इष्टोपदेश - श्लोक 16: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:16, 17 April 2020
त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः।
स्वशरीरं स पङ्केन स्नास्यामीति विलिम्पति।।१६।।
धनार्जनका उपहास्य बनावटी ध्येय—जो धनहीन मनुष्य दान पूजा आदिकार्यों के ध्येय से अथवा पुण्य-प्राप्ति के ध्येय से या पापों का नाश करूँगा इस ख्याल से धनोपार्जन करता है—सेवा करे, खेती करे, व्यापार करे, इन कार्यों से धन को इकट्ठा करता है वह पुरुष मानो इस प्रकार का कार्य कर रहा है जैसे कोई पुरुष ’’मैं नहाऊंगा’’ यह ख्याल करके, यह आशा रखकर कीचड़ लपेटता है। मैं नहाऊंगा सो कीचड़ लपेटना चाहिए ऐसा कौन सोचता है? संसार के अधिकांश जीवों की यह धारणा रहती है कि धनकी प्राप्ति के लिए यदि निन्द्य से निन्द्य भी कार्य करने पड़े तो भी उनको करके धनका संचय कर लें और उस धनसंचय में, उस अन्याय कर लेने में जो पाप लगेंगे उन पापों को धोने के लिए या उसके बदले में धनका दान देकर, देवपूजा करके, गुरुभक्ति करके, सेवा करके, परोपकार करके पुण्य प्राप्त कर लेंगे परन्तु ऐसा ख्याल करना ठीक नही है। इसका कारण यह है कि जो कुमार्ग से धनसंचय करता है वह तो अज्ञानी पुरुष है।
दृष्टान्त विवरण सहित अनाड़ी के अविवेक का प्रदर्शन—भैया ! जिसको कुछ भी विवेक जगा है वह कुमार्गों से धनका संचय न करेगा। जैसे कोई पुरुष मैं नहा लूंगा, ऐसा अभिप्राय करके शरीर में कीचड़ को लपेटता है तो उसे दुनिया के लोग विवेकी न कहेंगे। कीचड़ लपेटे और नहाये तो उससे क्या लाभ है? ऐसे ही पाप करके धनसंचय करे और वह मनमें यह समझे कि मैं इस धन को दान, परोपकार, सेवा आदि के अच्छे कार्यों में खर्च कर दूँगा और करे खोटे मार्ग से धनका संचय, तो वह तो अज्ञान अंधकार से घिरा हुआ है, और वह जो अच्छे कार्यों में लगाने की बात सोच रहा है सो उसकी दृष्टि में अच्छे कार्यों का ख्याल ही नही है। वहाँ भी केवल मान पोषण, लोभ पुष्टि आदि ही लगे हुए है। कदाचित् भाग्यवश धन भी मिल जाय तो खोटे रास्तों से,कुमार्ग से, छल करके, अन्याय करके, दगा देकर किसी भी प्रकार धनसंचय करता है तो उसका धन पाप कार्यों में ही लग सकता है, अच्छे कार्यों में लगने की अत्यन्त कम सम्भावना है। लोग भी प्रायः इस प्रकार देखते हैं कि जिनकी कमाई खोटी होती है, खोटी कमाई से धनका संचय होता है तो वह वैसा पाप कार्यों में लगकर खर्च हो जायगा। अथवा किन्ही झंझटों से किन्ही प्रकारों से लूट पिटकर नष्ट हो जायगा, अच्छे कार्यों में वह नही लग पायगा।
शुद्ध अर्जन से धनकी अटूट वृद्धि की अशक्यता—नीतिकार कहते हैं कि सज्जनों की सम्पत्ति शुद्ध धन से नही बढ़ पाती है। जैसे समुद्र स्वच्छ जलकी नदियों से नही भरा जाता है, गंदा पानी मटीला मैला पानी से समुद्र भरा करता है। स्वच्छ निर्मल जल से नदियोंकी भरमार नही होती है। गंदले मलिन जलसे ही नदियाँ भरी होती है और उन नदियों से ही समुद्र भरा जाता है। यो ही समझिये कि सज्जन पुरुष भी हो उस तक के भी सम्पदा एकदम बढ़ेगी तो शुद्ध मार्ग से न बढ़ेगी। धनसंचय में कुमार्गों का आश्रय लेना ही पड़ता है। ठीक है। अध्यात्मदृष्टिसे तो आत्मतत्त्वकी दृष्टि को छोड़कर किन्ही भी बाह्य पदार्थों की दृष्टि लगाये, उनकी आशा करें तो वे सब अनीति के मार्ग है, कुमार्ग है लेकिन जिस पद में संचय के बिना गुजारा नही हो सकता ऐसे गृहस्थ की अवस्था में कोई और उपाय नही है। उसे धनका संचय अथवा उपार्जन करना ही पड़ता है। ठीक है, लेकिन इतना विवेक तो होना चाहिये कि लोक में जो अनिहित मार्ग है, कुमार्ग है उनसे धन संचय न करे। विशुद्ध नीति मार्ग से ही धनका उपार्जन करे।
यथार्थ सचाईके बिना ऐहिक कठिन समस्या—आज के समय में आजीविका की कठिन समस्या सामने है। लोग जैसे कि कहते हैं कि ब्लेक किए बिना, टैक्स चुराये बिना दो तरह की कापियाँ लिखे बिना कोई धन कमा ही नही सकता है, वह सुखसे रोटी भी नही खा सकता है, उस पर टैक्स का अनुचित बोझ लद जाता है। इस सम्बन्ध में प्रथम तो बात यह है कि यह व्यापारी ईमानदार है, सच्चा है यह प्रमाण नही है, इस कारण अनाम सनाप टैक्स लगा दिया जाता है जिन पुरुषों के सम्बन्ध में यह निर्णय भली प्रकार हो जाता है और जिनकी सच्चाई के साथ सारे कागजात पाये जाते हैं तो कुछ वर्षों में उसकी सच्चाई का ऐसा ढिंढोरा हो जाता है कि लोग उसे समझते हैं कि यहाँ सत्य बात होती है। तो उसके व्यापार में कमी नही आती है और न फिर अधिकारी उसे सताते हैं। लेकिन जब अधकचरे ढंग से कुछ सच्चाई काम करे कुछ संदेह है सो कभी-कभी कुछ डिग जाये सो ऐसे डगमग पग से सच्चाई की व्यवस्था की जाती है उससे पूरा नही पड़ता है तो कमसे कम अंतरंग में तो सच्चाई रखे। जैसे कि वस्तु पर जितना लाभ लेना है उस पर उतना ही लाभ रखे। यह मनमें भावना न करे कि मैं किसी का नीति सीमा से भी अधिक धन ले लूँ।
व्यापारिक सच्चाईका आधुनिक एक उदाहरण—जो सर्वथा सत्यव्यवहार करते हैं व जो निर्णय में सत्य व्यवहार करते हैं,बहुत जगह मिलेंगे इस तरह के मनुष्य। पहिले प्रकार का मनुष्य मुजफ्फरनगर में जाना गया था। सलेखचंद स्टेशनरीकी दूकान कितनी बड़ी है? तो वकील थे राजभूषण, जो अब भी है। बोले कि तीन चार फुट चौड़ी और ४.५ फुट लम्बी है सलेकचन्द बोले कि साहब इसके पीछे एक हाल भी है जज सुन बड़ा हैरान हो गया, कही दुकानदार को ऐसा करना चाहिए ? फिर जज पूछता है कि राज कितने की बिक्री होती है? तो वकील कहता है कि कभी २०रु. की, कभी ३०रु. की और कभी ५०रु. की। जब जजने सलेखचंद की और देखा तो सलेखचन्द कहते है—हाँ साहब कभी २०रु. की बिक्री होती है कभी ३० की होती है कभी ५०, की होती है और कभी ५००रु. तक की भी हो जाती है। और भी जजने एक दो प्रश्न किया। तो जज कहता है कि वकील साहब! तुम कितना ही भरमावो, पर यह धनी तो अपनी सच्चाई पर ही कायम है। धनी का ही वकील था। तो उस जजने उसी हिसाब से टैक्स लगाया जो सलेखचंद की बही में था और यह नोट कर दिया कि हमने ऐसा सत्य पुरुष अभी तक नही देखा।
लेनदेनके समय की सच्चाईका एक आधुनिक उदाहरण—दूसरी बात यह है कि भले ही ग्राहकों से कुछ भाव ताव की बात करे पर जब तय हो जाय और माल दिया जाने लगे तो ज्यादा दाम अगर आ रहे हो तो उसके दाम वापिस कर दे। ऐसे भी कई होते हैं,अभी भादों में जो बाबूलाल हरपालपुरके आये थे। उनके ऐसा नियम है। कोई कपड़ा दो रूपया गजका पड़ा हो और सवा दो रुपया गज देना हो तो भाव ताव करने पर यदि २।।रु. गज ठहर गया तो देते समय २।।रु. गज के दाम रखकर फिर ४ आने गज के दाम वापिस कर देते हैं। ग्राहक कुछ कहता है तो वह कहते हैं कि हमारा नियम है हम इतने से ज्यादा नही ले सकते। यदि ग्राहक ने कहा कि ठहराया तो इतनेका ही था ना, तो वह कहते कि सभी दूकानदार भाव ठहराते, हम न ठहराये तो ग्राहक न आये, सो भाव ठहराना पड़ता है, पर हम अपने नियम से ज्यादा नही ले सकते । तो दूसरे नम्बरकी यह भी सच्चाई है।
ज्ञानीका चिन्तन—जो अंतरंग में केवल धनसंचय करना, किसी भी प्रकार हो, अधिक से अधिक दूसरों का धन आना ही आना चाहिए ऐसा परिणाम हो तो वहां सन्मार्ग तो अपनाया ही नही जा सकता। ज्ञानी संत तो यो विचारता है कि जो धन चाहते हैं वे धनकी अप्राप्ति में दुःखी होते हैं। जो धनी है उन्हें तृप्ति नही होती है इस कारण दुःखी है। सुखी तो केवल आकिंचन्य आत्मस्वरूपको अपनाने वाले योगी जन होते हैं। सम्पत्ति और विपत्ति ये दोनों ही ज्ञानी पुरुषों के लिए एक समान है। विपत्ति को भी वे औपाधिक चीज मानते हैं और क्लेश का कारण मानते हैं। इस धन को पुण्य का उत्पादक समझना भ्रम है यदि यह धन पुण्य का उत्पादक होता तो बड़े-बड़े महाराज चक्री आदि क्यों इसका परित्याग कर देते? विवश होकर धन कमाना पड़ता है तो विवेकी जन उस अपराध के प्रायश्चित में अथवा उस अपराध से निवृत्त होने की टोह में ऐसा परिणाम रखते हैं। जिससे दान और उपकार में धन लगता रहता है।
आनन्दसमृद्धि का उपाय—हे आत्मन्! यदि तुझे आनन्द की इच्छा हो तो परपदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि का परित्याग कर और शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप निज तत्त्व का परिचय कर। शुद्ध अनादि अनन्त स्वभाव आत्मा के आश्रय से ही प्रकट होता है। आनन्दमय आत्मतत्त्वको रखनेवाले उपयोग में ऐसी पद्धति बनती है जिससे आनन्द ही प्रकट होता है वहाँ क्लेशके अनुभवका अवकाश ही नही है। जो पुरूषार्थी जीव सत्य साहस करके निर्विकल्पज्ञानप्रकाशकी आस्था रखते हैं उन्हीका जीवन सफल है। आनन्द आनन्दमय परमब्रह्म की उपासना में है। आनन्द वास्तविक समृद्धि में है। समृद्धि सम्पन्नता होने का नाम ही आनन्द है। परमार्थ समृद्धि सम्पन्नता में निराकुलता होती ही है। यह सम्पन्नता त्यागमय स्वरसपरिपूर्ण आत्मतत्त्वके अवलम्बनसे प्रसिद्ध होती है।