निगोद: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p id="1">(1) नारकियों के उत्पत्ति स्थान । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.347-353 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText">(1) नारकियों के उत्पत्ति स्थान । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#347|हरिवंशपुराण - 4.347-353]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) एकेंद्रिय जीवों का उत्पत्ति स्थान । इसमें पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायों के जीव उत्पन्न होते हैं । ये जीव अनेक कुयोनियों तथा कुलकोटियों में श्रमण करते हैं । इसके दो भेद हैं― नित्य-निगोद और इतरनिगोद । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 18.54-57 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) एकेंद्रिय जीवों का उत्पत्ति स्थान । इसमें पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायों के जीव उत्पन्न होते हैं । ये जीव अनेक कुयोनियों तथा कुलकोटियों में श्रमण करते हैं । इसके दो भेद हैं― नित्य-निगोद और इतरनिगोद । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_18#54|हरिवंशपुराण - 18.54-57]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
धवला 14/5, 6, 93/85/13 के णिगोदा णाम । पुलवियाओ णिगोदा त्ति भणंति । = प्रश्न−निगोद किन्हें कहते हैं? उत्तर−पुलवियों को निगोद कहते हैं । विशेष देखें वनस्पति - 3.7 । ( धवला 14/5, 6, 582/470/1 ) ।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/191/429/15 साधारणनामकर्मोदयेन जीवा निगोदशरीरा भवंति। नि-नियतां गां-भूमिं क्षेत्रं निवासं, अनंतानंतजीवानां ददाति इति निगोदम्। निगोदशरीरं येषां ते निगोदशरीरा इति लक्षणसिद्धत्वात्। = साधारण नामक नामकर्म के उदय से जीव निगोद शरीरी होता है। ‘नि’ अर्थात् अनंतपना है निश्चित जिनका ऐसे जीवों को, ‘गो’ अर्थात् एक ही क्षेत्र, ‘द’ अर्थात् देता है, उसको निगोद कहते हैं। अर्थात् जो अनंतों जीवों को एक निवास दे उसको निगोद कहते हैं। निगोद ही शरीर है जिनका उनको निगोद शरीरी कहते हैं।
अन्य लक्षण एवं निगोद से संबंधित विषय जानने के लिए देखें निगोद निर्देश।
पुराणकोष से
(1) नारकियों के उत्पत्ति स्थान । हरिवंशपुराण - 4.347-353
(2) एकेंद्रिय जीवों का उत्पत्ति स्थान । इसमें पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायों के जीव उत्पन्न होते हैं । ये जीव अनेक कुयोनियों तथा कुलकोटियों में श्रमण करते हैं । इसके दो भेद हैं― नित्य-निगोद और इतरनिगोद । हरिवंशपुराण - 18.54-57