योग का स्वामित्व व तत्संबंधी शंकाएँ: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> योग का स्वामित्व व तत्संबंधी शंकाएँ</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> योगों में संभव गुणस्थान निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1, 1/ </span>सू. 50-65/282-308<span class="PrakritText"> मणजोगो सच्चमणजोगो असच्चमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।50। मोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव खीण-कसायवीयराय-छदुमत्था त्ति ।51। वचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो बीइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।53। सच्चवचिजोगो सणिणमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।54। मोसवचिजोगो सच्चमोसवचिजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव खीणकसाय-वीयराय-छदुमत्था त्ति ।55। कायजोगो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो एइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।61। वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति ।62। आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो एक्कम्हि चेव पमत्त-संजदट्-ठाणे ।63। कम्मइयकायजोगो एइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।64। मणजोगो वचिजोगो कायजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।65।</span> = | <span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1, 1/ </span>सू. 50-65/282-308<span class="PrakritText"> मणजोगो सच्चमणजोगो असच्चमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।50। मोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव खीण-कसायवीयराय-छदुमत्था त्ति ।51। वचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो बीइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।53। सच्चवचिजोगो सणिणमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।54। मोसवचिजोगो सच्चमोसवचिजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव खीणकसाय-वीयराय-छदुमत्था त्ति ।55। कायजोगो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो एइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।61। वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति ।62। आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो एक्कम्हि चेव पमत्त-संजदट्-ठाणे ।63। कम्मइयकायजोगो एइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।64। मणजोगो वचिजोगो कायजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।65।</span> = | ||
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<li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> गुणस्थानों में संभव योग</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> गुणस्थानों में संभव योग</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/5/328 )</span>, <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/704/1140 )</span>, (पं. सं./सं./5/358) । <br /> | |||
गुणस्थान संभव योग असंभव योग के नाम <br /> | गुणस्थान संभव योग असंभव योग के नाम <br /> | ||
मिथ्यादृष्टि 13 आहारक, आहारक मिश्र = 2 <br /> | मिथ्यादृष्टि 13 आहारक, आहारक मिश्र = 2 <br /> | ||
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सयोगि 7 वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र, असत्य व उभय मनोवचनयोग = 8 <br /> | सयोगि 7 वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र, असत्य व उभय मनोवचनयोग = 8 <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">योगों में संभव जीवसमास</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1, 1/ </span>सू. 66-78/309-317<span class="PrakritText"> वचिजोगो कायजोगो बीइंदियप्पहुडि जाव असण्णिपंचिंदिया त्ति ।66। कायजोगो एइंदियाणं ।67। मणजोगो वचिजोगो पज्जत्ताणं अत्थि, अपज्जत्ताणं णत्थि ।68। कायजोगो पज्जत्ताणं वि अत्थि, अपज्जत्ताणं वि अत्थि ।69। ओरालियकायजोगो पज्जत्ताणं ओरालियमिस्सकायजोगो अप्पज्जत्ताणं ।76। वेउव्वियकायजोगो पज्जत्ताणं वेउव्वियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ।77। आहारककायजोगो पज्जत्ताणं आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ।78। </span>=<span class="HindiText"> वचनयोग और काययोग द्वींद्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पंचेंद्रिय जीवों तक होते हैं ।66। काययोग एकेंद्रिय जीवों के होता है ।67। मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तकों के ही होते हैं, अपर्याप्तकों के नहीं होते ।58। काययोग पर्याप्तकों के भी होता है ।69। अपर्याप्तकों के भी होता है, औदारिक काययोग पर्याप्तकों के और औदारिक मिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है ।76। वैक्रियक काययोग पर्याप्तकों के और वैक्रियकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है ।77। आहारक काययोग पर्याप्तकों के और आहारक मिश्र काय योग अपर्याप्तकों के होता है ।78। (मू. आ./1127); | <span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1, 1/ </span>सू. 66-78/309-317<span class="PrakritText"> वचिजोगो कायजोगो बीइंदियप्पहुडि जाव असण्णिपंचिंदिया त्ति ।66। कायजोगो एइंदियाणं ।67। मणजोगो वचिजोगो पज्जत्ताणं अत्थि, अपज्जत्ताणं णत्थि ।68। कायजोगो पज्जत्ताणं वि अत्थि, अपज्जत्ताणं वि अत्थि ।69। ओरालियकायजोगो पज्जत्ताणं ओरालियमिस्सकायजोगो अप्पज्जत्ताणं ।76। वेउव्वियकायजोगो पज्जत्ताणं वेउव्वियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ।77। आहारककायजोगो पज्जत्ताणं आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ।78। </span>=<span class="HindiText"> वचनयोग और काययोग द्वींद्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पंचेंद्रिय जीवों तक होते हैं ।66। काययोग एकेंद्रिय जीवों के होता है ।67। मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तकों के ही होते हैं, अपर्याप्तकों के नहीं होते ।58। काययोग पर्याप्तकों के भी होता है ।69। अपर्याप्तकों के भी होता है, औदारिक काययोग पर्याप्तकों के और औदारिक मिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है ।76। वैक्रियक काययोग पर्याप्तकों के और वैक्रियकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है ।77। आहारक काययोग पर्याप्तकों के और आहारक मिश्र काय योग अपर्याप्तकों के होता है ।78। (मू. आ./1127); <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/4/11-15 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/679-684/1122-1125 )</span> । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> पर्याप्त व अपर्याप्त में मन, वचनयोग संबंधी शंका</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 68/310/4 </span><span class="SanskritText">क्षयोपशमापेक्षया अपर्याप्तकालेऽपि तयोः सत्त्वं न विरोधमास्कंदेदिति चेन्न, वाङ्मनसाभ्यामनिष्पन्नस्य तद्योगानुपपत्तेः । पर्याप्तानामपि विरुद्धयोगमध्यासितावस्थायां नास्त्येवेति चेन्न, संभवापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात्, तच्छक्तिसत्त्वापेक्षया वा । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>क्षयोपशमकी अपेक्षा अपर्याप्त काल में भी वचनयोग और मनोयोग का पाया जाना विरोध को प्राप्त नहीं होता है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि जो क्षयोपशम वचनयोग और मनोयोग रूप से उत्पन्न नहीं हुआ है, उसे योग संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती है । <strong>प्रश्न−</strong>पर्याप्तक जीवों के भी विरुद्ध योग को प्राप्त होने रूप अवस्था के होने पर विवक्षित योग नहीं पाया जाता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि पर्याप्त अवस्था में किसी एक योग के रहने पर शेष योग संभव है, इसलिए इस अपेक्षा से वहाँ पर उनके अस्तित्व का कथन किया जाता है । अथवा उस समय वे योग शक्तिरूप से विद्यमान रहते हैं, इसलिए इस अपेक्षा से उनका अस्तित्व कहा जाता है । <br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 68/310/4 </span><span class="SanskritText">क्षयोपशमापेक्षया अपर्याप्तकालेऽपि तयोः सत्त्वं न विरोधमास्कंदेदिति चेन्न, वाङ्मनसाभ्यामनिष्पन्नस्य तद्योगानुपपत्तेः । पर्याप्तानामपि विरुद्धयोगमध्यासितावस्थायां नास्त्येवेति चेन्न, संभवापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात्, तच्छक्तिसत्त्वापेक्षया वा । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>क्षयोपशमकी अपेक्षा अपर्याप्त काल में भी वचनयोग और मनोयोग का पाया जाना विरोध को प्राप्त नहीं होता है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि जो क्षयोपशम वचनयोग और मनोयोग रूप से उत्पन्न नहीं हुआ है, उसे योग संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती है । <strong>प्रश्न−</strong>पर्याप्तक जीवों के भी विरुद्ध योग को प्राप्त होने रूप अवस्था के होने पर विवक्षित योग नहीं पाया जाता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि पर्याप्त अवस्था में किसी एक योग के रहने पर शेष योग संभव है, इसलिए इस अपेक्षा से वहाँ पर उनके अस्तित्व का कथन किया जाता है । अथवा उस समय वे योग शक्तिरूप से विद्यमान रहते हैं, इसलिए इस अपेक्षा से उनका अस्तित्व कहा जाता है । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> मनोयोगी में भाषा व शरीर पर्याप्ति की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1, 1/628/9 </span><span class="PrakritText">केई वचिकायपाणे अवणेंति, तण्ण घडदे; तेसिं सत्ति - संभवादो । वचि - कायबलणिमित्त-पुग्गल-खंधस्स अत्थित्तं पेक्खिअ पज्जत्तीओ होंति त्ति सरीर-वचि पज्जत्तीओ अत्थि ।</span> =<span class="HindiText"> कितने ही आचार्य मनोयोगियों के दश प्राणों में से वचन और कायप्राण कम करते हैं, किंतु उनका वैसा करना घटित नहीं होता है, क्योंकि मनोयोगी जीवों के वचनबल और कायबल इन दो प्राणों की शक्ति पायी जाती है, इसलिए ये दो प्राण उनके बन जाते हैं । उसी प्रकार वचनबल और कायबल प्राण के निमित्तभूत पुद्गलस्कंध का अस्तित्व देखा जाने से उनके उक्त दोनों पर्याप्तियाँ भी पायी जाती हैं, इसलिए उक्त दोनों पर्याप्तियाँ भी उनके बन जाती हैं । <br /> | <span class="GRef"> धवला 2/1, 1/628/9 </span><span class="PrakritText">केई वचिकायपाणे अवणेंति, तण्ण घडदे; तेसिं सत्ति - संभवादो । वचि - कायबलणिमित्त-पुग्गल-खंधस्स अत्थित्तं पेक्खिअ पज्जत्तीओ होंति त्ति सरीर-वचि पज्जत्तीओ अत्थि ।</span> =<span class="HindiText"> कितने ही आचार्य मनोयोगियों के दश प्राणों में से वचन और कायप्राण कम करते हैं, किंतु उनका वैसा करना घटित नहीं होता है, क्योंकि मनोयोगी जीवों के वचनबल और कायबल इन दो प्राणों की शक्ति पायी जाती है, इसलिए ये दो प्राण उनके बन जाते हैं । उसी प्रकार वचनबल और कायबल प्राण के निमित्तभूत पुद्गलस्कंध का अस्तित्व देखा जाने से उनके उक्त दोनों पर्याप्तियाँ भी पायी जाती हैं, इसलिए उक्त दोनों पर्याप्तियाँ भी उनके बन जाती हैं । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6">अप्रमत्त व ध्यानस्थ जीवों के असत्य मनोयोग कैसे</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 51/285/7 </span><span class="SanskritText">भवतु नाम क्षपकोपशमकानां सत्यस्यासत्यमोषस्य च सत्त्वं नेतरयोरप्रमादस्य प्रमादविरोधित्वादिति न, रजोजुषां विपर्ययानध्यवसायाज्ञानकारणमनसः सत्त्वाविरोधात् । न च तद्योगात्प्रमादिनस्ते प्रमादस्य मोहपर्यायत्वात् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>क्षपक और उपशमक जीवों के सत्यमनोयोग और अनुभय मनोयोग का सद्भाव रहा आवे, परंतु बाकी के दो अर्थात् असत्य मनोयोग और उभयमनोयोग का सद्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि इन दोनों में रहने वाला अप्रमाद असत्य और उभय मन के कारणभूत प्रमाद का विरोधी है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से युक्त जीवों के विपर्यय और अनध्यवसायरूप अज्ञान के कारणभूत मन के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है । परंतु इसके संबंध से क्षपक या उपशम जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि प्रमाद मोह की पर्याय है । </span><br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 51/285/7 </span><span class="SanskritText">भवतु नाम क्षपकोपशमकानां सत्यस्यासत्यमोषस्य च सत्त्वं नेतरयोरप्रमादस्य प्रमादविरोधित्वादिति न, रजोजुषां विपर्ययानध्यवसायाज्ञानकारणमनसः सत्त्वाविरोधात् । न च तद्योगात्प्रमादिनस्ते प्रमादस्य मोहपर्यायत्वात् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>क्षपक और उपशमक जीवों के सत्यमनोयोग और अनुभय मनोयोग का सद्भाव रहा आवे, परंतु बाकी के दो अर्थात् असत्य मनोयोग और उभयमनोयोग का सद्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि इन दोनों में रहने वाला अप्रमाद असत्य और उभय मन के कारणभूत प्रमाद का विरोधी है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से युक्त जीवों के विपर्यय और अनध्यवसायरूप अज्ञान के कारणभूत मन के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है । परंतु इसके संबंध से क्षपक या उपशम जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि प्रमाद मोह की पर्याय है । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 55/289/9 </span><span class="SanskritText">क्षीणकषायस्य वचनं कथमसत्यमिति चेन्न, असत्यनिबंधनाज्ञानसत्त्वापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात् । तत एव नोभयसंयोगोऽपि विरुद्ध इति । वाचंयमस्य क्षीणकषायस्य कथं वाग्योगश्चेन्न, तत्रांतर्जल्पस्य सत्त्वाविरोधात् । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>जिसकी कषाय क्षीण हो गयी है उसके वचन असत्य कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर−</strong>ऐसी शंका व्यर्थ है, क्योंकि असत्य वचन का कारण अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, इस अपेक्षा से वहाँ पर असत्य वचन के सद्भाव का प्रतिपादन किया है और इसीलिए उभय संयोगज सत्यमृषा वचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नहीं आता है । <strong>प्रश्न−</strong>वचन गुप्ति का पूरी तरह से पालन करने वाले कषायरहित जीवों के वचनयोग कैसे संभव है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि कषायरहित जीवों में अंतर्जल्प के पाये जाने में कोई विरोध नहीं आता है । </span><br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 55/289/9 </span><span class="SanskritText">क्षीणकषायस्य वचनं कथमसत्यमिति चेन्न, असत्यनिबंधनाज्ञानसत्त्वापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात् । तत एव नोभयसंयोगोऽपि विरुद्ध इति । वाचंयमस्य क्षीणकषायस्य कथं वाग्योगश्चेन्न, तत्रांतर्जल्पस्य सत्त्वाविरोधात् । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>जिसकी कषाय क्षीण हो गयी है उसके वचन असत्य कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर−</strong>ऐसी शंका व्यर्थ है, क्योंकि असत्य वचन का कारण अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, इस अपेक्षा से वहाँ पर असत्य वचन के सद्भाव का प्रतिपादन किया है और इसीलिए उभय संयोगज सत्यमृषा वचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नहीं आता है । <strong>प्रश्न−</strong>वचन गुप्ति का पूरी तरह से पालन करने वाले कषायरहित जीवों के वचनयोग कैसे संभव है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि कषायरहित जीवों में अंतर्जल्प के पाये जाने में कोई विरोध नहीं आता है । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1, 1/434/6 </span><span class="PrakritText">ज्झाणीणमपुव्वकरणाणं भवदु णाम वचिंबलस्स अत्थित्तं भासापज्जत्ति-सण्णिद-पोग्गल-खंज-जणिद-सत्ति-सब्भावादो । ण पुण वचिजोगो कायजोगो वा इदि । न, अंतर्जल्पप्रयत्नस्य कायगतसूक्ष्मप्रयत्नस्य च तत्र सत्त्वात् । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>ध्यान में लीन अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के वचनबल का सद्भाव भले हो रहा आवे, क्योंकि भाषा पर्याप्ति नामक पौद्गलिक स्कंधों से उत्पन्न हुई शक्ति का उनके सद्भाव पाया जाता है किंतु उनके वचनयोग या काययोग का सद्भाव नहीं मानना चाहिए ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि ध्यान अवस्था में भी अंतर्जल्प के लिए प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत-सूक्ष्म प्रयत्नरूप काययोग का सत्त्व अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के पाया ही जाता है, इसलिए वहाँ वचन योग और काययोग भी संभव है । <br /> | <span class="GRef"> धवला 2/1, 1/434/6 </span><span class="PrakritText">ज्झाणीणमपुव्वकरणाणं भवदु णाम वचिंबलस्स अत्थित्तं भासापज्जत्ति-सण्णिद-पोग्गल-खंज-जणिद-सत्ति-सब्भावादो । ण पुण वचिजोगो कायजोगो वा इदि । न, अंतर्जल्पप्रयत्नस्य कायगतसूक्ष्मप्रयत्नस्य च तत्र सत्त्वात् । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>ध्यान में लीन अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के वचनबल का सद्भाव भले हो रहा आवे, क्योंकि भाषा पर्याप्ति नामक पौद्गलिक स्कंधों से उत्पन्न हुई शक्ति का उनके सद्भाव पाया जाता है किंतु उनके वचनयोग या काययोग का सद्भाव नहीं मानना चाहिए ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि ध्यान अवस्था में भी अंतर्जल्प के लिए प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत-सूक्ष्म प्रयत्नरूप काययोग का सत्त्व अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के पाया ही जाता है, इसलिए वहाँ वचन योग और काययोग भी संभव है । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> समुद्धातगत जीवों में वचनयोग कैसे</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1, 3, 29/102/7, 10 </span><span class="PrakritText"> वेउविव्वसमुग्घादगदाणं कधं मणजोग-वचिजोगाणं संभवो । ण, तेसिं पि णिप्पण्णुत्तरसरीराणं मणजोगवचिजोगाणं परावत्तिसंभवादो ।7। मारणंतियसमुग्घादगदाणं असंखेज्जजोयणायामेण ठिदाणं मुच्छिदाणं कधं मण-वचिजोगसंभवो । ण, कारणाभावादो अवत्ताणं णिब्भरसुत्तजीवाणं व तेसिं तत्थ संभवं पडिविरोहाभावादो ।10। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong>वैक्रियिक समुद्घात को प्राप्त जीवों के मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि निष्पन्न हुआ है विक्रियात्मक उत्तर शरीर जिनके ऐसे जीवों के मनोयोग और वचनयोगों का परिवर्तन संभव है । <strong>प्रश्न−</strong>मारणांतिक समुद्घात को प्राप्त, असंख्यात योजन आयाम से स्थित और मूर्च्छित हुए संज्ञी जीवों के मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि बाधक कारण के अभाव होने से निर्भर (भरपूर) सोते हुए जीवों के समान अव्यक्त मनोयोग और वचनयोग मारणांतिक समुद्घातगत मूर्च्छित अवस्था में भी संभव हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है । <br /> | <span class="GRef"> धवला 4/1, 3, 29/102/7, 10 </span><span class="PrakritText"> वेउविव्वसमुग्घादगदाणं कधं मणजोग-वचिजोगाणं संभवो । ण, तेसिं पि णिप्पण्णुत्तरसरीराणं मणजोगवचिजोगाणं परावत्तिसंभवादो ।7। मारणंतियसमुग्घादगदाणं असंखेज्जजोयणायामेण ठिदाणं मुच्छिदाणं कधं मण-वचिजोगसंभवो । ण, कारणाभावादो अवत्ताणं णिब्भरसुत्तजीवाणं व तेसिं तत्थ संभवं पडिविरोहाभावादो ।10। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong>वैक्रियिक समुद्घात को प्राप्त जीवों के मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि निष्पन्न हुआ है विक्रियात्मक उत्तर शरीर जिनके ऐसे जीवों के मनोयोग और वचनयोगों का परिवर्तन संभव है । <strong>प्रश्न−</strong>मारणांतिक समुद्घात को प्राप्त, असंख्यात योजन आयाम से स्थित और मूर्च्छित हुए संज्ञी जीवों के मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि बाधक कारण के अभाव होने से निर्भर (भरपूर) सोते हुए जीवों के समान अव्यक्त मनोयोग और वचनयोग मारणांतिक समुद्घातगत मूर्च्छित अवस्था में भी संभव हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> असंज्ञी जीवों में असत्य व अनुभय वचनयोग कैसे</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 53/287/4 </span><span class="SanskritText">असत्यमोषमनोनिबंधनवचनमसत्यमोषवचनमिति प्रागुक्तम्, तद् द्वींद्रियादीनां मनोरहितानां कथं भवेदिति नायमेकांतोऽस्ति सकलवचनानि मनस एव समुत्पद्यंत इति मनोरहितकेवलिनां वचनाभावसंजननात् । विकलेंद्रियाणां मनसा विना न ज्ञानसमुत्पत्तिः । ज्ञानेन विना न वचनप्रवृत्तिरिति चेन्न, मनस एव ज्ञानमुत्पद्यत इत्येकांताभावात् । भावे वा नाशेषेंद्रियेभ्यो ज्ञानसमुत्पत्तिः मनसः समुत्पन्नत्वात् । नैतदपि दृष्टश्रुतानुभूतविषयस्य मानसप्रत्ययस्यान्यत्र वृत्तिविरोधात् । न चक्षुरादीनां सहकार्यपि प्रयत्नात्मसहकारिभ्यः इंद्रियेभ्यस्तदुत्पत्त्युपलंभात् । समनस्केषु ज्ञातस्य प्रादुर्भावो मनोयोगादेवेति चेन्न केवलज्ञानेन व्यभिचारात् । समनस्कानां यत्क्षायोपशमिकं ज्ञानं तन्मनोयोगात्स्यादिति चेन्न, इष्टत्वात् । मनोयोगाद्वचनमुत्पद्यत इति प्रागुक्तं तत्कथं घटत इति चेन्न, उपचारेण तत्र मानसस्य ज्ञानस्य मन इति संज्ञा विधायोक्तत्वात् कथं विकलेंद्रियवचसोऽसत्यमोषत्वमिति चेदनध्यवसायहेतुत्वात् । ध्वनिविषयोऽध्यवसायः समुपलभ्यत इति चेन्न, वक्तुरभिप्रायविषयाध्यवसायाभावस्य विवक्षित्वात् । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>अनुभय रूप मन के निमित्त से जो वचन उत्पन्न होते हैं, उन्हें अनुभय वचन कहते हैं । यह बात पहले कही जा चुकी है । ऐसी हालत में मन रहित द्वींद्रियादिक जीवों के अनुभय वचन कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर−</strong>यह कोई एकांत नहीं है कि संपूर्ण वचन मन से ही उत्पन्न होते हैं, यदि संपूर्ण वचनों की उत्पत्ति मन से ही मान ली जावे तो मन रहित केवलियों के वचनों का अभाव प्राप्त हो जायेगा । <strong>प्रश्न−</strong>विकलेंद्रिय जीवों के मन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और ज्ञान के बिना वचनों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है ? <strong>उत्तर−</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह कोई एकांत नहीं है । यदि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह एकांत मान लिया जाता है तो संपूर्ण इंद्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि संपूर्ण ज्ञान की उत्पत्ति मन से मानते हो । अथवा मन से समुत्पन्नत्वरूप धर्म इंद्रियों में रह भी तो नहीं सकता है, क्योंकि दृष्ट, श्रुत और अनुभूत को विषय करने वाले मानस ज्ञान का दूसरी जगह सद्भाव मानने में विरोध आता है । यदि मन को चक्षु आदि इंद्रियों का सहकारी कारण माना जावे सो भी नहीं बनता है, क्योंकि प्रयत्न और आत्मा के सहकार की अपेक्षा रखने वाली इंद्रियों से इंद्रियज्ञान की उत्पत्ति पायी जाती है । <strong>प्रश्न−</strong>समनस्क जीवों में तो ज्ञान की उत्पत्ति मनोयोग से ही होती है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर केवलज्ञान से व्यभिचार आता है । <strong>प्रश्न−</strong>तो फिर ऐसा माना जाये कि समनस्क जीवों के जो क्षायोपशमिक ज्ञान होता है वह मनोयोग से होता है ? <strong>उत्तर−</strong>यह कोई शंका नहीं, क्योंकि यह तो इष्ट ही है । <strong>प्रश्न−</strong>मनोयोग से वचन उत्पन्न होते हैं, यह जो पहले कहा जा चुका है वह कैसे घटित होता है ? <strong>उत्तर−</strong>यह शंका कोई दोषजनक नहीं है, क्योंकि ‘मनोयोग से वचन उत्पन्न होते हैं’ यहाँ पर मानस ज्ञान को ‘मन’ यह संज्ञा उपचार से रखकर कथन किया है । <strong>प्रश्न−</strong>विकलेंद्रियों के वचनों में अनुभयपना कैसे आ सकता है ? <strong>उत्तर−</strong>विकलेंद्रियों के वचन अनध्यवसायरूप ज्ञान के कारण हैं, इसलिए उन्हें अनुभय रूप कहा गया है । <strong>प्रश्न−</strong>उनके वचनों में ध्वनि विषयक अध्यवसाय अर्थात् निश्चय, तो पाया जाता है, फिर उन्हें अनध्यवसाय का कारण क्यों कहा जाये ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि यहाँ पर अनध्यवसाय से वक्ता का अभिप्राय विषयक अध्यवसाय का अभाव विवक्षित है । </span></li> | <span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 53/287/4 </span><span class="SanskritText">असत्यमोषमनोनिबंधनवचनमसत्यमोषवचनमिति प्रागुक्तम्, तद् द्वींद्रियादीनां मनोरहितानां कथं भवेदिति नायमेकांतोऽस्ति सकलवचनानि मनस एव समुत्पद्यंत इति मनोरहितकेवलिनां वचनाभावसंजननात् । विकलेंद्रियाणां मनसा विना न ज्ञानसमुत्पत्तिः । ज्ञानेन विना न वचनप्रवृत्तिरिति चेन्न, मनस एव ज्ञानमुत्पद्यत इत्येकांताभावात् । भावे वा नाशेषेंद्रियेभ्यो ज्ञानसमुत्पत्तिः मनसः समुत्पन्नत्वात् । नैतदपि दृष्टश्रुतानुभूतविषयस्य मानसप्रत्ययस्यान्यत्र वृत्तिविरोधात् । न चक्षुरादीनां सहकार्यपि प्रयत्नात्मसहकारिभ्यः इंद्रियेभ्यस्तदुत्पत्त्युपलंभात् । समनस्केषु ज्ञातस्य प्रादुर्भावो मनोयोगादेवेति चेन्न केवलज्ञानेन व्यभिचारात् । समनस्कानां यत्क्षायोपशमिकं ज्ञानं तन्मनोयोगात्स्यादिति चेन्न, इष्टत्वात् । मनोयोगाद्वचनमुत्पद्यत इति प्रागुक्तं तत्कथं घटत इति चेन्न, उपचारेण तत्र मानसस्य ज्ञानस्य मन इति संज्ञा विधायोक्तत्वात् कथं विकलेंद्रियवचसोऽसत्यमोषत्वमिति चेदनध्यवसायहेतुत्वात् । ध्वनिविषयोऽध्यवसायः समुपलभ्यत इति चेन्न, वक्तुरभिप्रायविषयाध्यवसायाभावस्य विवक्षित्वात् । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>अनुभय रूप मन के निमित्त से जो वचन उत्पन्न होते हैं, उन्हें अनुभय वचन कहते हैं । यह बात पहले कही जा चुकी है । ऐसी हालत में मन रहित द्वींद्रियादिक जीवों के अनुभय वचन कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर−</strong>यह कोई एकांत नहीं है कि संपूर्ण वचन मन से ही उत्पन्न होते हैं, यदि संपूर्ण वचनों की उत्पत्ति मन से ही मान ली जावे तो मन रहित केवलियों के वचनों का अभाव प्राप्त हो जायेगा । <strong>प्रश्न−</strong>विकलेंद्रिय जीवों के मन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और ज्ञान के बिना वचनों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है ? <strong>उत्तर−</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह कोई एकांत नहीं है । यदि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह एकांत मान लिया जाता है तो संपूर्ण इंद्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि संपूर्ण ज्ञान की उत्पत्ति मन से मानते हो । अथवा मन से समुत्पन्नत्वरूप धर्म इंद्रियों में रह भी तो नहीं सकता है, क्योंकि दृष्ट, श्रुत और अनुभूत को विषय करने वाले मानस ज्ञान का दूसरी जगह सद्भाव मानने में विरोध आता है । यदि मन को चक्षु आदि इंद्रियों का सहकारी कारण माना जावे सो भी नहीं बनता है, क्योंकि प्रयत्न और आत्मा के सहकार की अपेक्षा रखने वाली इंद्रियों से इंद्रियज्ञान की उत्पत्ति पायी जाती है । <strong>प्रश्न−</strong>समनस्क जीवों में तो ज्ञान की उत्पत्ति मनोयोग से ही होती है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर केवलज्ञान से व्यभिचार आता है । <strong>प्रश्न−</strong>तो फिर ऐसा माना जाये कि समनस्क जीवों के जो क्षायोपशमिक ज्ञान होता है वह मनोयोग से होता है ? <strong>उत्तर−</strong>यह कोई शंका नहीं, क्योंकि यह तो इष्ट ही है । <strong>प्रश्न−</strong>मनोयोग से वचन उत्पन्न होते हैं, यह जो पहले कहा जा चुका है वह कैसे घटित होता है ? <strong>उत्तर−</strong>यह शंका कोई दोषजनक नहीं है, क्योंकि ‘मनोयोग से वचन उत्पन्न होते हैं’ यहाँ पर मानस ज्ञान को ‘मन’ यह संज्ञा उपचार से रखकर कथन किया है । <strong>प्रश्न−</strong>विकलेंद्रियों के वचनों में अनुभयपना कैसे आ सकता है ? <strong>उत्तर−</strong>विकलेंद्रियों के वचन अनध्यवसायरूप ज्ञान के कारण हैं, इसलिए उन्हें अनुभय रूप कहा गया है । <strong>प्रश्न−</strong>उनके वचनों में ध्वनि विषयक अध्यवसाय अर्थात् निश्चय, तो पाया जाता है, फिर उन्हें अनध्यवसाय का कारण क्यों कहा जाये ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि यहाँ पर अनध्यवसाय से वक्ता का अभिप्राय विषयक अध्यवसाय का अभाव विवक्षित है । </span></li> | ||
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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
- योग का स्वामित्व व तत्संबंधी शंकाएँ
- योगों में संभव गुणस्थान निर्देश
षट्खंडागम 1/1, 1/ सू. 50-65/282-308 मणजोगो सच्चमणजोगो असच्चमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।50। मोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव खीण-कसायवीयराय-छदुमत्था त्ति ।51। वचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो बीइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।53। सच्चवचिजोगो सणिणमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।54। मोसवचिजोगो सच्चमोसवचिजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव खीणकसाय-वीयराय-छदुमत्था त्ति ।55। कायजोगो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो एइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।61। वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति ।62। आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो एक्कम्हि चेव पमत्त-संजदट्-ठाणे ।63। कम्मइयकायजोगो एइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।64। मणजोगो वचिजोगो कायजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।65। =- सामान्य से मनोयोग और विशेष रूप से सत्य मनोयोग तथा असत्यमृषा मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यंत होते हैं ।50। असत्य मनोयोग और उभय मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक पाये जाते हैं ।51।
- सामान्य से वचनयोग और विशेष रूप से अनुभय वचनयोग द्वींद्रिय जीवों से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है ।53। सत्य वचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है ।54। मृषावचनयोग और सत्यमृषावचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ-गुणस्थान तक पाये जाते हैं ।55।
- सामान्य से काययोग और विशेष की अपेक्षा औदारिक काययोग और औदारिक मिश्र काययोग एकेंद्रिय से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं ।61। वैक्रियक काययोग और वैक्रियक मिश्र काययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक होते हैं ।62। आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग एक प्रमत्त गुणस्थान में ही होते हैं ।63। कार्मणकाययोग एकेंद्रिय जीवों से लेकर सयोगिकेवली तक होता है ।64।
- तीनों योग - मनोयोग, वचनयोग और काययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली तक होते हैं ।65। क्षीणकषाय गुणस्थान में भी निष्काम क्रिया संभव है ।−देखें अभिलाषा ।
- गुणस्थानों में संभव योग
( पंचसंग्रह / प्राकृत/5/328 ), ( गोम्मटसार जीवकांड/704/1140 ), (पं. सं./सं./5/358) ।
गुणस्थान संभव योग असंभव योग के नाम
मिथ्यादृष्टि 13 आहारक, आहारक मिश्र = 2
सासादन ’’ ’’
मिश्र 10 आहारक, आहारक मिश्र, औदारिक, वैक्रियकमिश्र कार्मण = 5
असंयत 13 आहारक व आहारक मिश्र = 2
देशविरत 9 औदारिक मिश्र, वैक्रियक व वैक्रियक मिश्र, आहारक व आहारक मिश्र, कार्मण =
प्रमत्त 11 औदारिक मिश्र, वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, कार्मण = 4
अप्रमत्त 9 देशविरतवत्
अपूर्वकरण ’’ ’’
अनिवृत्ति ’’ ’’
सूक्ष्म सा. ’’ ’’
उपशांत ’’ ’’
क्षीणकषाय ’’ ’’
सयोगि 7 वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र, असत्य व उभय मनोवचनयोग = 8
- योगों में संभव जीवसमास
षट्खंडागम 1/1, 1/ सू. 66-78/309-317 वचिजोगो कायजोगो बीइंदियप्पहुडि जाव असण्णिपंचिंदिया त्ति ।66। कायजोगो एइंदियाणं ।67। मणजोगो वचिजोगो पज्जत्ताणं अत्थि, अपज्जत्ताणं णत्थि ।68। कायजोगो पज्जत्ताणं वि अत्थि, अपज्जत्ताणं वि अत्थि ।69। ओरालियकायजोगो पज्जत्ताणं ओरालियमिस्सकायजोगो अप्पज्जत्ताणं ।76। वेउव्वियकायजोगो पज्जत्ताणं वेउव्वियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ।77। आहारककायजोगो पज्जत्ताणं आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ।78। = वचनयोग और काययोग द्वींद्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पंचेंद्रिय जीवों तक होते हैं ।66। काययोग एकेंद्रिय जीवों के होता है ।67। मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तकों के ही होते हैं, अपर्याप्तकों के नहीं होते ।58। काययोग पर्याप्तकों के भी होता है ।69। अपर्याप्तकों के भी होता है, औदारिक काययोग पर्याप्तकों के और औदारिक मिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है ।76। वैक्रियक काययोग पर्याप्तकों के और वैक्रियकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है ।77। आहारक काययोग पर्याप्तकों के और आहारक मिश्र काय योग अपर्याप्तकों के होता है ।78। (मू. आ./1127); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/4/11-15 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/679-684/1122-1125 ) ।
- पर्याप्त व अपर्याप्त में मन, वचनयोग संबंधी शंका
धवला 1/1, 1, 68/310/4 क्षयोपशमापेक्षया अपर्याप्तकालेऽपि तयोः सत्त्वं न विरोधमास्कंदेदिति चेन्न, वाङ्मनसाभ्यामनिष्पन्नस्य तद्योगानुपपत्तेः । पर्याप्तानामपि विरुद्धयोगमध्यासितावस्थायां नास्त्येवेति चेन्न, संभवापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात्, तच्छक्तिसत्त्वापेक्षया वा । = प्रश्न−क्षयोपशमकी अपेक्षा अपर्याप्त काल में भी वचनयोग और मनोयोग का पाया जाना विरोध को प्राप्त नहीं होता है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि जो क्षयोपशम वचनयोग और मनोयोग रूप से उत्पन्न नहीं हुआ है, उसे योग संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती है । प्रश्न−पर्याप्तक जीवों के भी विरुद्ध योग को प्राप्त होने रूप अवस्था के होने पर विवक्षित योग नहीं पाया जाता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि पर्याप्त अवस्था में किसी एक योग के रहने पर शेष योग संभव है, इसलिए इस अपेक्षा से वहाँ पर उनके अस्तित्व का कथन किया जाता है । अथवा उस समय वे योग शक्तिरूप से विद्यमान रहते हैं, इसलिए इस अपेक्षा से उनका अस्तित्व कहा जाता है ।
- मनोयोगी में भाषा व शरीर पर्याप्ति की सिद्धि
धवला 2/1, 1/628/9 केई वचिकायपाणे अवणेंति, तण्ण घडदे; तेसिं सत्ति - संभवादो । वचि - कायबलणिमित्त-पुग्गल-खंधस्स अत्थित्तं पेक्खिअ पज्जत्तीओ होंति त्ति सरीर-वचि पज्जत्तीओ अत्थि । = कितने ही आचार्य मनोयोगियों के दश प्राणों में से वचन और कायप्राण कम करते हैं, किंतु उनका वैसा करना घटित नहीं होता है, क्योंकि मनोयोगी जीवों के वचनबल और कायबल इन दो प्राणों की शक्ति पायी जाती है, इसलिए ये दो प्राण उनके बन जाते हैं । उसी प्रकार वचनबल और कायबल प्राण के निमित्तभूत पुद्गलस्कंध का अस्तित्व देखा जाने से उनके उक्त दोनों पर्याप्तियाँ भी पायी जाती हैं, इसलिए उक्त दोनों पर्याप्तियाँ भी उनके बन जाती हैं ।
- अप्रमत्त व ध्यानस्थ जीवों के असत्य मनोयोग कैसे
धवला 1/1, 1, 51/285/7 भवतु नाम क्षपकोपशमकानां सत्यस्यासत्यमोषस्य च सत्त्वं नेतरयोरप्रमादस्य प्रमादविरोधित्वादिति न, रजोजुषां विपर्ययानध्यवसायाज्ञानकारणमनसः सत्त्वाविरोधात् । न च तद्योगात्प्रमादिनस्ते प्रमादस्य मोहपर्यायत्वात् । = प्रश्न−क्षपक और उपशमक जीवों के सत्यमनोयोग और अनुभय मनोयोग का सद्भाव रहा आवे, परंतु बाकी के दो अर्थात् असत्य मनोयोग और उभयमनोयोग का सद्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि इन दोनों में रहने वाला अप्रमाद असत्य और उभय मन के कारणभूत प्रमाद का विरोधी है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से युक्त जीवों के विपर्यय और अनध्यवसायरूप अज्ञान के कारणभूत मन के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है । परंतु इसके संबंध से क्षपक या उपशम जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि प्रमाद मोह की पर्याय है ।
धवला 1/1, 1, 55/289/9 क्षीणकषायस्य वचनं कथमसत्यमिति चेन्न, असत्यनिबंधनाज्ञानसत्त्वापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात् । तत एव नोभयसंयोगोऽपि विरुद्ध इति । वाचंयमस्य क्षीणकषायस्य कथं वाग्योगश्चेन्न, तत्रांतर्जल्पस्य सत्त्वाविरोधात् । = प्रश्न−जिसकी कषाय क्षीण हो गयी है उसके वचन असत्य कैसे हो सकते हैं ? उत्तर−ऐसी शंका व्यर्थ है, क्योंकि असत्य वचन का कारण अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, इस अपेक्षा से वहाँ पर असत्य वचन के सद्भाव का प्रतिपादन किया है और इसीलिए उभय संयोगज सत्यमृषा वचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नहीं आता है । प्रश्न−वचन गुप्ति का पूरी तरह से पालन करने वाले कषायरहित जीवों के वचनयोग कैसे संभव है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि कषायरहित जीवों में अंतर्जल्प के पाये जाने में कोई विरोध नहीं आता है ।
धवला 2/1, 1/434/6 ज्झाणीणमपुव्वकरणाणं भवदु णाम वचिंबलस्स अत्थित्तं भासापज्जत्ति-सण्णिद-पोग्गल-खंज-जणिद-सत्ति-सब्भावादो । ण पुण वचिजोगो कायजोगो वा इदि । न, अंतर्जल्पप्रयत्नस्य कायगतसूक्ष्मप्रयत्नस्य च तत्र सत्त्वात् । = प्रश्न−ध्यान में लीन अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के वचनबल का सद्भाव भले हो रहा आवे, क्योंकि भाषा पर्याप्ति नामक पौद्गलिक स्कंधों से उत्पन्न हुई शक्ति का उनके सद्भाव पाया जाता है किंतु उनके वचनयोग या काययोग का सद्भाव नहीं मानना चाहिए ? उत्तर−नहीं, क्योंकि ध्यान अवस्था में भी अंतर्जल्प के लिए प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत-सूक्ष्म प्रयत्नरूप काययोग का सत्त्व अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के पाया ही जाता है, इसलिए वहाँ वचन योग और काययोग भी संभव है ।
- समुद्धातगत जीवों में वचनयोग कैसे
धवला 4/1, 3, 29/102/7, 10 वेउविव्वसमुग्घादगदाणं कधं मणजोग-वचिजोगाणं संभवो । ण, तेसिं पि णिप्पण्णुत्तरसरीराणं मणजोगवचिजोगाणं परावत्तिसंभवादो ।7। मारणंतियसमुग्घादगदाणं असंखेज्जजोयणायामेण ठिदाणं मुच्छिदाणं कधं मण-वचिजोगसंभवो । ण, कारणाभावादो अवत्ताणं णिब्भरसुत्तजीवाणं व तेसिं तत्थ संभवं पडिविरोहाभावादो ।10। = प्रश्न−वैक्रियिक समुद्घात को प्राप्त जीवों के मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि निष्पन्न हुआ है विक्रियात्मक उत्तर शरीर जिनके ऐसे जीवों के मनोयोग और वचनयोगों का परिवर्तन संभव है । प्रश्न−मारणांतिक समुद्घात को प्राप्त, असंख्यात योजन आयाम से स्थित और मूर्च्छित हुए संज्ञी जीवों के मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि बाधक कारण के अभाव होने से निर्भर (भरपूर) सोते हुए जीवों के समान अव्यक्त मनोयोग और वचनयोग मारणांतिक समुद्घातगत मूर्च्छित अवस्था में भी संभव हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है ।
- असंज्ञी जीवों में असत्य व अनुभय वचनयोग कैसे
धवला 1/1, 1, 53/287/4 असत्यमोषमनोनिबंधनवचनमसत्यमोषवचनमिति प्रागुक्तम्, तद् द्वींद्रियादीनां मनोरहितानां कथं भवेदिति नायमेकांतोऽस्ति सकलवचनानि मनस एव समुत्पद्यंत इति मनोरहितकेवलिनां वचनाभावसंजननात् । विकलेंद्रियाणां मनसा विना न ज्ञानसमुत्पत्तिः । ज्ञानेन विना न वचनप्रवृत्तिरिति चेन्न, मनस एव ज्ञानमुत्पद्यत इत्येकांताभावात् । भावे वा नाशेषेंद्रियेभ्यो ज्ञानसमुत्पत्तिः मनसः समुत्पन्नत्वात् । नैतदपि दृष्टश्रुतानुभूतविषयस्य मानसप्रत्ययस्यान्यत्र वृत्तिविरोधात् । न चक्षुरादीनां सहकार्यपि प्रयत्नात्मसहकारिभ्यः इंद्रियेभ्यस्तदुत्पत्त्युपलंभात् । समनस्केषु ज्ञातस्य प्रादुर्भावो मनोयोगादेवेति चेन्न केवलज्ञानेन व्यभिचारात् । समनस्कानां यत्क्षायोपशमिकं ज्ञानं तन्मनोयोगात्स्यादिति चेन्न, इष्टत्वात् । मनोयोगाद्वचनमुत्पद्यत इति प्रागुक्तं तत्कथं घटत इति चेन्न, उपचारेण तत्र मानसस्य ज्ञानस्य मन इति संज्ञा विधायोक्तत्वात् कथं विकलेंद्रियवचसोऽसत्यमोषत्वमिति चेदनध्यवसायहेतुत्वात् । ध्वनिविषयोऽध्यवसायः समुपलभ्यत इति चेन्न, वक्तुरभिप्रायविषयाध्यवसायाभावस्य विवक्षित्वात् । = प्रश्न−अनुभय रूप मन के निमित्त से जो वचन उत्पन्न होते हैं, उन्हें अनुभय वचन कहते हैं । यह बात पहले कही जा चुकी है । ऐसी हालत में मन रहित द्वींद्रियादिक जीवों के अनुभय वचन कैसे हो सकते हैं ? उत्तर−यह कोई एकांत नहीं है कि संपूर्ण वचन मन से ही उत्पन्न होते हैं, यदि संपूर्ण वचनों की उत्पत्ति मन से ही मान ली जावे तो मन रहित केवलियों के वचनों का अभाव प्राप्त हो जायेगा । प्रश्न−विकलेंद्रिय जीवों के मन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और ज्ञान के बिना वचनों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है ? उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह कोई एकांत नहीं है । यदि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह एकांत मान लिया जाता है तो संपूर्ण इंद्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि संपूर्ण ज्ञान की उत्पत्ति मन से मानते हो । अथवा मन से समुत्पन्नत्वरूप धर्म इंद्रियों में रह भी तो नहीं सकता है, क्योंकि दृष्ट, श्रुत और अनुभूत को विषय करने वाले मानस ज्ञान का दूसरी जगह सद्भाव मानने में विरोध आता है । यदि मन को चक्षु आदि इंद्रियों का सहकारी कारण माना जावे सो भी नहीं बनता है, क्योंकि प्रयत्न और आत्मा के सहकार की अपेक्षा रखने वाली इंद्रियों से इंद्रियज्ञान की उत्पत्ति पायी जाती है । प्रश्न−समनस्क जीवों में तो ज्ञान की उत्पत्ति मनोयोग से ही होती है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर केवलज्ञान से व्यभिचार आता है । प्रश्न−तो फिर ऐसा माना जाये कि समनस्क जीवों के जो क्षायोपशमिक ज्ञान होता है वह मनोयोग से होता है ? उत्तर−यह कोई शंका नहीं, क्योंकि यह तो इष्ट ही है । प्रश्न−मनोयोग से वचन उत्पन्न होते हैं, यह जो पहले कहा जा चुका है वह कैसे घटित होता है ? उत्तर−यह शंका कोई दोषजनक नहीं है, क्योंकि ‘मनोयोग से वचन उत्पन्न होते हैं’ यहाँ पर मानस ज्ञान को ‘मन’ यह संज्ञा उपचार से रखकर कथन किया है । प्रश्न−विकलेंद्रियों के वचनों में अनुभयपना कैसे आ सकता है ? उत्तर−विकलेंद्रियों के वचन अनध्यवसायरूप ज्ञान के कारण हैं, इसलिए उन्हें अनुभय रूप कहा गया है । प्रश्न−उनके वचनों में ध्वनि विषयक अध्यवसाय अर्थात् निश्चय, तो पाया जाता है, फिर उन्हें अनध्यवसाय का कारण क्यों कहा जाये ? उत्तर−नहीं, क्योंकि यहाँ पर अनध्यवसाय से वक्ता का अभिप्राय विषयक अध्यवसाय का अभाव विवक्षित है ।
- योगों में संभव गुणस्थान निर्देश