का विषय सदा गौण होता है</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/5/22/292/4 <span class="SanskritText">अध्यारोप्यमाण: कालव्यपदेशस्तद्व्यपदेशनिमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति। कुत:; गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">(ओदनपाक काल इत्यादि रूप से) जो काल संज्ञा का अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्यकाल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है; क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है।</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/5/22/292/4</span> <span class="SanskritText">अध्यारोप्यमाण: कालव्यपदेशस्तद्व्यपदेशनिमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति। कुत:; गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">(ओदनपाक काल इत्यादि रूप से) जो काल संज्ञा का अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्यकाल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है; क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है।</span><br /> | ||
धवला 4/1,5,145/403/3 <span class=" | <span class="GRef">धवला 4/1,5,145/403/3</span> <span class="PrakritText">के वि आइरिया...कज्जे कारणोवयारमवलंविय बादरट्ठिदीए चेय कम्मट्ठिदिसण्णमिच्छंति, तन्न घटते, ‘गौणमुख्ययोर्मुख्ये संप्रत्यय’ इति न्यायात् ।</span> =<span class="HindiText">कितने ही आचार्य कार्य में कारण का उपचार का अवलंबन करके बादरस्थिति की ही ‘कर्मस्थिति’ यह संज्ञा मानते हैं; किंतु यह कथन घटित नहीं होता है; क्योंकि, ‘गौण और मुख्य में विवाद होने पर मुख्य में ही संप्रत्यय होता है’ ऐसा न्याय है।</span><br /> | ||
न.दी./2/12/34<span class="SanskritText"> इदं चामुख्यप्रत्यक्षम् उपचारसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अमुख्य अर्थात् गौण प्रत्यक्ष है; क्योंकि उपचार से ही इसके प्रत्यक्षपने की सिद्धि है। वस्तुत: तो यह परोक्ष ही है; क्योंकि यह मतिज्ञानरूप है। (जिसे इंद्रिय व बाह्यपदार्थ सापेक्ष होने के कारण परोक्ष कहा गया है।)</span><br /> | <span class="GRef">न.दी./2/12/34</span><span class="SanskritText"> इदं चामुख्यप्रत्यक्षम् उपचारसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अमुख्य अर्थात् गौण प्रत्यक्ष है; क्योंकि उपचार से ही इसके प्रत्यक्षपने की सिद्धि है। वस्तुत: तो यह परोक्ष ही है; क्योंकि यह मतिज्ञानरूप है। (जिसे इंद्रिय व बाह्यपदार्थ सापेक्ष होने के कारण परोक्ष कहा गया है।)</span><br /> | ||
न.दी./3/30/75 <span class="SanskritText">परोपदेशवाक्यमेव परार्थानुमानमिति केचित्; त एवं प्रष्टव्या:; तत्किं मुख्यानुमानम् । अथ गौणानुमानम् । इति, न तावन्मुख्यानुमानम् वाक्यस्याज्ञानरूपत्वात् । गौणानुमानं तद्वाक्यमिति त्वनुमन्यामहे, तत्कारणे तद्वयपदेशोपपत्तेरायुर्घृतमित्यादिवत् ।</span>=<span class="HindiText">‘(पंचावयव समवेत) परोपदेश वाक्य ही परार्थानुमान है’, ऐसा किन्हीं (नैयायिकों) का कहना है। पर उनका यह कहना ठीक नहीं है। हम उनसे पूछते हैं वह वाक्य मुख्य अनुमान है या कि गौण अनुमान है? मुख्य तो वह हो नहीं सकता; क्योंकि वाक्य अज्ञानरूप है। यदि उसे गौण कहते हो तो, हमें स्वीकार है; क्योंकि ज्ञानरूप मुख्य अनुमान के कारण ही उसमें (उपचार या व्यवहार से) यह व्यपदेश हो सकता है। जैसे ‘घी आयु है’ ऐसा व्यपदेश होता है। प्रमाणमीमांसा (सिंघी ग्रंथमाला कलकत्ता/2/1/2)।<br /> | <span class="GRef">न.दी./3/30/75</span> <span class="SanskritText">परोपदेशवाक्यमेव परार्थानुमानमिति केचित्; त एवं प्रष्टव्या:; तत्किं मुख्यानुमानम् । अथ गौणानुमानम् । इति, न तावन्मुख्यानुमानम् वाक्यस्याज्ञानरूपत्वात् । गौणानुमानं तद्वाक्यमिति त्वनुमन्यामहे, तत्कारणे तद्वयपदेशोपपत्तेरायुर्घृतमित्यादिवत् ।</span>=<span class="HindiText">‘(पंचावयव समवेत) परोपदेश वाक्य ही परार्थानुमान है’, ऐसा किन्हीं (नैयायिकों) का कहना है। पर उनका यह कहना ठीक नहीं है। हम उनसे पूछते हैं वह वाक्य मुख्य अनुमान है या कि गौण अनुमान है? मुख्य तो वह हो नहीं सकता; क्योंकि वाक्य अज्ञानरूप है। यदि उसे गौण कहते हो तो, हमें स्वीकार है; क्योंकि ज्ञानरूप मुख्य अनुमान के कारण ही उसमें (उपचार या व्यवहार से) यह व्यपदेश हो सकता है। जैसे ‘घी आयु है’ ऐसा व्यपदेश होता है। <span class="GRef">प्रमाणमीमांसा (सिंघी ग्रंथमाला कलकत्ता/2/1/2)</span>।<br /> | ||
और भी देखें [[ नय#V.9.2.3 | निश्चय मुख्य है और व्यवहार गौण ]]।<br /> | और भी देखें [[ नय#V.9.2.3 | निश्चय मुख्य है और व्यवहार गौण ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.10" id="V.6.10"> शुद्ध दृष्टि में व्यवहार को स्थान नहीं</strong></span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/47/ | <span class="GRef">नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/47/ कलश 71</span> <span class="SanskritText">प्रागेव शुद्धता येषां सुधियां कुधियामपि। नयेन केनाचित्तेषां भिदां कामपि वेद्म्यहम् ।71।</span>=<span class="HindiText">सुबुद्धि हो या कुबुद्धि अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि, सबमें ही जब शुद्धता पहले ही से विद्यमान है, तब उनमें कुछ भी भेद मैं किस नय से करूँ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.11" id="V.6.11">व्यवहारनय का विषय निष्फल है</strong> </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/266 <span class="SanskritText">यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं केवलमात्मनोऽनर्थायैव।</span> =<span class="HindiText">(मैं पर जीवों को सुखी दुखी करता हूँ) इत्यादि जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योंकि परभाव का पर में व्यापार न होने से स्वार्थक्रियाकारीपन नहीं है, परभाव पर में प्रवेश नहीं करता। जिस प्रकार कि ‘मैं आकश के फूल तोड़ता हूँ’ ऐसा कहना मिथ्या है तथा अपने अनर्थ के लिए है, पर का कुछ भी करने वाला नहीं।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/266</span> <span class="SanskritText">यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं केवलमात्मनोऽनर्थायैव।</span> =<span class="HindiText">(मैं पर जीवों को सुखी दुखी करता हूँ) इत्यादि जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योंकि परभाव का पर में व्यापार न होने से स्वार्थक्रियाकारीपन नहीं है, परभाव पर में प्रवेश नहीं करता। जिस प्रकार कि ‘मैं आकश के फूल तोड़ता हूँ’ ऐसा कहना मिथ्या है तथा अपने अनर्थ के लिए है, पर का कुछ भी करने वाला नहीं।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/993-594 <span class="SanskritGatha">तद्यथा लौकिकी रूढिरस्ति नानाविकल्पसात् । नि:सारैराश्रिता पुंभिरथानिष्टफलप्रदा।593। अफलानिष्टफला हेतुशून्या योगापहारिणी। दुस्त्याज्या लौकिकी रूढि: कैश्चिद्दुष्कर्मपाकत:।594।</span>=<span class="HindiText">अनेक विकल्पों वाली यह लौकिक रूढि है और वह निस्सार पुरुषों द्वारा आश्रित है तथा अनिष्ट फल को देने वाली है।593। यह लौकिकी रूढि निष्फल है, दुष्फल है, युक्तिरहित है, अन्वर्थ अर्थ से असंबद्ध है, मिथ्याकर्म के उदय से होती है तथा किन्हीं के द्वारा दुस्त्याज्य है।594। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/563 )।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/993-594</span> <span class="SanskritGatha">तद्यथा लौकिकी रूढिरस्ति नानाविकल्पसात् । नि:सारैराश्रिता पुंभिरथानिष्टफलप्रदा।593। अफलानिष्टफला हेतुशून्या योगापहारिणी। दुस्त्याज्या लौकिकी रूढि: कैश्चिद्दुष्कर्मपाकत:।594।</span>=<span class="HindiText">अनेक विकल्पों वाली यह लौकिक रूढि है और वह निस्सार पुरुषों द्वारा आश्रित है तथा अनिष्ट फल को देने वाली है।593। यह लौकिकी रूढि निष्फल है, दुष्फल है, युक्तिरहित है, अन्वर्थ अर्थ से असंबद्ध है, मिथ्याकर्म के उदय से होती है तथा किन्हीं के द्वारा दुस्त्याज्य है।594। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/563)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.12" id="V.6.12"> व्यवहारनय का आश्रय मिथ्यात्व है</strong> </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/414 <span class="SanskritText">ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयंते ते समयसारमेव न संचेतयंते।</span> =<span class="HindiText">जो व्यवहार को ही परमार्थ बुद्धि से अनुभव करते हैं, वे समयसार का ही अनुभव नहीं करते। ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/6 )।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/414</span> <span class="SanskritText">ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयंते ते समयसारमेव न संचेतयंते।</span> =<span class="HindiText">जो व्यवहार को ही परमार्थ बुद्धि से अनुभव करते हैं, वे समयसार का ही अनुभव नहीं करते। <span class="GRef">( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/6)</span>।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/94 <span class="SanskritText">ते खलूच्छलितनिरर्गलैकांतदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ...मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यंतो द्विषंतश्च परद्रव्येण कर्मणा संगतत्वात्परसमया जायंते। </span>=<span class="HindiText">वे जिनकी निरर्गल एकांत दृष्टि उछलती है, ऐसे, ‘यह मैं मनुष्य ही हूँ’, ऐसे मनुष्य–व्यवहार का आश्रय करके रागी द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते हैं।</span><br /> | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/94</span> <span class="SanskritText">ते खलूच्छलितनिरर्गलैकांतदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ...मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यंतो द्विषंतश्च परद्रव्येण कर्मणा संगतत्वात्परसमया जायंते। </span>=<span class="HindiText">वे जिनकी निरर्गल एकांत दृष्टि उछलती है, ऐसे, ‘यह मैं मनुष्य ही हूँ’, ऐसे मनुष्य–व्यवहार का आश्रय करके रागी द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते हैं।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/190 <span class="SanskritText"> यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयनिरपेक्षोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयोपजनितमोह: सन् ...परद्रव्ये ममत्वं न जहाति स खलु...उन्मार्गमेव प्रतिपद्यते।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा शुद्ध द्रव्य के निरूपण स्वरूप निश्चयनय से निरपेक्ष रहकर अशुद्ध द्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय से जिसे मोह उत्पन्न हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता है वह आत्मा वास्तव में उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है।</span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/190</span> <span class="SanskritText"> यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयनिरपेक्षोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयोपजनितमोह: सन् ...परद्रव्ये ममत्वं न जहाति स खलु...उन्मार्गमेव प्रतिपद्यते।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा शुद्ध द्रव्य के निरूपण स्वरूप निश्चयनय से निरपेक्ष रहकर अशुद्ध द्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय से जिसे मोह उत्पन्न हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता है वह आत्मा वास्तव में उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/628 <span class="SanskritText">व्यवहार: किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यत:। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च।</span> =<span class="HindiText">स्वयमेव मिथ्या अर्थ का उपदेश करने वाला होने के कारण व्यवहारनय निश्चय करके मिथ्या है। तथा इसके अर्थ पर दृष्टि रखने वाला मिथ्यादृष्टि है। इसलिए यह नय हेय है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/628</span> <span class="SanskritText">व्यवहार: किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यत:। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च।</span> =<span class="HindiText">स्वयमेव मिथ्या अर्थ का उपदेश करने वाला होने के कारण व्यवहारनय निश्चय करके मिथ्या है। तथा इसके अर्थ पर दृष्टि रखने वाला मिथ्यादृष्टि है। इसलिए यह नय हेय है।<br /> | ||
देखें [[ कर्ता#3 | एक द्रव्य को दूसरे का कर्ता कहना मिथ्या है ]]।<br /> | देखें [[ कर्ता#3 | एक द्रव्य को दूसरे का कर्ता कहना मिथ्या है ]]।<br /> | ||
[[ कारक#4 | एक द्रव्य को दूसरे का बताना मिथ्या है ]]।<br /> | [[ कारक#4 | एक द्रव्य को दूसरे का बताना मिथ्या है ]]।<br /> | ||
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देखें [[ नय#V.3.3 | निश्चयनय का आश्रय करने वाले ही सम्यग्दृष्टि होते हैं, व्यवहार का आश्रय करने वाले नहीं ]]। <br /> | देखें [[ नय#V.3.3 | निश्चयनय का आश्रय करने वाले ही सम्यग्दृष्टि होते हैं, व्यवहार का आश्रय करने वाले नहीं ]]। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.6.13" id="V.6.13"> व्यवहारनय हेय है</strong> </span><br /> | ||
मोक्षपाहुड़/32 <span class="PrakritText">इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं।</span>=<span class="HindiText">(जो व्यवहार में जागता है सो आत्मा के कार्य में सोता है। गा.31) ऐसा जानकर योगी व्यवहार को सर्व प्रकार छोड़ता है।32।</span><br /> | <span class="GRef">मोक्षपाहुड़/32</span> <span class="PrakritText">इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं।</span>=<span class="HindiText">(जो व्यवहार में जागता है सो आत्मा के कार्य में सोता है। गा.31) ऐसा जानकर योगी व्यवहार को सर्व प्रकार छोड़ता है।32।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/145 <span class="SanskritText">प्राणचतुष्काभिसंबंधत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति।</span>=<span class="HindiText">इस व्यवहार जीवत्व की कारणरूप जो चार प्राणी की संयुक्तता है, उससे जीव को भिन्न करना चाहिए।</span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/145</span> <span class="SanskritText">प्राणचतुष्काभिसंबंधत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति।</span>=<span class="HindiText">इस व्यवहार जीवत्व की कारणरूप जो चार प्राणी की संयुक्तता है, उससे जीव को भिन्न करना चाहिए।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/11 <span class="SanskritText"> अत: प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनयो नानुसर्तव्य: ।</span>=<span class="HindiText">अत: कर्मों से भिन्न शुद्धात्मा को देखने वालों को व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/11</span> <span class="SanskritText"> अत: प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनयो नानुसर्तव्य: ।</span>=<span class="HindiText">अत: कर्मों से भिन्न शुद्धात्मा को देखने वालों को व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/253/12 <span class="SanskritText">इदं नयद्वयं तावदस्ति। किंत्वत्र निश्चयनय उपादेय; न चासद्भूतव्यवहार:।</span>=<span class="HindiText">यद्यपि नय दो है, किंतु यहाँ निश्चयनय उपादेय है, असद्भूत व्यवहारनय नहीं। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/630 )।<br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/253/12</span> <span class="SanskritText">इदं नयद्वयं तावदस्ति। किंत्वत्र निश्चयनय उपादेय; न चासद्भूतव्यवहार:।</span>=<span class="HindiText">यद्यपि नय दो है, किंतु यहाँ निश्चयनय उपादेय है, असद्भूत व्यवहारनय नहीं। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/630 )</span>।<br /> | ||
और भी देखें आगे [[ नय#V.9.2 | दोनों नयों के समन्वय में इस नय का कथंचित् हेयपना ]]।<br /> | और भी देखें आगे [[ नय#V.9.2 | दोनों नयों के समन्वय में इस नय का कथंचित् हेयपना ]]।<br /> | ||
और भी देखें आगे [[ नय#V.8 | इस नय को हेय कहने का कारण व प्रयोजन ]]<br /> | और भी देखें आगे [[ नय#V.8 | इस नय को हेय कहने का कारण व प्रयोजन ]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.7" id="V.7"> व्यवहारनय की कथंचित् प्रधानता</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.7.1" id="V.7.1"> व्यवहारनय सर्वथा निषिद्ध नहीं है</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,30/230/4 <span class="SanskritText">प्रमाणाभावे वचनाभावात: सकलव्यवहारोच्छित्तिप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, वस्तुविषयविधिप्रतिषेधयोरप्यभावप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, तथानुपलंभात् । </span>=<span class="HindiText">प्रमाण का अभाव होने पर वचन की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, और उसके बिना संपूर्ण लोकव्यवहार के विनाश का प्रसंग आता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि लोकव्यवहार का विनाश होता हो तो हो जाओ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वस्तु विषयक विधिप्रतिषेध का भी अभाव हो जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–वह भी हो जाओ ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि वस्तु का विधि प्रतिषेध रूप व्यवहार देखा जाता है। (और भी देखें [[ नय#V.9.3 | नय - V.9.3]])</span><br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,30/230/4</span> <span class="SanskritText">प्रमाणाभावे वचनाभावात: सकलव्यवहारोच्छित्तिप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, वस्तुविषयविधिप्रतिषेधयोरप्यभावप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, तथानुपलंभात् । </span>=<span class="HindiText">प्रमाण का अभाव होने पर वचन की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, और उसके बिना संपूर्ण लोकव्यवहार के विनाश का प्रसंग आता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि लोकव्यवहार का विनाश होता हो तो हो जाओ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वस्तु विषयक विधिप्रतिषेध का भी अभाव हो जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–वह भी हो जाओ ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि वस्तु का विधि प्रतिषेध रूप व्यवहार देखा जाता है। (और भी देखें [[ नय#V.9.3 | नय - V.9.3]])</span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/356-365/447/15 <span class="SanskritText"> ननु सौगतोऽपि ब्रूते व्यवहारेण सर्वज्ञ:; तस्य किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति। तत्र परिहारमाह-सौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया व्यवहारो मृषा, तथा व्यवहाररूपेणापि व्यवहारो न सत्य इति, जैनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति। यदि पुनर्लोकव्यवहाररूपेणापि सत्यो न भवति तर्हि सर्वोऽपि लोकव्यवहारो मिथ्या भवति, तथा सत्यतिप्रसंग:। एवमात्मा व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति पश्यति निश्चयेन पुन: स्वद्रव्यमेवेति। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सौगत मतवाले (बौद्ध जन) भी सर्वज्ञपना व्यवहार से मानते हैं, तब आप उनको दूषण क्यों देते हैं (क्योंकि, जैन मत में भी परपदार्थों का जानना व्यवहारनय से कहा जाता है)? <strong>उत्तर</strong>–इसका परिहार करते हैं–सौगत आदि मतों में, जिस प्रकार निश्चय की अपेक्षा व्यवहार झूठ है, उसी प्रकार व्यवहाररूप से भी वह सत्य नहीं है। परंतु जैन मत में व्यवहारनय यद्यपि निश्चय की अपेक्षा मृषा (झूठ) है, तथापि व्यवहार रूप से वह सत्य है। यदि लोकव्यवहाररूप से भी उसे सत्य न माना जाये तो सभी लोकव्यवहार मिथ्या हो जायेगा; और ऐसा होने पर अतिप्रसंग दोष आयेगा। इसलिए आत्मा व्यवहार से परद्रव्य को जानता देखता है, पर निश्चयनय से केवल आत्मा को ही। (विशेष देखें –[[केवलज्ञान#6 | केवलज्ञान - 6]]; [[ज्ञान. | <span class="GRef">समयसार / तात्पर्यवृत्ति/356-365/447/15</span> <span class="SanskritText"> ननु सौगतोऽपि ब्रूते व्यवहारेण सर्वज्ञ:; तस्य किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति। तत्र परिहारमाह-सौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया व्यवहारो मृषा, तथा व्यवहाररूपेणापि व्यवहारो न सत्य इति, जैनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति। यदि पुनर्लोकव्यवहाररूपेणापि सत्यो न भवति तर्हि सर्वोऽपि लोकव्यवहारो मिथ्या भवति, तथा सत्यतिप्रसंग:। एवमात्मा व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति पश्यति निश्चयेन पुन: स्वद्रव्यमेवेति। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सौगत मतवाले (बौद्ध जन) भी सर्वज्ञपना व्यवहार से मानते हैं, तब आप उनको दूषण क्यों देते हैं (क्योंकि, जैन मत में भी परपदार्थों का जानना व्यवहारनय से कहा जाता है)? <strong>उत्तर</strong>–इसका परिहार करते हैं–सौगत आदि मतों में, जिस प्रकार निश्चय की अपेक्षा व्यवहार झूठ है, उसी प्रकार व्यवहाररूप से भी वह सत्य नहीं है। परंतु जैन मत में व्यवहारनय यद्यपि निश्चय की अपेक्षा मृषा (झूठ) है, तथापि व्यवहार रूप से वह सत्य है। यदि लोकव्यवहाररूप से भी उसे सत्य न माना जाये तो सभी लोकव्यवहार मिथ्या हो जायेगा; और ऐसा होने पर अतिप्रसंग दोष आयेगा। इसलिए आत्मा व्यवहार से परद्रव्य को जानता देखता है, पर निश्चयनय से केवल आत्मा को ही। (विशेष देखें –[[केवलज्ञान#6 | केवलज्ञान - 6]]; [[ज्ञान#4.2| ज्ञान -4.2 ]]; [[ दर्शन#2.4 | दर्शन -2.4 ]])<br /> | ||
समयसार/ पं.जयचंद/6 शुद्धता अशुद्धता दोनों वस्तु के धर्म हैं। अशुद्धनय को सर्वथा असत्यार्थ ही न मानना।...अशुद्धनय को असत्यार्थ कहने से ऐसा तो न समझना कि यह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं; आकाश के फूल की तरह असत् है। ऐसे सर्वथा एकांत मानने से मिथ्यात्व आता है। ( | <span class="GRef">समयसार/ पं.जयचंद/6</span>=<span class="HindiText"> शुद्धता अशुद्धता दोनों वस्तु के धर्म हैं। अशुद्धनय को सर्वथा असत्यार्थ ही न मानना।...अशुद्धनय को असत्यार्थ कहने से ऐसा तो न समझना कि यह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं; आकाश के फूल की तरह असत् है। ऐसे सर्वथा एकांत मानने से मिथ्यात्व आता है। <span class="GRef">(समयसार./पं.जयचंद/14)</span><br /> | ||
<span class="GRef">समयसार/पं.जयचंद/12</span> व्यवहारनय को कथंचित् असत्यार्थ कहा है; यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो शुभोपयोगरूप व्यवहार छोड़ दे; और चूँकि शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई, इसलिए उलटा अशुभोपयोग में ही आकर भ्रष्ट हुआ। यथा कथंचित् स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तब नारकादिगति तथा परंपरा से निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="V.7.2" id="V.7.2"> निचली भूमिका में व्यवहार प्रयोजनीय है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/12</span> <span class="PrakritText">सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे। </span>=<span class="HindiText">परमभावदर्शियों को (अर्थात् शुद्धात्मध्यानरत पुरुषों को) शुद्धतत्त्व का उपदेश करने वाला शुद्धनय जानना योग्य है। और जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं (अर्थात् बाह्य क्रियाओं का अवलंबन लेने वाले हैं) वे व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।</span><br /> | |||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/12/26/6 <span class="SanskritText">व्यवहारदेशितो व्यवहारनय: पुन: अधस्तनवार्णिकसुवर्णलाभवत्प्रयोजनवान् भवति। केषां। ये पुरुषा: पुन: अशुद्धेअसंयतसम्यग्दृष्ट्यपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्यग्दृष्टिलक्षणे शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापेक्षया च भेदरत्नत्रयलक्षणे वा स्थिता:, कस्मिन् स्थिता:। जीवपदार्थे तेषामिति भावार्थ:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहार का उपदेश करने पर व्यवहारनय प्रथम द्वितीयादि बार पके हुए सुवर्ण की भाँति जो पुरुष अशुद्ध अवस्था में स्थित अर्थात् भेदरत्नत्रय लक्षणवाले 1-7 गुणस्थानों में स्थित हैं, उनको व्यवहारनय प्रयोजनवान् है। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/372/8 )<br /> | <span class="GRef">समयसार / तात्पर्यवृत्ति/12/26/6</span> <span class="SanskritText">व्यवहारदेशितो व्यवहारनय: पुन: अधस्तनवार्णिकसुवर्णलाभवत्प्रयोजनवान् भवति। केषां। ये पुरुषा: पुन: अशुद्धेअसंयतसम्यग्दृष्ट्यपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्यग्दृष्टिलक्षणे शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापेक्षया च भेदरत्नत्रयलक्षणे वा स्थिता:, कस्मिन् स्थिता:। जीवपदार्थे तेषामिति भावार्थ:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहार का उपदेश करने पर व्यवहारनय प्रथम द्वितीयादि बार पके हुए सुवर्ण की भाँति जो पुरुष अशुद्ध अवस्था में स्थित अर्थात् भेदरत्नत्रय लक्षणवाले 1-7 गुणस्थानों में स्थित हैं, उनको व्यवहारनय प्रयोजनवान् है। <span class="GRef">( मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/372/8)</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.7.3" id="V.7.3">मंदबुद्धियों के लिए उपकारी है</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,37/263/7 <span class="SanskritText"> सर्वत्र निश्चयनयमाश्रित्य प्रतिपाद्य अत्र व्यवहारनय: किमित्यवलंब्यते इति चेन्नैष दोष:, मंदमेधसामनुग्रहार्थत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सब जगह निश्चयनय का आश्रय लेकर वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने के पश्चात् फिर यहाँ पर व्यवहारनय का आलंबन क्यों लिया जा रहा है? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मंदबुद्धि शिष्यों के अनुग्रह के लिए उक्त प्रकार से वस्तुस्वरूप का विचार किया है। ( धवला 4/1,3,55/120/1 ) ( | <span class="GRef">धवला 1/1,1,37/263/7</span> <span class="SanskritText"> सर्वत्र निश्चयनयमाश्रित्य प्रतिपाद्य अत्र व्यवहारनय: किमित्यवलंब्यते इति चेन्नैष दोष:, मंदमेधसामनुग्रहार्थत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सब जगह निश्चयनय का आश्रय लेकर वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने के पश्चात् फिर यहाँ पर व्यवहारनय का आलंबन क्यों लिया जा रहा है? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मंदबुद्धि शिष्यों के अनुग्रह के लिए उक्त प्रकार से वस्तुस्वरूप का विचार किया है। <span class="GRef">(धवला 4/1,3,55/120/1)</span> <span class="GRef">(पद्मनन्दि पंचविंशितिका 11/8)</span></span><br /> | ||
धवला 12/4,2,8,3/281/2 | <span class="GRef">धवला 12/4,2,8,3/281/2 </span> <span class="PrakritText">एवंविहवहारो किमट्ठं कीरदे। सुहेण णाणावरणीयपच्चयपडिबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इस प्रकार का व्यवहार किसलिए किया जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/7 <span class="SanskritText"> यतोऽनंतधर्मण्येकस्मिं ह्यधर्मिण्यनिष्णातस्यांतेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभि: कैश्चिद्धर्मैस्तमनुशासतां सूरिणां धर्मधर्मिणो: स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं, ज्ञानं चारित्रमित्युपदेश:।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि अनंत धर्मों वाले एक धर्मी में जो निष्णात नहीं हैं, ऐसे निकटवर्ती शिष्यों को, धर्मी को बतलाने वाले कितने ही धर्मों के द्वारा उपदेश करते हुए आचार्यों का–यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है, तथापि नाम से भेद करके, व्यवहार मात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/6 ), ( | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/7</span> <span class="SanskritText"> यतोऽनंतधर्मण्येकस्मिं ह्यधर्मिण्यनिष्णातस्यांतेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभि: कैश्चिद्धर्मैस्तमनुशासतां सूरिणां धर्मधर्मिणो: स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं, ज्ञानं चारित्रमित्युपदेश:।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि अनंत धर्मों वाले एक धर्मी में जो निष्णात नहीं हैं, ऐसे निकटवर्ती शिष्यों को, धर्मी को बतलाने वाले कितने ही धर्मों के द्वारा उपदेश करते हुए आचार्यों का–यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है, तथापि नाम से भेद करके, व्यवहार मात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। <span class="GRef">(पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/6)</span>, <span class="GRef">(पद्मनन्दि पंचविंशितिका/11/8)</span> <span class="GRef">(मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/372/15)</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.7.4" id="V.7.4"> व्यवहार पूर्वक ही निश्चय तत्त्व का ज्ञान संभव है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशितिका/11/11</span><span class="SanskritText"> मुख्योपचारविवृतिं व्यवहारोपायतो यत: संत:। ज्ञात्वा श्रयंति शुद्धं तत्त्वमिति: व्यवहृति: पूज्या।</span> <span class="HindiText">चूँकि सज्जन पुरुष व्यवहारनय के आश्रय से ही मुख्य और उपचारभूत कथन को जानकर शुद्धस्वरूप का आश्रय लेते हैं, अतएव व्यवहारनय पूज्य है।</span><br /> | |||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/9/20/14 <span class="SanskritText"> व्यवहारेण परमार्थो ज्ञायते।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय से परमार्थ जाना जाता है।<br /> | <span class="GRef">समयसार / तात्पर्यवृत्ति/9/20/14</span> <span class="SanskritText"> व्यवहारेण परमार्थो ज्ञायते।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय से परमार्थ जाना जाता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.7.5" id="V.7.5">व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन शक्य नहीं</strong></span><br /> | ||
समयसार/8 | <span class="GRef">समयसार/8 </span> <span class="SanskritText">तहिं परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत् । </span>(उत्थानिका)–<span class="SanskritGatha">जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जं-भासं विणा उ गाहेउं। तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं।8।</span> =<span class="HindiText">प्रश्न–तब तो एक परमार्थ का ही उपदेश देना चाहिए था, व्यवहार का उपदेश किसलिए दिया जाता है? उत्तर–जैसे अनार्यजन को अनार्य भाषा के बिना किसी भी वस्तु का स्वरूप ग्रहण कराने के लिए कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है। <span class="GRef">(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/641)</span>; <span class="GRef">(मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/370/4)</span></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/3 <span class="SanskritText"> सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं तच्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते।</span>=<span class="HindiText">सर्व संग्रहनय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह अपने उत्तरभेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है। ( राजवार्तिक/1/33/6/96/22 )<br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/3</span> <span class="SanskritText"> सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं तच्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते।</span>=<span class="HindiText">सर्व संग्रहनय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह अपने उत्तरभेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है। <span class="GRef">(राजवार्तिक/1/33/6/96/22)</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.7.6" id="V.7.6"> वस्तु में आस्तिक्य बुद्धि कराना इसका प्रयोजन है</strong></span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/315/28 पर उद्धृत श्लोक नं.3<span class="SanskritGatha"> व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद् व्यापारयति देहिन:।</span> =<span class="HindiText">संग्रहनय से जानी हुई सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में भिन्न रूप से मानकर व्यवहार करने को व्यवहार नय कहते हैं। यह नय जीवों का उन भिन्न-भिन्न पदार्थों में व्यापार कराता है, क्योंकि जगत् में वैसे भिन्न-भिन्न पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं।</span><br /> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/28/315/28 पर उद्धृत श्लोक नं.3</span><span class="SanskritGatha"> व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद् व्यापारयति देहिन:।</span> =<span class="HindiText">संग्रहनय से जानी हुई सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में भिन्न रूप से मानकर व्यवहार करने को व्यवहार नय कहते हैं। यह नय जीवों का उन भिन्न-भिन्न पदार्थों में व्यापार कराता है, क्योंकि जगत् में वैसे भिन्न-भिन्न पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/524 <span class="SanskritText"> फलमास्तिक्यमति: स्यादनंतधर्मैकधर्मिणस्तस्य। गुणसद्भावे यस्माद्द्रव्यास्तित्वस्य सुप्रतीतत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">अनंतधर्म वाले धर्मों के विषय में आस्तिक्य बुद्धि का होना ही उसका फल है, क्योंकि गुणों का अस्तित्व मानने पर ही नियम से द्रव्य का अस्तित्व प्रतीत होता है।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/524</span> <span class="SanskritText"> फलमास्तिक्यमति: स्यादनंतधर्मैकधर्मिणस्तस्य। गुणसद्भावे यस्माद्द्रव्यास्तित्वस्य सुप्रतीतत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">अनंतधर्म वाले धर्मों के विषय में आस्तिक्य बुद्धि का होना ही उसका फल है, क्योंकि गुणों का अस्तित्व मानने पर ही नियम से द्रव्य का अस्तित्व प्रतीत होता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.7.7" id="V.7.7"> वस्तु की निश्चित प्रतिपत्ति के अर्थ यही प्रधान है</strong></span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/637-639 <span class="SanskritGatha">ननु चैवं चेन्नियमादादरणीयो नयो हि परमार्थ:। किमकिंचत्कारित्वाद्व्यवहारेण तथाविधेन यत:।637। नैवं यतो बलादिह विप्रतिपत्तौ च संशयापत्तौ। वस्तुविचारे यदि वा प्रमाणमुभयावलंबितज्ज्ञानं ।638। तस्मादाश्रयणीय: केषांचित् स नय: प्रसंगत्वात् ।...।639। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जब निश्चयनय ही वास्तव में आदरणीय है तब फिर अकिंचित्कारी और अपरमार्थभूत व्यवहारनय से क्या प्रयोजन है ?।637। <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि तत्त्व के संबंध में विप्रतिपत्ति (विपर्यय) होने पर अथवा संशय आ पड़ने पर, वस्तु का विचार करने में वह व्यवहारनय बलपूर्वक प्रवृत्त होता है। अथवा जो ज्ञान निश्चय व व्यवहार दोनों नयों का अवलंबन करने वाला है वही प्रमाण कहलाता है।638। इसलिए प्रसंगवश वह किन्हीं के लिए आश्रय करने योग्य है।639।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/637-639</span> <span class="SanskritGatha">ननु चैवं चेन्नियमादादरणीयो नयो हि परमार्थ:। किमकिंचत्कारित्वाद्व्यवहारेण तथाविधेन यत:।637। नैवं यतो बलादिह विप्रतिपत्तौ च संशयापत्तौ। वस्तुविचारे यदि वा प्रमाणमुभयावलंबितज्ज्ञानं ।638। तस्मादाश्रयणीय: केषांचित् स नय: प्रसंगत्वात् ।...।639। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जब निश्चयनय ही वास्तव में आदरणीय है तब फिर अकिंचित्कारी और अपरमार्थभूत व्यवहारनय से क्या प्रयोजन है ?।637। <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि तत्त्व के संबंध में विप्रतिपत्ति (विपर्यय) होने पर अथवा संशय आ पड़ने पर, वस्तु का विचार करने में वह व्यवहारनय बलपूर्वक प्रवृत्त होता है। अथवा जो ज्ञान निश्चय व व्यवहार दोनों नयों का अवलंबन करने वाला है वही प्रमाण कहलाता है।638। इसलिए प्रसंगवश वह किन्हीं के लिए आश्रय करने योग्य है।639।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.7.8" id="V.7.8">व्यवहार शून्य निश्चयनय कल्पनामात्र है</strong> </span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/1/100/107 <span class="SanskritGatha">व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति। बीजादिना बिना मूढ: स सस्यानि सिसृक्षति।100।</span>=<span class="HindiText">जो मनुष्य व्यवहार से पराङ्मुख होकर केवल निश्चयनय से ही कार्य सिद्ध करना चाहता है, वह बीज, खेत, जल, खाद आदि के बिना ही धान्य उत्पन्न करना चाहता है ।<br /> | <span class="GRef">अनगारधर्मामृत/1/100/107</span> <span class="SanskritGatha">व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति। बीजादिना बिना मूढ: स सस्यानि सिसृक्षति।100।</span>=<span class="HindiText">जो मनुष्य व्यवहार से पराङ्मुख होकर केवल निश्चयनय से ही कार्य सिद्ध करना चाहता है, वह बीज, खेत, जल, खाद आदि के बिना ही धान्य उत्पन्न करना चाहता है ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.8" id="V.8">व्यवहार व निश्चय की हेयोपादेयता का समन्वय</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.8.1" id="V.8.1"> निश्चयनय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
समयसार/272 <span class="PrakritText">णिच्छयणयासिदा मुणिणो पावंति णिव्वाणं।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय के आश्रित मुनि निर्वाण को प्राप्त होते हैं।<br /> | <span class="GRef">समयसार/272</span> <span class="PrakritText">णिच्छयणयासिदा मुणिणो पावंति णिव्वाणं।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय के आश्रित मुनि निर्वाण को प्राप्त होते हैं।<br /> | ||
[[नय#V.3.3 | निश्चयनय के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है]]।</span><br /> | [[नय#V.3.3 | निश्चयनय के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है]]।</span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश/1/71 <span class="PrakritGatha">देहहँ पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि। जो अजरामरु बंभपरु सो अप्पाणु मुणेउ।71।</span>=<span class="HindiText">हे जीव ! तू इस देह के बुढ़ापे व मरण को देखकर भय मत कर। जो वह अजर व अमर परमब्रह्म तत्त्व है उस ही को आत्मा मान।</span><br /> | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश/1/71</span> <span class="PrakritGatha">देहहँ पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि। जो अजरामरु बंभपरु सो अप्पाणु मुणेउ।71।</span>=<span class="HindiText">हे जीव ! तू इस देह के बुढ़ापे व मरण को देखकर भय मत कर। जो वह अजर व अमर परमब्रह्म तत्त्व है उस ही को आत्मा मान।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 <span class="SanskritText">निश्चयनयस्त्वेकत्वे समुपनीय ज्ञानचेतन्ये संस्थाप्य परमानंदं समुत्पाद्य वीतरागं कृत्वा स्वयं निवर्तमानो नयपक्षातिक्रांतं करोति तमिति पूज्यतम:। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय एकत्व को प्राप्त कराके ज्ञानरूपी चैतन्य में स्थापित करता है। परमानंद को उत्पन्न कर वीतराग बनाता है। इतना काम करके वह स्वत: निवृत्त हो जाता है। इस प्रकार वह जीव को नयपक्ष से अतीत कर देता है। इस कारण वह पूज्यतम है।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32</span> <span class="SanskritText">निश्चयनयस्त्वेकत्वे समुपनीय ज्ञानचेतन्ये संस्थाप्य परमानंदं समुत्पाद्य वीतरागं कृत्वा स्वयं निवर्तमानो नयपक्षातिक्रांतं करोति तमिति पूज्यतम:। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय एकत्व को प्राप्त कराके ज्ञानरूपी चैतन्य में स्थापित करता है। परमानंद को उत्पन्न कर वीतराग बनाता है। इतना काम करके वह स्वत: निवृत्त हो जाता है। इस प्रकार वह जीव को नयपक्ष से अतीत कर देता है। इस कारण वह पूज्यतम है।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/69-70 <span class="SanskritText">यथा सम्वग्व्यवहारेण मिथ्याव्यवहारो निवर्तते तथा निश्चयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्त्तते। यथा निश्चयनयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते तथा स्वपर्यवसितभावेनैकविकल्पोऽपि निवर्तते। एवं हि जीवस्य योऽसौ स्वपर्यवसितस्वभाव स एव नयपक्षातीत:।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार सम्यक्व्यवहार से मिथ्या व्यवहार की निवृत्ति हो जाती है। उसी प्रकार निश्चयनय से व्यवहार के विकल्पों की निवृत्ति होती है उसी प्रकार स्व में स्थित स्वभाव से निश्चयनय की एकता का विकल्प भी निवृत्त हो जाता है। इसलिए स्व-स्थित स्वभाव ही नयपक्षातीत है। ( सूत्रपाहुड़/ | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/69-70</span> <span class="SanskritText">यथा सम्वग्व्यवहारेण मिथ्याव्यवहारो निवर्तते तथा निश्चयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्त्तते। यथा निश्चयनयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते तथा स्वपर्यवसितभावेनैकविकल्पोऽपि निवर्तते। एवं हि जीवस्य योऽसौ स्वपर्यवसितस्वभाव स एव नयपक्षातीत:।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार सम्यक्व्यवहार से मिथ्या व्यवहार की निवृत्ति हो जाती है। उसी प्रकार निश्चयनय से व्यवहार के विकल्पों की निवृत्ति होती है उसी प्रकार स्व में स्थित स्वभाव से निश्चयनय की एकता का विकल्प भी निवृत्त हो जाता है। इसलिए स्व-स्थित स्वभाव ही नयपक्षातीत है। <span class="GRef">(सूत्रपाहुड़/ टीका /6/59/9)</span>।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/180/ क.122<span class="SanskritText"> इदमेवात्र तात्पर्यं हेय: शुद्धनयो न हि। नास्ति बंधस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्वंध एव हि। </span>=<span class="HindiText">यहाँ यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है; क्योंकि, उसके अत्याग से बंध नहीं होता है और उसके त्याग से बंध होता है।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/180/ क.122</span><span class="SanskritText"> इदमेवात्र तात्पर्यं हेय: शुद्धनयो न हि। नास्ति बंधस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्वंध एव हि। </span>=<span class="HindiText">यहाँ यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है; क्योंकि, उसके अत्याग से बंध नहीं होता है और उसके त्याग से बंध होता है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/191 <span class="SanskritText">निश्चयनयापहस्तितमोह:...आत्मानमेवात्मत्वेनोपादाय परद्रव्यव्यावृत्तत्वादात्मन्येकस्मिन्नग्रे चिंतां निरुणाद्धि खलु...निरोधसमये शुद्धात्मा स्यात् । अतोऽवधार्यते शुद्धनयादेव शुद्धात्मलाभ:।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय के द्वारा जिसने मोह को दूर किया है, वह पुरुष आत्मा को ही आत्मरूप से ग्रहण करता है, और परद्रव्य से भिन्नत्व के कारण आत्मारूप एक अग्र में ही चिंता को रोकता है (अर्थात् निर्विकल्प समाधि को प्राप्त होता है)। उस एकाग्रचिंतानिरोध के समय वास्तव में वह शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/49/89/16 ), ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/663 )।</span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/191</span> <span class="SanskritText">निश्चयनयापहस्तितमोह:...आत्मानमेवात्मत्वेनोपादाय परद्रव्यव्यावृत्तत्वादात्मन्येकस्मिन्नग्रे चिंतां निरुणाद्धि खलु...निरोधसमये शुद्धात्मा स्यात् । अतोऽवधार्यते शुद्धनयादेव शुद्धात्मलाभ:।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय के द्वारा जिसने मोह को दूर किया है, वह पुरुष आत्मा को ही आत्मरूप से ग्रहण करता है, और परद्रव्य से भिन्नत्व के कारण आत्मारूप एक अग्र में ही चिंता को रोकता है (अर्थात् निर्विकल्प समाधि को प्राप्त होता है)। उस एकाग्रचिंतानिरोध के समय वास्तव में वह शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। <span class="GRef">(समयसार / तात्पर्यवृत्ति/49/89/16)</span>, <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/663)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/253/13</span> <span class="SanskritText">ननु रागादीनात्मा करोति भुंक्ते चेत्येवं लक्षणो निश्चयनयो व्याख्यात:, स कथमुपादेयो भवति। परिहारमाह–रागादीनेवात्मा करोति न च द्रव्यकर्म, रागादय एव बंधकारणमिति यदा जानाति जीवस्तदा रागद्वेषादिविकल्पजालत्यागेन रागादिविनाशार्थं निजशुद्धात्मानं भावयति। ततश्च रागादिविनाशो भवति। रागादिविनाशे च आत्मा शुद्धो भवति।...तथैवोपादेयो भण्यते इत्यभिप्राय:। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–रागादिक को आत्मा करता है और भोगता है ऐसा (अशुद्ध) निश्चय का लक्षण कहा गया है। वह कैसे उपादेय हो सकता है? <strong>उत्तर</strong>–इस शंका का परिहार करते हैं–रागादिक को ही आत्मा करता (व भोगता है) द्रव्यकर्मों को नहीं। इसलिए रागादिक ही बंध के कारण हैं (द्रव्यकर्म नहीं)। ऐसा यह जीव जब जान जाता है तब रागादि विकल्पजाल का त्याग करके रागादिक के विनाशार्थ शुद्धात्मा की भावना भाता है। उससे रागादिक का विनाश होता है। और रागादिक का विनाश होने पर आत्मा शुद्ध हो जाती है। इसलिए इस (अशुद्ध निश्चयनय को भी) उपादेय कहा जाता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.8.2" id="V.8.2"> व्यवहारनय के निषेध का कारण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.8.2.1" id="V.8.2.1"> अभूतार्थ प्रतिपादक होने के कारण निषिद्ध है</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/627-28 <span class="SanskritGatha">न यतो विकल्पमर्थाकृतिपरिणतं यथा वस्तु। प्रतिषेधस्य न हेतुश्चेदयथार्थस्तु हेतुरिह तस्य।627। व्यवहार: किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यत:। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च।628। </span>=<span class="HindiText">वस्तु के अनुसार केवल विकल्परूप अर्थाकार परिणत होना प्रतिषेध्य का कारण नहीं है, किंतु वास्तविक न होने के कारण इसका प्रतिषेध होता है।627। निश्चय करके व्यवहारनय स्वयं ही मिथ्या अर्थ का उपदेश करने वाला है, अत: मिथ्या है। इसलिए यहाँ पर प्रतिषेध्य है। और इसके अर्थ पर दृष्टि रखनेवाला मिथ्यादृष्टि है।628। (विशेष देखें [[ नय#V.6.1 | नय - V.6.1]])।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/627-28</span> <span class="SanskritGatha">न यतो विकल्पमर्थाकृतिपरिणतं यथा वस्तु। प्रतिषेधस्य न हेतुश्चेदयथार्थस्तु हेतुरिह तस्य।627। व्यवहार: किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यत:। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च।628। </span>=<span class="HindiText">वस्तु के अनुसार केवल विकल्परूप अर्थाकार परिणत होना प्रतिषेध्य का कारण नहीं है, किंतु वास्तविक न होने के कारण इसका प्रतिषेध होता है।627। निश्चय करके व्यवहारनय स्वयं ही मिथ्या अर्थ का उपदेश करने वाला है, अत: मिथ्या है। इसलिए यहाँ पर प्रतिषेध्य है। और इसके अर्थ पर दृष्टि रखनेवाला मिथ्यादृष्टि है।628। (विशेष देखें [[ नय#V.6.1 | नय - V.6.1]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.8.2.2" id="V.8.2.2"> अनिष्ट फलप्रदायी होने के कारण निषिद्ध है</strong></span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/98 <span class="SanskritText">अतोऽवधार्यते अशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव।</span> =<span class="HindiText">इससे जाना जाता है कि अशुद्धनय से अशुद्धआत्मा का लाभ होता है।</span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/98</span> <span class="SanskritText">अतोऽवधार्यते अशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव।</span> =<span class="HindiText">इससे जाना जाता है कि अशुद्धनय से अशुद्धआत्मा का लाभ होता है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/563 <span class="SanskritText">तस्मादनुपादेयो व्यवहारोऽतद्गुणे तदारोप:। इष्टफलाभावादिह न नयो वर्णादिमान् यथा जीव:।</span> =<span class="HindiText">इसी कारण, अतद्गुण में तदारोप करने वाला व्यवहारनय इष्ट फल के अभाव से उपादेय नहीं है। जैसे कि यहाँ पर जीव को वर्णादिमान् कहना नय नहीं है (नयाभास है), (विशेष देखें [[ नय#V.6.11 | नय - V.6.11]])।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/563</span> <span class="SanskritText">तस्मादनुपादेयो व्यवहारोऽतद्गुणे तदारोप:। इष्टफलाभावादिह न नयो वर्णादिमान् यथा जीव:।</span> =<span class="HindiText">इसी कारण, अतद्गुण में तदारोप करने वाला व्यवहारनय इष्ट फल के अभाव से उपादेय नहीं है। जैसे कि यहाँ पर जीव को वर्णादिमान् कहना नय नहीं है (नयाभास है), (विशेष देखें [[ नय#V.6.11 | नय - V.6.11]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.8.2.3" id="V.8.2.3"> व्यभिचारी होने के कारण निषिद्ध है</strong> </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/277 <span class="SanskritText">तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानैकांतिकत्वाद्वयवहारनय: प्रतिषेध्य:। निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकांतिकत्वात्तत्प्रतिषेधक:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय प्रतिषेध्य है; क्योंकि (इसके विषयभूत परद्रव्यस्वरूप) आचारांगादि (द्वादशांग श्रुतज्ञान, व्यवहारसम्यग्दर्शन व व्यवहारसम्यग्चारित्र) का आश्रयत्व अनैकांतिक है, व्यभिचारी है (अर्थात् व्यवहारावलंबी को निश्चय रत्नत्रय हो अथवा न भी हो) और निश्चयनय व्यवहार का निषेधक है; क्योंकि (उसके विषयभूत) शुद्धात्मा के ज्ञानादि (निश्चयरत्नत्रय का) आश्रय एकांतिक है अर्थात् निश्चित है, [[नय#V.6.3 | और व्यवहार के प्रतिषेधक हैं ]]। <br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/277</span> <span class="SanskritText">तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानैकांतिकत्वाद्वयवहारनय: प्रतिषेध्य:। निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकांतिकत्वात्तत्प्रतिषेधक:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय प्रतिषेध्य है; क्योंकि (इसके विषयभूत परद्रव्यस्वरूप) आचारांगादि (द्वादशांग श्रुतज्ञान, व्यवहारसम्यग्दर्शन व व्यवहारसम्यग्चारित्र) का आश्रयत्व अनैकांतिक है, व्यभिचारी है (अर्थात् व्यवहारावलंबी को निश्चय रत्नत्रय हो अथवा न भी हो) और निश्चयनय व्यवहार का निषेधक है; क्योंकि (उसके विषयभूत) शुद्धात्मा के ज्ञानादि (निश्चयरत्नत्रय का) आश्रय एकांतिक है अर्थात् निश्चित है, [[नय#V.6.3 | और व्यवहार के प्रतिषेधक हैं ]]। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.8.3" id="V.8.3"> व्यवहारनय निषेध का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/6,7 <span class="SanskritGatha">अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयंत्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।6। माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य। व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।7।</span> =<span class="HindiText">अज्ञानी को समझाने के लिए ही मुनिजन अभूतार्थ जो व्यवहारनय, उसका उपदेश देते हैं। जो केवल व्यवहार ही को सत्य मानते हैं, उनके लिए उपदेश नहीं है।6। जो सच्चे सिंह को नहीं जानते हैं उनको यदि ‘विलाव जैसा सिंह होता है’ यह कहा जाये तो बिलाव को ही सिंह मान बैठेंगे। इसी प्रकार जो निश्चय को नहीं जानते उनको यदि व्यवहार का उपदेश दिया जाये तो वे उसी को निश्चय मान लेंगे।7। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/372/8 )।</span><br /> | <span class="GRef">पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/6,7</span> <span class="SanskritGatha">अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयंत्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।6। माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य। व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।7।</span> =<span class="HindiText">अज्ञानी को समझाने के लिए ही मुनिजन अभूतार्थ जो व्यवहारनय, उसका उपदेश देते हैं। जो केवल व्यवहार ही को सत्य मानते हैं, उनके लिए उपदेश नहीं है।6। जो सच्चे सिंह को नहीं जानते हैं उनको यदि ‘विलाव जैसा सिंह होता है’ यह कहा जाये तो बिलाव को ही सिंह मान बैठेंगे। इसी प्रकार जो निश्चय को नहीं जानते उनको यदि व्यवहार का उपदेश दिया जाये तो वे उसी को निश्चय मान लेंगे।7। <span class="GRef">( मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/372/8)</span>।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/11 <span class="SanskritText">प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनया नानुसर्तव्य:। </span>=<span class="HindiText">अन्य पदार्थों से भिन्न आत्मा को देखने वालों को व्यवहारनय का अनुसरण नहीं करना चाहिए।</span><br /> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/11</span> <span class="SanskritText">प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनया नानुसर्तव्य:। </span>=<span class="HindiText">अन्य पदार्थों से भिन्न आत्मा को देखने वालों को व्यवहारनय का अनुसरण नहीं करना चाहिए।</span><br /> | ||
<span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशितिका/11/8</span> <span class="SanskritText">व्यवहृतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनय:।</span>=<span class="HindiText">अबोधजनों को समझाने के लिए ही व्यवहारनय है, परंतु शुद्धनय कर्मों के क्षय का कारण है।</span><br /> | |||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/324-327/414/9 <span class="SanskritText">ज्ञानी भूत्वा व्यवहारेण परद्रव्यमात्मीयं वदन् सन् कथमज्ञानी भवतीति चेत् । व्यवहारो हि म्लेच्छानां म्लेच्छभाषेव प्राथमिकजनसंबोधनार्थं काल एवानुसर्तव्य:। प्राथमिकजनप्रतिबोधनकालं विहाय कतकफलवदात्मशुद्धि कारकात् शुद्धनयाच्च्युतो भूत्वा यदि परद्रव्यमात्मीयं करोतीति तदा मिथ्यादृष्टिर्भवति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ज्ञानी होकर व्यवहारनय से परद्रव्य को अपना कहने से वह अज्ञानी कैसे हो जाता है? <strong>उत्तर</strong>–म्लेच्छों को समझाने के लिए म्लेच्छ भाषा की भाँति प्राथमिक जनों को समझाने के समय ही व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य है। प्राथमिकजनों के संबोधनकाल को छोड़कर अन्य समयों में नहीं। अर्थात् कतकफल की भाँति जो आत्मा की शुद्धि करने वाला है, ऐसे शुद्धनय से च्युत होकर यदि परद्रव्य को अपना करता है तो वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (अर्थात् निश्चयनय निरपेक्ष व्यवहार दृष्टिवाला मिथ्यादृष्टि हो सर्वदा सर्वप्रकार व्यवहार का अनुसरण करता है, सम्यग्दृष्टि नहीं।<br /> | <span class="GRef">समयसार / तात्पर्यवृत्ति/324-327/414/9</span> <span class="SanskritText">ज्ञानी भूत्वा व्यवहारेण परद्रव्यमात्मीयं वदन् सन् कथमज्ञानी भवतीति चेत् । व्यवहारो हि म्लेच्छानां म्लेच्छभाषेव प्राथमिकजनसंबोधनार्थं काल एवानुसर्तव्य:। प्राथमिकजनप्रतिबोधनकालं विहाय कतकफलवदात्मशुद्धि कारकात् शुद्धनयाच्च्युतो भूत्वा यदि परद्रव्यमात्मीयं करोतीति तदा मिथ्यादृष्टिर्भवति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ज्ञानी होकर व्यवहारनय से परद्रव्य को अपना कहने से वह अज्ञानी कैसे हो जाता है? <strong>उत्तर</strong>–म्लेच्छों को समझाने के लिए म्लेच्छ भाषा की भाँति प्राथमिक जनों को समझाने के समय ही व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य है। प्राथमिकजनों के संबोधनकाल को छोड़कर अन्य समयों में नहीं। अर्थात् कतकफल की भाँति जो आत्मा की शुद्धि करने वाला है, ऐसे शुद्धनय से च्युत होकर यदि परद्रव्य को अपना करता है तो वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (अर्थात् निश्चयनय निरपेक्ष व्यवहार दृष्टिवाला मिथ्यादृष्टि हो सर्वदा सर्वप्रकार व्यवहार का अनुसरण करता है, सम्यग्दृष्टि नहीं।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.8.4" id="V.8.4">व्यवहार नय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन</strong> <br /> | ||
[[ नय#V.7 | निचली भूमिकावालों के लिए तथा मंदबुद्धिजनों के लिए यह नय उपकारी है। ]] व्यवहार से ही निश्चय तत्त्वज्ञान की सिद्धि होती है तथा व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन भी शक्य नहीं है। इसके अतिरिक्त इस नय द्वारा वस्तु में आस्तिक्य बुद्धि उत्पन्न हो जाती है।</span><br /> | [[ नय#V.7 | निचली भूमिकावालों के लिए तथा मंदबुद्धिजनों के लिए यह नय उपकारी है। ]] व्यवहार से ही निश्चय तत्त्वज्ञान की सिद्धि होती है तथा व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन भी शक्य नहीं है। इसके अतिरिक्त इस नय द्वारा वस्तु में आस्तिक्य बुद्धि उत्पन्न हो जाती है।</span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/60/246/28 | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/33/60/246/28 </span> <span class="SanskritText">तदुक्तं–व्यवहारानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता। सान्यथा बाध्यमानानां, तेषां च तत्प्रसंगत:। </span>=<span class="HindiText">लौकिक व्यवहारों की अनुकूलता करके ही प्रमाणों का प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है, दूसरे प्रकारों से नहीं। क्योंकि, वैसा मानने पर तो साध्यमान जो स्वप्न, भ्रांति व संशय ज्ञान हैं, उन्हें भी प्रमाणता प्राप्त हो जायेगी।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/31 <span class="SanskritText">किमर्थं व्यवहारोऽसत्कल्पनानिवृत्त्यर्थं सद्रत्नत्रयसिद्धयर्थं च।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अर्थ का व्यवहार किसलिए किया जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–असत् कल्पना की निवृत्ति के अर्थ तथा सम्यक् रत्नत्रय की प्राप्ति के अर्थ।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/31</span> <span class="SanskritText">किमर्थं व्यवहारोऽसत्कल्पनानिवृत्त्यर्थं सद्रत्नत्रयसिद्धयर्थं च।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अर्थ का व्यवहार किसलिए किया जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–असत् कल्पना की निवृत्ति के अर्थ तथा सम्यक् रत्नत्रय की प्राप्ति के अर्थ।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/12 <span class="SanskritText">अथ च केषांचित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान् । (उत्थानिका)। ...ये तु...अपरमं भावमनुभवंति तेषां ...व्यवहारनयो...परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् । उक्तं च–‘जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुयह। एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं।</span> | <span class="GRef">समयसार / आत्मख्याति/12</span> <span class="SanskritText">अथ च केषांचित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान् । (उत्थानिका)। ...ये तु...अपरमं भावमनुभवंति तेषां ...व्यवहारनयो...परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् । उक्तं च–‘जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुयह। एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं।</span> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/46</span> <span class="SanskritText">व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्तेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थ तो भेददर्शनात्त्रसस्थावराणां भस्मन इव नि:शंकमुपमर्दनेन हिंसाभावाद्भवत्येव बंधस्याभाव:। तथा रक्तद्विष्टविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषविमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभाव:।</span>= | |||
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<li | <li class="HindiText"> व्यवहारनय भी किसी किसी को किसी काल प्रयोजनवान् है।–जो पुरुष अपरमभाव में स्थित है [अर्थात् अनुत्कृष्ट या मध्यम भूमिका अनुभव करते हैं अर्थात् 4-7 गुणस्थान तक के जीवों को (देखें [[ नय#V.7.2 | नय - V.7.2]]) उनको व्यवहारनय जानने में आता हुआ उस समय प्रयोजनवान् है, क्योंकि तीर्थ व तीर्थ के फल की ऐसी ही व्यवस्थिति है। अन्यत्र भी कहा है–हे भव्य जीवों! यदि तुम जिनमत का प्रवर्ताना कराना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ का नाश हो जायेगा और निश्चय के बिना तत्त्व का नाश हो जायेगा। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> जैसे म्लेच्छों को म्लेच्छभाषा वस्तु का स्वरूप बतलाती है उसी प्रकार [[नय#V.7.5 | व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ का कहने वाला है]], इसलिए अपरमार्थभूत होने पर भी, धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए वह (व्यवहारनय) बतलाना न्यायसंगत ही है। यदि व्यवहारनय न बतलाया जाय तो, क्योंकि परमार्थ से जीव को शरीर से भिन्न बताया गया है, इसलिए जैसे भस्म को मसल देने से हिंसा का अभाव है, उसी प्रकार त्रस-स्थावर जीवों को नि:शंकतया मसल देने में भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बंध का ही अभाव सिद्ध होगा। तथा परमार्थ से जीव क्योंकि रागद्वेष मोह से भिन्न बताया गया है, इसलिए ‘रागी द्वेषी मोही जीव कर्म से बंधता है, उसे छुड़ाना’–इस प्रकार मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जायेगा। इस प्रकार मोक्ष के उपाय का अभाव होने से मोक्ष का अभाव हो जायेगा।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.9" id="V.9"> निश्चय व्यवहार के विषयों का समन्वय</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.9.1" id="V.9.1">दोनों नयों के विषय विरोध निर्देश</strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 4/1/7/28/585/2 <span class="SanskritText"> निश्चयनयादनादिपारिणामिकचैतन्यलक्षणजीवत्वपरिणतो जीव: व्यवहारादौपशमिकादिभावचतुष्टयस्वभाव:; निश्चयत: स्वपरिणामस्य, व्यवहारत: सर्वेषां; निश्चयनयो जीवत्वसाधन:, व्यवहारादौपशमिकादिभावसाधनश्च; निश्चयत: स्वप्रदेशाधिकरणो, व्यवहारत: शरीराद्यधिकरण:; निश्चयतो जीवनसमयस्थिति व्यवहारतो द्विसमयादिस्थितिरनाद्यवसानस्थितिर्वा; निश्चयतोऽनंतविधान एव व्यवहारतो नारकादिसंख्येयासंख्येयानंतविधानश्च। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय से तो अनादि पारिणामिक चैतन्यलक्षण जो जीवत्व भाव, उससे परिणत जीव है, तथा व्यवहारनय से औदयिक औपशमिक आदि जो चार भाव उन स्वभाव वाला जीव है ([[नय#V.1.3 | नय - V.1.3]], [[नय#V.1.5 | V.1.5]], [[नय#V.1.8 | V.1.8]])। निश्चय से स्वपरिणामों का स्वामी व कर्ता भोक्ता है, तथा व्यवहारनय से सब पदार्थों का स्वामी व कर्ता भोक्ता है ([[नय#V.1.3 | नय - V.1.3]], [[नय#V.1.5 |V.1.5]], [[नय#V.1.8 |V.1.8]] तथा [[नय#V.5 |V.5]],) निश्चय से पारिणामिक भावरूप जीवत्व का साधन है तथा व्यवहारनय से औदयिक औपशमिकादि भावों का साधन है ([[नय#V.1.5 | नय - V.1.5]], [[नय#V.1.8 |V.1.8]]) | निश्चय से जीव स्वप्रदेशों में अधिष्ठित है]] और व्यवहार से शरीरादि में अधिष्ठित है ([[ नय#V.1.3 | नय - V.1.3]] , [[नय#V.5.5 | V.5.5 ]])। निश्चय से जीवन की स्थिति एक समयमात्र है और व्यवहार नय से दो समय आदि अथवा अनादि अनंत स्थिति है। ([[ नय#III.5.7 | नय - III.5.7]] , [[नय#IV.3 | IV.3 ]]) । निश्चयनय से जितने जीव हैं उतने ही अनंत उसके प्रकार हैं, और व्यवहारनय से नरक तिर्यंच आदि संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रकार का है। (इसी प्रकार अन्य भी इन नयों के अनेकों उदाहरण यथायोग्य समझ लेना)। (विशेष देखो पृथक्-पृथक् उस उस नय के उदाहरण) ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56-60 )।<br /> | <span class="GRef">श्लोकवार्तिक 4/1/7/28/585/2</span> <span class="SanskritText"> निश्चयनयादनादिपारिणामिकचैतन्यलक्षणजीवत्वपरिणतो जीव: व्यवहारादौपशमिकादिभावचतुष्टयस्वभाव:; निश्चयत: स्वपरिणामस्य, व्यवहारत: सर्वेषां; निश्चयनयो जीवत्वसाधन:, व्यवहारादौपशमिकादिभावसाधनश्च; निश्चयत: स्वप्रदेशाधिकरणो, व्यवहारत: शरीराद्यधिकरण:; निश्चयतो जीवनसमयस्थिति व्यवहारतो द्विसमयादिस्थितिरनाद्यवसानस्थितिर्वा; निश्चयतोऽनंतविधान एव व्यवहारतो नारकादिसंख्येयासंख्येयानंतविधानश्च। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय से तो अनादि पारिणामिक चैतन्यलक्षण जो जीवत्व भाव, उससे परिणत जीव है, तथा व्यवहारनय से औदयिक औपशमिक आदि जो चार भाव उन स्वभाव वाला जीव है ([[नय#V.1.3 | नय - V.1.3]], [[नय#V.1.5 | V.1.5]], [[नय#V.1.8 | V.1.8]])। निश्चय से स्वपरिणामों का स्वामी व कर्ता भोक्ता है, तथा व्यवहारनय से सब पदार्थों का स्वामी व कर्ता भोक्ता है ([[नय#V.1.3 | नय - V.1.3]], [[नय#V.1.5 |V.1.5]], [[नय#V.1.8 |V.1.8]] तथा [[नय#V.5 |V.5]],) निश्चय से पारिणामिक भावरूप जीवत्व का साधन है तथा व्यवहारनय से औदयिक औपशमिकादि भावों का साधन है ([[नय#V.1.5 | नय - V.1.5]], [[नय#V.1.8 |V.1.8]]) | निश्चय से जीव स्वप्रदेशों में अधिष्ठित है]] और व्यवहार से शरीरादि में अधिष्ठित है ([[ नय#V.1.3 | नय - V.1.3]] , [[नय#V.5.5 | V.5.5 ]])। निश्चय से जीवन की स्थिति एक समयमात्र है और व्यवहार नय से दो समय आदि अथवा अनादि अनंत स्थिति है। ([[ नय#III.5.7 | नय - III.5.7]] , [[नय#IV.3 | IV.3 ]]) । निश्चयनय से जितने जीव हैं उतने ही अनंत उसके प्रकार हैं, और व्यवहारनय से नरक तिर्यंच आदि संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रकार का है। (इसी प्रकार अन्य भी इन नयों के अनेकों उदाहरण यथायोग्य समझ लेना)। (विशेष देखो पृथक्-पृथक् उस उस नय के उदाहरण) <span class="GRef">(पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56-60 )</span>।<br /> | ||
देखें [[ अनेकांत#5.4 | वस्तु एक अपेक्षा से जैसी है, दूसरी अपेक्षा से वैसी नहीं है। ]]<br /> | देखें [[ अनेकांत#5.4 | वस्तु एक अपेक्षा से जैसी है, दूसरी अपेक्षा से वैसी नहीं है। ]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.9.2" id="V.9.2"> दोनों नयों में स्वरूप विरोध निर्देश</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="V.9.2.1" id="V.9.2.1"> इस प्रकार दोनों नय परस्पर विरोधी हैं</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="V.9.2.1" id="V.9.2.1"> इस प्रकार दोनों नय परस्पर विरोधी हैं</strong> <br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/6 निश्चय व्यवहार का स्वरूप तौ परस्पर विरोध लिये हैं। जातै समयसार विषै ऐसा कहा है–[[नय#V.6.1 |व्यवहार अभूतार्थ है]]–और [[नय#V.3.1 | निश्चय है सो भूतार्थ है ]] ।<br /> | <span class="GRef">मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/6</span>=<span class="HindiText"> निश्चय व्यवहार का स्वरूप तौ परस्पर विरोध लिये हैं। जातै समयसार विषै ऐसा कहा है–[[नय#V.6.1 |व्यवहार अभूतार्थ है]]–और [[नय#V.3.1 | निश्चय है सो भूतार्थ है ]] ।<br /> | ||
नोट––(इसी प्रकार निश्चयनय साधकतम है, व्यवहारनय साधकतम नहीं है। निश्चयनय सम्यक्त्व का कारण है तथा व्यवहारनय के विषय का आश्रय करना मिथ्यात्व है। [[नय#V.3 | निश्चयनय उपादेय है]] और [[नय#V.6 | व्यवहारनय हेय है ]]। [[नय#V.1.2 | निश्चयनय अभेद विषयक है ]] और [[नय#V.4.1 | व्यवहारनय भेद विषयक ]]; निश्चयनय स्वाश्रित है और व्यवहारनय पराश्रित; [[नय#V.2.2 | निश्चयनय निर्विकल्प, एक वचनातीत, व उदाहरण रहित है ]] तथा [[नय#V.2.5 | व्यवहारनय सविकल्प, अनेकों, वचनगोचर व उदाहरण सहित है ]] । <br /> | नोट––(इसी प्रकार निश्चयनय साधकतम है, व्यवहारनय साधकतम नहीं है। निश्चयनय सम्यक्त्व का कारण है तथा व्यवहारनय के विषय का आश्रय करना मिथ्यात्व है। [[नय#V.3 | निश्चयनय उपादेय है]] और [[नय#V.6 | व्यवहारनय हेय है ]]। [[नय#V.1.2 | निश्चयनय अभेद विषयक है ]] और [[नय#V.4.1 | व्यवहारनय भेद विषयक ]]; निश्चयनय स्वाश्रित है और व्यवहारनय पराश्रित; [[नय#V.2.2 | निश्चयनय निर्विकल्प, एक वचनातीत, व उदाहरण रहित है ]] तथा [[नय#V.2.5 | व्यवहारनय सविकल्प, अनेकों, वचनगोचर व उदाहरण सहित है ]] । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.9.2.2" id="V.9.2.2">निश्चय मुख्य है और व्यवहार गौण</strong></span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 <span class="SanskritText">तर्ह्येवं द्वावपि सामान्येन पूज्यतां गतौ। नह्येवं, व्यवहारस्य पूज्यतरत्वान्निश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(यदि दोनों ही नयों के अवलंबन से परोक्षानुभूति तथा नयातिक्रांत होने पर प्रत्यक्षानुभूति होती है) तो दोनों नय समानरूप से पूज्यता को प्राप्त हो जायेंगे ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, वास्तव में व्यवहारनय पूज्यतर हैं और निश्चयनय पूज्यतम।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32</span> <span class="SanskritText">तर्ह्येवं द्वावपि सामान्येन पूज्यतां गतौ। नह्येवं, व्यवहारस्य पूज्यतरत्वान्निश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(यदि दोनों ही नयों के अवलंबन से परोक्षानुभूति तथा नयातिक्रांत होने पर प्रत्यक्षानुभूति होती है) तो दोनों नय समानरूप से पूज्यता को प्राप्त हो जायेंगे ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, वास्तव में व्यवहारनय पूज्यतर हैं और निश्चयनय पूज्यतम।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/809 <span class="SanskritGatha"> तद् द्विधाय च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधानं स्वात्मसंबंधि गुणो यावत् परात्मनि।809। </span>=<span class="HindiText">वह वात्सल्य अंग भी स्व और पर के विषय के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से जो स्वात्मा संबंधी अर्थात् निश्चय वात्सल्य है वह प्रधान है और जो परमात्मा संबंधी अर्थात् व्यवहार वात्सल्य है वह गौण है।809।<br /> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/809</span> <span class="SanskritGatha"> तद् द्विधाय च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधानं स्वात्मसंबंधि गुणो यावत् परात्मनि।809। </span>=<span class="HindiText">वह वात्सल्य अंग भी स्व और पर के विषय के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से जो स्वात्मा संबंधी अर्थात् निश्चय वात्सल्य है वह प्रधान है और जो परमात्मा संबंधी अर्थात् व्यवहार वात्सल्य है वह गौण है।809।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.9.2.3" id="V.9.2.3"> निश्चयनय साध्य है और व्यवहारनय साधक</strong></span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/9 <span class="SanskritText">निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम् ...परद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते।</span> =<span class="HindiText">परमात्मद्रव्य उपादेय है और परद्रव्य त्याज्य है, इस तरह सर्वज्ञदेव प्रणीत निश्चय व्यवहारनय को साध्यसाधक भाव से मानता है। (देखें [[ नय#V.7.4 | नय - V.7.4]])।<br /> | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/9</span> <span class="SanskritText">निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम् ...परद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते।</span> =<span class="HindiText">परमात्मद्रव्य उपादेय है और परद्रव्य त्याज्य है, इस तरह सर्वज्ञदेव प्रणीत निश्चय व्यवहारनय को साध्यसाधक भाव से मानता है। (देखें [[ नय#V.7.4 | नय - V.7.4]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.9.2.4" id="V.9.2.4"> व्यवहार प्रतिषेध्य है और निश्चय प्रतिषेधक</strong> </span><br /> | ||
समयसार/272 <span class="PrakritText">एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण।</span> =<span class="HindiText">इस प्रकार व्यवहारनय को निश्चयनय के द्वारा प्रतिषिद्ध जान। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/598,625,643 )।<br /> | <span class="GRef">समयसार/272</span> <span class="PrakritText">एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण।</span> =<span class="HindiText">इस प्रकार व्यवहारनय को निश्चयनय के द्वारा प्रतिषिद्ध जान। ( <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/598,625,643)</span>।<br /> | ||
देखें | देखें <span class="GRef">समयसार आत्मख्याति/142/ कलश 70-89</span> का सारार्थ (एक नय की अपेक्षा जीवबद्ध है तो दूसरे की अपेक्षा वह अबद्ध है, इत्यादि 20 उदाहरणों द्वारा दोनों नयों का परस्पर विरोध दर्शाया गया है)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.9.3" id="V.9.3"> दोनों में मुख्य गौण व्यवस्था का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/191 <span class="SanskritText">यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयाविरोधमध्यस्थ: शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयापहस्तितमोह: सन् ...स खलु...शुद्धात्मा स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान ऐसे अशुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय में अविरोधरूप से मध्यस्थ रहकर, शुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनय के द्वारा, जिसने मोह को दूर किया है, ऐसा होता हुआ (एकमात्र आत्मा में चित्त को एकाग्र करता है) वह वास्तव में शुद्धात्मा होता है।<br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/191</span> <span class="SanskritText">यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयाविरोधमध्यस्थ: शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयापहस्तितमोह: सन् ...स खलु...शुद्धात्मा स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान ऐसे अशुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय में अविरोधरूप से मध्यस्थ रहकर, शुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनय के द्वारा, जिसने मोह को दूर किया है, ऐसा होता हुआ (एकमात्र आत्मा में चित्त को एकाग्र करता है) वह वास्तव में शुद्धात्मा होता है।<br /> | ||
देखें [[ नय#V.8.3 | निश्चय निरपेक्ष व्यवहार का अनुसरण मिथ्यात्व है। ]]<br /> | देखें [[ नय#V.8.3 | निश्चय निरपेक्ष व्यवहार का अनुसरण मिथ्यात्व है। ]]<br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/ पृष्ठ/पंक्ति जिनमार्गविषै कहीं तौ निश्चय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौं तौ ‘सत्यार्थ ऐसे ही है’ ऐसा जानना। बहुरि कहीं व्यवहार नय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौ, ‘ऐसे है नाहीं, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है’ ऐसा जानना। इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है। बहुरि दोऊ नयनि के व्याख्यान को सत्यार्थ जानि ‘ऐसै भी है और ऐसे भी है’ ऐसा भ्रमरूप प्रवर्तनेकरि तौ दोऊ नयनि का ग्रहण करना कह्या नाहीं। (पृ.369/14)। ...नोवली दशाविषैं आपकौ भी व्यवहारनय कार्यकारी है; परंतु व्यवहार को उपचारमात्र मानि वाकै द्वारै वस्तु का श्रद्धान ठीक करै तौं कार्यकारी होय। बहुरि जो निश्चयवत् व्यवहार भी सत्यभूत मानि ‘वस्तु ऐसे ही है’ ऐसा श्रद्धान करे तौ उलटा अकार्यकारी हो जाय। (पृ.372/9) तथा (और भी देखें [[ नय#V.8.3 | नय - V.8.3]])।<br /> | <span class="GRef">मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/ पृष्ठ/पंक्ति</span> <span class="HindiText"> जिनमार्गविषै कहीं तौ निश्चय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौं तौ ‘सत्यार्थ ऐसे ही है’ ऐसा जानना। बहुरि कहीं व्यवहार नय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौ, ‘ऐसे है नाहीं, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है’ ऐसा जानना। इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है। बहुरि दोऊ नयनि के व्याख्यान को सत्यार्थ जानि ‘ऐसै भी है और ऐसे भी है’ ऐसा भ्रमरूप प्रवर्तनेकरि तौ दोऊ नयनि का ग्रहण करना कह्या नाहीं। (पृ.369/14)। ...नोवली दशाविषैं आपकौ भी व्यवहारनय कार्यकारी है; परंतु व्यवहार को उपचारमात्र मानि वाकै द्वारै वस्तु का श्रद्धान ठीक करै तौं कार्यकारी होय। बहुरि जो निश्चयवत् व्यवहार भी सत्यभूत मानि ‘वस्तु ऐसे ही है’ ऐसा श्रद्धान करे तौ उलटा अकार्यकारी हो जाय। (पृ.372/9) तथा (और भी देखें [[ नय#V.8.3 | नय - V.8.3]])।</span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ पं.जयचंद/464 निश्चय के लिए तो व्यवहार भी सत्यार्थ है और बिना निश्चय के व्यवहार सारहीन है। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ पं.जयचंद/467)।<br /> | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ पं.जयचंद/464</span> <span class="HindiText">निश्चय के लिए तो व्यवहार भी सत्यार्थ है और बिना निश्चय के व्यवहार सारहीन है। <span class="GRef">(कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ पं.जयचंद/467)</span>।<br /> | ||
देखें [[ ज्ञान#IV.3.1 | निश्चय व व्यवहार ज्ञान द्वारा हेयोपादेय का निर्णय करके, शुद्धात्मस्वभाव की ओर झुकना ही प्रयोजनीय है। ]](<br /> | देखें [[ ज्ञान#IV.3.1 | निश्चय व व्यवहार ज्ञान द्वारा हेयोपादेय का निर्णय करके, शुद्धात्मस्वभाव की ओर झुकना ही प्रयोजनीय है। ]](<br /> | ||
(और भी देखें [[ जीव]], अजीव, आस्रव आदि तत्त्व व विषय) (सर्वत्र यही कहा गया है कि व्यवहारनय द्वारा बताये गये भेदों या संयोगों को हेय करके मात्र शुद्धात्मतत्त्व में स्थित होना ही उस तत्त्व को जानने का भावार्थ है।)<br /> | (और भी देखें [[ जीव]], अजीव, आस्रव आदि तत्त्व व विषय) (सर्वत्र यही कहा गया है कि व्यवहारनय द्वारा बताये गये भेदों या संयोगों को हेय करके मात्र शुद्धात्मतत्त्व में स्थित होना ही उस तत्त्व को जानने का भावार्थ है।)<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="V.9.4" id="V.9.4"> दोनों में साध्य-साधनभाव का प्रयोजन दोनों की परस्पर सापेक्षता</strong></span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/53 <span class="SanskritText">वस्तुत: स्याद्भेद: कस्मान्न कृत इति नाशंकनीयम् । यतो न तेन साध्यसाधकयोरविनाभावित्वं। तद्यथा–निश्चयाविरोधेन व्यवहारस्य सम्यग्व्यवहारेण सिद्धस्य निश्चयस्य च परमार्थत्वादिति। परमार्थमुग्धानां व्यवहारिणां व्यवहारमुग्धानां निश्चयवादिनां उभयमुग्धानामुभयवादिनामनुभयमुग्धानामनुभयवादिनां मोहनिरासार्थं निश्चयव्यवहाराभ्यामालिंगितं कृत्वा वस्तु निर्णेयं। एवं हि कथंचिद्भेदपरस्पराविनाभावित्वेन निश्चयव्यवहारयोरनाकुला सिद्धि:। अन्यथाभास एव स्यात् । तस्माद्व्यवहारप्रसिद्धयैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति, सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वस्तुत: ही इन दोनों नयों का कथंचित् भेद क्यों नहीं किया गया ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वैसा करने से उनमें परस्पर साध्यसाधक भाव नहीं रहता। वह ऐसे कि–निश्चय से अविरोधी व्यवहार को तथा समीचीन व्यवहार द्वारा सिद्ध किये गये निश्चय को ही परमार्थपना है। इस प्रकार परमार्थ से मूढ़ केवल व्यवहारावलंबियों के, अथवा व्यवहार से मूढ केवल निश्चयावलंबियों के, अथवा दोनों की परस्पर सापेक्षतारूप उभय से मूढ़ निश्चयव्यवहारावलंबियों के, अथवा दोनों नयों का सर्वथा निषेध करनेरूप अनुभयमूढ़ अनुभयावलंबियों के मोह को दूर करने के लिए, निश्चय व व्यवहार दोनों नयों से आलिंगित करके ही वस्तु का निर्णय करना चाहिए।<br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/53</span> <span class="SanskritText">वस्तुत: स्याद्भेद: कस्मान्न कृत इति नाशंकनीयम् । यतो न तेन साध्यसाधकयोरविनाभावित्वं। तद्यथा–निश्चयाविरोधेन व्यवहारस्य सम्यग्व्यवहारेण सिद्धस्य निश्चयस्य च परमार्थत्वादिति। परमार्थमुग्धानां व्यवहारिणां व्यवहारमुग्धानां निश्चयवादिनां उभयमुग्धानामुभयवादिनामनुभयमुग्धानामनुभयवादिनां मोहनिरासार्थं निश्चयव्यवहाराभ्यामालिंगितं कृत्वा वस्तु निर्णेयं। एवं हि कथंचिद्भेदपरस्पराविनाभावित्वेन निश्चयव्यवहारयोरनाकुला सिद्धि:। अन्यथाभास एव स्यात् । तस्माद्व्यवहारप्रसिद्धयैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति, सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वस्तुत: ही इन दोनों नयों का कथंचित् भेद क्यों नहीं किया गया ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वैसा करने से उनमें परस्पर साध्यसाधक भाव नहीं रहता। वह ऐसे कि–निश्चय से अविरोधी व्यवहार को तथा समीचीन व्यवहार द्वारा सिद्ध किये गये निश्चय को ही परमार्थपना है। इस प्रकार परमार्थ से मूढ़ केवल व्यवहारावलंबियों के, अथवा व्यवहार से मूढ केवल निश्चयावलंबियों के, अथवा दोनों की परस्पर सापेक्षतारूप उभय से मूढ़ निश्चयव्यवहारावलंबियों के, अथवा दोनों नयों का सर्वथा निषेध करनेरूप अनुभयमूढ़ अनुभयावलंबियों के मोह को दूर करने के लिए, निश्चय व व्यवहार दोनों नयों से आलिंगित करके ही वस्तु का निर्णय करना चाहिए।<br /> | ||
इस प्रकार कथंचित् भेद रहते हुए भी परस्पर अविनाभावरूप से निश्चय और व्यवहार की अनाकुल सिद्धि होती है। अन्यथा अर्थात् एक दूसरे से निरपेक्ष वे दोनों ही नयाभास होकर रह जायेंगे । इसलिए व्यवहार की प्रसिद्धि से ही निश्चय की प्रसिद्धि है, अन्यथा नहीं। क्योंकि समीचीन द्रव्यागम के द्वारा तत्त्व का सेवन करके ही समीचीन रत्नत्रय की सिद्धि होती है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/662 )।</span><br /> | इस प्रकार कथंचित् भेद रहते हुए भी परस्पर अविनाभावरूप से निश्चय और व्यवहार की अनाकुल सिद्धि होती है। अन्यथा अर्थात् एक दूसरे से निरपेक्ष वे दोनों ही नयाभास होकर रह जायेंगे । इसलिए व्यवहार की प्रसिद्धि से ही निश्चय की प्रसिद्धि है, अन्यथा नहीं। क्योंकि समीचीन द्रव्यागम के द्वारा तत्त्व का सेवन करके ही समीचीन रत्नत्रय की सिद्धि होती है। <span class="GRef">(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/662)</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/285-292</span> <span class="PrakritText">णो ववहारो मग्गो मोहो हवदि सुहासुहमिदि वयणं। उक्तं चान्यत्र, णियदव्वजाणट्ठं इयरं कहियं जिणेहि छद्दव्वं। तम्हा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं।–ण हु ऐसा सुंदरा जुत्ती। णियसमयं पि य मिच्छा अह जदु सुण्णो य तस्स सो चेदा जाणगभावो मिच्छा उवयरिओ तेण सो भणई।285। जं चिय जीवसहायं उवयारं भणिय तं पि ववहारो। तम्हा णहु तं मिच्छा विसेसदो भणइ सब्भावं।286। ज्झेओ जीवसहाओ सो इह सपरावभासगो भणिओ। तस्स य साहणहेऊ उवयारो भणिय अत्थेसु।287। जह सब्भूओ भणिदो साहणहेऊ अभेदपरमट्ठो। तह उवयारो जाणह साहणहेऊ अणवयारे।288। जो इह सुदेण भणिओ जाणदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं। तं सुयकेवलिरिसिणो भणंति लोयप्पदीपयरा।289। उवयारेण विजाणइ सम्मगुरूवेण जेण परदव्वं। सम्मगणिच्छय तेण वि सइय सहावं तु जाणंतो।290। ण दु णय पक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविविग्गयं सुद्धं।292।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–व्यवहारमार्ग कोई मार्ग नहीं है, क्योंकि शुभाशुभरूप वह व्यवहार वास्तव में मोह है, ऐसा आगम का वचन है। अन्य ग्रंथों में कहा भी है कि ‘निज द्रव्य के जानने के लिए ही जिनेंद्र भगवान् ने छह द्रव्यों का कथन किया है, इसलिए केवल पररूप उन छह द्रव्यों का जानना सम्यग्ज्ञान नहीं है। (देखें [[ द्रव्य#2.4 | द्रव्य - 2.4]])। <strong>उत्तर</strong>–आपकी युक्ति सुंदर नहीं है, क्योंकि परद्रव्यों को जाने बिना उसका स्वसमयपना मिथ्या है, उसकी चेतना शून्य है, और उसका ज्ञायकभाव भी मिथ्या है। इसीलिए अर्थात् पर को जानने के कारण ही उस जीवस्वभाव को उपचरित भी कहा गया है (देखें [[ स्वभाव ]])।285। क्योंकि कहा गया वह जीव का उपचरित स्वभाव व्यवहार है, इसीलिए वह मिथ्या नहीं है, बल्कि उसी स्वभाव की विशेषता को दर्शाने वाला है (देखें [[ नय#V.7.1 | नय - V.7.1]])।286। जीव का शुद्ध स्वभाव ध्येय है और वह स्व-पर प्रकाशक कहा गया है। (देखें [[ केवलज्ञान#6 | केवलज्ञान - 6]]; ज्ञान/I/3; दर्शन/2)। उसका कारण व हेतु भी वास्तव में परपदार्थों में किया गया ज्ञेयज्ञायक रूप उपचार ही है।287। जिस प्रकार अभेद व परमार्थ पदार्थ में गुण गुणी का भेद करना सद्भूत है, उसी प्रकार अनुपचार अर्थात् अबद्ध व अस्पृष्ट तत्त्व में परपदार्थों को जानने का उपचार करना भी सद्भूत है।288। आगम में भी ऐसा कहा गया है कि जो श्रुत के द्वारा केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं, ऐसा लोक को प्रकाशित करने वाले ऋषि अर्थात् जिनेंद्र भगवान् कहते हैं। (देखें [[ श्रुतकेवली#2 | श्रुतकेवली - 2]])।289। सम्यक् निश्चय के द्वारा स्वकीय स्वभाव को जानता हुआ वह आत्मा सम्यक् रूप उपचार से परद्रव्यों को भी जानता है।290। इसलिए अनेकांत पक्ष को सिद्ध करने वाला नय पक्ष मिथ्या नहीं है, क्योंकि जिनवचन से उत्पन्न ‘स्यात्’ शब्द से आलिंगित होकर वह शुद्ध हो जाता है। (देखें [[ नय#II | नय - II]])।292। </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="V.9.5" id="V.9.5"> दोनों की सापेक्षता का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/52 <span class="SanskritText"> यद्यपि मोक्षकार्ये भूतार्थेन परिच्छिन्न आत्माद्युपादानकारणं भवति तथापि सहकारिकारणेन विना न सेत्स्यतीति सहकारिकारणप्रसिद्धयर्थं निश्चयव्यवहारयोरविनाभावित्वमाह। </span>=<span class="HindiText">यद्यपि मोक्षरूप कार्य में भूतार्थ निश्चय नय से जाना हुआ आत्मा आदि उपादान कारण तो सबके पास हैं, तो भी वह आत्मा सहकारी कारण के बिना मुक्त नहीं होता है। अत: सहकारी कारण की प्रसिद्धि के लिए, निश्चय व व्यवहार का अविनाभाव संबंध बतलाते हैं। </span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/52</span> <span class="SanskritText"> यद्यपि मोक्षकार्ये भूतार्थेन परिच्छिन्न आत्माद्युपादानकारणं भवति तथापि सहकारिकारणेन विना न सेत्स्यतीति सहकारिकारणप्रसिद्धयर्थं निश्चयव्यवहारयोरविनाभावित्वमाह। </span>=<span class="HindiText">यद्यपि मोक्षरूप कार्य में भूतार्थ निश्चय नय से जाना हुआ आत्मा आदि उपादान कारण तो सबके पास हैं, तो भी वह आत्मा सहकारी कारण के बिना मुक्त नहीं होता है। अत: सहकारी कारण की प्रसिद्धि के लिए, निश्चय व व्यवहार का अविनाभाव संबंध बतलाते हैं। </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/114 <span class="SanskritText">सर्वस्य हि वस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यविशेषौ परिच्छंदती द्वे किल चक्षुषी, द्रव्यार्थिकं पर्यायार्थिकं चेति। तत्र पर्यायार्थिकमेकांतनिमीलितं ...द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा...तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति। यदा तु द्रव्यार्थिकमेकांतनिमीलितं। ...पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा..अन्यदन्यत्प्रतिभाति...यदा तु ते उभे अपि...तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चावलोक्यते तदा...जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता:...विशेषाश्च तुल्यकालमेवालोक्यंते। तत्र एकचक्षुरवलोकनमेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनं। तत: सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते।</span>=<span class="HindiText">वस्तुत: सभी वस्तु सामान्य विशेषात्मक होने से, वस्तु का स्वरूप देखने वालों के क्रमश: सामान्य और विशेष को जानने वाली दो आँखें हैं—द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक (या निश्चय व व्यवहार)। इनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके, जब केवल द्रव्यार्थिक (निश्चय) चक्षु के द्वारा देखा जाता है, तब ‘वह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है। और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके, केवल पर्यायार्थिक (व्यवहार) चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब वह जीव द्रव्य (नारक तिर्यक् आदि रूप) अन्य अन्य प्रतिभासित होता है। और जब उन दोनों आँखों को एक ही साथ खोलकर देखा जाता है तब जीव सामान्य तथा उसमें व्यवस्थित (नारक तिर्यक् आदि) विशेष भी तुल्यकाल में ही दिखाई देते हैं। वहाँ एक आँख से देखना एकदेशावलोकन है और दोनों आँखों से देखना सर्वावलोकन है। इसलिए सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व व अनन्यत्व विरोध को प्राप्त नहीं होते। (विशेष देखें [[ नय#I.2 | नय - I.2]]) ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/114/174/11 )। </span><br /> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/114</span> <span class="SanskritText">सर्वस्य हि वस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यविशेषौ परिच्छंदती द्वे किल चक्षुषी, द्रव्यार्थिकं पर्यायार्थिकं चेति। तत्र पर्यायार्थिकमेकांतनिमीलितं ...द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा...तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति। यदा तु द्रव्यार्थिकमेकांतनिमीलितं। ...पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा..अन्यदन्यत्प्रतिभाति...यदा तु ते उभे अपि...तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चावलोक्यते तदा...जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता:...विशेषाश्च तुल्यकालमेवालोक्यंते। तत्र एकचक्षुरवलोकनमेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनं। तत: सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते।</span>=<span class="HindiText">वस्तुत: सभी वस्तु सामान्य विशेषात्मक होने से, वस्तु का स्वरूप देखने वालों के क्रमश: सामान्य और विशेष को जानने वाली दो आँखें हैं—द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक (या निश्चय व व्यवहार)। इनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके, जब केवल द्रव्यार्थिक (निश्चय) चक्षु के द्वारा देखा जाता है, तब ‘वह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है। और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके, केवल पर्यायार्थिक (व्यवहार) चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब वह जीव द्रव्य (नारक तिर्यक् आदि रूप) अन्य अन्य प्रतिभासित होता है। और जब उन दोनों आँखों को एक ही साथ खोलकर देखा जाता है तब जीव सामान्य तथा उसमें व्यवस्थित (नारक तिर्यक् आदि) विशेष भी तुल्यकाल में ही दिखाई देते हैं। वहाँ एक आँख से देखना एकदेशावलोकन है और दोनों आँखों से देखना सर्वावलोकन है। इसलिए सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व व अनन्यत्व विरोध को प्राप्त नहीं होते। (विशेष देखें [[ नय#I.2 | नय - I.2]]) <span class="GRef">(समयसार / तात्पर्यवृत्ति/114/174/11)</span>। </span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/187 <span class="SanskritText">ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन जानंति ते खलु महांत: समस्तशास्त्रहृदयवेदिन: परमानंदवीतरागसुखाभिलाषिण:...शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवंतीति।</span> =<span class="HindiText">इस भागवत शास्त्र को जो निश्चय और व्यवहार नय के अविरोध से जानते हैं वे महापुरुष, समस्त अध्यात्म शास्त्रों के हृदय को जानने वाले और परमानंदरूप वीतराग सुख के अभिलाषी, शाश्वत सुख के भोक्ता होते हैं। और भी देखो - [[नय#II.4 | अन्य नय का निषेध करने वाले सभी नय मिथ्या हैं ]]! <br /> | <span class="GRef">नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/187</span> <span class="SanskritText">ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन जानंति ते खलु महांत: समस्तशास्त्रहृदयवेदिन: परमानंदवीतरागसुखाभिलाषिण:...शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवंतीति।</span> =<span class="HindiText">इस भागवत शास्त्र को जो निश्चय और व्यवहार नय के अविरोध से जानते हैं वे महापुरुष, समस्त अध्यात्म शास्त्रों के हृदय को जानने वाले और परमानंदरूप वीतराग सुख के अभिलाषी, शाश्वत सुख के भोक्ता होते हैं। और भी देखो - [[नय#II.4 | अन्य नय का निषेध करने वाले सभी नय मिथ्या हैं ]]! <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="V.9.6" id="V.9.6"> दोनों की सापेक्षता के उदाहरण</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="V.9.6" id="V.9.6"> दोनों की सापेक्षता के उदाहरण</strong> <br /> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p id="1"> (1) वस्तु के अनेक धर्मों में विवक्षानुसार किसी एक धर्म का बोधक ज्ञान । इसके दो भेद है― द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । इनमें द्रव्यार्थिक यथार्थ और पर्यायार्थिक अयथार्थ है । ये ही दो मूल नय है और परस्पर सापेक्ष हैं । वैसे नय सात होते हैं― नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । इन सात नयों में आरंभ के तीन द्रव्यार्थिक और शेष चार पर्यायार्थिक नय हैं । निश्चय और व्यवहार इन दो भेदों से भी नय का कथन होता है । <span class="GRef"> महापुराण 2. 101 </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 105.143, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.39-42 </span></p> | <p id="1" class="HindiText"> (1) वस्तु के अनेक धर्मों में विवक्षानुसार किसी एक धर्म का बोधक ज्ञान । इसके दो भेद है― द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । इनमें द्रव्यार्थिक यथार्थ और पर्यायार्थिक अयथार्थ है । ये ही दो मूल नय है और परस्पर सापेक्ष हैं । वैसे नय सात होते हैं― नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । इन सात नयों में आरंभ के तीन द्रव्यार्थिक और शेष चार पर्यायार्थिक नय हैं । निश्चय और व्यवहार इन दो भेदों से भी नय का कथन होता है । <span class="GRef"> महापुराण 2. 101 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_105#143|पद्मपुराण - 105.143]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#39|हरिवंशपुराण - 58.39-42]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) यादवों का पक्षधर एक राजा । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 50.121 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) यादवों का पक्षधर एक राजा । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_50#121|हरिवंशपुराण - 50.121]] </span></p> | ||
Latest revision as of 14:26, 2 March 2024
सिद्धांतकोष से
अनंत धर्मात्मक होने के कारण वस्तु बड़ी जटिल है (देखें अनेकांत-2.4)। उसको जाना जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। उसे कहने के लिए वस्तु का विश्लेषण करके एक-एक धर्म द्वारा क्रम पूर्वक उसका निरूपण करने के अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है। कौन धर्म को पहले और कौन को पीछे कहा जाये यह भी कोई नियम नहीं है। यथा अवसर ज्ञानी वक्ता स्वयं किसी एक धर्म को मुख्य करके उसका कथन करता है। उस समय उसकी दृष्टि में अन्य धर्म गौण होते हैं पर निषिद्ध नहीं। कोई एक निष्पक्ष श्रोता उस प्ररूपणा को क्रम-पूर्वक सुनता हुआ अंत में वस्तु के यथार्थ अखंड पर्यायार्थिक नय सामान्य निर्देश व्यापकरूप को ग्रहण कर लेता है। अत: गुरु-शिष्य के मध्य यह न्याय अत्यंत उपकारी है। अत: इस न्याय को सिद्धांत रूप से अपनाया जाना न्याय संगत है। यह न्याय श्रोता को वस्तु के निकट ले जाने के कारण ‘नयतीति नय:’ के अनुसार नय कहलाता है। अथवा वक्ता के अभिप्राय को या वस्तु के एकांश ग्राही ज्ञान को नय कहते हैं। संपूर्ण वस्तु के ज्ञान को प्रमाण तथा उसके अंश को नय कहते हैं।
अनेक धर्मों को युगपत् ग्रहण करने के कारण प्रमाण अनेकांत रूप व सकलादेशी है, तथा एक धर्म के ग्रहण करने के कारण नय एकांत रूप व विकलादेशी है। प्रमाण ज्ञान की अर्थात् अन्य धर्मों की अपेक्षा को बुद्धि में सुरक्षित रखते हुए प्रयोग किया जाने वाला नय ज्ञान या नय वाक्य सम्यक् है और उनकी अपेक्षा को छोड़कर उतनी मात्र ही वस्तु को जानने वाला नय ज्ञान या नय वाक्य मिथ्या है। वक्ता या श्रोता को इस प्रकार की एकांत हठ या पक्षपात करना योग्य नहीं, क्योंकि वस्तु उतनी मात्र है ही नहीं‒देखें एकांत ।
यद्यपि वस्तु का व्यापक यथार्थ रूप नयज्ञान का विषय न होने के कारण नयज्ञान का ग्रहण ठीक नहीं, परंतु प्रारंभिक अवस्था में उसका आश्रय परमोपकारी होने कारण वह उपादेय है। फिर भी नय का पक्ष करके विवाद करना योग्य नहीं है। समन्वय की दृष्टि से काम लेना ही नयज्ञान की उपयोगिता है‒देखें स्याद्वाद ।
पदार्थ तीन कोटियों में विभाजित हैं‒या तो वे अर्थात्मक अर्थात् वस्तुरूप हैं, या शब्दात्मक अर्थात् वाचकरूप हैं (धवला 1/4,1,45/190/7)
और या ज्ञानात्मक अर्थात् प्रतिभास रूप हैं। अत: उन-उनको विषय करने के कारण नय ज्ञान व नय वाक्य भी तीन प्रकार के हैं‒अर्थनय, शब्दनय व ज्ञाननय। मुख्य गौण विवक्षा के कारण वक्ता के अभिप्राय भी अनेक प्रकार के होते हैं, जिससे नय भी अनेक प्रकार के हैं। वस्तु के सामान्यांश अर्थात् द्रव्य को विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिक और उसके विशेषांश अर्थात् पर्याय को विषय करने वाला नय पर्यायार्थिक होता है। इन दो मूल भेदों के भी आगे अनेकों उत्तरभेद हो जाते हैं। इसी प्रकार वस्तु के अंतरंग रूप या स्वभाव को विषय करने वाला निश्चय और उसके बाह्य या संयोगी रूप को विषय करने वाला नय व्यवहार कहलाता है अथवा गुण-गुणी में अभेद को विषय करने वाला निश्चय और उनमें कथंचित् भेद को विषय करने वाला व्यवहार कहलाता है। तथा इसी प्रकार अन्य भेद-प्रभेदों का यह नयचक्र उतना ही जटिल है जितनी कि उसकी विषयभूत वस्तु। उस सबका परिचय इस अधिकार में दिया जायेगा।
- नय सामान्य
- नय सामान्य निर्देश
- नय व निक्षेप में अंतर।‒देखें निक्षेप - 1
- नयों व निक्षेपों का परस्पर अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 2, निक्षेप - 3
- नयाभास निर्देश।‒देखें नय - II.4।
- नय व निक्षेप में अंतर।‒देखें निक्षेप - 1
- आगम व अध्यात्म पद्धति।‒देखें पद्धति ।
- नय-प्रमाण संबंध
- नय व प्रमाण में कथंचित् अभेद।
- नय व प्रमाण में कथंचित् भेद।
- श्रुतज्ञान में ही नय होती है, अन्य ज्ञानों में नहीं।
- प्रमाण व नय में कथंचित् प्रधान व अप्रधानपना।
- प्रमाण का विषय सामान्य विशेष दोनों है।
- प्रमाण अनेकांतग्राही है और नय एकांतग्राही।
- प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी।
- नय भी कथंचित् सकलादेशी है।‒देखें सप्तभंगी - 2.1।
- प्रमाण सकल वस्तु ग्राहक है और नय तदंश ग्राहक।
- प्रमाण सब धर्मों को युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रम से एक एक को।
- सकल नयों का युगपत् ग्रहण ही सकल वस्तु ग्रहण है।‒देखें अनेकांत - 2.2
- प्रमाण सापेक्ष ही नय सम्यक् है।‒देखें नय - II.10
- प्रमाण व नय सप्तभंगी‒देखें सप्तभंगी - 2.1।
- नय की कथंचित् हेयोपादेयता
- तत्त्व नयपक्षों से अतीत है।
- नयपक्ष कथंचित् हेय है।
- नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं।
- नयपक्ष को हेय कहने का कारण प्रयोजन।
- परमार्थत: निश्चय व व्यवहार दोनों का पक्ष विकल्परूप होने से हेय है।
- प्रत्यक्षानुभूति के समय निश्चय व्यवहार के विकल्प नहीं रहते।
- परंतु तत्त्वनिर्णयार्थ नय कार्यकारी है।
- आगम का अर्थ करने में नय का स्थान।‒देखें आगम - 3.3।
- तत्त्व नयपक्षों से अतीत है।
- शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश
- शब्द अर्थ ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं।
- शब्दादि नयनिर्देश व लक्षण।
- वास्तव में नय ज्ञानात्मक ही है शब्दादिक को नय कहना उपचार है।
- शब्द में प्रमाण व नयपना।‒देखें आगम - 4.6।
- शब्द में अर्थ प्रतिपादन की योग्यता।‒देखें आगम - 4.1।
- शब्दनय का विषय।‒देखें नय - III.1.9।
- शब्दनय की विशेषताएँ‒देखें नय - III.6, 7, 8 ।
- नय प्रयोग शब्द में नहीं भाव में होता है‒देखें स्याद्वाद - 4 ।
- शब्द अर्थ ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं।
- अन्य अनेकों नयों का निर्देश
- भूत भावि आदि प्रज्ञापन नय निर्देश।
- अस्तित्वादि सप्तभंगी नयों का निर्देश।
- नामादि निक्षेपरूप नयों का निर्देश।
- सामान्य-विशेष आदि धर्मोंरूप 47 नयों का निर्देश।
- अनंत नय होने संभव हैं।
- उपचरित नय‒देखें उपचार ।
- उपनय‒देखें नय - V.4.8।
- काल अकाल नय का समन्वय‒देखें नियति - 2।
- ज्ञान व क्रियानय का समन्वय‒देखें चेतना - 3.8।
- भूत भावि आदि प्रज्ञापन नय निर्देश।
- नय सामान्य निर्देश
- सम्यक् व मिथ्यानय
- नय सम्यक् भी होती है और मिथ्या भी।
- सम्यक् व मिथ्या नयों के लक्षण।
- अन्य पक्ष का निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होती।
- अन्य पक्ष का निषेध करने से ही मिथ्या है।
- अन्य पक्ष का संग्रह करने पर वह नय सम्यक् है।
- सर्व एकांत मत किसी न किसी नय में गर्भित हैं। और सर्व नय अनेकांत के गर्भ में समाविष्ट है।‒देखें अनेकांत - 2.6 ।
- जो नय सर्वथा के कारण मिथ्या है वही कथंचित् के कारण सम्यक् है।
- सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या है।
- नयों के विरोध में अविरोध।‒देखें अनेकांत - 5.6 ।
- नयों में परस्पर विधि निषेध।‒देखें सप्तभंगी - 3.5।
- सापेक्षता व मुख्यगौण व्यवस्था।‒देखें स्याद्वाद - 3 ।
- नय सम्यक् भी होती है और मिथ्या भी।
- नैगम आदि सात नय निर्देश
- सातों नयों का समुदित सामान्य निर्देश
- नय के सात भेदों का नाम निर्देश।‒देखें नय - I.1.3।
- सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग।
- इनमें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक विभाग का कारण।
- सातों में अर्थ, शब्द व ज्ञान नय विभाग।
- इनमें अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण।
- नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं है।
- पूर्व पूर्व का नय अगले अगले नय का कारण है।
- सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता।
- सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण।
- शब्दादि तीन नयों में परस्पर अंतर।
- नय के सात भेदों का नाम निर्देश।‒देखें नय - I.1.3।
- नैगमनय के भेद व लक्षण
- नैगम सामान्य का लक्षण‒(संकल्पग्राही तथा द्वैतग्राही)
- संकल्पग्राही लक्षण विषयक उदाहरण।
- द्वैतग्राही लक्षण विषयक उदाहरण।
- नैगमनय के भेद।
- भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण।
- भूत भावी वर्तमान नैगमनय के उदाहरण।
- पर्याय द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्य का लक्षण।
- द्रव्य पर्याय आदि नैगमनय के भेदों के लक्षण व उदाहरण
- नैगमाभास सामान्य का लक्षण व उदाहरण।
- न्याय वैशेषिक नैगमाभासी हैं।‒देखें अनेकांत - 2.9 ।
- नैगम सामान्य का लक्षण‒(संकल्पग्राही तथा द्वैतग्राही)
- नैगमनय निर्देश
- नैगमनय अर्थनय व ज्ञाननय है।‒देखें नय-III.1.3।
- नैगमनय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
- शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नैगमनय के पेट में समा जाती है।
- नैगम तथा संग्रह व व्यवहारनय में अंतर।
- नैगमनय व प्रमाण में अंतर।
- इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव‒देखें निक्षेप - 3।
- संग्रहनय निर्देश
- संग्रहनय अर्थनय है।‒ देखें नय - III.1.3।
- इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 3।
- इस नय के विषय की अद्वैतता।‒देखें नय - IV.2.3।
- दर्शनोपयोग व संग्रहनय में अंतर।‒देखें दर्शन - 2.10।
- वेदांती व सांख्यमती संग्रहनयाभासी हैं।‒देखें अनेकांत -2.9 ।
- संग्रहनय अर्थनय है।‒ देखें नय - III.1.3।
- व्यवहारनय निर्देश‒देखें नय - V.4।
- ऋजुसूत्रनय निर्देश
- इस नय के विषय की एकत्वता।‒देखें नय - IV.3।
- बौद्धमत ऋजुसूत्राभासी है।‒देखें अनेकांत - 2.9 ।
- ऋजुसूत्र नय अर्थनय है।‒देखें नय - III.1 ।
- ऋजुसूत्र नय शुद्धपर्यायार्थिक है।
- इसे कथंचित् द्रव्यार्थिक कहने का विधि निषेध।
- सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वर्तमान काल का प्रमाण।
- व्यवहारनय व ऋजुसूत्र में अंतर।‒देखें नय - V.4.3 ।
- इसमें यथा संभव निक्षपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 3।
- शब्दनय निर्देश
- शब्द नय के विषय की एकत्वता।‒देखें नय - IV.3।
- शब्द प्रयोग की भेद व अभेदरूप दो अपेक्षाएँ।‒देखें नय - III.1.9।
- अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है।
- पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में अभेद मानता है।
- पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंगादि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता।
- ऋजुसूत्र व शब्दनय में अंतर।
- यह पर्यायार्थिक तथा व्यंजननय है।‒देखें नय - III.1।
- इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 3।
- वैयाकरणी शब्द नयाभासी है।‒देखें अनेकांत - 2.9 ।
- शब्द में अर्थ प्रतिपादन की योग्यता।‒देखें आगम - 4.1।
- शब्द नय के विषय की एकत्वता।‒देखें नय - IV.3।
- समभिरूढनय निर्देश
- समभिरूढनय के लक्षण‒
- इस नय के विषय की एकत्वता।‒देखें नय - IV.3।
- शब्द प्रयोग की भेद-अभेद रूप दो अपेक्षाएँ।‒दे. नय - III.1.9
- यद्यपि रूढ़िगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं।
- परंतु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं होते।
- शब्द वस्तु का धर्म नहीं है, तब उसके भेद से अर्थभेद कैसे हो सकता है? ‒देखें आगम - 4.4।
- यह पर्यायार्थिक शब्दनय है।‒देखें नय - III.1।
- इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 3।
- समभिरूढनय के लक्षण‒
- वैयाकरणी समभिरूढ़ नयाभासी हैं।‒देखें अनेकांत - 2.9 ।
- एवंभूत नय निर्देश
- सभी शब्द क्रियावाची हैं।‒देखें नाम ।
- शब्द प्रयोग की भेद-अभेद रूप दो अपेक्षाएँ।‒देखें नय - III.1.9
- तज्ज्ञान परिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है।
- अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद।
- इस नय की दृष्टि में वाक्य संभव नहीं।
- इस नय में पदसमास संभव नहीं।
- इस नय में वर्णसमास तक भी संभव नहीं।
- वाच्यवाचक भाव का समन्वय।‒देखें आगम - 4.4।
- यह पर्यायार्थिक शब्दनय है।‒देखें नय - III.1।
- इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 3।
- वैयाकरणी एवंभूत नयाभासी हैं।‒देखें अनेकांत - 2.9 ।
- सातों नयों का समुदित सामान्य निर्देश
- द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय
- द्रव्यार्थिक नय सामान्य निर्देश
- द्रव्यार्थिकनय का लक्षण।
- यह वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है।
- द्रव्य की अपेक्षा विषय की अद्वैतता।
- क्षेत्र की अपेक्षा विषय की अद्वैतता।
- काल की अपेक्षा विषय की अद्वैतता।
- भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता।
- इसी से यह नय एक अवक्तव्य व निर्विकल्प है।
- द्रव्यार्थिक व प्रमाण में अंतर।‒देखें नय - III.3.4 ।
- द्रव्यार्थिक के तीन भेद नैगमादि।‒देखें नय - III।
- द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक में अंतर।‒देखें नय - V.4.3 ।
- इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 2।
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय निर्देश
- द्रव्यार्थिकनय के दो भेद‒शुद्ध व अशुद्ध।
- शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का लक्षण।
- द्रव्य क्षेत्रादि की अपेक्षा इस नय के विषय की अद्वैतता।
- शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता।‒देखें नय - V.3.4।
- पर्यायार्थिक नय सामान्य निर्देश
- पर्यायार्थिक नय का लक्षण।
- यह वस्तु के विशेषांश को एकत्वरूप से ग्रहण करता है।
- द्रव्य की अपेक्षा विषय की एकत्वता‒
- क्षेत्र की अपेक्षा विषय की एकत्वता‒
- काल की अपेक्षा विषय की एकत्वता
- वर्तमान काल का स्पष्टीकरण।‒देखें नय - III.5.7।
- वर्तमान काल का स्पष्टीकरण।‒देखें नय - III.5.7।
- काल की अपेक्षा एकत्व विषयक उदाहरण
- भाव की अपेक्षा विषय की एकत्वता।
- किसी भी प्रकार का संबंध संभव नहीं।
- कारण कार्य भाव संभव नहीं‒
- यह नय सकल व्यवहार का उच्छेद करता है।
- पर्यायार्थिक का कथंचित् द्रव्यार्थिकपना।‒देखें नय - III.5।
- पर्यायार्थिक के चार भेद ऋजुसूत्रादि।‒देखें नय - III|
- इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 2।
- पर्यायार्थिक नय का लक्षण।
- शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिक निर्देश
- शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिक के लक्षण।
- पर्यायार्थिक नय के छह भेदों का निर्देश व लक्षण
- पर्यायार्थिक नय के छह भेदों के लक्षण
- अशुद्ध पर्यायार्थिक नय व्यवहारनय है।‒देखें नय - V.4।
- शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिक के लक्षण।
- द्रव्यार्थिक नय सामान्य निर्देश
- निश्चय व्यवहारनय
- निश्चयनय निर्देश
- निश्चयनय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण।
- निश्चयनय का लक्षण अभेद व अनुपचार ग्रहण।
- निश्चयनय का लक्षण स्वाश्रय कथन
- निश्चयनय के भेद‒शुद्ध व अशुद्ध
- शुद्ध निश्चय के लक्षण व उदाहरण
- एकदेश शुद्ध निश्चयनय का लक्षण।
- शुद्ध, एकदेश शुद्ध व निश्चय सामान्य में अंतर व इनकी प्रयोग विधि।
- अशुद्ध निश्चयनय का लक्षण व उदाहरण।
- निश्चयनय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण।
- निश्चयनय की निर्विकल्पता
- शुद्ध व अशुद्ध निश्चयनय द्रव्यार्थिक के भेद हैं।
- निश्चयनय एक निर्विकल्प व वचनातीत है।
- निश्चयनय के भेद नहीं हो सकते।
- शुद्धनिश्चय ही वास्तव में निश्चयनय है; अशुद्ध निश्चयनय तो व्यवहार है।
- उदाहरण सहित तथा सविकल्प सभी नये व्यवहार हैं।
- व्यवहार का निषेध ही निश्चय का वाच्य है।‒देखें नय - V.9.2।
- निश्चयनय की प्रधानता
- व्यवहारनय सामान्य निर्देश
- व्यवहार नय सामान्य के कारण व प्रयोजन।‒देखें नय - V.7।
- चार्वाक मत व्यवहार नयाभासी है।‒देखें अनेकांत - 2.9 ।
- यह द्रव्यार्थिक व अर्थनय है।‒देखें नय - III.1।
- इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 2।
- सद्भूत असद्भूत व्यवहार निर्देश
- सद्भूत व्यवहार नय सामान्य निर्देश
- अनुपचरित या अशुद्ध सद्भूत व्यवहार निर्देश
- उपचरित या अशुद्ध सद्भूत निर्देश
- असद्भूत व्यवहार सामान्य निर्देश
- अनुपचरित असद्भूत व्यवहार निर्देश
- उपचरित असद्भूत व्यवहार नय निर्देश
- भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।
- विभाव भावों की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।
- इस नय के कारण व प्रयोजन।
- उपचार नय संबंधी।‒देखें उपचार-5.1 ।
- व्यवहार नय की कथंचित् गौणता
- व्यवहार नय असत्यार्थ है, तथा उसका हेतु।
- व्यवहार नय उपचारमात्र है।
- व्यवहार नय व्यभिचारी है।
- व्यवहार नय लौकिक रूढि है।
- व्यवहारन य अध्यवसान है।
- व्यवहार नय कथनमात्र है।
- व्यवहार नय साधकतम नहीं है।
- व्यवहार नय निश्चय द्वारा निषिद्ध है।‒देखें नय - V.9.2।
- व्यवहार नय सिद्धांत विरुद्ध तथा नयाभास है।
- व्यवहार नय का विषय सदा गौण होता है।
- शुद्ध दृष्टि में व्यवहार को स्थान नहीं।
- व्यवहार नय का विषय निष्फल है।
- व्यवहार नय का आश्रय मिथ्यात्व है।
- तत्त्व निर्णय करने में लोक व्यवहार को विच्छेद होने का भय नहीं किया जाता।‒देखें निक्षेप - 3.3, नय - III.6.10 तथा नय - IV.3.10।
- व्यवहार नय की कथंचित् प्रधानता
- व्यवहार नय सर्वथा निषिद्ध नहीं है (व्यवहार दृष्टि से यह सत्यार्थ है)।
- निचली भूमिका में व्यवहार प्रयोजनीय है।
- मंद बुद्धियों के लिए व्यवहार उपकारी है।
- व्यवहार नय निश्चयनय का साधक है।‒देखें नय - V.9.2।
- व्यवहार पूर्वक ही निश्चय तत्त्व का ज्ञान होना संभव है।
- व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन शक्य नहीं।
- तीर्थ प्रवृत्ति की रक्षार्थ व्यवहार नय प्रयोजनीय है।‒देखें नय - V.8.4।
- व्यवहार व निश्चय की हेयोपादेयता का समन्वय
- परमार्थ से निश्चय व व्यवहार दोनों हेय हैं।‒देखें नय - I.3।
- निश्चय व्यवहार के विषयों का समन्वय
- निश्चय व्यवहार निषेध्य निषेधक भाव का समन्वय।‒देखें नय - V.9.2।
- नयों में परस्पर मुख्य गौण व्यवस्था।‒देखें स्याद्वाद-3 ।
- दोनों में साध्य साधन भाव का प्रयोजन दोनों की परस्पर सापेक्षता।
- दोनों की सापेक्षता का कारण व प्रयोजन।
- दोनों की सापेक्षता के उदाहरण।
- इसलिए दोनों ही नय उपादेय हैं।
- ज्ञान व क्रियानय का समन्वय।‒देखें चेतना - 3.8।
- निश्चयनय निर्देश
- नय सामान्य
- नय सामान्य निर्देश
- नय सामान्य का लक्षण
- निरुक्त्यर्थ‒
धवला १/१,१,१/ ३,४/१० उच्चारियमत्थपदं णिक्खेवं वा कयं तु दट्ठूण। अत्थं णयंति पच्चंतमिदि तदो ते णया भणिया।३। णयदि त्ति णयो भणिओ बहूहि गुण-पज्जएहि जं दव्वं। परिणामखेत्तकालं-तरेसु अविणट्ठसब्भावं।४।=उच्चारण किये अर्थ, पद और उसमें किये गये निक्षेप को देखकर अर्थात समझकर पदार्थ को ठीक निर्णय तक पहुँचा देता है, इसलिए वे नय कहलाते हैं।३। (कषाय पाहुड १/१३-१४/२१०/गाथा११८/२५९)। अनेक गुण और अनेक पर्यायों सहित, अथवा उनके द्वारा, एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में और एक काल से दूसरे काल में अविनाशी स्वभाव रूप से रहने वाले द्रव्य को जो ले जाता है, अर्थात् उसका ज्ञान करा देता है, उसे नय कहते हैं।३।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३५ जीवादीन् पदार्थान् नयन्ति प्राप्नुवन्ति, कारयन्ति, साधयन्ति, निर्वर्तयन्ति, निर्भासयन्ति, उपलम्भयन्ति, व्यञ्जयन्ति इति नय:।=जीवादि पदार्थों को जो लाते हैं, प्राप्त कराते हैं, बनाते हैं, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रगट कराते हैं, वे नय हैं।
आलाप पद्धति/181 नानास्वभावेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन्स्वभावे वस्तु नयति प्रापयतीति वा नय:।=नाना स्वभावों से हटाकर वस्तु को एक स्वभाव में जो प्राप्त कराये उसे नय कहते हैं। (नयचक्र श्रुत भवन दीपक/पृष्ठ १) (नयचक्रवृत्ति/पृष्ठ ५२६) (नयचक्रवृत्ति/सूत्र ६) (न्यायावतार टीका/पृष्ठ ८२), (स्याद्वाद मंजरी/२८/३१०/१०)।
स्याद्वाद मंजरी/२७/३०५/२८ नीयते एकदेशविशिष्टोऽर्थ: प्रतीतिविषयमाभिरिति नीतयो नया:।=जिस नीति के द्वारा एकदेश विशिष्ट पदार्थ लाया जाता है अर्थात् प्रतीति के विषय को प्राप्त कराया जाता है, उसे नय कहते हैं। (स्याद्वाद मंजरी/२८/३०७/१५)।
- वक्ता का अभिप्राय
तिलोय पण्णत्ति/१/८३ णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिदियभावत्थो।८३।=सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के हृदय के अभिप्राय को नय कहते हैं। (सिद्धि विनिश्चय/मूल/१०/२/६६३)।
धवला १/१,१,१/ ११/१७ ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते। नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रह:।११। सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, और ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। लघीयस्त्रय/का ५२); (लघीयस्त्रय स्व वृत्ति/का.३०); (प्रमाण संग्रह/श्लोक ८६); (कषाय पाहुड१/१३-१४/१६८/श्लोक ७५/२००) (धवला ३/१,२,२/ १५/१८) (धवला ९/४,१,४५/१६२/७) (पंचास्तिकाय संग्रह/तात्पर्य वृत्ति/४३/८६/१२)।
आलाप पद्धति/181 ज्ञातुभिप्रायो वा नय:।=ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं।( नयचक्रवृत्ति/१७४) (न्याय दीपिका/३/८२/१२५)।
प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ.६७६ अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नय:।=प्रतिपक्षी अर्थात् विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय है।
प्रमाणनय तत्त्वालंकार/७/१ (स्याद्वाद मंजरी/२८/३१६/२९ पर उद्धृत) प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नय इति।=वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। (स्याद्वाद मंजरी/२८/३१०/१२)।
- एकदेश वस्तुग्राही
सर्वार्थसिद्धि/१/३३/१४०/७ वस्तन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवण: प्रयोगो नय:।=अनेकान्तात्मक वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्य विशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं। (हरिवंश पुराण/५८/३९)।
सारसंग्रह से उद्धृत (कषाय पाहुड १/१३-१४/२१०/१)‒अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्युक्त्यपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय:।=अनन्तपर्यायात्मक वस्तु की किसी एक पर्याय का ज्ञान करते समय निर्दोष युक्ति की अपेक्षा से जो दोष रहित प्रयोग किया जाता है वह नय है। (धवला ९/४,१,४५/१६७/२)।
श्लोक वार्तिक २/१/६/४/३२१ स्वार्थैकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नय: स्मृत:।४।=अपने को और अर्थ को एकदेशरूप से जानना नय का लक्षण माना गया है। (श्लोक वार्तिक २/१/६/१७/३६०/११)।
नयचक्रवृत्ति/१७४ वत्थुअंससंगहणं। तं इह णयं...।-)।=वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला नय होता है। (नयचक्र वृत्ति/१७२) (कार्तिकेय अनुप्रेक्षा/मूल/२६३)।
प्रवचन सार/तात्पर्य वृत्ति/१८१/२४५/१२ क्स्त्वेकदेशपरीक्षा तावन्नयलक्षणं।=वस्तु की एकदेश परीक्षा नय का लक्षण है। (पंचास्तिकाय संग्रह/तात्पर्य वृत्ति/४६/८६/१२)।
कार्तिकेय अनुप्रेक्षा/मूल/२६४ णाणाधम्मजुदं पि य एयं धम्मं पि वुच्चदे अत्थं। तस्सेय विवक्खादो णत्थि विवक्खा हु सेसाणं।२६४।=नाना धर्मों से युक्त भी पदार्थ के एक धर्म को ही नय कहता है, क्योंकि उस समय उस ही धर्म की विवक्षा है, शेष धर्म की विवक्षा नहीं है।
पंचास्तिकाय संग्रह/पू./५०४ इत्युक्तलक्षणेऽस्मिन् विरुद्धधर्मद्वयात्मके तत्त्वे। तत्राप्यन्यतरस्य स्यादिह धर्मस्य वाचकश्च नय:।=दो विरुद्धधर्मवाले तत्त्व में किसी एक धर्म का वाचक नय होता है।
और भी देखो‒पीछे निरुक्त्यर्थ में‒’आलाप -पद्धत्ति ’ तथा ‘स्याद्वाद मंजरी’। तथा वक्तु: अभिप्राय में ‘प्रमेयकमलमार्तण्ड’।
- प्रमाण गृहीत वस्तु का एकअंश ग्राही
आप्त मीमांसा/१०६ सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यादविरोधत:। स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नय:।१०६।=साधर्मी का विरोध न करते हुए, साधर्म्य से ही साध्य को सिद्ध करने वाला तथा स्याद्वाद से प्रकाशित पदार्थों की पर्यायों को प्रगट करने वाला नय है। (धवला ९/४,१,४५/गाथा ५९/१६७) (कषाय पाहुड १/१३-१४/१७४/८३/२१०‒तत्त्वार्थभाष्य से उद्धृत)।
सर्वार्थसिद्धि/१/६/२०/७ एवं ह्युक्तं प्रगृह्य प्रमाणत: परिणतिविशेषादर्थावधारणं नय:।=आगम में ऐसा कहा है कि वस्तु को प्रमाण से जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है।
राज वार्तिक/१/३३/१/९४/२१ प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नय:।=प्रमाण द्वारा प्रकाशित किये गये पदार्थ का विशेष प्ररूपण करने वाला नय है। (श्लोक वार्तिक४/१/३३/श्लोक ६/२१८)।
आलाप पद्धत्ति/९ प्रमाणेन वस्तुसंगृहीतार्थैकांशो नय:।=प्रमाण के द्वारा संगृहीत वस्तु के अर्थ के एक अंश को नय कहते हैं। (नयचक्र/श्रुत/पृष्ठ २)। (न्याय दीपिका/३/८२/१२५/७)।
प्रमाणनयतत्त्वालंकार/७/१ से स्याद्वादमंजरी/२८/३१६/२७ पर उद्धृत‒नीयते येन श्रुताख्यानप्रमाणविषयीकृतस्य अर्थस्य अंशस्तदितरांशौदासीन्यत: स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नय: इति।=श्रुतज्ञान प्रमाण से जाने हुए पदार्थों का एक अंश जानकर अन्य अंशों के प्रति उदासीन रहते हुए वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं। (नय रहस्य/पृ.७१); (जैन तर्क/भाषा/पृष्ठ २१) (नय प्रदीप/यशोविजय/पृष्ठ ९७)।
धवला १/१,१,१/८३/९ प्रमाणपरिगृहीतार्थैकदेशे वस्त्वध्यवसायो नय:।=प्रमाण के द्वारा ग्रहण की गयी वस्तु के एक अंश में वस्तु का निश्चय करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। (धवला ९/४,१,४५/१६३/१) (कषायपाहुड १/१३-१४/१६८/१९९/४)।
धवला ९/४,१,४५/६ तथा प्रभाचन्द्रभट्टारकैरप्यभाणि‒प्रमाणव्यपाश्रयपरिणामविकल्पवशीकृतार्थविशेषप्ररूपणप्रवण: प्रणिधिर्य: स नय इति। प्रमाणव्यपाश्रयस्तत्परिणामविकल्पवशीकृतानां अर्थविशेषाणां प्ररूपणे प्रवण: प्रणिधानं प्रणिधि: प्रयोगो व्यवहारात्मा प्रयोक्ता वा स नय:।=प्रभाचन्द्र भट्टारक ने भी कहा है‒प्रमाण के आश्रित परिणाम भेदों से वशीकृत पदार्थ विशेषों के प्ररूपण में समर्थ जो प्रयोग हो है वह नय है। उसी को स्पष्ट करते हैं‒जो प्रमाण के आश्रित है तथा उसके आश्रय से होने वाले ज्ञाता के भिन्न-भिन्न अभिप्रायों के आधीन हुए पदार्थ विशेषों के प्ररूपण में समर्थ है, ऐसे प्रणिधान अर्थात् प्रयोग अथवा व्यवहार स्वरूप प्रयोक्ता का नाम नय है। (कषाय पाहुड १/१३-१४/१७५/२१०)।
स्याद्वाद मंजरी /२८/३१०/९ प्रमाणप्रतिपन्नार्थैकदेशपरमर्शो नय:।...प्रमाणप्रवृत्तेरुत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थ:। =प्रमाण से निश्चित किये हुए पदार्थों के एक अंश ज्ञान करने को नय कहते हैं। अर्थात् प्रमाण द्वारा निश्चय होने जाने पर उसके उत्तरकालभावी परामर्श को नय कहते हैं। - श्रुतज्ञान का विकल्प—
श्लोक वार्तिक २/१/६/श्लोक २७/३६७ श्रुतमूला नया: सिद्धा...।=श्रुतज्ञान को मूल कारण मान कर ही नय ज्ञानों की प्रवृत्ति होना सिद्ध माना गया है।
आलाप पद्धत्ति /९ श्रुतविकल्पो वा (नय:) =श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं। (नयचक्रवृत्ति/१७४) (कार्तिकेय अनुप्रेक्षा /मूल/२६३)।
- निरुक्त्यर्थ‒
- उपरोक्त लक्षणों का समीकरण
धवला ९/४,१,४५/१६२/७ को नयो नाम। ज्ञातुरभिप्रायो नय:। अभिप्राय इत्यस्य कोऽर्थ:। प्रमाणपरिगृहीतार्थैकदेशवस्त्वध्यवसाय: अभिप्राय:। युक्तित: प्रमाणात् अर्थपरिग्रह: द्रव्यपर्याययोरन्यतस्य अर्थ इति परिग्रहो वा नय:। प्रमाणेन परिच्छिन्नस्य वस्तुन: द्रव्ये पर्याये वा वस्त्वध्यवसायो नय इति यावत् ।=प्रश्न‒नय किसे कहते हैं? उत्तर‒ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। प्रश्न‒अभिप्राय इसका क्या अर्थ है ? उत्तर‒प्रमाण से गृहीत वस्तु के एक देश में वस्तु का निश्चय ही अभिप्राय है। (स्पष्ट ज्ञान होने से पूर्व तो) युक्ति अर्थात् प्रमाण से अर्थ के ग्रहण करने अथवा द्रव्य और पर्यायों में से किसी एक को ग्रहण करने का नाम नय है। (और स्पष्ट ज्ञान होने के पश्चात्) प्रमाण से जानी हुई वस्तु के द्रव्य अथवा पर्याय में अर्थात् सामान्य या विशेष में वस्तु के निश्चय को नय कहते हैं, ऐसा अभिप्राय है। और भी देखें - नय - III.2.2। (प्रमाण गृहीत वस्तु में नय प्रवृत्ति सम्भव है)
- नय के मूल भेदों के नाम निर्देश
तत्त्वार्थ सूत्र /१/३३ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नया:।=नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं। (हरिवंश पुराण /५८/४१), (धवला १/१,१,१/८०/५), (नयचक्रवृत्ति/१८५), (आलाप पद्धत्ति/५); (स्याद्वाद मंजरी/२८/३१०/१५); (इन सबके विशेष उत्तर भेद देखो नय - III )।
सर्वार्थसिद्धि /१/३३/१४०/८ स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।=उस (नय) के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। (सर्वार्थसिद्धि/१/६/२०/९), (राज वार्तिक /१/१/२/४/४), (राज वार्तिक/१/३३/१/९४/२५), (धवला १/१,१,१/८३/१०); (धवला.९/४,१,४५/१६७/१०), (कषाय पाहुड १/१३-१४/१७७/२११/४), (आलाप पद्धत्ति/५/गाथा ४), (नय चक्र वृत्ति/१४८), (समयसार/आत्मख्याति/१३/कलश ८ की टीका), (पंचास्तिकाय/तत्त्व प्रदीपिका/४), (स्याद्वाद मंजरी/२८/३१७/१), (इनके विशेष उत्तर भेद देखें - नय / IV )।
आलाप पद्धत्ति/५/गाथा ४ णिच्छयववहारणया मूलभेयाण ताण सव्वाणं।=सब नयों के मूल दो भेद हैं‒निश्चय और व्यवहार (नय चक्र वृत्ति/१८३), (इनके विशेष उत्तर भेद देखें - नय / V )।
कार्तिकेय अनुप्रेक्षा/मूल/२६५ सो च्चिय एक्को धम्मो वाचयसद्दो वि तस्स धम्मस्स। जं जाणदि तं णाणं ते तिण्णि वि णय विसेसा य।=वस्तु का एक धर्म अर्थात् ‘अर्थ’ इस धर्म का वाचक शब्द और उस धर्म को जानने वाला ज्ञान ये तीनों ही नय के भेद हैं। (इन नयों सम्बन्धी चर्चा देखें - नय / I / ४ )।
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५०५ द्रव्यनयो भावनय: स्यादिति भेदाद्द्विधा च सोऽपि यथा।=द्रव्यनय और भावनय के भेद से नय दो प्रकार का है। (इन सम्बन्धी लक्षण देखें - नय / I / ४ )।
देखें - नय / I / ५ (वस्तु के एक-एक धर्म को आश्रय करके नय के संख्यात, असंख्यात व अनन्त भेद हैं)।
- नयों के भेद प्रभेदों का चार्ट—
- द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक तथा निश्चय व्यवहार ही मूल भेद हैं
धवला १/१,१,१/गाथा ५/१२ तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवायरणी। दव्वट्ठियो य पज्जयणयो य सेसा वियप्पा सि।५।=तीर्थंकरों के वचनों के सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिक नय है, और उन्हीं वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिक नय है। शेष सभी नय इन दोनों नयों के विकल्प अर्थात् भेद हैं। (श्लोकवार्तिक/४/१/३३/श्लोक १२/२२३), (हरिवंशपुराण/५८/४०)।
धवला ५/१,६,१/३/१० दुविहो णिद्देसो दव्वट्ठिय पजजववट्ठिय णयावलंबणेण। तिविहो णिद्देसो किण्ण होज्ज। ण तइजस्स णयस्स अभावा।=दो प्रकार का निर्देश है; क्योंकि वह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का अवलंबन करने वाला है। प्रश्न‒तीन प्रकार का निर्देश क्यों नहीं होता है ? उत्तर‒नहीं; क्योंकि तीसरे प्रकार का कोई नय ही नहीं है।
आलाप पद्धत्ति /५/गाथा ४ णिच्छयववहारणया मूलभेयाण ताण सव्वाणं। णिच्छयसाहणहेओ दव्वयपज्जत्थिया मुणह।४। =सर्व नयों के मूल निश्चय व व्यवहार ये दो नय हैं। द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक ये दोनों निश्चयनय के साधन या हेतु हैं। (नयचक्र वृत्ति/१८३)।
- गुणार्थिक नय का निर्देश क्यों नहीं
राज वार्तिक/५/३८/३/५०१/९ यदि गुणोऽपि विद्यते, ननु चोक्तम् तद्विषयस्तृतीयो मूलनय: प्राप्तनोतीति; नैष दोष:; द्रव्यस्य द्वावात्मानौ सामान्यं विशेषश्चेति। तन्न सामान्यमुत्सर्गोऽन्वय: गुण इत्यनर्थान्तरम् । विशेषो भेद: पर्याय इति पर्यायशब्द:। तत्र सामान्यविषयो नय: द्रव्यार्थिक:। विशेषविषय: पर्यायार्थिक:। तदुभयं समुदितमयुतसिद्धरूपं द्रव्यमित्युच्यते, न तद्विषयस्तृतीयो नयो भवितुमर्हति, विकलादेशत्वान्नयानाम् । तत्समुदयोऽपि प्रमाणगोचर: सकलादेशत्वात्प्रमाणस्य। =प्रश्न‒(द्रव्य व पर्याय से अतिरिक्त) यदि गुण नाम का पदार्थ विद्यमान है तो उसको विषय करने वाली एक तीसरी (गुणार्थिक नाम की) मूल नय भी होनी चाहिए ? उत्तर‒यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि द्रव्य के सामान्य और विशेष ये दो स्वरूप हैं। सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एकार्थ शब्द हैं। विशेष, भेद और पर्याय ये पर्यायवाची (एकार्थ) शब्द हैं। सामान्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थिक नय है, और विशेष को विषय करने वाला पर्यायार्थिक। दोनों से समुदित अयुतसिद्धरूप द्रव्य है। अत: गुण जब द्रव्य का ही सामान्य रूप है तब उसके ग्रहण के लिए द्रव्यार्थिक से पृथक् गुणार्थिक नय की कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि, नय विकलादेशी है और समुदाय रूप द्रव्य सकलादेशी प्रमाण का विषय होता है। (श्लोकवार्तिक ४/१/३३/श्लोक ८/२२०); (प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका/११४)।
धवला ५/१,६,१/३/११ तं पि कधं णव्वदे। संगहासंगहवदिरित्ततव्विसयाणुवलंभादो।=प्रश्न‒यह कैसे जाना कि तीसरे प्रकार का कोई नय नहीं है? उत्तर‒क्योंकि संग्रह और असंग्रह अथवा सामान्य और विशेष को छोड़कर किसी अन्य नय का विषयभूत कोई पदार्थ नहीं पाया जाता।
- नय सामान्य का लक्षण
- नय-प्रमाण सम्बन्ध
- नय व प्रमाण में कथंचित् अभेद
धवला १/१,१,१/८०/९ कथं नयानां प्रामाण्यं। न प्रमाणकार्याणां नयानामुपचारत: प्रामाण्याविरोधात् ।=प्रश्न‒नयों में प्रमाणता कैसे सम्भव है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि नय प्रमाण के कार्य हैं ( देखें - नय / II / २ ), इसलिए उपचार से नयों में प्रमाणता के मान लेने में कोई विरोध नहीं आता।
स्याद्वाद मंजरी/२८/३०९/२१ मुख्यवृत्त्या च प्रमाणस्यैव प्रामाण्यम् । यच्च अत्र नयानां प्रमाणतुल्यकक्षताख्यापनं तत् तेषामनुयोगद्वारभूततया प्रज्ञापनाङ्गत्वज्ञापनार्थम् ।=मुख्यता से तो प्रमाण को ही प्रमाणता (सत्यपना) है, परन्तु अनुयोगद्वार से प्रज्ञापना तक पहुँचने के लिए नयों को प्रमाण के समान कहा गया है। (अर्थात् सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में कारणभूत होने से नय भी उपचार से प्रमाण है।)
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/६७९ ज्ञानविशेषो नय इति ज्ञानविशेष: प्रमाणमिति नियमात् । उभयोरन्तर्भेदो विषयविशेषान्न वस्तुतो।=जिस प्रकार नय ज्ञानविशेष है उसी प्रकार प्रमाण भी ज्ञान विशेष है, अत: दोनों में वस्तुत: कोई भेद नहीं है।
- नय व प्रमाण में कथंचित् भेद
धवला ९/४,१,४५/१६३/४ प्रमाणमेव नय: इति केचिदाचक्षते, तन्न घटते; नयानामभावप्रसंगात् । अस्तु चेन्न नयाभावे एकान्तव्यवहारस्य दृश्यमानस्याभावप्रसङ्गात् ।=प्रमाण ही नय है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने पर नयों के अभाव का प्रसंग आता है। यदि कहा जाये कि नयों का अभाव हो जाने दो, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे देखे जाने वाले (जगत्प्रसिद्ध) एकान्त व्यवहार के (एक धर्म द्वारा वस्तु का निरूपण करने रूप व्यवहार के) लोप का प्रसंग आता है।
देखें - सप्तभंगी-2.3 (स्यात्कारयुक्त प्रमाणवाक्य होता है और उससे रहित नय-वाक्य)।
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५०७,६७९ ज्ञानविकल्पो नय इति तत्रेयं प्रक्रियापि संयोज्या। ज्ञानं ज्ञानं न नयो नयोऽपि न ज्ञानमिह विकल्पत्वात् ।५०७। उभयोरन्तर्भेदो विषयविशेषान्न वस्तुत:।६७९।=ज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं, इसलिए ज्ञान ज्ञान है और नय नय है। ज्ञान नय नहीं और नय ज्ञान नहीं। (इन दोनों में विषय की विशेषता से ही भेद हैं, वस्तुत: नहीं)।
- श्रुत प्रमाण में ही नय होती है अन्य ज्ञानों में नहीं
श्लोकवार्तिक २/१/६/श्लोक २४-२७/३६६ मतेरवधितो वापि मन:पर्ययतोपि वा। ज्ञातस्यार्थस्य नांशोऽस्ति नयानां वर्तंनं ननु।२४। नि:शेषदेशकालार्थागोचरत्वविनिश्चयात् । तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टितम् ।२५। त्रिकालगोचराशेषपदार्थांशेषु वृत्तित:। केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते।२६। परोक्षाकारतावृत्ते: स्पष्टत्वात् केवलस्य तु। श्रुतमूला नया: सिद्धा वक्ष्यमाणा: प्रमाणवत् ।२७।=प्रश्न‒(नय-I/१/१/४ में ऐसा कहा गया है कि प्रमाण से जान ली गयी वस्तु के अंशों में नय ज्ञान प्रवर्तता है) किन्तु मति, अवधि व मन:पर्यय इन तीन ज्ञानों से जान लिये गये अर्थ के अंशों में तो नयों की प्रवृत्ति नहीं हो रही है, क्योंकि वे तीनों सम्पूर्ण देश व काल के अर्थों को विषय करने को समर्थ नहीं हैं, ऐसा विशेषरूप से निर्णीत हो चुका है। (और नयज्ञान की प्रवृत्ति सम्पूर्ण देशकालवर्ती वस्तु का समीचीन ज्ञान होने पर ही मानी गयी है‒ देखें - नय / II / २ )। उत्तर‒आपकी बात युक्त है और वह हमें इष्ट है। प्रश्न‒त्रिकालगोचर अशेष पदार्थों के अंशों में वृत्ति होने के कारण केवलज्ञान को नय का मूल मान लें तो? उत्तर‒यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि अपने विषयों की परोक्षरूप से विकल्पना करते हुए ही नय की प्रवृत्ति होती है, प्रत्यक्ष करते हुए नहीं। किन्तु केवलज्ञान का प्रतिभास तो स्पष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष होता है। अत: परिशेष न्याय से श्रुतज्ञान को मूल मानकर ही नयज्ञानों की प्रवृत्ति होना सिद्ध है।
- प्रमाण व नय में कथंचित् प्रधान व अप्रधानपना
सर्वार्थसिद्धि/१/६/२०/६ अभ्यर्हितत्वात्प्रमाणस्य पूर्वनिपात:।...कुतोऽभ्यर्हितत्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात् ।=सूत्र में ‘प्रमाण’ शब्द पूज्य होने के कारण पहले रखा गया है। नय प्ररूपणा का योनिभूत होने के कारण प्रमाण श्रेष्ठ है। (राज वार्तिक/१/६/१/३३/४)
नय चक्र /श्रुत/३२ न ह्येवं, व्यवहारस्य पूज्यतरत्वान्निश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् । ननु प्रमाणलक्षणो योऽसौ व्यवहार: स व्यवहारनिश्चयमनुभयं च गृह्णन्नप्यधिकविषयत्वात्कथं न पूज्यतमो। नैवं नयपक्षातीतमानं कर्तुमशक्यत्वात् । तद्यथा। निश्चयं गृह्णन्नपि अन्ययोगव्यवच्छेदनं न करोतीत्यन्ययोगव्यवच्छेदाभावे व्यवहारलक्षणभावक्रियां निरोद्धुमशक्त:। अत एव ज्ञानचैतन्ये स्थापयितुमशक्य एवात्मानमिति।=व्यवहारनय पूज्यतर है और निश्चयनय पूज्यतम है। (दोनों नयों की अपेक्षा प्रमाण पूज्य नहीं है)। प्रश्न‒प्रमाण ज्ञान व्यवहार को, निश्चय को, उभय को तथा अनुभय को विषय करने के कारण अधिक विषय वाला है। फिर भी उसको पूज्यतम क्यों नहीं कहते ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि इसके द्वारा आत्मा को नयपक्ष से अतीत नहीं किया जा सकता वह ऐसे कि‒निश्चय को ग्रहण करते हुए भी वह अन्य के मत का निषेध नहीं करता है, और अन्यमत निराकरण न करने पर वह व्यवहारलक्षण भाव व क्रिया को रोकने में असमर्थ होता है, इसीलिए यह आत्मा को चैतन्य में स्थापित करने के लिए असमर्थ रहता है।
- प्रमाण का विषय सामान्य विशेष दोनों है—
परीक्षा मुख/४/१,२ सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषय:।१। अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्पूर्वोत्तराकारापरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च।२। =सामान्य विशेष स्वरूप अर्थात् द्रव्य और पर्याय स्वरूप पदार्थ प्रमाण का विषय है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ में अनुवृत्त प्रत्यय (सामान्य) और व्यावृत्त प्रत्यय (विशेष) होते हैं। तथा पूर्व आकार का त्याग, उत्तर आकार की प्राप्ति और स्वरूप की स्थितिरूप परिणामों से अर्थक्रिया होती है।
- प्रमाण अनेकान्तग्राही है और नय एकान्तग्राही
स्वयम्भू स्तोत्र/१०३ अनेकान्तोऽप्यनेकान्त: प्रमाणनयसाधन:। अनेकान्त: प्रमाणान्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नायात् ।१८।=आपके मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनों को लिये हुए अनेकान्त स्वरूप है। प्रमाण की दृष्टि से अनेकान्त रूप सिद्ध होता है और विवक्षित नय की अपेक्षा से एकान्त रूप सिद्ध होता है।
राज वार्तिक/१६/७/३५/२८ सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते। सम्यग्नेकान्त: प्रमाणम् । नयार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवणत्वात्, प्रमाणार्पणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात् ।=सम्यगेकान्त नय कहलाता है और सम्यगनेकान्त प्रमाण। नय विवक्षा वस्तु के एक धर्म का निश्चय कराने वाली होने से एकान्त है और प्रमाणविवक्षा वस्तु के अनेक धर्मों की निश्चय स्वरूप होने के कारण अनेकान्त है। (न्यायदीपिका/३/२५/१२९/१)। (सप्तभंगीतरंगीनी./७४/४) (पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/३३४)।
धवला ९/४,१,४५/१६३/५ किं च न प्रमाणं नय: तस्यानेकान्तविषयत्वात् । न नय: प्रमाणम्, तस्यैकान्तविषयत्वात् । न च ज्ञानमेकान्तविषयमस्ति, एकान्तस्य नीरूपत्वतोऽवस्तुन: कर्मरूपत्वाभावात् । न चानेकान्तविषयो नयोऽस्ति, अवस्तुनि वस्त्वर्पणाभावात् । प्रमाण नय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका विषय अनेक धर्मात्मक वस्तु हैं। न नय प्रमाण हो सकता है, क्योंकि, उसका एकान्त विषय है। और ज्ञान एकान्त को विषय करने वाला है नहीं, क्योंकि, एकान्त नीरूप होने से अवस्तुस्वरूप है, अत: वह कर्म (ज्ञान का विषय) नहीं हो सकता। तथा नय अनेकान्त को विषय करने वाला नहीं है, क्योंकि, अवस्तु में वस्तु का आरोप नहीं हो सकता।
प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका/परिशिष्ठ का अन्त‒ प्रत्येकमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयैर्निरूप्यमाणं...अनन्तधर्माणां परस्परमतद्भावमात्रेणाशक्यविवेचनत्वादमेचकस्वभावैकधर्मव्यापकैकधर्मित्वाद्यथोदितैकान्तात्मात्मद्रव्यम् । युगपदनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याख्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणेन निरूप्यमाणं तु...अनन्तधर्माणां वस्तुत्वेनाशक्यविवेचनत्वान्मेचकस्वभावानन्तधर्मव्याप्येकधर्मित्वात् यथोदितानेकान्तात्मात्मद्रव्यं। =एक एक धर्म में एक एक नय, इस प्रकार अनन्त धर्मों में व्यापक अनन्त नयों से निरूपण किया जाय तो, अनन्तधर्मों को परस्पर अतद्भावमात्र से पृथक् करने में अशक्य होने से, आत्मद्रव्य अमेचकस्वभाव वाला, एकधर्म में व्याप्त होने वाला, एक धर्मी होने से यथोक्त एकान्तात्मक है। परन्तु युगपत् अनन्त धर्मों में व्यापक ऐसे अनन्त नयों में व्याप्य होने वाला एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण से निरूपण किया जाय तो, अनन्तधर्मों को वस्तुरूप से पृथक् करना अशक्य होने से आत्मद्रव्य मेचकस्वभाववाला, अनन्त धर्मों में व्याप्त होने वाला, एक धर्मी होने से यथोक्त अनेकान्तात्मक है।
- प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी
सर्वार्थसिद्धि/१/६/२०/८ में उद्धृत‒सकलादेश: प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति।=सकलादेश प्रमाण का विषय है और विकलादेश नय का विषय है। (राज वार्तिक/१/६/३/३३/९), (पंचास्तिकाय/तात्त्पर्य वृत्ति/१४/३२/१९) (और भी देखें - सप्तभंगी / २ ) (विशेष देखें - सकलादेश विकलादेश )।
- प्रमाण सकल वस्तुग्राहक है और नय तदंशग्राहक
नय चक्र वृत्ति/२४७ इदि तं पमाणविसयं सत्तारूवं खु जं हवे दव्वं। णयविसयं तस्संसं सियभणितं तं पि पुव्वुत्तं।२४७।=केवल सत्तारूप द्रव्य अर्थात् सम्पूर्ण धर्मों की निर्विकल्प अखण्ड सत्ता प्रमाण का विषय है और जो उसके अंश अर्थात् अनेकों धर्म कहे गये हैं वे नय के विषय हैं। (विशेष दे. नय - I.1.1.3 )।
आलाप पद्धत्ति /९ सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणं।=सकल वस्तु अर्थात् अखण्ड वस्तु ग्राहक प्रमाण है।
धवला ९/४,१,४५/१६६/१ प्रकर्षेण मानं प्रमाणम्, सकलादेशीत्यर्थ:। तेन प्रकाशितानां प्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थ:। तेषामर्थानामस्तित्वनास्तित्व-नित्यत्वानित्यत्वाद्यननन्तात्मकानां जीवादीनां ये विशेषा: पर्याया: तेषां प्रकर्षेण रूपक: प्ररूपक: निरुद्धदोषानुषङ्गद्वारेणेत्यर्थ:।=प्रकर्ष से अर्थात् संशयादि से रहित वस्तु का ज्ञान प्रमाण है। अभिप्राय यह है कि जो समस्त धर्मों को विषय करने वाला हो वह प्रमाण है, उससे प्रकाशित उन अस्तित्वादि व नित्यत्व अनित्यत्वादि अनन्त धर्मात्मक जीवादिक पदार्थों के जो विशेष अर्थात् पर्यायें हैं, उनका प्रकर्ष से अर्थात् संशय आदि दोषों से रहित होकर निरूपण करने वाला नय है। (कषायपाहुड १/१३-१४/१७४/२१०/३)।
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/६६६ अयमर्थोऽर्थविकल्पो ज्ञानं किल लक्षणं स्वतस्तस्य। एकविकल्पो नयस्यादुभयविकल्प: प्रमाणमिति बोध:।६६६। तत्रोक्तं लक्षणमिह सर्वस्वग्राहकं प्रमाणमिति। विषयो वस्तुसमस्तं निरंशदेशादिभूरुदाहरणम् ।६७६।=ज्ञान अर्थाकार होता है। वही प्रमाण है। उसमें केवल सामान्यात्मक या केवल विशेषात्मक विकल्प नय कहलाता है और उभय विकल्पात्मक प्रमाण है।६६६। वस्तु का सर्वस्व ग्रहण करना प्रमाण का लक्षण है। समस्त वस्तु उसका विषय है और निरंशदेश आदि ‘भू’ उसके उदाहरण हैं।६७६।
- प्रमाण सब धर्मों को युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रम से एक एक को
धवला ९/४,१,४५/१६३ किं च, न प्रमाणेन विधिमात्रमेव परिच्छिद्यते, परव्यावृत्तिमनादधानस्य तस्य प्रवृत्ते साङ्कर्यप्रसङ्गादप्रतिपत्तिसमानताप्रसङ्गो वा। न प्रतिषेधमात्रम्, विधिमपरिछिंदानस्य इदमस्माद् व्यावृत्तमिति गृहीतुमशक्यत्वात् । न च विधिप्रतिषेधौ मिथो भिन्नौ प्रतिभासेत, उभयदोषानुषङ्गात् । ततो विधिप्रतिषेधात्मकं वस्तु प्रमाणसमधिगम्यमिति नास्त्येकान्तविषयं विज्ञानम् ।...प्रमाणपरिगृहीतवस्तुनि यो व्यवहार एकान्तरूप: नयनिबन्धन:। तत: सकलो व्यवहारो नयाधीन:।=प्रमाण केवल विधि या केवल प्रतिषेध को नहीं जानता; क्योंकि, दूसरे पदार्थों की व्यावृत्ति किये बिना ज्ञान में संकरता का या अज्ञानरूपता का प्रसंग आता है, और विधि को जाने बिना ‘यह इससे भिन्न है’ ऐसा ग्रहण करना अशक्य है। प्रमाण में विधि व प्रतिषेध दोनों भिन्न-भिन्न भी भासित नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसा होने पर पूर्वोक्त दोनों दोषों का प्रसंग आता है। इस कारण विधि प्रतिषेधरूप वस्तु प्रमाण का विषय है। अतएव ज्ञान एकान्त (एक धर्म) को विषय करने वाला नहीं है।‒प्रमाण से गृहीत वस्तु में जो एकान्त रूप व्यवहार होता है वह नय निमित्तक है। ( नय - V.9.4) (पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/६६५)।
नय चक्र वृत्ति/७१ इत्थित्ताइसहावा सव्वा सब्भाविणो ससब्भावा। उहयं जुगवपमाणं गहइ णओ गउणमुक्खभावेण।७१।=अस्तित्वादि जितने भी वस्तु के निज स्वभाव हैं, उन सबको अथवा विरोधी धर्मों को युगपत् ग्रहण करने वाला प्रमाण है, और उन्हें गौण मुख्य भाव से ग्रहण करने वाला नय है।
न्याय दीपिका/३/८५/१२९/१ अनियतानेकधर्मवद्वस्तुविषयत्वात्प्रमाणस्य, नियतैकधर्मवद्वस्तुविषयत्वाच्च नयस्य।=अनियत अनेक धर्म विशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला प्रमाण है और नियत एक धर्म विशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला नय है। (पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/६८०)। (और भी दे०‒ अनेकांत-5.4)।
- प्रमाण स्यात्पद युक्त होने से सर्व नयात्मक होता है
स्वयम्भू स्तोत्र/६५ नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे, रसोपविद्धा इव लोहधातव:। भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्या: प्रणता हितैषिण:।=जिस प्रकार रसों के संयोग से लोहा अभीष्ट फल का देने वाला बन जाता है, इसी तरह नयों में ‘स्यात्’ शब्द लगाने से भगवान् के द्वारा प्रतिपादित नय इष्ट फल को देते हैं। (स्याद्वादमंजरी/२८/३२१/३ पर उद्धृत)।
राज वार्तिक/१/७/५/३८/१५ तदुभयसंग्रह: प्रमाणम् ।=द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक दोनों नयों का संग्रह प्रमाण है। (पं.सं./पू./६६५)।
स्याद्वादमंजरी/२८/३२१/१ प्रमाणं तु सम्यगर्थनिर्णयलक्षणं सर्वनयात्मकम् । स्याच्छब्दलाञ्छितानां नयानामेव प्रमाणव्यपदेशभाक्त्वात् । तथा च श्री विमलनाथस्तवे श्रीसमन्तभद्र:।=सम्यक् प्रकार से अर्थ के निर्णय करने को प्रमाण कहते हैं। प्रमाण सर्वनय रूप होता है। क्योंकि नय वाक्यों में ‘स्यात्' शब्द लगाकर बोलने को प्रमाण कहते हैं। श्री समन्त स्वामी ने भी यही बात स्वयंभू स्तोत्र में विमलनाथ स्वामी की स्तुति करते हुए कही है। (देखें - प्रमाण )।
- प्रमाण व नय के उदाहरण
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/७४७-७६७ तत्त्वमनिर्वचनीयं शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतम् । गुणपर्ययवद्द्रव्यं पर्यायार्थिकनयस्य पक्षोऽयम् ।७४७। यदिदमनिर्वचनीयं गुणपर्ययवत्तदेव नास्त्यन्यत् । गुणपर्ययवद्यदिदं तदेव तत्त्वं तथा प्रमाणमिति।७४८।=’तत्त्व अनिर्वचनीय है’ यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का पक्ष है और ‘द्रव्य गुणपर्यायवान है’ यह पर्यायार्थिक नय का पक्ष है।७४७। जो यह अनिर्वचनीय है वही गुणपर्यायवान है, कोई अन्य नहीं, और जो यह गुणपर्यायवान् है वही तत्त्व है, ऐसा प्रमाण का पक्ष है।७४८।
- नय के एकान्तग्राही होने में शंका
धवला ९/४,१,४७/२३९/५ एयंतो अवत्थू कधं ववहारकारणं। एयंतो अवत्थूण संववहारकारणं किंतु तक्कारणमणेयंतो पमाणविसईकओ, वत्थुत्तादो। कधं पुण णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि। वुच्चदे‒को एवं भणदि णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि। पमाणं पमाणविसईकयट्ठा च सयलसंववहाराणंकारणं। किंतु सव्वो संववहारो पमाणणिबंधणो णयसरूवो त्ति परूवेमो, सव्वसंववहारेसु गुण-पहाणभावोवलंभादो।=प्रश्न‒जब कि एकान्त अवस्तु स्वरूप है, तब वह व्यवहार का कारण कैसे हो सकता है ? उत्तर‒अवस्तु स्वरूप एकान्त संव्यवहार का कारण नहीं है, किन्तु उसका कारण प्रमाण से विषय किया गया अनेकान्त है, क्योंकि वह वस्तु स्वरूप है। प्रश्न‒यदि ऐसा है तो फिर सब संव्यवहारों का कारण नय कैसे हो सकता है ? उत्तर‒इसका उत्तर कहते हैं‒कौन ऐसा कहता है कि नय सब संव्यवहारों का कारण है; या प्रमाण तथा प्रमाण से विषय किये गये पदार्थ भी समस्त संव्यवहारों के कारण हैं? किन्तु प्रमाण निमित्तक सब संव्यवहार नय स्वरूप हैं, ऐसा हम कहते हैं, क्योंकि सब संव्यवहार में गौणता प्रधानता पायी जाती है। विशेष‒ देखें - नय / II / २ ।
- नय व प्रमाण में कथंचित् अभेद
- नय की कथंचित् हेयोपादेयता
- तत्त्व नय पक्षों से अतीत है
समयसार/मूल/१४२ कम्मं बद्धमबद्धे जीवे एव तु जाण णयपक्खं। पक्खातिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो।१४२।=जीव में कर्म बद्ध है अथवा अबद्ध है इस प्रकार तो नयपक्ष जानो, किन्तु जो पक्षातिक्रान्त कहलाता है वह समयसार है। (नय चक्र /श्रुत/२९/१)।
नय चक्र /श्रुत/३२‒प्रत्यक्षानुभूतिर्नयपक्षातीत:।=प्रत्यक्षानुभूति ही नय पक्षातीत है।
- नय पक्ष कथंचित् हेय है
समयसार/आत्मख्याति/परिशिष्ठ/कलश २७० चित्रात्मशक्तिसमुदायमथोऽयमात्मा, सद्य: प्रणश्यति नयेक्षणखण्डयमान:। तस्मादखण्डमनिराकृतखण्डमेकमेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोस्मि।२७०।=आत्मा में अनेक शक्तियाँ हैं, और एक-एक शक्ति का ग्राहक एक-एक नय है इसलिए यदि नयों की एकान्त दृष्टि से देखा जाये तो आत्मा का खण्ड-खण्ड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होने से स्याद्वादी, नयों का विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तु को अनेक शक्ति समूह रूप सामान्य विशेष रूप सर्व शक्तिमय एक ज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है, इसमें कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें - अनेकांत-2.6 ), (पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५१०)। - नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं
समयसार/मूल/१४३ दोण्हविणयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धा। ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो।=नय पक्ष से रहित जीव समय से प्रतिबद्ध होता हुआ, दोनों ही नयों के कथन को मात्र जानता ही है, किन्तु नय पक्ष को किंचित् मात्र भी ग्रहण नहीं करता। - नय पक्ष को हेय कहने का कारण व प्रयोजन
समयसार/आत्मख्याति/१४४/कलश ९३-९५ आक्रामन्नविकल्पभावनचलं पक्षैर्नयानां विना, सारो य: समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमान: स्वयम् । विज्ञानैकरस: स एष भगवान्पुण्य: पुराण: पुमान्, ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोऽप्ययम् ।९३। दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो, दूरादेव विवकेनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् । विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्मा हरन्, आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ।९४। विकल्पक: परं कर्ता विकल्प: कर्म केवलम् । न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति।९५।=नयों के पक्षों से रहित अचल निर्विकल्प भाव को प्राप्त होता हुआ, जो समय का सार प्रकाशित करता है, वह यह समयसार, जो कि आत्मलीन पुरुषों के द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है, वह विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान् है, पवित्र पुराण पुरुष है। उसे चाहे ज्ञान कहो या दर्शन वह तो यही (प्रत्यक्ष) ही है, अधिक क्या कहें ? जो कुछ है, सो यह एक ही है।९३। जैसे पानी अपने समूह से च्युत होता हुआ दूर गहन वन में बह रहा हो, उसे दूर से ही ढाल वाले मार्ग के द्वारा अपने समूह की ओर बल पूर्वक मोड़ दिया जाये, तो फिर वह पानी, पानी को पाने के लिए समूह की ओर खेंचता हुआ प्रवाह-रूप होकर अपने समूह में आ मिलता है। इसी प्रकार यह आत्मा अपने विज्ञानघनस्वभाव से च्युत होकर प्रचुर विकल्पजालों के गहन वन में दूर परिभ्रमण कर रहा था। उसे दूर से ही विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा अपने विज्ञानघनस्वभाव की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया। इसलिए केवल विज्ञानघन के ही रसिक पुरुषों को जो एक विज्ञान रसवाला ही अनुभव में आता है ऐसा वह आत्मा, आत्मा को आत्मा में खींचता हुआ, सदा विज्ञानघनस्वभाव में आ मिलता है।९४। (समयसार/आत्मख्याति/१४४)। विकल्प करने वाला ही केवल कर्ता है, और विकल्प ही केवल कर्म हैं, जो जीव विकल्प सहित है, उसका कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता।९५।
नियमसार/तात्त्पर्यवृत्ति/४८/कलश ७२ शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्यादृशि प्रत्यहं, शुद्धं कारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्दृशि प्रत्यहं। इत्थं य: परमागमार्थमतुलं जानाति सदृक् स्वयं, सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ।७२।=शुद्ध अशुद्ध की जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टि को सदैव होती है; सम्यग्दृष्टि को तो सदा कारणतत्त्व और कार्यतत्त्व दोनों शुद्ध हैं। इस प्रकार परमागम के अतुल अर्थ को, सारासार के विचार वाली सुन्दर बुद्धि द्वारा, जो सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते हैं। समयसार/तात्त्पर्यवृत्ति/१४४/२०२/१३ समस्तमतिज्ञानविकल्परहित: सन् बद्धाबद्धादिनयपक्षपातरहित: समयसारमनुभवन्नेव निर्विकल्पसमाधिस्थै: पुरुषैर्दृश्यते ज्ञायते च यत आत्मा तत: कारणात् नवरि केवलं सकलविमलकेवलदर्शनज्ञानरूपव्यपदेशसंज्ञां लभते। न च बद्धाबद्धादिव्यपदेशाविति।=समस्त मतिज्ञान के विकल्पों से रहित होकर बद्धाबद्ध आदि नयपक्षपात से रहित समयसार का अनुभव करके ही, क्योंकि, निर्विकल्प समाधि में स्थित पुरुषों द्वारा आत्मा देखा जाता है, इसलिए वह केवलदर्शन ज्ञान संज्ञा को प्राप्त होता है, बद्ध या अबद्ध आदि व्यपदेश को प्राप्त नहीं होता। (समयसार/तात्त्पर्यवृत्ति/१३/३२/७)।
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५०६ यदि वा ज्ञानविकल्पो नयो विकल्पोऽस्ति सोऽप्यपरमार्थ:। नयतो ज्ञानं गुण इति शुद्धं ज्ञेयं च किंतु तद्योगात् ।५०६।=अथवा ज्ञान के विकल्प का नाम नय है और वह विकल्प भी परमार्थभूत नहीं है, क्योंकि वह ज्ञान के विकल्परूप नय न तो शुद्ध ज्ञानगुण ही है और न शुद्ध ज्ञेय ही, परन्तु ज्ञेय के सम्बन्ध से होने वाला ज्ञान का विकल्प मात्र है। स.सा./पं.जयचन्द/१२/क.६ भाषार्थ‒यदि सर्वथा नयों का पक्षपात हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है। - परमार्थ से निश्चय व व्यवहार दोनों ही का पक्ष विकल्परूप होने से हेय है
समयसार/आत्मख्याति/१४२ यस्तावज्जीवे बद्धं कर्मेति विकल्पयति स जीवेऽबद्धं कर्मेति एकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति। यस्तु जीवेऽबद्धं कर्मेति विकल्पयति सोऽपि जीवे बद्धं कर्मेत्येकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति। य: पुनर्जीवे बद्धमबद्धं च कर्मेति विकल्पयति स तु तं द्वितयमपि पक्षमनतिक्रामन्न विकल्पमतिक्रामति। ततो य एव समस्तनयपक्षमतिक्रामति स एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति। य एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति स एव समयसारं विन्दति।८।=’जीव में कर्म बन्धा है’ जो ऐसा एक विकल्प करता है, वह यद्यपि ‘जीव में कर्म नहीं बन्धा है’ ऐसे एक पक्ष को छोड़ देता है, परन्तु विकल्प को नहीं छोड़ता। जो ‘जीव में कर्म नहीं बन्धा है’ ऐसा विकल्प करता है, वह पहले ‘जीव में कर्म बन्धा है’ इस पक्ष को यद्यपि छोड़ देता है, परन्तु विकल्प को नहीं छोड़ता। जो ‘जीव में कर्म कथंचित् बन्धा है और कथंचित् नहीं भी बन्धा है’ ऐसा उभयरूप विकल्प करता है, वह तो दोनों ही पक्षों को नहीं छोड़ने के कारण विकल्प को नहीं छोड़ता है। (अर्थात् व्यवहार या निश्चय इन दोनों में से किसी एक नय का अथवा उभय नय का विकल्प करने वाला यद्यपि उस समय अन्य नय का पक्ष नहीं करता पर विकल्प तो करता ही है), समस्त नयपक्ष का छोड़ने वाला ही विकल्पों को छोड़ता है और वही समयसार का अनुभव करता है।
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/६४५-६४८ ननु चैवं परसमय: कथं स निश्चयनयावलम्बी स्यात् । अविशेषादपि स यथा व्यवहारनयावलम्बी य:।६४५।=प्रश्न‒व्यवहार नयावलम्बी जैसे सामान्य रूप से भी परसमय होता है, वैसे ही निश्चयनयावलम्बी परसमय कैसे हो सकता है।६४५। उत्तर‒(उपरोक्त प्रकार यहाँ भी दोनों नयों को विकल्पात्मक कहकर समाधान किया है)।६४६-६४८। - प्रत्यक्षानुभूति के समय निश्चयव्यवहार के विकल्प नहीं रहते
नय चक्र वृत्ति/२६६ तच्चाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण। णो आराहणसमये पच्चक्खो अणुहओ जम्हा।=तत्त्वान्वेषण काल में ही युक्तिमार्ग से अर्थात् निश्चय व्यवहार नयों द्वारा आत्मा जाना जाता है, परन्तु आत्मा की आराधना के समय वे विकल्प नहीं होते, क्योंकि उस समय तो आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही है। नय चक्र/श्रुत/३२ एवमात्मा यावद्व्यवहारनिश्चयाभ्यां तत्त्वानुभूति: तावत्परोक्षानुभूति:। प्रत्यक्षानुभूति: नयपक्षातीत:।=आत्मा जब तक व्यवहार व निश्चय के द्वारा तत्त्व का अनुभव करता है तब तक उसे परोक्ष अनुभूति होती है, प्रत्यक्षानुभूति तो नय पक्षों से अतीत है।
समयसार/आत्मख्याति/१४३ तथा किल य: व्यवहारनिश्चयनयपक्षयो:... परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुकतया स्वरूपमेव केवलं जानाति न तु...चिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् ...समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कथंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति स खलु निखिलविकल्पेभ्य: परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्र: समयसार:।=जो श्रुतज्ञानी, पर का ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होने से, व्यवहार व निश्चय नयपक्षों के स्वरूप को केवल जानता ही है, परन्तु चिन्मय समय से प्रतिबद्धता के द्वारा, अनुभव के समय स्वयं ही विज्ञानघन हुआ होने से, तथा समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुआ होने से, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह वास्तव में समस्त विकल्पों से पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है। पुरूषार्थसिद्धि उपाय/८ व्यवहारनिश्चयौ य: प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थ:। प्राप्नोति देशनाया: स एव फलमविकलं शिष्य:।=जो जीव व्यवहार और निश्चय नय के द्वारा वस्तुस्वरूप को यथार्थरूप जानकर मध्यस्थ होता है अर्थात् उभय नय के पक्ष से अतिक्रान्त होता है, वही शिष्य उपदेश के सकल फल को प्राप्त होता है।
समयसार/तात्त्पर्यवृत्ति/१४२ का अन्तिम वाक्य/१९९/११ समयाख्यानकाले या बुद्धिर्नयद्वयात्मिका वर्तते, बुद्धतत्त्वस्य सा स्वस्थस्य निवर्तते, हेयोपादेयतत्त्वे तु विनिश्चित्य नयद्वयात्, त्यक्त्वा हेयमुपादेयेऽवस्थानं साधुसम्मतं।=तत्त्व के व्याख्यान काल में जो बुद्धि निश्चय व व्यवहार इन दोनों रूप होती है, वही बुद्धि स्व में स्थित उस पुरुष की नहीं रहती जिसने वास्तविक तत्त्व का बोध प्राप्त कर लिया होता है; क्योंकि दोनों नयों से हेय व उपादेय तत्त्व का निर्णय करके हेय को छोड़ उपादेय में अवस्थान पाना ही साधु सम्मत है। - परन्तु तत्त्व निर्णयार्थ नय कार्यकारी है
तत्त्वार्थसूत्र/१/६ प्रमाणनयैरधिगम:।=प्रमाण और नय से पदार्थ का ज्ञान होता है।धवला १/१,१,१/गाथा१०/१६ प्रमाणनयनिक्षेपैर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते। युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ।१०।=जिस पदार्थ का प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा नयों के द्वारा या निक्षेपों के द्वारा सूक्ष्म दृष्टि से विचार नहीं किया जाता है, वह पदार्थ कभी युक्त होते हुए भी अयुक्त और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्त की तरह प्रतीत होता है।१०। (धवला ३/१,२,१५/गाथा ६१/१२६), (तिलोयपण्णति/१/८२)
धवला १/१,१,१/गाथा ६८-६९/९१ णत्थि णएहिं विहूणं सुत्तं अत्थो व्व जिणवरमदम्हि। तो णयवादे णिउणा मुणिणो सिद्धंतिया होंति।६८। तम्हा अहिगय सुत्तेण अत्थसंपायणम्हि जइयव्वं। अत्थ गई वि य णयवादगहणलीणा दुरहियम्मा।६९।=जिनेन्द्र भगवान् के मत में नयवाद के बिना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं कहा गया है। इसलिए जो मुनि नयवाद में निपुण होते हैं वे सच्चे सिद्धान्त के ज्ञाता समझने चाहिए।६८। अत: जिसने सूत्र अर्थात् परमागम को भले प्रकार जान लिया है, उसे ही अर्थ संपादन में अर्थात् नय और प्रमाण के द्वारा पदार्थ का परिज्ञान करने में, प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि पदार्थों का परिज्ञान भी नयवादरूपी जंगल में अन्तर्निहित है अतएव दुरधिगम्य है।६९। कषायपाहुड १/१३-१४/१७६/गाथा ८५/२११ स एष याथात्म्योपलब्धिनिमित्तत्वाद्भावनां श्रेयोऽपदेश:।८५।=यह नय, पदार्थों का जैसा का जैसा स्वरूप है उस रूप से उनके ग्रहण करने में निमित्त होने से मोक्ष का कारण है। (धवला ९/४,१,४५/१६६/९)।
धवला १/१,१,१/८३/९ नयैर्विना लोकव्यवहारानुपपत्तेर्नया उच्यन्ते।=नयों के बिना लोक व्यवहार नहीं चल सकता है। इसलिए यहाँ पर नयों का वर्णन करते हैं। कषायपाहुड १/१३-१४/१७४/२०९/७ प्रमाणादिव नयवाक्याद्वस्त्ववगममवलोक्य प्रमाणनयैर्वस्त्वधिगम: इति प्रतिपादितत्वात् ।=जिस प्रकार प्रमाण से वस्तु का बोध होता है, उसी प्रकार नय से भी वस्तु का बोध होता है, यह देखकर तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण और नयों से वस्तु का बोध होता है, इस प्रकार प्रतिपादन किया है।
नय चक्र वृत्ति/गाथा नं. जम्हा णयेण ण विणा होइ णरस्स सियवायपडिवत्ती। तम्हा सो णायव्वो एयन्तं हंतुकामेण।१७५। झाणस्स भावणाविय ण हु सो आराहओ हवे णियमा। जो ण विजाणइ वत्थुं पमाणणयणिच्छयं किच्चा।१७९। णिक्खेव णयपमाणं णादूणं भावयंति ते तच्चं। ते तत्थतच्चमग्गेलहंति लग्गा हु तत्थयं तच्चं।२८१।=क्योंकि नय ज्ञान के बिना स्याद्वाद की प्रतिपत्ति नहीं होती, इसलिए एकान्त बुद्धि का विनाश करने की इच्छा रखने वालों को नय सिद्धान्त अवश्य जानना चाहिए।१७५। जो प्रमाण व नय द्वारा निश्चय करके वस्तु को नहीं जानता, वह ध्यान की भावना से भी आराधक कदापि नहीं हो सकता।१७९। जो निक्षेप नय और प्रमाण को जानकर तत्त्व को भाते हैं, वे तथ्य तत्त्वमार्ग में तत्थतत्त्व अर्थात् शुद्धात्मतत्त्व को प्राप्त करते हैं।१८१।
नय चक्र/श्रुत./३६/१० परस्परविरुद्धधर्माणामेकवस्तुन्यविरोधसिद्धयर्थं नय:।=एक वस्तु के परस्पर विरोधी अनेक धर्मों में अविरोध सिद्ध करने के लिए नय होता है। - सम्यक् नय ही कार्यकारी है, मिथ्या नहीं
नय चक्र/श्रुत./पृष्ठ६३/११ दुर्नयैकान्तमारूढा भावा न स्वार्थिकाहिता:। स्वार्थिकास्तद्विपर्यस्ता नि:कलङ्कस्तथा यत:।१।=दुर्नयरूप एकान्त में आरूढ भाव स्वार्थ क्रियाकारी नहीं है। उससे विपरीत अर्थात् सुनय के आश्रित निष्कलंक तथा शुद्धभाव ही कार्यकारी है।
कार्तिकेय अनुप्रेक्षा /मूल/२६६ सयलववहारसिद्धि सुणयादो होदि।=सुनय से ही समस्त संव्यवहारों की सिद्धि होती है। (विशेष के लिए देखें - धवला.९/४,१,४७/२३९/४)। - निरपेक्ष नय भी कथंचित् कार्यकारी है
सर्वार्थसिद्धि/१/३३/१४६/६ अथ तन्त्वादिषु पटादिकार्यं शक्त्यपेक्षया अस्तीत्युच्यते। नयेष्वपि निरपेक्षेषु बद्धयभिधानरूपेषु कारणवशात्सम्यग्दर्शनहेतुत्वविपरिणतिसद्भावात् शक्त्यात्मनास्तित्वमिति साम्यमेवोपन्यासस्य।=(परस्पर सापेक्ष रहकर ही नयज्ञान सम्यक् है, निरपेक्ष नहीं, जिस प्रकार परस्पर सापेक्ष रहकर ही तन्तु आदिक पटरूप कार्य का उत्पादन करते हैं। ऐसा दृष्टान्त दिया जाने पर शंकाकार कहता है।) प्रश्न‒निरपेक्ष रहकर भी तन्तु आदिक में तो शक्ति की अपेक्षा पटादि कार्य विद्यमान है (पर निरपेक्ष नय में ऐसा नहीं है; अत: दृष्टान्त विषम है)। उत्तर‒यही बात ज्ञान व शब्दरूप नयों के विषय में भी जानना चाहिए। उनमें भी ऐसी शक्ति पायी जाती है, जिससे वे कारणवश सम्यग्दर्शन के हेतु रूप से परिणमन करने में समर्थ हैं। इसलिए दृष्टान्त का दार्ष्टान्त के साथ साम्य ही है। (राज वार्तिक /१/३३/१२/९९/२६) - नय पक्ष की हेयोपादेयता का समन्वय
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५०८ उन्मज्जति नयपक्षो भवति विकल्पो हि यदा। न विवक्षितो विकल्प: स्वयं निमज्जति तदा हि नयपक्ष:।=जिस समय विकल्प विवक्षित होता है, उस समय नयपक्ष उदय को प्राप्त होता है और जिस समय विकल्प विवक्षित नहीं होता उस समय वह (नय पक्ष) स्वयं अस्त को प्राप्त हो जाता है। और भी दे. नय - I.3.6 प्रत्यक्षानुभूति के समय नय विकल्प नहीं होते।
- तत्त्व नय पक्षों से अतीत है
- शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश
- शब्द अर्थ व ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं
श्लोकवार्तिक/२/१/५/६८/२७८/३३ में उद्धृत समन्तभद्र स्वामी का वाक्य‒बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तास्तिस्रो बुद्धयादिवाचका:।=जगत् के व्यवहार में कोई भी पदार्थ बुद्धि (ज्ञान) शब्द और अर्थ इन तीन भागों में विभक्त हो सकता है।
राजवार्तिक ४/४२/१५/२५६/२५ जीवार्थो जीवशब्दो जीवप्रत्यय: इत्येतत्त्रितयं लोके अविचारसिद्धम् ।=जीव नामक पदार्थ, ‘जीव’ यह शब्द और जीव विषयक ज्ञान ये तीन इस लोक में अविचार सिद्ध हैं अर्थात इन्हें सिद्ध करने के लिए कोई विचार विशेष करने की आवश्यकता नहीं। (श्लोतकवार्तिक २/१/५/६८/२७८/१६)।
पंचास्तिकाय/तात्त्पर्यवृत्ति/३/९/२४ शब्दज्ञानार्थरूपेण त्रिधाभिधेयतां समयशब्दस्य...।=शब्द, ज्ञान व अर्थ ऐसे तीन प्रकार से भेद को प्राप्त समय अर्थात् आत्मा नाम का अभिधेय या वाच्य है। - शब्दादि नय निर्देश व लक्षण
राजवार्तिक १/६/४/३३/११ अधिगमहेतुर्द्विविध: स्वाधिगमहेतु: पराधिगमहेतुश्च। स्वाधिगमहेतुर्ज्ञानात्मक: प्रमाणनयविकल्प:, पराधिगमहेतु: वचनात्मक:।=पदार्थों का ग्रहण दो प्रकार से होता है‒स्वाधिगम द्वारा और पराधिगम द्वारा। तहाँ स्वाधिगम हेतुरूप प्रमाण व नय तो ज्ञानात्मक है और पराधिगम हेतुरूप वचनात्मक है।
राजवार्तिक /१/३३/८/६८/१० शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायतीति शब्द:।८। उच्चरित: शब्द: कृतसंगीते: पुरुषस्य स्वाभिधेये प्रत्ययमादधाति इति शब्द इत्युच्यते।=जो पदार्थ को बुलाता है अर्थात उसे कहता है या उसका निश्चय कराता है, उसे शब्दनय कहते हैं। जिस व्यक्ति ने संकेत ग्रहण किया है उसे अर्थबोध कराने वाला शब्द होता है। (स्यासद्वाद मंजरी/२८/३१३/२९)।
धवला १/१,१,१/८६/६ शब्दपृष्ठतोऽर्थग्रहणप्रवण: शब्दनय:।=शब्द को ग्रहण करने के बाद अर्थ के ग्रहण करने में समर्थ शब्दनय है।
धवला १/१,१,१/८६/१ तत्रार्थव्यञ्जनपर्यायैर्विभिन्नलिङ्गसंख्याकालकारकपुरुषोपग्रहभेदैरभिन्नं वर्तमानमात्रं वस्त्वध्यवस्यन्तोऽर्थनया:, न शब्दभेदनार्थभेद इत्यर्थ:। व्यञ्जनभेदेन वस्तुभेदाध्यवसायिनो व्यञ्जननया:। =अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय से भेदरूप और लिंग, संख्या, काल, कारक और उपग्रह के भेद से अभेदरूप केवल वर्तमान समयवर्ती वस्तु के निश्चय करने वाले नयों को अर्थ नय कहते हैं, यहाँ पर शब्दों के भेद से अर्थ में भेद की विवक्षा नहीं होती। व्यंजन के भेद से वस्तु में भेद का निश्चय करने वाले नय को व्यंजन नय कहते हैं।
नोट‒(शब्दनय सम्बन्धी विशेष‒ देखें - नय / III / ६ -८)। कषायपाहुड़ १/१३-१४/१८४/२२२/३ वस्तुन: स्वरूपं स्वधर्मभेदेन भिन्दानो अर्थनय:, अभेदको वा। अभेदरूपेण सर्वं वस्तु इयर्ति एति गच्छति इत्यर्थनय:।=वाचकभेदेन भेदको व्यञ्जननय:।=वस्तु के स्वरूप में वस्तुगत धर्मों के भेद से भेद करने वाला अथवा अभेद रूप से (उस अनन्त धर्मात्मक) वस्तु को ग्रहण करने वाला अर्थनय है तथा वाचक शब्द के भेद से भेद करने वाला व्यंजननय है।
नय चक्र वृत्ति२१४ अहवा सिद्धे सद्दे कीरइ जं किंपि अत्थववहरणं। सो खलु सद्दे विसओ देवो सद्देण जह देवो।२१४।=व्याकरण आदि द्वारा सिद्ध किये गये शब्द से जो अर्थ का ग्रहण करता है सो शब्दनय है, जैसे‒‘देव’ शब्द कहने पर देव का ग्रहण करना। - वास्तव में नय ज्ञानात्मक ही है, शब्दादि को नय कहना उपचार है।
धवला ९/४,१,४५/१६४/५ प्रमाणनयाभ्यामुत्पन्नवाक्येऽप्युपचारत: प्रमाणनयौ, ताभ्यामुत्पन्नबोधौ विधिप्रतिषेधात्मकवस्तुविषयत्वात् प्रमाणतामदधानावपि कार्ये कारणोपचारत: प्रमाणनयावित्यस्मिन् सूत्रे परिगृहीतौ।=प्रमाण और नय से उत्पन्न वाक्य भी उपचार से प्रमाण और नय हैं, उन दोनों (ज्ञान व वाक्य) से उत्पन्न अभय बोध विधि प्रतिषेधात्मक वस्तु को विषय करने के कारण प्रमाणता को धारण करते हुए भी कार्य में कारण का उपचार करने से नय है। (पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५१३)।
कार्तिकेय अनुप्रेक्षा/टीका/२६५ ते त्रयो नयविशेषा: ज्ञातव्या:। ते के। स एव एको धर्म: नित्योऽनित्यो वा... इत्याद्येकस्वभाव: नय:। नयग्राह्यत्वात् इत्येकनय:।...तत्प्रतिपादकशब्दोऽपि नय: कथ्यते। ज्ञानस्य करणे कार्ये च शब्दे नयोपचारात् इति द्वितीयो वाचकनय: तं नित्याद्येकधर्मं जानाति तत् ज्ञानं तृतीयो नय:। सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणम्, तदेकदेशग्राहको नय:, इतिवचनात् ।=नय के तीन रूप हैं‒अर्थरूप, शब्दरूप और ज्ञानरूप। वस्तु का नित्य अनित्य आदि एकधर्म अर्थरूपनय है। उसका प्रतिपादक शब्द शब्दरूपनय है। यहाँ ज्ञानरूप कारण में शब्दरूप कार्य का तथा ज्ञानरूप कार्य में शब्दरूप कारण का उपचार किया गया है। उसी नित्यादि धर्म को जानता होने से तीसरा वह ज्ञान भी ज्ञाननय है। क्योंकि ‘सकल वस्तु ग्राहक ज्ञान प्रमाण है और एकदेश ग्राहक ज्ञान नय है, ऐसा आगम का वचन है।
- तीनों नयों में परस्पर सम्बन्ध
श्लोतकवार्तिक/४/१/३३/श्लोक ९६-९७/२८८ सर्वे शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने। स्वार्थप्रकाशने मातुरिमे ज्ञाननया: स्थिता:।९६। वैधीयमानवस्त्वंशा: कथ्यन्तेऽर्थ नयाश्च ते। त्रैविध्यं व्यवतिष्ठन्ते प्रधानगुणभावत:।९७।=श्रोताओं के प्रति वाच्य अर्थ का प्रतिपादन करने पर तो सभी नय शब्दनय स्वरूप हैं, और स्वयं अर्थ का ज्ञान करने पर सभी नय स्वार्थप्रकाशी होने से ज्ञाननय हैं।९६। ‘नीयतेऽनेन इति नय:’ ऐसी करण साधनरूप व्युत्पत्ति करने पर सभी नय ज्ञाननय हो जाते हैं। और ‘नीयते ये इति नय:’ ऐसी कर्म साधनरूप व्युत्पत्ति करने पर सभी नय अर्थनय हो जाते हैं, क्योंकि नयों के द्वारा अर्थ ही जाने जाते हैं। इस प्रकार प्रधान और गौणरूप से ये नय तीन प्रकार से व्यवस्थित होते हैं। (और भी दे. नय - III.1.4)।
नोट‒अर्थनयों व शब्दनयों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता (दे. नय - III.1.7 )।
- शब्दनय का विषय
धवला ९/४,१,४५/१८६/७ पज्जवट्ठिए खणक्खएण सद्दत्थविसेसभावेण संकेतकरणाणुवत्तीए वाचियवाचयभेदाभावादो। कधं सद्दणएसु तिसु वि सद्दवववहारो। अणप्पिदअत्थगयभेयाणमप्पिदसद्दणिबंधणभेयाणं तेसिं तदविरोहादो।=पर्यायार्थिक नय क्योंकि क्षणक्षयी होता है इसलिए उसमें शब्द और अर्थ की विशेषता से संकेत करना न बन सकने के कारण वाच्यवाचक भेद का अभाव है। (विशेष दे. नय - IV.3.8.5) प्रश्न–तो फिर तीनों ही शब्दनयों में शब्द का व्यवहार कैसे होता है? उत्तर–अर्थगत भेद की अप्रधानता और शब्द निमित्तक भेद की प्रधानता रखने वाले उक्त नयों के शब्दव्यवहार में कोई विरोध नहीं है। (विशेष दे.निक्षेप/३/६)।
दे. नय - III.1.9 (शब्दनयों में दो अपेक्षा से शब्दों का प्रयोग ग्रहण किया जाता है‒शब्दभेद से अर्थ में भेद करने की अपेक्षा और अर्थ भेद होने पर शब्दभेद की अपेक्षा इस प्रकार भेदरूप शब्द व्यवहार; तथा दूसरा अनेक शब्दों का एक अर्थ और अनेक अर्थों का वाचक एक शब्द इस प्रकार अभेदरूप शब्द व्यवहार)।
दे. नय - III.6 , नय - III.7 , नय - III.8 (तहां शब्दनय केवल लिंगादि अपेक्षा भेद करता है पर समानलिंगी आदि एकार्थवाची शब्दों में अभेद करता है। समभिरूढनय समान लिंगादि वाले शब्दों में भी व्युत्पत्ति भेद करता है, परन्तु रूढि वश हर अवस्था में पदार्थ को एक ही नाम से पुकारकर अभेद करता है। और एवंभूतनय क्रियापरिणति के अनुसार अर्थ भेद स्वीकार करता हुआ उसके वाचक शब्द में भी सर्वथा भेद स्वीकार करता है। यहाँ तक कि पद समास या वर्णसमास तक को स्वीकार नहीं करता)।
दे.आगम/४/४ (यद्यपि यहाँ पदसमास आदि की सम्भावना न होने से शब्द व वाक्यों का होना सम्भव नहीं, परन्तु क्रम पूर्वक उत्पन्न होने वाले वर्णों व पदों से उत्पन्न ज्ञान क्योंकि अक्रम से रहता है; इसलिए, तहाँ वाच्यवाचक सम्बन्ध भी बन जाता है)।
- शब्दादि नयों के उदाहरण
धवला १/१,१,१११/३४८/१० शब्दनयाश्रयणे क्रोधकषाय इति भवति तस्य शब्दपृष्ठतोऽर्थप्रतिपत्तिप्रवणत्वात् । अर्थनयाश्रयणे क्रोधकषायीति स्याच्छब्दोऽर्थस्य भेदाभावात् ।=शब्दनय का आश्रय करने पर ‘क्रोध कषाय’ इत्यादि प्रयोग बन जाते हैं, क्योंकि शब्दनय शब्दानुसार अर्थज्ञान कराने में समर्थ है। अर्थनय का आश्रय करने पर ‘क्रोध कषायी’ इत्यादि प्रयोग होते हैं, क्योंकि इस नय की दृष्टि में शब्द से अर्थ का कोई भेद नहीं है।
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५१४ अथ तद्यथा यथाऽग्नेरौष्ण्यं धर्मं समक्षतोऽपेक्ष्य। उष्णोऽग्निरिति वागिह तज्ज्ञानं वा नयोपचार: स्यात् ।५१४।=जैसे अग्नि के उष्णता धर्मरूप ‘अर्थ’ को देखकर ‘अग्नि उष्ण है’ इत्याकारक ज्ञान और उस ज्ञान का वाचक ‘उष्णोऽग्नि:’ यह वचन दोनों ही उपचार से नय कहलाते हैं।
- द्रव्यनय व भावनय निर्देश
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५०५ द्रव्यनयो भावनय: स्यादिति भेदाद्द्विधा च सोऽपि यथा। पौद्गलिक: किल शब्दो द्रव्यं भावश्च चिदिति जीवगुण:।५०५।=द्रव्यनय और भावनय के भेद से नय दो प्रकार है, जैसे कि निश्चय से पौद्गलिक शब्द द्रव्यनय कहलाता है, तथा जीव का ज्ञान गुण भावनय कहलाता है। अर्थात् उपरोक्त तीन भेदों में से शब्दनय तो द्रव्यनय है और ज्ञाननय भावनय है।
- शब्द अर्थ व ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं
- अन्य अनेकों नयों का निर्देश
- भूत भावि आदि प्रज्ञापन नयों का निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/५/३९/३१२/१० अणोरप्येकप्रदेशस्य पूर्वोत्तरभावप्रज्ञापननयापेक्षयोपचरकल्पनया प्रदेशप्रचय उक्त:।
सर्वार्थसिद्धि/२/६/१६०/२ पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया योऽसौ योगप्रवृत्ति: कषायानुरञ्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते।
सर्वार्थसिद्धि/१०/९/पृष्ठ/पंक्ति भूतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धि:। (४७१/१२)। प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धयन् सिद्धो भवति। भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सर्पिण्यवसर्पिण्यीर्जात: सिध्यति विशेषेणावसर्पिण्यां सुषमादुषमायां अन्त्यभागे संहरणत: सर्वस्मिन्काले। (४७२/१)। भूतपूर्वनयापेक्षया तु...क्षेत्रसिद्धा द्विविधा‒जन्मत: संहरणतश्च। (४७३/६)।=पूर्व और उत्तरभाव प्रज्ञापन नय की अपेक्षा से उपचार कल्पना द्वारा एकप्रदेशी भी अणु को प्रदेश प्रचय (बहुप्रदेशी) कहा है। पूर्वभावप्रज्ञापननय की अपेक्षा से उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानों में भी शुक्ललेश्या को औदयिकी कहा है, क्योंकि जो योगप्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित थी वही यह है। भूतग्राहिनय की अपेक्षा जन्म से १५ कर्मभूमियों में और संहरण की अपेक्षा सर्व मनुष्यक्षेत्र से सिद्धि होती है। वर्तमानग्राही नय की अपेक्षा एक समय में सिद्ध होता है। भूत प्रज्ञापन नय की अपेक्षा जन्म से सामान्यत: उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में सिद्ध होता है, विशेष की अपेक्षा सुषमादुषमा के अन्तिम भाग में और संहरण की अपेक्षा सब कालों में सिद्ध होता है। भूतपूर्व नय की अपेक्षा से क्षेत्रसिद्ध दो प्रकार है‒जन्म से व संहरण से। (राजवार्तिक /१०/९); (तत्त्वार्थसार/८/४२)।
राजवार्तिक /१०/९/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति (उपरोक्त नयों का ही कुछ अन्य प्रकार निर्देश किया है)‒वर्तमान विषय नय (५/६४६/३२); अतीतगोचरनय (५/६४६/३३); भूत विषय नय (५/६४७/१) प्रत्युत्पन्न भावप्रज्ञापन नय (१४/६४८/२३)...
कषाय पाहुड १/१३-१४/२१७/२७०/१ भूदपुव्वगईए आगमववएसुववत्तीदो।=जिसका आगमजनित संस्कार नष्ट हो गया है ऐसे जीव में भी भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा आगम संज्ञा बन जाती है। गोम्मटसार जीवकाण्ड/मूल/५३३/९२९ अट्ठकसाये लेस्या उच्चदि सा भूदपुव्वगदिणाया।=उपशान्त कषाय आदिक गुणस्थानों में भूतपूर्वन्याय से लेश्या कही गयी है।
द्रव्यसंग्रह/टीका/१४/४८/१० अन्तरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतघटवत् । परमात्मस्वरूपं तु शक्तिरूपेण, भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च।=अन्तरात्मा की अवस्था में अन्तरात्मा भूतपूर्व न्याय से घृत के घट के समान और परमात्मा का स्वरूप शक्तिरूप से तथा भावीनैगम नय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी जानना चाहिए। नोट‒काल की अपेक्षा करने पर नय तीन प्रकार की है‒भूतग्राही, वर्तमानग्राही और भावीकालग्राही। उपरोक्त निर्देशों में इनका विभिन्न नामों में प्रयोग किया गया है। यथा‒- पूर्वभाव प्रज्ञापन नय, भूतग्राही नय, भूत प्रज्ञापन नय, भूतपूर्व नय, अतीतगोचर नय, भूतविषय नय, भूतपूर्व प्रज्ञापननय, भूतपूर्व न्याय आदि।
- उत्तरभावप्रज्ञापननय, भाविनैगमनय
- प्रत्युत्पन्न या वर्तमानग्राहीनय, वर्तमानविषयनय, प्रत्युत्पन्न भाव प्रज्ञापन नय, इत्यादि। तहाँ ये तीनों काल विषयक नयें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावि नयें तो द्रव्यार्थिकनय में तथा वर्तमाननय पर्यायार्थिक में। अथवा नैगमादि सात नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावी नयें तो नैगमादि तीन नयों में और वर्तमान नय ऋजुसूत्रादि चार नयों में। अथवा नैगम व ऋजुसूत्र इन दो में गर्भित हो जाती हैं‒भूत व भावि नयें तो नैगमनय में और वर्तमाननय ऋजुसूत्र में। श्लोक वार्तिक में कहा भी है‒
श्लो्कवार्तिक ४/१/३३/३ ऋजुसूत्रनय: शब्दभेदाश्च त्रय, प्रत्युत्पन्नविषयग्राहिण:। शेषा नया उभयभावविषया:। =ऋजुसूत्र नय को तथा तीन शब्दनयों को प्रत्युत्पन्ननय कहते हैं। शेष तीन नयों को प्रत्युत्पन्न भी कहते हैं और प्रज्ञापननय भी। (भूत व भावि प्रज्ञापन नयें तो स्पष्ट ही भूत भावी नैगम नय हैं। वर्तमानग्राही दो प्रकार की हैं‒एक अर्ध निष्पन्न में निष्पन्न का उपचार करने वाली और दूसरी साक्षात् शुद्ध वर्तमान के एक समयमात्र को सत्रूप से अंगीकार करने वाली। तहाँ पहली तो वर्तमान नैगम नय है और दूसरी सूक्ष्म ऋजुसूत्र। विशेष के लिए देखो आगे नय - III में नैगमादि नयों के लक्षण भेद व उदाहरण)।
- अस्तित्वादि सप्तभंगी नयों का निर्देश
प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/परिशिष्ठ नय नं.३-९ अस्तित्वनयेनायोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थलक्ष्योन्मुखविशिखवत् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैरस्तित्ववत् ।३। नास्तित्वनयेनानयोमयागुणकार्मुकान्तरालवर्त्यसंहितावस्थालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् परद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्नास्तित्ववत् ।४। अस्तित्वनास्तित्वनयेन...प्राक्तनविशिखवत् क्रमत: स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैरस्तित्वनास्तित्ववत् ।५। अवक्तव्यनयेन ...प्राक्तनविशिखवत् युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैरवक्तव्यम् ।६। अस्तित्वावक्तव्यनयेन...प्राक्तनविशिखवत् अस्तित्ववदवक्तव्यम् ।७। नास्तित्वावक्तव्यनयेन...प्राक्तनविशिखवत् ...नास्तित्ववदवक्तव्यम् ।८। अस्तित्वनास्तित्वावक्तव्यनयेन...प्राक्तनविशिखवत् ...अस्तित्वनास्तित्ववदवक्तव्यम् ।९।=- आत्मद्रव्य अस्तित्वनय से स्वद्रव्यक्षेत्र काल व भाव से अस्तित्ववाला है। जैसे कि द्रव्य की अपेक्षा लोहमयी, क्षेत्र की अपेक्षा त्यंचा और धनुष के मध्य में निहित, काल की अपेक्षा सन्धान दशा में रहे हुए और भाव की अपेक्षा लक्ष्योन्मुख बाण का अस्तित्व है।३। (पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/७५६)
- आत्मद्रव्य नास्तित्वनय से परद्रव्य क्षेत्र काल व भाव से नास्तित्ववाला है। जैसे कि द्रव्य की अपेक्षा अलोहमयी, क्षेत्र की अपेक्षा प्रत्यंचा और धनुष के बीच में अनिहित, काल की अपेक्षा सन्धान दशा में न रहे हुए और भाव की अपेक्षा अलक्ष्योन्मुख पहले वाले बाण का नास्तित्व है, अर्थात् ऐसे किसी बाण का अस्तित्व नहीं है।४। (पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/७५७)
- आत्मद्रव्य अस्तित्वनास्तित्व नय से पूर्व के बाण की भाँति ही क्रमश: स्व व पर द्रव्य क्षेत्र काल भाव से अस्तित्व नास्तित्ववाला है।५।
- आत्मद्रव्य अवक्तव्य नय से पूर्व के वाण की भाँति ही युगपत् स्व व पर द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से अवक्तव्य है।६।
- आत्म द्रव्य अस्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भाँति (पहले अस्तित्व रूप और पीछे अवक्तव्य रूप देखने पर) अस्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है।७।
- आत्मद्रव्य नास्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भाँति ही (पहले नास्तित्वरूप और पीछे अवक्तव्यरूप देखने पर) नास्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है।८।
- आत्मद्रव्य अस्तित्व नास्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भांति ही (क्रम से तथा युगपत् देखने पर) अस्तित्व व नास्तित्व वाला अवक्तव्य है।९। (विशेष दे.सप्तभंगी)।
- नामादि निक्षेपरूप नयों का निर्देश
प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/परिशिष्ठ/नय नं.१२-१५ नामनयेन तदात्मवत् शब्दब्रह्मामर्शि।१२। स्थापनानयेन मूर्तित्ववत्सकलपुद्गलावलम्बि।१३। द्रव्यनयेन माणवकश्रेष्ठिश्रमणपार्थिववदनागतातीतपर्यायोद्भासि।१४। भावनयेन पुरुषायितप्रवृत्तयोषिद्वत्तदात्वपर्यायोल्लासि।१५।=आत्मद्रव्य नाम नय से, नाम वाले (किसी देवदत्त नामक व्यक्ति) की भांति शब्दब्रह्म को स्पर्श करने वाला है; अर्थात् पदार्थ को शब्द द्वारा कहा जाता है।१२। आत्मद्रव्य स्थापनानय मूर्तित्व की भांति सर्व पुद्गलों का अवलम्बन करने वाला है, (अर्थात् आत्मा की मूर्ति या प्रतिमा काष्ठ पाषाण आदि में बनायी जाती है)।१३। आत्मद्रव्य द्रव्यनय से बालक सेठ की भांति और श्रमण राजा की भांति अनागत व अतीत पर्याय से प्रतिभासित होता है। (अर्थात् वर्तमान में भूत या भावि पर्याय का उपचार किया जा सकता है।१४। आत्मद्रव्य भावनय से पुरुष के समान प्रवर्तमान स्त्री की भांति तत्काल की (वर्तमान की) पर्याय रूपसे प्रकाशित होता है।१५। (विशेष दे.निक्षेप)। - सामान्य विशेष आदि धर्मोरूप ४७ नयों का निर्देश
प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका/परिशिष्ठ/नय नं. तत्तु द्रव्यनयेन पटमात्रवच्चिन्मात्रम् ।१। पर्यायनयेन तन्तुमात्रवद्दर्शनज्ञानादिमात्रम् ।२। विकल्पनयेन शिशुकुमारस्थविरैकपुरुषवत्सविकल्पम् ।१०। अविकल्पनयेनैकपुरुषमात्रवदविकल्पम् ।११। सामान्यनयेन हारस्रग्दामसूत्रवद्व्यापि।१६। विशेषनयेन तदेकमुक्ताफलवदव्यापि।१७। नित्यनयेन नटवदवस्थायि।१८। अनित्यनयेन रामरावणवदनवस्थायिं।१९। सर्वगतनयेन विस्फुरिताक्षचक्षुर्वत्सर्ववर्ति।२०। असर्वगतनयेन मीलिताक्षचक्षुर्वंदात्मवर्ति।२१। शून्यनयेन शून्यागारवत्केवलोद्भासि।२२। अशून्यनयेन लोकाक्रान्तनौवन्मिलितोद्भासि।२३। ज्ञानज्ञेयाद्वैतनयेन महदिन्धनभारपरिणतधूमकेतुवदेकम् ।२४। ज्ञानज्ञेतद्वैतनयेन परप्रतिबिम्बसंपृक्तदर्पणवदनेकम् ।२५। नियतिनयेन नियमितौष्ण्य वह्नि वन्नियत स्वभावभासि।२६। अनियतिनयेन नित्यनियमितौष्ण्यपानीयवदनियतस्वभावभासि।२७। स्वभावनयेनानिशिततीक्ष्णकण्टकवत्संस्कारसार्थक्यकारि।२८। अस्वभावनयेनायस्कारनिशिततीक्ष्णविशिखवत्ससंस्कारसार्थक्यकारि।२९। कालनयेन निदाघदिवसानुसारिपच्यमानसहकारफलवत्समयायत्तसिद्धि:।३० अकालनयेन कृत्रिमोष्मपाच्यमानसहकारफलवत्समयानायत्तसिद्धि:।३१। पुरुषाकारनयेन पुरुषाकारोपलब्धमधुकुक्कुटोकपुरुषकारवादीवद्यत्नसाध्यसिद्धि:।३२। दैवेनयेन पुरुषाकारवादिदत्तमधुकुक्कुटीगर्भलब्धमाणिक्यदैववादिवदयत्नसाध्यसिद्धि:।३३। ईश्वरनयेन धात्रीहटावलेह्यमानपान्थबालकवत्पारतन्त्र्यभोक्तृ।३४। अनीश्वरनयेन स्वच्छन्ददारितकुरङ्गकण्ठीरववतन्त्र्यभोक्तृ।३५। गुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकवद्गुणग्राहि।३६। अगुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकाध्यक्षवत् केवलमेव साक्षि।३७। कर्तृनयेन रञ्जकवद्रागादिपरिणामकर्तृ।३८। अकर्तृनयेन स्वकर्मप्रवृत्तरञ्जकाध्यक्षवत्केवलमेव साक्षि।३९। भोक्तृनयेन हिताहितान्नभोक्तृव्याधितवत्सुखदु:खादिभोक्तृ।४०। अभोक्तृनयेन हिताहितान्नभोक्तृब्याधिताध्यक्षधन्वन्तरिचरवत् केवलमेव साक्षी।४१। क्रियानयेन स्थाणुभिन्नमूर्धजातदृष्टिलब्धनिधानान्धवदनुष्ठानप्राधान्यसाध्यसिद्धि:।४२। ज्ञाननयेन चणकमुष्टिक्रीतचिन्तामणिगृहकाणवाणिजवद्विवेकप्राधान्यसाध्यसिद्धि:।४३। व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तरसंयुज्यमानवियुज्यमानपरमाणुवद्बन्धमोक्षयोर्द्वैतानुवर्ति।४४। निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानबन्धमोक्षोचितस्निग्धरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुवद्बन्धमोक्षयोरद्वैतानुवर्ति।४५। अशुद्धनयेन घटशरावविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधिस्वभावम् ।४६। शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरुपाधिस्वभावम् ।४७।=१. आत्मद्रव्य द्रव्यनय से, पटमात्र की भांति चिन्मात्र है। २. पर्यायनय से वह तन्तुमात्र की भांति दर्शनज्ञानादि मात्र है। १०. विकल्पनय से बालक, कुमार, और वृद्ध ऐसे एक पुरुष की भांति सविकल्प है। ११. अविकल्पनय से एक पुरुषमात्र की भांति अविकल्प है। १६. सामान्यनय से हार माला कण्ठी के डोरे की भांति व्यापक है। १७. विशेष नय से उसके एक मोती की भांति, अव्यापक है। १८. नित्यनय से, नट की भांति अवस्थायी है। १९. अनित्यनय से राम-रावण की भांति अनवस्थायी है। (पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/७६०-७६१)। २०. सर्वगतनय से खुली हुई आँख की भांति सर्ववर्ती है। २१. असर्वगतनय से मिची हुई आँख की भांति आत्मवर्ती है। २२. शून्यनय से शून्यघर की भांति एकाकी भासित होता है। २३. अशून्यनय से लोगों से भरे हुए जहाज की भांति मिलित भासित होता है। २४. ज्ञानज्ञेय अद्वैतनय से महान् ईन्धनसमूहरूप परिणत अग्नि की भांति एक है। २५. ज्ञानज्ञेय द्वैतनय से, पर के प्रतिबिम्बों से संपृक्त दर्पण की भांति अनेक है। २६. आत्मद्रव्य नियतिनय से नियतस्वभाव रूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित होती है ऐसी अग्नि की भांति। २७. अनियतनय से अनियतस्वभावरूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित नहीं है ऐसे पानी की भांति। २८. स्वभावनय से संस्कार को निरर्थक करने वाला है, जिसकी किसी से नोक नहीं निकाली जाती है, ऐसे पैने कांटे की भांति। २९. अस्वभावनय से संस्कार को सार्थक करने वाला है, जिसकी लुहार के द्वारा नोक निकाली गयी है, ऐसे पैने बाण की भांति। ३०. कालनय से जिसकी सिद्धि समय पर आधार रखती है ऐसा है, गर्मी के दिनों के अनुसार पकने वाले आम्र फल की भांति। ३१. अकालनय से जिसकी सिद्धि समय पर आधार नहीं रखती ऐसा है, कृत्रिम गर्मी से पकाये गये आम्रफल की भांति। ३२. पुरुषाकारनय से जिसकी सिद्धि यत्नसाध्य है ऐसा है, जिसे पुरुषाकार से नींबू का वृक्ष प्राप्त होता है, ऐसे पुरुषाकारवादी की भांति। ३३. दैवनय से जिसकी सिद्धि अयत्नसाध्य है ऐसा है, पुरुषाकारवादी द्वारा प्रदत्त नींबू के वृक्ष के भीतर से जिसे माणिक प्राप्त हो जाता है, ऐसे दैववादी की भांति। ३४. ईश्वरनय से परतंत्रता भोगनेवाला है, धाय की दुकान पर दूध पिलाये जाने वाले राहगीर के बालक की भांति। ३५. अनीश्वरनय से स्वतन्त्रता भोगनेवाला है, हिरन को स्वच्छन्दतापूर्वक फाड़कर खा जाने वाले सिंह की भांति। ३६. आत्मद्रव्य गुणीनय से गुणग्राही है, शिक्षक के द्वारा जिसे शिक्षा दी जाती है ऐसे कुमार की भांति। ३७. अगुणीनय से केवल साक्षी ही है। ३८. कर्तृनय से रंगरेज की भांति रागादि परिणामों का कर्ता है। ३९. अकर्तृनय से केवल साक्षी ही है, अपने कार्य में प्रवृत्त रंगरेज को देखने वाले पुरुष की भांति। ४०. भोक्तृनय से सुख-दुखादि का भोक्ता है, हितकारी-अहितकारी अन्न को खाने वाले रोगी की भांति। ४१. अभोक्तृनय से केवल साक्षी ही है, हितकारी-अहिकारी अन्न को खाने वाले रोगी को देखने वाले वैद्य की भांति। ४२. क्रियानय से अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि साधित हो ऐसा है, खम्भे से सिर फूट जाने पर दृष्टि उत्पन्न होकर जिसे निधान प्राप्त हो जाय, ऐसे अन्धे की भांति। ४३. ज्ञाननय से विवेक की प्रधानता से सिद्धि साधित हो ऐसा है; मुट्ठीभर चेन देकर चिन्तामणि रत्न खरीदनेवाले घर के कोने में बैठै हुए व्यापारी की भांति। ४४. आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बन्ध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करने वाला है; बन्धक और मोचक अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होने वाले और उससे वियुक्त होने वाले परमाणु की भांति। ४५. निश्चयनय से बन्ध और मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करने वाला है; अकेले बध्यमान और मुच्यमान ऐसे बन्ध मोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्वगुणरूप परिणत परमाणु की भांति ४६. अशुद्धनय से घट और रामपात्र से विशिष्ट मिट्टी मात्र की भांति सोपाधि स्वभाव वाला है। ४७. शुद्धनय से, केवलमिट्टी मात्र की भांति, निरुपाधि स्वभाववाला है।
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/श्लोक‒अस्ति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्यायस्तत्त्रयं मिथोऽनेकम् । व्यवहारैकविशिष्टो नय: स वानेकसंज्ञको न्यायात् ।७५२। एकं सदिति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्ययोऽथवा नाम्ना। इतरद्वयमन्यतरं लब्धमनुक्तं स एकनयपक्ष:।७५३। परिणममानेऽपि तथाभूतैर्भावैर्विनश्यमानेऽपि। नायमपूर्वों भाव: पर्यायार्थिकविशिष्टभावनय:।७६५। अभिनवभावपरिणतेर्योऽयं वस्तुन्यपूर्वसमयो य:। इति यो वदति स कश्चित्पर्यायार्थिकनयेष्वभावनय:।७६४। अस्तित्वं नामगुण: स्यादिति साधारण: स तस्य। तत्पर्ययश्च नय: समासतोऽस्तित्वनय इति वा।५९३। कर्तृत्वं जीवगुणोऽस्त्वथ वैभाविकोऽथवा भाव:। तत्पर्यायविशिष्ट: कर्तृत्वनयो यथा नाम।५९४।=३७. व्यवहार नय से द्रव्य, गुण, पर्याय अपने अपने स्वरूप से परस्पर में पृथक्-पृथक् हैं, ऐसी अनेकनय है।७५२। ३८. नाम की अपेक्षा पृथक्-पृथक् हुए भी द्रव्य गुण पर्याय तीनों सामान्यरूप से एक सत् हैं, इसलिए किसी एक के कहने पर शेष अनुक्त का ग्रहण हो जाता है। यह एकनय है।७५३। ३९. परिणमन होते हुए पूर्व पूर्व परिणमन का विनाश होने पर भी यह कोई अपूर्व भाव नहीं है, इस प्रकार का जो कथन है वह पर्यायार्थिक विशेषण विशिष्ट भावनय है।७६५। ४०. तथा नवीन पर्याय उत्पन्न होने पर जो उसे अपूर्वभाव कहता ऐसा पर्यायार्थिक नय रूप अभाव नय है।७६४। ४१. अस्तित्वगुण के कारण द्रव्य सत् है, ऐसा कहने वाला अस्तित्व नय है।५९३। ४२. जीव का वैभाविक गुण ही उसका कर्तृत्वगुण है। इसलिए जीव को कर्तृत्व गुणवाला कहना सो कर्तृत्व नय है।५९४। - अनन्तों नय होनी सम्भव हैं
धवला १/१,१,१/गाथा ६७/८० जावदिया वयण-वहा तावदिया चेव होंति णयवादा।=जितने भी वचनमार्ग हैं, उतने ही नयवाद अर्थात् नय के भेद हैं। (धवला १/४,१,४५/गाथा ६२/१८१), (कषाय पाहुड १/१३-१४/२०२/गाथा ९३/२४५), (धवला १/१,१,९/गाथा १०५/१६२), (हरिवंशपुराण /५८/५२), (गोम्मटसार कर्मकाण्ड/मूल/८९४/१०७३), (प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/परिशिष्ठ में उद्धृत); (स्या्द्वाद मंजरी/२८/३१०/१३ में उद्धृत)
। सर्वार्थसिद्धि/१/३३/१४५/७ द्रव्यस्यानन्तशक्ते: प्रतिशक्ति विभिद्यमाना: बहुविकल्पा जायन्ते।=द्रव्य की अनन्त शक्ति है। इसलिए प्रत्येक शक्ति की अपेक्षा भेद को प्राप्त होकर ये नय अनेक (अनन्त) विकल्प रूप हो जाते हैं। (राजवार्तिक/१/३३/१२/९९/१८), (प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/परिशिष्ठ का अन्त), (स्यााद्वाद मंजरी/२८/३१०/११); (पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/५८९,५९५)।
श्लोधकवार्तिक ४/१/३३/श्लोक ३-४/२१५ संक्षेपाद्द्वौ विशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरौ।३। विस्तरेणेति सप्तैते विज्ञेया नैगमादय:। तथातिविस्तरेणोक्ततद्भेदा: संख्यातविग्रहा:।४।=संक्षेप से नय दो प्रकार हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक।३। विस्तार से नैगमादि सात प्रकार हैं और अति विस्तार से संख्यात शरीरवाले इन नयों के भेद हो जाते हैं। (स्याधद्वाद मंजरी/२८/३१७/१)। धवला १/१,१,१/९१/१ एवमेते संक्षेपेण नया: सप्तविधा:। अवान्तरभेदेन पुनरसंख्येया:।=इस तरह संक्षेप से नय सात प्रकार के हैं और अवान्तर भेदों से असंख्यात प्रकार के समझना चाहिए।
- भूत भावि आदि प्रज्ञापन नयों का निर्देश
- नय सामान्य निर्देश
- सम्यक् व मिथ्या नय
- नय सम्यक् भी है और मिथ्या भी
नयचक्र बृहद्/181 एयंतो एयणयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो। तं खलु णाणवियप्पं सम्मं मिच्छं च णायव्वं।181।=एक नय तो एकांत है और उसका समूह अनेकांत है। वह ज्ञान का विकल्प सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी। ऐसा जानना चाहिए। (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/558,560)। - सम्यक् व मिथ्या नयों के लक्षण
स्याद्वादमंजरी/74/4 सम्यगेकांतो नय: मिथ्यैकांतो नयाभास:।=सम्यगेकांत को नय कहते हैं और मिथ्या एकांत को नयाभास या मिथ्या नय। (देखें एकांत - 1. 1), (विशेष देखें अगले शीर्षक )। स्याद्वादमंजरी/ मू.व टीका/28/307,10 सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधार्थो मीयते दुर्नीतिनयप्रमाणै:। यथार्थदर्शी तु नयप्रमाणपथेन दुर्नीतिपथं त्वमास्थ:।28।...नीयते परिच्छिद्यते एकदेशविशिष्टोऽर्थ आभिरिति नीतयो नया:। दुष्टा नीतयो दुर्नीतयो दुर्नया इत्यर्थ:।=पदार्थ ‘सर्वथा सत् है’, ‘सत् है’ और कथंचित् सत् है’ इस प्रकार क्रम से दुर्नय, नय और प्रमाण से पदार्थों का ज्ञान होता है। यथार्थ मार्ग को देखने वाले आपने ही नय और प्रमाणमार्ग के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया है।28। जिसके द्वारा पदार्थों के एक अंश का ज्ञान हो उसे नय (सम्यक् नय) कहते हैं। खोटे नयों को या दुर्नीतियों को दुर्नय कहते हैं। ( स्याद्वादमंजरी/27/305/28 )। और भी देखें नय - I.1.1 , (पहिले जो नय सामान्य का लक्षण किया गया वह सम्यक् नय का है।) और भी देखें अगले शीर्षक ‒(सम्यक् व मिथ्या नय के विशेष लक्षण अगले शीर्षकों में स्पष्ट किये गये हैं)। - अन्य पक्ष का निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होता
कषायपाहुड़ 1/13-14/206/257/1 त चैकांतेन नया: मिथ्यादृष्टय: एव; परपक्षानिकरिष्णूनां सपक्षसत्त्वावधारणे व्यापृतानां स्यात्सम्यग्दृष्टित्वदर्शनात् । उक्तं च‒णिययवयणिनसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।117।=द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय सर्वथा मिथ्यादृष्टि ही हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो नय परपक्ष का निराकरण नहीं करते हुए (विशेष देखें आगे नय - II.4) ही अपने पक्ष का निश्चय करने में व्यापार करते हैं उनमें कथंचित् समीचीनता पायी जाती है। कहा भी है‒ये सभी नय अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं, और दूसरे नयों के निराकरण करने में मूढ़ हैं। अनेकांत रूप समय के ज्ञाता पुरुष ‘यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है’ इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं।117।
नयचक्र बृहद्/292 ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्धं।=नयपक्ष मिथ्या नहीं होता, क्योंकि वह अनेकांत द्रव्य की सिद्धि करता है। इसलिए ‘स्यात्’ शब्द से चिह्नित तथा जिनेंद्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट नय शुद्ध है। - अन्य पक्ष का निषेध करने से ही मिथ्या हो जाता है
धवला 9/4,1,45/182/1 त एव दुरवधीरता मिथ्यादृष्टय: प्रतिपक्षनिराकरणमुखेन प्रवृत्तत्वात् ।=ये (नय) ही जब दुराग्रहपूर्वक वस्तुस्वरूप का अवधारण करने वाले होते हैं, तब मिथ्या नय कहे जाते हैं, क्योंकि वे प्रतिपक्ष का निराकरण करने की मुख्यता से प्रवृत्त होते हैं। (विशेष दे. एकांत - 1.2 ), (धवला 9/4,1,45/183/10), (कषायपाहुड़ 3/22/513/292/2)।
प्रमाणनयतत्त्वालंकार/7/1/( स्याद्वादमंजरी/28/316/29 पर उद्धृत) स्वाभिप्रेताद् अंशाद् इतरांशपलापी पुनर्दुर्नयाभास:।=अपने अभीष्ट धर्म के अतिरिक्त वस्तु के अन्य धर्मों के निषेध करने को नयाभास कहते हैं।
स्याद्वादमंजरी/28/308/1 ‘अस्त्येव घट:’ इति। अयं वस्तुनि एकांतास्तित्वमेव अभ्युपगच्छन् इतरधर्माणां तिरस्कारेण स्वाभिप्रेतमेव धर्म व्यवस्थापयति। =किसी वस्तु में अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट एकांत अस्तित्व को सिद्ध करने को दुर्नय कहते हैं, जैसे ‘यह घट ही है’। - अन्य पक्ष का संग्रह करने पर वही नय सम्यक् हो जाते हैं
स्वयम्भू स्तोत्र/62 यथैकश: कारकमर्थसिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पत:।62। =जिस प्रकार एक-एक कारक शेष अन्य को अपना सहायकरूप कारक अपेक्षित करके अर्थ की सिद्धि के लिए समर्थ होता है, उसी प्रकार आपके मत में सामान्य और विशेष से उत्पन्न होने वाले अथवा सामान्य और विशेष को विषय करने वाले जो नय हैं वे मुख्य और गौण की कल्पना से इष्ट हैं।
धवला 9/4,1,45/239/4 सुणया कधं सविसया। एयंतेण पडिवक्खणिसेहाकरणादो गुणपहाणभावेण ओसादिदपमाणबाहादो।=ये सभी नय वस्तुस्वरूप का अवधारण न करने पर समीचीन नय होते हैं, क्योंकि वे प्रतिपक्ष धर्म का निराकरण नहीं करते। प्रश्न‒सुनयों के अपने विषयों की व्यवस्था कैसे संभव है? उत्तर‒चूँकि सुनय सर्वथा प्रतिपक्षभूत विषयों का निषेध नहीं करते, अत: उनके गौणता और प्रधानता की अपेक्षा प्रमाणबाधा के दूर कर देने से उक्त विषय व्यवस्था भले प्रकार संभव है।
स्याद्वादमंजरी/28/308/4 स हि ‘अस्ति घट:’ इति घटे स्वाभिमतमस्तित्वधर्मं प्रसाधयन् शेषधर्मेषु गजनिमिलिकामालंबते। न चास्य दुर्नयत्वं धर्मांतरातिरस्कारात् ।=वस्तु में इष्ट धर्म को सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर वस्तु के विवेचन करने को नय कहते हैं। जैसे ‘यह घट है’। नय में दुर्नय की तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता, इसलिए उसे दुर्नय नहीं कहा जा सकता। - जो नय सर्वथा के कारण मिथ्या है वही कथंचित् के कारण सम्यक् है
स्वयंभू स्तोत्र/101 सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च यो नया:। सर्वथेति प्रदुष्यंति पुष्यंति स्यादितीह ते।101। =सत्, एक, नित्य, वक्तव्य तथा असत्, अनेक, अनित्य, व अवक्तव्य ये जो नय पक्ष हैं वे यहाँ सर्वथारूप में तो अति दूषित हैं और स्यात्रूप में पुष्टि को प्राप्त होते हैं।
गोम्मटसार कर्मकांड/894-895/1073 जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया।894। परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा वयणा। जेणाणं पुण वयणं सम्मं सु कहंचिव वयणादो।895।=जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं। परसमयवालों के वचन ‘सर्वथा’ शब्द सहित होने से मिथ्या होते हैं और जैनों के वही वचन ‘कथंचित्’ शब्द सहित होने से सम्यक् होते हैं। (देखें नय - I.5 में धवला 1 )
नयचक्र बृहद्/292 ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्धं।=अनेकांत द्रव्य की सिद्धि करने के कारण नयपक्ष मिथ्या नहीं होता। स्यात् पद से अलंकृत होकर वह जिनवचन के अंतर्गत आने से शुद्ध अर्थात् समीचीन हो जाता है। ( नयचक्र बृहद्/249)
स्याद्वादमंजरी/30/336/13 ननु प्रत्येकं नयानां विरुद्धत्वे कथं समुदितानां निर्विरोधिता। उच्येत। यथा हि समीचीनं मध्यस्थं न्यायनिर्णेतारमासाद्य परस्परं विवादमाना अपि वादिनो विवादाद् विरमंति एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सर्वज्ञशासनमुपेत्य स्याच्छब्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तय: संत: परस्परमत्यंतं सुहृद्भूयावतिष्ठंते।=प्रश्न‒यदि प्रत्येक नय परस्पर विरुद्ध हैं, तो उन नयों के एकत्र मिलाने से उनका विरोध किस प्रकार नष्ट होता है? उत्तर‒जैसे परस्पर विवाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायी के द्वारा न्याय किये जाने पर विवाद करना बंद करके आपस में मिल जाते हैं, वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवान् के शासन की शरण लेकर ‘स्यात्’ शब्द से विरोध के शांत हो जाने पर परस्पर मैत्री भाव से एकत्र रहने लगते हैं।
पंचाध्यायी x`/ पुर्वार्ध/336-337 ननु किं नित्यमनित्यं किमथोभयमनुभयं च तत्त्वं स्यात् । व्यस्तं किमथ समस्तं क्रमत: किमथाक्रमादेतत् ।336। सत्यं स्वपरनिहत्यै सर्वं किल सर्वथेति पदपूर्वम् । स्वपरोपकृतिनिमित्तं सर्वं स्यात्स्यात्पदांकितं तु पदम् ।337।=प्रश्न‒तत्त्व नित्य है या अनित्य, उभय या अनुभय, व्यस्त या समस्त, क्रम से या अक्रम से? उत्तर‒ ‘सर्वथा’ इस पद पूर्वक सब ही कथन स्व पर घात के लिए हैं, किंतु स्यात् पद के द्वारा युक्त सब ही पद स्वपर उपकार के लिए हैं। - सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या होती है
आप्त मीमांसा/108 निरपेक्षया नया: मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकत् ।=निरपेक्षनय मिथ्या है और सापेक्ष नय वस्तुस्वरूप है। (श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 80/268)।
स्वयंभू स्तोत्र/61 य एव नित्यक्षणिकादयो नया;, मिथोऽनपेक्षा: स्व–परप्रणाशिन:। त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुने:, परस्परेक्षा: स्वपरोपकारिण:।61।=जो ये नित्य व क्षणिकादि नय हैं वे परस्पर निरपेक्ष होने से स्वपर प्रणाशी हैं। हे प्रत्यक्षज्ञानी विमलजिन ! आपके मत में वे ही सब नय परस्पर सापेक्ष होने से स्व व पर के उपकार के लिए हैं।
कषायपाहुड़/1/13-14/205/ गाथा 102/249 तम्हा मिच्छादिट्ठी सव्वे वि णया सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सिया उण लहंति सम्मत्तसब्भावं।102।=केवल अपने-अपने पक्ष से प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं। परंतु यदि परस्पर सापेक्ष हों तो सभी नय समीचीनपने को प्राप्त होते हैं, अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं।
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/9 ते एते गुणप्रधानतया परस्परतंत्रा: सम्यग्दर्शनहेतव: पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तंत्वादय इव यथोपाय विनिवेश्यमाना: पटादिसंज्ञा: स्वतंत्राश्चासमर्था:।=ये सब नय गौण-मुख्यरूप से एक दूसरे की अपेक्षा करके ही सम्यग्दर्शन के हेतु हैं। जिस प्रकार पुरुष की अर्थक्रिया और साधनों की सामर्थ्यवश यथायोग्य निवेशित किये गये तंतु आदिक पट संज्ञा को प्राप्त होते हैं। (तथा पटरूप में अर्थक्रिया करने को समर्थ होते हैं। और स्वतंत्र रहने पर (पटरूप में) कार्यकारी नहीं होते, वैसे ही ये नय भी समझने चाहिए। ( तत्त्वसार/1/51)।
सिद्धि विनिश्चय/ मूल/10/27/691 सापेक्षा नया: सिद्धा; दुर्नया अपि लोकत:। स्याद्वादिनां व्यवहारात् कुक्कुटग्रामवासितम् ।=लोक में प्रयोग की जाने वाली जो दुर्नय हैं वे भी स्याद्वादियों के ही सापेक्ष हो जाने से सुनय बन जाती हैं। यह बात आगम से सिद्ध है। जैसे कि एक किसी घर में रहने वाले अनेक गृहवासी परस्पर मैत्री पूर्वक रहते हैं।
लघीयस्त्रय/30 भेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदाभेदाभिसंधय:। ये तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यंते नयदुर्नया:।30। =भेदाभेदात्मक ज्ञेय में भेद व अभेदपने की अभिसंधि होने के कारण, उनको बतलाने वाले नय भी सापेक्ष होने से नय और निरपेक्ष होने दुर्नय कहलाते हैं। (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/590)।
नयचक्र बृहद्/249 सियसावेक्खा सम्मा मिच्छारूवा हु तेहिं णिरवेक्खा। तम्हा सियसद्दादो विसयं दोण्हं पि णायव्वं।=क्योंकि सापेक्ष नय सम्यक् और निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं, इसलिए प्रमाण व नय दोनों प्रकार के वाक्यों के साथ स्यात् शब्द युक्त करना चाहिए।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/266 ते सावेक्खा सुणया णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होंति। सयलववहारसिद्धी सुणयादो होदि णियमेण।=ये नय सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और निरपेक्ष हों तो दुर्नय होते हैं। सुनय से ही समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है। - मिथ्या नय निर्देश का कारण व प्रयोजन
स्याद्वादमंजरी/27/306/1 यद् व्यसनम् अत्यासक्ति: औचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावद् दुर्नीतिवादव्यसनम् ।=दुर्नयवाद एक व्यसन है। व्यसन का अर्थ यहाँ अति आसक्ति अर्थात् अपने पक्ष की हठ है, जिसके कारण उचित और अनुचित के विचार से निरपेक्ष प्रवृत्ति होती है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/566 अथ संति नयाभासा यथोपचाराख्यहेतुदृष्टांता:। अत्रोच्यंते केचिद्धेयतया वा नयादिशुद्धयर्थम् ।=उपचार के अनुकूल संज्ञा हेतु और दृष्टांतवाली जो नयाभास हैं, उनमें से कुछ का कथन यहाँ त्याज्यपने से अथवा नय आदि की शुद्धि के लिए कहते हैं। - सम्यग्दृष्टिकी नय सम्यक् है और मिथ्यादृष्टिकी मिथ्या
पंचास्तिकाय/तात्पर्य वृत्ति/43 की प्रक्षेपक गाथा नं.6/87 मिच्छत्ता अण्णाणं अविरदिभावो य भावआवरणा। णेयं पडुच्चकाले तह दुण्णं दुप्पमाणं च।6।=जिस प्रकार मिथ्यात्व के उदय से ज्ञान अज्ञान हो जाता है, अविरतिभाव उदित होते हैं, और सम्यक्त्वरूप भाव ढक जाता है, वैसे ही सुनय दुर्नय हो जाती है और प्रमाण दु:प्रमाण हो जाता है।
नयचक्र बृहद्/237 भेदुवयारं णिच्छय मिच्छादिट्ठीण मिच्छरूवं खु। सम्मे सम्मा भणिया तेहि दु बंधो व मोक्खो वा।237।=मिथ्यादृष्टियों के भेद या उपचार का ज्ञान नियम से मिथ्या होता है। और सम्यक्त्व हो जाने पर वही सम्यक् कहा गया है। तहाँ उस मिथ्यारूप ज्ञान से बंध और सम्यक्रूप ज्ञान से मोक्ष होता है। - प्रमाण ज्ञान होने के पश्चात् ही नय प्रवृत्ति सम्यक् होती है, उसके बिना नहीं
सर्वार्थसिद्धि/1/6/20/5 कुतोऽभ्यर्हितत्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात् । एवं ह्युक्तं ‘प्रगृह्य प्रमाणत: परिणतिविशेषादर्थावधारणं नय’ इति।=प्रश्न‒प्रमाण श्रेष्ठ क्यों है ? उत्तर‒क्योंकि प्रमाण से ही नय प्ररूपणा की उत्पत्ति हुई है, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। आगम में ऐसा कहा है कि वस्तु को प्रमाण से जानकर अनंतर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है। देखें नय - I.1.1.4 (प्रमाण गृहीत वस्तु के एक देश को जानना नय का लक्षण है।)
राजवार्तिक/1/6/2/33/6 यत: प्रमाणप्रकाशितेष्वर्थेषु नयप्रवृत्तिर्व्यवहारहेतुर्भवति नान्येषु अतोऽस्याभ्यर्हितत्वम् ।=क्योंकि प्रमाण से प्रकाशित पदार्थों में ही नय की प्रवृत्ति का व्यवहार होता है, अन्य पदार्थों में नहीं, इसलिए प्रमाण को श्रेष्ठपना प्राप्त होता है।
श्लोकवार्तिक/2/1/6/ श्लो.23/365 नाशेषवस्तुनिर्णीते: प्रमाणादेव कस्यचित् । तादृक् सामर्थ्यशून्यत्वात् सन्नयस्यापि सर्वदा।23।=किसी भी वस्तु का संपूर्णरूप से निर्णय करना प्रमाण ज्ञान से ही संभव है। समीचीन से भी समीचीन किसी नय की तिस प्रकार वस्तु का निर्णय कर लेने की सर्वदा सामर्थ्य नहीं है।
धवला 9/4,1,47/240/2 पमाणादो णयाणमुप्पत्ती, अणवगयट्ठे गुणप्पहाणभावाहिप्पायाणुप्पत्तीदो।=प्रमाण से नयों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि, वस्तु के अज्ञात होने पर, उसमें गौणता और प्रधानता का अभिप्राय नहीं बनता है।
आलापपद्धति/8/ गाथा 10 नानास्वभावसंयुक्तं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणत:। तच्च सापेक्षसिद्धयर्थं स्यान्नयमिश्रितं कुरु।10।=प्रमाण के द्वारा नानास्वभावसंयुक्त द्रव्य को जानकर, उन स्वभावों में परस्परसापेक्षता की सिद्धि के अर्थ (अथवा उनमें परस्पर निरपेक्षतारूप एकांत के विनाशार्थ) ( नयचक्र बृहद्/173 ), उस ज्ञान को नयों से मिश्रित करना चाहिए।(नयचक्र बृहद्/173)।
- नय सम्यक् भी है और मिथ्या भी
-
- नैगम आदि सात नय निर्देश
- सातों नयों का समुदित सामान्य निर्देश
- सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग
सर्वार्थसिद्धि/1/33/140/8 स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।...तयोर्भेदा नैगमादय:। =नय के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इन दोनों नयों के उत्तर भेद नैगमादि हैं। (राजवार्तिक/1/33/1/94/25) (देखें नय - I.1.4)
धवला 9/4,1,45/ पृष्ठ/पंक्ति‒स, एवंविधो नयो द्विविध:, द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति। (167/10)। तत्र योऽसौ द्रव्यार्थिकनय: स त्रिविधो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदेन।(168/4)। पर्यायार्थिको नयश्चतुर्विध: ऋजुसूत्रशब्द-समभिरूढैवंभूतभेदेन।((171/7)।=इस प्रकार की वह नय दो प्रकार है‒द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक। तहाँ जो द्रव्यार्थिक नय है वह तीन प्रकार है‒नैगम, संग्रह व व्यवहार। पर्यायार्थिकनय चार प्रकार है‒ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ व एवंभूत (धवला 1/1,1,1/ गाथा 5-7/12-13), (कषायपाहुड़ 1/13-14/181-182/ गाथा 87-89/218-220), ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 3/215) (हरिवंशपुराण/58/42), ( धवला 1/1,1,1/83/10 +84/2+85/2+86/3+86/6); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/177/211/4 +182/219/1 +184/222/1 + 197/235/1); (नयचक्र बृहद्/ श्रुत/217) (नयचक्र /पृष्ठ 20) ( तत्त्वसार/1/41-42/36); (स्याद्वादमंजरी/82/317/1 +318/22)।
- इनमें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग का कारण
धवला 1/1,1,1/84/7 एते त्रयोऽपि नया: नित्यवादिन: स्वविषये पर्यायाभावत: सामान्यविशेषकालयोरभावात् ।...द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययो: किंकृतो भेदश्चेदुच्यते ऋजुसूत्रवचनविच्छेदो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका:। विच्छिद्यतेऽस्मिन्काल इति विच्छेद:। ऋजुसूत्रवचनं नाम वर्तमानवचनं, तस्य विच्छेद: ऋजुसूत्रवचनविच्छेद:। स कालो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका:। ऋजुसूत्रवचनविच्छेदादारम्य आ एक समयाद्वस्तुस्थित्यध्यवसायिन: पर्यायार्थिका इति यावत् ।=ये तीनों ही (नैगम, संग्रह और व्यवहार) नय नित्यवादी हैं, क्योंकि इन तीनों ही नयों का विषय पर्याय न होने के कारण इन तीनों नयों के विषय में सामान्य और विशेषकाल का अभाव है। (अर्थात इन तीनों नयों में काल की विवक्षा नहीं होती।) प्रश्न‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक में किस प्रकार भेद है? उत्तर‒ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों का विच्छेद जिस काल में होता है, वह (काल) जिन नयों का मूल आधार है, वे पर्यायार्थिक नय हैं। विच्छेद अथवा अंत जिसकाल में होता है, उस काल को विच्छेद कहते हैं। वर्तमान वचन को ऋजुसूत्रवचन कहते हैं और उसके विच्छेद को ऋजुसूत्रवचनविच्छेद कहते हैं। वह ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों का विच्छेदरूप काल जिन नयों का मूल आधार है उन्हें पर्यायार्थिकनय कहते हैं। अर्थात् ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों के विच्छेदरूप समय से लेकर एकसमय पर्यंत वस्तु की स्थिति का निश्चय करने वाले पर्यायार्थिक नय हैं। (भावार्थ‒’देवदत्त’ इस शब्द का अंतिम अक्षर ‘त’ मुख से निकल चुकने के पश्चात् से लेकर एक समय आगे तक ही देवदत्त नाम का व्यक्ति है, दूसरे समय में वह कोई अन्य हो गया है। ऐसा पर्यायार्थिक नय का मंतव्य है। (कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3)
- सातों में अर्थ शब्द व ज्ञाननय विभाग
राजवार्तिक/4/42/17/361/2 संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रा अर्थनया:। शेषा: शब्दनया:।=संग्रह, व्यवहार, व ऋजुसूत्र ये अर्थनय हैं और शेष (शब्द, समभिरूढ और एवंभूत) शब्द या व्यंजननय हैं। ( धवला 9/4,1,45/181/1 )।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 81/269 तत्रर्जुसूत्रपर्यंताश्चत्वारोऽर्थनया मता:। त्रय: शब्दनया: शेषा: शब्दवाच्यार्थगोचरा:।81।=इन सातों में से नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय तो अर्थनय मानी गयी हैं, और शेष तीन (शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत) वाचक शब्द द्वारा अर्थ को विषय करने वाले शब्दनय हैं। (धवला 1/1,1,1/86/3), (कषायपाहुड़ 1/184/222/1 +197/1), ( नयचक्र बृहद्/217) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 20) ( तत्त्वसार/1/43) (स्या.प्र./28/319/29)।
नोट‒यद्यपि ऊपर कहीं भी ज्ञाननय का जिक्र नहीं किया गया है, परंतु जैसा कि आगे नैगमनय के लक्षणों पर से विदित है, इनमें से नैगमनय ज्ञाननय व अर्थनय दोनों रूप है। अर्थ को विषय करते समय यह अर्थनय है और संकल्प मात्र को ग्रहण करते समय ज्ञाननय है। इसके भूत, भावी आदि भेद भी ज्ञान को ही आश्रय करके किये गये हैं, क्योंकि वस्तु की भूत भावी पर्यायें वस्तु में नहीं ज्ञान में रहती हैं (देखें नय - III.3.6 में श्लोकवार्तिक )। इसके अतिरिक्त भी ऊपर के दो प्रमाणों में प्रथम प्रमाण में इस नय को अर्थनयरूप से ग्रहण न करने का भी यही कारण प्रतीत होता है। दूसरे प्रमाण में इसे अर्थनय कहना भी विरोध को प्राप्त नहीं होता क्योंकि यह ज्ञाननय होने के साथ-साथ अर्थनय भी अवश्य है।)
- सातों में अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण
धवला 1/1,1,1/86/3 अर्थनय: ऋजुसूत्र:। कुत:। ऋजु प्रगुणं सूत्रयतीति तत्सिद्धे:।...संत्वेतेऽर्थनया: अर्थव्यापृतत्वात् ।=शब्दभेद की विवक्षा न करके केवल पदार्थ के धर्मों का निश्चय करने वाला अर्थनय है, और शब्दभेद से उसमें भेद करने वाला व्यंजननय है‒देखें नय - I.4.2) यहाँ ऋजुसूत्र नय को अर्थनय समझना चाहिए। क्योंकि ऋजु सरल अर्थात् वर्तमान समयवर्ती पर्याय मात्र को जो ग्रहण करे उसे ऋजुसूत्र नय कहते हैं। इस तरह वर्तमान पर्यायरूप से अर्थ को ग्रहण करने वाला होने के कारण यह नय अर्थनय है, यह बात सिद्ध हो जाती है। अर्थ को विषय करने वाले होने के कारण नैगम, संग्रह और व्यवहार भी अर्थनय हैं। (शब्दभेद की अपेक्षा करके अर्थ में भेद डालने वाले होने के कारण शेष तीन नय व्यंजननय हैं।)
स्याद्वादमंजरी/28/310/16 अभिप्रायस्तावद् अर्थद्वारेण शब्दद्वारेण वा प्रवर्तते, गत्यंतराभावात् । तत्र ये केचनार्थनिरूपणप्रवणा: प्रमात्राभिप्रायास्ते सर्वेऽपि आद्ये नयचतुष्टयेऽंतर्भवंति। ये च शब्दविचारचतुरास्ते शब्दादिनयत्रये इति।=अभिप्राय प्रगट करने के दो ही द्वार हैं‒अर्थ या शब्द। क्योंकि, इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। तहाँ प्रमाता के जो अभिप्राय अर्थ का प्ररूपण करने में प्रवीण हैं वे तो अर्थनय हैं जो नैगमादि चार नयों में अंतर्भूत हो जाते हैं और जो शब्द विचार करने में चतुर हैं वे शब्दादि तीन व्यंजननय हैं। ( स्याद्वादमंजरी/28/319/29 )।
देखें नय - I.4.5 शब्दनय केवल शब्द को विषय करता है अर्थ को नहीं।
- नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं
धवला 9/4,1,45/181/4 नव नया: क्वचिच्छ्रूयंत इति चेन्न नयानामियत्तासंख्यानियमाभावात् ।=प्रश्न‒कहीं पर नौ नय सुने जाते हैं ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि ‘नय इतने हैं’ ऐसी संख्या के नियम का अभाव है। (विशेष देखें नय - I.5.5) (कषायपाहुड़/1/13-14/202/245/2)
- पूर्व पूर्व का नय अगले अगले का कारण है
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/7 एषां क्रम: पूर्वपूर्वहेतुकत्वाच्च।=पूर्व पूर्व का नय अगले-अगले नय का हेतु है, इसलिए भी यह क्रम (नैगम, संग्रह, व्यवहार एवंभूत) कहा गया है। (राजवार्तिक/1/33/12/99/17) (श्लोकवार्तिक/ पु. 4/1/33/श्लोक 82/269)
- सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/7 उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वादेषां क्रम:...। एवमेते नया: पूर्वपूर्वविरुद्धमहाविषया उत्तरोत्तरानुकूलाल्पविषया:।=उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय वाले होने के कारण इनका यह क्रम कहा है। इस प्रकार ये नय पूर्व पूर्व विरुद्ध महा विषयवाले और उत्तरोत्तर अनुकूल अल्प विषयवाले हैं (राजवार्तिक/1/33/12/99/17 ), (श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 82/269 ), (हरिवंशपुराण/58/50 ), (तत्त्वसार/1/43 )
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 98,100/289 यत्र प्रवर्त्तते स्वार्थे नियमादुत्तरो नय:। पूर्वपूर्वनयस्तत्र वर्तमानो न वार्यते।98। पूर्वत्र नोत्तरा संख्या यथायातानुवर्त्यते। तथोत्तरनय: पूर्वनयार्थसकले सदा।100।=जहाँ जिस अर्थ को विषय करने वाला उत्तरवर्ती नय नियम से प्रवर्तता है तिस तिस में पूर्ववर्ती नय की प्रवृत्ति नहीं रोकी जा सकती।98। परंतु उत्तरवर्ती नयें पूर्ववर्ती नयों के पूर्ण विषय में नहीं प्रवर्तती हैं। जैसे बड़ी संख्या में छोटी संख्या समा जाती है पर छोटी में बड़ी नहीं (पूर्व पूर्व का विरुद्ध विषय और उत्तर उत्तर का अनुकूल विषय होने का भी यही अर्थ है (राजवार्तिक/ हिन्दी /1/33/12/494 )
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 82-89/269 पूर्व: पूर्वो नयो भूमविषय: कारणात्मक:। पर: पर: पुन: सूक्ष्मगोचरो हेतुमानिह।82। सन्मात्रविषयत्वेन संग्रहस्य न युज्यते। महाविषयताभावाभावार्थान्नैगममान्नयात् ।83। यथा हि सति संकल्पस्यैवासति वेद्यते। तत्र प्रवर्तमानस्य नैगमस्य महार्थता।84। संग्रहाद्वयवहारोऽपि सद्विशेषावबोधक:। न भूमविषयोऽशेषसत्समूहोपदर्शिन:।85। नर्जूसूत्र: प्रभूतार्थो वर्तमानार्थगोचर:। कालात्रितयवृत्त्यर्थगोचराद्वयवहारत:।86। कालादिभेदतोऽप्यर्थमभिन्नमुपगच्छत:। नर्जुसूत्रान्महार्थोऽत्रशब्दस्तद्विपरीतवित् ।87। शब्दात्पर्यायभेदाभिन्नमर्थमभीप्सित:। न स्यात्समभिरूढोऽपि महार्थस्तद्विपर्यय:।88। क्रियाभेदेऽपि चाभिन्नमर्थमभ्युपगच्छत:। नैवंभूत: प्रभूतार्थो नय: समभिरूढत:।89।=इन नयों में पहले पहले के नय अधिक विषयवाले हैं, और आगे आगे के नय सूक्ष्म विषयवाले हैं।- संग्रहनय सन्मात्र को जानता है और नैगमनय संकल्प द्वारा विद्यमान व अविद्यमान दोनों को जानता है, इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है।
- व्यवहारनय संग्रह से जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से जानता है और संग्रह समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, इसलिए संग्रह नय का विषय व्यवहारनय से अधिक है।
- व्यवहारनय तीनों कालों के पदार्थों को जानता है और ऋजुसूत्र से केवल वर्तमान पदार्थों का ज्ञान होता है, अतएव व्यवहारनय का विषय ऋजुसूत्र से अधिक है।
- शब्दनय काल आदि के भेद से वर्तमान पर्याय को जानता है (अर्थात् वर्तमान पर्याय के वाचक अनेक पर्यायवाची शब्दों में से काल, लिंग, संख्या, पुरुष आदि रूप व्याकरण संबंधी विषमताओं का निराकरण करके मात्र समान काल, लिंग आदि वाले शब्दों को ही एकार्थवाची स्वीकार करता है)। ऋजुसूत्र में काल आदि का कोई भेद नहीं। इसलिए शब्दनय से ऋजुसूत्रनय का विषय अधिक है।
- समभिरूढ़नय इंद्र शक्र आदि (समान काल, लिंग आदि वाले) एकार्थवाची शब्दों को भी व्युत्पत्ति की अपेक्षा भिन्नरूप से जानता है, (अथवा उनमें से किसी एक ही शब्द को वाचकरूप से रूढ़ करता है), परंतु शब्दनय में यह सूक्ष्मता नहीं रहती, अतएव समभिरूढ़ से शब्दनय का विषय अधिक है।
- समभिरूढ़नय से जाने हुए पदार्थों में क्रिया के भेद से वस्तु में भेद मानना (अर्थात् समभिरूढ़ द्वारा रूढ़ शब्द को उसी समय उसका वाचक मानना जबकि वह वस्तु तदनुकूल क्रियारूप से परिणत हो) एवंभूत है। जैसे कि समभिरूढ़ की अपेक्षा पुरंदर और शचीपति (इन शब्दों के अर्थ) में भेद होने पर भी नगरों का नाश न करने के समय भी पुरंदर शब्द इंद्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परंतु एवंभूत की अपेक्षा नगरों का नाश करते समय ही इंद्र को पुरंदर नाम से कहा जा सकता है।) अतएव एवंभूत से समभिरूढ़नय का विषय अधिक है।
- (और अंतिम एवंभूत का विषय सर्वत: स्तोक है; क्योंकि, इसके आगे वाचक शब्द में किसी अपेक्षा भी भेद किया जाना संभव नहीं है।) (स्याद्वादमंजरी/28/319/30 ) ( राजवार्तिक/ हिन्दी /1/33/493 ) (और भी देखो आगे शीर्षक नं.9)।
धवला 1/1,1,1/13/11 (विशेषार्थ)‒वर्तमान समयवर्ती पर्याय को विषय करना ऋजुसूत्रनय है, इसलिए जब तक द्रव्यगत भेदों की ही मुख्यता रहती है तब तक व्यवहारनय चलता है। (देखें नय - V.4,4,3), और जब कालकृत भेद प्रारंभ हो जाता है, तभी से ऋजुसूत्रनय का प्रारंभ होता है। शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीनों नयों का विषय भी वर्तमान पर्यायमात्र है। परंतु उनमें ऋजुसूत्र के विषयभूत अर्थ के वाचक शब्दों की मुख्यता है, इसलिए उनका विषय ऋजुसूत्र से सूक्ष्म सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम माना गया है। अर्थात् ऋजुसूत्र के विषय में लिंग आदि से भेद करने वाला शब्दनय है। शब्दनय से स्वीकृत (समान) लिंग वचन आदि वाले शब्दों में व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद करने वाले समभिरूढ़नय हैं। और पर्यायशब्द को उस शब्द से ध्वनित होने वाला क्रियाकाल में ही वाचक मानने वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। इस तरह ये शब्दादिनय उस ऋजुसूत्र की शाखा उपशाखा हैं।
- सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण
धवला 7/2,1,4/ गाथा 1-6/28-29 णयाणामभिप्पाओ एत्थ उच्चदे। तं जहा‒कं पि णरं दठ्ठूण य पावजणसमागमं करेमाणं। णेगमणएण भण्णई णेरइओ एस पुरिसो त्ति।1। ववहारस्सा दु वयणं जइया कोदंडकंडगयहत्थो। भमइ मए मग्गंतो तइया सो होइ णेरइओ।2। उज्जुसुदस्स दु वयणं जइया इर ठाइदूण ठाणम्मि। आहणदि मए पावो तइया सो होइ णेरइओ।3। सद्दणयस्स दु वयणं जइया पाणेहि मोइदो जंतू। तइया सो णेरइओ हिसाकम्मेण संजुतो।4। वयणं तु समभिरूढं णारयकम्मस्स बंधगो जइया। तइया सो णेरइओ णारयकम्मेण संजुत्तो।5। णिरयगइं संपत्तो जइया अणुहवइ णारयं दुक्खं। तइया सो णेरइओ एवंभूदो णओ भणदि।6।=यहाँ (नरक गति के प्रकरण में) नयों का अभिप्राय बतलाते हैं। वह इस प्रकार है‒- किसी मनुष्य को पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है।1।
- (जब वह मनुष्य प्राणिवध करने का विचार कर सामग्री संग्रह करता है तब वह संग्रहनय से नारकी कहा जाता है)।
- व्यवहारनय का वचन इस प्रकार है‒जब कोई मनुष्य हाथ में धनुष और बाण लेकर मृगों की खोज में भटकता फिरता है, तब वह नारकी कहलाता है।2।
- ऋजुसूत्रनय का वचन इस प्रकार है‒जब आखेटस्थान पर बैठकर पापी मृगों पर आघात करता है तब वह नारकी कहलाता है।3।
- शब्दनय का वचन इस प्रकार है‒जब जंतु प्राणों से विमुक्त कर दिया जाता है, तभी वह आघात करने वाला हिंसा कर्म से संयुक्त मनुष्य नारकी कहा जाता है।4।
- समभिरूढ़नय का वचन इस प्रकार है‒जब मनुष्य नारक (गति व आयु) कर्म का बंधक होकर नरक कर्म से संयुक्त हो जाये तभी वह नारकी कहा जाये।5।
- जब वही मनुष्य नरकगति को पहुँचकर नरक के दु:ख अनुभव करने लगता है, तभी वह नारकी है, ऐसा एवंभूतनय कहता है।6। नोट‒(इसी प्रकार अन्य किसी भी विषय पर यथायोग्य रीति से ये सातों नय लागू की जा सकती हैं)।
- शब्दादि तीन नयों में अंतर
राजवार्तिक/4/42/17/261/11 व्यंजनपर्यायास्तु शब्दनया द्विविधं वचनं प्रकल्पयंति‒अभेदनाभिधानं भेदेन च। यथा शब्दे पर्यायशब्दांतरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद:। समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य अप्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् । एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् भेदेनाभिधानम् ।
अथवा, अन्यथा द्वैविध्यम् ‒ एकस्मिन्नर्थेऽनेकशब्दवृत्ति:, प्रत्यर्थं वा शब्दविनिवेश इति। यथा शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक: समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य: एक:। एवंभूते वर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:। =- वाचक शब्द की अपेक्षा‒शब्दनय (वस्तु की) व्यंजनपर्यायों को विषय करते हैं (शब्द का विषय बनाते हैं) वे अभेद तथा भेद दो प्रकार के वचन प्रयोग को सामने लाते हैं (दो प्रकार के वाचक शब्दों का प्रयोग करते हैं।) शब्दनय में पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग होने पर भी उसी अर्थ का कथन होता है अत: अभेद है। समभिरूढ़नय में घटन क्रिया में परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घट का निरूपण होता है। एवंभूत में प्रवृत्तिनिमित्त से भिन्न ही अर्थ का निरूपण होता है।
- वाच्य पदार्थ की अपेक्षा‒अथवा एक अर्थ में अनेक शब्दों की प्रवृत्ति या प्रत्येक में स्वतंत्र शब्दों का प्रयोग, इस तरह भी दो प्रकार हैं। शब्दनय में अनेक पर्यायवाची शब्दों का वाच्य एक ही होता है। समभिरूढ़ में चूँकि शब्द नैमित्तिक है, अत: एक शब्द का वाच्य एक ही होता है। एवंभूत वर्तमान निमित्त को पकड़ता है। अत: उसके मत में भी एक शब्द का वाच्य एक ही है।
- सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग
- नैगम नय के भेद व लक्षण
- नैगम नय सामान्य के लक्षण
- निगम अर्थात् संकल्पग्राही
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/2 अनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगम:।=अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगम है। ( राजवार्तिक/1/33/2/95/13 ); (श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 7/230 ); (हरिवंशपुराण/58/43 ); (तत्त्वसार/1/44 )।
राजवार्तिक/1/33/2/95/12 निर्गच्छंति तस्मिन्निति निगमनमात्रं वा निगम: निगमे कुशलो भवो वा नैगम:।=उसमें अर्थात् आत्मा में जो उत्पन्न हो या अवतारमात्र निगम कहलाता है। उस निगम में जो कुशल हो अर्थात् निगम या संकल्प को जो विषय करे उसे नैगम कहते हैं।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 18/230 संकल्पो निगमस्तत्र भवोऽयं तत्प्रयोजन:।=नैगम शब्द को भव अर्थ या प्रयोजन अर्थ में तद्धितका अण् प्रत्यय कर बनाया गया है। निगम का अर्थ संकल्प है, उस संकल्प में जो उपजे अथवा वह संकल्प जिसका प्रयोजन हो वह नैगम नय है। ( आलापपद्धति/9 ); (नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19 )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/271 जो साहेदि अदीदं वियप्परूवं भविस्समट्ठं च। संपडि कालाविट्ठं सो हु णओ णेगमो णेओ।271।=जो नय अतीत, अनागत और वर्तमान को विकल्परूप से साधता है वह नैगमनय है।
- ‘नैकं गमो’ अर्थात् द्वैतग्राही
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 21/232 यद्वा नैकं गमो योऽत्र सतां नैगमो मत:। धर्मयोर्धर्मिणोर्वापि विवक्षा धर्मधर्मिणो:।=जो एक को विषय नहीं करता उसे नैगमनय कहते हैं। अर्थात् जो मुख्य गौणरूप से दो धर्मों को, दो धर्मियों को अथवा धर्म व धर्मी दोनों को विषय करता है वह नैगम नय है। (धवला 9/4,1,45/181/2 ); ( धवला 13/5,5,7/199/1 ); (स्याद्वादमंजरी/28/-311/3,317/2 )।
स्याद्वादमंजरी/28/315/14 में उद्धृत =अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नय:।=अभिन्न ज्ञान का कारण जो सामान्य है, वह अन्य है और विशेष अन्य है, ऐसा नैगमनय मानता है।
देखें आगे नय - III.3.2 (संग्रह व व्यवहार दोनों को विषय करता है।)
- निगम अर्थात् संकल्पग्राही
- ‘संकल्पग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/2 कश्चित्पुरुषं परिगृहीतपरशुं गच्छंतमवलोक्य कश्चित्पृच्छति किमर्थं भवान्गच्छतीति। स आह प्रस्थमानेतुमिति। नासौ तदा प्रस्थपर्याय: संनिहित: तदभिनिवृत्तये संकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहार:। तथा एधोदकाद्याहरणे व्याप्रियमाणं कश्चित्पृच्छति किं करोति भवानिति स आह ओदनं पचामीति। न तदौदनपर्याय:, संनिहित:, तदर्थे व्यापारे स प्रयुज्यते। एवं प्रकारो लोकसंव्यवहारोऽअंनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रविषयो नैगमस्य गोचर:।=- हाथ में फरसा लिये जाते हुए किसी पुरुष को देखकर कोई अन्य पुरुष पूछता है, ‘आप किस काम के लिए जा रहे हैं।’ वह कहता है कि प्रस्थ लेने के लिए जा रहा हूँ। उस समय वह प्रस्थ पर्याय, सन्निहित नहीं है। केवल उसके बनाने का संकल्प होने से उसमें (जिस काठ को लेने जा रहा है उस काठ में) प्रस्थ-व्यवहार किया गया है।
- इसी प्रकार ईंधन और जल आदि के लाने में लगे हुए किसी पुरुष से कोई पूछता है, कि ‘आप क्या कर रहे हैं। उसने कहा, भात पका रहा हूँ। उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भात के लिए किये गये व्यापार में भात का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार का जितना लोकव्यवहार है वह अनिष्पन्न अर्थ के आलंबन से संकल्पमात्र को विषय करता है, वह सब नैगमनय का विषय है। (राजवार्तिक/1/33/2/95/13); (श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 18/230)।
- ‘द्वैतग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण
षट्खंडागम/12/4,2,9/ सूत्र.2/295 1. णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा सिया जीवस्स वा।2।=नैगम और व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना कथंचित् जीव के होती है। (यहाँ जीव तथा उसका कर्मानुभव दोनों का ग्रहण किया है। वेदना प्रधान है और जीव गौण)।
षट्खंडागम 10/4,2,3/ सूत्र 1/13 2. णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा दंसणावरणीयवेयणा वेयणीवेयणा...। =नैगम व व्यवहारनय से वेदना ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय...(आदि आठ भेदरूप है)। (यहाँ वेदना सामान्य गौण और ज्ञानावरणीय आदि भेद प्रधान–ऐसे दोनों का ग्रहण किया है।)
कषायपाहुड़ 1/13-14/257/297/1 3 ‒जं मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पणो सो तत्तो पुधभूदो संतो कधं कोहो। होंत ऐसो दोसो जदि संगहादिणया अवलंबिदा, किंतु णइगमणओ अइवसहाइरिएण जेणाबलंबिदो तेण ण एस दोसो। तत्थ कधं ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकज्जब्भुवगमादो।=प्रश्न‒जिस मनुष्य के निमित्त से क्रोध उत्पन्न हुआ है, वह मनुष्य उस क्रोध से अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है? उत्तर‒यदि यहाँ पर संग्रह आदि नयों का अवलंबन लिया होता, तो ऐसा होता, अर्थात् संग्रह आदि नयों की अपेक्षा क्रोध से भिन्न मनुष्य आदिक क्रोध नहीं कहलाये जा सकते हैं। किंतु यतिवृषभाचार्य ने चूँकि यहाँ नैगमनय का अवलंबन लिया है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न‒दोष कैसे नहीं है ? उत्तर‒क्योंकि नैगमनय की अपेक्षा कारण में कार्य का सद्भाव स्वीकार किया गया है। (और भी दे.‒उपचार-5.3)
धवला 9/4,1,45/171/5 4 . परस्परविभिन्नोभयविषयालंबनो नैगमनय:; शब्द–शील-कर्म-कार्य-कारणाधाराधेय-भूत-भावि-भविष्यद्वर्तमान-मेयोन्मेयादिकमाश्रित्य स्थितोपचारप्रभव इति यावत् ।=परस्पर भिन्न (भेदाभेद) दो विषयों का अवलंबन करने वाला नैगमनय है। अभिप्राय यह कि जो शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, भूत, भविष्यत्, वर्तमान, मेय व उन्मेयादि का आश्रयकर स्थित उपचार से उत्पन्न होने वाला है, वह नैगमनय कहा जाता है। ( कषायपाहुड़/1/13-14/183/221/1)।
धवला 13/5,3,12/13/1 5 . धम्मदव्वं धम्मदव्वेण पुस्सज्जदि, असंगहियणेगमणयमस्सिदूण लोगागासपदेसमेत्तधम्मदव्वपदेसाणं पुध-पुध लद्धदव्वववएसाणमण्णोण्णं पासुवलंभादो। अधम्मदव्वमधम्मदव्वेण पुसिज्जदि, तक्खंध-देस-पदेस-परमाणूणमसंगहियणेगमणएण पत्तदव्वभावाणमेयत्तदंसणादो।=धर्म द्रव्य धर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्श को प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनय की अपेक्षा लोकाकाश के प्रदेशप्रमाण और पृथक्-पृथक् द्रव्य संज्ञा को प्राप्त हुए धर्मद्रव्य के प्रदेशों का परस्पर में स्पर्श देखा जाता है। अधर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्श को प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनय की अपेक्षा द्रव्यभाव को प्राप्त हुए अधर्मद्रव्य के स्कंध, देश, प्रदेश, और परमाणुओं का एकत्व देखा जाता है।
स्याद्वादमंजरी/28/317/2 6 . धर्मयोर्धर्मिणोर्धर्मंधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगम:। सत् चैतन्यमात्मनीति धर्मयो:। वस्तुपर्यायवद्द्रव्यमिति धर्मिणो:। क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्मधर्मिणो:। =दो धर्म और दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मी में प्रधानता और गौणता की विवक्षा को नैगमनय कहते हैं। जैसे (1) सत् और चैतन्य दोनों आत्मा के धर्म हैं। यहाँ सत् और चैतन्य धर्मों में चैतन्य विशेष्य होने से प्रधान धर्म है और सत् विशेषण होने से गौण धर्म है। (2) पर्यायवान् द्रव्य को वस्तु कहते हैं। यहाँ द्रव्य और वस्तु दो धर्मियों में द्रव्य मुख्य और वस्तु गौण है। अथवा पर्यायवान् वस्तु को द्रव्य कहते हैं, यहाँ वस्तु मुख्य और द्रव्य गौण है। (3) विषयासक्तजीव क्षण भरके लिए सुखी हो जाता है। यहाँ विषयासक्त जीवरूप धर्मी मुख्य और सुखरूप धर्म गौण है।
स्याद्वादमंजरी/28/311/3 तत्र नैगम: सत्तालक्षणं महासामान्यं, अवांतरसामांयानि च, द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादीनि; तथांत्यां विशेषान् सकलासाधारणरूपलक्षणान्, अवांतरविशेषांश्चापेक्षया पररूपव्यावृत्तनक्षमान् सामान्यान् अत्यंतविनिर्लुठितस्वरूपानभिप्रैति।=नैगमनय सत्तारूप महासामान्य को; अवांतरसामांय को; द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व आदि को; सकल असाधारणरूप अंत्य विशेषों को; तथा पररूप से व्यावृत और सामान्य से भिन्न अवांतर विशेषों को, अत्यंत एकमेकरूप से रहने वाले सर्वधर्मों को (मुख्य गौण करके) जानता है।
- नैगमनय के भेद
श्लोकवार्तिक/4/1/33/48/239/18 त्रिविधस्तावन्नैगम:। पर्यायनैगम: द्रव्यनैगम:, द्रव्यपर्यायनैगमश्चेति। तत्र प्रथमस्त्रेधा। अर्थपर्यायनैगमो व्यंजनपर्यायनैगमोऽर्थव्यंजनपर्यायनैगमश्च इति। द्वितीयो द्विधा-शुद्धद्रव्यनैगम: अशुद्धद्रव्यनैगमश्चेति। तृतीयश्चतुर्धा। शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगमश्चेति नवधा नैगम: साभास उदाहृत: परीक्षणीय:। =नैगमनय तीन प्रकार का है‒पर्यायनैगम, द्रव्यनैगम, द्रव्यपर्यायनैगम। तहाँ पर्यायनैगम तीन प्रकार का है‒अर्थपर्यायनैगम, व्यंजनपर्यायनैगम और अर्थव्यंजनपर्यायनैगम। द्रव्यनैगमनय दो प्रकार का है‒ शुद्धद्रव्यनैगम और अशुद्धद्रव्यनैगम। द्रव्यपर्यायनैगम चार प्रकार है‒शुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम, अशुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, अशुद्ध द्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम। ऐसे नौ प्रकार का नैगमनय और इन नौ ही प्रकार का नैगमाभास उदाहरण पूर्वक कहे गये हैं। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/202/244/1); ( धवला 9/4,1,45/181/3)।
आलापपद्धति/5 नैगमस्त्रेधा भूतभाविवर्तमानकालभेदात् ।=भूत, भावि और वर्तमानकाल के भेद से (संकल्पग्राही) नैगमनय तीन प्रकार का है। (नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19)।
- भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण
आलापपद्धति/5 त्कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमो। =अतीत कार्य में ‘आज हुआ है’ ऐसा वर्तमान का आरोप या उपचार करना भूत नैगमनय है। होने वाले कार्य को ‘हो चुका’ ऐसा भूतवत् कथन करना भावी नैगमनय है। और जो कार्य करना प्रारंभ कर दिया गया है, परंतु अभी तक जो निष्पन्न नहीं हुआ है, कुछ निष्पन्न है और कुछ अनिष्पन्न उस कार्य को ‘हो गया’ ऐसा निष्पन्नवत् कथन करना वर्तमान नैगमनय है। (नयचक्र बृहद्/206-208); (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.12)।
- भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के उदाहरण
- भूत नैगम
आलापपद्धति/5 भूतनैगमो यथा, अद्य दीपोत्सवदिने श्रीवर्द्धमानस्वामी मोक्षंगत:। =आज दीपावली के दिन भगवान् वर्द्धमान मोक्ष गये हैं, ऐसा कहना भूत नैगमनय है। (नयचक्र बृहद्/206); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 10)।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19 भूतनैगमनयापेक्षया भगवतां सिद्धानामपि व्यंजनपर्यायत्वमशुद्धत्वं च संभवति। पूर्वकाले ते भगवंत: संसारिण इति व्यवहारात् ।=भूत नैगमनय की अपेक्षा से भगवंत सिद्धों को भी व्यंजनपर्यायवानपना और अशुद्धपना संभावित होता है, क्योंकि पूर्वकाल में वे भगवंत संसारी थे ऐसा व्यवहार है।
द्रव्यसंग्रह टीका/14/48/9 अंतरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतघटवत् ...परमात्मावस्थायां पुनरंतरात्मबहिरात्मद्वयं भूतपूर्वनयेनेति।=अंतरात्मा की अवस्था में बहिरात्मा और परमात्मा की अवस्था में अंतरात्मा व बहिरात्मा दोनों घी के घड़ेवत् भूतपूर्व न्याय से जानने चाहिए।
- भावी नैगमनय
आलापपद्धति/5 भावि नैगमो यथा‒अर्हन् सिद्ध एव।=भावी नैगमनय की अपेक्षा अर्हंत भगवान् सिद्ध ही हैं।
नयचक्र बृहद्/207 णिप्पण्णमिव पजंपदि भाविपदत्थं णरो अणिप्पण्णं। अप्पत्थे जह पत्थं भण्णइ सो भाविणइगमत्ति णओ।207।=जो पदार्थ अभी अनिष्पन्न है, और भावी काल में निष्पन्न होने वाला है, उसे निष्पन्नवत् कहना भावी नैगमनय है। जैसे‒जो अभी प्रस्थ नहीं बना है ऐसे काठ के टुकड़े को ही प्रस्थ कह देना। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 11) (और भी‒देखें पीछे संकल्पग्राही नैगमनय का उदाहरण नय-III.2.2)।
धवला 12/4,2,10,2/303/5 उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेश:, फलदातृत्वेन परिणतत्वात् । न बध्यमानोपशांतयो:, तत्र तदभावादिति। न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृतिशब्दसिद्धे:। ...भूदभविस्सपज्जायाणं वट्टमाणत्तब्भुवगमादो वा णेगमणयम्मि एसा वुप्पत्ती घडदे।=प्रश्न‒उदीर्ण कर्मपुद्गलस्कंध की प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योंकि, वह फलदान स्वरूप से परिणत है। बध्यमान और उपशांत कर्म पुद्गलस्कंधों की यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, उनमें फलदान स्वरूप का अभाव है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, तीनों ही कालों में प्रकृति शब्द की सिद्धि की गयी है। भूत व भविष्यत् पर्यायों को वर्तमानरूप स्वीकार कर लेने से नैगमनय में व्युत्पत्ति बैठ जाती है।
देखें अपूर्वकरण - 4 (भूत व भावी नैगमनय से 8वें गुणस्थान में उपशामक व क्षपक संज्ञा बन जाती है, भले ही वहाँ एक भी कर्म का उपशम या क्षय नहीं होता।
द्रव्यसंग्रह/टीका/14/48/8 बहिरात्मावस्थायामंतरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च विज्ञेयम्, अंतरात्मावस्थायां...परमात्मस्वरूपं तु शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च।=बहिरात्मा की दशा में अंतरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से तो रहते ही हैं, परंतु भाविनैगमनय से व्यक्तिरूप से भी रहते हैं। इसी प्रकार अंतरात्मा की दशा में परमात्मस्वरूप शक्तिरूप से तो रहता ही है, परंतु भाविनैगमनय से व्यक्तिरूप से भी रहता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/621 तेभ्योऽर्वागपि छद्मस्थरूपास्तद्रूपधारिण:। गुरव: स्युर्गुरोर्न्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।621। =देव होने से पहले भी, छद्मस्थ रूप में विद्यमान मुनि को देवरूप का धारी होने करि गुरु कह दिया जाता है। वास्तव में तो देव ही गुरु हैं। ऐसा भावि नैगमनय से ही कहा जा सकता है। अन्य अवस्था विशेष में तो किसी भी प्रकार गुरु संज्ञा घटित होती नहीं। - वर्तमान नैगमनय
आलापपद्धति/5 वर्तमाननैगमो यथा‒ओदन: पच्यते।=वर्तमान नैगमनय से अधपके चावलों को भी ‘भात पकता है’ ऐसा कह दिया जाता है। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 11)।
नयचक्र बृहद्/208 परद्धा जा किरिया पयणविहाणादि कहइ जो सिद्धा। लोएसे पुच्छमाणे भण्णइ तं वट्टमाणणयं।208।=पाकक्रिया के प्रारंभ करने पर ही किसी के पूछने पर यह कह दिया जाता है, कि भात पक गया है या भात पकाता हूँ, ऐसा वर्तमान नैगमनय है। (और भी देखें पीछे संकल्पग्राही नैगमनय का उदाहरणनय-III.2.2 )।
- भूत नैगम
- पर्याय, द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्य के लक्षण
धवला 9/4,1,45/181/2 न एकगमो नैगम इति न्यायात् शुद्धाशुद्धपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: पर्यायार्थिकनैगम:; द्रव्यार्थिकनयद्वयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:; द्रव्यपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: नैगमो द्वंद्वज:। =जो एक को विषय न करे अर्थात् भेद व अभेद दोनों को विषय करे वह नैगमनय है’ इस न्याय से जो शुद्ध व अशुद्ध दोनों पर्यायार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला हो वह पर्यायार्थिकनैगमनय है। शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्वंद्वज अर्थात् द्रव्य पर्यायार्थिक नैगमनय है।
कषायपाहुड़ 1/13-14/202/244/3 युक्त्यवष्टंभबलेन संग्रहव्यवहारनयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:। ऋजुसूत्रादिनयचतुष्टयविषयं युक्त्यवष्टंभबलेन प्रतिपन्न: पर्यायार्थिकनैगम:। द्रव्यार्थिकनयविषयं पर्यायार्थिकविषयं च प्रतिपन्न: द्रव्यपर्यायार्थिकनैगम:।=युक्तिरूप आधार के बल से संग्रह और व्यवहार इन दोनों (शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक) नयों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। ऋजुसूत्र आदि चार नयों के विषय को स्वीकार करने वाला पर्यायार्थिक नय है तथा द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक इन दोनों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यपर्यायार्थिक नैगमनय है।
- द्रव्य व पर्याय आदि नैगमनय के भेदों के लक्षण व उदाहरण
- अर्थ, व्यंजन व तदुभय पर्याय नैगम
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 28-35/34 अर्थपर्याययोस्तावद्गुणमुख्यस्वभावत:। क्वचिद्वस्तुन्यभिप्राय: प्रतिपत्तु: प्रजायते।28। यथा प्रतिक्षणं ध्वंसि सुखसंविच्छरीरिण:। इति सत्तार्थपर्यायो विशेषणतया गुण:।29। संवेदनार्थपर्यायो विशेष्यत्वेन मुख्यताम् । प्रतिगच्छन्नभिप्रेतो नान्यथैवं वचो गति:।30। कश्चिद्वयंजनपर्यायौ विषयीकुरुतेऽंजसा। गुणप्रधानभावेन धर्मिण्येकत्र नैगम:।32। सच्चैतन्यं नरीत्येवं सत्त्वस्य गुणभावत:। प्रधानभावतश्चापि चैतन्यस्याभिसिद्धित:।33। अर्थव्यंजनपर्यायौ गोचरीकुरुते पर:। धार्मिके सुखजीवित्वमित्येवमनुरोधत:।35।=एक वस्तु में दो अर्थपर्यायों को गौण मुख्यरूप से जानने के लिए नयज्ञानों का जो अभिप्राय उत्पन्न होता है, उसे अर्थ पर्यायनैगम नय कहते हैं। जैसे कि शरीरधारी आत्मा का सुखसंवेदन प्रतिक्षणध्वंसी है। यहाँ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप सत्ता सामान्य की अर्थपर्याय तो विशेषण हो जाने से गौण है, और संवेदनरूप अर्थपर्याय विशेष्य होने से मुख्य है। अन्यथा किसी कथन द्वारा इस अभिप्राय की ज्ञप्ति नहीं हो सकती।28-30। एक धर्मी में दो व्यंजनपर्यायों को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला व्यंजनपर्यायनैगमनय है। जैसे ‘आत्मा में सत्त्व और चैतन्य है’। यहाँ विशेषण होने के कारण सत्ता की गौणरूप से और विशेष्य होने के कारण चैतन्य को प्रधानरूप से ज्ञप्ति होती है।32-33। एक धर्मी में अर्थ व व्यंजन दोनों पर्यायों को विषय करने वाला अर्थव्यंजनपर्याय नैगमनय है, जैसे कि धर्मात्मा व्यक्ति में सुखपूर्वक जीवन वर्त रहा है। (यहाँ धर्मात्मारूप धर्मी में सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने के कारण गौण है और जीवीपनारूप व्यंजनपर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है।35। (राजवार्तिक/ हिंदी/1/33/198-199)/
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य नैगम
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 37-39/236 शुद्धद्रव्यमशुद्धं च तथाभिप्रैति यो नय:। स तु नैगम एवेह संग्रहव्यवहारत:।37। सद्द्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगंतव्य:...।38। यस्तु पर्यायवद्द्रव्यं गुणवद्वेति निर्णय:। व्यवहारनयाज्जात: सोऽशुद्धद्रव्यनैगम:।39। =शुद्धद्रव्य या अशुद्धद्रव्य को विषय करने वाले संग्रह व व्यवहार नय से उत्पन्न होने वाले अभिप्राय ही क्रम से शुद्धद्रव्यनैगम और अशुद्धद्रव्यनैगमनय हैं। जैसे कि अन्वय का निश्चय हो जाने से संपूर्ण वस्तुओं को ‘सत् द्रव्य’ कहना शुद्धद्रव्य नैगमनय है।37-38। (यहाँ ‘सत्’ तो विशेषण होने के कारण गौण है और ‘द्रव्य’ विशेष्य होने के कारण मुख्य है।) जो नय ‘पर्यायवान् द्रव्य है’ अथवा ‘गुणवान् द्रव्य है’ इस प्रकार निर्णय करता है, वह व्यवहारनय से उत्पन्न होने वाला अशुद्धद्रव्यनैगमनय है। (यहाँ ‘पर्यायवान्’ तथा ‘गुणवान्’ ये तो विशेषण होने के कारण गौण हैं और ‘द्रव्य’ विशेष्य होने के कारण मुख्य है।) (राजवार्तिक/ हिंदी/1/33/198) नोट‒(संग्रह व्यवहारनय तथा शुद्ध, अशुद्ध द्रव्यनैगमनय में अंतर के लिए‒देखें आगे नय - III.3)।
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यपर्याय नैगम
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 41-46/237 शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमोऽस्ति परो यथा। सत्सुखं क्षणिकं शुद्धं संसारेऽस्मिन्नितीरणम् ।41। क्षणमेकं सुखी जीवो विषयीति विनिश्चय:। विनिर्दिष्टोऽर्थपर्यायोऽशुद्धद्रव्यार्थनैगम:।43। गोचरीकुरुते शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्ययौ। नैगमोऽन्यो यथा सच्चित्सामान्यमिति निर्णय:।45। विद्यते चापरो शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्ययौ। अर्थीकरोति य: सोऽत्र ना गुणीति निगद्यते।46। =(शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक अर्थपर्याय को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला शुद्धद्रव्य अर्थपर्याय-नैगमनय है) जैसे कि संसार में सुख पदार्थ शुद्ध सत्स्वरूप होता हुआ क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है। (यहाँ उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप सत्पना तो शुद्ध द्रव्य है और सुख अर्थपर्याय है। तहाँ विशेषण होने के कारण सत् तो गौण है और विशेष्य होने के कारण सुख मुख्य है।41।) (अशुद्ध द्रव्य व उसकी किसी एक अर्थ पर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला अशुद्धद्रव्यअर्थपर्याय-नैगमनय है।) जैसे कि संसारी जीव क्षणमात्र को सुखी है। (यहाँ सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने के कारण गौण है और संसारी जीवरूप अशुद्धद्रव्य विशेष्य होने के कारण मुख्य है)।43। शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक व्यंजनपर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला शुद्धद्रव्य-व्यंजनपर्याय-नैगमनय है। जैसे कि यह सत् सामान्य चैतन्यस्वरूप है। (यहाँ सत् सामान्यरूप शुद्धद्रव्य तो विशेषण होने के कारण गौण है और उसकी चैतन्यपनेरूप व्यंजनपर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है)।45। अशुद्धद्रव्य और उसकी किसी एक व्यंजन पर्याय को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला अशुद्धद्रव्य-व्यंजनपर्याय-नैगमनय है। जैसे ‘मनुष्य गुणी है’ ऐसा कहना। (यहाँ ‘मनुष्य’ रूप अशुद्धद्रव्य तो विशेष्य होने के कारण मुख्य है और ‘गुणी’ रूप व्यंजनपर्याय विशेषण होने के कारण गौण है।46।) (राजवार्तिक/ हिंदी/1/33/199)
- अर्थ, व्यंजन व तदुभय पर्याय नैगम
- नैगमाभास सामान्य का लक्षण व उदाहरण
स्याद्वादमंजरी/28/317/5 धर्मद्वयादीनामैकांतिकपार्थक्याभिसंधिर्नैगमाभास:। यथा आत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यंतपृथग्भूते इत्यादि:। =दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म व एक धर्मी में सर्वथा भिन्नता दिखाने को नैगमाभास कहते हैं। जैसे‒आत्मा में सत् और चैतन्य परस्पर अत्यंत भिन्न हैं ऐसा कहना। (विशेष देखो अगला शीर्षक)
- नैगमाभास विशेषों के लक्षण व उदाहरण
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक नं./पृष्ठ 235-239 सर्वथा सुखसंवित्त्योर्नानात्वेऽभिमति: पुन:। स्वाश्रयाच्चार्थपर्यायनैगमाभोऽप्रतीतित:।31। तयोरत्यंतभेदोक्तिरंयोंयं स्वाश्रयादपि। ज्ञेयो व्यंजनपर्यायनैगमाभो विरोधत:।34। भिन्ने तु सुखजीवित्वे योऽभिमन्येत सर्वथा। सोऽर्थव्यंजनपर्यायनैगमाभास एव न:।36। सद्द्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगंतव्यस्तद्भेदोक्तिस्तु दुर्नय:।38। तद्भेदैकांतवादस्तु तदाभासोऽनुमन्यते। तथोक्तेर्बहिरंतश्च प्रत्यक्षादिविरोधत:।40। सत्त्वं सुखार्थपर्यायाद्भिन्नमेवेति संमति:। दुर्नीति: स्यात्सबाधत्वादिति नीतिविदो विदु:।42। सुखजीवभिदोक्तिस्तु सर्वथा मानबाधिता। दुर्नीतिरेव बोद्धव्या शुद्धबोधैरसंशयात् ।44। भिदाभिदाभिरत्यंतं प्रतीतेरपलापत:। पूर्ववन्नैगमाभासौ प्रत्येतव्यौ तयोरपि।47।=- (नैगमाभास के सामान्य लक्षणवत् यहाँ भी धर्मधर्मी आदि में सर्वथा भेद दर्शाकर पर्यायनैगम व द्रव्यनैगम आदि के आभासों का निरूपण किया गया है।) जैसे‒
- शरीरधारी आत्मा में सुख व संवेदन का सर्वथा नानापने का अभिप्राय रखना अर्थपर्यायनैगमाभास है। क्योंकि द्रव्य के गुणों का परस्पर में अथवा अपने आश्रयभूत द्रव्य के साथ ऐसा भेद प्रतीतिगोचर नहीं है।31।
- आत्मा से सत्ता और चैतन्य का अथवा सत्ता और चैतन्य का परस्पर में अत्यंत भेद मानना व्यंजनपर्याय नैगमाभास है।34।
- धर्मात्मा पुरुष में सुख व जीवनपने का सर्वथा भेद मानना अर्थव्यंजनपर्याय-नैगमाभास है।36।
- सब द्रव्यों में अन्वयरूप से रहने का निश्चय किये बिना द्रव्यपने और सत्पने को सर्वथा भेदरूप कहना शुद्धद्रव्यनैगमाभास है।38।
- पर्याय व पर्यायवान् में सर्वथा भेद मानना अशुद्ध-द्रव्यनैगमाभास है। क्योंकि घट पट आदि बहिरंग पदार्थों में तथा आत्मा ज्ञान आदि अंतरंग पदार्थों में इस प्रकार का भेद प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध है।40।
- सुखस्वरूप अर्थपर्याय से सत्त्वस्वरूप शुद्धद्रव्य को सर्वथा भिन्न मानना शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमाभास है। क्योंकि इस प्रकार का भेद अनेक बाधाओं सहित है।42।
- सुख और जीव को सर्वथा भेदरूप से कहना अशुद्धद्रव्यार्थपर्याय नैगमाभास है। क्योंकि गुण व गुणी में सर्वथा भेद प्रमाणों से बाधित है।44।
- सत् व चैतन्य के सर्वथा भेद या अभेद का अभिप्राय रखना शुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय-नैगमाभास है।47।
- मनुष्य व गुणी का सर्वथा भेद या अभेद मानना अशुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय नैगमाभास है।47।
- नैगम नय सामान्य के लक्षण
- नैगमनय निर्देश
- नैगम नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 17/230 तत्र संकल्पमात्रो ग्राहको नैगमो नय:। सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थिकस्याभिधानात् ।17।=संकल्पमात्र ग्राही नैगमनय अशुद्ध द्रव्य का कथन करने से सोपाधि है। (क्योंकि सत्त्व प्रस्थादि उपाधियाँ अशुद्धद्रव्य में ही संभव हैं और अभेद में भेद विवक्षा करने से भी उसमें अशुद्धता आती है।) (और भी देखें नय - III.2.1, नय - III.2.2)।
- शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नैगम के पेट में समा जाते हैं
धवला 1/1,1,1/84/6 यदस्ति न तद् द्वयमतिलङ्ध्य वर्तत इति नैकगमो नैगम:, संग्रहासंग्रहस्वरूपद्रव्यार्थिको नैगम इति यावत् ।=जो है वह उक्त दोनों (संग्रह और व्यवहार नय) को छोड़कर नहीं रहता है। इस तरह जो एक को ही प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् अनेक को प्राप्त होता है उसे नैगमनय कहते हैं। अर्थात् संग्रह और असंग्रहरूप जो द्रव्यार्थिकनय है वही नैगम नय है। (कषायपाहुड़ 1/21/353/376/3)। (और भी देखें नय - III.3.3)।
धवला 9/4,1,45/171/4 यदस्ति न तद् द्वयमतिलङ्ध्य वर्तत इति संग्रह व्यवहारयो: परस्परविभिन्नोभयविषयावलंबनो नैगमनय:।=जो है वह भेद व अभेद दोनों को उल्लंघन कर नहीं रहता, इस प्रकार संग्रह और व्यवहार नयों के परस्पर भिन्न (भेदाभेद) दो विषयों का अवलंबन करने वाला नैगमनय है। ( धवला 12/4,2,10,2/303/1); (कषायपाहुड़/1/13-14/183/231/1); (और भी देखें नय - III.2.3)।
धवला 13/5,5,7/199/1 नैकगमो नैगम:, द्रव्यपर्यायद्वयं मिथो विभिन्नमिच्छन् नैगम इति यावत् ।=जो एक को नहीं प्राप्त होता अर्थात् अनेक को प्राप्त होता है वह नैगमनय है। जो द्रव्य और पर्याय इन दोनों को आपस में अलग-अलग स्वीकार करता है वह नैगमनय है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
धवला 13/5,3,7/4/9 णेगमणयस्स असंगहियस्स एदे तेरसविफासा होंति त्ति बोद्धव्वा, परिग्गहिदसव्वणयविसयत्तादो।=असंग्राहिक नैगमनय के ये तेरह के तेरह स्पर्श विषय होते हैं, ऐसा यहाँ जानना चाहिए; क्योंकि, यह नय सब नयों के विषयों को स्वीकार करता है।
देखें निक्षेप - 3-(यह नय सब निक्षेपों को स्वीकार करता है।)
- नैगम तथा संग्रह व व्यवहार नय में अंतर
श्लोकवार्तिक 4/1/33/60/245/17 न चैवं व्यवहारस्य नैगमत्वप्रसक्ति: संग्रहविषयप्रविभागपरत्वात्, सर्वस्य नैगमस्य तु गुणप्रधानोभय विषयत्वात् ।=इस प्रकार वस्तु के उत्तरोत्तर भेदों को ग्रहण करने वाला होने से इस व्यवहारनय को नैगमपना प्राप्त नहीं हो जाता; क्योंकि, व्यवहारनय तो संग्रह गृहीत पदार्थ का व्यवहारोपयोगी विभाग करने में तत्पर है, और नैगमनय सर्वदा गौण प्रधानरूप से दोनों को विषय करता है।
कषायपाहुड़ 1/21/354-355/376/8 ऐसो णेगमो संगमो संगहिओ असंगहिओ चेदि जइ दुविहो तो णत्थि णेगमो; विसयाभावादो।...ण च संगहविसेसेहिंतो वदिरित्तो विसओ अत्थि, जेण णेगमणयस्स अत्थित्तं होज्ज। एत्थ परिहारो वुच्चदे‒संगह-ववहारणयविसएसु अक्कमेण वट्टमाणो णेगमो।...ण च एगविसएहि दुविसओ सरिसो; विरोहादो। तो क्खहिं ‘दुविहो णेगमो’ त्ति ण घटदे, ण; एयम्मि वट्टमाणअहिप्पायस्स आलंबणभेएण दुब्भावं गयस्स आधारजीवस्स दुब्भावत्ताविरोहादो।=प्रश्न‒यह नैगमनय संग्राहिक और असंग्राहिक के भेद से यदि दो प्रकार का है, तो नैगमनय कोई स्वतंत्र नय नहीं रहता। क्योंकि, संग्रहनय के विषयभूत सामान्य और व्यवहारनय के विषयभूत विशेष से अतिरिक्त कोई विषय नहीं पाया जाता, जिसको विषय करने के कारण नैगमनय का अस्तित्व सिद्ध होवे। उत्तर‒अब इस शंका का समाधान कहते हैं‒नैगमनय संग्रहनय और व्यवहारनय के विषय में एक साथ प्रवृत्ति करता है, अत: वह उन दोनों में अंतर्भूत नहीं होता है। केवल एक-एक को विषय करने वाले उन नयों के साथ दोनों को (युगपत्) विषय करने वाले इस नय की समानता नहीं हो सकती है, क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है। (श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 24/233)। प्रश्न‒यदि ऐसा है, तो संग्रह और असंग्रहरूप दो प्रकार का नैगमनय नहीं बन सकता ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि एक जीव में विद्यमान अभिप्राय आलंबन के भेद से दो प्रकार का हो जाता है, और उससे उसका आधारभूत जीव तथा यह नैगमनय भी दो प्रकार का हो जाता है।
- नैगमनय व प्रमाण में अंतर
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 22-23/232 प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वत: इत्ययुक्तं इव ज्ञप्ते: प्रधानगुणभावत:।2। प्राधान्येनोभयात्मानमथ गृह्णद्धि वेदनम् । प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपंचेन निवेदितम् ।23। =प्रश्न‒धर्म व धर्मी दोनों का (अक्रमरूप से) ग्राहक होने के कारण नैगमनय प्रमाणात्मक है ? उत्तर‒ऐसा कहना युक्त नहीं है;क्योंकि, यहाँ गौण मुख्य भाव से दोनों की ज्ञप्ति की जाती है। और धर्म व धर्मी दोनों को प्रधानरूप से ग्रहण करते हुए उभयात्मक वस्तु के जानने को प्रमाण कहते हैं। अन्य ज्ञान अर्थात् केवल धर्मीरूप सामान्य को जानने वाला संग्रहनय या केवल धर्मरूप विशेष को जानने वाला व्यवहारनय, या दोनों को गौणमुख्यरूप से ग्रहण करने वाला नैगमनय, प्रमाणज्ञानरूप नहीं हो सकते।
श्लोकवार्तिक 2/1/6/ श्लोक 19-20/361 तत्रांशिन्यापि नि:शेषधर्माणां गुणतागतौ। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपत:।19। धर्मिधर्मसमूहस्य प्राधान्यार्पणया विद:। प्रमाणत्वेन निर्णीते: प्रमाणादपरो नय:।20।=जब संपूर्ण अंशों को गौणरूप से और अंशी को प्रधानरूप से जानना इष्ट होता है, तब मुख्यरूप से द्रव्यार्थिकनय का व्यापार होता है, प्रमाण का नहीं।19। और जब धर्म व धर्मी दोनों के समूह को (उनके अखंड व निर्विकल्प एकरसात्मक रूप को) प्रधानपने की विवक्षा से जानना अभीष्ट हो, तब उस ज्ञान को प्रमाणपने से निर्णय किया जाता है।20। जैसे‒(देखो अगला उद्धरण)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/754-755 न द्रव्यं नापि गुणो न च पर्यायो निरंशदेशत्वात् । व्यक्तं न विकल्पादपि शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतमेतत् ।754। द्रव्यगुणपर्यायाख्यैर्यदनेकं सद्विभिद्यते हेतो:। तदभेद्यमनंशत्वादेकं सदिति प्रमाणमतमेतत् ।755।=अखंडरूप होने से वस्तु न द्रव्य है, न गुण है, न पर्याय है, और न वह किसी अन्य विकल्प के द्वारा व्यक्त की जा सकती है, यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का मत है। युक्ति के वश से जो सत् द्रव्य, गुण व पर्यायों के नाम से अनेकरूप से भेदा जाता है, वही सत् अंशरहित होने से अभेद्य एक है, इस प्रकार प्रमाण का पक्ष है।755।
- भावी नैगम नय निश्चित अर्थ में ही लागू होता है
देखें अपूर्वकरण - 4 (क्योंकि मरण यदि न हो तो अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती साधु निश्चितरूप में कर्मों का उपशम अथवा क्षय करता है, इसलिए ही उसको उपशामक व क्षपक संज्ञा दी गयी है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जाता)।
देखें पर्याप्ति - 2 (शरीर की निष्पत्ति न होने पर भी निवृत्त्यपर्याप्त जीव को नैगमनय से पर्याप्त कहा जा सकता है। क्योंकि वह नियम से शरीर की निष्पत्ति करने वाला है)।
देखें दर्शन - 7.2 (लब्ध्यपर्याप्त जीवों में चक्षुदर्शन नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनमें उसकी निष्पत्ति संभव नहीं, परंतु निवृत्त्यपर्याप्त जीवों में वह अवश्य माना गया है, क्योंकि उत्तरकाल में उसकी समुत्पत्ति वहाँ निश्चित है)।
द्रव्यसंग्रह टीका/14/48/1 मिथ्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्माव्यक्तिरूपेण अंतरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव भाविनैगमनयापेक्षया व्यक्तिरूपेण च। अभव्यजीवे पुनर्बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण अंतरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव न च व्यक्तिरूपेण भाविनैगमनयेनेति।=मिथ्यादृष्टि भव्यजीव में बहिरात्मा तो व्यक्तिरूप से रहता है और अंतरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से रहते हैं, एवं भावि नैगमनय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी रहते हैं। मिथ्यादृष्टि अभव्य जीव में बहिरात्मा व्यक्तिरूप से और अंतरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से ही रहते हैं। वहाँ भाविनैगमनय की अपेक्षा भी ये व्यक्तिरूप में नहीं रहते।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/623 भाविनैगमनयायत्तो भूष्णुस्तद्वानिवेष्यते। अवश्यंभावतो व्याप्ते: सद्भावात्सिद्धिसाधनात् ।=भाविनैगमनय की अपेक्षा होने वाला हो चुके हुए के समान माना गया है, क्योंकि ऐसा कहना अवश्यंभावी व्याप्ति के पाये जाने से युक्तियुक्त है।
- कल्पनामात्र होते हुए भी भावीनैगम व्यर्थ नहीं है
राजवार्तिक 1/33/3/95/21 स्यादेतत् नैगमनयवक्तव्ये उपकारी नोपलभ्यते, भाविसंज्ञाविषये तु राजादावुपलभ्यते ततो नायं युक्त इति। तन्न, किं कारणम् । अप्रतिज्ञानात् । नैतदस्माभि: प्रतिज्ञातम् ‒‘उपकारे ‘सति भवितव्यम्’ इति। किं तर्हि। अस्य नयस्य विषय: प्रदर्श्यते। अपि च, उपकारं प्रत्यभिमुखत्वादुपकारवानेव।=प्रश्न‒भाविसंज्ञा में तो यह आशा है कि आगे उपकार आदि हो सकते हैं, पर नैगमनय में तो केवल कल्पना ही कल्पना है, इसके वक्तव्य में किसी भी उपकार की उपलब्धि नहीं होती अत: यह संव्यवहार के योग्य नहीं है? उत्तर‒नयों के विषय के प्रकरण में यह आवश्यक नहीं है कि उपकार या उपयोगिता का विचार किया जाये। यहाँ तो केवल उनका विषय बताना है। इस नय से सर्वथा कोई उपकार न हो ऐसा भी तो नहीं है, क्योंकि संकल्प के अनुसार निष्पन्न वस्तु से, आगे जाकर उपकारादिक की भी संभावना है ही।
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 19-20/231 नन्वयं भाविनीं संज्ञां समाश्रित्योपचर्यते। अप्रस्थादिषु तद्भावस्तंडुलेष्वोदनादिवत् ।19। इत्यसद्बहिरर्थेषुतथानध्यवसानत:। स्ववेद्यमानसंकल्पे सत्येवास्य प्रवृत्तित:।20।=प्रश्न‒भावी संज्ञा का आश्रय कर वर्तमान में भविष्य का उपचार करना नैगमनय माना गया है। प्रस्थादिके न होने पर काठ के टुकड़े में प्रस्थ की अथवा भात के न होने पर भी चावलों में भात की कल्पना मात्र कर ली गयी है ? उत्तर‒वास्तव में बाह्य पदार्थों में उस प्रकार भावी संज्ञा का अध्यवसाय नहीं किया जा रहा है, परंतु अपने द्वारा जाने गये संकल्प के होने पर ही इस नय की प्रवृत्ति मानी गयी है (अर्थात् इस नय में अर्थ की नहीं ज्ञान की प्रधानता है, और इसलिए यह नय ज्ञान नय मानी गयी है।)
- नैगम नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है
- संग्रहनय निर्देश
- संग्रह नय का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/8 स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रांतभेदानविशेषण समस्तग्रहणात्संग्रह:। =भेद सहित सब पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रहनय है। ( राजवार्तिक 1/33/5/95/26); ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.49/240); (हरिवंशपुराण/58/44); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 13); ( तत्त्वसार/1/45)।
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 50/240 सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते। निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते।=संपूर्ण पदार्थों का एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थों में ‘सम’ शब्द वर्तता है। उस पर से ही ‘संग्रह’ शब्द का निरुक्त्यर्थ विचारा जाता है, कि समस्त पदार्थों को सम्यक् प्रकार एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।
धवला 9/4,1,45/170/5 सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलंकभावेन अद्वैतमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स: संग्रह:।=जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी एकता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। (कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/1)।
धवला 13/5,5,7/199/2 व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहक: संग्रहनय:।=व्यवहार की अपेक्षा न करके जो सत्तादिरूप से सकल पदार्थों का संग्रह करता है वह संग्रहनय है। (धवला 1/1,1,1/84/3)।
आलापपद्धति/9 अभेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रह:।=अभेद रूप से समस्त वस्तुओं को जो संग्रह करके, जो कथन करता है, वह संग्रह नय है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/272 जो संगहेदि सव्वं देसं वा विविहदव्वपज्जायं। अणुगमलिंगविसिट्ठं सो वि णओ संगहो होदि।272।=जो नय समस्त वस्तु का अथवा उसके देश का अनेक द्रव्यपर्यायसहित अन्वयलिंगविशिष्ट संग्रह करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं।
स्याद्वादमंजरी/28/311/7 संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते।=विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानने को संग्रह नय कहते हैं। (<span class="GRef" स्याद्वादमंजरी/28/317/6 )।
- संग्रह नय के उदाहरण
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/9 सत् द्रव्यं, घट इत्यादि। सदित्युक्ते सदिति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिंगानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रह:। द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां संग्रह:। तथा ‘घट’ इत्युक्तेऽपि घटबुद्ध्यभिधानानुगमलिंगानुमितसकलार्थसंग्रह:। एवंप्रकारोऽन्योऽपि संग्रहनयस्य विषय:। =यथा‒ सत्, द्रव्य और घट आदि। ‘सत्’ ऐसा कहने पर ‘सत्’ इस प्रकार के वचन और विज्ञान की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधारभूत पदार्थों का सामान्यरूप से संग्रह हो जाता है। ‘द्रव्य’ ऐसा कहने पर भी ‘उन-उन पर्यायों को द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है’ इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है। तथा ‘घट’ ऐसा कहने पर भी ‘घट’ इस प्रकार की बुद्धि और ‘घट’ इस प्रकार के शब्द की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित (मृद्घट सुवर्णघट आदि) सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रहनय का विषय समझ लेना। (राजवार्तिक/1/33/5/95/30)।
स्याद्वादमंजरी/28/315/ में उद्धृत श्लोक नं.2 सद्रूपतानतिक्रांतं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मत:।2। =अस्तित्वधर्म को न छोड़कर संपूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित है। इसलिए संपूर्ण पदार्थों के सामान्यरूप से ज्ञान करने को संग्रहनय कहते हैं। (राजवार्तिक/4/42/17/261/4)।
- संग्रहनय के भेद
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 51,55/240 (दो प्रकार के संग्रह नय के लक्षण किये हैं‒पर संग्रह और अपर संग्रह)। ( स्याद्वादमंजरी/28/317/7 )।
आलापपद्धति/5 संग्रहो द्विविध:। सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो।=संग्रह दो प्रकार का है‒सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 13)।
नयचक्र बृहद्/186,209 दुविहं पुण संगहं तत्थ।186। सुद्धसंगहेण...।209।=संग्रहनय दो प्रकार का है‒शुद्ध संग्रह और अशुद्धसंग्रह। नोट‒पर, सामान्य व शुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं और अपर, विशेष व अशुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं।
- पर अपर तथा सामान्य व विशेष संग्रहनय के लक्षण व उदाहरण
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 51,55,56 शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मात्रं संग्रह: पर:। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह।51। द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रैति चापर:। पर्यायत्वं च नि:शेषपर्यायव्यापिसंग्रह:।55। तथैवावांतरां भेदान् संगृह्यैकत्वतो बहु:। वर्ततेयं नय: सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृते:।56।=संपूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको ‘सत्’ है ऐसा एकपने रूप से (अर्थात् महासत्ता मात्र को) ग्रहण करता है वह पर संग्रह (शुद्ध संग्रह) है।51। अपने से प्रतिकूल पक्ष का निराकरण न करते हुए जो परसंग्रह के व्याप्य–भूत सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को द्रव्यत्व व पर्यायत्वरूप सामान्य धर्मों द्वारा, और इसी प्रकार उनके भी व्याप्यभूत अवांतर भेदों का एकपने से संग्रह करता है वह अपर संग्रह नय है (जैसे नारक मनुष्यादिकों का एक ‘जीव’ शब्द द्वारा; और ‘खट्टा’, ‘मीठा’ आदिका एक ‘रस’ शब्द ग्रहण करना‒); ( नयचक्र बृहद्/209); (स्याद्वादमंजरी/28/317/7)।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 13 परस्पराविरोधेन समस्तपदार्थसंग्रहैकवचनप्रयोगचातुर्येण कथ्यमानं सर्वं सदित्येतत् सेना वनं नगरमित्येतत् प्रभृत्यनेकजातिनिश्चयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं सामान्यसंग्रहनय: जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरगनिचयरथनिचयपदातिनिचय इति निंबुजंबीरजंबूमाकंदनालिकेरनिचय इति। द्विजवर, वणिग्वर, तलवराद्यष्टादशश्रेणीनिचय इत्यादि दृष्टांतै: प्रत्येकजातिनिचयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं विशेषसंग्रहनय:। तथा चोक्त‒‘यदन्योऽन्याविरोधेन सर्वं सर्वस्य वक्ति य:। सामान्यसंग्रह: प्रोक्तचैकजातिविशेषक:।’ =परस्पर अविरोधरूप से संपूर्ण पदार्थों के संग्रहरूप एकवचन के प्रयोग के चातुर्य से कहा जाने वाला ‘सर्व सत् स्वरूप है’, इस प्रकार सेना-समूह, वन, नगर वगैरह को आदि लेकर अनेक जाति के समूह को एकवचनरूप से स्वीकार करके, कथन करने को सामान्य संग्रह नय कहते हैं। जीवसमूह, अजीवसमूह; हाथियों का झुंड, घोड़ों का झुंड, रथों का समूह, पियादे सिपाहियों का समूह; निंबू, जामुन, आम, वा नारियल का समूह, इसी प्रकार द्विजवर, वणिक्श्रेष्ठ, कोटपाल वगैरह अठारह श्रेणि का समूह इत्यादिक दृष्टांतों के द्वारा प्रत्येक जाति के समूह को नियम से एकवचन के द्वारा स्वीकार करके कथन करने को विशेष संग्रह नय कहते हैं। कहा भी है‒
जो परस्पर अविरोधरूप से सबके सबको कहता है वह सामान्य संग्रहनय बतलाया गया है, और जो एक जातिविशेष का ग्राहक अभिप्रायवाला है वह विशेष संग्रहनय है।
धवला 12/4,2,9,11/299-300 संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा जीवस्स। (मूल सूत्र 11)।...एदं सुद्धसंगहणयवयणं, जीवाणं तेहिं सह णोजीवाणं च एयत्तब्भुवगमादो।...संपहि असुद्धसंगहविसए सामित्तपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि। ‘जीवाणं’ वा। (मूल सूत्र 12)। संगहिय णोजीव-जीवबहुत्तब्भुवगमादो। एदमसुद्धसंगहणयवयणं। =‘संग्रहनय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के होती है। मूल सूत्र 11।’’ यह कथन शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा है, क्योंकि जीवों के और उनके साथ नोजीवों की एकता स्वीकार की गयी है।...अथवा जीवों के होती है। मूल सूत्र 12। कारण कि संग्रह अपेक्षा नोजीव और जीव बहुत स्वीकार किये गये हैं। यह अशुद्ध संग्रह नय की अपेक्षा कथन है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/71/123/19 सर्वजीवसाधारणकेवलज्ञानाद्यनंतगुणसमूहेन शुद्धजीवजातिरूपेण संग्रहनयेनैकश्चैव महात्मा। =सर्व जीवसामान्य, केवलज्ञानादि अनंतगुणसमूह के द्वारा शुद्ध जीव जातिरूप से देखे जायें तो संग्रहनय की अपेक्षा एक महात्मा ही दिखाई देता है।
- संग्रहाभास के लक्षण व उदाहरण
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 52-57 निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायण:। तदाभास: समाख्यात: सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् ।52। अभिन्नं व्यक्तिभेदेभ्य: सर्वथां बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्ति: केषांचिद्दुर्नयस्तथा।53। शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि। संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ।54। स्वव्यक्त्यात्मकतैकांतस्तदाभासोऽप्यनेकधा। प्रतीतिबाधितो बोध्यो नि:शेषोऽप्यनया दिशा।57।=संपूर्ण विशेषों का निराकरण करते हुए जो सत्ताद्वैतवादियों का ‘केवल सत् है,’ अन्य कुछ नहीं, ऐसा कहना; अथवा सांख्य मत का अहंकार तन्मात्रा आदि से सर्वथा अभिन्न प्रधान नामक महासामान्य है’ ऐसा कहना; अथवा शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणियों का केवल शब्द है’, पुरुषाद्वैतवादियों का ‘केवल ब्रह्म है’, संविदाद्वैतवादी बौद्धों का ‘केवल संवेदन है’ ऐसा कहना, सब परसंग्रहाभास है। (स्याद्वादमंजरी/28/316/9 तथा 317/9)। अपनी व्यक्ति व जाति से सर्वथा एकात्मकपने का एकांत करना अपर संग्रहाभास है, क्योंकि वह प्रतीतियों से बाधित है।
स्याद्वादमंजरी/28/317/12 तद्द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निह्नुवानस्तदाभास:।=धर्म अधर्म आदिकों को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं।
- संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक नय है
धवला 1/1,1,1/ गाथा 6/12 दव्वटि्ठय-णय-पवई सुद्धा संगह परूवणा विसयो। =संग्रहनय की प्ररूपणा को विषय करना द्रव्यार्थिक नय की शुद्ध प्रकृति है। ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.37/236); (कषायपाहुड़ 1/13-14/ गाथा 89/220); (विशेष दे. नय - IV.1 )।
और भी देखें नय - III.1.1-2 यह द्रव्यार्थिकनय है।
- संग्रह नय का लक्षण
- व्यवहार नय निर्देश—देखें पृ - 556
- ऋजुसूत्रनय निर्देश
- ऋजुसूत्र नय का लक्षण
- निरुक्त्यर्थ
सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/9 ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तंत्रयतीति ऋजुसूत्र:। =ऋजु का अर्थ प्रगुण है। ऋजु अर्थात् सरल को सूचित करता है अर्थात् स्वीकार करता है, वह ऋजुसूत्र नय है। (राजवार्तिक/1/33/7/96/30) (कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3) (आलापपद्धति/9)
- वर्तमानकालमात्र ग्राही
सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/9 पूर्वापरांस्त्रिकालविषयानतिशय्य वर्तमानकालविषयानादत्ते अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् । =यह नय पहिले और पीछेवाले तीनों कालों के विषय को ग्रहण न करके वर्तमान काल के विषयभूत पदार्थों को ग्रहण करता है, क्योंकि अतीत के विनष्ट और अनागत के अनुत्पन्न होने से उनमें व्यवहार नहीं हो सकता। (राजवार्तिक/1/33/7/96/11), (राजवार्तिक/4/42/17/261/5), (हरिवंशपुराण/58/46), (धवला 9/4,1,45/171/7), (न्यायदीपिका/3/85/128)।
और भी देखें नय -III.1.2 , नय - IV.3
- निरुक्त्यर्थ
- ऋजुसूत्र नय के भेद
धवला 9/4,1,49/244/2 उजुसुदो दुविहो सुद्धो असुद्धो चेदि।=ऋजुसूत्रनय शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है।
आलापपद्धति/5 ऋजुसूत्रो द्विविध:। सूक्ष्मर्जुसूत्रो...स्थूलर्जुसूत्रो।=ऋजुसूत्रनय दो प्रकार का है–सूक्ष्म ऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्र।
- सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्रन्य के लक्षण
धवला 9/4,1,49/242/2 तत्थ सुद्धो वसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्खणं विवट्टमाणासेसत्थो अप्पणो विसयादो ओसारिदसारिच्छ-तब्भाव-लक्खणसामण्णो। ‘‘...तत्थ जो असुद्धो उजुसुदणओ ओ चक्खुपासिय वेंजणपज्जयविसओ।’’ =अर्थपर्याय को विषय करने वाला शुद्ध ऋजुसूत्र नय है। वह प्रत्येक क्षण में परिणमन करने वाले समस्त पदार्थों को विषय करता हुआ अपने विषय से सादृश्यसामान्य व तद्भावरूप सामान्य को दूर करने वाला है। जो अशुद्ध ऋजुसूत्र नय है, वह चक्षु इंद्रिय की विषयभूत व्यंजन पर्यायों को विषय करने वाला है?
आलापपद्धति/5 सूक्ष्मर्जुसूत्रो यथा‒एकसमयावस्थायी पर्याय: स्थूलर्जसूत्रो यथा‒मनुष्यादिपर्यायास्तदायु: प्रमाणकालं तिष्ठंति।=सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय एकसमय अवस्थायी पर्याय को विषय करता है। और स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा मनुष्यादि पर्यायें स्व स्व आयुप्रमाणकाल पर्यंत ठहरती हैं। (नयचक्र बृहद्/211-212) (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 16)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/274 जो वट्टमाणकाले अत्थपज्जायपरिणदं अत्थं। संतं साहदि सव्वं तं पि णयं उज्जुयं जाण।274।=वर्तमानकाल में अर्थ पर्यायरूप परिणत अर्थ को जो सत् रूप साधता है वह ऋजुसूत्रनय है। (यह लक्षण यद्यपि सामान्य ऋजुसूत्र के लिए किया गया है, परंतु सूक्ष्मऋजुसूत्र पर घटित होता है)
- ऋजुसूत्राभास का लक्षण
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 62/148 निराकरोति यद्द्रव्यं बहिरंतश्च सर्वथा। स तदाभोऽभिमंतव्य: प्रतीतेरपलापत:।...एतेन चित्राद्वैतं, संवेदनाद्वैतं क्षणिकमित्यपि मननमृजुसूत्राभासमायातीत्युक्तं वेदितव्यं। (पृष्ठ 253/4)।=बहिरंग व अंतरंग दोनों द्रव्यों का सर्वथा अपलाप करने वाले चित्राद्वैतवादी, विज्ञानाद्वैतवादी व क्षणिकवादी बौद्धों की मान्यता में ऋजुसूत्रनय का आभास है, क्योंकि उनकी सब मान्यताएँ प्रतीति व प्रमाण से बाधित हैं। (विशेष देखें श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 63-67/248-255); (स्याद्वादमंजरी/28/318/24)
- ऋजुसूत्रनय शुद्ध पर्यायार्थिक है
न्यायदीपिका/3/85/128/7 ऋजुसूत्रनयस्तु परमपर्यायार्थिक:।=ऋजुसूत्रनय परम (शुद्ध) पर्यायार्थिक नय है। (सूक्ष्म ऋजुसूत्र शुद्ध पर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिक‒ नय - IV.3) (और भी देखें नय - III.1.1 , नय - III.1.2 )
- ऋजुसूत्रनय को द्रव्यार्थिक कहने का कथंचित् विधि निषेध
- कथंचित् निषेध
धवला 10/4,2,2,3/11/4 तब्भवसारिच्छसामण्णप्पयदव्वमिच्छंतो उजुसुदो कधं ण दव्वट्ठियो। ण, घड-पडत्यंभादिवंजणपज्जायपरिच्छिण्णसगपुव्वावरभावविरहियउजुवट्टविसयस्स दव्वट्ठियणयत्तविरोहादो। =प्रश्न‒तद्भावसामान्य व सादृश्यसामान्यरूप द्रव्य को स्वीकार करने वाला ऋजुसूत्रनय (देखें स्थूल ऋजुसूत्रनय का लक्षण ) द्रव्यार्थिक कैसे नहीं है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, ऋजुसूत्रनय घट, पट व स्तंभादि स्वरूप व्यंजनपर्यायों से परिच्छिन्न ऐसे अपने पूर्वापर भावों से रहित वर्तमान मात्र को विषय करता है, अत: उसे द्रव्यार्थिक नय मानने में विरोध आता है।
- कथंचित् विधि
धवला 10/4,2,3,3/15/9 उजुसुदस्स पज्जवट्ठियस्स कधं दव्वं विसओ। ण, वंजणपज्जायमहिट्ठियस्स दव्वस्स तव्विसयत्ताविरोहादो। ण च उप्पादविणासलक्खणत्तं तव्विसयदव्वस्स विरुज्झदे, अप्पिदपज्जायभावाभावलक्खण-उप्पादविणासविदिरित्त अवट्ठाणाणुवलंभादो। ण च पढमसमए उप्पण्णस्स विदियादिसमएसु अवट्ठाणं, तत्थ पढमविदियादिसमयकप्पणए कारणाभावादो। ण च उत्पादो चेव अवट्ठाणं, विरोहादो उप्पादलक्खणभावविदिरित्तअवट्ठाणलक्खणाणुवलंभादो च। तदो अव्वट्ठाणाभावादो उप्पादविणासलक्खणं दव्वमिदि सिद्धं। =प्रश्न‒ऋजुसूत्र चूँकि पर्यायार्थिक है, अत: उसका द्रव्य विषय कैसे हो सकता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, व्यंजन पर्याय को प्राप्त द्रव्य उसका विषय है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। (अर्थात् अशुद्ध ऋजुसूत्र को द्रव्यार्थिक मानने में कोई विरोध नहीं है‒ धवला/9) (धवला 9/4,1,58/265/9), (धवला 12/4,2,8,14/290/5) (निक्षेप/3/4) प्रश्न‒ऋजुसूत्र के विषयभूत द्रव्य को उत्पाद विनाश लक्षण मानने में विरोध आता है? उत्तर‒सो भी बात नहीं है; क्योंकि, विवक्षित पर्याय का सद्भाव ही उत्पाद है और उसका अभाव ही व्यय है। इसके सिवा अवस्थान स्वतंत्र रूप से नहीं पाया जाता। प्रश्न‒प्रथम समय में पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समयों में उसका अवस्थान होता है? उत्तर‒यह बात नहीं बनती; क्योंकि उसमें प्रथम व द्वितीयादि समयों की कल्पना का कोई कारण नहीं है। प्रश्न‒फिर तो उत्पाद ही अवस्थान बन बैठेगा ? उत्तर‒सो भी बात नहीं है; क्योंकि, एक तो ऐसा मानने में विरोध आता है, दूसरे उत्पादस्वरूप भाव को छोड़कर अवस्थान का और कोई लक्षण पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थान का अभाव होने से उत्पाद व विनाश स्वरूप द्रव्य है, यह सिद्ध हुआ। (वही व्यंजन पर्यायरूप द्रव्य स्थूल ऋजुसूत्र का विषय है।
धवला 12/4,2,14/290/6 वट्टमाणकालविसयउजुसुदवत्थुस्स दवणाभावादो ण तत्थ दव्वमिदि णाणावरणीयवेयणा णत्थि त्ति वुत्ते‒ण, वट्टमाणकालस्स वंजणपज्जाए पडुच्च अवट्टियस्स सगाससावयवाणं गदस्स दव्वत्तं पडि विरोहाभावादो। अप्पिदपज्जाएण वट्टमाणत्तमा वण्णस्स वत्थुस्स अणप्पिद पज्जाएसु दवणविरोहाभावादो वा अत्थि उजुसुदणयविसए दव्वमिदि।=प्रश्न‒वर्तमानकाल विषयक ऋजुसूत्रनय की विषयभूत वस्तु का द्रवण नहीं होने से चूँकि उसका विषय, द्रव्य नहीं हो सकता है, अत: ज्ञानावरणीय वेदना उसका विषय नहीं है ? उत्तर‒ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं, कि ऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तमानकाल व्यंजन पर्याय का आलंबन करके अवस्थित है (देखें अगला शीर्षक ), एवं अपने समस्त अवयवों को प्राप्त है, अत: उसके द्रव्य होने में कोई विरोध नहीं है। अथवा विवक्षित पर्याय से वर्तमानता को प्राप्त वस्तु को अविवक्षित पर्यायों में द्रव्य का विरोध न होने से, ऋजुसूत्र के विषय में द्रव्य संभव है ही।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/213/263/6 वंजणपज्जायविसयस्स उजुसुदस्स बहुकालावट्ठाणं होदि त्ति णासंकणिज्ज; अप्पिदवंजणपज्जायअवट्टाणकालस्स दव्वस्स वि वट्टमाणत्तणेण गहणादो।=यदि कहा जाय कि व्यंजन पर्याय को विषय करने वाला ऋजुसूत्रनय बहुत काल तक अवस्थित रहता है; इसलिए, वह ऋजुसूत्र नहीं हो सकता है; क्योंकि उसका काल वर्तमानमात्र है। सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, विवक्षित पर्याय के अवस्थान कालरूप द्रव्य को भी ऋजुसूत्रनय वर्तमान रूप से ही ग्रहण करता है।
- कथंचित् निषेध
- सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वर्तमान काल का प्रमाण
दे./ नय-III/1/2 वर्तमान वचन को ऋजुसूत्र वचन कहते हैं। ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों के विच्छेद रूप समय से लेकर एक समय पर्यंत वस्तु की स्थिति का निश्चय करने वाले पर्यायार्थिक नय हैं। (अर्थात् मुखद्वार से पदार्थ का नामोच्चारण हो चुकने के पश्चात् से लेकर एक समय पर्यंत ही उस पदार्थ की स्थिति का निश्चय करने वाला पर्यायार्थिक नय है।
धवला 9/4,1,45/172/1 कोऽत्र वर्तमानकाल:। आरंभात्प्रभृत्या उपरमादेष वर्तमानकाल:। एष चानेकप्रकार:, अर्थव्यंजनपर्यायास्थितेरनेकविधत्वात् ।
धवला 9/4,1,49/244/2 तत्थ सुद्धो विसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्खणं विवट्टमाण...जो सो असुद्धो... तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा। कुदो। चक्खिदियगेज्झवेंजणपज्जायाणमप्पहाणीभूदव्वाणेमेत्तियं कालमवट्ठाणुवलंभादो। जदि एरिसो वि पज्जवट्ठियणओ अत्थि तो‒उप्पज्जंति वियंति य भावा णियमेव पज्जवणयस्स। इच्चेएण सम्मइसुत्तेण सह विरोहो होदि त्ति उत्ते ण होदि, असुद्धउजुसुदेण विसईवयवेंजणपज्जाए अप्पहाणीकयसेसपज्जाए पुव्वावरकोटीणमभावेण उप्पत्तिविणासे मोत्तूण उवट्ठाणमुवलंभादो।=प्रश्न‒यहाँ वर्तमानकाल का क्या स्वरूप है ? उत्तर‒विवक्षित पर्याय के प्रारंभकाल से लेकर उसका अंत होने तक जो काल है वह वर्तमान काल है। अर्थ और व्यंजन पर्यायों की स्थिति के अनेक प्रकार होने से यह काल अनेक प्रकार है। तहाँ शुद्ध ऋजुसूत्र प्रत्येक क्षण में परिणमन करने वाले पदार्थों को विषय करता है (अर्थात् शुद्ध ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा वर्तमानकाल का प्रमाण एक समय मात्र है) और अशुद्ध ऋजुसूत्र के विषयभूत पदार्थों का काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से छ: मास अथवा संख्यात वर्ष है; क्योंकि, चक्षु इंद्रिय से ग्राह्य व्यंजनपर्यायें द्रव्य की प्रधानता से रहित होती हुई इतने काल तक अवस्थित पायी जाती हैं। प्रश्न‒यदि ऐसा भी पर्यायार्थिकनय है तो‒पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं, इस सन्मतिसूत्र के साथ विरोध होगा? उत्तर‒नहीं होगा; क्योंकि, अशुद्ध ऋजुसूत्र के द्वारा व्यंजन पर्यायें ही विषय की जाती हैं, और शेष पर्यायें अप्रधान हैं। (किंतु प्रस्तुत सूत्र में शुद्धऋजुसूत्र की विवक्षा होने से) पूर्वा पर कोटियों का अभाव होने के कारण उत्पत्ति व विनाश को छोड़कर अवस्थान पाया ही नहीं जाता।
- ऋजुसूत्र नय का लक्षण
- शब्दनय निर्देश
- शब्दनय का सामान्य लक्षण
आलापपद्धति/9 शब्दाद् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्ध: शब्द: शब्दनय:। =शब्द अर्थात् व्याकरण से प्रकृति व प्रत्यय आदि के द्वारा सिद्ध कर लिये गये शब्द का यथायोग्य प्रयोग करना शब्दनय है।
देखें नय - I.4.2 (शब्द पर से अर्थ का बोध कराने वाला शब्दनय है)।
- अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है।
राजवार्तिक/4/42/17/261/16 शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक:। =शब्दनय में अनेक पर्यायवाची शब्दों का वाच्य एक होता है।
स्याद्वादमंजरी/28/313/2 शब्दस्तु रूढ़ितो यावंतो ध्वनय: कस्मिश्चिदर्थे प्रवर्तंते यथा इंद्रशक्रपुरंदरादय: सुरपतौ तेषां सर्वेषामप्येकमर्थमभिप्रैति किल प्रतीतिवशाद् ।=रूढि से संपूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को शब्दनय कहते हैं। जैसे इंद्र शक्र पुरंदर आदि शब्द एक अर्थ के द्योतक हैं।
- पर्यायवाची शब्दों में अभेद मानता है
राजवार्तिक/4/42/17/261/11 शब्दे पर्यायशब्दांतरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद:। =शब्दनय में पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग होने पर भी, उसी अर्थ का कथन होता है, अत: अभेद है।
स्याद्वादमंजरी/28/313/26 न च इंद्रशक्रपुरंदरादय: पर्यायशब्दा विभिन्नार्थवाचितया कदाचन प्रतीतयंते। तेभ्य: सर्वदा एकाकारपरामर्शोत्पत्तेरस्खलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात् । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति। शब्द्यते आहूयतेऽनेनाभिप्रायेणार्थ: इति निरुक्तात् एकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीनां प्रयोगात् ।=इंद्र, शक्र और पुरंदर आदि पर्यायवाची शब्द कभी भिन्न अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते; क्योंकि, उनसे सर्वदा अस्खलित वृत्ति से एक ही अर्थ के ज्ञान होने का व्यवहार देखा जाता है। अत: पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ है। ‘जिस अभिप्राय से शब्द कहा जाय या बुलाया जाय उसे शब्द कहते हैं’, इस निरुक्ति पर से भी उपरोक्त ही बात सिद्ध होती है, क्योंकि एकार्थ प्रतिपादन के अभिप्राय से ही पर्यायवाची शब्द कहे जाते हैं।
देखें नय - III.7.4 (परंतु यह एकार्थता समान काल व लिंग आदि वाले शब्दों में ही है, सब पर्यायवाचियों में नहीं)।
- पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंग आदि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता
सर्वार्थसिद्धि/1/33/143/4 लिंगसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपर: शब्दनय:।=लिंग, संख्या, साधन आदि (पुरुष, काल व उपग्रह) के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला शब्दनय है। ( राजवार्तिक/1/33/9/98/12); (हरिवंशपुराण/58/47); (धवला 1/1,1,1/87/1); ( धवला 9/4,1,45/176/5); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/235); ( तत्त्वसार/1/48)।
राजवार्तिक/1/33/9/98/23 एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ता:। कुत:। अन्यार्थस्याऽन्यार्थेन संबंधाभावात् । यदि स्यात् घट: पटो भवतु पटो वा प्रासाद इति। तस्माद्यथालिंग यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् ।=इत्यादि व्यभिचार (देखें आगे ) अयुक्त हैं, क्योंकि अन्य अर्थ का अन्य अर्थ से कोई संबंध नहीं है। अन्यथा घट पट हो जायेगा और पट मकान बन बैठेगा। अत: यथालिंग यथावचन और यथासाधन प्रयोग करना चाहिए। ( सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/1 ) (श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 72/256) ( धवला 1/1,1,1/89/1) ( धवला 9/4,1,45/178/3); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/237/3)।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 68/255 कालादिभेदतोऽर्थस्य भेदं य: प्रतिपादयेत् । सोऽत्र शब्दनय: शब्दप्रधानत्वादुदाहृत:।=जो नय काल कारक आदि के भेद से अर्थ के भेद को समझता है, वह शब्द प्रधान होने के कारण शब्दनय कहा जाता है। (प्रमेय कमल मार्तंड/पृ.206) (कार्तिकेयानुप्रेक्षा 275)।
नयचक्र बृहद्/213 जो वहणं ण मण्णइ एयत्थे भिण्ण्लिंग आईणं। सो सद्दणओ भणिओ णेओ पुंसाइआण जहा।213।=जो भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों को एक अर्थ में वृत्ति नहीं मानता वह शब्दनय है, जैसे पुरुष, स्त्री आदि।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.17 शब्दप्रयोगस्यार्थं जानामीति कृत्वा तत्र एकार्थमेकशब्देन ज्ञाने सति पर्यायशब्दस्य अर्थक्रमो यथेति चेत् पुष्यतारका नक्षत्रमित्येकार्थो भवति। अथवा दारा: कलत्रं भार्या इति एकार्थो भवतीति कारणेन लिंगसंख्यासाधनादिव्यभिचारं मुक्त्वा शब्दानुसारार्थं स्वीकर्तव्यमिति शब्दनय:। उक्तं च‒लक्षणस्य प्रवृत्तौ वा स्वभावाविष्टालिंगत:। शब्दो लिंगं स्वसंख्यां च न परित्यज्य वर्तते। =’शब्दप्रयोग के अर्थ को मैं जानता हूँ’ इस प्रकार के अभिप्राय को धारण करके एक शब्द के द्वारा एक अर्थ के जान लेने पर पर्यायवाची शब्दों के अर्थक्रम को (भी भली भाँति जान लेता है)। जैसे पुष्य तारका और नक्षत्र, भिन्न लिंगवाले तीन शब्द (यद्यपि) एकार्थवाची है’ अथवा दारा कलत्र भार्या ये तीनों भी (यद्यपि) एकार्थवाची हैं। परंतु कारणवशात् लिंग संख्या साधन वगैरह व्यभिचार को छोड़कर शब्द के अनुसार अर्थ का स्वीकार करना चाहिए इस प्रकार शब्दनय है। कहा भी है‒लक्षण की प्रवृत्ति में या स्वभाव से आविष्ट-युक्त लिंग से शब्दनय, लिंग और स्वसंख्या को न छोड़ते हुए रहता है। इस प्रकार शब्दनय बतलाया गया है।
भावार्थ‒(यद्यपि ‘भिन्न लिंग आदि वाले शब्द भी व्यवहार में एकार्थवाची समझे जाते हैं,’ ऐसा यह नय जानता है, और मानता भी है; परंतु वाक्य में उनका प्रयोग करते समय उनमें लिंगादि का व्यभिचार आने नहीं देता। अभिप्राय में उन्हें एकार्थवाची समझते हुए भी वाक्य में प्रयोग करते समय कारणवशात् लिंगादि के अनुसार ही उनमें अर्थभेद स्वीकार करता है।) (आलापपद्धति/5)।
स्याद्वादमंजरी/28/313/30 यथा चायं पर्यायशब्दानामेकमर्थमभिप्रैति तथा तटस्तटी तटम् इति विरुद्धलिंगलक्षणधर्माभिसंबंधाद् वस्तुनो भेदं चाभिधत्ते। न हि विरुद्धधर्मकृतं भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्मायोगो युक्त:। एवं संख्याकालकारकपुरुषादिभेदाद् अपि भेदोऽभ्युपगंतव्य:।
स्याद्वादमंजरी/28/316 पर उद्धृत श्लोक नं.5 विरोधिलिंगसंख्यादिभेदाद् भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्द: प्रत्यवतिष्ठत।5।=जैसे इंद्र शक्र पुरंदर ये तीनों समान लिंगी शब्द एक अर्थ को द्योतित करते हैं; वैसे तट:, तटी, तटम् इन शब्दों से विरुद्ध लिंगरूप धर्म से संबंध होने के कारण, वस्तु का भेद भी समझा जाता है। विरुद्ध धर्मकृत भेद का अनुभव करने वाली वस्तु में विरुद्ध धर्म का संबंध न मानना भी युक्त नहीं है। इस प्रकार संख्या काल कारक पुरुष आदि के भेद से पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में भेद भी समझना चाहिए।
धवला 1/1,1,1/ गाथा 7/13 मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुदवयणविच्छेदो। तस्स दु सद्दादीया साह पसाहा सुहुमभेया।=ऋजुसूत्र वचन का विच्छेदरूप वर्तमानकाल ही पर्यायार्थिक नय का मूल आधार है, और शब्दादि नय शाखा उपशाखा रूप उसके उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद हैं।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/68/255/17 कालकारकलिंगसंख्यासाधनोपग्रहभेदाद्भिन्नमर्थं शपतीति शब्दो नय: शब्दप्रधानत्वादुदाहृत:। यस्तु व्यवहारनय: कालादिभेदेऽप्यभिन्नमर्थमभिप्रैति।=काल, कारक, लिंग, संख्या, साधन और उपग्रह आदि के भेदों से जो नय भिन्न अर्थ को समझाता है वह नय शब्द प्रधान होने से शब्दनय कहा गया है, और इसके पूर्व जो व्यवहारनय कहा गया है वह तो (व्याकरण शास्त्र के अनुसार) काल आदि के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को समझाने का अभिप्राय रखता है। ( नय#III.1.7 तथा निक्षेप)।
- शब्दनयाभास का लक्षण
स्याद्वादमंजरी/28/318/26 तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभास:। यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकाला शब्दाभिन्नमेव अर्थमभिदधति भिन्नकालशब्दत्वात् तादृक्सिद्धान्यशब्दवत् इत्यादि:।=काल आदि के भेद से शब्द और अर्थ को सर्वथा अलग मानने को शब्दनयाभास कहते हैं। जैसे‒सुमेरु था, सुमेरु है, और सुमेरु होगा आदि भिन्न भिन्न काल के शब्द, भिन्न कालवाची होने से, अन्य भिन्नकालवाची शब्दों की भाँति ही, भिन्न भिन्न अर्थों का ही प्रतिपादन करते हैं।
- लिंगादि व्यभिचार का तात्पर्य
नोट‒यद्यपि व्याकरण शास्त्र भी शब्द प्रयोग के दोषों को स्वीकार नहीं करता, परंतु कहीं-कहीं अपवादरूप से भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों का भी सामानाधिकरण्य रूप से प्रयोग कर देता है। तहाँ शब्दनय उन दोषों का भी निराकरण करता है। वे दोष निम्न प्रकार हैं—
राजवार्तिक/1/33/9/98/14 तत्र लिंगव्यभिचारस्तावत्स्त्रीलिंगे पुल्लिंगाभिधानं तारका स्वातिरिति। पुंल्लिंगे स्त्र्यभिधानम् अवगमो विद्येति। स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानम् वीणा आतोद्यमिति। नपुंसके स्त्र्यभिधानम् आयुधं शक्तिरिति। पुंल्लिंगे नपुंसकाभिधानं पटो वस्त्रमिति। नपुंसके पुंल्लिंगाभिधानं द्रव्यं परशुरिति। संख्या व्यभिचार:‒एकत्वे द्वित्वम् ‒गोदौ ग्राम इति। द्वित्वे बहुत्वम् पुनर्वसू पंचतारका इति। बहुत्वे एकत्वम् ‒आम्रा वनमिति। बहुत्वे द्वित्वम् ‒देवमनुषा उभौ राशी इति। साधनव्यभिचार:‒एहि मंथे रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि यातस्ते पितेति। आदिशब्देन कालादिव्यभिचारो गृह्यते। विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता, भावि कृत्यमासीदिति कालव्यभिचार:। संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति उपग्रहव्यभिचार:।=1. स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग का कथन करना और पुलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग का कथन करना आदि लिंग व्यभिचार हैं। जैसे‒(1)‒‘तारका स्वाति:’ स्वाति नक्षत्र तारका है। यहाँ पर तारका शब्द स्त्रीलिंग और स्वाति शब्द पुंलिंग है। इसलिए स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। (2) ‘अवगमो विद्या’ ज्ञान विद्या है। इसलिए पुंल्लिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। इसी प्रकार (3) ‘वीणा आतोद्यम्’ वीणा बाजा आतोद्य कहा जाता है। यहाँ पर वीणा शब्द स्त्रीलिंग और आतोद्य शब्द, नपुंसकलिंग है। (4) ‘आयुधं शक्ति:’ शक्ति आयुध है। यहाँ पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और शक्ति शब्द स्त्रीलिंग है। (5) ‘पटो वस्त्रम्’ पट वस्त्र है। यहाँ पर पट शब्द पुंल्लिंग और वस्त्र शब्द नपुंसकलिंग है। (6) ‘आयुधं परशु:’ फरसा आयुध है। यहाँ पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और परशु शब्द पुंलिंग है। 2. एकवचन की जगह द्विवचन आदि का कथन करना संख्या व्यभिचार है। जैसे (1) ‘नक्षत्रं पुनर्वसू’ पुनर्वसू नक्षत्र है। यहाँ पर नक्षत्र शब्द एकवचनांत और पुनर्वसू शब्द द्विवचनांत है। इसलिए एकवचन के स्थान पर द्विवचन का कथन करने से संख्या व्यभिचार है। इसी प्रकार‒(2) ‘नक्षत्रं शतभिषज:’ शतभिषज नक्षत्र है। यहाँ पर नक्षत्र शब्द एकवचनांत और शतभिषज् शब्द बहुवचनांत है। (3) ‘गोदौ ग्राम:’ गायों को देनेवाला ग्राम है। यहाँ पर गोद शब्द द्विवचनांत और ग्राम शब्द एकवचनांत है। (4) ‘पुनर्वसू पंचतारका:’ पुनर्वसू पाँच तारे हैं। यहाँ पुनर्वसू द्विवचनांत और पंचतारका शब्द बहुवचनांत है। (5) ‘आम्रा: वनम्’ आमों के वृक्ष वन हैं। यहाँ पर आम्र शब्द बहुवचनांत और वन शब्द एकवचनांत है। (6) ‘देवमनुष्या उभौ राशी’ देव और मनुष्य ये दो राशि हैं। यहाँ पर देवमनुष्य शब्द बहुवचनांत और राशि शब्द द्विवचनांत है। 3. भविष्यत आदि काल के स्थान पर भूत आदि काल का प्रयोग करना कालव्यभिचार है। जैसे‒(1) ‘विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता’ जिसने समस्त विश्व को देख लिया है ऐसा इसके पुत्र उत्पन्न होगा। यहाँ पर विश्व का देखना भविष्यत् काल का कार्य है, परंतु उसका भूतकाल के प्रयोग द्वारा कथन किया गया है। इसलिए भविष्यत् काल का कार्य भूत काल में कहने से कालव्यभिचार है। इसी तरह (2) ‘भाविकृत्यमासीत्’ आगे होने वाला कार्य हो चुका। यहाँ पर भूतकाल के स्थान पर भविष्य काल का कथन किया गया है। 4. एक साधन अर्थात् एक कारक के स्थान पर दूसरे कारक के प्रयोग करने को साधन या कारक व्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’ग्राममधिशेते’ वह ग्रामों में शयन करता है। यहाँ पर सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति या कारक का प्रयोग किया गया है, इसलिए यह साधन व्यभिचार है। 5. उत्तम पुरुष के स्थान पर मध्यम पुरुष और मध्यम पुरुष के स्थान पर उत्तम पुरुष आदि के कथन करने को पुरुषव्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पिता’ आओ, तुम समझते हो कि मैं रथ से जाऊँगा परंतु अब न जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता चला गया। यहाँ पर उपहास करने के लिए ‘मन्यसे’ के स्थान पर ‘मन्ये’ ऐसा उत्तम पुरुष का और ‘यास्यामि’ के स्थान पर ‘यास्यासि’ ऐसा मध्यम पुरुष का प्रयोग हुआ है। इसलिए पुरुषव्यभिचार है। 6. उपसर्ग के निमित्त से परस्मैपद के स्थान पर आत्मनेपद और आत्मनेपद के स्थान पर परस्मैपद का कथन कर देने को उपग्रह व्यभिचार कहते हैं। जैसे ‘रमते’ के स्थान पर ‘विरमति’; ‘तिष्ठति’ के स्थान पर ‘संतिष्ठते’ और ‘विशति’ के स्थान पर ‘निविशते’ का प्रयोग व्याकरण में किया जाना प्रसिद्ध है। ( सर्वार्थसिद्धि/1/33/143/4); ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 60-71/255); (धवला 1/1,1,1/81/1); (धवला 9/4,1,45/176/6); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/235/3)।
- उक्त व्यभिचारों में दोष प्रदर्शन
श्लोकवार्तिक 4/1/33/72/257/16 यो हि वैयाकरणव्यवहारनयानुरोधेन ‘धातुसंबंधे प्रत्यय:’ इति सूत्रमारभ्य विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता भाविकृत्यमासीदित्यत्र कालभेदेऽप्येकपदार्थमादृता यो विश्वं द्रक्ष्यति सोऽस्य पुत्रो जनितेति भविष्यकालेनातीतकालस्याभेदोऽभिमत: तथा व्यवहारदर्शनादिति। तन्न श्रेय: परीक्षायां मूलक्षते: कालभेदेऽप्यर्थस्याभेदेऽतिप्रसंगात् रावणशंखचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्ते:। आसीद्रावणो राजा शंखचक्रवर्ती भविष्यतीति शब्दयोर्भिन्नविषयत्वान्नैकार्थतेति चेत्, विश्वदृश्वा जनितेत्यनयोरपि मा भूत् तत् एव। न हि विश्व दृष्टवानिति विश्वदृश्वेति शब्दस्य योऽर्थोऽतीतकालस्य जनितेति शब्दस्यानागतकाल:। पुत्रस्य भाविनोऽतीतत्वविरोधात् । अतीतकालस्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थताभिप्रेतेति चेत्, तर्हि न परमार्थत: कालभेदेऽप्यभिन्नार्थव्यवस्था। तथा करोति क्रियते इति कारकयो: कर्तृकर्मणोर्भेदेऽप्यभिन्नमर्थत एवाद्रियते स एव करोति किंचित् स एव क्रियते केनचिदिति प्रतीतेरिति। तदपि न श्रेय: परीक्षायां। देवदत्त: कटं करोतीत्यत्रापि कर्तृकर्मणोर्देवदत्तकटयोरभेदप्रसंगात् । तथा पुष्यस्तारकेत्यत्र व्यक्तिभेदेऽपि तत्कृतार्थमेकमाद्रियंते, लिंगमशिष्यं लोकाश्रयत्वादि। तदपि न श्रेय:, पटकुटोत्यत्रापि कुटकुट्योरेकत्वप्रसंगात् तल्लिंगभेदाविशेषात् । तथापोऽभ्य इत्यत्र संख्याभेदेऽप्येकमर्थं जलाख्यतादृता: संख्याभेदस्याभेदकत्वात् गुर्वादिवदिति। तदपि न श्रेय: परीक्षायाम् । घस्तंतव इत्यत्रापि तथाभावानुषंगात् संख्याभेदाविशेषात् । एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि स यातस्ते पिता इति साधनभेदेऽपि पदार्थमभिन्नमादृता: ‘‘प्रहसे मन्यवाचि युष्मन्मन्यतरस्मादेकवच्च’’ इति वचनात् । तदपि न श्रेय: परीक्षायां, अहं पचामि त्वं पचसीत्यत्रापि अस्मद्युष्मत्साधनाभेदेऽप्येकार्थत्वप्रसंगात् । तथा ‘संतिष्ठते अवतिष्ठत’ इत्यत्रोपसर्गभेदेऽप्यभिन्नमर्थमादृता उपसर्गस्य धात्वर्धमात्रद्योतकत्वादिति। तदपि न श्रेय:। तिष्ठति प्रतिष्ठत इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसंगात् । तत: कालादिभेदाद्भिन्न एवार्थोऽन्यथातिप्रसंगादिति शब्दनय: प्रकाशयति। तद्भेदेऽप्यर्थाभेदे ‘दूषणांतरं च दर्शयति‒तथा कालादिनानात्वकल्पनं निष्प्रयोजनम् । सिद्धं कालादिनैकेन कार्यस्येष्टस्य तत्त्वत:।73। कालाद्यन्यतमस्यैव कल्पनं तैर्विधीयताम् । येषां कालादिभेदेऽपि पदार्थैकत्वनिश्चय:।74। शब्दकालादिभिर्भिन्नाभिन्नार्थप्रतिपादक:। कालादिभिन्नशब्दत्वादृक्सिद्धान्यशब्दवत् ।75। =1. काल व्यभिचार विषयक—वैयाकरणीजन व्यवहारनय के अनुरोध से ‘धातु संबंध से प्रत्यय बदल जाते हैं’ इस सूत्र का आश्रय करके ऐसा प्रयोग करते हैं कि ‘विश्व को देख चुकने वाला पुत्र इसके उत्पन्न होवेगा’ अथवा ‘होने वाला कार्य हो चुका’। इस प्रकार कालभेद होने पर भी वे इनमें एक ही वाच्यार्थ का आदर करते हैं। ‘जो आगे जाकर विश्व को देखेगा ऐसा पुत्र इसके उत्पन्न होगा’ ऐसा न कहकर उपरोक्त प्रकार भविष्यत् काल के साथ अतीत काल का अभेद मान लेते हैं, केवल इसलिए कि लोक में इस प्रकार के प्रयोग का व्यवहार देखा जाता है। परीक्षा करने पर उनका यह मंतव्य श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि एक तो ऐसा मानने से मूलसिद्धांत की क्षति होती है और दूसरे अतिप्रसंग का दोष प्राप्त होता है। क्योंकि, ऐसा मानने पर भूतकालीन रावण और अनागत कालीन शंख चक्रवर्ती में भी एकपना प्राप्त हो जाना चाहिए। वे दोनों एक बन बैठेंगे। यदि तुम यह कहो कि रावण राजा हुआ था और शंख चक्रवर्ती होगा, इस प्रकार इन शब्दों की भिन्न विषयार्थता बन जाती है, तब तो विश्वदृश्वा और जनिता इन दोनों शब्दों की भी एकार्थता न होओ। क्योंकि ‘जिसने विश्व को देख लिया है’ ऐसे इस अतीतकालवाची विश्वदृश्वा शब्द का जो अर्थ है, वह ‘उत्पन्न होवेगा’ ऐसे इस भविष्यकालवाची जनिता शब्द का अर्थ नहीं है। कारण कि भविष्यत् काल में होने वाले पुत्र को अतीतकाल संबंधीपने का विरोध है। फिर भी यदि यह कहो कि भूतकाल में भविष्य काल का अध्यारोप करने से दोनों शब्दों का एक अर्थ इष्ट कर लिया गया है, तब तो काल-भेद होने पर भी वास्वविकरूप से अर्थों के अभेद की व्यवस्था नहीं हो सकती। और यही बात शब्दनय समझा रहा है। 2. साधन या कारक व्यभिचार विषयक—तिस ही प्रकार वे वैयाकरणीजन कर्ताकारक वाले ‘करोति’ और कर्मकारक वाले ‘क्रियते’ इन दोनों शब्दों में कारक भेद होने पर भी, इनका अभिन्न अर्थ मानते हैं; कारण कि, ‘देवदत्त कुछ करता है’ और ‘देवदत्त के द्वारा कुछ किया जाता है’ इन दोनों वाक्यों का एक अर्थ प्रतीत हो रहा है। परीक्षा करने पर इस प्रकार मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो ‘देवदत्त चटाई को बनाता है’ इस वाक्य में प्रयुक्त कर्ताकारक रूप देवदत्त और कर्मकारक रूप चटाई में भी अभेद का प्रसंग आता है। 3. लिंग व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वे वैयाकरणीजन ‘पुष्यनक्षत्र तारा है’ यहाँ लिंग भेद होने पर भी, उनके द्वारा किये गये एक ही अर्थ का आदर करते हैं, क्योंकि लोक में कई तारकाओं से मिलकर बना एक पुष्य नक्षत्र माना गया है। उनका कहना है कि शब्द के लिंग का नियत करना लोक के आश्रय से होता है। उनका ऐसा कहना श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो पुल्लिंगी पट, और स्त्रीलिंगी झोंपड़ी इन दोनों शब्दों के भी एकार्थ हो जाने का प्रसंग प्राप्त होता है। 4. संख्या व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वे वैयाकरणी जन ‘आप:’ इस स्त्रीलिंगी बहुवचनांत शब्द का और ‘अंभ:’ इस नपुंसकलिंगी एकवचनांत शब्द का, लिंग व संख्या भेद होने पर भी, एक जल नामक अर्थ ग्रहण करते हैं। उनके यहाँ संख्याभेद से अर्थ में भेद नहीं पड़ता जैसे कि गुरुत्व साधन आदि शब्द। उनका ऐसा मानना श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो एक घट और अनेक तंतु इन दोनों का भी एक ही अर्थ होने का प्रसंग प्राप्त होता है। 5. पुरुष व्यभिचार विषयक—‘‘हे विदूषक, इधर आओ। तुम मन में मान रहे होगे कि मैं रथ द्वारा मेले में जाऊँगा, किंतु तुम नहीं जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता भी गया था?’’ इस प्रकार यहाँ साधन या पुरुष का भेद होने पर भी वे वैयाकरणी जन एक ही अर्थ का आदर करते हैं। उनका कहना है कि उपहास के प्रसंग में ‘मन्य’ धातु के प्रकृतिभूत होने पर दूसरी धातुओं के उत्तमपुरुष के बदले मध्यम पुरुष हो जाता है, और मन्यति धातु को उत्तमपुरुष हो जाता है, जो कि एक अर्थ का वाचक है। किंतु उनका यह कहना भी उत्तम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो ‘मैं पका रहा हूँ’, ‘तू पकाता है’ इत्यादि स्थलों में भी अस्मद् और युष्मद् साधन का अभेद होने पर एकार्थपने का प्रसंग होगा। 6. उपसर्ग व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वैयाकरणीजन ‘संस्थान करता है’, ‘अवस्थान करता है’ इत्यादि प्रयोगों में उपसर्ग के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को पकड़ बैठे हैं। उनका कहना है कि उपसर्ग केवल धातु के अर्थ का द्योतन करने वाले होते हैं। वे किसी नवीन अर्थ के वाचक नहीं हैं। उनका यह कहना भी प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो ‘तिष्ठति’ अर्थात ठहरता है और ‘प्रतिष्ठते’ अर्थात् गमन करता है, इन दोनों प्रयोगों में भी एकार्थता का प्रसंग आता है।
- इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक दूषण आते हैं। (1) लकार या कृदंत में अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगों में कालादि के नानापने की कल्पना व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि एक ही काल या उपसर्ग आदि से वास्तविक रूप से इष्टकार्य की सिद्धि हो जायेगी।73। काल आदि के भेद से अर्थ भेद न मानने वालों को कोई सा एक काल या कारक आदि ही मान लेना चाहिए।74। काल आदि का भिन्न-भिन्न स्वीकार किया जाना ही उनकी भिन्नार्थता का द्योतक है।75।
- सर्व प्रयोगों को दूषित बताने से तो व्याकरणशास्त्र के साथ विरोध आता है?
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/1 एवं प्रकारं व्यवहारमन्याय्यं मन्यते; अन्यार्थस्यान्यार्थेन संबंधाभावात् । लोकसमयविरोध इति चेत् । विरुध्यताम् । तत्त्वमिह मीमांस्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुवर्ति।=यद्यपि व्यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं, तथापि इस प्रकार के व्यवहार को शब्दनय अनुचित मानता है, क्योंकि पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अन्य अर्थ का अन्य अर्थ के साथ संबंध नहीं बन सकता। प्रश्न‒इससे लोक समय का (व्याकरण शास्त्र का) विरोध होता है? उत्तर‒यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं है, क्योंकि यहाँ तत्त्व की मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगों की इच्छा का अनुकरण करने वाली नहीं होती। ( राजवार्तिक/1/33/9/98/25)।
- शब्दनय का सामान्य लक्षण
- समभिरूढ नय निर्देश
- समभिरूढ नय के लक्षण
- अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग)
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/4 नानार्थ समभिरोहणात्समभिरूढ:। यतो नानार्थान्समतीत्यैकमर्थमाभिमुख्येन रूढ: समभिरूढ:। गौरित्ययं शब्दो वागादिष्वर्द्येषु वर्तमान: पशावभिरूढ:। =नाना अर्थों का समभिरोहण करने वाला होने से समभिरूढ नय कहलाता है। चूँकि जो नाना अर्थों को ‘सम’ अर्थात् छोड़कर प्रधानता से एक अर्थ में रूढ होता है वह समभिरूढ नय है। उदाहरणार्थ—‘गो’ इस शब्द की वचन, पृथिवी आदि 11 अर्थों में प्रवृत्ति मानी जाती है, तो भी इस नय की अपेक्षा वह एक पशु विशेष के अर्थ में रूढ है। (राजवार्तिक/1/33/10/98/26); ( आलापपद्धति/5); ( नयचक्र बृहद्/215) (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.18); ( तत्त्वसार/1/49); (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/276)।
राजवार्तिक/4/42/17/261/12 समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् (अभेद:)। =समभिरूढ नय में घटनक्रिया से परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घट का निरूपण होता है। अर्थात् जो शब्द जिस पदार्थ के लिए रूढ कर दिया गया है, वह शब्द हर अवस्था में उस पदार्थ का वाचक होता है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.18 एकबारमष्टोपवासं कृत्वा मुक्तेऽपि तपोधनं रूढिप्रधानतया यावज्जीवमष्टोपवासीति व्यवहरंति स तु समभिरूढनय:। =एक बार आठ उपवास करके मुक्त हो जाने पर भी तपोधन को रूढि की प्रधानता से यावज्जीव अष्टोपवासी कहना समभिरूढ नय है।
- शब्दभेद अर्थभेद
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/5 अथवा अर्थगत्यर्थ: शब्दप्रयोग:। तत्रैकस्यार्थस्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक:। शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति। नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढ:। इंदनादिंद्र:, शकनाच्छक्र:, पूर्दारणात् पुरंदर इत्येवं सर्वत्र।=अथवा अर्थ का ज्ञान कराने के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ऐसी हालत में एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है। इसलिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार नाना अर्थों का समभिरोहण करने वाला होने समभिरूढ नय कहलाता है। जैसे इंद्र, शक्र और पुरंदर ये तीन शब्द होने से इनके अर्थ भी तीन हैं। क्योंकि व्युत्पत्ति की अपेक्षा ऐश्वर्यवान् होने से इंद्र, समर्थ होने से शक्र और नगरों का दारण करने से पुरंदर होता है। इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए। (राजवार्तिक/1/33/10/98/30), ( श्लोकवार्तिक 4/1/33 श्लो.76-77/263); ( हरिवंशपुराण/58/48); ( धवला 1/1,1,1/9/4); ( धवला 9/4,1,45/179/1); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/200/239/6); (नयचक्र बृहद्/215); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक ./पृ.18); ( स्याद्वादमंजरी/28/314/15;316/3;318/28)।
राजवार्तिक/4/42/17/261/16 समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य एक:। =समभिरूढ नय चूँकि शब्दनैमित्तिक है अत: एक शब्द का वाच्य एक ही होता है।
- वस्तु का निजस्वरूप में रूढ रहना
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/8 अथवा यो यत्राभिरूढ: स तत्र समेत्याभिसुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते। आत्मनीति। कुत:। वस्त्वंतरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्रवृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् ।=अथवा जो जहाँ अभिरूढ है वह वहाँ ‘सम्’ अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ होने के कारण समभिरूढ़ नय कहलाता है? यथा‒आप कहाँ रहते हैं? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति होती है, ऐसा माना जाये तो ज्ञानादिक की और रूपदिक की आकाश में वृत्ति होने लगे। (राजवार्तिक/1/33/10/99/2)।
- अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग)
- यद्यपि रूढिगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं
आलापपद्धति/9 परस्परेणाभिरूढा: समभिरूढा:। शब्दभेदेऽत्यर्थभेदो नास्ति। शक्र इंद्र: पुरंदर इत्यादय: समभिरूढा:। =जो शब्द परस्पर में अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं वे समभिरूढ हैं। उन शब्दों में भेद होते हुए भी अर्थभेद नहीं होता। जैसे‒शक्र, इंद्र व पुरंदर ये तीनों शब्द एक देवराज के लिए अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं। (विशेष देखें मतिज्ञान - 3.4)।
- परंतु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं हो सकते
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/6 तत्रैकस्यार्थस्येकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक:। शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति। =जब एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है तो पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। (राजवार्तिक/1/33/10/98/30)।
कषायपाहुड़ 1/13-14/200/240/1 अस्मिन्नये न संति पर्यायशब्दा: प्रतिपदमर्थभेदाभ्युपगमात् । न च द्वौ शब्दावेकस्मिन्नर्थे वर्तेते; भिन्नयोरकार्थवृत्तिविरोधात् । न च समानशक्तित्वात्तत्र वर्तेते; समानशक्त्यो: शब्दयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेन भाव्यमिति।=इस नय में पर्यायवाची शब्द नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि यह नय प्रत्येक पद का भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। दो शब्द एक अर्थ में रहते हैं, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न दो शब्दों का एक अर्थ में सद्भाव मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाये कि उन दोनों शब्दों में समान शक्ति पायी जाती है, इसलिए वे एक अर्थ में रहते हैं, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो शब्दों में सर्वथा समान शक्ति मानने से वे वास्तव में दो न रहकर एक हो जायेंगे। इसलिए जब वाचक शब्दों में भेद पाया जाता है तो उनके वाच्यभूत अर्थ में भी भेद होना ही चाहिए। (धवला 1/1,1,1/89/5 )।
धवला 9/4,1,45/180/1 न स्वतो व्यतिरिक्ताशेषार्थव्यवच्छेदक: शब्द: अयोग्यत्वात् । योग्य: शब्दो योग्यार्थस्य व्यवच्छेदक इति...न च शब्दद्वयोर्द्वैविध्ये तत्सामर्थ्ययोरेकत्वं न्यायम्, भिन्नकालोत्पन्नद्रव्योपादानभिन्नाधारयोरेकत्वविरोधात् । न च सादृश्यमपि तयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेनापि भवितव्यमिति। =शब्द अपने से भिन्न समस्त पदार्थों का व्यवच्छेदक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें वैसी योग्यता नहीं है, किंतु योग्य शब्द योग्य अर्थ का व्यवच्छेदक होता है। दूसरे, शब्दों के दो प्रकार होने पर उनकी शक्तियों को एक मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि भिन्न काल में उत्पन्न व उपादान एवं भिन्न आधारवाली शब्दशक्तियों के अभिन्न होने का विरोध है। इनमें सादृश्य भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर एकता की आपत्ति आती है। इस कारण वाचक के भेद से वाच्य भेद अवश्य होना चाहिए।
नोट‒शब्द व अर्थ में वाच्य-वाचक संबंध व उसकी सिद्धि के लिए देखें आगम - 4।
- शब्द व समभिरूढ नय में अंतर
श्लोकवार्तिक 4/1/33/76/263/21 विश्वदृश्वा सर्वदृश्वेति पर्यायभेदेऽपि शब्दोऽभिन्नार्थमभिप्रैति भविता भविष्यतीति च कालभेदाभिमननात् । क्रियते विधीयते करोति विदधाति पुष्यस्तिष्य: तारकोडु: आपो वा: अंभ: सलिलमित्यादिपर्यायभेदेऽपि चाभिन्नमर्थं शब्दो मन्यते कारकादिभेदादेवार्थभेदाभिमननात् । समभिरूढ: पुन: पर्यायभेदेऽपि भिन्नार्थानामभिप्रैति। कथं-इंद्र: पुरंदर: शक्र इत्याद्याभिन्नगोचर:। यद्वा विभिन्नशब्दत्वाद्वाजिवारणशब्दवत् ।77। =जो विश्व को देख चुका है या जो सबको देख चुका है इन शब्दों में पर्यायभेद होने पर भी शब्द नय इनके अर्थ को अभिन्न मानता है। भविता (लुट्) और भविष्यति (लृट्) इस प्रकार पर्यायभेद होने पर भी, कालभेद न होने के कारण शब्दनय दोनों का एक अर्थ मानता है। तथा किया जाता है, विधान किया जाता है इन शब्दों का तथा इसी प्रकार; पुष्य व तिष्य इन दोनों पुंल्लिंगी शब्दों का; तारका व उडुका इन दोनों स्त्रीलिंगी शब्दों का; स्त्रीलिंगी ‘अप’ व वार् शब्दों का नपुंसकलिंगी अंभस् और सलिल शब्दों का; इत्यादि समानकाल कारक लिंग आदि वाले पर्यायवाची शब्दों का वह एक ही अर्थ मानता है। वह केवल कारक आदि का भेद हो जाने से ही पर्यायवाची शब्दों में अर्थभेद मानता है, परंतु कारकादिका भेद न होने पर अर्थात् समान कारकादि वाले पर्यायवाची शब्दों में अभिन्न अर्थ स्वीकार करता है। किंतु समभिरूढ नय तो पर्यायभेद होने पर भी उन शब्दों में अर्थभेद मानता है। जैसे‒कि इंद्र, पुरंदर व शक्र इत्यादि पर्यायवाची शब्द उसी प्रकार भिन्नार्थ गोचर हैं, जैसे कि बाजी (घोड़ा) व वारण (हाथी) ये शब्द।
- समभिरूढ नयाभास का लक्षण
स्याद्वादमंजरी/28/318/30 पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कुक्षीकुर्वाणस्तदाभास:। यथेंद्र: शक्र: पुरंदर इत्यादय: शब्दा: भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात् करिकुरंगतुरंगशब्दवद् इत्यादि:। =पर्यायवाची शब्दों के वाच्य में सर्वथा नानापना मानना समभिरूढाभास है। जैसे कि इंद्र, शक्र, पुरंदर इत्यादि शब्दों का अर्थ, भिन्न शब्द होने के कारण उसी प्रकार से भिन्न मानना जैसे कि हाथी, हिरण, घोड़ा इन शब्दों का अर्थ।
- समभिरूढ नय के लक्षण
- एवंभूतनय निर्देश
- तत्क्रियापरिणत द्रव्य ही शब्द का वाच्य है
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/3 येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसायतीति एवंभूत:। स्वाभिप्रेतक्रियापरिणतिक्षणे एव स शब्दो युक्तो नान्यथेति। यदैवेंदति तदैवेंद्रो नाभिषेचको न पूजक इति। यदैव गच्छति तदैव गौर्न स्थितो न शयित इति। =जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है उसी रूप निश्चय करने वाले (नाम देने वाले) नय को एवंभूत नय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्द का जो वाच्य है उस रूप क्रिया के परिणमन के समय ही उस शब्द का प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयों में नहीं। जैसे‒जिस समय आज्ञा व ऐश्वर्यवान् हो उस समय ही इंद्र है, अभिषेक या पूजा करने वाला नहीं। जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी या सोती हुई नहीं। (राजवार्तिक/1/33/11/99/5); (श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक 78-79/262); (हरिवंशपुराण/58/49); (आलापपद्धति/5 व 9); (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.19 पर उद्धत श्लोक); ( तत्त्वसार/1/50); (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/277); ( स्याद्वादमंजरी/28/315/3)।
धवला 1/1,1,1/90/3 एवं भेदे भवनादेवंभूत:। =एवंभेद अर्थात् जिस शब्द का जो वाच्य है वह तद्रूप क्रिया से परिणत समय में ही पाया जाता है। उसे जो विषय करता है उसे एवंभूतनय कहते हैं। (कषायपाहुड़ 1/13-14/201/242/1)।
नयचक्र बृहद्/216 जं जं करेइ कम्मं देही मणवयणकायचेवादो। तं तं खु णामजुत्तो एवंभूदो हवे स णओ।216।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.19 य: कश्चित्पुरुष: रागपरिणतो परिणमनकाले रागीति भवति। द्वेषपरिणतो परिणमनकाले द्वेषीति कथ्यते।...शेषकाले तथा न कथ्यते। इति तप्ताय: पिंडवत् तत्काले यदाकृतिस्तद्विशेषे वस्तुपरिणमनं तदा काले ‘तक्काले तम्मपत्तादो’ इति वचनमस्तीति क्रियाविशेषाभिदानं स्वीकरोति अथवा अभिदानं न स्वीकरोतीति व्यवहरणमेवंभूतनयो भवति।=1. यह जीव मन वचन काय से जब जो-जो चेष्टा करता है, तब उस-उस नाम से युक्त हो जाता है, ऐसा एवंभूत नय कहता है। 2. जैसे राग से परिणत जीव रागपरिणति के काल में ही रागी होता है और द्वेष परिणत जीव द्वेष परिणति के काल में ही द्वेष्टा कहलाता है। अन्य समयों में वह वैसा नहीं कहा जाता। इस प्रकार अग्नि से तपे हुए लोहे के गोलेवत्, उस-उस काल में जिस-जिस आकृति विशेष में वस्तु का परिणमन होता है, उस काल में उस रूप से तन्मय होता है। इस प्रकार आगम का वचन है। अत: क्रियाविशेष के नामकथन को स्वीकार करता है, अन्यथा नामकथन को ग्रहण नहीं करता। इस प्रकार से व्यवहार करना एवंभूत होता है। - तज्ज्ञानपरिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है
- निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/5 अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूत: परिणतस्तेनैवाध्यवसाययति। यथेंद्राग्निज्ञानपरिणत आत्मैवेंद्रोऽग्निश्चेति। =अथवा जिस रूप से अर्थात् जिस ज्ञान से आत्मा परिणत हो उसी रूप से उसका निश्चय कराने वाला नय एवंभूतनय है। यथा‒इंद्ररूप ज्ञान से परिणत आत्मा इंद्र है और अग्निरूप ज्ञान से परिणत आत्मा अग्नि है। ( राजवार्तिक 1/33/11/99/10 )।
राजवार्तिक/1/1/5/5/1 यथा...आत्मा तत्परिणामादग्निव्यपदेशभाग् भवति, स एवंभूतनयवक्तव्यतया उष्णपर्यायादनन्य:, तथा एवंभूतनयवक्तव्यवशाज् ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वभाव्यात् ।=एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान क्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है और दर्शनक्रिया में परिणत आत्मा दर्शन है; जैसे कि उष्णपर्याय में परिणत आत्मा अग्नि है।
राजवार्तिक/1/33/12/99/13 स्यादेतत्-अग्न्यादिव्यपदेशो यद्यात्मनि क्रियते दाहकत्वाद्यतिप्रसज्यते इति; उच्यते-तदव्यतिरेकादप्रसंग:। तानि नामादीनि येन रूपेण व्यपदिश्यंते ततस्तेषामव्यतिरेक: प्रतिनियतार्थवृत्तित्वाद्धर्माणाम् । ततो नो आगमभावाग्नौ वर्तमानं दाहकत्वं कथमागमभावाग्नौ वर्तेत। =प्रश्न‒ज्ञान या आत्मा में अग्नि व्यपदेश यदि किया जायेगा तो उसमें दाहकत्व आदि का अति प्रसंग प्राप्त होगा ? उत्तर‒नहीं; क्योंकि नाम स्थापना आदि निक्षेपों में पदार्थ के जो-जो धर्म वाच्य होते हैं, वे ही उनमें रहेंगे, नोआगम भाव (भौतिक) अग्नि में ही दाहकत्व आदि धर्म होते हैं उनका प्रसंग आगमभाव (ज्ञानात्मक) अग्नि में देना उचित नहीं है।
- निर्देश
- अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद करता है
राजवार्तिक 1/4/42/17/261/13 एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् भेदेनाभिधानम् । ...एवंभूवर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:। =एवंभूतनय में प्रवृत्तिनिमित्त से भिन्न एक ही अर्थ का निरूपण होता है, इसलिए यहाँ सब शब्दों में अर्थभेद है। एवंभूतनय वर्तमान निमित्त को पकड़ता है, अत: उसके मत से एक शब्द का वाच्य एक ही है।
धवला 1/1,1,1/90/5 तत: पदमेकमेकार्थस्य वाचकमित्यध्यवसाय: इत्येवंभूतनय:। एतस्मिन्नये एको गोशब्दो नानार्थे न वर्तते एकस्यैकस्वभावस्य बहुषु वृत्तिविरोधात् ।=एक पद एक ही अर्थ का वाचक होता है, इस प्रकार के विषय करने वाले नय को एवंभूतनय कहते हैं। इस नय की दृष्टि में एक ‘गो’ शब्द नाना अर्थों में नहीं रहता, क्योंकि एक स्वभाववाले एक पद का अनेक अर्थों में रहना विरुद्ध है। धवला 9/4,1,45/180/7 गवाद्यर्थभेदेन गवादिशब्दस्य च भेदक: एवंभूत:। क्रियाभेदे न अर्थभेदक: एवंभूत:, ‘शब्दनयांतर्भूतस्य एवंभूतस्य अर्थनयत्वविरोधात् ।=गौ आदि शब्द का भेदक है, वह एवंभूतनय है। क्रिया का भेद होने पर एवंभूतनय अर्थ का भेदक नहीं है; क्योंकि शब्द नयों के अंतर्गत आने वाले एवंभूतनय के अर्थनय होने का विरोध है।
स्याद्वादमंजरी/28/316/ उद्धृत श्लो.नं.7 एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोत्पद्यते। क्रियाभेदेन भिन्नत्वाद् एवंभूतोऽभिमन्यते । =वस्तु अमुक क्रिया करने के समय ही अमुक नाम से कही जा सकती है, वह सदा एक शब्द का वाच्य नहीं हो सकती, इसे एवंभूतनय कहते हैं। - इस नय की दृष्टि में वाक्य संभव नहीं है।
धवला 1/1,1,1/90/3 न पदानां...परस्परव्यपेक्षाप्यस्ति वर्णार्थसंख्याकालादिभिर्भिन्नानां पदानां भिन्नपदापेक्षायोगात् । ततो न वाक्यमप्यस्तीति सिद्धम् । =शब्दों में परस्पर सापेक्षता भी नहीं है, क्योंकि वर्ण अर्थ संख्या और काल आदि के भेद से भेद को प्राप्त हुए पदों के दूसरे पदों की अपेक्षा नहीं बन सकती। जब कि एक पद दूसरे पद की अपेक्षा नहीं रखता है, तो इस नय की दृष्टि में वाक्य भी नहीं बन सकता है यह बात सिद्ध हो जाती है। - इस नय में पद समास संभव नहीं
कषायपाहुड़/1/13-14/201/242/1 अस्मिन्नये न पदानां समासोऽस्ति; स्वरूपत: कालभेदेन च भिन्नानामेकत्वविरोधात् । न पदानामेककालवृत्तिसमास: क्रमोत्पन्नानां क्षणक्षयिणां तदनुपपत्ते:। नैकार्थे वृत्ति: समास: भिन्नपदानामेकार्थे वृत्त्यनुपपत्ते:। =इस नय में पदों का समास नहीं होता है; क्योंकि, जो पद काल व स्वरूप की अपेक्षा भिन्न हैं, उन्हें एक मानने में विरोध आता है। एक काल वृत्ति समास कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पद क्रम से उत्पन्न होते हैं और क्षणध्वंसी हैं। एकार्थ वृत्ति समास कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न पदों का एक अर्थ में रहना बन नहीं सकता। (धवला 1/1,1,1/90/3) - इस नय में वर्ण समास तक भी संभव नहीं
धवला 1/4,1,45/190/7 वाचकगतवर्णभेदेनार्थस्य...भेदक: एवंभूत:। =जो शब्दगत ‘घ’ ‘ट’ आदि वर्णों के भेद से अर्थ का भेदक है, वह एवंभूतनय है। कषायपाहुड़/1/13-14/201/242/4 न वर्णसमासोऽप्यस्ति तत्रापि पदसमासोक्तदोषप्रसंगात् । तत एक एव वर्ण एकार्थवाचक इति पदगतवर्णमात्रार्थ: एकार्थ इत्येवंभूताभिप्रायवान् एवंभूतनय:। =इस नय में जिस प्रकार पदों का समास नहीं बन सकता, उसी प्रकार ‘घ’ ‘ट’ आदि अनेक वर्णों का भी समास नहीं बन सकता है, क्योंकि ऊपर पदसमास मानने में जो दोष कह आये हैं, वे सब दोष यहाँ भी प्राप्त होते हैं। इसलिए एवंभूतनय की दृष्टि में एक ही वर्ण एक अर्थ का वाचक है। अत: ‘घट’ आदि पदों में रहने वाला घ्, अ, ट्, अ आदि वर्णमात्र अर्थ ही एकार्थ हैं, इस प्रकार के अभिप्राय वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। (विशेष तथा समन्वय देखें आगम - 4.4)
- समभिरूढ व एवंभूत में अंतर
श्लोकवार्तिक/4/1/33/78/266/7 समभिरूढो हि शकनक्रियायां सत्यामसत्यां च देवराजार्थस्य शक्रव्यपदेशमभिप्रैति, पशोर्गमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्तथारूढे: सद्भावात् । एवंभूतस्तु शकनक्रियापरिणतमेवार्थं तत्क्रियाकाले शक्रमभिप्रैति नान्यदा। =समभिरूढनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया के होने पर अथवा नहीं होने पर भी देवों के राजा इंद्र को ‘शक्र’ कहने का, तथा गमन क्रिया के होने पर अथवा न होने पर भी अर्थात् बैठी या सोती हुई अवस्था में भी पशुविशेष को ‘गो’ कहने का अभिप्राय रखता है, क्योंकि तिस प्रकार रूढि का सद्भाव पाया जाता है। किंतु एवंभूतनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया से परिणत ही देवराज को ‘शक्र’ और गमन क्रिया से परिणत ही पशुविशेष को ‘गौ’ कहने का अभिप्राय रखता है, अन्य अवस्थाओं में नहीं।
नोट‒(यद्यपि दोनों ही नयें व्युत्पत्ति भेद से शब्द के अर्थ में भेद मानती हैं, परंतु समभिरूढनय तो उस व्युत्पत्ति को सामान्य रूप से अंगीकार करके वस्तु की हर अवस्था में उसे स्वीकार कर लेता है। परंतु एवंभूत तो उस व्युत्पत्ति का अर्थ तभी ग्रहण करता है, जब कि वस्तु तत्क्रिया परिणत होकर साक्षात् रूप से उस व्युत्पत्ति की विषय बन रही हो (स्याद्वादमंजरी/28/315 .3) - एवंभूतनयाभास का लक्षण
स्याद्वादमंजरी/28/319/3 क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपंस्तु तदाभास:। यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यम्, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तक्रियाशून्यत्वात् पटवद् इत्यादि:। =क्रियापरिणति के समय से अतिरिक्त अन्य समय में पदार्थ को उस शब्द का वाच्य सर्वथा न समझना एवंभूतनयाभास है। जैसे‒जल लाने आदि की क्रियारहित खाली रखा हुआ घड़ा बिलकुल भी ‘घट’ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पट की भाँति वह भी घटन क्रिया से शून्य है।
- तत्क्रियापरिणत द्रव्य ही शब्द का वाच्य है
- सातों नयों का समुदित सामान्य निर्देश
- द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय
- द्रव्यार्थिकनय सामान्य निर्देश
- द्रव्यार्थिकनय का लक्षण
- द्रव्य ही प्रयोजन जिसका
सर्वार्थसिद्धि/1/6/21/1 द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य जिसका प्रयोजन है, सो द्रव्यार्थिक है। (राजवार्तिक/1/33/1/95/8); ( धवला 1/1,1,1/83/11) (धवला 9/4,1,45/170/1) (कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/6) (आलापपद्धति/9) (नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19)।
- पर्याय को गौण करके द्रव्य का ग्रहण
श्लोकवार्तिक 2/1/6/ श्लो.19/361 तत्रांशिन्यपि नि:शेषधर्माणां गुणतागतौ। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपत:।19। =जब सब अंशों को गौणरूप से तथा अंशी को मुख्यरूप से जानना इष्ट हो, तब द्रव्यार्थिकनय का व्यापार होता है।
नयचक्र बृहद्/190 पज्जयगउणं किच्चा दव्वंपि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ...।190।=पर्याय को गौण करके जो इस लोक में द्रव्य को ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं।
समयसार / आत्मख्याति/13 द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु में जो द्रव्य को मुख्यरूप से अनुभव करावे सो द्रव्यार्थिकनय है।
न.दी./3/82/125 तत्र द्रव्यार्थिकनय: द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकांतं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थं विभज्य पर्यायार्थिकनयविषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमभ्यनुजानन् स्वविषयं द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, नयांतरविषयसापेक्ष: सन्नय: इत्यभिधानात् । यथा सुवर्णमानयेति। अत्र द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्णद्रव्यानयनचोदनायां कटकं कुंडलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् ।=द्रव्यार्थिकनय प्रमाण के विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानेकात्मक अनेकांतस्वरूप अर्थ का विभाग करके पर्यायार्थिकनय के विषयभूत भेद को गौण करता हुआ, उसकी स्थितिमात्र को स्वीकार कर अपने विषयभूत द्रव्य को अभेदरूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता। इसलिए दूसरे नय के विषय की अपेक्षा रखने वाले नय को सद्नय कहा है। जैसे‒यह कहना कि ‘सोना लाओ’। यहाँ द्रव्यार्थिकनय के अभिप्राय से ‘सोना लाओ’ के कहने पर लाने वाला कड़ा, कुंडल, केयूर (या सोने की डली) इनमें से किसी को भी ले आने से कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोना रूप से कड़ा आदि में कोई भेद नहीं है।
- द्रव्य ही प्रयोजन जिसका
- द्रव्यार्थिकनय वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है
सर्वार्थसिद्धि/1/33/140/9 द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग: अनुवृत्तिरियर्त्थ:। तद्विषयो द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। और इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिकनय है। (तत्त्वसार/1/39 )।
कषायपाहुड़/1/13-14/ गाथा 107/205/252 पज्जवणयवाक्कंतं वत्थू [त्थं] द्रव्वट्ठियस्स वयणिज्जं। जाव दवियोपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।107। =जिस के पश्चात् विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसा द्रव्योपयोग अर्थात् सामान्यज्ञान जहाँ तक होता है, वहाँ तक वह वस्तु द्रव्यार्थिकनय का विषय है। तथा वह पर्यायार्थिकनय से आक्रांत है। अथवा जो वस्तु पर्यायार्थिकनय के द्वारा ग्रहण करके छोड़ दी गयी है, वह द्रव्यार्थिकनय का विषय है। (सर्वार्थसिद्धि/1/6/20/10); ( हरिवंशपुराण/58/42)।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/3/215/10 द्रव्यविषयो द्रव्यार्थ:। =द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थ है। (नयचक्र बृहद्/189)।
कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/7 तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् ।=तद्भावलक्षण वाले सामान्य से अर्थात् पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले ऊर्ध्वता सामान्य से जो अभिन्न हैं, और सादृश्य लक्षण सामान्य से अर्थात् अनेक समान जातीय पदार्थों में पाये जाने वाले तिर्यग्सामान्य से जो कथंचित् अभिन्न है, ऐसी वस्तु को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। (धवला 9/4,1,45/169/11)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/114 पर्यायार्थिकमेकांतनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यंङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यमेकमवलोकयतामनवलोकितविशेषाणां तत्सर्वजीवद्रव्यमिति प्रतिभाति। =पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, तिर्यंक्त्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीव सामान्य को देखने वाले और विशेषों को न देखने वाले जीवों को ‘यह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/269 जो साहदि सामण्णं अविणाभूदं विसेसरूवेहिं। णाणाजुत्तिबलादो दव्वत्थो सो णओ होदि।=जो नय वस्तु के विशेषरूपों से अविनाभूत सामान्यरूप को नाना युक्तियों के बल से साधता है, वह द्रव्यार्थिकनय है।
- द्रव्य की अपेक्षा विषय की अद्वैतता
- द्रव्य से भिन्न पर्याय नाम की कोई वस्तु नहीं
राजवार्तिक/1/33/1/94/25 द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव नातोऽन्ये भावविकारा:, नाप्यभाव: तद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरिति द्रव्यास्तिक:। ...अथवा, द्रव्यमेवार्थोऽस्य न गुणकर्मणी तदवस्थारूपत्वादिति द्रव्यार्थिक:।...।=द्रव्य का होना ही द्रव्य का अस्तित्व है उससे अन्य भावविकार या पर्याय नहीं है, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यास्तिकनय है। अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ या विषय है, गुण व कर्म (क्रिया या पर्याय) नहीं, क्योंकि वे भी तदवस्थारूप अर्थात् द्रव्यरूप ही हैं, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यार्थिक नय है।
कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/1 द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् । न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते; सत्तादिव्यतिरिक्तपर्यायानुपलंभात् । न चोत्पत्तिरप्यस्ति; असत: खरविषाणस्योत्पत्तिविरोधात् ।... एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। पर्याय द्रव्य से पृथक् उत्पन्न होती है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्तादिरूप द्रव्य से पृथक् पर्यायें नहीं पायी जाती हैं। तथा सत्तादिरूप द्रव्य से उनको पृथक् मानने पर वे असत् रूप हो जाती हैं, अत: उनकी उत्पत्ति भी नहीं बन सकती है, क्योंकि खर विषाण की तरह असत् की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। ऐसा द्रव्य जिस नय का प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।
- वस्तु के सब धर्म अभिन्न व एकरस हैं
देखें सप्तभंगी - 5.8 (द्रव्यार्थिक नय से काल, आत्म स्वरूप आदि 8 अपेक्षाओं से द्रव्य के सर्व धर्मों में अभेद वृत्ति है)। और भी देखो‒ नय - IV.2.3.1 , नय - IV.2.6.3 ।
- द्रव्य से भिन्न पर्याय नाम की कोई वस्तु नहीं
- क्षेत्र की अपेक्षा विषय की अद्वैतता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/6 द्रव्यार्थिकनयेन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि भवंति, जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि। =द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं और जीव पुद्गल व काल ये तीन द्रव्य अनेक अनेक हैं। (देखें द्रव्य - 3.4)।
और भी देखो नय - IV.2.6.3 भेद निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश व जीव इन चारों में एक प्रदेशीपना है।
देखें नय - IV.2.3.2 प्रत्येक द्रव्य अपने अपने में स्थित है।
- काल की अपेक्षा विषय की अद्वैतता
धवला 1/1,1,1/ गाथा 8/13 दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पणमविणट्ठं।8। =द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाववाले हैं। ( धवला 4/1,5,4/ गाथा 29/337) (धवला 9/4,1,49/ गाथा 94/244) (कषायपाहुड़ 1/13-14/ गाथा 95/204/248) ( पंचास्तिकाय/11) (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 247 )।
कषायपाहुड़ 1/13-14/180/216/1 अयं सर्वोऽपि द्रव्यप्रस्तार: सदादि परमाणुपर्यंतो नित्य:; द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् ।...सत: आविर्भाव एव उत्पाद: तस्यैव तिरोभाव एव विनाश:, इति द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तुनित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेत् स्थितम् । एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। =सत् से लेकर परमाणु पर्यंत ये सब द्रव्यप्रस्तार नित्य हैं, क्योंकि द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। सत् का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है ऐसा समझना चाहिए। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से समस्त वस्तुएँ नित्य हैं। इसलिए न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है। यह निश्चय हो जाता है। इस प्रकार का द्रव्य जिस नय का प्रयोजन या विषय है, वह द्रव्यार्थिकनय है। (धवला 1/1,1,1/84/7)।
और भी देखो‒ नय - IV.2.3.3 , नय - IV.2.6.2 ।
- भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता
राजवार्तिक/1/33/1/95/4 अथवा अर्यते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थ: कार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवार्थोऽस्य कारणमेव कार्यं नार्थांतरत्वम्, न कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वांगुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:।...अथवा अर्थनमर्थ: प्रयोजनम्, द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिंगदर्शनस्य निह्नोतुमशक्यत्वादिति द्रव्यार्थिक:। =अथवा जो प्राप्त होता है या निष्पन्न होता है, ऐसा कार्य ही अर्थ है। और परिणमन करता है या प्राप्त करता है ऐसा द्रव्य कारण है। द्रव्य ही उस कारण का अर्थ या कार्य है। अर्थात् कारण ही कार्य है, जो कार्य से भिन्न नहीं है। कारण व कार्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है। उंगली व उसकी पोरी की भाँति दोनों एकाकार हैं। ऐसा द्रव्यार्थिकनय कहता है। अथवा अर्थन या अर्थ का अर्थ प्रयोजन है। द्रव्य ही जिसका अर्थ या प्रयोजन है सो द्रव्यार्थिक नय है। इसके विचार में अन्वय विज्ञान, अनुगताकार वचन और अनुगत धर्मों का अर्थात् ज्ञान, शब्द व अर्थ तीनों का लोप नहीं किया जा सकता। तीनों एकरूप हैं।
कषायपाहुड़ 1/13-14/180/216/2 न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते ...असदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभावाच्च।...एतद्द्रव्यमर्थं प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य से पृथग्भूत पर्यायों की उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि असत् पदार्थ किया नहीं जा सकता; कार्य को उत्पन्न करने के लिए उपादानकारण का ग्रहण किया जाता है; सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पायी जाती; समर्थ कारण भी शक्य कार्य को ही करते हैं; तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है। ऐसा द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।
और भी दे.‒ नय - IV.2.3.4 ; नय - IV.2.6.7, 10 ।
- इसी से यह नय वास्तव में एक, अवक्तव्य व निर्विकल्प है
कषायपाहुड़ 1/13-14/ गाथा 107/205 जाव दविओपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।107। =जिसके पीछे विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसे अंतिमविशेष तक द्रव्योपयोग की प्रवृत्ति होती है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/518 भवति द्रव्यार्थिक इति नय: स्वधात्वर्थसंज्ञकश्चैक: =वह अपने धात्वर्थ के अनुसार संज्ञावाला द्रव्यार्थिक नय एक है।
और भी देखो‒ नय - V.2
- द्रव्यार्थिकनय का लक्षण
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय निर्देश
धवला 9/4,1,45/170/5 शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:...अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:। =संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक है और व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक। (कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/1) (तत्त्वसार/1/41 )।
आलापपद्धति/9 शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदो। =शुद्ध निश्चय व अशुद्ध निश्चय दोनों द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं।
- शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण
- शुद्ध, एक व वचनातीत तत्त्व का प्रयोजक
आलापपद्धति/9 शुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक:। =शुद्ध द्रव्य ही है अर्थ और प्रयोजन जिसका सो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.43 शुद्धद्रव्यार्थेन चरतीति शुद्धद्रव्यार्थिक:। =जो शुद्धद्रव्य के अर्थरूप से आचरण करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।
पद्मनन्दी पंचविंशति/1/157 शुद्धं वागतिवर्तितत्त्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति...। =शुद्ध तत्त्व वचन के अगोचर है, ऐसे शुद्ध तत्त्व को ग्रहण करने वाला नय शुद्धादेश है। (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/747)।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/33,133 अथ शुद्धनयादेशाच्छुद्धश्चैकविधोऽपि य:। =शुद्ध नय की अपेक्षा से जीव एक तथा शुद्ध है।
और भी देखें नय - III.4‒(सत्मात्र है अन्य कुछ नहीं)।
- शुद्ध, एक व वचनातीत तत्त्व का प्रयोजक
- शुद्धद्रव्यार्थिक नय का विषय
- द्रव्य की अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य
समयसार/14 जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।14। =जो नय आत्मा को बंध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे पाँच भावरूप से देखता है, उसे हे शिष्य ! तू शुद्धनय जान।14। (पद्मनन्दि पंचविंशति/11/17)।
धवला 9/4,1,45/170/5 सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलंकाभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:। =जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी अद्वैतता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। (विशेष देखें नय - III.4) (कषायपाहुड़/1/13-14/182/219/1) ( न्यायदीपिका/3/84/128)।
प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/125 शुद्धद्रव्यनिरूपणायां परद्रव्यसंपर्कासंभवात्पर्यायाणां द्रव्यांत:प्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते। =शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य के संपर्क का असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर लीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है।
और भी देखो नय - V.1.2 (निश्चय से न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है (आत्मा तो एक ज्ञायक मात्र है)।
और भी देखो नय - IV.1.3 (द्रव्यार्थिक नय सामान्य में द्रव्य का अद्वैत)।
और भी देखो नय - IV.2.6.3 (भेद निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय)।
- क्षेत्र की अपेक्षा स्व में स्थिति
परमात्मप्रकाश/ मूल/1/29/32 देहादेहिं जो वसइ भेयाभेयणएण। सो अप्पा मुणि जीव तुहुं किं अण्णें बहुएण।29।
परमात्मप्रकाश टीका/2 शुद्धनिश्चयनयेन तु अभेदनयेन स्वदेहाद्भिन्ने स्वात्मनि वसति य: तमात्मानं मन्यस्व। =जो व्यवहार नय से देह में तथा निश्चयनय से आत्मा में बसता है उसे ही हे जीव तू आत्मा जान।29। शुद्धनिश्चयनय अर्थात् अभेदनय से अपनी देह से भिन्न रहता हुआ वह निजात्मा में बसता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/19/58/2 सर्वद्रव्याणि निश्चयनयेन स्वकीयप्रदेशेषु तिष्ठंति। =सभी द्रव्य निश्चयनय से निज निज प्रदेशों में रहते हैं। और भी देखो‒ नय - IV.1.4 ; नय - IV.2.6.3 ।
- काल की अपेक्षा उत्पादव्यय रहित है
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/11/27/19 शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन नरनारकादिविभावपरिणामोत्पत्तिविनाशरहितम् । =शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से नर नारकादि विभाव परिणामों की उत्पत्ति तथा विनाश से रहित है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/216 यदि वा शुद्धत्वनयान्नाप्युप्पादो व्ययोऽपि न ध्रौव्यम् । ...केवलं सदिति।216। =शुद्धनय की अपेक्षा न उत्पाद है, न व्यय है और न ध्रौव्य है, केवल सत् है।
और भी देखो‒ नय - IV.1.5 ; नय - IV.2.6.2 ।
- भाव की अपेक्षा एक व शुद्ध स्वभावी है
आलापपद्धति/8 शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभाव:। =(पुद्गल का भी) शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से शुद्धस्वभाव है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परिशिष्ठ/नय नं.47 शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरूपाधिस्वभावम् । =शुद्धनय से आत्मा केवल मिट्टीमात्र की भाँति शुद्धस्वभाव वाला है। (घट, रामपात्र आदि की भाँति पर्यायगत स्वभाव वाला नहीं)।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति 1/4/21 शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति। =शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव होता है।
और भी देखें नय - V.1.5.1 (जीव तो बंध व मोक्ष से अतीत है)।
और भी देखो आगे नय - IV.2.6.10 ।
- द्रव्य की अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य
- अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण
धवला 9/4,1,45/171/3 पर्यायकलंकिततया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:। =(अनेक भेदों रूप) पर्यायकलंक से युक्त होने के कारण व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक है। (विशेष देखें नय - V.4) (कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/2)।
आलापपद्धति/8 अशुद्धद्रव्यार्थिकेन अशुद्धस्वभाव:। =अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय से (पुद्गल द्रव्य का) अशुद्ध स्वभाव है।
आलापपद्धति/9 अशुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धद्रव्यार्थिक:। =अशुद्ध द्रव्य ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.43)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परिशिष्ठ/नय.नं.46 अशुद्धनयेन घटशराबविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधि स्वभावम् । =अशुद्ध नय से आत्मा घट शराब आदि विशिष्ट (अर्थात् पर्यायकृत भेदों से विशिष्ट) मिट्टी मात्र की भाँति सोपाधिस्वभाव वाला है।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका./1/17,27...इतरद्वाच्यं च तद्वाचकं।...प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कल्पितम् ।=शुद्ध तत्त्व वचनगोचर है। उसका वाचक तथा भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध नय है।
समयसार/ पं.जयचंद/6 अन्य परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषय हैं।
और भी देखो नय - V.4 (व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होने से, उसके ही सर्व विकल्प अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विकल्प हैं।
और भी देखो नय - IV.2.6 (अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय पाँच विकल्पों द्वारा लक्षण किया गया है)।
और भी देखो नय - V.1 –(अशुद्ध निश्चय नय का लक्षण)।
- द्रव्यार्थिक के दश भेदों का निर्देश
आलापपद्धति/5 द्रव्यार्थिकस्य दश भेदा:। कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको, ...उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिक:, ...भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिक:, ...कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको,...उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको,...स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको। =द्रव्यार्थिकनय के 10 भेद हैं––1. कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; 2. उत्पादव्यय गौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक; 3. भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; 4. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; 5. उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; 6. भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक; 7. अन्वय द्रव्यार्थिक; 8. स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; 9. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; 10. परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.36-37)
- द्रव्यार्थिक नयदशक के लक्षण
- कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारी जीवो सिद्धसदृक् शुद्धात्मा।=’संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्धात्मा है’ ऐसा कहना कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।
नयचक्र बृहद्/191 कम्माणं मज्झगदं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं। भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो। =कर्मों से बँधे हुए जीव को जो सिद्धों के सदृश शुद्ध बताता है, वह कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय है। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 40/श्लो.3)
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 3 मिथ्यात्वादिगुणस्थाने सिद्धत्वं वदति स्फुटं। कर्मभिर्निरपेक्षो य: शुद्धद्रव्यार्थिको हि स:।1। =मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में अर्थात् अशुद्ध भावों में स्थित जीव का जो सिद्धत्व कहता है वह कर्मनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/107 कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ताग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्तम् ।=कर्मोपाधि निरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्धनिश्चयरूप द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा इन द्रव्य व भाव कर्मों से निर्मुक्त है।
- सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा, द्रव्यं नित्यम् ।=उत्पादव्ययगौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक नय से द्रव्य नित्य या नित्यस्वभावी है। ( आलापपद्धति/8), (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 4/श्लोक 2)
नयचक्र बृहद्/192 उप्पादवयं गउणं किच्चा जो गहइ केवला सत्ता। भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहिओ समये।192। =उत्पाद और व्यय को गौण करके मुख्य रूप से जो केवल सत्ता को ग्रहण करता है, वह सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/40/ श्लोक 4)
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19 सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन पूर्वोक्तव्यंजनपर्यायेभ्य: सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्तजीवराशय: सर्वथा व्यतिरिक्ता एव। =सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के बल से, मुक्त तथा अमुक्त सभी जीव पूर्वोक्त (नर नारक आदि) व्यंजन पर्यायों से सर्वथा व्यतिरिक्त ही हैं।
- भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिको यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद् द्रव्यमभिन्नम् ।
आलापपद्धति/8 भेदकल्पनानिरपेक्षेणैकस्वभाव:। =भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य निज गुणपर्यायों के स्वभाव से अभिन्न है तथा एक स्वभावी है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/श्लो.3)
नयचक्र बृहद्/193 गुणगुणिआइचउक्के अत्थे जो णो करइ खलु भेयं। सुद्धो सो दव्वत्थो भेयवियप्पेण णिरवेक्खो।193।=गुण-गुणी और पर्याय-पर्यायी रूप ऐसे चार प्रकार के अर्थ में जो भेद नहीं करता है अर्थात् उन्हें एकरूप ही कहता है, वह भेदविकल्पों से निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है। (और भी देखें नय - V.1.2) (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लोक 5)
आलापपद्धति/8 भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां धर्माधर्माकाशजीवानां चाखंडत्वादेकप्रदेशत्वम् ।=भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश और जीव इन चारों बहुप्रदेशी द्रव्यों के अखंडता होने के कारण एकप्रदेशपना है।
- कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा। =कर्मजनित क्रोधादि भाव ही आत्मा है ऐसा कहना कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
नयचक्र बृहद्/194 भावे सरायमादी सव्वे जीवम्मि जो दु जंपदि। सो हु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो।194। =जो सर्व रागादि भावों को जीव में कहता है अर्थात् जीव को रागादिस्वरूप कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लोक 1)
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/श्लोक 4 औदयिकादित्रिभावान् यो ब्रूते सर्वात्मसत्तया। कर्मोपाधिविशिष्टात्मा स्यादशुद्धस्तु निश्चय:।4। =जो नय औदयिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक इन तीन भावों को आत्मसत्ता से युक्त बतलाता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
- उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथैकस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम् ।=उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य एक समय में ही उत्पाद व्यय व ध्रौव्य रूप इस प्रकार त्रयात्मक है। ( नयचक्र बृहद्/195), (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/श्लोक 5) (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लोक 2)
- भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथात्मनो ज्ञानदर्शनज्ञानादयो गुणा:।
आलापपद्धति/8 भेदकल्पनासापेक्षेण चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम् । =भेद कल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा ज्ञान दर्शन आदि आत्मा के गुण हैं, (ऐसा गुण गुणी भेद होता है)–तथा धर्म, अधर्म, आकाश व जीव ये चारों द्रव्य अनेक प्रदेश स्वभाव वाले हैं।
नयचक्र बृहद्/196 भेए सदि सबंधं गुणगुणियाईहि कुणदि जो दव्वे। सो वि अशुद्धो दिट्टी सहिओ सो भेदकप्पेण।=जो द्रव्य में गुण-गुणी भेद करके उनमें संबंध स्थापित करता है (जैसे द्रव्य गुण व पर्याय वाला है अथवा जीव ज्ञानवान् है) वह भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/5/ श्लोक 6 तथा/41/ख.3) (विशेष देखें नय - V.4)
- अन्वय द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको यथा, गुणपर्यायस्वभावं द्रव्यम् ।
आलापपद्धति/8 अन्वयद्रव्यार्थिकत्वेनैकस्याप्यनेकस्वभावत्वम् । =अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है और इसीलिए इस नय की अपेक्षा एक द्रव्य के भी अनेक स्वभावीपना है। (जैसे–जीव ज्ञानस्वरूप है, जीव दर्शनस्वरूप है इत्यादि)
नयचक्र बृहद्/197 निस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदव्वेहिं। विवहावणाहि जो सो अण्णयदव्वत्थिओ भणिदो।197। =नि:शेष स्वभावों को जो सर्व द्रव्यों के साथ अन्वय या अनुस्यूत रूप से कहता है वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लोक 4)
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.5/श्लोक 7 नि:शेषगुणपर्यायान् प्रत्येकं द्रव्यमब्रबीत् । सोऽन्वयो निश्चयो हेम यथा सत्कटकादिषु।7। =जो संपूर्ण गुणों और पर्यायों में से प्रत्येक को द्रव्य बतलाता है, वह विद्यमान कड़े वगैरह में अनुबद्ध रहने वाले स्वर्ण की भाँति अन्वयद्रव्यार्थिक नय है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/101/140/11 पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्यार्थिकनय:। = जो पूर्वोक्त उत्पाद आदि तीन का तथा स्वसंवेदन ज्ञान दर्शन चारित्र इन तीन गुणों का (उपलक्षण से संपूर्ण गुण व पर्यायों का) आधार है वह अन्वय द्रव्य कहलाता है। वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है।
- स्वद्रव्यादि ग्राहक
आलापपद्धति/5 स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति। =स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव इस स्वचतुष्टय से ही द्रव्य का अस्तित्व है या इन चारों रूप ही द्रव्य का अस्तित्व स्वभाव है। (आलापपद्धति/8); ( नयचक्र बृहद्/198); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3 व पृ.41/श्लोक 5); ( नय - I.5.2 )
- परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति।=परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव इस परचतुष्टय से द्रव्य का नास्तित्व है। अर्थात् परचतुष्टय की अपेक्षा द्रव्य का नास्तित्व स्वभाव है। (आलापपद्धति/8); (नयचक्र बृहद्/198 ); (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3 तथा 41/श्लोक 6); ( नय - I.5.2 )
- परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–ज्ञानस्वरूप आत्मा। =परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा ज्ञानस्वभाव में स्थित है।
आलापपद्धति/8 परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभाव:। ...कर्मनोकर्मणोरचेतनस्वभाव:। ... कर्मनोकर्मणोर्मूर्तस्वभाव:।...पुद्गलं विहाय इतरेषाममूर्त्तस्वभाव:। ...कालपरमाणूनामेकप्रदेशस्वभावम् । =परमभावग्राहक नय से भव्य व अभव्य पारिणामिक स्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म अचेतनस्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म मूर्तस्वभावी हैं, पुद्गल के अतिरिक्त शेष द्रव्य अमूर्तस्वभावी हैं; काल व परमाणु एकप्रदेशस्वभावी है।
नयचक्र बृहद्/199 गेह्णइ दव्वसहावं असुद्धसुद्धोवयारपरिचत्तं। सो परमभावगाही णायव्वो सिद्धिकामेण।199। =जो औदयिकादि अशुद्धभावों से तथा शुद्ध क्षायिकभाव के उपचार से रहित केवल द्रव्य के त्रिकाली परिणामाभावरूप स्वभाव को ग्रहण करता है उसे परमभावग्राही नय जानना चाहिए। (नयचक्र बृहद्/116)
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3 संसारमुक्तपर्यायाणामाधारं भूत्वाप्यात्मद्रव्यकर्मबंधमोक्षाणां कारणं न भवतीति परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकनय:। =परमभाव ग्राहकनय की अपेक्षा आत्मा संसार व मुक्त पर्यायों का आधार होकर भी कर्मों के बंध व मोक्ष का कारण नहीं होता है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/320/408/5 सर्वविशुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धोपादानभूतेन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन कर्तृत्व-भोक्तृत्वमोक्षादिकारणपरिणामशून्यो जीव इति सूचित:। =सर्वविशुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक, शुद्ध उपादानभूत शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से, जीव कर्ता, भोक्ता व मोक्ष आदि के कारणरूप परिणमों से शून्य है।
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236 यस्तु शुद्धशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न। =जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्ध-पारिणामिक परमभावरूप परम निश्चय मोक्ष है वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है। वह अब प्रकट होगी, ऐसा नहीं है।
और भी देखें नय - V.1.5(शुद्धनिश्चय नय बंध मोक्ष से अतीत शुद्ध जीव को विषय करता है)।
- कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक
- शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण
- पर्यायार्थिक नय सामान्य निर्देश
- पर्यायार्थिक नय का लक्षण
- पर्याय ही है प्रयोजन जिसका
सर्वार्थसिद्धि/1/6/21/1 पर्यायोऽर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायार्थिक:। =पर्याय ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो पर्यायार्थिक नय। (राजवार्तिक/1/33/1/95/9); ( धवला 1/1,1,1/84/1); (धवला 9/4,1,45/170/3); (कषायपाहुड़/1/13-14/181/217/1 ) (आलापपद्धति/9) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19); (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/519)।
- द्रव्य को गौण करके पर्याय का ग्रहण
नयचक्र बृहद्/190 पज्जय गउणं किज्जा दव्वं पि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ विवरीओ पज्जयत्थिओ। =पर्याय को गौण करके जो द्रव्य को ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिकनय है। और उससे विपरीत पर्यायार्थिक नय है। अर्थात् द्रव्य को गौण करके जो पर्याय को ग्रहण करता है सो पर्यायार्थिकनय है।
समयसार / आत्मख्याति/13 द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि...पर्यायं मुख्यतयानुभवतीति पर्यायार्थिक:। =द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में पर्याय को ही मुख्यरूप से जो अनुभव करता है, सो पर्यायार्थिक नय है।
न्यायदीपिका/3/82/126 द्रव्यार्थिकनयमुपसर्जनीकृत्य प्रवर्तमानपर्यायार्थिकनयमवलंब्य कुंडलमानयेत्युक्ते न कटकादौ प्रवर्त्तते, कटकादिपर्यायात् कुंडलपर्यायस्य भिन्नत्वात् । =जब पर्यायार्थिक नय की विवक्षा होती है तब द्रव्यार्थिकनय को गौण करके प्रवृत्त होने वाले पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से ‘कुंडल लाओ’ यह कहने पर लाने वाला कड़ा आदि के लाने में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा आदि पर्याय से कुंडलपर्याय भिन्न है।
- पर्याय ही है प्रयोजन जिसका
- पर्यायार्थिक नय वस्तु के विशेष अंश को एकत्व रूप से विषय करता है
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/1 पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थ:। तद्विषय: पर्यायार्थिक:। =पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति (भेद) है, और इसको विषय करने वाला नय पर्यायार्थिकनय है (तत्त्वसार/1/40 )।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/3/215/10 पर्यायविषय: पर्यायार्थ:। =पर्याय को विषय करने वाला पर्यायार्थ नय है। (नयचक्र बृहद्/189)
हरिवंशपुराण/58/42 स्यु: पर्यायार्थिकस्यान्मे विशेषविषया: नया:।42। =ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक नय के भेद हैं। वे सब वस्तु के विशेष अंश को विषय करते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/114 द्रव्यार्थिकमेकांतनिमीलितं केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनलोकितसामान्यानामन्यत्प्रतिभाति। द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत् ।=जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके मात्र खुली हुईं पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब जीवद्रव्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों को (वह जीवद्रव्य) अन्य–अन्य भासित होता है क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषों के समय तन्मय होने से उन-उन विशेषों से अनन्य है–कंडे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भाँति।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/270 जो साहेदि विसेसे बहुविहसामण्णसंजुदे सव्वे। साहणलिंग-वसादो पज्जयविसओ णओ होदि।=जो अनेक प्रकार के सामान्य सहित सब विशेषों को साधक लिंग के बल से साधता है, वह पर्यायार्थिक नय है।
- द्रव्य की अपेक्षा विषय की एकत्वता
- पर्याय से पृथक् द्रव्य कुछ नहीं है
राजवार्तिक/1/33/1/95/3 पर्याय एवार्थोऽस्य रूपाद्युत्क्षेपणादिलक्षणो, न ततोऽन्यद् द्रव्यमिति पर्यायार्थिक:। =रूपादि गुण तथा उत्क्षेपण अवक्षेपण आदि कर्म या क्रिया लक्षणवाली ही पर्याय होती है। ये पर्याय ही जिसका अर्थ हैं, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, ऐसा पर्यायार्थिक नय है। ( धवला 12/4,2,8,15/292/12)।
श्लोकवार्तिक/2/2/2/4/15/6 अभिधेयस्य शब्दनयोपकल्पितत्वाद्विशेषस्य ऋजुसूत्रोपकल्पितत्वादभावस्य। =शब्द का वाच्यभूत अभिधेय तो शब्दनय के द्वारा और सामान्य द्रव्य से रहित माना गया कोरा विशेष ऋजुसूत्रनय से कल्पित कर लिया जाता है।
कषायपाहुड़/1/13-14/278/314/4 ण च सामण्णमत्थि; विसेसेसु अणुगमअतुट्टसरूवसामण्णाणुवलंभादो। =इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि में सामान्य है भी नहीं, क्योंकि विशेषों में अनुगत और जिसकी संतान नहीं टूटी है, ऐसा सामान्य नहीं पाया जाता। (धवला 13/5,5,7/199/6)
कषायपाहुड़/1/13-14/279/316/6 तस्स विसए दव्वाभावादो। =शब्दनय के विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता। (कषायपाहुड़/1/13-14/285/320/4)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परिशिष्ठ/नय नं.2 तत् तु...पर्यायनयेन तंतुमात्रवद्दर्शनज्ञानादिमात्रम् ।=इस आत्मा को यदि पर्यायार्थिक नय से देखें तो तंतुमात्र की भाँति ज्ञान दर्शन मात्र है। अर्थात् जैसे तंतुओं से भिन्न वस्त्र नाम की कोई वस्तु नहीं हैं, वैसे ही ज्ञानदर्शन से पृथक् आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है।
- गुण गुणी में सामानाधिकरण्य नहीं है
राजवार्तिक/1/33/7/97/20 न सामानाधिकरण्यम् – एकस्य पर्यायेभ्योऽनन्यत्वात् पर्याया एव विविक्तशक्तयो द्रव्य नाम न किंचिदस्तीति। =(ऋजुसूत्र नय में गुण व गुणी में) सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता क्योंकि भिन्न शक्तिवाली पर्यायें ही यहाँ अपना अस्तित्व रखती हैं, द्रव्य नाम की कोई वस्तु नहीं है। (धवला 9/4,1,45/174/7); (कषायपाहुड़/1/13-14/89/226/5)
देखें आगे शीर्षक नं - 8 ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में विशेष्य-विशेषण, ज्ञेय-ज्ञायक; वाच्य-वाचक, बंध्य-बंधक आदि किसी प्रकार का भी संबंध संभव नहीं है।
- काक कृष्ण नहीं हो सकता
राजवार्तिक/1/33/7/97/17 न कृष्ण: काक: उभयोरपि स्वात्मकत्वात् – कृष्ण: कृष्णात्मको न काकात्मक:। यदि काकात्मक: स्यात्; भ्रमरादीनामपि काकत्वप्रसंग:। काकश्च काकात्मको न कृष्णात्मक:; यदि कृष्णात्मक:, शुक्लकाकाभाव: स्यात् । पंचवर्णत्वाच्च, पित्तास्थिरुधिरादीनां पीतशुक्लादिवर्णत्वात्, तद्व्यतिरेकेण काकाभावाच्च। =इसकी दृष्टि में काक कृष्ण नहीं होता, दोनों अपने-अपने स्वभावरूप हैं। जो कृष्ण है वह कृष्णात्मक ही है काकात्मक नहीं; क्योंकि, ऐसा मानने पर भ्रमर आदिकों के भी काक होने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार काक भी काकात्मक ही है कृष्णात्मक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर सफेद काक के अभाव का प्रसंग आता है। तथा उसके पित्त अस्थि व रुधिर आदि को भी कृष्णता का प्रसंग आता है, परंतु वे तो पीत शुक्ल व रक्त वर्ण वाले हैं और उनसे अतिरिक्त काक नहीं। (धवला 9/4,1,45/174/3); (कषायपाहुड़/1/13-14/188/226/2)
- सभी पदार्थ एक संख्या से युक्त हैं
षट्खण्डागम 12/4,2,9/सूत्र 14/300 सद्दुजुसुदाणं णाणावरणीयवेयणा जीवस्स।14।
धवला 12/4,2,9,14/300/10 किमट्ठं जीव-वेयणाणं सद्दुजुसुदा वहुवयणं णेच्छंति। ण एस दोसो, बहुत्ताभावादो। तं जहासव्वं पि वत्थु एगसंखाविसिट्ठं, अण्णहा तस्साभावप्पसंगादो। ण च एगत्तपडिग्गहिए वत्थुम्हि दुब्भावादीणं संभवो अत्थि, सीदुण्हाणं व तेसु सहाणवट्ठाणलक्खणविरोहदंसणादो। =शब्द और ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के होती है।14। प्रश्न–ये नय बहुवचन को क्यों नहीं स्वीकार करते ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं; क्योंकि, यहाँ बहुत्व की संभावना नहीं है। वह इस प्रकार कि–सभी वस्तु एक संख्या से संयुक्त हैं; क्योंकि, इसके बिना उसके अभाव का प्रसंग आता है। एकत्व को स्वीकार करने वाली वस्तु में द्वित्वादि की संभावना भी नहीं है, क्योंकि उनमें शीत व उष्ण के समान सहानवस्थानरूप विरोध देखा जाता है। (और भी देखो आगे शीर्षक नं.4/2 तथा शीर्षक नं.6 ।
धवला 9/4,1,59/266/1 उजुसुदेकिमिदि अणेयसंखा णत्थि। एयसद्दस्स एयपमाणस्य य एगत्थं मोत्तूण अणेगत्थेसु एक्ककाले पवुत्तिविरोहादो। ण च सद्द-पमाणाणि बहुसत्तिजुत्ताणि अत्थि, एक्कम्हि विरुद्धाणेयसत्तीणं संभवविरोहादो एयसंखं मोत्तूण अणेयसंखाभावादो वा। =प्रश्न–ऋजुसूत्रनय में अनेक संख्या क्यों संभव नहीं ? उत्तर–चूँकि इस नय की अपेक्षा एक शब्द और एक प्रमाणकी एक अर्थ को छोड़कर अनेक अर्थों में एक काल में प्रवृत्ति का विरोध है, अत: उसमें एक संख्या संभव नहीं है। और शब्द व प्रमाण बहुत शक्तियों से युक्त हैं नहीं; क्योंकि, एक में विरुद्ध अनेक शक्तियों के होने का विरोध है। अथवा एक संख्या को छोड़कर अनेक संख्याओं का वहाँ (इन नयों में) अभाव है। ( कषायपाहुड़/1/13-14/277/313/5;315/1 )।
- पर्याय से पृथक् द्रव्य कुछ नहीं है
- क्षेत्र की अपेक्षा विषय की एकत्वता
- प्रत्येक पदार्थ का अवस्थान अपने में ही है
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/9 अथवा यो यत्राभिरूढ़: स तत्र समेत्याभिमुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते। आत्मनीति। कुत:। वस्त्वंतरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् । =अथवा जो जहाँ अभिरूढ है वह वहाँ सम् अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ़ होने के कारण समभिरूढनय कहलाता है ? यथा–आप कहाँ रहते हैं ? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति मानी जाये तो ज्ञानादि व रूपादि की भी आकाश में वृत्ति होने लगे। (राजवार्तिक/1/33/10/99/2)।
राजवार्तिक/1/33/7/97/16 यमेवाकाशदेशमवगाढुं समर्थ आत्मपरिणामं वा तत्रैवास्य वसति:। =जितने आकाश प्रदेशों में कोई ठहरा है, उतने ही प्रदेशों में उसका निवास है अथवा स्वात्मा में; अत: ग्रामनिवास गृहनिवास आदि व्यवहार नहीं हो सकते। (धवला 9/4,1,45/174/2 ); (कषायपाहुड़/1/13-14/187/226/1)।
- वस्तु अखंड व निरवयव होती है
धवला 12/4,2,9,15/301/1 ण च एगत्तविसिट्ठ वत्थु अत्थि जेण अणेगत्तस्स तदाहारो होज्ज। एक्कम्मि खंभम्मि मूलग्गमज्झभेएण अणेयत्तं दिस्सदि त्ति भणिदे ण तत्थ एयत्तं मोत्तूण अणेयत्तस्स अणुवलंभादो। ण ताव थंभगयमणेयत्तं, तत्थ एयत्तुवलंभादो। ण मूलगयमग्गगयं मज्झगयं वा, तत्थ वि एयत्तं मोत्तूण अणेयत्ताणुवलंभादो। ण तिण्णिमेगेगवत्थूणं समूहो अणेयत्तस्स आहारो, तव्वदिरेगेण तस्समूहाणूवलंभादो। तम्हा णत्थि बहुत्तं। =एकत्व से अतिरिक्त वस्तु है भी नहीं, जिससे कि वह अनेकत्व का आधार हो सके। प्रश्न–एक खंभे में मूल अग्र व मध्य के भेद से अनेकता देखी जाती है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उसमें एकत्व को छोड़कर अनेकत्व पाया नहीं जाता। कारण कि स्तंभ में तो अनेकत्व की संभावना है नहीं, क्योंकि उसमें एकता पायी जाती है। मूलगत, अग्रगत अथवा मध्यगत अनेकता भी संभव नहीं है, क्योंकि उनमें भी एकत्व को छोड़कर अनेकता नहीं पायी जाती। यदि कहा जाय कि तीन एक-एक वस्तुओं का समूह अनेकता का आधार है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे भिन्न उनका समूह पाया नहीं जाता। इस कारण इन नयों की अपेक्षा बहुत्व संभव नहीं है। (स्तंभादि स्कंधों का ज्ञान भ्रांत है। वास्तव में शुद्ध परमाणु ही सत् है (देखें आगे शीर्षक नं - 8.2)।
कषायपाहुड़/1/13-14/193/230/4 ते च परमाणवो निरवयवा: ऊर्ध्वाधोमध्यभागाद्यवयवेषु सत्सु अनवस्थापत्ते:, परमाणोर्वापरमाणुत्वप्रसंगाच्च। =(इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में सजातीय और विजातीय उपाधियों से रहित) वे परमाणु निरवयव हैं, क्योंकि उनके ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि अवयवों के मानने पर अनवस्था दोष की आपत्ति प्राप्त होती है, और परमाणु को अपरमाणुपने का प्रसंग प्राप्त होता है। (और भी देखें नय - IV.3.7 में स.म.)।
- पलालदाह संभव नहीं
राजवार्तिक/1/33/7/97/26 न पलालादिदाहाभाव:...यत्पलालं तद्दहतीति चेत्; न; सावशेषात् । ...अवयवानेकत्वे यद्यवयवदाहात् सर्वत्र दाहोऽवयवांतरादाहात् ननु सर्वदाहाभाव:। अथ दाह: सर्वत्र कस्मान्नादाह:। अतो न दाह:। एवं पानभोजनादिव्यवहाराभाव:।=इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता। जो पलाल है वह जलता है यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि, बहुत पलाल बिना जला भी शेष है। यदि अनेक अवयव होने से कुछ अवयवों में दाह की अपेक्षा लेकर सर्वत्र दाह माना जाता है, तो कुछ अवयवों में अदाह की अपेक्षा लेकर सर्वत्र अदाह क्यों नहीं माना जायेगा ? अत: पान-भोजनादि व्यवहार का अभाव है।
धवला 9/4,1,45/175/9 न पलालावयवी दह्यते, तस्यासत्त्वात् । नावयवा दह्यंते, निरवयवत्वतस्तेषामप्यसत्त्वात् । =पलाल अवयवी का दाह नहीं होता, क्योंकि, अवयवी की (इस नय में) सत्ता ही नहीं है। न अवयव जलते हैं, क्योंकि स्वयं निरवयव होने से उनका भी असत्त्व है।
- कुंभकार संज्ञा नहीं हो सकती
कषायपाहुड़ 1/13-14/186/225/1 न कुंभकारोऽस्ति। तद्यथा–न शिवकादिकरणेन तस्य स व्यपदेश:, शिवकादिषु कुंभभावानुपलंभात् । न कुंभं करोति; स्वावयवेभ्य एव तन्निष्पत्त्युपलंभात् । न बहुभ्य एक: घट: उत्पद्यते; तत्र यौगपद्येन भूयो धर्माणां सत्त्वविरोधात् । अविरोधे वा न तदेकं कार्यम्; विरुद्धधर्माध्यासत: प्राप्तानेकरूपत्वात् । न चैकेन कृतकार्य एव शेषसहकारिकारणानि व्याप्रियंते; तद्व्यापारवैफल्यप्रसंगात् । न चान्यत्र व्याप्रियंते; कार्यंबहुत्वप्रसंगात् । न चैतदपि एकस्य घटस्य बहुत्वाभावात् । =इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में कुंभकार संज्ञा भी नहीं बन सकती है। वह इस प्रकार कि–शिवकादि पर्यायों को करने से उसे कुंभकार कह नहीं सकते, क्योंकि शिवकादि में कुंभपना पाया नहीं जाता और कुंभ को वह बनाता नहीं है; क्योंकि, अपने शिवकादि अवयवों से ही उसकी उत्पत्ति होती है। अनेक कारणों से उसकी उत्पत्ति माननी भी ठीक नहीं है; क्योंकि घट में युगपत् अनेक धर्मों का अस्तित्व मानने में विरोध आता है। उसमें अनेक धर्मों का यदि अविरोध माना जायेगा तो वह घट एक कार्य नहीं रह जायेगा, बल्कि विरुद्ध अनेक धर्मों का आधार होने से अनेक रूप हो जायेगा। यदि कहा जाय कि एक उपादान कारण से उत्पन्न होने वाले उस घट में अन्य अनेकों सहकारी कारण भी सहायता करते हैं, तो उनके व्यापार की विफलता प्राप्त होती है। यदि कहा जाये कि उसी घट में वे सहकारीकारण उपादान के कार्य से भिन्न ही किसी अन्य कार्य को करते हैं, तो एक घट में कार्य बहुत्व का प्रसंग आता है, और ऐसा माना नहीं जा सकता, क्योंकि एक घट अनेक कार्यरूप नहीं हो सकता। ( राजवार्तिक/1/33/7/97/12 ); ( धवला 9/4,1,45/173/7 )।
- प्रत्येक पदार्थ का अवस्थान अपने में ही है
- काल की अपेक्षा विषय की एकत्वता
- केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है
कषायपाहुड़ 1/13-14/181/217/1 परि भेदं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदं एति गच्छतीति पर्याय:, स पर्याय: अर्थ: प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिक:। सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च द्रव्यार्थिकाशेषविषयं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदेन पाटयन् पर्यायार्थिक इत्यवगंतव्य:। अत्रोपयोगिन्यौ गाथे–‘मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुद्दवयणिविच्छेदो। तस्स उ सद्दादीया साहपसाहा सुहुमभेया।88।=’परि’ का अर्थ भेद है। ऋजुसूत्र के वचन के विच्छेदरूप वर्तमान समयमात्र (देखें नय - III.1.2) काल को जो प्राप्त होती है, वह पर्याय है। वह पर्याय ही जिस नय का प्रयोजन है सो पर्यायार्थिकनय है। सादृश्यलक्षण सामान्य से भिन्न और अभिन्न जो द्रव्यार्थिकनय का समस्त विषय है (देखें नय - IV.1.2) ऋजुसूत्रवचन के विच्छेदरूप काल के द्वारा उसका विभाग करने वाला पर्यायार्थिकनय है, ऐसा उक्त कथन का तात्पर्य है। इस विषय में यह उपयोगी गाथा है–ऋजुसूत्र वचन अर्थात् वचन का विच्छेद जिस काल में होता है वह काल पर्यायार्थिकनय का मूल आधार है, और उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेदरूप शब्दादि नय उसी ऋजुसूत्र की शाखा उपशाखा है।88।
देखें नय - III.5.1.2 (अतीत व अनागत काल को छोड़कर जो केवल वर्तमान को ग्रहण करे सो ऋजुसूत्र अर्थात् पर्यायार्थिक नय है।)
देखें नय - III.5.7 (सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वह काल भी दो प्रकार का है। सूक्ष्म एक समय मात्र है और स्थूल अंतर्मुहूर्त या संख्यात वर्ष।)
राजवार्तिक/1/33/1/95/6 पर्याय एवार्थं: कार्यमस्य न द्रव्यम् अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् ।...पर्यायोऽर्थ: प्रयोजनमस्य वाग्विज्ञानव्यावृत्तिनिबंधनव्यवहारप्रसिद्धेरिति।=वर्तमान पर्याय ही अर्थ या कार्य है, द्रव्य नहीं, क्योंकि अतीत विनष्ट हो जाने के कारण और अनागत अभी उत्पन्न न होने के कारण (खरविषाण की तरह (स.म.) उनमें किसी प्रकार का भी व्यवहार संभव नहीं। [तथा अर्थ क्रियाशून्य होने के कारण वे अवस्तुरूप हैं (स.म.)] वचन व ज्ञान के व्यवहार की प्रसिद्धि के अर्थ वह पर्याय ही नय का प्रयोजन है।
- क्षणस्थायी अर्थ ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है
धवला 1/1,1,1/ गाथा 8/13 उप्पज्जंति वियेति य भावा णियतेण पज्जवणयस्स।8। =पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं। धवला 4/1,5,4/ गाथा 29/337), ( धवला 9/4,1,49/ गाथा 94/244), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/ गाथा 95/204/248), (पंचास्तिकाय/11), ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/247)।
देखें आगे नय - IV.3.7–(पदार्थ का जन्म ही उसके नाश में हेतु है।)
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/ गाथा 91/228 प्रत्येकं जायते चित्तं जातं जातं प्रणश्यति। नष्टं नावर्तते भूयो जायते च नवं नवम् ।91। =प्रत्येक चित्त (ज्ञान) उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर नाश को प्राप्त हो जाता है। तथा जो नष्ट हो जाता है, वह पुन: उत्पन्न नहीं होता, किंतु प्रति समय नया नया चित्त ही उत्पन्न होता है। (धवला 6/1,9-9,5/420/5)।
राजवार्तिक/1/33/1/95/1 पर्याय एवास्ति इति मतिरस्य जन्मादिभावविकारमात्रमेव भवनं, न ततोऽन्यद् द्रव्यमस्ति तद्वयतिरेकेणानुपलब्धिरिति पर्यायास्तिक:। =जन्म आदि भावविकार मात्र का होना ही पर्याय है। उस पर्याय का ही अस्तित्व है, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, क्योंकि उस पर्याय से पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं होती है। ऐसी जिनकी मान्यता है, सो पर्यायास्तिक नय है।
- केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है
- काल एकत्व विषयक उदाहरण
राजवार्तिक/1/33/7/ पंक्ति–कषायो भैषज्यम् इत्यत्र च संजातरस: कषायो भैषज्यं न प्राथमिककषायोऽल्पोऽनभिव्यक्तरसत्वादस्य विषय:। (1)। ‘‘....’’ तथा प्रतिष्ठंतेऽस्मिंनिति प्रस्थ:, यदैव मिमीते, अतीतानागतधान्यमानासंभवात् । (11) ‘‘....’’ स्थितप्रश्ने च ‘कुतोऽद्यागच्छसि इति। ‘न कुतश्चित्’ इत्यर्थं मन्यते, तत्कालक्रियापरिणामाभावात् ।(14)।=- ‘कषायो भैषज्यम्’ में वर्तमानकालीन वह कषाय भैषज हो सकती है जिसमें रस का परिपाक हुआ है, न कि प्राथमिक अल्प रस वाला कच्चा कषाय।
- जिस समय प्रस्थ से धान्य आदि मापा जाता है उसी समय उसे प्रस्थ कह सकते हैं, क्योंकि वर्तमान में अतीत और अनागत वाले धान्य का माप नहीं होता है। ( धवला 9/4,1,45/173/5); (कषायपाहुड़ 1/13-14/186/224/8 )
- जिस समय जो बैठा है उससे यदि पूछा जाय कि आप अब कहाँ से आ रहे हैं, तो वह यही कहेगा कि ‘कहीं से भी नहीं आ रहा हूँ’ क्योंकि, उस समय आगमन क्रिया नहीं हो रही है। (धवला 9/4,1,45/174/1), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/187/225/7 )
- राजवार्तिक/1/33/7/98/7 न शुक्ल: कृष्णीभवति; उभयोर्भिन्नकालावस्थत्वात्, प्रत्युत्पन्नविषये निवृत्तपर्यायानभिसंबंधात् ।=
ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से सफेद चीज काली नहीं बन सकती, क्योंकि दोनों का समय भिन्न-भिन्न है। वर्तमान के साथ अतीत का कोई संबंध नहीं है। (धवला 9/4,1,45/176/3), (कषायपाहुड़ 1/13-14/194/230/6)
- कषायपाहुड़ 1/13-14/279/316/5 सद्दणयस्स कोहोदओ कोहकसाओ, तस्स विसए दव्वाभावादो। =
शब्दनय की अपेक्षा क्रोध का उदय ही क्रोध कषाय है; क्योंकि, इस नय के विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता।
- पलाल दाह संभव नहीं
राजवार्तिक/1/33/7/97/26 अत: पलालादिदाहाभाव: प्रतिविशिष्टकालपरिग्रहात् । अस्य हि नयस्याविभागो वर्तमानसमयो विषय:। अग्निसंबंधनदीपनज्वलनदहनानि असंख्येयसमयांतरालानि यतोऽस्य दहनाभाव:। किंच यस्मिन्समये दाह: न तस्मिन्पलालम्, भस्मताभिनिवृत्ते: यस्मिंश्च पलालं न तस्मिन् दाह इति। एवं क्रियमाणकृत-भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिध्यत्सिद्धादयो योज्या:। =इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता; क्योंकि इस नय का विषय अविभागी वर्तमान समयमात्र है। अग्नि सुलगाना धौंकना और जलाना आदि असंख्य समय की क्रियाएँ वर्तमान क्षण में नहीं हो सकतीं। तथा जिस समय दाह है, उस समय पलाल नहीं है, और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं है, फिर पलाल दाह कैसा? इसी प्रकार क्रियमाण-कृत, भुज्यमान-भुक्त, बध्यमान-बद्ध, सिद्धयत्-सिद्ध आदि विषयों में लागू करना चाहिए। (धवला 9/4,1,45/175/8 )
- पच्यमान ही पक्व है
राजवार्तिक/1/33/7/97/3 पच्यमान: पक्व:। पक्वस्तु स्यात्पच्यमान: स्यादुपरतपाक इति। असदेतत्; विरोधात् । ‘पच्यमान:’ इति वर्तमान: ‘पक्व:’ इत्यतीत: तयोरेकस्मिन्नवरोधो विरोधीति; नैष दोष:; पचनस्यादावविभागसमये कश्चिदंशो निर्वृत्तो वा, न वा। यदि न निर्वृत्त:; तद्द्वितीयादिष्वप्यनिर्वृत्त: पाकाभाव: स्यात् । ततोऽभिनिर्वृत्त: तदपेक्षया ‘पच्यमान: पक्व:’ इतरथा हि समयस्य त्रैविध्यप्रसंग:। स एवौदन: पच्यमान: पक्व:, स्यात्पच्यमान इत्युच्यते, पक्तुरभिप्रायस्यानिर्वृत्ते:, पक्तुर्हि सुविशदसुस्विन्नौदने पक्वाभिप्राय:, स्यादुपरतपाक इति चोच्यते कस्यचित् पक्तुस्तावतैव कृतार्थत्वात् ।=इस ऋजुसूत्र नय का विषय पच्यमान पक्व है और ‘कथंचित् पकने वाला’ और ‘कथंचित् पका हुआ’ हुआ। प्रश्न–पच्यमान (पक रहा) वर्तमानकाल को, और पक्व (पक चुका) भूतकाल को सूचित करता है, अत: दोनों का एक में रहना विरुद्ध है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है। पाचन क्रिया के प्रारंभ होने के प्रथम समय में कुछ अंश पका या नहीं? यदि नहीं तो द्वितीयादि समयों में भी इसी प्रकार न पका। इस प्रकार पाक के अभाव का प्रसंग आता है। यदि कुछ अंश पक गया है तो उस अंश की अपेक्षा तो वह पच्यमान भी ओदन पक्व क्यों न कहलायेगा। अन्यथा समय के तीन खंड होने का प्रसंग प्राप्त होगा। (और पुन: उस समय खंड में भी उपरोक्त ही शंका समाधान होने से अनवस्था आयेगी) वही पका हुआ ओदन कथंचित् ‘पच्यमान’ ऐसा कहा जाता है; क्योंकि, विशदरूप से पूर्णतया पके हुए ओदन में पाचक का पक्व से अभिप्राय है। कुछ अंशों में पचनक्रिया के फल की उत्पत्ति के विराम होने की अपेक्षा वही ओदन ‘उपरत पाक’ अर्थात् कथंचित् पका हुआ कहा जाता है। इसी प्रकार क्रियमाण-कृत; भुज्यमान-भुक्त; बध्यमान-बद्ध; और सिद्धयत्-सिद्ध इत्यादि ऋजुसूत्र नय के विषय जानने चाहिए। (धवला 9/4,1,45/172 .3), (कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3)
- भाव की अपेक्षा विषय की एकत्वता
राजवार्तिक/1/33/1/95/7 स एव एक: कार्यकारणव्यपदेशभागिति पर्यायार्थिक:। = वह पर्याय ही अकेली कार्य व कारण दोनों नामों को प्राप्त होती हैं, ऐसा पर्यायार्थिक नय है।
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/ गाथा 90/227 जातिरेव हि भावानां निरोधे हेतुरिष्यते। =जन्म ही पदार्थ के विनाश में हेतु है।
धवला 9/4,1,45/176/2 य: पलालो न स दह्यते, तत्राग्निसंबंधजनितातिशयांतराभावात्, भावो वा न स पलालप्राप्तोऽन्यस्वरूपत्वात् ।=अग्नि जनित अतिशयांतर का अभाव होने से पलाल नहीं जलता। उस स्वरूप न होने से वह अतिशयांतर पलाल को प्राप्त नहीं है।
कषायपाहुड़ 1/13-14/278/315/1 उजुसुदेसु बहुअग्गहो णत्थि त्ति एयसत्तिसहियएयमणब्भुवगमादो। =एक क्षण में एक शक्ति से युक्त एक ही मन पाया जाता है, इसलिए ऋजुसूत्रनय में बहुअवग्रह नहीं होता।
स्याद्वादमंजरी/28/313/1 तदपि च निरंशमभ्युपगंतव्यम् । अंशव्याप्तेर्युक्तिरिक्तत्वात् । एकस्य अनेकस्वभावतामंतरेण अनेकस्यावयवव्यापनायोगात् । अनेकस्वभावता एवास्तु इति चेत् । न, विरोधव्याघ्रातत्वात् । तथाहि–यदि एकस्वभाव: कथमनेक: अनेकश्चेत्कथमेक:। अनेकानेकयो: परस्परपरिहारेणावस्थानात् । तस्मात् स्वरूपनिमग्ना: परमाणव एव परस्परापसर्णद्वारेण न स्थूलतां धारयत् पारमार्थिकमिति। =वस्तु का स्वरूप निरंश मानना चाहिए, क्योंकि वस्तु को अंश सहित मानना युक्ति से सिद्ध नहीं होता। प्रश्न–एक वस्तु के अनेकस्वभाव माने बिना वह अनेक अवयवों में नहीं रह सकती, इसलिए वस्तु में अनेकस्वभाव मानना चाहिए? उत्तर–यह ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध होने से एक स्वभाव वाली वस्तु में अनेक स्वभाव और अनेक स्वभाव वाली वस्तु में एकस्वभाव नहीं बन सकते। अतएव अपने स्वरूप में स्थित परमाणु ही परस्पर के संयोग से कथंचित् समूह रूप होकर संपूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा स्थूलरूप को न धारण करने वाले स्वरूप में स्थित परमाणु ही यथार्थ में सत् कहे जा सकते हैं।
- किसी भी प्रकार का संबंध संभव नहीं
- विशेष्य विशेषण भाव संभव नहीं
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/229/6 नास्य विशेषणविशेष्यभावोऽपि। तद्यथा–न तावद्भिन्नयो:; अव्यवस्थापत्ते:। नाभिन्नयो: एकस्मिंस्तद्विरोधात् । =इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि से विशेष्य विशेषण भाव भी नहीं बनता। वह ऐसे कि–दो भिन्न पदार्थों में तो वह बन नहीं सकता; क्योंकि, ऐसा मानने से अव्यवस्था की आपत्ति आती है। और अभिन्न दो पदार्थों में अर्थात् गुण गुणी में भी वह बन नहीं सकता क्योंकि जो एक है उसमें इस प्रकार का द्वैत करने से विरोध आता है। (कषायपाहुड़ 1/13-14/200/240/6), (धवला 9/4,1,45/174/7, तथा पृ.179/6)।
- संयोग व समवाय संबंध संभव नहीं
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/229/7 न भिन्नाभिन्नयोरस्य नयस्य संयोग: समवायो वास्ति; सर्वथैकत्वमापन्नयो: परित्यक्तस्वरूपयोस्तद्विरोधात् । नैकत्वमापन्नयोस्तौ; अव्यवस्थापत्ते:। तत: सजातीयविजातीयविनिर्मुक्ता: केवला: परमाणव एव संतीति भ्रांत: स्तंभादिस्कंधप्रत्यय:। =इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि से सर्वथा अभिन्न दो पदार्थों में संयोग व समवाय संबंध नहीं बन सकता; क्योंकि, सर्वथा एकत्व को प्राप्त हो गये हैं और जिन्होंने अपने स्वरूप को छोड़ दिया है ऐसे दो पदार्थों में संबंध मानने में विरोध आता है। इसी प्रकार सर्वथा भिन्न दो पदार्थों में भी संयोग या समवाय संबंध मानने में विरोध आता है, तथा अव्यवस्था की आपत्ति भी आती है अर्थात् किसी का भी किसी के साथ संबंध हो जायेगा। इसलिए सजातीय और विजातीय दोनों प्रकार की उपाधियों से रहित शुद्ध परमाणु ही सत् है। अत: जो स्तंभादिरूप स्कंधों का प्रत्यय होता है, वह ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में भ्रांत है। (और भी देखें पीछे शीर्षक नं - 4.2), (स्याद्वादमंजरी/28/313/5)।
- कोई किसी के समान नहीं है
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/230/3 नास्य नयस्य समानमस्ति; सर्वथा द्वयो: समानत्वे एकत्वापत्ते:। न कथंचित्समानतापि; विरोधात् । =इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में कोई किसी के समान नहीं है, क्योंकि दो को सर्वथा समान मान लेने पर, उन दोनों में एकत्व की आपत्ति प्राप्त होती है। कथंचित् समानता भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।
- ग्राह्यग्राहकभाव संभव नहीं
कषायपाहुड़ 1/13-14/195/230/8 नास्य नयस्य ग्राह्यग्राहकभावोऽप्यस्ति। तद्यथा–नासंबद्धोऽर्थो गृह्यते; अव्यवस्थापत्ते:। न संबद्ध:; तस्यातीतत्वात्, चक्षुषा व्यभिचाराच्च। न समानो गृह्यते; तस्यासत्त्वात् मनस्कारेण व्यभिचारात् । =इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में ग्राह्यग्राहक भाव भी नहीं बनता। वह ऐसे कि–असंबद्ध अर्थ के ग्रहण मानने में अव्यवस्था की आपत्ति और संबद्ध का ग्रहण मानने में विरोध आता है, क्योंकि वह पदार्थ ग्रहणकाल में रहता ही नहीं है, तथा चक्षु इंद्रिय के साथ व्यभिचार भी आता है, क्योंकि चक्षु इंद्रिय अपने को नहीं जान सकती। समान अर्थ का भी ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि एक तो समान पदार्थ है ही नहीं (देखें ऊपर ) और दूसरे ऐसा मानने से मनस्कार के साथ व्यभिचार आता है अर्थात् समान होते हुए भी पूर्वज्ञान उत्तर ज्ञान के द्वारा गृहीत नहीं होता है।
- वाच्यवाचकभाव संभव नहीं
कषायपाहुड़ 1/13-14/196/231/3 नास्य शुद्धस्य (नयस्य) वाच्यवाचकभावोऽस्ति। तद्यथा–न संबद्धार्थ: शब्दवाच्य:; तस्यातीतत्वात् । नासंबद्ध: अव्यवस्थापत्ते:। नार्थेन शब्द उत्पाद्यते; ताल्वादिभ्यस्तदुत्पत्त्युपलंभात् । न शब्दादर्थ उत्पद्यते, शब्दोत्पत्ते: प्रागपि अर्थसत्त्वोपलंभात् । न शब्दार्थयोस्तादात्म्यलक्षण: प्रतिबंध: करणाधिकरणभेदेन प्रतिपन्नभेदयोरेकत्वविरोधात्, क्षुरमोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटनपूरणप्रसंगात् । ततो न वाच्यवाचकभाव इति। =- इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में वाच्यवाचक भाव भी नहीं होता। वह ऐसे कि–शब्दप्रयोग काल में उसके वाच्यभूत अर्थ का अभाव हो जाने से संबद्ध अर्थ उसका वाच्य नहीं हो सकता। असंबद्ध अर्थ भी वाच्य नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने से अव्यवस्थादोष की आपत्ति आती है।
- अर्थ से शब्द की उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि तालु आदि से उसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती क्योंकि शब्दोत्पत्ति से पहिले भी अर्थ का सद्भाव पाया जाता है।
- शब्द व अर्थ में तादात्म्य लक्षण संबंध भी नहीं है, क्योंकि दोनों को ग्रहण करने वाली इंद्रियाँ तथा दोनों का आधारभूत प्रदेश या क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं। अथवा ऐसा मानने पर ‘छुरा’ और ‘मोदक’ शब्दों को उच्चारण करने से मुख कटने का तथा पूर्ण होने का प्रसंग आता है।
- अर्थ की भाँति विकल्प अर्थात् ज्ञान भी शब्द का वाच्य नहीं है, क्योंकि यहाँ भी ऊपर दिये गये सर्व दोषों का प्रसंग आता है। अत: वाच्यवाचक भाव नहीं है।
देखें नय - III.8.4-6 (वाक्य, पदसमास व वर्णसमास तक संभव नहीं)।
देखें नय - I.4.5 (वाच्यवाचक भाव का अभाव है तो यहाँ शब्दव्यवहार कैसे संभव है)।
आगम/4/4 उपरोक्त सभी तर्कों को पूर्व पक्ष की कोटि में रखकर उत्तर पक्ष में कथंचित् वाच्यवाचक भाव स्वीकार किया गया है।
- बंध्यबंधक आदि अन्य भी कोई संबंध संभव नहीं
कषायपाहुड़ 1/13-14/191/228/3 ततोऽस्य नयस्य न बंध्यबंधक-बध्यघातक-दाह्यदाहक-संसारादय: संति। =इसलिए इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में बंध्यबंधकभाव, बध्यघातकभाव, दाह्यदाहकभाव और संसारादि कुछ भी नहीं बन सकते हैं।
- विशेष्य विशेषण भाव संभव नहीं
- कारण कार्यभाव संभव नहीं
- कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है
राजवार्तिक/1/1/24/8/32 नेमौ ज्ञानदर्शनशब्दौ करणसाधनौ। किं तर्हि। कर्तृसाधनौ। तथा चारित्रशब्दोऽपि न कर्मसाधन:। किं तर्हि। कर्तृसाधन:। कथम् । एवंभूतनयवशात् । =एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन व चारित्र ये तीनों (तथा उपलक्षण से अन्य सभी) शब्द कर्म साधन नहीं होते, कर्तासाधन ही होते हैं।
कषायपाहुड़ 1/13-14/284/319/3 कर्तृसाधन: कषाय:। एदं णेगमसंगहववहारउजुसुदाणं; तत्थ कज्जकरणभावसंभवादो। तिण्हं सद्दणयाणं ण केण वि कसाओ; तत्थ कारणेण बिणा कज्जुप्पत्तीदो। =’कषाय शब्द कर्तृसाधन है’, ऐसी बात नैगम (अशुद्ध) संग्रह, व्यवहार व (स्थूल) ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा समझनी चाहिए; क्योंकि, इन नयों में कार्य कारणभाव संभव है। परंतु (सूक्ष्म ऋजुसूत्र) शब्द, समभिरूढ व एवंभूत इन तीनों शब्द नयों की अपेक्षा कषाय किसी भी साधन से उत्पन्न नहीं होती है; क्योंकि इन नयों की दृष्टि में कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है।
धवला 12/4,2,8,15/292/9 तिण्णं संद्दणयाणं णाणावरणीयपोग्गलक्खंदोदयजणिदण्णाणं वेयणा। ण सा जोगकसाएहिंतो उप्पज्जदे णिस्सत्तीदो सत्तिविसेसस्स उप्पत्तिविरोहादो। णोदयगदकम्मदव्वक्खंधादो, पज्जयवदिरित्तदव्वाभावादो। =तीनों शब्दनयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय संबंधी पौद्गलिक स्कंधों के उदय से उत्पन्न अज्ञान को ज्ञानावरणीय वेदना कहा जाता है। परंतु वह (ज्ञानावरणीय वेदना) योग व कषाय से उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि जिसमें जो शक्ति नहीं है, उससे उस शक्ति विशेष की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। तथा वह उदयगत कर्मस्कंध से भी उत्पन्न नहीं हो सकती; क्योंकि, (इन नयों में) पर्यायों से भिन्न द्रव्य का अभाव है। - विनाश निर्हेतुक होता है
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/226/8 अस्य नयस्य निर्हेतुको विनाश:। तद्यथा–न तावत्प्रसज्यरूप: परत उत्पद्यते; कारकप्रतिषेधे व्यापृतात्परस्माद् घटाभावविरोधात् । न पर्युदासो व्यतिरिक्त उत्पद्यते; ततो व्यतिरिक्तघटोत्पत्तावर्पितघटस्य विनाशविरोधात् । नाव्यतिरिक्त:; उत्पन्नस्योत्पत्तिविरोधात् । ततो निर्हेतुको विनाश इति सिद्धम् । = इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में विनाश निर्हेतुक है। वह इस प्रकार कि–प्रसज्यरूप अभाव तो पर से उत्पन्न हो नहीं सकता; क्योंकि, तहाँ क्रिया के साथ निषेध वाचक ‘नञ्’ का संबंध होता है। अत: क्रिया का निषेध करने वाले उसके द्वारा घट का अभाव मानने में विरोध आता है। अर्थात् जब वह क्रिया का ही निषेध करता रहेगा तो विनाशरूप अभाव का भी कर्ता न हो सकेगा। पर्युदासरूप अभाव भी पर से उत्पन्न नहीं होता है। पर्युदास से व्यतिरिक्त घट की उत्पत्ति मानने पर विवक्षित घट के विनाश के साथ विरोध आता है। घट से अभिन्न पर्युदास की उत्पत्ति मानने पर दोनों की उत्पत्ति एकरूप हो जाती है, तब उसकी घट से उत्पत्ति हुई नहीं कही जा सकती। और घट तो उस अभाव से पहिले ही उत्पन्न हो चुका है, अत: उत्पन्न की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। इसलिए विनाश निर्हेतुक है यह सिद्ध होता है। (धवला 9/4,1,45/175/2)। - उत्पाद भी निर्हेतुक है
कषायपाहुड़ 1/13-14/192/228/5 उत्पादोऽपि निर्हेतुक:। तद्यथा–नोत्पद्यमान उत्पादयति; द्वितीयक्षणे त्रिभुवनाभावप्रसंगात् । नोत्पन्न उत्पादयति; क्षणिकपक्षक्षते:। न विनष्ट उत्पादयति; अभावाद्भावोत्पत्तिविरोधात् । न पूर्वविनाशोत्तरोत्पादयो: समानकालतापि कार्यकारणभावसमर्थिका। तद्यथा–नातीतार्थाभावत उत्पद्यते; भावाभावयो: कार्यकारणभावविरोधात् । न तद्भावात्; स्वकाल एव तस्योत्पत्तिप्रसंगात् । किंच, पूर्वक्षणसत्ता यत: समानसंतानोत्तरार्थक्षणसत्त्वविरोधिनी ततो न सा तदुत्पादिका; विरुद्धयोस्सत्तयोरुत्पाद्योत्पादकभावविरोधात् । ततो निर्हेतुक उत्पाद इति सिद्धम् । =इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में उत्पाद भी निर्हेतुक होता है। वह इस प्रकार कि–जो अभी स्वयं उत्पन्न हो रहा, उससे उत्पत्ति मानने में दूसरे ही क्षण तीन लोकों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। जो उत्पन्न हो चुका है, उससे उत्पत्ति मानने में क्षणिक पक्ष का विनाश प्राप्त होता है। जो नष्ट हो चुका है, उससे उत्पत्ति मानें तो अभाव से भाव की उत्पत्ति होने रूप विरोध प्राप्त होता है।
पूर्वक्षण का विनाश और उत्तरक्षण का उत्पाद इन दोनों में परस्पर कार्यकारण भाव की समर्थन करने वाली समानकालता भी नहीं पायी जाती है। वह इस प्रकार कि–अतीत पदार्थ के अभाव से नवीन पदार्थ की उत्पत्ति मानें तो भाव और अभाव में कार्यकारण भाव माननेरूप विरोध प्राप्त होता है। अतीत अर्थ के सद्भाव से नवीन पदार्थ का उत्पाद मानें तो अतीत के सद्भाव में ही नवीन पदार्थ की उत्पत्ति का प्रसंग आता है। दूसरे, चूँकि पूर्व क्षण की सत्ता अपनी संतान में होने वाले उत्तर अर्थक्षण की सत्ता की विरोधिनी है, इसलिए पूर्व क्षण की सत्ता उत्तर क्षण की उत्पादक नहीं हो सकती है; क्योंकि विरुद्ध दो सत्ताओं में परस्पर उत्पाद्य-उत्पादकभाव के मानने में विरोध आता है। अतएव ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से उत्पाद भी निर्हेतुक होता है, यह सिद्ध होता है।
- कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है
- सकल व्यवहार का उच्छेद करता है
राजवार्तिक/1/33/7/98/8 सर्वव्यवहारलोप इति चेत्; न; विषयमात्रप्रदर्शनात्, पूर्वनयवक्तव्यात् संव्यवहारसिद्धिरिति।=शंका–इस प्रकार इस नय को मानने से तो सर्व व्यवहार का लोप हो जायेगा? उत्तर–नहीं; क्योंकि यहाँ केवल उस नय का विषय दर्शाया गया है। व्यवहार की सिद्धि इससे पहले कहे गये व्यवहारनय के द्वारा हो जाती है (देखें नय - V.4)। (कषायपाहुड़/1/13-14/196/232/2), (कषायपाहुड़ 1/13-14/228/278/4)।
- पर्यायार्थिक नय का लक्षण
- शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिकनय निर्देश
- शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिकनय के लक्षण
आलापपद्धति/9 शुद्धपर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येति शुद्धपर्यायार्थिक:। अशुद्धपर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धपर्यायार्थिक:। =शुद्ध पर्याय अर्थात् समयमात्र स्थायी, षड्गुण हानिवृद्धि द्वारा उत्पन्न, सूक्ष्म अर्थपर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। और अशुद्ध पर्याय अर्थात् चिरकाल स्थायी, संयोगी व स्थूल व्यंजन पर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.44 शुद्धपर्यायार्थेन चरतीति शुद्धपर्यायार्थिक:। अशुद्धपर्यायार्थेन चरतीति अशुद्धपर्यायार्थिक:। =शुद्ध पर्याय के अर्थ रूप से आचरण करने वाला शुद्धपर्यायार्थिक नय है, और अशुद्ध पर्याय के अर्थरूप आचरण करने वाला अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
नोट–[सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय शुद्धपर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (देखें नय - III.5.3, नय - III.5.4, नय - III.5.7) तथा व्यवहार नय भी कथंचित् अशुद्ध पर्यायार्थिकनय माना गया है–(देखें नय - V.4.7)] - पर्यायार्थिक नय के छ: भेदों का निर्देश
आलापपद्धति/5 पर्यायार्थिकस्य षड्भेदा उच्यंते—अनादिनित्यपर्यायार्थिको, सादिनित्यपर्यायार्थिको, .... स्वभावो नित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ...भावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ...कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावोऽनित्यशुद्धपर्यायार्थिको, ...कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको। = पर्यायार्थिक नय के छ: भेद कहते हैं–1. अनादि नित्य पर्यायार्थिकनय; 2. सादिनित्य पर्यायार्थिकनय; 3. स्वभाव नित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय; 4. स्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय; 5. कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभाव अनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय; 6. कर्मोपाधि सापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय। - पर्यायार्थिक नयषट्क के लक्षण
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.6 भरतादिक्षेत्राणि हिमवदादिपर्वता: पद्मादिसरोवराणि, सुदर्शनादिमेरुनगा: लवणकालोदकादिसमुद्रा: एतानि मध्यस्थितानि कृत्वा परिणतसंख्यातद्वीपसमुद्रा: श्वभ्रपटलानि भवनवासिबाणव्यंतरविमानानि चंद्रार्कमंडलादिज्योतिर्विमानानि सौधर्मकल्पादिस्वर्गपटलानि यथायोग्यस्थाने परिणताकृत्रिमचैत्यचैत्यालया: मोक्षशिलाश्च बृहद्वातवलयाश्च इत्येवमाद्यनेकाश्चर्यरूपेण परिणतपुद्गलपर्यायाद्यनेकद्रव्यपर्यायै: सह परिणतलोकमहास्कंधपर्याया: त्रिकालस्थिता: संतोऽनादिनिधना इति अनादिनित्यपर्यायार्थिकनय:।1। शुद्धनिश्चयनयविवक्षामकृत्वा सकलकर्मक्षयोद्भूतचरमशरीराकारपर्यायपरिणतिरूपशुद्धसिद्धपर्याय: सादिनित्यपर्यायार्थिकनय:।2। अगुरुलघुकादिगुणा: स्वभावेन षट्हानिषड्वृद्धिरूपक्षणभंगपर्यायपरिणतोऽपरिणतसद्द्रव्यानंतगुणपर्यायासंक्रमणदोषपरिहारेण द्रव्यं नित्यस्वरूपेऽवतिष्ठमानमिति सत्तासापेक्षस्वभाव-नित्यशुद्ध-पर्यायार्थिकनय:।3। सद्गुणविवक्षाभावेन ध्रौव्योत्पत्तिव्ययाधीनतया द्रव्यं विनाशोत्पत्तिस्वरूपमिति सत्तानिरपेक्षोत्पादव्ययग्राहकस्वभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनय:।4। चराचरपर्यायपरिणतसमस्तसंसारिजीवनिकायेषु शुद्धसिद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिनिरपेक्ष विभावनित्यशुद्धपर्यायार्थिकनय:।5। शुद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिसंजनितनारकादिविभावपर्याया: जीवस्वरूपमिति कर्मोपाधिसापेक्ष–विभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनय:।6। =- भरत आदि क्षेत्र, हिमवान आदि पर्वत, पद्म आदि सरोवर, सुदर्शन आदि मेरु, लवण व कालोद आदि समुद्र, इनको मध्यरूप या केंद्ररूप करके स्थित असंख्यात द्वीप समुद्र, नरक पटल, भवनवासी व व्यंतर देवों के विमान, चंद्र व सूर्य मंडल आदि ज्योतिषी देवों के विमान, सौधर्मकल्प आदि स्वर्गों के पटल, यथायोग्य स्थानों में परिणत अकृत्रिम चैत्यचैत्यालय, मोक्षशिला, बृहद् वातवलय तथा इन सबको आदि लेकर अन्य भी आश्चर्यरूप परिणत जो पुद्गल पर्याय तथा उनके साथ परिणत लोकरूप महास्कंध पर्याय जो कि त्रिकाल स्थित रहते हुए अनादिनिधन हैं, इनको विषय करने वाला अर्थात् इनकी सत्ता को स्वीकार करने वाला अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय है।
- (परमभाव ग्राहक) शुद्ध निश्चयनय को गौण करके, संपूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न तथा चरमशरीर के आकाररूप पर्याय से परिणत जो शुद्ध सिद्धपर्याय है, उसको विषय करने वाला अर्थात् उसको सत् समझने वाला सादिनित्य पर्यायार्थिकनय है।
- (व्याख्या की अपेक्षा यह नं.4 है) पदार्थ में विद्यमान गुणों की अपेक्षा को मुख्य न करके उत्पाद व्यय ध्रौव्य के आधीनपने रूप से द्रव्य को विनाश व उत्पत्ति स्वरूप मानने वाला सत्तानिरपेक्ष या सत्तागौण उत्पादव्ययग्राहक स्वभाव अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
- (व्याख्या की अपेक्षा यह नं.3)–अगुरुलघु आदि गुण स्वभाव से ही षट्गुण हानि वृद्धिरूप क्षणभंग अर्थात् एकसमयवर्ती पर्याय से परिणत हो रहे हैं। तो भी सत् द्रव्य के अनंतों गुण और पर्यायें परस्पर संक्रमण न करके अपरिणत अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं। द्रव्य को इस प्रकार का ग्रहण करने वाला नय सत्तासापेक्ष स्वभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिकनय है।
- चराचर पर्याय परिणत संसारी जीवधारियों के समूह में शुद्ध सिद्धपर्याय की विवक्षा से कर्मोपाधि से निरपेक्ष विभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय है। (यहाँ पर संसाररूप विभाव में यह नय नित्य शुद्ध सिद्धपर्याय को जानने की विवक्षा रखते हुए संसारी जीवों को भी सिद्ध सदृश बताता है। इसी को आलापपद्धति में कर्मोपाधि निरपेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है।
- जो शुद्ध पर्याय की विवक्षा न करके कर्मोपाधि से उत्पन्न हुई नारकादि विभावपर्यायों को जीवस्वरूप बताता है वह कर्मोपाधिसापेक्ष विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (इसी को आलापपद्धति में कर्मोपाधिसापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है।) (आलापपद्धति/5); (नयचक्र बृहद्/200-205) (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.9 पर उद्धृत श्लोक नं.1-6 तथा पृ.41/श्लोक 7-12)।
- शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिकनय के लक्षण
- द्रव्यार्थिकनय सामान्य निर्देश
- निश्चय व्यवहारनय
- निश्चयनय निर्देश
- निश्चय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण
नियमसार/159 केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं। =निश्चय से केवलज्ञानी आत्मा को देखता है।
श्लोकवार्तिक/1/7/28/585/1 निश्चनय एवंभूत:। =निश्चय नय एवंभूत है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/34/66/20 ज्ञानमेव प्रत्याख्यानं नियमान्निश्चयान् मंतव्यं। =नियम से, निश्चय से ज्ञान को ही प्रत्याख्यान मानना चाहिए।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/93/ से पहिले प्रक्षेपक गाथा नं.1/118/30 परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चय:। =परमार्थ के विशेषण से संशयादि रहित निश्चय अर्थ का ग्रहण किया गया है।
द्रव्यसंग्रह टीका/41/164/11 श्रद्धानरुचिर्निश्चय इदमेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धि: सम्यग्दर्शनम् । =श्रद्धान यानी रुचि या निश्चय अर्थात् ‘तत्त्व का स्वरूप यह ही है, ऐसे ही है’ ऐसी निश्चयबुद्धि सो सम्यग्दर्शन है।
समयसार/ पं.जयचंद/241 जहाँ निर्बाध हेतु से सिद्धि होय वही निश्चय है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/2 साँचा निरूपण सो निश्चय।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/489/19 सत्यार्थ का नाम निश्चय है।
- निश्चय नय का लक्षण अभेद व अनुपचार ग्रहण
- लक्षण
आलापपद्धति/10 निश्चयनयोऽभेदविषयो। =निश्चय नय का विषय अभेद द्रव्य है। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25)।
आलापपद्धति/9 अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चय:।=जो अभेद व अनुपचार से वस्तु का निश्चय करता है वह निश्चय नय है। (नयचक्र बृहद्/262) (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.31) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/614)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/663 अपि निश्चयस्य नियतं हेतु: सामान्यमिह वस्तु।=सामान्य वस्तु ही निश्चयनय का नियत हेतु है।
और भी देखें नय - IV.1.2-5; नय - IV.2.3
- उदाहरण
देखें मोक्षमार्ग - 3.1 दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीन भेद व्यवहार से ही कहे जाते हैं निश्चय से तीनों एक आत्मा ही है।
समयसार / आत्मख्याति/16/ कलश 18 परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैकक:। सर्वभावांतरध्वंसिस्वभावत्वादमेचक:।18। =परमार्थ से देखने पर ज्ञायक ज्योति मात्र आत्मा एकस्वरूप है, क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सभी अन्य द्रव्य के स्वभाव तथा अन्य के निमित्त से हुए विभावों को दूर करने रूप स्वभाव है। अत: यह अमेचक है अर्थात् एकाकार है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599 व्यवहार: स यथा स्यात्सद् द्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा। नेत्येतावन्मात्रो भवति स निश्चयनयो नयाधिपति:। =‘सत् द्रव्य है’ या ‘ज्ञानवान् जीव है’ ऐसा व्यवहारनय का पक्ष है। और ‘द्रव्य या जीव सत् या ज्ञान मात्र ही नहीं है’ ऐसा निश्चयनय का पक्ष है।
और भी देखें द्रव्य , क्षेत्र , काल व भाव - चारों अपेक्षा से अभेद।
- लक्षण
- निश्चयनय का लक्षण स्वाश्रय कथन
- लक्षण
समयसार / आत्मख्याति/272 आत्माश्रितो निश्चयनय:। =निश्चय नय आत्मा के आश्रित है। (नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/159)।
तत्त्वानुशासन/59 अभिन्नकर्तृकर्मादिविषयो निश्चयो नय:। =निश्चयनय में कर्ता कर्म आदि भाव एक दूसरे से भिन्न नहीं होते। (अनगारधर्मामृत/1/102/108)।
- उदाहरण
राजवार्तिक/1/7/38/22 पारिणामिकभावसाधनो निश्चयत:। =निश्चय से जीव की सिद्धि पारिणामिकभाव से होती है।
समयसार / आत्मख्याति/56 निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलंब्योत्प्लवमान: परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति। =निश्चयनय द्रव्य के आश्रित होने से केवल एक जीव के स्वाभाविक भाव को अवलंबन कर प्रवृत्त होता है, वह सब परभावों को पर का बताकर उनका निषेध करता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 रागादिपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपदाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनय:। =शुद्धद्रव्य का निरूपण करने वाले निश्चयनय की अपेक्षा आत्मा अपने रागादि परिणामों का ही कर्ता उपदाता या हाता (ग्रहण व त्याग करने वाला) है। (द्रव्यसंग्रह व टीका/8)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परिशिष्ठ/नय नं.45 निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानबंधमोक्षोचितस्निग्धरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुवद्बंधमोक्षयोरद्वैतानुवर्ति। =आत्मद्रव्य निश्चयनय से बंध व मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करने वाला है। अकेले बध्यमान और मुच्यमान ऐसे बंधमोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्व गुण रूप परिणत परमाणु की भाँति।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीव:। =निश्चयनय से भावप्राण धारण करने के कारण जीव है। (द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/8)।
द्रव्यसंग्रह टीका/19/57/9 स्वकीयशुद्धप्रदेशेषु यद्यपि निश्चयनयेन सिद्धास्तिष्ठंति। =निश्चयनय से सिद्ध भगवान् स्वकीय शुद्ध प्रदेशों में ही रहते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/8/22/2 किंतु शुद्धाशुद्धभावानां परिणममानानामेव कर्तृत्वं ज्ञातव्यम्, न च हस्तादिव्यापाररूपाणामिति।=निश्चयनय से जीव को अपने शुद्ध या अशुद्ध भावरूप परिणामों का ही कर्तापना जानना चाहिए, हस्तादि व्यापाररूप कार्यों का नहीं।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/21 शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति। =शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव है।
- लक्षण
- निश्चयनय के भेद—शुद्ध व अशुद्ध
आलापपद्धति/10 तत्र निश्चयो द्विविध: शुद्धनिश्चयोऽशुद्धनिश्चयश्च। =निश्चयनय दो प्रकार का है–शुद्धनिश्चय और अशुद्धनिश्चय।
- शुद्धनिश्चयनय के लक्षण व उदाहरण
- परमभावग्राही की अपेक्षा
नोट–(परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय ही परमशुद्ध निश्चयनय है। अत: देखें नय - IV.2.6.10)
नियमसार/42 चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोयसोका य। कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो संति।42।=(शुद्ध निश्चयनय से तात्पर्य वृत्ति टीका) जीव को चार गति के भवों में परिभ्रमण, जाति, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणा स्थान नहीं है। ( समयसार/50-55), (बारस अणुवेक्खा/37) ( परमात्मप्रकाश/ मूल/1/19-21,68)</span>
समयसार/56 ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुण ठाणंता भावा ण दु केइ णिच्छयणयस्स।56। =ये जो (पहिले गाथा नं.50-55में) वर्ण को आदि लेकर गुणस्थान पर्यंत भाव कहे गये हैं वे व्यवहार नय से ही जीव के होते हैं परंतु (शुद्ध) निश्चयनय से तो इनमें से कोई भी जीव के नहीं है।
समयसार/68 मोहणकम्मसुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता।68। समयसार / आत्मख्याति/68 एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्म ...संयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलकर्मपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातं। =जो मोह कर्म के उदय से उत्पन्न होने से अचेतन कहे गये हैं, ऐसे गुणस्थान जीव कैसे हो सकते हैं। और इसी प्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म आदि तथा संयमलब्धि स्थान ये सब 19 बातें पुद्गलकर्म जनित होने से नित्य अचेतन स्वरूप हैं और इसलिए पुद्गल हैं जीव नहीं, यह बात स्वत: प्राप्त होती है। (द्रव्यसंग्रह टीका/16/53/3)
वारसअनुवेक्षा/82 णिच्छयणयेण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो। =निश्चयनय से जीव सागार व अनगार दोनों धर्मों से भिन्न है।
परमात्मप्रकाश/ मूल/1/65 बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ। अप्पा किं पि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउँ भणेइ।65।=बंध को या मोक्ष को करने वाला तो कर्म है। निश्चय से आत्मा तो कुछ भी नहीं करता। ( पंचाध्यायी x`/ पुर्वार्ध/456)
नयचक्र बृहद्/115 सुद्धो जीवसहावो जो रहिओ दव्वभावकम्मेहिं। सो सुद्धणिच्छयादो समासिओ सुद्धणाणीहिं।115।=शुद्धनिश्चय नय से जीवस्वभाव द्रव्य व भावकर्मों से रहित कहा गया है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/159 शुद्धनिश्चयत:...स भगवान् त्रिकालनिरूपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनाभ्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्यपरमात्मादि जानाति पश्यति च। =शुद्ध निश्चयनय से भगवान् त्रिकाल निरुपाधि निरवधि नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहज दर्शन द्वारा निज कारणपरमात्मा को स्वयं कार्यपरमात्मा होने पर भी जानते और देखते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/4 साक्षाच्छुद्धनिश्चयनयेन स्त्रीपुरुषसंयोगरहितपुत्रस्येव सुधाहरिद्रासंयोगरहितरंगविशेषस्येव तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं पृच्छाम इति।=साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से तो, जैसे स्त्री व पुरुषसंयोग के बिना पुत्र की तथा चूना व हल्दी के संयोग बिना लालरंग की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार रागद्वेष की उत्पत्ति ही नहीं होती, फिर इस प्रश्न का उत्तर ही क्या? (समयसार / तात्पर्यवृत्ति/111/171/23)
द्रव्यसंग्रह टीका/57/235/7 में उद्धृत मुक्तश्चेत् प्राक्भवेद्बंधो नो बंधो मोचनं कथम् । अबंधे मोचनं नैव मुंचेरर्थो निरर्थक:। बंधश्च शुद्धनिश्चयनयेन नास्ति, तथा बंधपूर्वकमोक्षोऽपि। =जिसके बंध होता है उसको ही मोक्ष होता है। शुद्ध निश्चयनय से जीव को बंध ही नहीं है, फिर उसको मोक्ष कैसा। अत: इस नय में मुंच धातु का प्रयोग ही निरर्थक है। शुद्ध निश्चय नय से जीव के बंध ही नहीं है, तथा बंधपूर्वक होने से मोक्ष भी नहीं है। ( परमात्मप्रकाश टीका/1/68/69/1)
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/8 यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न।=जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्धपारिणामिक भावरूप परम निश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी, ऐसा नहीं है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/13 आत्मा हि शुद्धनिश्चयेन सत्ताचैतन्यबोधादिशुद्धप्राणैर्जीवति...शुद्धज्ञानचेतनया ...युक्तत्वाच्चेतयिता...।=शुद्ध निश्चयनय से आत्मा सत्ता, चैतन्य व ज्ञानादि शुद्ध प्राणों से जीता है और शुद्ध ज्ञानचेतना से युक्त होने के कारण चेतयिता है (नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9); (द्रव्यसंग्रह टीका/3/11)
और भी देखें नय - IV.2.3 (शुद्धद्रव्यार्थिकनय द्रव्यक्षेत्रादि चारों अपेक्षा से तत्त्व को ग्रहण करता है।
- क्षायिकभावग्राही की अपेक्षा
आलापपद्धति/10 निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयक: शुद्धनिश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति। (स्फटिकवत्) =निरुपाधिक गुण व गुणी में अभेद दर्शानेवाला शुद्ध निश्चयनय है, जैसे केवलज्ञानादि ही जीव है अर्थात् जीव का स्वभावभूत लक्षण है।
(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25); (प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परिशिष्ठ/368/12); (पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/61/113/12); ( द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/8)
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/17 (शुद्ध) निश्चयेन केवलज्ञानदर्शनरूपशुद्धोपयोगेन...युक्तत्वादुपयोगविशेषता, ...मोक्षमोक्षकारणरूपशुद्धपरिणामपरिणमनसमर्थत्वात्...प्रभुर्भवति; शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धभावानां परिणामानां...कर्तृत्वात्कर्ता भवति;...शुद्धात्मोत्थवीतरागपरमानंदरूपसुखस्य भोर्क्तृत्वात् भोक्ता भवति। =यह आत्मा शुद्ध निश्चय नय से केवलज्ञान व केवलदर्शनरूप शुद्धोपयोग से युक्त होने के कारण उपयोग विशेषता वाला है; मोक्ष व मोक्ष के कारणरूप शुद्ध परिणामों द्वारा परिणमन करने में समर्थ होने से प्रभु है; शुद्ध भावों का या शुद्ध भावों को करता होने से कर्ता है और शुद्धात्मा से उत्पन्न वीतराग परम आनंद को भोगता होने से भोक्ता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/9/23/6 शुद्धनिश्चयनयेन परमात्मस्वभावसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानोत्पंनसदानंदैकलक्षणं सुखामृत भुक्त इति। =शुद्ध निश्चयनय से परमात्मस्वभाव के सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान और आचरण से उत्पन्न अविनाशी आनंदरूप लक्षण का धारक जो सुखामृत है, उसको (आत्मा) भोगता है।
- परमभावग्राही की अपेक्षा
- एकदेश शुद्धनिश्चय नय का लक्षण व उदाहरण
नोट–(एकदेश शुद्धभाव को जीव का स्वरूप कहना एकदेश शुद्ध निश्चयनय है। यथा–)
द्रव्यसंग्रह टीका/48/205 अत्राह शिष्य:–रागद्वेषादय: किं कर्मजनिता किं जीवजनिता इति। तत्रोत्तरं स्त्रीपुरुषसंयोगोत्पन्नपुत्र इव सुधाहरिद्रासंयोगोत्पन्नवर्णविशेष इवोभयसंयोगजनिता इति। पश्चान्नयविवक्षावशेन विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्मजनिता भण्यंते। =प्रश्न–रागद्वेषादि भाव कर्मों से उत्पन्न होते हैं या जीव से? उत्तर–स्त्री व पुरुष इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान और चूना तथा हल्दी इन दोनों के मेल से उत्पन्न हुए लालरंग के समान ये रागद्वेषादि कषाय जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। जब नय की विवक्षा होती है तो विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय से ये कषाय कर्म से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। (अशुद्धनिश्चय से जीवजनित कहे जाते हैं और साक्षात् शुद्धनिश्चय नय से ये हैं ही नहीं, तब किसके कहे? (देखें शीर्षक नं - 5.1 में द्रव्यसंग्रह )।
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/7 विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनयेन पूर्वं मोक्षमार्गो व्याख्यातस्तथा पर्यायरूपो मोक्षोऽपि। न च शुद्धनिश्चयेनेति। =पहिले जो मोक्षमार्ग या पर्यायमोक्ष कहा गया है, वह विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से कहा गया है, शुद्ध निश्चयनय से नहीं (क्योंकि उसमें तो मोक्ष या मोक्षमार्ग का विकल्प ही नहीं है)
- शुद्ध, एकदेश शुद्ध, व निश्चय सामान्य में अंतर व इनकी प्रयोग विधि
परमात्मप्रकाश टीका/64/65/1 सांसारिकं सुखदु:खं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं तथापि शुद्धनिश्चयेन कर्मजनितं भवति।=सांसारिक सुख दुख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से जीव जनित हैं, फिर भी शुद्ध निश्चयनय से वे कर्मजनित हैं। (यहाँ एकदेश शुद्ध को भी शुद्धनिश्चयनय ही कह दिया है| ऐसा ही सर्वत्र यथा योग्य जानना चाहिए)
द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/11 शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धैकस्वभावेन यदा परिणमति तदानंतज्ञानसुखादिशुद्धभावानां छद्मस्थावस्थायां भावनारूपेण विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्ता, मुक्तावस्थायां तु शुद्धनयेनेति।=शुभाशुभ मन वचन काय के व्यापार से रहित जब शुद्धबुद्ध एकस्वभाव से परिणमन करता है, तब अनंतज्ञान अनंतसुख आदि शुद्धभावों को छद्मस्थ अवस्था में ही भावना रूप से, एकदेशशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा कर्ता होता है, परंतु मुक्तावस्था में उन्हीं भावों का कर्ता शुद्ध निश्चयनय से होता है। (इस पर से एकदेश शुद्ध व शुद्ध इन दोनों निश्चय नयों में क्या अंतर है यह जाना जा सकता है।)
द्रव्यसंग्रह टीका/55/224/6 निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगनिश्चलपुरुषापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोगलक्षणविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयो ग्राह्य:। विशेषनिश्चय: पुनरग्रेवक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ:। ...‘मा चिट्ठह मा जंपह...।=निश्चय शब्द से–अभ्यास करने वाले प्राथमिक, जघन्य पुरुष की अपेक्षा तो व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए। निष्पन्न योग में निश्चल पुरुष की अपेक्षा अर्थात् मध्यम धर्मध्यान की अपेक्षा व्यवहाररत्नत्रय के अनुकूल निश्चय करना चाहिए। निष्पन्नयोग अर्थात् उत्कृष्ट धर्मध्यानी पुरुष की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय ग्रहण करना चाहिए। विशेष अर्थात् शुद्ध निश्चय आगे कहते हैं।–मन वचन काय से कुछ भी व्यापार न करो केवल आत्मा में रत हो जाओ। (यह कथन शुक्लध्यानी की अपेक्षा समझना)।
- अशुद्ध निश्चयनय का लक्षण व उदाहरण
आलापपद्धति/10 सोपाधिकविषयोऽशुद्धनिश्चयो यथा मतिज्ञानादिजीव इति। =सोपाधिक गुण व गुणी में अभेद दर्शाने वाला अशुद्धनिश्चयनय है। जैसे–मतिज्ञानादि ही जीव अर्थात् उसके स्वभावभूत लक्षण हैं। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.25) ( परमात्मप्रकाश टीका/7/13/3)।
नयचक्र बृहद्/114 ते चेव भावरूवा जीवे भूदा खओवसमदो य। ते हंति भावपाणा अशुद्धणिच्छयणयेण णायव्वा।114।=जीव में कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले जितने भाव हैं, वे जीव के भावप्राण होते हैं, ऐसा अशुद्धनिश्चयनय से जानना चाहिए। (पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/14 ) (द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/7 );
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18 अशुद्धनिश्चयनयेन सकलमोहरागद्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च। =अशुद्ध निश्चयनय से जीव सकल मोह, राग, द्वेषादि रूप भावकर्मों का कर्ता है तथा उनके फलस्वरूप उत्पन्न हर्ष विषादादिरूप सुख दु:ख का भोक्ता है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/9; तथा 9/23/5)।
परमात्मप्रकाश टीका/64/65/1 सांसारिकसुखदु:खं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं। =अशुद्ध निश्चयनय से सांसारिक सुख दुख जीव जनित हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परिशिष्ठ/368/13 अशुद्धनिश्चयनयेन सोपाधिस्फटिकवत्समस्तरागादिविकल्पोपाधिसहितम् । =अशुद्ध निश्चयनय से सोपाधिक स्फटिक की भाँति समस्त रागादि विकल्पों की उपाधि से सहित है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/16/53/3); ( अनगारधर्मामृत/1/103/108)
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/8/10/13 अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं भवति। =अशुद्ध निश्चय नय से अशुद्ध आत्मा रागादिक का अशुद्ध उपादान कारण होता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/61/113/13 कर्मकर्तृत्वप्रस्तावादशुद्धनिश्चयेन रागादयोऽपि स्वभावा भण्यंते।=कर्मों का कर्तापना होने के कारण अशुद्ध निश्चयनय से रागादिक भी जीव के स्वभाव कहे जाते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/9 अशुद्धनिश्चयस्यार्थ: कथ्यते–कर्मोपाधिसमुत्पन्नत्वादशुद्ध:, तत्काले तप्ताय: पिंडवत्तन्मयत्वाच्च निश्चय:। इत्युभयमेलापकेनाशुद्धनिश्चयो भण्यते। = ‘अशुद्ध निश्चय’ इसका अर्थ कहते हैं–कर्मोपाधि से उत्पन्न होने से अशुद्ध कहलाता है और अपने काल में (अर्थात् रागादि के काल में जीव उनके साथ) अग्नि में तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय होने से निश्चय कहा जाता है। इस रीति से अशुद्ध और निश्चय इन दोनों को मिलाकर अशुद्ध निश्चय कहा जाता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/45/197/1 यच्चाभ्यंतरे रागादिपरिहार: स पुनरशुद्धनिश्चयेनेति। =जो अंतरंग में रागादि का त्याग करना कहा जाता है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है।
परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/9 भावकर्मदहनं पुनरशुद्धनिश्चयेन। =भावकर्मों का दहन करना अशुद्ध निश्चय नय से कहा जाता है।
परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/10/5 केवलज्ञानाद्यनंतगुणस्मरणरूपो भावनमस्कार: पुनरशुद्धनिश्चयेनेति।=भगवान् के केवलज्ञानादि अनंतगुणों का स्मरण करना रूप जो भाव नमस्कार है वह भी अशुद्ध निश्चयनय से कही जाती है।
- निश्चय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण
- निश्चयनय की निर्विकल्पता
- शुद्ध व अशुद्ध निश्चय द्रव्यार्थिक के भेद है
आलापपद्धति/9 शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदौ। =शुद्ध और अशुद्ध ये दोनों निश्चयनय द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं। (पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/660)
- निश्चयनय एक निर्विकल्प व वचनातीत है
पंद्मनन्दि पंचविंशितिका/1/157 शुद्धं वागतिवर्तितत्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति प्रभेदजनकं शुद्धेतरं कल्पितम् । =शुद्धतत्त्व वचन के अगोचर है, इसके विपरीत अशुद्ध तत्त्व वचन के गोचर है। शुद्धतत्त्व को प्रगट करने वाला शुद्धादेश अर्थात् शुद्धनिश्चयनय है और अशुद्ध व भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध निश्चय नय है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/747) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/134)
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629 स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् । अविकल्पवदतिवागिव स्यादनुभवैकगम्यवाच्यार्थ:।629।=स्वयं ही यथार्थ अर्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके वह निश्चयनय सम्यक्त्व है, और निर्विकल्प व वचनगोचर होने से उसका वाच्यार्थ एक अनुभवगम्य ही होता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/134 एक: शुद्धनय: सर्वो निर्द्वंद्वो निर्विकल्पक:। व्यवहारनयोऽनेक: सद्वंद्व: सविकल्पक:।134। =संपूर्ण शुद्ध अर्थात् निश्चय नय एक निर्द्वंद्व और निर्विकल्प है, तथा व्यवहारनय अनेक सद्वंद्व और सविकल्प है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/657)
और भी देखो द्रव्यार्थिक नय अवक्तव्य व निर्विकल्प है।
- निश्चयनय के भेद नहीं हो सकते
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/661 इत्यादिकाश्च बहवो भेदा निश्चयनयस्य यस्य मते। स हि मिथ्यादृष्टित्वात् सर्वज्ञाज्ञावमानितो नियमात् ।661।=(शुद्ध और अशुद्ध को) आदि लेकर निश्चयनय के भी बहुत से भेद हैं, ऐसा जिसका मत है, वह निश्चय करके मिथ्यादृष्टि होने से नियम से सर्वज्ञ की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला है।
- शुद्धनिश्चय ही वास्तव में निश्चयनय है, अशुद्ध निश्चय तो व्यवहार है
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/57/97/13 द्रव्यकर्मबंधापेक्षया योऽसौ असद्भूतव्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनार्थं रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते। वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्धनिश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थ:।57। समयसार / तात्पर्यवृत्ति/68/108/11 अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्य कर्मापेक्षयाभ्यंतररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव। इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनयविचारकाले सर्वत्र ज्ञातव्यं। =द्रव्यकर्म-बंध की अपेक्षा से जो यह असद्भूत व्यवहार कहा जाता है उसकी अपेक्षा तारतम्यता दर्शाने के लिए ही रागादिकों को अशुद्धनिश्चयनय का विषय बनाया गया है। वस्तुत: तो शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार ही है। अथवा द्रव्य कर्मों की अपेक्षा रागादिक अभ्यंतर हैं और इसलिए चेतनात्मक हैं, ऐसा मानकर भले उन्हें निश्चय संज्ञा दे दी गयी हो परंतु शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा तो वह व्यवहार ही है। निश्चय व व्यवहारनय का विचार करते समय सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए। (समयसार / तात्पर्यवृत्ति/115/174/21), (द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/3)
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/254/11 परंपरया शुद्धात्मसाधकत्वादयमशुद्धनयोऽप्युपचारेण शुद्धनयो भण्यते निश्चयनयो न।=परंपरा से शुद्धात्मा का साधक होने के कारण (दे./V/8/1 में प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189 ) यह अशुद्धनय उपचार से शुद्धनय कहा गया है परंतु निश्चय नय नहीं कहा गया है।
देखें नय - V.4.6, नय - V.4.8 अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय वास्तव में पर्यायार्थिक होने के कारण व्यवहार नय है।
- उदाहरण सहित व सविकल्प सभी नयें व्यवहार हैं
पंचाध्यायी x`/596,615-621,647 सोदाहरणो यावान्नयो विशेषणविशेष्यरूप: स्यात् । व्यवहारापरनामा पर्यायार्थो नयो न द्रव्यार्थ:।596। अथ चेत्सदेकमिति वा चिदेव जीवोऽथ निश्चयो वदति। व्यवहारांतर्भावो भवति सदेकस्य तद्द्विधापत्ते:।615। एवं सदुदाहरणे सल्लक्ष्यं लक्षणं तदेकमिति। लक्षणलक्ष्यविभागो भवति व्यवहारत: स नान्यत्र।616। अथवा चिदेव जीवो यदुदाह्रियतेऽप्यभेदबुद्धिमता। उक्तवदत्रापि तथा व्यवहारनयो न परमार्थ:।617। ननु केवलं सदेव हि यदि वा जीवो विशेषनिरपेक्ष:। भवति च तदुदाहरणं भेदाभावत्तदा हि को दोष:।619। अपि चैवं प्रतिनियतं व्यवहारस्यावकाश एव यथा। सदनेकं च सदेकं जीवाश्चिद्द्रव्यमात्मवानिति चेत् ।620। न यत: सदिति विकल्पो जीव: काल्पनिक इति विकल्पश्च। तत्तद्धर्मविशिष्टस्तदानुपचर्यते स यथा।621। इत्युक्तसूत्रादपि सविकल्पत्वात्तथानुभूतेश्च। सर्वोऽपि नयो यावान् परसमय: स च नयावलंबी च।647। =उदाहरण सहित विशेषण विशेष्यरूप जितना भी नय है वह सब ‘व्यवहार’ नामवाला पर्यायार्थिक नय है। परंतु द्रव्यार्थिक नहीं।596। प्रश्न–‘सत् एक है’ अथवा ‘चित् ही जीव है’ ऐसा कहने वाले नय निश्चयनय कहे गये हैं और एक सत् को ही दो आदि भेदों में विभाग करने वाला व्यवहार नय कहा गया है।615। उत्तर–नहीं, क्योंकि, इस उदाहरण में ‘सत् एक’ ऐसा कहने से ‘सत्’ लक्ष्य है और ‘एक’ उसका लक्षण है। और यह लक्ष्यलक्षण विभाग व्यवहारनय में होता है, निश्चय में नहीं।616। और दूसरा जो ‘चित् ही जीव है’ ऐसा कहने में भी उपरोक्तवत् लक्ष्य-लक्षण भाव से व्यवहारनय सिद्ध होता है, निश्चयनय नहीं।617। प्रश्न–विशेष निरपेक्ष केवल ‘सत् ही’ अथवा ‘जीव ही’ ऐसा कहना तो अभेद होने के कारण निश्चय नय के उदाहरण बन जायेंगे?।619। और ऐसा कहने से कोई दोष भी नहीं है, क्योंकि यहाँ ‘सत् एक है’ या ‘जीव चित् द्रव्य है’ ऐसा कहने का अवकाश होने से व्यवहारनय को भी अवकाश रह जाता है।620। उत्तर–यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘सत्’ और ‘जीव’ यह दो शब्द करनेरूप दोनों विकल्प भी काल्पनिक हैं। कारण कि जो उस उस धर्म से युक्त होता है वह उस उस धर्मवाला उपचार से कहा जाता है।621। और आगम प्रमाण (देखें नय - I.3.3) से भी यही सिद्ध होता है कि सविकल्प होने के कारण जितने भी नय हैं वे सब तथा उनका अवलंबन करने वाले पर-समय हैं।647।
- निर्विकल्प होने से निश्चयनय में नयपना कैसे संभव है ?
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/600-610 ननु चोक्तं लक्षणमिह नयोऽस्ति सर्वोऽपि किल विकल्पात्मा। तदिह विकल्पाभावात् कथमस्य नयत्वमिदमिति चेत् ।600। तत्र यतोऽस्ति नयत्वं नेति यथा लक्षितस्य पक्षत्वात् । पक्षग्राही च नय: पक्षस्य विकल्पमात्रत्वात् ।601। प्रतिषेध्यो विधिरूपो भवति विकल्प: स्वयं विकल्पत्वात् । प्रतिषेधको विकल्पो भवति तथा स: स्वयं निषेधात्मा।602। एकांगत्वमसिद्धं न नेति निश्चयनयस्य तस्य पुन:। वस्तुनि शक्तिविशेषो यथा तथा तदविशेषशक्तित्वात् ।610। =प्रश्न–जब नय का लक्षण ही यह है कि ‘सब नय विकल्पात्मक होती है (देखें नय - I.1.1.5; तथा नय/I/2) तो फिर यहाँ पर विकल्प का अभाव होने से इस निश्चयनय को नयपना कैसे प्राप्त होगा?।600। उत्तर–यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि निश्चयनय में भी निषेधसूचक ‘न’ इस शब्द के द्वारा लक्षित अर्थ को भी पक्षपना प्राप्त है और वही इस नय का नयपना है; कारण कि, पक्ष भी विकल्पात्मक होने से नय के द्वारा ग्राह्य है।601। जिस प्रकार प्रतिषेध्य होने के कारण ‘विधि’ एक विकल्प है; उसी प्रकार प्रतिषेधक होने के कारण निषेधात्मक ‘न’ भी एक विकल्प है।600। ‘न’ इत्याकार को विषय करने वाले उस निश्चयनय में एकांगपना (विकलादेशीपना) असिद्ध नहीं है; क्योंकि, जैसे वस्तु में ‘विशेष’ यह शक्ति एक अंग है, वैसे ही ‘सामान्य’ यह शक्ति भी उसका एक अंग है।610।
- शुद्ध व अशुद्ध निश्चय द्रव्यार्थिक के भेद है
- निश्चयनय की प्रधानता
- निश्चयनय ही सत्यार्थ है
समयसार/11 भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणयो। =शुद्धनय भूतार्थ है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 निश्चयनय: परमार्थप्रतिपादकत्वाद्भूतार्थो।=परमार्थ का प्रतिपादक होने के कारण निश्चयनय भूतार्थ है। (समयसार / आत्मख्याति/11)।
और भी देखें नय - V.1.1 (एवंभूत या सत्यार्थ ग्रहण ही निश्चयनय का लक्षण है।)
समयसार/ पं.जयचंद/6 द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है।
- निश्चयनय साधकतम व नयाधिपति है
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 निश्चयनय:...पूज्यतम:। =निश्चयनय पूज्यतम है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 साध्यस्य हि शद्धत्वेन द्रव्यत्व शुद्धत्वद्योतकत्वान्निश्चयनय एव साधकतमो। =साध्य वस्तु क्योंकि शुद्ध है अर्थात् पर संपर्क से रहित तथा अभेद है, इसलिए निश्चयनय ही द्रव्य के शुद्धत्व का द्योतक होने से साधक है। (देखें नय - V.1.2)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599 निश्चयनयो नयाधिपति:। =निश्चयनय नयाधिपति है।
- निश्चयनय ही सम्यक्त्व का कारण है
समयसार/ भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो। =जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है वह निश्चयनय से सम्यग्दृष्टि होता है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 अत्रैवाविश्रांतांतर्दृष्टिर्भवत्यात्मा। =इस नय का सहारा लेने से ही आत्मा अंतर्दृष्टि होता है।
समयसार / आत्मख्याति/11,414 ये भूतार्थमाश्रयंति त एव सम्यक् पश्यत: सम्यग्दृष्टयो भवंति न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्य।11। य एव परमार्थं परमार्थबुद्धया चेतयंते त एव समयसारं चेतयंते। =यहाँ शुद्धनय कतक फल के स्थान पर है (अर्थात् परसंयोग को दूर करने वाला है), इसलिए जो शुद्धनय का आश्रय लेते हैं, वे ही सम्यक् अवलोकन करने से सम्यग्दृष्टि हैं, अन्य नहीं।11। जो परमार्थ को परमार्थबुद्धि से अनुभव करते हैं वे ही समयसार का अनुभव करते हैं।414।
पद्मनन्दि पंचविंशितिका/80 निरूप्य तत्त्वं स्थिरतामुपागता, मति: सतां शुद्धनयावलंबिनी। अखंडमेकं विशदं चिदात्मकं, निरंतरं पश्यति तत्परं मह:।80।=शुद्धनय का आश्रय लेने वाली साधुजनों की बुद्धितत्त्व का निरूपण करके स्थिरता को प्राप्त होती हुई निरंतर, अखंड, एक, निर्मल एवं चेतनस्वरूप उस उत्कृष्ट ज्योति का ही अवलोकन करती है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/191/256/18 ततो ज्ञायते शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभएव। =इससे जाना जाता है कि शुद्धनय के अवलंबन से आत्मलाभ अवश्य होता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629 स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् । =स्वयं ही भूतार्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके, यह निश्चयनय सम्यक्त्व है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/369/10= निश्चयनय तिनि ही कौं यथावत् निरूपै है, काहुकौं काहूविषैं न मिलावै है। ऐसे ही श्रद्धानतैं सम्यक्त्व हो है।
- निश्चयनय ही उपादेय है
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/67 तस्माद्द्वावपि नाराध्यावाराध्य: पारमार्थिक:।=इसलिए व्यवहार व निश्चय दोनों ही नयें आराध्य नहीं है, केवल एक पारमार्थिक नय ही आराध्य है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 निश्चयनय: साधकतमत्वादुपात्त:। =निश्चयनय साधकतम होने के कारण उपात्त है अर्थात् ग्रहण किया गया है।
समयसार / आत्मख्याति/414/ कलश 244 अलमलमतिजल्पैर्दुविकल्पैरयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेक:। स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति। =बहुत कथन से और बहुत दुर्विकल्पों से बस होओ, बस होओ। यहाँ मात्र इतना ही कहना है, कि इस एकमात्र परमार्थ का ही नित्य अनुभव करो, क्योंकि निज रस के प्रसार से पूर्ण जो ज्ञान, उससे स्फुरायमान होने मात्र जो समयसार; उससे उच्च वास्तव में दूसरा कुछ भी नहीं है।
पद्मनन्दि पंचविंशितिका/1/157 तत्राद्य श्रयणीयमेव सुदृशा शेषद्वयोपायत:। =सम्यग्दृष्टि को शेष दो उपायों से प्रथम शुद्ध तत्त्व (जो कि निश्चयनय का वाच्य बताया गया है) का आश्रय लेना चाहिए।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/54/104/18 अत्र यद्यपि पर्यायार्थिकनयेन सादि सनिधनं जीवद्रव्यं व्याख्यातं तथापि शुद्धनिश्चयेन यदेवानादिनिधनं टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं निर्विकारसदानंदैकस्वरूपं च तदेवोपादेयमित्यभिप्राय:। =यहाँ यद्यपि पर्यायार्थिकनय से सादिसनिधन जीव द्रव्य का व्याख्यान किया गया है, परंतु शुद्ध निश्चयनय से जो अनादि निधन टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एकस्वभावी निर्विकार सदानंद एकस्वरूप परमात्म तत्त्व है, वही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है। (पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/16)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/630 यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तद्दृष्टि: कार्यकारी स्यात् । तस्मात् स उपादेयो नोपादेयस्तदन्यनयवाद:।630।=क्योंकि निश्चयनय पर दृष्टि रखने वाला ही सम्यग्दृष्टि व कार्यकारी है, इसलिए वह निश्चय ही ग्रहण करने योग्य है व्यवहार नहीं।
विशेष देखें निश्चयनय की उपादेयता के कारण व प्रयोजन। यह जीव को नयपक्षातीत बना देता है।
- निश्चयनय ही सत्यार्थ है
- व्यवहारनय सामान्य निर्देश
- व्यवहारनय सामान्य के लक्षण
- संग्रहनय ग्रहीत अर्थ में विधिपूर्वक भेद
धवला 1/1,1,1/ गा.6/12 पडिरूवं पुण वयणत्थणिच्छयो तस्स ववहारो। =वस्तु के प्रत्येक भेद के प्रति शब्द का निश्चय करना (संग्रहनय का) व्यवहार है। ( कषायपाहुड़/1/13-14/182/89/220 )।
सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/2 संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहार:। =संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है। ( राजवार्तिक 1/33/6/96/20), (श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लोक 58/244), (हरिवंशपुराण/58/45), (धवला 1/1,1,1/84/4), (तत्त्वसार/1/46), (स्याद्वादमंजरी/28/317/14 तथा 316 पृ.उद्धृत श्लोक नं. 3)।
आलापपद्धति/9 संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवह्नियतेति व्यवहार:। =संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थ के भेदरूप से जो वस्तु में भेद करता है, वह व्यवहारनय है। (नयचक्र बृहद्/210), (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/273)।
- अभेद वस्तु में गुण-गुणी आदि रूप भेदोपचार
नयचक्र बृहद्/262 जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स। =सो ववहारो भणियो ...।262।=एक अभेद वस्तु में जो धर्मों का अर्थात् गुण पर्यायों का भेदरूप उपचार करता है वह व्यवहारनय कहा जाता है। (विशेष देखें आगे नय - V.5.1-3), (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/614), ( आलापपद्धति/9)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/522 व्यवहरणं व्यवहार: स्यादिति शब्दार्थतो न परमार्थ:। स यथा गुणगुणिनोरिह सदभेदे भेदकरणं स्यात् ।=विधिपूर्वक भेद करने का नाम व्यवहार है। यह इस निरुक्ति द्वारा किया गया शब्दार्थ है, परमार्थ नहीं। जैसा कि यहाँ पर गुण और गुणी में सत् रूप से अभेद होने पर भी जो भेद करना है वह व्यवहार नय कहलाता है।
- भिन्न पदार्थों में कारकादि रूप से अभेदोपचार
समयसार / आत्मख्याति/272 पराश्रितो व्यवहार:।=परपदार्थ के आश्रित कथन करना व्यवहार है। (विशेष देखो आगे असद्भूत व्यवहारनय – नय - V.5.4-6 )।
तत्त्वानुशासन/29 व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचर:। =व्यवहारनय भिन्न कर्ता कर्मादि विषयक है। (अनगारधर्मामृत/1/102/108)।
- लोकव्यवहारगत-वस्तुविषयक
धवला 13/5,5,7/199/1 लोकव्यवहारनिबंधनं द्रव्यमिच्छन् व्यवहारनय:।=लोकव्यवहार के कारणभूत द्रव्य को स्वीकार करने वाला पुरुष व्यवहारनय है।
- संग्रहनय ग्रहीत अर्थ में विधिपूर्वक भेद
- व्यवहारनय सामान्य के उदाहरण
- संग्रह ग्रहीत अर्थ में भेद करने संबंधी
सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/2 को विधि:। य: संगृहीतोऽर्थस्तदानुपूर्व्येणैव व्यवहार: प्रवर्तत इत्ययं विधि:। तद्यथा–सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं तच्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते। यत्सत्तद् द्रव्यं गुणो वेति। द्रव्येणापि संग्रहाक्षिप्तेन जीवाजीवविशेषानपेक्षेण न शक्य: संव्यवहार इति जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति वा व्यवहार आश्रीयते। जीवाजीवावपि च संग्रहाक्षिप्तौ नालं संव्यवहारायेति प्रत्येकं देवनारकादिर्घटादिश्च व्यवहारेणाश्रीयते।=प्रश्न–भेद करने की विधि क्या है? उत्तर–जो संग्रहनय के द्वारा गृहीत अर्थ है उसी के आनुपूर्वीक्रम से व्यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि है। यथा–सर्व संग्रहनय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह अपने उत्तरभेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है। यथा–जो सत् है वह या तो द्रव्य है या गुण। इसी प्रकार संग्रहनय का विषय जो द्रव्य है वह भी जीव अजीव की अपेक्षा किये बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है, इस प्रकार के व्यवहार का आश्रय लिया जाता है। जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य भी जब तक संग्रहनय के विषय रहते हैं, तब तक वे व्यवहार कराने में असमर्थ हैं, इसलिए जीवद्रव्य के देव नारकी आदि रूप और अजीव द्रव्य के घटादि रूप भेदों का आश्रय लिया जाता है। ( राजवार्तिक/1/33/6/6/96/23), (श्लोकवार्तिक/4/1/33/60/244/25), (स्याद्वादमंजरी/28/317/15)।
श्लोकवार्तिक/4/1/33/60/245/1 व्यवहारस्तद्विभज्यते यद्द्रव्यं तज्जीवादिषड्विधं, य: पर्याय: स द्विविध: क्रमभावी सहभावी चेति। पुनरपि संग्रह: सर्वानजीवादीन् संगृह्णाति।...व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति यो जीव: स मुक्त: संसारी च,...यदाकाशं तल्लोकाकाशमलोकाकाशं ...य: क्रमभावी पर्याय: स क्रियारूपोऽक्रियारूपश्च विशेष:, य: सहभावी पर्याय: स गुण: सदृशपरिणामश्च सामान्यमिति अपरापरसंग्रहव्यवहारप्रपंच:।=(उपरोक्त से आगे)–व्यवहारनय उसका विभाग करते हुए कहता है कि जो द्रव्य है वह जीवादि के भेद से छ: प्रकार का है, और जो पर्याय है वह क्रमभावी व सहभावी के भेद से दो प्रकार की है। पुन: संग्रहनय इन उपरोक्त जीवादिकों का संग्रह कर लेता है, तब व्यवहारनय पुन: इनका विभाग करता है कि जीव मुक्त व संसारी के भेद से दो प्रकार का है, आकाश लोक व अलोक के भेद से दो प्रकार का है। (इसी प्रकार पुद्गल व काल आदि का भी विभाग करता है)। जो क्रमभावी पर्याय है वह क्रिया रूप व अक्रिया (भाव) रूप है, सो विशेष है। और जो सहभावी पर्याय हैं वह गुण तथा सदृशपरिणामरूप होती हुई सामान्यरूप् हैं। इसी प्रकार अपर व पर संग्रह तथा व्यवहारनय का प्रपंच समझ लेना चाहिए।
- अभेद वस्तु में गुणगुणीरूप भेदोपचार संबंधी
समयसार/7 ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं।=ज्ञानी के चारित्र दर्शन व ज्ञान ये तीन भाव व्यवहार से कहे गये हैं। (द्रव्यसंग्रह/6/17), ( समयसार / आत्मख्याति/16/ कलश 17)।
का./तात्पर्य वृत्ति/111/175/13 अनलानिलकायिका: तेषु पंचस्थावरेषु मध्ये चलनक्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसा: भण्यंते। =पाँच स्थावरों में से तेज वायुकायिक जीवों में चलनक्रिया देखकर व्यवहार से उन्हें त्रस कहा जाता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599 व्यवहार: स यथा स्यात्सद्द्रव्यं ज्ञानावांश्च जीवो वा। =जैसे ‘सत् द्रव्य है’ अथवा ‘ज्ञानवान् जीव है’ इस प्रकार का जो कथन है, वह व्यवहारनय है। और भी देखो– नय - IV.2.6.6 , नय - V.5.1-3।
- भिन्न पदार्थों में कारकरूप से अभेदोपचार संबंधी
समयसार/59-60 तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं। जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो।59। गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति।60।=जीव में कर्मों व नोकर्मों का वर्ण देखकर, जीव का यह वर्ण है, ऐसा जिनदेव ने व्यवहार से कहा है।59। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्शरूप देह संस्थान आदिक, सभी व्यवहार से हैं, ऐसा निश्चयनय के देखने वाले कहते हैं।60। (द्रव्यसंग्रह/7), (विशेष देखें नय - V.5.5)।
द्रव्यसंग्रह/3,9 तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य। ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स।3। पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो।8। ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मफलं पभुंजेदि।9। =भूत भविष्यत् व वर्तमान तीनों कालों में जो इंद्रिय बल, आयु व श्वासोच्छ्वासरूप द्रव्यप्राणों से जीता है, उसे व्यवहार से जीव कहते हैं।3। व्यवहार से जीव पुद्गलकर्मों का कर्ता है।6। और व्यवहार से पुद्गलकर्मों के फल का भोक्ता है।9। (विशेष देखो नय - V.5.5)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परिशिष्ठ/नय नं.44 व्यवहारनयेन बंधकमोचकपरमाण्वंतरसंयुज्यमानवियुज्यमानपरमाणुवद्बंधमोक्षयोर्द्वैतानुवर्ती।44। =आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बंध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करने वाला है। बंधक और मोचक अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होने वाले और उससे वियुक्त होने वाले परमाणु की भाँति।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मन: कर्म स एव पुण्यपापद्वैतं पुद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपदाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यार्थिकनिरूपणात्मको व्यवहारनय:।=जो ‘पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म है वही पुण्य पापरूप द्वैत है; आत्मा पुद्गल परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला और छोड़ने वाला है, यह अशुद्धद्रव्य का निरूपणस्वरूप व्यवहारनय है।
परमात्मप्रकाश/1/55/54/4 य एव ज्ञानापेक्षया व्यवहानयेन लोकालोकव्यापको भणित:।=व्यवहारनय से ज्ञान की अपेक्षा आत्मा लोकालोकव्यापी है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/17/369/8= व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौ वा तिनिके भावनिकौं वा कारणकार्यादिकौं काहूको काहूविषै मिलाय निरूपण करै है।
और भी देखें - नय - III.2.3, नय - V.5.4-6 ।
- लोक व्यवहारगत वस्तु संबंधी
स्याद्वादमंजरी/28/311/23 व्यवहारस्त्वेवमाह। यथा लोकग्राहकमेव वस्तु, अस्तु, किमनया अदृष्टाव्यवह्नियमाणवस्तुपरिकल्पनकष्टपिष्टिकया। यदेव च लोकव्यवहारपथमवतरति तस्यैवानुग्राहकं प्रमाणमुपलभ्यते नेतरस्य। न हि सामान्यमनादिनिधनमेकं संग्रहाभिमतं प्रमाणभूमि:, तथानुभवाभावात् । सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसंगाच्च। नापि विशेषा: परमाणुलक्षणा: क्षणक्षयिण: प्रमाणगोचरा:, तथा प्रवृत्तेरभावात् । तस्माद् इदमेव निखिललोकाबाधितं प्रमाणसिद्धं कियत्कालभाविस्थूलतामाबिभ्राणमुदकाद्याहरणाद्यर्थक्रियानिर्वर्तनक्षमं घटादिकं वस्तुरूपं पारमार्थिकम् । पूर्वोत्तरकालभावितत्पर्यायपर्यालोचना पुनरज्यायसी तत्र प्रमाणप्रसाराभावात् । प्रमाणमंतरेण विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् । अवस्तुत्वाच्च तेषां किं तद्गोचरपर्यायालोचनेन। तथाहि। पूर्वोत्तरकालभाविनो द्रव्यविवर्ता: क्षणक्षयिपरमाणुलक्षणा वा विशेषा न कथंचन लोकव्यवहारमुपरचयंति। तन्न ते वस्तुरूपा:। लोकव्यवहारोपयोगिनामेव वस्तुत्वात् । अत एव पंथा गच्छति, कुंडिका स्रवति, गिरिर्दह्यते, मंचा: क्रोशंति इत्यादि व्यवहाराणां प्रामाण्यम् । तथा च वाचकमुख्य: ‘लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार:। =व्यवहारनय ऐसा कहता है कि–लोकव्यवहार में आने वाली वस्तु ही मान्य है। अदृष्ट तथा अव्यवहार्य वस्तुओं की कल्पना करने से क्या लाभ ? लोकव्यवहार पथपर चलने वाली वस्तु ही अनुग्राहक है और प्रमाणता को प्राप्त होती है, अन्य नहीं। संग्रहनय द्वारा मान्य अनादि निधनरूप सामान्य प्रमाणभूमि को स्पर्श नहीं करता, क्योंकि सर्वसाधारण को उसका अनुभव नहीं होता। तथा उसे मानने पर सबको ही सर्वदर्शीपने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार ऋजुसूत्रनय द्वारा मान्य क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष भी प्रमाण बाह्य होने से हमारी व्यवहार प्रवृत्ति के विषय नहीं हो सकते। इसलिए लोक अबाधित, कियतकाल स्थायी व जलधारण आदि अर्थक्रिया करने में समर्थ ऐसी घट आदि वस्तुएँ ही पारमार्थिक व प्रमाण सिद्ध हैं। इसी प्रकार घट ज्ञान करते समय, नैगमनय मान्य उसकी पूर्वोत्तर अवस्थाओं का भी विचार करना व्यर्थ है, क्योंकि प्रमाणगोचर न होने से वे अवस्तु हैं। और प्रमाणभूत हुए बिना विचार करना अशक्य है। पूर्वोत्तरकालवर्ती द्रव्य की पर्याय अथवा क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष दोनों ही लोकव्यवहार में उपयोगी न होने से अवस्तु हैं, क्योंकि लोक व्यवहार में उपयोगी ही वस्तु है। अतएव ‘रास्ता जाता है, कुंड बहाता है, पहाड़ जलता है, मंच रोते हैं’ आदि व्यवहार भी लोकोपयोगी होने से प्रमाण हैं। वाचक मुख्य श्री उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थाधिगम भाष्य/1/35 में कहा है कि ‘लोक व्यवहार के अनुसार उपचरित अर्थ (देखें उपचार व आगे असद्भूत व्यवहार ) को बताने वाले विस्तृत अर्थ को व्यवहार कहते हैं।
- संग्रह ग्रहीत अर्थ में भेद करने संबंधी
- व्यवहारनय की भेद-प्रवृत्ति की सीमा
सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/8 एवमयं नयस्तावद्वर्तते यावत्पुनर्नास्ति विभाग:। =संग्रह गृहीत अर्थ को विधिपूर्वक भेद करते हुए (देखें पीछे शीर्षक नं - 2.1) इस नय की प्रवृत्ति वहाँ तक होती है, जहाँ तक कि वस्तु में अन्य कोई विभाग करना संभव नहीं रहता। (राजवार्तिक/1/33/6/96/29)।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/60/245/15 इति अपरापरसंग्रहव्यवहारप्रवंच: प्रागृजुसूत्रात्परसंग्रहादुत्तर: प्रतिपत्तव्य:, सर्वस्य वस्तुन: कथंचित्सामान्यविशेषात्मकत्वात् । =इस प्रकार उत्तरोत्तर हो रहा संग्रह और व्यवहारनय का प्रपंच ऋजुसूत्रनय से पहले-पहले और परसंग्रहनय से उत्तर उत्तर अंशों की विवक्षा करने पर समझ लेना चाहिए; क्योंकि, जगत् की सब वस्तुएँ कथंचित् सामान्यविशेषात्मक हैं। (श्लोकवार्तिक 4/1,33 श्लो.59/244)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/273 जं संगहेण गहिदं विसेसरहिदं पि भेददे सददं। परमाणूपज्जंतं ववहारणओ हवे सो हु।273। =जो नय संग्रहनय के द्वारा अभेद रूप से गृहीत वस्तुओं का परमाणुपर्यंत भेद करता है वह व्यवहार नय है।
धवला 1/1,1,1/13/11 (विशेषार्थ) वर्तमान पर्याय को विषय करना ऋजु-सूत्र है। इसलिए जब तक द्रव्यगत (देखें नय - III.1.2) भेदों की ही मुख्यता रहती है, तब तक व्यवहारनय चलता है और जब कालकृत भेद प्रारंभ हो जाता है तभी से ऋजुसूत्र नय का प्रारंभ होता है।
- व्यवहारनय के भेद व लक्षणादि
- पृथक्त्व व एकत्व व्यवहार
पंचास्तिकाय व भाषा/47 णाणं धणं च कुव्वदि धणिणं जह णाण्णं च दुविधेहिं। भण्णंति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तच्चण्हू। =धन पुरुष को धनवान् करता है, और ज्ञान आत्मा को ज्ञानी करता है। तैसे ही तत्त्वज्ञ पुरुष पृथक्त्व व एकत्व के भेद से संबंध दो प्रकार का कहते हैं। व्यवहार दो प्रकार का है–एक पृथक्त्व और एक एकत्व। जहाँ पर भिन्न द्रव्यों में एकता का संबंध दिखाया जाता है उसका नाम पृथक्त्व व्यवहार कहा जाता है। और एक वस्तु में भेद दिखाया जाय उसका नाम एकत्व व्यवहार कहा जाता है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.29 प्रमाणनयनिक्षेपात्मक: भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहार:। =प्रमाण नय व निक्षेपात्मक वस्तु को जो भेद द्वारा या उपचार द्वारा भेद या अभेदरूप करता है, वह व्यवहार है। (विशेष देखें उपचार - 1.2)।
- सद्भूत व असद्भूत व्यवहार
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.25 व्यवहारो द्विविध:–सद्भूतव्यवहारो असद्भूतव्यवहारश्च। तत्रैकवस्तुविषय: सद्भूतव्यवहार:। भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहार:। =व्यवहार दो प्रकार का है–सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहार। तहाँ सद्भूतव्यवहार एक वस्तुविषयक होता है और असद्भूत व्यवहार भिन्न वस्तु विषयक। (अर्थात् एक वस्तु में गुण-गुणी भेद करना सद्भूत या एकत्व व्यवहार है और भिन्न वस्तुओं में परस्पर कर्ता कर्म व स्वामित्व आदि संबंधी द्वारा अभेद करना असद्भूत या पृथक्त्व व्यवहार है।) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/525 ) (विशेष देखें आगे नय - V.5)
- सामान्य व विशेष संग्रह भेदक व्यवहार
नयचक्र बृहद्/210 जो संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्ध सुद्धं वा। सो ववहारो दुविहो असुद्धसुद्धत्थभेदकरो।210। =जो संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये गये शुद्ध या अशुद्ध पदार्थ का भेद करता है वह व्यवहार नय दो प्रकार का है–शुद्धार्थ भेदक और अशुद्धार्थभेदक। (शुद्धसंग्रह के विषय का भेद करने वाला शुद्धार्थ भेदक व्यवहार है और अशुद्धसंग्रह के विषय का भेद करने वाला अशुद्धार्थभेदक व्यवहार है।)
आलापपद्धति/5 व्यवहारोऽपि द्वेधा। सामान्यसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा––द्रव्याणि जीवाजीवा:। विशेषसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा––जीवा: संसारिणो मुक्ताश्च। =व्यवहार भी दो प्रकार का है–सामान्यसंग्रहभेदक और विशेष संग्रहभेदक। तहाँ सामान्य संग्रहभेदक तो ऐसा है जैसे कि ‘द्रव्य जीव व अजीव के भेद से दो प्रकार का है’। और विशेषसंग्रहभेदक ऐसा है जैसे कि ‘जीव संसारी व मुक्त के भेद से दो प्रकार का है’। (सामान्य संग्रहनय के विषय का भेद करने वाला सामान्य संग्रह भेदक और विशेष संग्रहनय का भेद करने वाला विशेषसंग्रहभेदक व्यवहार है।)
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/14 अनेन सामान्यसंग्रहनयेन स्वीकृतसत्तासामान्यरूपार्थ भित्त्वा जीवपुद्गलादिकथनं, सेनाशब्देन स्वीकृतार्थं भित्त्वा हस्त्यश्वरथपदातिकथनं ...इति सामान्यसंग्रहभेदकव्यवहारनयो भवति। विशेषसंग्रहनयेन स्वीकृतार्थान् जीवपुद्गलनिचयान् भित्त्वा देवनारकादिकथनं, घटपटादिकथनम् । हस्त्यश्वरथपदातीन् भित्वा भद्रगज-जात्यश्व-महारथ-शतभटसहस्रभटादिकथनं ...इत्याद्यनेकविषयान् भित्त्वा कथनं विशेषसंग्रहभेदकव्यवहारनयो भवति। =सामान्य संग्रहनय के द्वारा स्वीकृत सत्ता सामान्यरूप अर्थ का भेद करके जीव पुद्गलादि कहना अथवा सेना शब्द का भेद करके हाथी, घोड़ा, रथ, पियादे कहना, ऐसा सामान्य संग्रहभेदक व्यवहार होता है। और विशेषसंग्रहनय द्वारा स्वीकृत जीव व पुद्गलसमूह का भेद करके देवनारकादि तथा घट पट आदि कहना, अथवा हाथी, घोड़ा, पदातिका भेद करके भद्र हाथी, जातिवाला घोड़ा, महारथ, शतभट, सहस्रभट आदि कहना, इत्यादि अनेक विषयों को भेद करके कहना विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय है।
- पृथक्त्व व एकत्व व्यवहार
- व्यवहार-नयाभास का लक्षण
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लोक/60/244 कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् । प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् ।60। =द्रव्य और पर्यायों के आरोपित किये गये कल्पित विभागों को जो वास्तविक मान लेता है वह प्रमाणबाधित होने से व्यवहारनयाभास है। ( स्याद्वादमंजरी के अनुसार जैसे चार्वाक दर्शन)। ( स्याद्वादमंजरी/28/317/15 में प्रमाणतत्त्वालोकालंकार/7/1-53 से उद्धृत)
- व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है
श्लोकवार्तिक 2/1/7/28/585/1 व्यवहारनयोऽशुद्धद्रव्यार्थिक:। =व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिकनय है।
धवला 9/4,1,45/171/3 पर्यायकलंकितया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:।=व्यवहारनय पर्याय (भेद) रूप कलंक से युक्त होने से अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। (कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/2 ); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189)।
(और भी देखें नय - IV.2.4 ।
- पर्यायार्थिक नय भी कथंचित् व्यवहार है
गोम्मटसार जीवकांड/272/1016 ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्तिएयट्ठो।=व्यवहार, विकल्प, भेद व पर्याय ये एकार्थवाची शब्द हैं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/521 पर्यायार्थिकनय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति। एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र: स्यात् ।=पर्यायार्थिक और व्यवहार ये दोनों एकार्थवाची हैं, क्योंकि सब ही व्यवहार केवल उपचाररूप होता है।
समयसार/ पं.जयचंद/6 =परसंयोगजनित भेद सब भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिक नय के विषय हैं। शुद्ध (अभेद) द्रव्य की दृष्टि में यह भी पर्यायार्थिक ही है। इसलिए व्यवहार नय ही है ऐसा आशय जानना। (समयसार/ पं.जयचंद/12/कलश 4)
देखें अशुद्धनिश्चय भी वास्तव में व्यवहार है ।
- उपनय निर्देश
- उपनय का लक्षण व इसके भेद
आलापपद्धति/5 नयानां समीपा: उपनया:। सद्भूतव्यवहार: असद्भूतव्यवहार उपचरितासद्भूतव्यवहारश्चेत्युपनयस्त्रेधा। =जो नयों के समीप हों अर्थात् नय की भाँति ही ज्ञाता के अभिप्राय स्वरूप हों उन्हें उपनय कहते हैं, और वह उपनय, सद्भूत, असद्भूत व उपचरित असद्भूत के भेद से तीन प्रकार का है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/187-188 उवणयभेया वि पभणामो।187। सब्भूदमसब्भूदं उपचरियं चेव दुविहं सब्भूवं। तिविहं पि असब्भूवं उवयरियं जाण तिविहं पि।188।=उपनय के भेद कहते हैं। वह सद्भूत, असद्भूत और उपचरित असद्भूत के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें भी सद्भूत दो प्रकार का है–शुद्ध व अशुद्ध–देखें आगे नय - V.5); असद्भूत व उपचरित असद्भूत दोनों ही तीन-तीन प्रकार के है–(स्वजाति, विजाति और स्वजाति-विजाति।–देखें उपचार - 1.2), ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.22)।
- उपनय भी व्यवहार नय है
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/29/17 उपनयोपजनितो व्यवहार:। प्रमाणनयनिक्षेपात्मक: भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहार:। कथमुपनयस्तस्य जनक इति चेत्, सद्भूतो भेदोत्पादकत्वात् असद्भूतस्तूपचारोत्पादकत्वात् । =उपनय से व्यवहारनय उत्पन्न होता है। और प्रमाणनय व निक्षेपात्मक वस्तु का भेद व उपचार द्वारा भेद व अभेद करने को व्यवहार कहते हैं। प्रश्न–व्यवहार नय उपनय से कैसे उत्पन्न होता है? उत्तर–क्योंकि सद्भूतरूप उपनय तो अभेदरूप वस्तु में भेद उत्पन्न करता है और असद्भूत रूप उपनय भिन्न वस्तुओं में अभेद का उपचार करता है।
- उपनय का लक्षण व इसके भेद
- व्यवहारनय सामान्य के लक्षण
- सद्भूत असद्भूत व्यवहारनय निर्देश
- सद्भूत व्यवहारनय सामान्य निर्देश
- लक्षण व उदाहरण
आलापपद्धति/10 एकवस्तुविषयसद्भूतव्यवहार:। =एक वस्तु को विषय करने वाला सद्भूतव्यवहार है। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25)।
नयचक्र बृहद्/220 गुणगुणिपज्जायदव्वे कारकसब्भावदो य दव्वेसु। तो णाऊणं भेयं कुणयं सब्भूयसद्धियरो।220।=गुण व गुणी में अथवा पर्याय व द्रव्य में कर्ता कर्म करण व संबंध आदि कारकों का कथंचित् सद्भाव होता है। उसे जानकर जो द्रव्यों में भेद करता है वह सद्भूत व्यवहारनय है।(नयचक्र बृहद्/46)।
नयचक्र बृहद्/221 दव्वाणां खु पएसा बहुआ ववहारदो य एक्केण। णण्णं य णिच्छयदो भणिया कायत्थ खलु हवे जुत्ती।=व्यवहार अर्थात् सद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यों के बहुत प्रदेश हैं। और निश्चयनय से वही द्रव्य अनन्य है। (नयचक्र बृहद्/222)।
और भी देखें गुणगुणी भेदकारी व्यवहार नय सामान्य के लक्षण व उदाहरण ।
- कारण व प्रयोजन
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/525-528 सद्भूतस्तद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृत्तिमात्रत्वात् ।525। अस्यावगमे फलमिति तदितरवस्तुनि निषेधबुद्धि: स्यात् । इतरविभिन्नो नय इति भेदाभिव्यंजको न नय:।527। अस्तमितसर्वसंकरदोषं क्षतसर्वशून्यदोषं वा। अणुरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणमिदम् ।528। =विवक्षित उस वस्तु के गुणों का नाम सद्भूत है और उन गुणों की उस वस्तु में भेदरूप प्रवृत्तिमात्र का नाम व्यवहार है।525। इस नय का प्रयोजन यह है कि इसके अनुसार ज्ञान होने पर इतर वस्तुओं में निषेध बुद्धि हो जाती है, क्योंकि विकल्पवश दूसरे से भिन्न होना नय है। नय कुछ भेद का अभिव्यंजक नहीं है।527। संपूर्ण संकर व शून्य दोषों से रहित यह वस्तु इस नय के कारण ही अनन्य शरण सिद्ध होती है। क्योंकि इससे ऐसा ही ज्ञान होता है।528।
- व्यवहार सामान्य व सद्भूत व्यवहार में अंतर
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/523/526 साधारणगुण इति वा यदि वासाधारण: सतस्तस्य। भवति विवक्ष्यो हि यदा व्यवहारनयस्तदा श्रेयान् ।523। अत्र निदानं च यथा सदसाधारणगुणो विवक्ष्य: स्यात् । अविवक्षितोऽथवापि च सत्साधारणगुणो न चान्यतरात् ।526।=सत् के साधारण व असाधारण इन दोनों प्रकार के गुणों में से किसी की भी विवक्षा होने पर व्यवहारनय श्रेय होता है।523। और सद्भूत व्यवहारनय में सत् के साधारण व असाधारण गुणों में परस्पर मुख्य गौण विवक्षा होती है। मुख्य गौण विवक्षा को छोड़कर इस नय की प्रवृत्ति नहीं होती।526।
- सद्भूत व्यवहानय के भेद
आलापपद्धति/10 तत्र सद्भूतव्यवहारो द्विविध:–उपचरितानुपचरितभेदात् ।=सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार का है–सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार का है–उपचरित व अनुपचरित। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.25); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/534)।
आलापपद्धति/5 सद्भूतव्यवहारो द्विधा–शुद्धसद्भूतव्यवहारो...अशुद्धसद्भूतव्यवहारो। =सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार की है–शुद्ध सद्भूत और अशुद्ध सद्भूत। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/21)।
- लक्षण व उदाहरण
- अनुपचरित या शुद्धसद्भूत निर्देश
- क्षायिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
आलापपद्धति/10 निरुपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषयोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा–जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणा:। =निरुपाधि गुण व गुणी में भेद को विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे–केवलज्ञानादि जीव के गुण है। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25)।
आलापपद्धति/5 शुद्धसद्भूतव्यवहारो यथा–शुद्धगुणशुद्धगुणिनो, शुद्धपर्यायशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् ।=शुद्धगुण व शुद्धगुणी में अथवा शुद्धपर्याय व शुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय है (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/21)।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/13,43 अन्या कार्यदृष्टि:...क्षायिकजीवस्य सकलविमलकेवलावबोधबुद्धभुवनत्रयस्य ... साद्यनिधनामूर्तातींद्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मकस्य ...तीर्थंकरपरमदेवस्य केवलज्ञानादियमपि युगपल्लोकालोकव्यापिनी। =दूसरी कार्य शुद्धदृष्टि...क्षायिक जीव को जिसने कि सकल विमल केवलज्ञान द्वारा तीनभुवन को जाना है, जो सादि अनिधन अमूर्त अतींद्रिय स्वभाववाले शुद्धसद्भूत व्यवहार नयात्मक है, ऐसे तीर्थंकर परमदेव को केवलज्ञान की भाँति यह भी युगपत् लोकालोक में व्याप्त होने वाली है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादि शुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्यशुद्धजीव:। ==शुद्धसद्भूत व्यवहार से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधार होने के कारण ‘कार्यशुद्ध जीव’ है। ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परि/368/14)।
- पारिणामिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/28 परमाणुपर्याय: पुद्गलस्य शुद्धपर्याय: परमपारिणामिकभावलक्षण: वस्तुगतषट्प्रकारहानिवृद्धिरूप: अतिसूक्ष्म: अर्थपर्यायात्मक: सादिसनिधनोऽपि परद्रव्यनिरपेक्षत्वाच्छुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मक:। =परमाणुपर्याय पुद्गल की शुद्ध पर्याय है। जो कि परमपारिणामिकभाव स्वरूप है, वस्तु में होने वाली छह प्रकार की हानिवृद्धि रूप है, अति सूक्ष्म है, अर्थ पर्यायात्मक है, और सादि सांत होने पर भी परद्रव्य से निरपेक्ष होने के कारण शुद्धसद्भूत व्यवहारनयात्मक है।
पंचाध्यायी x`/535-536 स्यादादिमो यथांतर्लीना या शक्तिरस्ति यस्य सत:। तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्विशेषनिरपेक्षम् ।535। इदमत्रोदाहरणं ज्ञानं जीवोपजीवि जीवगुण:। ज्ञेयालंबनकाले न तथा ज्ञेयोपजीवि स्यात् ।536।=जिस पदार्थ की जो अंतर्लीन (त्रिकाली) शक्ति है, उसके सामान्यपने से यदि उस पदार्थ विशेष की अपेक्षा न करके निरूपण किया जाता है तो वह अनुपचरित–सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है।535। जैसे कि ज्ञान जीव का जीवोपजीवी गुण है। घट पट आदि ज्ञेयों के अवलंबन काल में भी वह ज्ञेयोपजीवी नहीं हो जाता। (अर्थात् ज्ञान को ज्ञान कहना ही इस नय को स्वीकार है, घटज्ञान कहना नहीं।536।
- अनुपचरित व शुद्ध सद्भूत की एकार्थता
द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/5 केवलज्ञानदर्शनं प्रति शुद्धसद्भूतशब्दवाच्योऽनुपचरितसद्भूतव्यवहार:। =यहाँ जीव का लक्षण कहते समय केवलज्ञान व केवलदर्शन के प्रति शुद्धसद्भूत शब्द से वाच्य अनुपचरित सद्भूत व्यवहार है।
- इस नय के कारण व प्रयोजन
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/539 फलमास्तिक्यनिदानं सद्द्रव्ये वास्तवप्रतीति: स्यात् । भवति क्षणिकादिमते परमोपेक्षा यतो विनायासात् ।=सत्रूप द्रव्य में आस्तिक्य पूर्वक यथार्थ प्रतीति का होना ही इस नय का फल है, क्योंकि इस नय के द्वारा, बिना किसी परिश्रम के क्षणिकादि मतों में उपेक्षा हो जाती है।
- क्षायिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
- उपचरित या अशुद्ध सद्भूत निर्देश
- क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
आलापपद्धति/5 अशुद्धसद्भूतव्यवहारो यथाशुद्धगुणाशुद्धगुणिनोरशुद्धपर्यायाशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् । =अशुद्धगुण व अशुद्धगुणी में अथवा अशुद्धपर्याय व अशुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना अशुद्धसद्भूत व्यवहार नय है ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/21 )।
आलापपद्धति/10 सोपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषय उपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा–जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणा:। =उपाधिसहित गुण व गुणी में भेद को विषय करने वाला उपचरित सद्भूत व्यवहारनय है। जैसे–मतिज्ञानादि जीव के गुण है।(नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 )।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 अशुद्धसद्भूतव्यवहारेण मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतत्वादशुद्धजीव:। =अशुद्धसद्भूत व्यवहार से मतिज्ञानादि विभावगुणों का आधार होने के कारण ‘अशुद्ध जीव’ है। ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परिशिष्ठ/369/1)
- पारिणामिक भाव में उपचार करने की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/540/541 उपचरितो सद्भूतो व्यवहार: स्यान्नयो यथा नाम। अविरुद्धं हेतुवशात्परतोऽप्युपचर्यते यत: स्व गुण:।540। अर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽधुनापि यथा। अर्थ: स्वपरनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारम् ।541।=किसी हेतु के वश से अपने गुण का भी अविरोधपूर्वक दूसरे में उपचार किया जाये, तहाँ उपचरित सद्भूत व्यवहारनय होता है।540। जैसे–अर्थविकल्पात्मक ज्ञान को प्रमाण कहना। यहाँ पर स्व व पर के समुदाय को अर्थ तथा ज्ञान के उस स्व व पर में व्यवसाय को विकल्प कहते हैं। (अर्थात् ज्ञान गुण तो वास्तव में निर्विकल्प तेजमात्र है, फिर भी यहाँ बाह्य अर्थों का अवलंबन लेकर उसे अर्थ विकल्पात्मक कहना उपचार है, परमार्थ नहीं।541।
- उपचरित व अशुद्ध सद्भूत की एकार्थता
द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/6 छद्मस्थज्ञानदर्शनापरिपूर्णापेक्षया पुनरशुद्धसद्भूतशब्दवाच्य उपचरितासद्भूतव्यवहार:। =छद्मस्थ जीव के ज्ञानदर्शन की अपेक्षा से अशुद्धसद्भूत शब्द से वाच्य उपचरित सद्भूत व्यवहार है।
- इस नय के कारण व प्रयोजन
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/544-545 हेतु: स्वरूपसिद्धिं विना न परसिद्धिरप्रमाणत्वात् । तदपि च शक्तिविशेषाद्द्रव्यविशेषे यथा प्रमाणं स्यात् ।544। अर्थो ज्ञेयज्ञायकसंकरदोषभ्रमक्षयो यदि वा। अविनाभावात् साध्यं सामान्यं साधको विशेष: स्यात् ।545।=स्वरूप सिद्धि के बिना पर की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि वह स्व निरपेक्ष पर अप्रमाणभूत है। तथा प्रमाण स्वयं भी स्वपर व्यवसायात्मक शक्तिविशेष के कारण द्रव्य विशेष के विषय में प्रवृत्त होता है, यही इस नय की प्रवृत्ति में हेतु है।544। ज्ञेय ज्ञायक भाव द्वारा संभव संकरदोष के भ्रम को दूर करना, तथा अविनाभावरूप से स्थित वस्तु के सामान्य व विशेष अंशों में परस्पर साध्य साधकपने की सिद्धि करना इसका प्रयोजन है।545।
- क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
- असद्भूत व्यवहार सामान्य निर्देश
- लक्षण व उदाहरण
आलापपद्धति/10 भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहार:। =भिन्न वस्तु को विषय करने वाला असद्भूत व्यवहारनय है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 ); (और भी देखें नय - V.4.1 व नय - V.4.2 )
नयचक्र बृहद्/223-225 अण्णेसिं अण्णगुणो भणइ असब्भूद तिविह ते दोवि। सज्जाइ इयर मिस्सो णायव्वो तिविहभेयजुदो।223।=अन्य द्रव्य के अन्य गुण कहना असद्भूत व्यवहारनय है। वह तीन प्रकार का है – स्वजाति, विजाति और मिश्र। ये तीनों भी द्रव्य गुण व पर्याय में परस्पर उपचार होने से तीन-तीन प्रकार के हो जाते हैं। (विशेष देखें उपचार - 5)।
नयचक्र बृहद्/113,320 मण वयण काय इंदिय आणप्पाणउगं च जं जीवे। तमसब्भूओ भणदि हु ववहारो लोयमज्झम्मि।113। णेयं खु जत्थ णाणं सद्धेयं जं दंसणं भणियं। चरियं खलु चारित्तं णायव्वं तं असब्भूवं।320।=मन, वचन, काय, इंद्रिय, आनप्राण और आयु ये जो दश प्रकार के प्राण जीव के हैं, ऐसा असद्भूत व्यवहारनय कहता है।113। ज्ञेय को ज्ञान कहना जैसे घटज्ञान, श्रद्धेय को दर्शन कहना, जैसे देव गुरु शास्त्र की श्रद्धा सम्यग्दर्शन है, आचरण करने योग्य को चारित्र कहते हैं जैसे हिंसा आदि का त्याग चारित्र है; यह सब कथन असद्भूतव्यवहार जानना चाहिए।320।
आलापपद्धति/8 असद्भूतव्यवहारेण कर्मनोकर्मणोरपि चेतनस्वभाव:।...जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेण मूर्त्तस्वभाव: ...असद्भूतव्यवहारेणाप्युपचारेणामूर्तत्वं। ...असद्भूतव्यवहारेण उपचरितस्वभाव:। =असद्भूत व्यवहार से कर्म व नोकर्म भी चेतनस्वभावी है, जीव का भी मूर्त स्वभाव है, और पुद्गल का स्वभाव अमूर्त व उपचरित है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/21 नमो जिनेभ्य: इति वचनात्मकद्रव्यनमस्कारोऽप्यसद्भूतव्यवहारनयेन।= ‘जिनेंद्रभगवान को नमस्कार हो ऐसा वचनात्मक द्रव्य नमस्कार भी असद्भूतव्यवहारनय से होता है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/253/11 द्रव्यकर्माण्यात्मा करोति भुंक्ते चेत्यशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकासद्भूतव्यवहारनयो भण्यते।=आत्मा द्रव्यकर्म को करता है और उनको भोगता है, ऐसा जो अशुद्ध द्रव्य का निरूपण, उस रूप असद्भूत व्यवहारनय कहा जाता है। (विशेष देखें आगे उपचरित व अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय के उदाहरण )
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/529-530 अपि चासद्भूतादिव्यवहारांतो नयश्च भवति यथा। अन्यद्रव्यस्य गुणा: संजायंते बलात्तदन्यत्र।529। स यथा वर्णादिमतो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम् । सत्संयोगत्वादिह मूर्ता: क्रोधादयोऽपि जीवभवा:।530।=जिसके कारण अन्य द्रव्य के गुण बलपूर्वक अर्थात् उपचार से अन्य द्रव्य के कहे जाते हैं, वह असद्भूत व्यवहारनय है।529। जैसे कि वर्णादिमान मूर्तद्रव्य के जो मूर्तकर्म हैं, उनके संयोग को देखकर, जीव में उत्पन्न होने वाले क्रोधादि भाव भी मूर्त कह दिये जाते हैं।530।
- इस नय के कारण व प्रयोजन
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/531-532 कारणमंतर्लीना द्रव्यस्य विभावभावशक्ति: स्यात् । सा भवति सहज-सिद्धा केवलमिह जीवपुद्गलयो:।531। फलमागंतुकभावादुपाधिमात्रं विहाय यावदिह। शेषस्तच्छुद्धगुण: स्यादिति मत्वा सुदृष्टिरिह कश्चित् ।532।=इस नय में कारण वह वैभाविकी शक्ति है, जो जीव पुद्गलद्रव्य में अंतर्लीन रहती है (और जिसके कारण वे परस्पर में बंध को प्राप्त होते हुए संयोगी द्रव्यों का निर्माण करते हैं।)।531। और इस नय को मानने का फल यह है कि क्रोधादि विकारी भावों को पर का जानकर, उपाधि मात्र को छोड़कर, शेष जीव के शुद्धगुणों को स्वीकार करता हुआ कोई जीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है।532। (और भी देखें उपचार - 4.6)
- असद्भूत व्यवहारनय के भेद
आलापपद्धति/10 असद्भूतव्यवहारो द्विविध: उपचरितानुपचरितभेदात् ।=असद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार है–उपचरित असद्भूत और अनुपचरित असद्भूत। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/534)।
देखें उपचार –(असद्भूत नाम के उपनय के स्वजाति, विजाति आदि 27 भेद)
- लक्षण व उदाहरण
- अनुपचरित असद्भूत निर्देश
- भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
आलापपद्धति/10 संश्लेषसहितवस्तुसंबंधविषयोऽनुपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा जीवस्य शरीरमिति।=संश्लेष सहित वस्तुओं के संबंध को विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे–‘जीव का शरीर है’ ऐसा कहना। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 26)
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18 आसन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयाद् द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदु:खानां भोक्ता च...अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता।=आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यकर्मों का कर्ता और उसके फलरूप सुखदु:ख का भोक्ता है तथा नोकम अर्थात् शरीर का भी कर्ता है। (समयसार / तात्पर्यवृत्ति/22 की प्रक्षेपक गाथा की टीका/49/21); (पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/21); (द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/4; 9/23/4 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/15 अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यप्राणैश्च यथासंभवं जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वश्चेति जीवो।=अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यथा संभव द्रव्यप्राणों के द्वारा जीता है, जीवेगा, और पहले जीता था, इसलिए आत्मा जीव कहलाता है। (द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/5); (नयचक्र बृहद्/113)
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/58/109/14 जीवस्यौदयिकादिभावचतुष्टयमनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यकर्मकृतमिति। =जीव के औदयिक आदि चार भाव अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कर्मकृत हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परिशिष्ठ/369/11 अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन द्वयगुणकादिस्कंधसंश्लेषसंबंधस्थितपरमाणुवदौदारिकशरीरे वीतरागसर्वज्ञवद्वा विविक्षितैकदेहस्थितम् । =अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से, द्वि अणुक आदि स्कंधों में संश्लेषसंबंधरूप से स्थित परमाणु की भाँति अथवा वीतराग सर्वज्ञ की भाँति, यह आत्मा औदारिक आदि शरीरों में से किसी एक विवक्षित शरीर में स्थित है। (परमात्मप्रकाश टीका/1/29/33/1)।
द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/1 अनुपचरितासद्भूतव्यवहारान्मूर्त्तो।=अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह जीव मूर्त है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/3 )।
परमात्म प्रकाश/टीका/7/13/2 अनुपचरितासद्भूतव्यवहारसंबंध: द्रव्यकर्मनोकर्मरहितम् । परमात्म प्रकाश/टीका/1/1/6/8 द्रव्यकर्मदहनमनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन। परमात्म प्रकाश/टीका/1/14/21/17 अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन देहादभिन्नं। =अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से जीव द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित है, द्रव्यकर्मों का दहन करने वाला है, देह से अभिन्न है।
और भी देखो व्यवहार सामान्य के उदाहरण ।
- विभाव भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/546 अपि वासद्भूतो योऽनुपचरिताख्यो नय: स भवति यथा। क्रोधाद्या जीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवा:। =अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय, अबुद्धिपूर्वक होने वाले क्रोधादिक विभावभावों को जीव कहता है।
- इस नय का कारण व प्रयोजन
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/547-548 कारणमिह यस्य सतो या शक्ति: स्याद्विभावभावमयी। उपयोगदशाविष्टा सा शक्ति: स्यात्तदाप्यनन्यमयी।547। फलमागंतुकभावा: स्वपरनिमित्ता भवंति यावंत:। क्षणिकत्वान्नादेया इति बुद्धि: स्यादनात्मधर्मत्वात् ।548।=इस नय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि उपयोगात्मक दशा में जीव की वैभाविक शक्ति उसके साथ अनन्यमयरूप से प्रतीत होती है।547। और इसका फल यह है कि क्षणिक होने के कारण स्व-परनिमित्तक सर्व ही आगंतुक भावों में जीव की हेय बुद्धि हो जाती है।548।
- भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
- उपचरित असद्भूत व्यवहार निर्देश
- भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
आलापपद्धति/10 संश्लेषरहितवस्तुसंबंधविषय उपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा–देवदत्तस्य धनमिति। =संश्लेष रहित वस्तुओं के संबंध को विषय करने वाला उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे–देवदत्त का धन ऐसा कहना। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 )।
आलापपद्धति/5 असद्भूतव्यवहार एवोपचार:। उपचारादप्युपचारं य: करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहार:। =असद्भूत व्यवहार ही उपचार है। उपचार का भी जो उपचार करता है वह उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/29) (विशेष देखें उपचार )।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18/ उपचरितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता।=उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से आत्मा घट, पट, रथ आदि का कर्ता है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/5 )।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परिशिष्ठ/369/13 उपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन काष्ठासनाद्युपविष्टदेवदत्तवत्समवशरणस्थितवीतरागसर्वज्ञवद्वा विवक्षितैकग्रामगृहादिस्थिम् ।=उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह आत्मा, काष्ठ, आसन आदि पर बैठे हुए देवदत्त की भाँति, अथवा समवशरण में स्थित वीतराग सर्वज्ञ की भाँति, विवक्षित किसी एक ग्राम या घर आदि में स्थित है।
द्रव्यसंग्रह टीका/19/57/10 उपचरितासद्भूतव्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठंतीति भण्यते। द्रव्यसंग्रह टीका/9/23/3 उपचरितासद्भूतव्यवहारेणेष्टानिष्टपंचेंद्रियविषयजनितसुखदु:ख भुंक्ते। द्रव्यसंग्रह टीका/45/196/11 योऽसौ बहिर्विषये पंचेंद्रियविषयादिपरित्याग: स उपचरितासद्भूतव्यवहारेण। =उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से सिद्ध जीव मोक्षशिला पर तिष्ठते हैं। जीव इष्टानिष्ट पंचेंद्रियों के विषयों से उत्पन्न सुखदुख को भोगता है। बाह्यविषयों–पंचेंद्रिय के विषयों का त्याग कहना भी उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से है।
- विभाव भावों की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/549 उपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराख्यो नय: स भवति यथा। क्रोधाद्या: औदयिकाश्चेदबुद्धिजा विवक्ष्या: स्यु:।549।=उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से बुद्धिपूर्वक होने वाले क्रोधादि विभावभाव भी जीव के कहे जाते हैं।
- इस नय का कारण व प्रयोजन
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/550-551 बीजं विभावभावा: स्वपरोभयहेतवस्तथा नियमात् । सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवंति यत:।550। तत्फलभविनाभावात्साध्यं तदबुद्धिपूर्वका भावा:। तत्सत्तामात्रं प्रति साधनमिह बुद्धिपूर्वका भावा:।551।=उपचरित असद्भूत व्यवहारनय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि उक्त क्रोधादिकरूप विभावभाव नियम से स्व व पर दोनों के निमित्त से होते हैं; क्योंकि शक्तिविशेष के रहने पर भी वे बिना निमित्त के नहीं हो सकते।550। और इस नय का फल यह है कि बुद्धिपूर्वक के क्रोधादि भावों के साधन से अबुद्धिपूर्वक के क्रोधादिभावों की सत्ता भी साध्य हो जाती है, अर्थात् सिद्ध हो जाती है।
- भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
- सद्भूत व्यवहारनय सामान्य निर्देश
- व्यवहार नय की कथंचित् गौणता
- व्यवहारनय असत्यार्थ है तथा इसका हेतु
समयसार/11 ववहारोऽभूयत्थो।=व्यवहारनय अभूतार्थ है। (नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/30)।
आप्तमीमांसा/49 संवृत्तिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ।49। =संवृत्ति अर्थात् व्यवहार प्रवृत्तिरूप उपचार मिथ्या है। क्योंकि यह परमार्थ से विपरीत है।
धवला 1/1,1,37/263/8 अथवा नेदं व्याख्यानं समीचीनं। =(द्रव्येंद्रियों के सद्भाव की अपेक्षा केवली को पंचेंद्रिय कहने रूप व्यवहारनय के) उक्त व्याख्यान को ठीक नहीं समझना।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/29-30 योऽसौ भेदोपचारलक्षणोऽर्थ: सोऽपरमार्थ:। अभेदानुपचारस्यार्थस्यापरमार्थत्वात् । व्यवहारोऽपरमार्थप्रतिपादकत्वादभूतार्थ:।=जो यह भेद और उपचार लक्षण वाला पदार्थ है, सो अपरमार्थ है; क्योंकि, अभेद व अनुपचाररूप पदार्थ को ही परमार्थपना है। व्यवहार नय उस अपरमार्थ पदार्थ का प्रतिपादक होने से अभूतार्थ है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/522)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/631,635 ननु च व्यवहारनयो भवति स सर्वोऽपि कथमभूतार्थ:। गुणपर्ययवद्द्रव्यं यथोपदेशात्तथानुभूतेश्च।631। तदसत् गुणोऽस्ति यतो न द्रव्यं नोभयं न तद्योग:। केवलमद्वैतं सद् भवतु गुणो वा तदेव सद्द्रव्यम् ।635। =प्रश्न–सब ही व्यवहारनय को अभूतार्थ क्यों कहते हो, क्योंकि द्रव्य जैसे व्यवहारोपदेश से गुणपर्याय वाला कहा जाता है, वैसा ही अनुभव से ही गुणपर्याय वाला प्रतीत होता है?।631। उत्तर–निश्चय करके वह ‘सत्’ न गुण, न द्रव्य है, न उभय है और न उन दोनों का योग है किंतु केवल अद्वैत सत् है। उसी सत् को चाहे गुण मान लो अथवा द्रव्य मान लो, परंतु वह भिन्न नहीं है।635।
पंचास्तिकाय/ पं.हेमराज/45= लोक व्यवहार से कुछ वस्तु का स्वरूप सधता नहीं।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/369/8 = व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौं वा तिनके भावनिकौं वा कारणकार्यादिककौं काहूकौ काहूविषै मिलाय निरूपण करै है। सो ऐसे श्रद्धानतै मिथ्यात्व है। तातै याका त्याग करना।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/407/2 =करणानुयोगविषै भी कहीं उपदेश की मुख्यता लिये उपदेश हो है, ताकौ सर्वथा तैसै ही न मानना।
- व्यवहारनय उपचार मात्र है
समयसार/15 जीवम्हि हेदुभूदबंधस्स दु पस्सिदूण परिणायं। जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण। =जीव को निमित्तरूप होने से कर्मबंध का परिणाम होता है। उसे देखकर, ‘जीव ने कर्म किये हैं’ वह उपचार मात्र से कहा जाता है। (समयसार / आत्मख्याति/107)।
स्याद्वादमंजरी/28/312/8 पर उद्धृत–‘‘तथा च वाचकमुख्य:’’ लौकिक समउपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार:। =वाचकमुख श्री उमास्वामी ने (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/1/3,5 में) कहा है, कि लोक व्यवहार के अनुसार तथा उपचारप्राय विस्तृत व्याख्यान को उपचार कहते हैं।
न.दी./1/14/12 चक्षुषा प्रमीयत इत्यादिव्यवहारे पुनरुपचार: शरणम् ।=‘आँखों से जानते हैं’ इत्यादि व्यवहार तो उपचार से प्रवृत्त होता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/521 पर्यायार्थिक नय इति वा व्यवहार एव नामेति। एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र: स्यात् ।521। =पर्यायार्थिक नय और व्यवहारनय दोनों ही एकार्थवाची हैं, क्योंकि सकल व्यवहार उपचार मात्र होता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/113 तत्राद्वैतेऽपि यद्द्वैतं तद्द्विधाप्यौपचारिकम् । तत्राद्यं स्वांशसंकल्पश्चेत्सोपाधि द्वितीयकम् ।=अद्वैत में दो प्रकार से द्वैत किया जाता है–पहिला तो अभेद द्रव्य में गुण गुणी रूप अंश या भेद कल्पना के द्वारा तथा दूसरा सोपाधिक अर्थात् भिन्न द्रव्यों में अभेदरूप। ये दोनों ही द्वैत औपचारिक हैं।
और भी देखो उपचार कोई पृथक् नय नहीं है। व्यवहार का नाम ही उपचार है ।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/3= उपचार निरूपण सो व्यवहार। (मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/11);
- व्यवहारनय व्यभिचारी है
समयसार/ पं.जयचंद/12/कलश 6 =व्यवहारनय जहाँ आत्मा को अनेक भेदरूप कहकर सम्यग्दर्शन को अनेक भेदरूप कहता है, वहाँ व्यभिचार दोष आता है, नियम नहीं रहता।
और भी देखो व्यभिचारी होने के कारण व्यवहारनय निषिद्ध है ।
- व्यवहारनय लौकिक रूढ़ि है
समयसार / आत्मख्याति/84 कुलाल: कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्व्यवहार:।=कुम्हार कलश को बनाता है तथा भोगता है ऐसा लोगों का अनादि से प्रसिद्ध व्यवहार है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/567 अस्ति व्यवहार: किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति सजीवस्ततोऽप्यनन्यत्वात् । =अलब्धबुद्धि होने के कारण लोगों का यह व्यवहार होता है, कि जो ये मनुष्यादि का शरीर है, वह जीव है। (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/593)।
और भी देखो व्यवहार लोकानुसार प्रवर्तता है (स.म)।
- व्यवहारनय अध्यवसान है
समयसार / आत्मख्याति/272 निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बंधहेतुत्वे मुमुक्षो: प्रतिषेधयता व्यवहानय एव किल प्रतिषिद्ध:, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् ।=बंध का हेतु होने के कारण, मुमुक्षु जनों को जो निश्चयनय के द्वारा पराश्रित समस्त अध्यवसान का त्याग करने को कहा गया है, सो उससे वास्तव में व्यवहारनय का ही निषेध कराया है; क्योंकि, (अध्यवसान की भाँति) व्यवहारनय के भी पराश्रितता समान ही है।
- व्यवहारनय कथन मात्र है
समयसार/ गाथा ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरितदंसणं णाणं। णवि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो।7। पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई।58। तह...जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो।59। =ज्ञानी के चारित्र है, दर्शन है, ज्ञान है, ऐसा व्यवहार से कहा जाता है। निश्चय से तो न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है।7। मार्ग में जाते हुए पथिक को लुटता देखकर ही व्यवहारी जन ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है। वास्तव में तो कोई लुटता नहीं है।58। (इसी प्रकार जीव में कर्म नोकर्मों के वर्णादि का संयोग देखकर) जिनेंद्र भगवान् ने व्यवहारनय से ऐसा कह दिया है कि यह वर्ण (तथा देह के संस्थान आदि) जीव के हैं।59।
समयसार / आत्मख्याति/414 द्विविधं द्रव्यलिंगं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकार:, स केवलं व्यवहार एव न परमार्थ:। =श्रावक व श्रमण के लिंग के भेद से दो प्रकार का मोक्षमार्ग होता है, यह केवल प्ररूपण करने का प्रकार या विधि है। वह केवल व्यवहार ही है, परमार्थ नहीं।
- व्यवहारनय साधकतम नहीं है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 निश्चयनय एव साधकतमो न पुनरशुद्धद्योतको व्यवहारनय:।=निश्चयनय ही साधकतम है, अशुद्ध का द्योतन करने वाला व्यवहारनय नहीं।
देखो व्यवहारनय से परमार्थवस्तु की सिद्धि नहीं होती ।
- व्यवहारनय सिद्धांत विरुद्ध है तथा नयाभास है
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/ श्लोक नं. ननु चासद्भूतादिर्भवति स यत्रेत्यतद्गुणारोप:। दृष्टांतादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहास्त्विति चेत् ।552। तन्न यतो न नयास्ते किंतु नयाभाससंज्ञका: संति। स्वयमप्यतद्गुणत्वादव्यवहाराविशेषतो न्यायात् ।553। सोऽयं व्यवहार: स्यादव्यवहारो यथापसिद्धांतात् । अप्यपसिद्धांतत्वं नासिद्धं स्यादनेकधर्मित्वात् ।568। अथ चेद्धटकर्तासौ घटकारो जनपदोक्तिलेशोऽयम् । दुर्वारो भवतु तदा का नो हानिर्यदा नयाभास:।579।=प्रश्न–दूसरी वस्तु के गुणों को दूसरी वस्तु में आरोपित करने को असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं (देखें नय - V.5.4-6)। जैसे कि जीव को वर्णादिकमान कहना?।552। उत्तर–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अतद्गुण होने से, न्यायानुसार अव्यवहार के साथ कोई भी विशेषता न रखने के कारण, वे नय नहीं हैं, किंतु नयाभास संज्ञक हैं।553। ऐसा व्यवहार क्योंकि सिद्धांत विरुद्ध है, इसलिए अव्यवहार है। इसका अपसिद्धांतपना भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि यहाँ उपरोक्त दृष्टांत में जीव व शरीर ये दो भिन्न-भिन्न धर्मी हैं पर इन्हें एक कहा जा रहा है।568। प्रश्न–कुंभकार घड़े का कर्ता है, ऐसा जो लोकव्यवहार है वह दुर्निवार हो जायेगा अर्थात् उसका लोप हो जायेगा ?।579। उत्तर–दुर्निवार होता है तो होओ, इसमें हमारी क्या हानि है; क्योंकि वह लोकव्यवहार तो नयाभास है।(579)।
- व्यवहारनय का विषय सदा गौण होता है
सर्वार्थसिद्धि/5/22/292/4 अध्यारोप्यमाण: कालव्यपदेशस्तद्व्यपदेशनिमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति। कुत:; गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् ।=(ओदनपाक काल इत्यादि रूप से) जो काल संज्ञा का अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्यकाल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है; क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है।
धवला 4/1,5,145/403/3 के वि आइरिया...कज्जे कारणोवयारमवलंविय बादरट्ठिदीए चेय कम्मट्ठिदिसण्णमिच्छंति, तन्न घटते, ‘गौणमुख्ययोर्मुख्ये संप्रत्यय’ इति न्यायात् । =कितने ही आचार्य कार्य में कारण का उपचार का अवलंबन करके बादरस्थिति की ही ‘कर्मस्थिति’ यह संज्ञा मानते हैं; किंतु यह कथन घटित नहीं होता है; क्योंकि, ‘गौण और मुख्य में विवाद होने पर मुख्य में ही संप्रत्यय होता है’ ऐसा न्याय है।
न.दी./2/12/34 इदं चामुख्यप्रत्यक्षम् उपचारसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात् ।=यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अमुख्य अर्थात् गौण प्रत्यक्ष है; क्योंकि उपचार से ही इसके प्रत्यक्षपने की सिद्धि है। वस्तुत: तो यह परोक्ष ही है; क्योंकि यह मतिज्ञानरूप है। (जिसे इंद्रिय व बाह्यपदार्थ सापेक्ष होने के कारण परोक्ष कहा गया है।)
न.दी./3/30/75 परोपदेशवाक्यमेव परार्थानुमानमिति केचित्; त एवं प्रष्टव्या:; तत्किं मुख्यानुमानम् । अथ गौणानुमानम् । इति, न तावन्मुख्यानुमानम् वाक्यस्याज्ञानरूपत्वात् । गौणानुमानं तद्वाक्यमिति त्वनुमन्यामहे, तत्कारणे तद्वयपदेशोपपत्तेरायुर्घृतमित्यादिवत् ।=‘(पंचावयव समवेत) परोपदेश वाक्य ही परार्थानुमान है’, ऐसा किन्हीं (नैयायिकों) का कहना है। पर उनका यह कहना ठीक नहीं है। हम उनसे पूछते हैं वह वाक्य मुख्य अनुमान है या कि गौण अनुमान है? मुख्य तो वह हो नहीं सकता; क्योंकि वाक्य अज्ञानरूप है। यदि उसे गौण कहते हो तो, हमें स्वीकार है; क्योंकि ज्ञानरूप मुख्य अनुमान के कारण ही उसमें (उपचार या व्यवहार से) यह व्यपदेश हो सकता है। जैसे ‘घी आयु है’ ऐसा व्यपदेश होता है। प्रमाणमीमांसा (सिंघी ग्रंथमाला कलकत्ता/2/1/2)।
और भी देखें निश्चय मुख्य है और व्यवहार गौण ।
- शुद्ध दृष्टि में व्यवहार को स्थान नहीं
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/47/ कलश 71 प्रागेव शुद्धता येषां सुधियां कुधियामपि। नयेन केनाचित्तेषां भिदां कामपि वेद्म्यहम् ।71।=सुबुद्धि हो या कुबुद्धि अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि, सबमें ही जब शुद्धता पहले ही से विद्यमान है, तब उनमें कुछ भी भेद मैं किस नय से करूँ।
- व्यवहारनय का विषय निष्फल है
समयसार / आत्मख्याति/266 यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं केवलमात्मनोऽनर्थायैव। =(मैं पर जीवों को सुखी दुखी करता हूँ) इत्यादि जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योंकि परभाव का पर में व्यापार न होने से स्वार्थक्रियाकारीपन नहीं है, परभाव पर में प्रवेश नहीं करता। जिस प्रकार कि ‘मैं आकश के फूल तोड़ता हूँ’ ऐसा कहना मिथ्या है तथा अपने अनर्थ के लिए है, पर का कुछ भी करने वाला नहीं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/993-594 तद्यथा लौकिकी रूढिरस्ति नानाविकल्पसात् । नि:सारैराश्रिता पुंभिरथानिष्टफलप्रदा।593। अफलानिष्टफला हेतुशून्या योगापहारिणी। दुस्त्याज्या लौकिकी रूढि: कैश्चिद्दुष्कर्मपाकत:।594।=अनेक विकल्पों वाली यह लौकिक रूढि है और वह निस्सार पुरुषों द्वारा आश्रित है तथा अनिष्ट फल को देने वाली है।593। यह लौकिकी रूढि निष्फल है, दुष्फल है, युक्तिरहित है, अन्वर्थ अर्थ से असंबद्ध है, मिथ्याकर्म के उदय से होती है तथा किन्हीं के द्वारा दुस्त्याज्य है।594। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/563)।
- व्यवहारनय का आश्रय मिथ्यात्व है
समयसार / आत्मख्याति/414 ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयंते ते समयसारमेव न संचेतयंते। =जो व्यवहार को ही परमार्थ बुद्धि से अनुभव करते हैं, वे समयसार का ही अनुभव नहीं करते। ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/6)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/94 ते खलूच्छलितनिरर्गलैकांतदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ...मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यंतो द्विषंतश्च परद्रव्येण कर्मणा संगतत्वात्परसमया जायंते। =वे जिनकी निरर्गल एकांत दृष्टि उछलती है, ऐसे, ‘यह मैं मनुष्य ही हूँ’, ऐसे मनुष्य–व्यवहार का आश्रय करके रागी द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/190 यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयनिरपेक्षोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयोपजनितमोह: सन् ...परद्रव्ये ममत्वं न जहाति स खलु...उन्मार्गमेव प्रतिपद्यते।=जो आत्मा शुद्ध द्रव्य के निरूपण स्वरूप निश्चयनय से निरपेक्ष रहकर अशुद्ध द्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय से जिसे मोह उत्पन्न हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता है वह आत्मा वास्तव में उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/628 व्यवहार: किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यत:। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च। =स्वयमेव मिथ्या अर्थ का उपदेश करने वाला होने के कारण व्यवहारनय निश्चय करके मिथ्या है। तथा इसके अर्थ पर दृष्टि रखने वाला मिथ्यादृष्टि है। इसलिए यह नय हेय है।
देखें एक द्रव्य को दूसरे का कर्ता कहना मिथ्या है ।
एक द्रव्य को दूसरे का बताना मिथ्या है ।
कार्य को सर्वथा निमित्ताधीन कहना मिथ्या है ।
देखें निश्चयनय का आश्रय करने वाले ही सम्यग्दृष्टि होते हैं, व्यवहार का आश्रय करने वाले नहीं ।
- व्यवहारनय हेय है
मोक्षपाहुड़/32 इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं।=(जो व्यवहार में जागता है सो आत्मा के कार्य में सोता है। गा.31) ऐसा जानकर योगी व्यवहार को सर्व प्रकार छोड़ता है।32।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/145 प्राणचतुष्काभिसंबंधत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति।=इस व्यवहार जीवत्व की कारणरूप जो चार प्राणी की संयुक्तता है, उससे जीव को भिन्न करना चाहिए।
समयसार / आत्मख्याति/11 अत: प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनयो नानुसर्तव्य: ।=अत: कर्मों से भिन्न शुद्धात्मा को देखने वालों को व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/253/12 इदं नयद्वयं तावदस्ति। किंत्वत्र निश्चयनय उपादेय; न चासद्भूतव्यवहार:।=यद्यपि नय दो है, किंतु यहाँ निश्चयनय उपादेय है, असद्भूत व्यवहारनय नहीं। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/630 )।
और भी देखें आगे दोनों नयों के समन्वय में इस नय का कथंचित् हेयपना ।
और भी देखें आगे इस नय को हेय कहने का कारण व प्रयोजन
- व्यवहारनय असत्यार्थ है तथा इसका हेतु
- व्यवहारनय की कथंचित् प्रधानता
- व्यवहारनय सर्वथा निषिद्ध नहीं है
धवला 1/1,1,30/230/4 प्रमाणाभावे वचनाभावात: सकलव्यवहारोच्छित्तिप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, वस्तुविषयविधिप्रतिषेधयोरप्यभावप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, तथानुपलंभात् । =प्रमाण का अभाव होने पर वचन की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, और उसके बिना संपूर्ण लोकव्यवहार के विनाश का प्रसंग आता है। प्रश्न–यदि लोकव्यवहार का विनाश होता हो तो हो जाओ? उत्तर–नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वस्तु विषयक विधिप्रतिषेध का भी अभाव हो जाता है। प्रश्न–वह भी हो जाओ ? उत्तर–नहीं, क्योंकि वस्तु का विधि प्रतिषेध रूप व्यवहार देखा जाता है। (और भी देखें नय - V.9.3)
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/356-365/447/15 ननु सौगतोऽपि ब्रूते व्यवहारेण सर्वज्ञ:; तस्य किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति। तत्र परिहारमाह-सौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया व्यवहारो मृषा, तथा व्यवहाररूपेणापि व्यवहारो न सत्य इति, जैनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति। यदि पुनर्लोकव्यवहाररूपेणापि सत्यो न भवति तर्हि सर्वोऽपि लोकव्यवहारो मिथ्या भवति, तथा सत्यतिप्रसंग:। एवमात्मा व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति पश्यति निश्चयेन पुन: स्वद्रव्यमेवेति। =प्रश्न–सौगत मतवाले (बौद्ध जन) भी सर्वज्ञपना व्यवहार से मानते हैं, तब आप उनको दूषण क्यों देते हैं (क्योंकि, जैन मत में भी परपदार्थों का जानना व्यवहारनय से कहा जाता है)? उत्तर–इसका परिहार करते हैं–सौगत आदि मतों में, जिस प्रकार निश्चय की अपेक्षा व्यवहार झूठ है, उसी प्रकार व्यवहाररूप से भी वह सत्य नहीं है। परंतु जैन मत में व्यवहारनय यद्यपि निश्चय की अपेक्षा मृषा (झूठ) है, तथापि व्यवहार रूप से वह सत्य है। यदि लोकव्यवहाररूप से भी उसे सत्य न माना जाये तो सभी लोकव्यवहार मिथ्या हो जायेगा; और ऐसा होने पर अतिप्रसंग दोष आयेगा। इसलिए आत्मा व्यवहार से परद्रव्य को जानता देखता है, पर निश्चयनय से केवल आत्मा को ही। (विशेष देखें – केवलज्ञान - 6; ज्ञान -4.2 ; दर्शन -2.4 )
समयसार/ पं.जयचंद/6= शुद्धता अशुद्धता दोनों वस्तु के धर्म हैं। अशुद्धनय को सर्वथा असत्यार्थ ही न मानना।...अशुद्धनय को असत्यार्थ कहने से ऐसा तो न समझना कि यह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं; आकाश के फूल की तरह असत् है। ऐसे सर्वथा एकांत मानने से मिथ्यात्व आता है। (समयसार./पं.जयचंद/14)
समयसार/पं.जयचंद/12 व्यवहारनय को कथंचित् असत्यार्थ कहा है; यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो शुभोपयोगरूप व्यवहार छोड़ दे; और चूँकि शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई, इसलिए उलटा अशुभोपयोग में ही आकर भ्रष्ट हुआ। यथा कथंचित् स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तब नारकादिगति तथा परंपरा से निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा।
- निचली भूमिका में व्यवहार प्रयोजनीय है
समयसार/12 सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे। =परमभावदर्शियों को (अर्थात् शुद्धात्मध्यानरत पुरुषों को) शुद्धतत्त्व का उपदेश करने वाला शुद्धनय जानना योग्य है। और जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं (अर्थात् बाह्य क्रियाओं का अवलंबन लेने वाले हैं) वे व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/12/26/6 व्यवहारदेशितो व्यवहारनय: पुन: अधस्तनवार्णिकसुवर्णलाभवत्प्रयोजनवान् भवति। केषां। ये पुरुषा: पुन: अशुद्धेअसंयतसम्यग्दृष्ट्यपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्यग्दृष्टिलक्षणे शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापेक्षया च भेदरत्नत्रयलक्षणे वा स्थिता:, कस्मिन् स्थिता:। जीवपदार्थे तेषामिति भावार्थ:। =व्यवहार का उपदेश करने पर व्यवहारनय प्रथम द्वितीयादि बार पके हुए सुवर्ण की भाँति जो पुरुष अशुद्ध अवस्था में स्थित अर्थात् भेदरत्नत्रय लक्षणवाले 1-7 गुणस्थानों में स्थित हैं, उनको व्यवहारनय प्रयोजनवान् है। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/372/8)
- मंदबुद्धियों के लिए उपकारी है
धवला 1/1,1,37/263/7 सर्वत्र निश्चयनयमाश्रित्य प्रतिपाद्य अत्र व्यवहारनय: किमित्यवलंब्यते इति चेन्नैष दोष:, मंदमेधसामनुग्रहार्थत्वात् ।=प्रश्न–सब जगह निश्चयनय का आश्रय लेकर वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने के पश्चात् फिर यहाँ पर व्यवहारनय का आलंबन क्यों लिया जा रहा है? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मंदबुद्धि शिष्यों के अनुग्रह के लिए उक्त प्रकार से वस्तुस्वरूप का विचार किया है। (धवला 4/1,3,55/120/1) (पद्मनन्दि पंचविंशितिका 11/8)
धवला 12/4,2,8,3/281/2 एवंविहवहारो किमट्ठं कीरदे। सुहेण णाणावरणीयपच्चयपडिबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च। प्रश्न–इस प्रकार का व्यवहार किसलिए किया जाता है ? उत्तर–सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है।
समयसार / आत्मख्याति/7 यतोऽनंतधर्मण्येकस्मिं ह्यधर्मिण्यनिष्णातस्यांतेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभि: कैश्चिद्धर्मैस्तमनुशासतां सूरिणां धर्मधर्मिणो: स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं, ज्ञानं चारित्रमित्युपदेश:। =क्योंकि अनंत धर्मों वाले एक धर्मी में जो निष्णात नहीं हैं, ऐसे निकटवर्ती शिष्यों को, धर्मी को बतलाने वाले कितने ही धर्मों के द्वारा उपदेश करते हुए आचार्यों का–यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है, तथापि नाम से भेद करके, व्यवहार मात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। (पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/6), (पद्मनन्दि पंचविंशितिका/11/8) (मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/372/15)
- व्यवहार पूर्वक ही निश्चय तत्त्व का ज्ञान संभव है
पद्मनन्दि पंचविंशितिका/11/11 मुख्योपचारविवृतिं व्यवहारोपायतो यत: संत:। ज्ञात्वा श्रयंति शुद्धं तत्त्वमिति: व्यवहृति: पूज्या। चूँकि सज्जन पुरुष व्यवहारनय के आश्रय से ही मुख्य और उपचारभूत कथन को जानकर शुद्धस्वरूप का आश्रय लेते हैं, अतएव व्यवहारनय पूज्य है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/9/20/14 व्यवहारेण परमार्थो ज्ञायते।=व्यवहारनय से परमार्थ जाना जाता है।
- व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन शक्य नहीं
समयसार/8 तहिं परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत् । (उत्थानिका)–जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जं-भासं विणा उ गाहेउं। तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं।8। =प्रश्न–तब तो एक परमार्थ का ही उपदेश देना चाहिए था, व्यवहार का उपदेश किसलिए दिया जाता है? उत्तर–जैसे अनार्यजन को अनार्य भाषा के बिना किसी भी वस्तु का स्वरूप ग्रहण कराने के लिए कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है। (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/641); (मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/370/4)
सर्वार्थसिद्धि/1/33/142/3 सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं तच्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते।=सर्व संग्रहनय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह अपने उत्तरभेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है। (राजवार्तिक/1/33/6/96/22)
- वस्तु में आस्तिक्य बुद्धि कराना इसका प्रयोजन है
स्याद्वादमंजरी/28/315/28 पर उद्धृत श्लोक नं.3 व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद् व्यापारयति देहिन:। =संग्रहनय से जानी हुई सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में भिन्न रूप से मानकर व्यवहार करने को व्यवहार नय कहते हैं। यह नय जीवों का उन भिन्न-भिन्न पदार्थों में व्यापार कराता है, क्योंकि जगत् में वैसे भिन्न-भिन्न पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/524 फलमास्तिक्यमति: स्यादनंतधर्मैकधर्मिणस्तस्य। गुणसद्भावे यस्माद्द्रव्यास्तित्वस्य सुप्रतीतत्वात् ।=अनंतधर्म वाले धर्मों के विषय में आस्तिक्य बुद्धि का होना ही उसका फल है, क्योंकि गुणों का अस्तित्व मानने पर ही नियम से द्रव्य का अस्तित्व प्रतीत होता है।
- वस्तु की निश्चित प्रतिपत्ति के अर्थ यही प्रधान है
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/637-639 ननु चैवं चेन्नियमादादरणीयो नयो हि परमार्थ:। किमकिंचत्कारित्वाद्व्यवहारेण तथाविधेन यत:।637। नैवं यतो बलादिह विप्रतिपत्तौ च संशयापत्तौ। वस्तुविचारे यदि वा प्रमाणमुभयावलंबितज्ज्ञानं ।638। तस्मादाश्रयणीय: केषांचित् स नय: प्रसंगत्वात् ।...।639। =प्रश्न–जब निश्चयनय ही वास्तव में आदरणीय है तब फिर अकिंचित्कारी और अपरमार्थभूत व्यवहारनय से क्या प्रयोजन है ?।637। उत्तर–ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि तत्त्व के संबंध में विप्रतिपत्ति (विपर्यय) होने पर अथवा संशय आ पड़ने पर, वस्तु का विचार करने में वह व्यवहारनय बलपूर्वक प्रवृत्त होता है। अथवा जो ज्ञान निश्चय व व्यवहार दोनों नयों का अवलंबन करने वाला है वही प्रमाण कहलाता है।638। इसलिए प्रसंगवश वह किन्हीं के लिए आश्रय करने योग्य है।639।
- व्यवहार शून्य निश्चयनय कल्पनामात्र है
अनगारधर्मामृत/1/100/107 व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति। बीजादिना बिना मूढ: स सस्यानि सिसृक्षति।100।=जो मनुष्य व्यवहार से पराङ्मुख होकर केवल निश्चयनय से ही कार्य सिद्ध करना चाहता है, वह बीज, खेत, जल, खाद आदि के बिना ही धान्य उत्पन्न करना चाहता है ।
- व्यवहारनय सर्वथा निषिद्ध नहीं है
- व्यवहार व निश्चय की हेयोपादेयता का समन्वय
- निश्चयनय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन
समयसार/272 णिच्छयणयासिदा मुणिणो पावंति णिव्वाणं। =निश्चयनय के आश्रित मुनि निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
निश्चयनय के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है।
परमात्मप्रकाश/1/71 देहहँ पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि। जो अजरामरु बंभपरु सो अप्पाणु मुणेउ।71।=हे जीव ! तू इस देह के बुढ़ापे व मरण को देखकर भय मत कर। जो वह अजर व अमर परमब्रह्म तत्त्व है उस ही को आत्मा मान।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 निश्चयनयस्त्वेकत्वे समुपनीय ज्ञानचेतन्ये संस्थाप्य परमानंदं समुत्पाद्य वीतरागं कृत्वा स्वयं निवर्तमानो नयपक्षातिक्रांतं करोति तमिति पूज्यतम:। =निश्चयनय एकत्व को प्राप्त कराके ज्ञानरूपी चैतन्य में स्थापित करता है। परमानंद को उत्पन्न कर वीतराग बनाता है। इतना काम करके वह स्वत: निवृत्त हो जाता है। इस प्रकार वह जीव को नयपक्ष से अतीत कर देता है। इस कारण वह पूज्यतम है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/69-70 यथा सम्वग्व्यवहारेण मिथ्याव्यवहारो निवर्तते तथा निश्चयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्त्तते। यथा निश्चयनयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते तथा स्वपर्यवसितभावेनैकविकल्पोऽपि निवर्तते। एवं हि जीवस्य योऽसौ स्वपर्यवसितस्वभाव स एव नयपक्षातीत:। =जिस प्रकार सम्यक्व्यवहार से मिथ्या व्यवहार की निवृत्ति हो जाती है। उसी प्रकार निश्चयनय से व्यवहार के विकल्पों की निवृत्ति होती है उसी प्रकार स्व में स्थित स्वभाव से निश्चयनय की एकता का विकल्प भी निवृत्त हो जाता है। इसलिए स्व-स्थित स्वभाव ही नयपक्षातीत है। (सूत्रपाहुड़/ टीका /6/59/9)।
समयसार / आत्मख्याति/180/ क.122 इदमेवात्र तात्पर्यं हेय: शुद्धनयो न हि। नास्ति बंधस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्वंध एव हि। =यहाँ यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है; क्योंकि, उसके अत्याग से बंध नहीं होता है और उसके त्याग से बंध होता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/191 निश्चयनयापहस्तितमोह:...आत्मानमेवात्मत्वेनोपादाय परद्रव्यव्यावृत्तत्वादात्मन्येकस्मिन्नग्रे चिंतां निरुणाद्धि खलु...निरोधसमये शुद्धात्मा स्यात् । अतोऽवधार्यते शुद्धनयादेव शुद्धात्मलाभ:। =निश्चयनय के द्वारा जिसने मोह को दूर किया है, वह पुरुष आत्मा को ही आत्मरूप से ग्रहण करता है, और परद्रव्य से भिन्नत्व के कारण आत्मारूप एक अग्र में ही चिंता को रोकता है (अर्थात् निर्विकल्प समाधि को प्राप्त होता है)। उस एकाग्रचिंतानिरोध के समय वास्तव में वह शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। (समयसार / तात्पर्यवृत्ति/49/89/16), ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/663)।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/253/13 ननु रागादीनात्मा करोति भुंक्ते चेत्येवं लक्षणो निश्चयनयो व्याख्यात:, स कथमुपादेयो भवति। परिहारमाह–रागादीनेवात्मा करोति न च द्रव्यकर्म, रागादय एव बंधकारणमिति यदा जानाति जीवस्तदा रागद्वेषादिविकल्पजालत्यागेन रागादिविनाशार्थं निजशुद्धात्मानं भावयति। ततश्च रागादिविनाशो भवति। रागादिविनाशे च आत्मा शुद्धो भवति।...तथैवोपादेयो भण्यते इत्यभिप्राय:। = प्रश्न–रागादिक को आत्मा करता है और भोगता है ऐसा (अशुद्ध) निश्चय का लक्षण कहा गया है। वह कैसे उपादेय हो सकता है? उत्तर–इस शंका का परिहार करते हैं–रागादिक को ही आत्मा करता (व भोगता है) द्रव्यकर्मों को नहीं। इसलिए रागादिक ही बंध के कारण हैं (द्रव्यकर्म नहीं)। ऐसा यह जीव जब जान जाता है तब रागादि विकल्पजाल का त्याग करके रागादिक के विनाशार्थ शुद्धात्मा की भावना भाता है। उससे रागादिक का विनाश होता है। और रागादिक का विनाश होने पर आत्मा शुद्ध हो जाती है। इसलिए इस (अशुद्ध निश्चयनय को भी) उपादेय कहा जाता है।
- व्यवहारनय के निषेध का कारण
- अभूतार्थ प्रतिपादक होने के कारण निषिद्ध है
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/627-28 न यतो विकल्पमर्थाकृतिपरिणतं यथा वस्तु। प्रतिषेधस्य न हेतुश्चेदयथार्थस्तु हेतुरिह तस्य।627। व्यवहार: किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यत:। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च।628। =वस्तु के अनुसार केवल विकल्परूप अर्थाकार परिणत होना प्रतिषेध्य का कारण नहीं है, किंतु वास्तविक न होने के कारण इसका प्रतिषेध होता है।627। निश्चय करके व्यवहारनय स्वयं ही मिथ्या अर्थ का उपदेश करने वाला है, अत: मिथ्या है। इसलिए यहाँ पर प्रतिषेध्य है। और इसके अर्थ पर दृष्टि रखनेवाला मिथ्यादृष्टि है।628। (विशेष देखें नय - V.6.1)।
- अनिष्ट फलप्रदायी होने के कारण निषिद्ध है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/98 अतोऽवधार्यते अशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव। =इससे जाना जाता है कि अशुद्धनय से अशुद्धआत्मा का लाभ होता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/563 तस्मादनुपादेयो व्यवहारोऽतद्गुणे तदारोप:। इष्टफलाभावादिह न नयो वर्णादिमान् यथा जीव:। =इसी कारण, अतद्गुण में तदारोप करने वाला व्यवहारनय इष्ट फल के अभाव से उपादेय नहीं है। जैसे कि यहाँ पर जीव को वर्णादिमान् कहना नय नहीं है (नयाभास है), (विशेष देखें नय - V.6.11)।
- व्यभिचारी होने के कारण निषिद्ध है
समयसार / आत्मख्याति/277 तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानैकांतिकत्वाद्वयवहारनय: प्रतिषेध्य:। निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकांतिकत्वात्तत्प्रतिषेधक:। =व्यवहारनय प्रतिषेध्य है; क्योंकि (इसके विषयभूत परद्रव्यस्वरूप) आचारांगादि (द्वादशांग श्रुतज्ञान, व्यवहारसम्यग्दर्शन व व्यवहारसम्यग्चारित्र) का आश्रयत्व अनैकांतिक है, व्यभिचारी है (अर्थात् व्यवहारावलंबी को निश्चय रत्नत्रय हो अथवा न भी हो) और निश्चयनय व्यवहार का निषेधक है; क्योंकि (उसके विषयभूत) शुद्धात्मा के ज्ञानादि (निश्चयरत्नत्रय का) आश्रय एकांतिक है अर्थात् निश्चित है, और व्यवहार के प्रतिषेधक हैं ।
- अभूतार्थ प्रतिपादक होने के कारण निषिद्ध है
- व्यवहारनय निषेध का प्रयोजन
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/6,7 अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयंत्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।6। माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य। व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।7। =अज्ञानी को समझाने के लिए ही मुनिजन अभूतार्थ जो व्यवहारनय, उसका उपदेश देते हैं। जो केवल व्यवहार ही को सत्य मानते हैं, उनके लिए उपदेश नहीं है।6। जो सच्चे सिंह को नहीं जानते हैं उनको यदि ‘विलाव जैसा सिंह होता है’ यह कहा जाये तो बिलाव को ही सिंह मान बैठेंगे। इसी प्रकार जो निश्चय को नहीं जानते उनको यदि व्यवहार का उपदेश दिया जाये तो वे उसी को निश्चय मान लेंगे।7। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/372/8)।
समयसार / आत्मख्याति/11 प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनया नानुसर्तव्य:। =अन्य पदार्थों से भिन्न आत्मा को देखने वालों को व्यवहारनय का अनुसरण नहीं करना चाहिए।
पद्मनन्दि पंचविंशितिका/11/8 व्यवहृतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनय:।=अबोधजनों को समझाने के लिए ही व्यवहारनय है, परंतु शुद्धनय कर्मों के क्षय का कारण है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/324-327/414/9 ज्ञानी भूत्वा व्यवहारेण परद्रव्यमात्मीयं वदन् सन् कथमज्ञानी भवतीति चेत् । व्यवहारो हि म्लेच्छानां म्लेच्छभाषेव प्राथमिकजनसंबोधनार्थं काल एवानुसर्तव्य:। प्राथमिकजनप्रतिबोधनकालं विहाय कतकफलवदात्मशुद्धि कारकात् शुद्धनयाच्च्युतो भूत्वा यदि परद्रव्यमात्मीयं करोतीति तदा मिथ्यादृष्टिर्भवति। =प्रश्न–ज्ञानी होकर व्यवहारनय से परद्रव्य को अपना कहने से वह अज्ञानी कैसे हो जाता है? उत्तर–म्लेच्छों को समझाने के लिए म्लेच्छ भाषा की भाँति प्राथमिक जनों को समझाने के समय ही व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य है। प्राथमिकजनों के संबोधनकाल को छोड़कर अन्य समयों में नहीं। अर्थात् कतकफल की भाँति जो आत्मा की शुद्धि करने वाला है, ऐसे शुद्धनय से च्युत होकर यदि परद्रव्य को अपना करता है तो वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (अर्थात् निश्चयनय निरपेक्ष व्यवहार दृष्टिवाला मिथ्यादृष्टि हो सर्वदा सर्वप्रकार व्यवहार का अनुसरण करता है, सम्यग्दृष्टि नहीं।
- व्यवहार नय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन
निचली भूमिकावालों के लिए तथा मंदबुद्धिजनों के लिए यह नय उपकारी है। व्यवहार से ही निश्चय तत्त्वज्ञान की सिद्धि होती है तथा व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन भी शक्य नहीं है। इसके अतिरिक्त इस नय द्वारा वस्तु में आस्तिक्य बुद्धि उत्पन्न हो जाती है।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/60/246/28 तदुक्तं–व्यवहारानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता। सान्यथा बाध्यमानानां, तेषां च तत्प्रसंगत:। =लौकिक व्यवहारों की अनुकूलता करके ही प्रमाणों का प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है, दूसरे प्रकारों से नहीं। क्योंकि, वैसा मानने पर तो साध्यमान जो स्वप्न, भ्रांति व संशय ज्ञान हैं, उन्हें भी प्रमाणता प्राप्त हो जायेगी।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/31 किमर्थं व्यवहारोऽसत्कल्पनानिवृत्त्यर्थं सद्रत्नत्रयसिद्धयर्थं च। =प्रश्न–अर्थ का व्यवहार किसलिए किया जाता है ? उत्तर–असत् कल्पना की निवृत्ति के अर्थ तथा सम्यक् रत्नत्रय की प्राप्ति के अर्थ।
समयसार / आत्मख्याति/12 अथ च केषांचित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान् । (उत्थानिका)। ...ये तु...अपरमं भावमनुभवंति तेषां ...व्यवहारनयो...परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् । उक्तं च–‘जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुयह। एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं। समयसार / आत्मख्याति/46 व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्तेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थ तो भेददर्शनात्त्रसस्थावराणां भस्मन इव नि:शंकमुपमर्दनेन हिंसाभावाद्भवत्येव बंधस्याभाव:। तथा रक्तद्विष्टविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषविमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभाव:।=- व्यवहारनय भी किसी किसी को किसी काल प्रयोजनवान् है।–जो पुरुष अपरमभाव में स्थित है [अर्थात् अनुत्कृष्ट या मध्यम भूमिका अनुभव करते हैं अर्थात् 4-7 गुणस्थान तक के जीवों को (देखें नय - V.7.2) उनको व्यवहारनय जानने में आता हुआ उस समय प्रयोजनवान् है, क्योंकि तीर्थ व तीर्थ के फल की ऐसी ही व्यवस्थिति है। अन्यत्र भी कहा है–हे भव्य जीवों! यदि तुम जिनमत का प्रवर्ताना कराना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ का नाश हो जायेगा और निश्चय के बिना तत्त्व का नाश हो जायेगा।
- जैसे म्लेच्छों को म्लेच्छभाषा वस्तु का स्वरूप बतलाती है उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ का कहने वाला है, इसलिए अपरमार्थभूत होने पर भी, धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए वह (व्यवहारनय) बतलाना न्यायसंगत ही है। यदि व्यवहारनय न बतलाया जाय तो, क्योंकि परमार्थ से जीव को शरीर से भिन्न बताया गया है, इसलिए जैसे भस्म को मसल देने से हिंसा का अभाव है, उसी प्रकार त्रस-स्थावर जीवों को नि:शंकतया मसल देने में भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बंध का ही अभाव सिद्ध होगा। तथा परमार्थ से जीव क्योंकि रागद्वेष मोह से भिन्न बताया गया है, इसलिए ‘रागी द्वेषी मोही जीव कर्म से बंधता है, उसे छुड़ाना’–इस प्रकार मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जायेगा। इस प्रकार मोक्ष के उपाय का अभाव होने से मोक्ष का अभाव हो जायेगा।
- निश्चयनय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन
- निश्चय व्यवहार के विषयों का समन्वय
- दोनों नयों के विषय विरोध निर्देश
श्लोकवार्तिक 4/1/7/28/585/2 निश्चयनयादनादिपारिणामिकचैतन्यलक्षणजीवत्वपरिणतो जीव: व्यवहारादौपशमिकादिभावचतुष्टयस्वभाव:; निश्चयत: स्वपरिणामस्य, व्यवहारत: सर्वेषां; निश्चयनयो जीवत्वसाधन:, व्यवहारादौपशमिकादिभावसाधनश्च; निश्चयत: स्वप्रदेशाधिकरणो, व्यवहारत: शरीराद्यधिकरण:; निश्चयतो जीवनसमयस्थिति व्यवहारतो द्विसमयादिस्थितिरनाद्यवसानस्थितिर्वा; निश्चयतोऽनंतविधान एव व्यवहारतो नारकादिसंख्येयासंख्येयानंतविधानश्च। =निश्चयनय से तो अनादि पारिणामिक चैतन्यलक्षण जो जीवत्व भाव, उससे परिणत जीव है, तथा व्यवहारनय से औदयिक औपशमिक आदि जो चार भाव उन स्वभाव वाला जीव है ( नय - V.1.3, V.1.5, V.1.8)। निश्चय से स्वपरिणामों का स्वामी व कर्ता भोक्ता है, तथा व्यवहारनय से सब पदार्थों का स्वामी व कर्ता भोक्ता है ( नय - V.1.3, V.1.5, V.1.8 तथा V.5,) निश्चय से पारिणामिक भावरूप जीवत्व का साधन है तथा व्यवहारनय से औदयिक औपशमिकादि भावों का साधन है ( नय - V.1.5, V.1.8) | निश्चय से जीव स्वप्रदेशों में अधिष्ठित है]] और व्यवहार से शरीरादि में अधिष्ठित है ( नय - V.1.3 , V.5.5 )। निश्चय से जीवन की स्थिति एक समयमात्र है और व्यवहार नय से दो समय आदि अथवा अनादि अनंत स्थिति है। ( नय - III.5.7 , IV.3 ) । निश्चयनय से जितने जीव हैं उतने ही अनंत उसके प्रकार हैं, और व्यवहारनय से नरक तिर्यंच आदि संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रकार का है। (इसी प्रकार अन्य भी इन नयों के अनेकों उदाहरण यथायोग्य समझ लेना)। (विशेष देखो पृथक्-पृथक् उस उस नय के उदाहरण) (पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56-60 )।
देखें वस्तु एक अपेक्षा से जैसी है, दूसरी अपेक्षा से वैसी नहीं है।
- दोनों नयों में स्वरूप विरोध निर्देश
- इस प्रकार दोनों नय परस्पर विरोधी हैं
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/6= निश्चय व्यवहार का स्वरूप तौ परस्पर विरोध लिये हैं। जातै समयसार विषै ऐसा कहा है–व्यवहार अभूतार्थ है–और निश्चय है सो भूतार्थ है ।
नोट––(इसी प्रकार निश्चयनय साधकतम है, व्यवहारनय साधकतम नहीं है। निश्चयनय सम्यक्त्व का कारण है तथा व्यवहारनय के विषय का आश्रय करना मिथ्यात्व है। निश्चयनय उपादेय है और व्यवहारनय हेय है । निश्चयनय अभेद विषयक है और व्यवहारनय भेद विषयक ; निश्चयनय स्वाश्रित है और व्यवहारनय पराश्रित; निश्चयनय निर्विकल्प, एक वचनातीत, व उदाहरण रहित है तथा व्यवहारनय सविकल्प, अनेकों, वचनगोचर व उदाहरण सहित है ।
- निश्चय मुख्य है और व्यवहार गौण
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 तर्ह्येवं द्वावपि सामान्येन पूज्यतां गतौ। नह्येवं, व्यवहारस्य पूज्यतरत्वान्निश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् ।=प्रश्न–(यदि दोनों ही नयों के अवलंबन से परोक्षानुभूति तथा नयातिक्रांत होने पर प्रत्यक्षानुभूति होती है) तो दोनों नय समानरूप से पूज्यता को प्राप्त हो जायेंगे ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, वास्तव में व्यवहारनय पूज्यतर हैं और निश्चयनय पूज्यतम।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/809 तद् द्विधाय च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधानं स्वात्मसंबंधि गुणो यावत् परात्मनि।809। =वह वात्सल्य अंग भी स्व और पर के विषय के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से जो स्वात्मा संबंधी अर्थात् निश्चय वात्सल्य है वह प्रधान है और जो परमात्मा संबंधी अर्थात् व्यवहार वात्सल्य है वह गौण है।809।
- निश्चयनय साध्य है और व्यवहारनय साधक
द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/9 निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम् ...परद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते। =परमात्मद्रव्य उपादेय है और परद्रव्य त्याज्य है, इस तरह सर्वज्ञदेव प्रणीत निश्चय व्यवहारनय को साध्यसाधक भाव से मानता है। (देखें नय - V.7.4)।
- व्यवहार प्रतिषेध्य है और निश्चय प्रतिषेधक
समयसार/272 एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण। =इस प्रकार व्यवहारनय को निश्चयनय के द्वारा प्रतिषिद्ध जान। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/598,625,643)।
देखें समयसार आत्मख्याति/142/ कलश 70-89 का सारार्थ (एक नय की अपेक्षा जीवबद्ध है तो दूसरे की अपेक्षा वह अबद्ध है, इत्यादि 20 उदाहरणों द्वारा दोनों नयों का परस्पर विरोध दर्शाया गया है)।
- इस प्रकार दोनों नय परस्पर विरोधी हैं
- दोनों में मुख्य गौण व्यवस्था का प्रयोजन
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/191 यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयाविरोधमध्यस्थ: शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयापहस्तितमोह: सन् ...स खलु...शुद्धात्मा स्यात् ।=जो आत्मा मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान ऐसे अशुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय में अविरोधरूप से मध्यस्थ रहकर, शुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनय के द्वारा, जिसने मोह को दूर किया है, ऐसा होता हुआ (एकमात्र आत्मा में चित्त को एकाग्र करता है) वह वास्तव में शुद्धात्मा होता है।
देखें निश्चय निरपेक्ष व्यवहार का अनुसरण मिथ्यात्व है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/ पृष्ठ/पंक्ति जिनमार्गविषै कहीं तौ निश्चय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौं तौ ‘सत्यार्थ ऐसे ही है’ ऐसा जानना। बहुरि कहीं व्यवहार नय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौ, ‘ऐसे है नाहीं, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है’ ऐसा जानना। इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है। बहुरि दोऊ नयनि के व्याख्यान को सत्यार्थ जानि ‘ऐसै भी है और ऐसे भी है’ ऐसा भ्रमरूप प्रवर्तनेकरि तौ दोऊ नयनि का ग्रहण करना कह्या नाहीं। (पृ.369/14)। ...नोवली दशाविषैं आपकौ भी व्यवहारनय कार्यकारी है; परंतु व्यवहार को उपचारमात्र मानि वाकै द्वारै वस्तु का श्रद्धान ठीक करै तौं कार्यकारी होय। बहुरि जो निश्चयवत् व्यवहार भी सत्यभूत मानि ‘वस्तु ऐसे ही है’ ऐसा श्रद्धान करे तौ उलटा अकार्यकारी हो जाय। (पृ.372/9) तथा (और भी देखें नय - V.8.3)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ पं.जयचंद/464 निश्चय के लिए तो व्यवहार भी सत्यार्थ है और बिना निश्चय के व्यवहार सारहीन है। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ पं.जयचंद/467)।
देखें निश्चय व व्यवहार ज्ञान द्वारा हेयोपादेय का निर्णय करके, शुद्धात्मस्वभाव की ओर झुकना ही प्रयोजनीय है। (
(और भी देखें जीव, अजीव, आस्रव आदि तत्त्व व विषय) (सर्वत्र यही कहा गया है कि व्यवहारनय द्वारा बताये गये भेदों या संयोगों को हेय करके मात्र शुद्धात्मतत्त्व में स्थित होना ही उस तत्त्व को जानने का भावार्थ है।)
- दोनों में साध्य-साधनभाव का प्रयोजन दोनों की परस्पर सापेक्षता
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/53 वस्तुत: स्याद्भेद: कस्मान्न कृत इति नाशंकनीयम् । यतो न तेन साध्यसाधकयोरविनाभावित्वं। तद्यथा–निश्चयाविरोधेन व्यवहारस्य सम्यग्व्यवहारेण सिद्धस्य निश्चयस्य च परमार्थत्वादिति। परमार्थमुग्धानां व्यवहारिणां व्यवहारमुग्धानां निश्चयवादिनां उभयमुग्धानामुभयवादिनामनुभयमुग्धानामनुभयवादिनां मोहनिरासार्थं निश्चयव्यवहाराभ्यामालिंगितं कृत्वा वस्तु निर्णेयं। एवं हि कथंचिद्भेदपरस्पराविनाभावित्वेन निश्चयव्यवहारयोरनाकुला सिद्धि:। अन्यथाभास एव स्यात् । तस्माद्व्यवहारप्रसिद्धयैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति, सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात् ।=प्रश्न–वस्तुत: ही इन दोनों नयों का कथंचित् भेद क्यों नहीं किया गया ? उत्तर–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वैसा करने से उनमें परस्पर साध्यसाधक भाव नहीं रहता। वह ऐसे कि–निश्चय से अविरोधी व्यवहार को तथा समीचीन व्यवहार द्वारा सिद्ध किये गये निश्चय को ही परमार्थपना है। इस प्रकार परमार्थ से मूढ़ केवल व्यवहारावलंबियों के, अथवा व्यवहार से मूढ केवल निश्चयावलंबियों के, अथवा दोनों की परस्पर सापेक्षतारूप उभय से मूढ़ निश्चयव्यवहारावलंबियों के, अथवा दोनों नयों का सर्वथा निषेध करनेरूप अनुभयमूढ़ अनुभयावलंबियों के मोह को दूर करने के लिए, निश्चय व व्यवहार दोनों नयों से आलिंगित करके ही वस्तु का निर्णय करना चाहिए।
इस प्रकार कथंचित् भेद रहते हुए भी परस्पर अविनाभावरूप से निश्चय और व्यवहार की अनाकुल सिद्धि होती है। अन्यथा अर्थात् एक दूसरे से निरपेक्ष वे दोनों ही नयाभास होकर रह जायेंगे । इसलिए व्यवहार की प्रसिद्धि से ही निश्चय की प्रसिद्धि है, अन्यथा नहीं। क्योंकि समीचीन द्रव्यागम के द्वारा तत्त्व का सेवन करके ही समीचीन रत्नत्रय की सिद्धि होती है। (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/662)।
नयचक्र बृहद्/285-292 णो ववहारो मग्गो मोहो हवदि सुहासुहमिदि वयणं। उक्तं चान्यत्र, णियदव्वजाणट्ठं इयरं कहियं जिणेहि छद्दव्वं। तम्हा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं।–ण हु ऐसा सुंदरा जुत्ती। णियसमयं पि य मिच्छा अह जदु सुण्णो य तस्स सो चेदा जाणगभावो मिच्छा उवयरिओ तेण सो भणई।285। जं चिय जीवसहायं उवयारं भणिय तं पि ववहारो। तम्हा णहु तं मिच्छा विसेसदो भणइ सब्भावं।286। ज्झेओ जीवसहाओ सो इह सपरावभासगो भणिओ। तस्स य साहणहेऊ उवयारो भणिय अत्थेसु।287। जह सब्भूओ भणिदो साहणहेऊ अभेदपरमट्ठो। तह उवयारो जाणह साहणहेऊ अणवयारे।288। जो इह सुदेण भणिओ जाणदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं। तं सुयकेवलिरिसिणो भणंति लोयप्पदीपयरा।289। उवयारेण विजाणइ सम्मगुरूवेण जेण परदव्वं। सम्मगणिच्छय तेण वि सइय सहावं तु जाणंतो।290। ण दु णय पक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविविग्गयं सुद्धं।292। =प्रश्न–व्यवहारमार्ग कोई मार्ग नहीं है, क्योंकि शुभाशुभरूप वह व्यवहार वास्तव में मोह है, ऐसा आगम का वचन है। अन्य ग्रंथों में कहा भी है कि ‘निज द्रव्य के जानने के लिए ही जिनेंद्र भगवान् ने छह द्रव्यों का कथन किया है, इसलिए केवल पररूप उन छह द्रव्यों का जानना सम्यग्ज्ञान नहीं है। (देखें द्रव्य - 2.4)। उत्तर–आपकी युक्ति सुंदर नहीं है, क्योंकि परद्रव्यों को जाने बिना उसका स्वसमयपना मिथ्या है, उसकी चेतना शून्य है, और उसका ज्ञायकभाव भी मिथ्या है। इसीलिए अर्थात् पर को जानने के कारण ही उस जीवस्वभाव को उपचरित भी कहा गया है (देखें स्वभाव )।285। क्योंकि कहा गया वह जीव का उपचरित स्वभाव व्यवहार है, इसीलिए वह मिथ्या नहीं है, बल्कि उसी स्वभाव की विशेषता को दर्शाने वाला है (देखें नय - V.7.1)।286। जीव का शुद्ध स्वभाव ध्येय है और वह स्व-पर प्रकाशक कहा गया है। (देखें केवलज्ञान - 6; ज्ञान/I/3; दर्शन/2)। उसका कारण व हेतु भी वास्तव में परपदार्थों में किया गया ज्ञेयज्ञायक रूप उपचार ही है।287। जिस प्रकार अभेद व परमार्थ पदार्थ में गुण गुणी का भेद करना सद्भूत है, उसी प्रकार अनुपचार अर्थात् अबद्ध व अस्पृष्ट तत्त्व में परपदार्थों को जानने का उपचार करना भी सद्भूत है।288। आगम में भी ऐसा कहा गया है कि जो श्रुत के द्वारा केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं, ऐसा लोक को प्रकाशित करने वाले ऋषि अर्थात् जिनेंद्र भगवान् कहते हैं। (देखें श्रुतकेवली - 2)।289। सम्यक् निश्चय के द्वारा स्वकीय स्वभाव को जानता हुआ वह आत्मा सम्यक् रूप उपचार से परद्रव्यों को भी जानता है।290। इसलिए अनेकांत पक्ष को सिद्ध करने वाला नय पक्ष मिथ्या नहीं है, क्योंकि जिनवचन से उत्पन्न ‘स्यात्’ शब्द से आलिंगित होकर वह शुद्ध हो जाता है। (देखें नय - II)।292। - दोनों की सापेक्षता का कारण व प्रयोजन
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/52 यद्यपि मोक्षकार्ये भूतार्थेन परिच्छिन्न आत्माद्युपादानकारणं भवति तथापि सहकारिकारणेन विना न सेत्स्यतीति सहकारिकारणप्रसिद्धयर्थं निश्चयव्यवहारयोरविनाभावित्वमाह। =यद्यपि मोक्षरूप कार्य में भूतार्थ निश्चय नय से जाना हुआ आत्मा आदि उपादान कारण तो सबके पास हैं, तो भी वह आत्मा सहकारी कारण के बिना मुक्त नहीं होता है। अत: सहकारी कारण की प्रसिद्धि के लिए, निश्चय व व्यवहार का अविनाभाव संबंध बतलाते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/114 सर्वस्य हि वस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यविशेषौ परिच्छंदती द्वे किल चक्षुषी, द्रव्यार्थिकं पर्यायार्थिकं चेति। तत्र पर्यायार्थिकमेकांतनिमीलितं ...द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा...तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति। यदा तु द्रव्यार्थिकमेकांतनिमीलितं। ...पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा..अन्यदन्यत्प्रतिभाति...यदा तु ते उभे अपि...तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चावलोक्यते तदा...जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता:...विशेषाश्च तुल्यकालमेवालोक्यंते। तत्र एकचक्षुरवलोकनमेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनं। तत: सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते।=वस्तुत: सभी वस्तु सामान्य विशेषात्मक होने से, वस्तु का स्वरूप देखने वालों के क्रमश: सामान्य और विशेष को जानने वाली दो आँखें हैं—द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक (या निश्चय व व्यवहार)। इनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके, जब केवल द्रव्यार्थिक (निश्चय) चक्षु के द्वारा देखा जाता है, तब ‘वह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है। और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके, केवल पर्यायार्थिक (व्यवहार) चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब वह जीव द्रव्य (नारक तिर्यक् आदि रूप) अन्य अन्य प्रतिभासित होता है। और जब उन दोनों आँखों को एक ही साथ खोलकर देखा जाता है तब जीव सामान्य तथा उसमें व्यवस्थित (नारक तिर्यक् आदि) विशेष भी तुल्यकाल में ही दिखाई देते हैं। वहाँ एक आँख से देखना एकदेशावलोकन है और दोनों आँखों से देखना सर्वावलोकन है। इसलिए सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व व अनन्यत्व विरोध को प्राप्त नहीं होते। (विशेष देखें नय - I.2) (समयसार / तात्पर्यवृत्ति/114/174/11)।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/187 ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन जानंति ते खलु महांत: समस्तशास्त्रहृदयवेदिन: परमानंदवीतरागसुखाभिलाषिण:...शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवंतीति। =इस भागवत शास्त्र को जो निश्चय और व्यवहार नय के अविरोध से जानते हैं वे महापुरुष, समस्त अध्यात्म शास्त्रों के हृदय को जानने वाले और परमानंदरूप वीतराग सुख के अभिलाषी, शाश्वत सुख के भोक्ता होते हैं। और भी देखो - अन्य नय का निषेध करने वाले सभी नय मिथ्या हैं !
- दोनों की सापेक्षता के उदाहरण
देखें - उपयोग - II.3 व अनुभव - 5.8 - सम्यग्दृष्टि जीवों को अल्पभूमिकाओं में शुभोपयोग (व्यवहार रूप शुभोपयोग) के साथ-साथ शुद्धोपयोग का अंश विद्यमान रहता है।
देखें - साधक दशा में जीव की प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति का अंश भी विद्यमान रहता है, इसलिए उसे आस्रव व संवर दोनों एक साथ होते हैं।
देखें संयम यद्यपि एक ही प्रकार का है, पर समता व व्रतादिरूप अंतरंग व बाह्य चारित्र की युगपतता के कारण सामायिक व छेदोपस्थापना ऐसे दो भेदरूप कहा जाता है।
देखें - आत्मा यद्यपि एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञायकभाव मात्र है, पर वही आत्मा व्यवहार की विवक्षा से दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप कहा जाता है।
देखें मोक्षमार्ग यद्यपि एक व अभेद ही है, फिर भी विवक्षावश उसे निश्चय व व्यवहार ऐसे दो भेदरूप कहा जाता है।
नोट–(इसी प्रकार अन्य भी अनेक विषयों में जहाँ-जहाँ निश्चय व्यवहार का विकल्प संभव है वहाँ-वहाँ यही समाधान है।) - इसलिए दोनों ही नय उपादेय हैं
देखें - दोनों ही नय प्रयोजनीय हैं, क्योंकि व्यवहार नय के बिना तीर्थ का नाश हो जाता है और निश्चय के बिना तत्त्व के स्वरूप का नाश हो जाता है।
देखें - जिस प्रकार सम्यक् व्यवहार से मिथ्या व्यवहार की निवृत्ति होती है, उसी प्रकार सम्यक् निश्चय से उस व्यवहार की भी निवृत्ति हो जाती है।
देखें - साधक पहले सविकल्प दशा में व्यवहार मार्गी होता है और पीछे निर्विकल्प दशा में निश्चयमार्गी हो जाता है।
देखें - अशुभ प्रवृत्ति को रोकने के लिए पहले व्यवहार धर्म का ग्रहण होता है। पीछे निश्चय धर्म में स्थित होकर मोक्षलाभ करता है।
- दोनों नयों के विषय विरोध निर्देश
- निश्चयनय निर्देश
पुराणकोष से
(1) वस्तु के अनेक धर्मों में विवक्षानुसार किसी एक धर्म का बोधक ज्ञान । इसके दो भेद है― द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । इनमें द्रव्यार्थिक यथार्थ और पर्यायार्थिक अयथार्थ है । ये ही दो मूल नय है और परस्पर सापेक्ष हैं । वैसे नय सात होते हैं― नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । इन सात नयों में आरंभ के तीन द्रव्यार्थिक और शेष चार पर्यायार्थिक नय हैं । निश्चय और व्यवहार इन दो भेदों से भी नय का कथन होता है । महापुराण 2. 101 पद्मपुराण - 105.143, हरिवंशपुराण - 58.39-42
(2) यादवों का पक्षधर एक राजा । हरिवंशपुराण - 50.121