रसपरित्याग: Difference between revisions
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मू. आ./ | मू. आ./352<span class="PrakritGatha"> खीरदहिसप्पितेलगुडलवणाणं च जं परिच्चयणं । तित्तकडुकसायंबिलमधुररसाणं च जं चयणं ।352।</span> = <span class="HindiText">दूध, दही, घी, तेल, गुड़, लवण इन छह रसों का त्याग रसपरित्याग तप है । <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/7/27 )</span> अथवा कडुआ, कसैला, खट्टा, मीठा इनमें से किसी का त्याग वह रसपरित्याग तप है ।352। <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/446 )</span>। </span><br /> | ||
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<span class="GRef"> तत्त्वसार/6/11 </span><span class="SanskritGatha"> रसत्यागो भवेत्तैलक्षीरेक्षुदधिसर्पिणाम् । एकद्वित्रीणि चत्वारि त्यजतस्तानि पंचधा ।11।</span> = <span class="HindiText">तेल, दूध, खाँड, दही, घी इनका यथासाध्य त्याग करना रसत्याग तप है । एक, दो, तीन, चार अथवा पाँचों रसों का त्याग करने से यह व्रत पाँच प्रकार का हो जाता है । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/446 </span><span class="PrakritText"> संसार-दुक्ख-तट्ठो विस-सम-विसयं विचिंतमाणो जो । णीरस-भोज्जं भुंजइ रस-चाओ तस्स सुविसुद्धौ ।</span> = <span class="HindiText">संसार के दुःखों से संतप्त जो मुनि इंद्रियों के विषयों को विष के समान मानकर नीरस भोजन करता है उसके निर्मल रस परित्याग तप होता है । <br /> | |||
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<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/19/438/9 </span><span class="SanskritText">इंद्रियदर्पनिग्रहनिद्राविजयस्वाध्यायसुखसिद्ध्याद्यर्थो...रसपरित्यागश्चतुर्थं तपः । </span>= <span class="HindiText">इंद्रियों के दर्प का निग्रह करने के लिए, निद्रा पर विजय पाने के लिए और सुखपूर्वक स्वाध्याय की सिद्धि के लिए रसपरित्याग नाम का चौथा तप है । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/19/5/618/26 </span><span class="SanskritText"> दांतेंद्रियत्वतेजोऽहानिसंयमोपरोधव्यावृत्त्याद्यर्थं.....रसपरित्यागः ।5। </span>=<span class="HindiText"> जितेंद्रियत्व, तेजोवृद्धि और संयमवाधानिवृत्ति आदि के लिए रसपरित्याग है । <span class="GRef">( चारित्रसार/135/3 )</span>। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 4, 26/57/10 </span><span class="PrakritText"> किमट्ठमेसो करिदे । पाणिंदिय संजमट्ठं । कुदो । जिब्भिंदिए णिरुद्धे सयलिंदियाणं णिरोहुवलंभादो । सियलिंदिएसु णिरुद्धेसु चत्तपरिगाहस्स णिरुद्धराग-दोसस्स....पाणासंजमणिरोहुवलंभादो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न −</strong>यह किसलिए किया जाता है ? <strong>उत्तर−</strong>प्राणिसंयम और इंद्रियसंयम की प्राप्ति के लिए किया जाता है, क्योंकि जिह्वा इंद्रिय का निरोध हो जाने पर सब इंद्रियों का निरोध देखा जाता है और सब इंद्रियों का निरोध हो जाने पर जो परिग्रह का त्याग कर रागद्वेष का निरोध कर चुके हैं, उनको प्राणों के असंयम का निरोध देखा जाता है । <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3">रस परित्याग तप के अतिचार</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/487/707/10 </span><span class="SanskritText">कृतरसपरित्यागस्य रसासक्तिः, परस्य वा रसवदाहारभोजनं, रसवदाहारभोजनानुमननं, वातिचारः । </span>= <span class="HindiText">रस का त्याग करके भी रस में अत्यासक्ति उत्पन्न होना, दूसरों को रस युक्त आहार का भोजन कराना और रसयुक्त भोजन करने की सम्मति देना, ये सब रसपरित्याग तप के अतिचार हैं । </span></li> | |||
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Latest revision as of 15:21, 27 November 2023
- रसपरित्याग
भगवती आराधना/215/431 खीरदधिसप्पितेल्लगुडाण पत्तेगदो व सव्वेसिं । णिज्जूहणमोगाहिमपणकुसणलोणमादीणं ।215। = दूध, दही, घी, तेल, गुड़ इन सब रसों का त्याग करना अथवा एक-एक रस का त्याग करना यह रस-परित्याग नाम का तप है । अथवा पूप, पत्रशाक, दाल, नमक वगैरह पदार्थों का त्याग करना यह भी रस परित्याग नाम का तप है ।215।
मू. आ./352 खीरदहिसप्पितेलगुडलवणाणं च जं परिच्चयणं । तित्तकडुकसायंबिलमधुररसाणं च जं चयणं ।352। = दूध, दही, घी, तेल, गुड़, लवण इन छह रसों का त्याग रसपरित्याग तप है । ( अनगारधर्मामृत/7/27 ) अथवा कडुआ, कसैला, खट्टा, मीठा इनमें से किसी का त्याग वह रसपरित्याग तप है ।352। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/446 )।
सर्वार्थसिद्धि/9/19/438/9 घृतादिवृष्यरसपरित्यागश्चतुर्थं तपः । = घृतादिगरिष्ठ रस का त्याग करना चौथा तप है । ( राजवार्तिक/9/19/ 5/618/26 ); ( चारित्रसार/135/3 ) ।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/18 रसगोचरगाद्धर्यत्यजनं त्रिधा रसपरित्यागः । = रस विषय की लंपटता को मन, वचन, शरीर के संकल्प से त्यागना रसपरित्याग नाम का तप है ।
तत्त्वसार/6/11 रसत्यागो भवेत्तैलक्षीरेक्षुदधिसर्पिणाम् । एकद्वित्रीणि चत्वारि त्यजतस्तानि पंचधा ।11। = तेल, दूध, खाँड, दही, घी इनका यथासाध्य त्याग करना रसत्याग तप है । एक, दो, तीन, चार अथवा पाँचों रसों का त्याग करने से यह व्रत पाँच प्रकार का हो जाता है ।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/446 संसार-दुक्ख-तट्ठो विस-सम-विसयं विचिंतमाणो जो । णीरस-भोज्जं भुंजइ रस-चाओ तस्स सुविसुद्धौ । = संसार के दुःखों से संतप्त जो मुनि इंद्रियों के विषयों को विष के समान मानकर नीरस भोजन करता है उसके निर्मल रस परित्याग तप होता है ।
- रस परित्याग तप का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि/9/19/438/9 इंद्रियदर्पनिग्रहनिद्राविजयस्वाध्यायसुखसिद्ध्याद्यर्थो...रसपरित्यागश्चतुर्थं तपः । = इंद्रियों के दर्प का निग्रह करने के लिए, निद्रा पर विजय पाने के लिए और सुखपूर्वक स्वाध्याय की सिद्धि के लिए रसपरित्याग नाम का चौथा तप है ।
राजवार्तिक/9/19/5/618/26 दांतेंद्रियत्वतेजोऽहानिसंयमोपरोधव्यावृत्त्याद्यर्थं.....रसपरित्यागः ।5। = जितेंद्रियत्व, तेजोवृद्धि और संयमवाधानिवृत्ति आदि के लिए रसपरित्याग है । ( चारित्रसार/135/3 )।
धवला 13/5, 4, 26/57/10 किमट्ठमेसो करिदे । पाणिंदिय संजमट्ठं । कुदो । जिब्भिंदिए णिरुद्धे सयलिंदियाणं णिरोहुवलंभादो । सियलिंदिएसु णिरुद्धेसु चत्तपरिगाहस्स णिरुद्धराग-दोसस्स....पाणासंजमणिरोहुवलंभादो । = प्रश्न −यह किसलिए किया जाता है ? उत्तर−प्राणिसंयम और इंद्रियसंयम की प्राप्ति के लिए किया जाता है, क्योंकि जिह्वा इंद्रिय का निरोध हो जाने पर सब इंद्रियों का निरोध देखा जाता है और सब इंद्रियों का निरोध हो जाने पर जो परिग्रह का त्याग कर रागद्वेष का निरोध कर चुके हैं, उनको प्राणों के असंयम का निरोध देखा जाता है ।
- रस परित्याग तप के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/487/707/10 कृतरसपरित्यागस्य रसासक्तिः, परस्य वा रसवदाहारभोजनं, रसवदाहारभोजनानुमननं, वातिचारः । = रस का त्याग करके भी रस में अत्यासक्ति उत्पन्न होना, दूसरों को रस युक्त आहार का भोजन कराना और रसयुक्त भोजन करने की सम्मति देना, ये सब रसपरित्याग तप के अतिचार हैं ।