रक्तकंबला: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
(6 intermediate revisions by 3 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
| |||
== सिद्धांतकोष से == | |||
<div class="HindiText"> सुमेरु पर्वतस्थ एक शिला है । इस पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का जन्म कल्याण के संबंधी अभिषेक किया जाता है ।−देखें [[ लोक#5.14 | लोक 5.14 ]]।</div> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
[[ रक्कस | पूर्व पृष्ठ ]] | [[ रक्कस | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
[[ | [[ रक्तगांधारी | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: र]] | [[Category: र]] | ||
== पुराणकोष से == | |||
<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> सुमेरु पर्वत के पांडुक वन की गाथक, पांडुकंबला, रक्त का और रक्तकंबला इन चार शिलाओं में वायव्य-दिशा में स्थित चौथी शिला । यह लोहिताक्ष मणियों से निर्मित अर्द्धचंद्राकार हैं । इसकी ऊँचाई आठ योजन, लंबाई सौ योजन और चौड़ाई पचास योजन है । पूर्व विदेहक्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों का यहाँ अभिषेक होता है । इस शिला पर तीन सिंहासन है । वे पाँच सौ धनुष ऊँचे और इतने ही चौड़े है । इनका निर्माण रत्नों से किया गया है । दक्षिण सिंहासन पर सौधर्मेंद्र और उत्तर सिंहासन पर ऐशानेंद्र तथा मध्य सिंहासन पर जिनेंद्रदेव विराजते हैं । <span class="GRef"> ([[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#347|हरिवंशपुराण - 5.347-353]]) </span></p> | |||
</div> | |||
<noinclude> | |||
[[ रक्कस | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[ रक्तगांधारी | अगला पृष्ठ ]] | |||
</noinclude> | |||
[[Category: पुराण-कोष]] | |||
[[Category: र]] | |||
[[Category: करणानुयोग]] |
Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
सुमेरु पर्वतस्थ एक शिला है । इस पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का जन्म कल्याण के संबंधी अभिषेक किया जाता है ।−देखें लोक 5.14 ।
पुराणकोष से
सुमेरु पर्वत के पांडुक वन की गाथक, पांडुकंबला, रक्त का और रक्तकंबला इन चार शिलाओं में वायव्य-दिशा में स्थित चौथी शिला । यह लोहिताक्ष मणियों से निर्मित अर्द्धचंद्राकार हैं । इसकी ऊँचाई आठ योजन, लंबाई सौ योजन और चौड़ाई पचास योजन है । पूर्व विदेहक्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों का यहाँ अभिषेक होता है । इस शिला पर तीन सिंहासन है । वे पाँच सौ धनुष ऊँचे और इतने ही चौड़े है । इनका निर्माण रत्नों से किया गया है । दक्षिण सिंहासन पर सौधर्मेंद्र और उत्तर सिंहासन पर ऐशानेंद्र तथा मध्य सिंहासन पर जिनेंद्रदेव विराजते हैं । (हरिवंशपुराण - 5.347-353)