केवली 04: Difference between revisions
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<li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> कवलाहार व परीषह संबंधी निर्देश व शंका—समाधान</strong><br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> केवली को नोकर्माहार होता है</strong></span><br /> | |||
क्षपणासार/618 <span class="PrakritGatha">पडिसमयं दिव्वतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्धं। समयपबद्धं बंधदि गलिदवसेसाउमेत्तठिदी।618।</span>=<span class="HindiText">सयोगी जिन हैं सो समय समय प्रति नोकर्म जो औदारिक तीहि संबंधी जो समय प्रबद्ध ताकौ ग्रहण करै है। ताकी स्थिति आयु व्यतीत भए पीछे जेता अवशेष रहा तावन्मात्र जाननी। सो नोकर्म वर्गणा के ग्रहण ही का नाम आहार मार्गणा है ताका सद्भाव केवली कैं है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> समुद्घात अवस्था में नोकर्माहार भी नहीं होता</strong> </span><br /> | |||
षट खंडागम1/1,1/सू.177/410 <span class="PrakritText">अणाहारा....केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं अजोगिकेवली....चेदि।177।</span><br /> | |||
धवला 2/1,1/669/5 <span class="PrakritText">कम्मग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारित्तं किण्ण उच्चदि त्ति भणिदे ण उच्चदि; आहारस्स तिण्णिसमयविरहकालोवलद्धीदो।</span>=<span class="HindiText">1. समुद्घातगत केवलियों के सयोग केवली और अयोग केवली अनाहारक होते हैं। 2. <strong>प्रश्न</strong>–कार्माण काय योगी की अवस्था में भी कर्म वर्गणाओं के ग्रहण का अस्तित्व पाया जाता है, इस अपेक्षा कार्माण काय योगी जीवों को आहारक क्यों नहीं कहा जाता ? <strong>उत्तर</strong>–उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्माण काययोग के समय नोकर्मणाओं के आहार का अधिक से अधिक तीन समय तक विरह काल पाया जाता हैं।</span><br /> | |||
क्षपणासार/619 <span class="PrakritText">णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।</span>=<span class="HindiText">समुद्घात कौ प्राप्त केवली विषै दोय तौ प्रतर के समय अर एक लोक पूरण का समय इनि तीन समयानिविषै नोकर्म का आहार नियमतै नहीं है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> केवली को कवलाहार नहीं होता</strong> </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/8/1/375 <span class="SanskritText">केवली कवलाहारी...विपर्यय।</span>=<span class="HindiText">केवली को कवलाहारी मानना विपरीत मिथ्या-दर्शन है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> मनुष्य होने के कारण केवली को भी कवलाहारी होना चाहिए</strong></span><br /> | |||
स्वयंभू स्तोत्र/ मूल/75<span class="SanskritText"> मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वपि च देवता यत:। तेन नाथ ! परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष! प्रसीद न:।5।</span>=<span class="HindiText">हे नाथ ! चूँकि आप मानुषी प्रकृति को अतिक्रांत कर गये हैं और देवताओं में भी देवता हैं, इसलिए आप उत्कृष्ट देवता हैं, अत: हे धर्म जिन ! आप हमारे कल्याण के लिए प्रसन्न होवें।75। ( बोधपाहुड़/ टीका/34/101)</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/29/12 <span class="SanskritText"> केवलिनो कवलाहारोऽस्ति मनुष्यत्वात् वर्तमानमनुष्यवत् । तदप्ययुक्तम् । तर्हि पूर्वकालपुरुषाणां सर्वज्ञत्वं नास्ति, रामरावणादिपुरुषाणां च विशेषसामर्थ्यं नास्ति वर्तमानमनुष्यवत् । न च तथा।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–केवली भगवान् के कवलाहार होता है, क्योंकि वह मनुष्य है, वर्तमान मनुष्य की भाँति? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना युक्त नहीं है। क्योंकि अन्यथा पूर्वकाल के पुरुषों में सर्वज्ञता भी नहीं है। अथवा राम रावणादि पुरुषों में विशेष सामर्थ्य नहीं है, वर्तमान मनुष्य की भाँति। ऐसा मानना पड़ेगा। परंतु ऐसा है नहीं। (अत: केवली कवलाहारी नहीं है।)<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> संयम की रक्षा के लिए भी केवली को कवलाहार की आवश्यकता थी</strong> </span><br /> | |||
कषायपाहुड़/1/1,1/52/5 <span class="PrakritText">किंतु तिरयणट्ठमिदि ण वोत्तुं जुत्तं, तत्थ पत्तासेसरुवम्मि तदसंभवादो। तं जहा, ण ताव णाणट्ठं भुंजइ, पत्तकेवलणाणभावादो। ण च केवलणाणादो अहियमण्णं पत्थणिज्जं णाणमत्थि जेण तदट्ठं केवली भुंजेज्ज। ण संजमट्ठं, पत्तजहाक्खादसंजमादो। ण ज्झाणट्ठं; विसईकयासेसतिहुवणस्स ज्झेयाभावादो। ण भुंजइ केवली भुत्तिकारणाभावादो त्ति सिद्धं।</span><br /> | |||
कषायपाहुड़ 1/1,1/53/71/1 <span class="PrakritText">अह जइ सो भुंजइ तो बलाउ-सादुसरीरुवचयतेज-सुहट्ठं चेव भुंजइ संसारिजावो व्व, ण च एवं, समोहस्स केवलणाणाणुववत्तीदो। ण च अकेवलिवयणमागमो, रागदोसमोहकलंककिए ....सच्चाभावादो। आगमाभावे ण तिरयणपउत्ति त्ति तित्थवोच्छेदो तित्थस्स णिव्वाहवोहविसयीकयस्स उवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">1. <strong>प्रश्न</strong>–यदि कहा जाय कि केवली रत्नत्रय के लिए भोजन करते हैं? <strong>उत्तर</strong>–यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि केवली जिन पूर्णरूप से आत्मस्वभाव को प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए वे ‘रत्नत्रय अर्थात् ज्ञान, संयम और ध्यान के लिए भोजन करते हैं, यह बात संभव नहीं है। इसी का स्पष्टीकरण करते हैं–केवली जिन ज्ञान की प्राप्ति के लिए तो भोजन करते नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है। तथा केवलज्ञान से बड़ा और कोई दूसरा ज्ञान प्राप्त करने योग्य नहीं है, जिससे उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए भोजन करें। न ही संयम के लिए भोजन करते हैं क्योंकि उन्हें यथाख्यात संयम की प्राप्ति हो चुकी है। तथा ध्यान के लिए भी भोजन नहीं करते क्योंकि उन्होंने त्रिभुवन को जान लिया है, इसलिए इनके ध्यान करने योग्य कोई पदार्थ ही नहीं रहा है। अतएव भोजन करने का कोई कारण न रहने से केवली जिन भोजन नहीं करते हैं, यह सिद्ध हो जाता है। 2. यदि केवली जिन भोजन करते हैं तो संसारी जीवों के समान बल, आयु, स्वादिष्ट भोजन, शरीर की वृद्धि, तेज और सुख के लिए ही भोजन करते हैं ऐसा मानना पड़ेगा, परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वह मोहयुक्त हो जायेंगे और इसलिए उनके केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। यदि कहा जाये कि जिनदेव को केवलज्ञान नहीं होता तो केवलज्ञान से रहित जीव के वचन ही आगम हो जावें ? यह भी ठीक नहीं क्योंकि ऐसा मानने पर राग, द्वेष, और मोह से कलंकित...जीवों के सत्यता का अभाव होने से वचन आगम नहीं कहे जायेंगे। आगम का अभाव होने से रत्नत्रय की प्रवृत्ति न होगी और तीर्थ का व्युच्छेद हो जायेगा। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि निर्बाध बोध के द्वारा ज्ञात तीर्थ की उपलब्धि बराबर होती है। न्यायकुमुद चंद्रिका/पृ.852।</span><br /> | |||
प्रमेयकमलमार्तंड/पृ.300 <span class="SanskritText">कवलाहारित्वे चास्य सरागत्वप्रसंग:।</span> <span class="HindiText">=केवली भगवान् को कवलाहारी मानने पर सरागत्व का प्रसंग प्राप्त होता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> औदारिक शरीर होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए</strong> </span><br /> | |||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/7 <span class="SanskritText"> केवलिनां भुक्तिरस्ति, औदारिकशरीरसद्भावात् ।....अस्मदादिवत् । परिहारमाह—तद्भगवत: शरीरमौदारिकं न भवति किंतु परमौदारिकम्–शुद्धस्फटिकसकाशं तेजोमूर्तिमयं वपु:। जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–केवली भगवान् भोजन करते हैं, औदारिक शरीर का सद्भाव होने से; हमारी भाँति? <strong>उत्तर–</strong>भगवान् का शरीर औदारिक नहीं होता अपितु परमौदारिक है। कहा भी है कि–‘दोषों के विनाश हो जाने से शुद्ध स्फटिक के सदृश सात धातु से रहित तेज मूर्तिमय शरीर हो जाता है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> आहारक होने के कारण केवली का कवलाहार होना चाहिए</strong> </span><br /> | |||
धवला/1/1,1,173/409/10 <span class="SanskritText">अत्र कवललेपोष्ममन:कर्माहारान् परित्यज्यनोकर्माहारो ग्राह्य:, अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सहविरोधात्</span>=<span class="HindiText">आहारक मार्गणा में आहार शब्द से कवलाहार, लेपाहार...आदि को छोड़कर नोकर्माहार का ही ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा आहारकाल और विरह के साथ विरोध आता है।</span><br /> | |||
प्रवचनसार/20/28/21 <span class="SanskritText"> मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवलिपर्यंतास्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनो जीवा आहारका भवंतीत्याहारकमार्गणायामागमे भणितमास्ते, तत: कारणात् केवलिनामाहारोऽस्तीति। तदप्ययुक्तम् । परिहार...यद्यपि षट्प्रकार आहारो भवति तथापि नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वमवबोद्धव्यम् । न च कवलाहारापेक्षया। तथाहि–सूक्ष्मा: सुरसा: सुगंधा अन्यमनुजानामसंभविन: कवलाहारं विनापि किंचिदूनपूर्वकोटिपर्यंतं शरीरस्थितिहेतव: सप्तधातुरहितपरमौदारिकशरीरनोकर्माहारयोग्या लाभांतरायकर्मनिरवशेषक्षयात् प्रतिक्षणं पुद्गला आस्रवंतीति...ततो ज्ञायते नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वम् । अथ मतम्–भवदीयकल्पनया आहारानाहारकत्वं नोकर्माहारापेक्षया, न च कवलाहारापेक्षया चेति कथं ज्ञायते। नैवम् । ‘‘एकं द्वौ त्रीन् वानाहारक:’’ इति तत्त्वार्थे कथितमास्ते। अस्य सूत्रस्यार्थ: कथ्यते–भवांतरगमनकाले विग्रहगतौ शरीराभावे सति नूतनशरीरधारणार्थं त्रयाणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलपिंडग्रहणं नोकर्माहार उच्यते। स च विग्रहगतौ कर्माहारे विद्यमानेऽप्येकद्वित्रिसमयपर्यंतं नास्ति। ततो नोकर्माहारापेक्षयाहारानाहारकत्वमागमे ज्ञायते। यदि पुन: कवलाहारापेक्षया तर्हि भोजनकालं विहाय सर्वदैवानाहारक एव, समयत्रयनियमो न घटते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मिथ्यादृष्टि आदि सयोग केवली पर्यंत तेरह गुणस्थानवर्ती जीव आहारक होते हैं ऐसा आहारक मार्गणा में आगम में कहा है। इसलिए केवली भगवान् के आहार होता है? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना युक्त नहीं है। इसका परिहार करते हैं। यद्यपि छह प्रकार का आहार होता है परंतु नोकर्माहार की अपेक्षा केवली को आहारक जानना चाहिए कवलाहार की अपेक्षा नहीं। सो ऐसे हैं–लाभांतराय कर्म का निरवशेष विनाश हो जाने के कारण सप्तधातुरहित परमौदारिक शरीर के नोकर्माहार के योग्य शरीर की स्थिति के हेतुभूत अन्य मनुष्यों को जो असंभव हैं ऐसे पुद्गल किंचिदून पूर्वकोटि पर्यंत प्रतिक्षण आते रहते हैं, इसलिए जाना जाता है कि केवली भगवान् को नोकर्माहार की अपेक्षा आहारकत्व है। <strong>प्रश्न</strong>–यह आपकी अपनी कल्पना है कि आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है कवलाहार की अपेक्षा नहीं। कैसे जाना जाता है? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है। एक दो अथवा तीन समय तक अनाहारक होता है’ ऐसा तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है। इस सूत्र का अर्थ कहते हैं–एक भव से दूसरे भव में गमन के समय विग्रहगति में शरीर का अभाव होने पर नवीन शरीर को धारण करने के लिए तीन शरीरों की पर्याप्ति के योग्य पुद्गल पिंड को ग्रहण करना नोकर्माहार कहलाता है। वह कर्माहार विग्रहगति में विद्यमान होने पर भी एक, दो, तीन समय पर्यंत नहीं होता है। इसलिए आगम में आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है ऐसा जाना जाता है। यदि कवलाहार की अपेक्षा हो तो भोजनकाल को छोड़कर सर्वदा अनाहारक ही होवे, तीन समय का नियम घटित न होवे। ( बोधपाहुड़/ टी./34/101/15)।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> परिषहों का सद्भाव होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए</strong> </span><br /> | |||
धवला 12/4,2,7,2/24/7 <span class="PrakritText">असादं वेदयमाणस्स सजोगिभयवंतस्स भुक्खातिसादीहि एक्कारसपरीसहेहि बाहिज्जमाणस्स कधं ण भुत्ती होज्ज। ण एस दोसो, पाणोयणेसु जादतण्हाए स समोहस्स मरणभएण भुंजंतस्स परीसहेहि पराजियस्स केवलित्तविरोहादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–असाता वेदनीय का वेदन करने वाले तथा क्षुधा तृषादि ग्यारह परिषहों द्वारा बाधा को प्राप्त हुए ऐसे सयोग केवली भगवान् के भोजन का ग्रहण कैसे नहीं होगा? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो भोजन पान में उत्पन्न हुई इच्छा से मोह युक्त है तथा मरण के भय से जो भोजन करता है, अतएव परीषहों से जो पराजित हुआ है ऐसे जीव के केवली होने में विरोध है।</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/12 <span class="SanskritText">यदि पुनर्मोहाभावेऽपि क्षुधादिपरिषहं जनयति तर्हि वधरोगादिपरिषहमपि जनयतु न च तथा। तदपि कस्मात् । ‘‘भुक्तयुपसर्गाभावात्’’ इति वचनात् अन्यदपि दूषणमस्ति। यदि क्षुधाबाधास्ति तर्हि क्षुधाक्षीणशक्तेरनंतवीर्यं नास्ति। तथैव दु:खितस्यानंतसुखमपि नास्ति। जिह्वेंद्रियपरिच्छित्तिरूपमतिज्ञानपरिणतस्य केवलज्ञानमपि न संभवति।</span>=<span class="HindiText">यदि केवली भगवान् को मोह का अभाव होने पर भी क्षुधादि परिषह होती हैं, तो वध तथा रोगादि परिषह भी होनी चाहिए। परंतु ये होती नहीं हैं, वह भी कैसे ‘‘भुक्ति और उपसर्ग का अभाव है’’ इस वचन से सिद्ध होता है। और भी दूषण लगता है। यदि केवली भगवान् को क्षुधा हो तो क्षुधा की बाधा से शक्ति क्षीण हो जाने से अनंत वीर्यपना न रहेगा, उसी से दुःखी होकर अनंत सुख भी नहीं बनेगा। तथा जिह्वा इंद्रिय की परिच्छित्तिरूप मतिज्ञान से परिणत उन केवली भगवान् को केवलज्ञान भी न बनेगा। ( बोधपाहुड़/ टी./34/101/22)।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9"> केवली भगवान् को क्षुधादि परिषह नहीं होती</strong> </span><br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/1/59 <span class="PrakritGatha">चउविहउवसग्गेहिं णिच्चविमुक्को कसायपरिहीणो। छुहपहुदिपरिसहेहिं परिचत्तो रायदोसेंहि।51।</span>=<span class="HindiText">देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत चार प्रकार के उपसर्गों से सदा विमुक्त हैं, कषायों से रहित हैं, क्षुधादिक बाईस परीषहों व रागद्वेष से परित्यक्त हैं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.10" id="4.10"> केवली को परिषह कहना उपचार है</strong> </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/9/11/429/8 <span class="SanskritText">मोहनीयोदयसहायाभावात्क्षुदादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्त:। सत्यमेवमेतत्–वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसद्भावापेक्षया परिषहोपचार: क्रियते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मोहनीय के उदय की सहायता न होने से क्षुधादि वेदना के न होने पर परिषह संज्ञायुक्त नहीं है? <strong>उत्तर</strong>–यह कथन सत्य ही है तथापि वेदना का अभाव होने पर द्रव्यकर्म के सद्भाव की अपेक्षा से यहाँ परीषहों का उपचार किया जाता है। ( राजवार्तिक/9/11/1/614/1 )। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.11" id="4.11"> असाता वेदनीय कर्म के उदय के कारण केवली को क्षुधादि परिषह होनी चाहिए</strong> <br /> | |||
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/ | <li><span class="HindiText" name="4.11.1" id="4.11.1"> घाति व मोहनीय कर्म की सहायता न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है— </span><br> राजवार्तिक/9/11/1/613/27 <span class="SanskritText">स्यान्मतम्-घातिकर्मप्रक्षयान्निमित्तोपरमे सति नाग्न्यरतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनालाभसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानदर्शनानि मा भृवन्, अमी पुनर्वेदनीयाश्रया: खलु परीषहा: प्राप्नुवंति भगवति जिने इति; तन्न; किं कारणम् । घातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात् । यथा विषद्रव्यं मंत्रौषधिबलादुपक्षीणमारणशक्तिकमुपयुज्यमानं न मरणाय कल्प्यते तथा ध्यानानलनिर्दग्धघातिकर्मेंधनस्यानंताप्रतिहतज्ञानादिचतुष्टयस्यांतरायाभावांनिरंतरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति क्षुधाद्यभाव: तत्सद्भावोपचाराद्ध्यानकल्पनवत् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–केवली में घातिया कर्म का नाश होने से निमित्त के हट जाने के कारण नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, | ||
याचना, अलाभ, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन परीषहें न हों, पर वेदनीय कर्म का उदय होने से तदाश्रित परीषहें तो होनी ही चाहिए? <strong>उत्तर</strong>–घातिया कर्मोदय रूपी सहायक के अभाव से अन्य कर्मों की सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। जैसे मंत्र औषधि के प्रयोग से जिसकी मारण शक्ति उपक्षीण हो गयी है ऐसे विष को खाने पर भी मरण नहीं होता, उसी तरह ध्यानाग्नि के द्वारा घाति कर्मेंधन के जल जाने पर अनंतचतुष्टय के स्वामी केवली के अंतराय का अभाव हो जाने से प्रतिक्षण शुभकर्म के पुद्गलों का संचय होते रहने से प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। इसलिए केवली में क्षुधादि नहीं होते। ( धवला 13/5,4,24/53/1 ); ( धवला 12/4,2,7,2/24/11 ); ( कषायपाहुड़/1/1,1/51/69/1 ); ( चारित्रसार/131/2 ); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/10 )।</span><br /> | |||
<strong> गोम्मटसार कर्मकांड व जीवतत्त्व प्रदीपिका/273</strong><span class="PrakritGatha"> णट्ठा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्हि जदो। तेण दु सादासादजसुहदुक्खं णत्थि इंदियजं।273।</span> <span class="SanskritText">सहकारिकारणमोहनीयाभावे विद्यमानोऽपि न स्वकार्यकारीत्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">जातैं सयोग केवलीकैं घातिकर्म का नाश भया है तातैं राग व द्वेष को कारणभूत क्रोधादि कषायों का निर्मूल नाश भया है। बहुरि युगपत् सकल प्रकाशी केवलज्ञान विषैं क्षयोपशमरूप परोक्ष मतिज्ञान और श्रुतज्ञान न संभवै तातैं इंद्रिय जनित ज्ञान नष्ट भया तिस कारण करि केवलिकैं साता असाता वेदनीय के उदयतैं सुख दुख नाहीं हैं जातैं सुख-दुख इंद्रिय जनित हैं बहुरि वेदनीय का सहकारी कारण मोहनीय का अभाव भया है तातैं वेदनीय का उदय होत संतै भी अपना सुख-दुख देने रूप कार्य करने कौं समर्थ नाहीं। ( क्षपणासार/ मू./616/728)</span><br /> | |||
<strong>प्रमेयकमलमार्तंड/पृ.303</strong> <span class="SanskritText">तथा असातादि वेदनीयं विद्यमानोदयमपि, असति मोहनीये, नि:सामर्थ्यत्वान्न क्षुद्दु:खकरणे प्रभु: सामग्रीत: कार्योत्पत्तिप्रसिद्ध:।</span> =<span class="HindiText">असातादि वेदनीय के विद्यमान होते हुए भी, मोहनीय के अभाव में असमर्थ होने से, वे केवली भगवान् को क्षुधा संबंधी दुःख को करने में असमर्थ हैं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.11.2" id="4.11.2"> साता वेदनीय के सहवर्तीपने से असाता की शक्ति अनंतगुणी क्षीण हो जाती है</strong></span><br /> | |||
<strong> राजवार्तिक/9/11/1/613/31 </strong><span class="SanskritText"> निरंतरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनं प्रत्यसमर्थमिति।</span>=<span class="HindiText">अंतरायकर्म का अभाव होने से प्रतिक्षण शुभकर्मपुद्गलों का संचय होते रहने से प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। ( चारित्रसार/131/3 )</span><br /> | |||
/ | <strong> धवला 2/1,1/433/2 </strong> <span class="PrakritText">असादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णत्थि। कारणभूत-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भयमेहुण-परिग्गहसण्णा अत्थि।</span>=<span class="HindiText">असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव हो जाने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं होती है। किंतु भय आदि संज्ञाओं के कारणभूत कर्मों का उदय संभव है, इसलिए उपचार से भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाएँ हैं।</span><br /> | ||
<strong> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/16 </strong> <span class="SanskritText">असद्वेद्योदयापेक्षया सद्वेद्योदयोऽनंतगुणोऽस्ति। तत: कारणात् शर्कराराशिमध्ये निंबकणिकावदसद्वेद्योदयो विद्यमानोऽपि न ज्ञायते। तथैवान्यदपि बाधकमस्ति—यथा प्रमत्तसंयतादि तपोधनानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मंदमोहोदयत्वादखंडबह्मचारीणां त्रिपरीषहबाधा नास्ति। यथैव च नवग्रेवेयकाद्यहमिंद्रदेवानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मंदमोहोदयेन स्त्रीविषयबाधा नास्ति, तथा भगवत्यसद्वेद्योदये विद्यमानेऽपि निरवशेषमोहाभावात् क्षुधाबाधा नास्ति।</span>=<span class="HindiText">और भी कारण है, कि केवली (भगवान् के) असाता वेदनीय के उदय की अपेक्षा साता वेदनीय का उदय अनंतगुणा है। इस कारण खंड (चीनी) की बड़ी राशि के बीच में नीम की एक कणिका की भाँति असातावेदनीय का उदय होने पर भी नहीं जाना जाता है। और दूसरी एक और बाधा है—जैसे अप्रमत्तसंयत आदि तपोधनों के वेद का उदय होने पर भी मोह का मंद उदय होने से उन अखंड ब्रह्मचारियों के स्त्रीपरीषहरूप बाधा नहीं होती, और जिस प्रकार नवेग्रेवेयकादि में अहमिंद्रदेवों के वेद का उदय विद्यमान होने पर भी मोह के मंद उदय से स्त्री-विषयक बाधा नहीं होती, उसी प्रकार भगवान् के असातावेदनीय का उदय विद्यमान होने पर भी निरवशेष मोह का अभाव होने से क्षुधा की बाधा नहीं होती। (और भी–देखें [[ केवली#4.12 | केवली - 4.12]]) <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.11.3" id="4.11.3">असाता भी सातारूप परिणमन कर जाता है</strong> </span><br /> | |||
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./274/403 <span class="PrakritGatha">समयट्ठिदिगो बंधो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स। तेण असादस्सुदओ सादसरूवेण परिणदि।274।</span> <span class="SanskritText">यतस्तस्य केवलिन: सातवेदनीयस्य बंध: समयस्थितिक: तत: उदयात्मक एव स्यात् तेन तत्रासातोदय: सातास्वरूपेण परिणमति कुत: विशिष्टशुद्धे तस्मिन् असातस्य अनंतगुणहीनशक्तित्वसहायरहितत्वाभ्यां अव्यक्तोदयत्वात् । बध्यमानसातस्य च अनंतगुणानुभागत्वात् तथात्वस्यावश्यंभावात् । न च तत्र सातोदयोऽसातस्वरूपेण परिणमतीति शक्यते वक्तुं द्विसमयस्थितिकत्वप्रसंगात् अन्यथा असातस्यैव बंध: प्रसज्यते।</span>=<span class="HindiText">जातैं तिस केवलीकैं साता वेदनीय का बंध एक समय स्थितिकौ लियें है तातैं उदय स्वरूप ही है तातैं केवलीकै असाता वेदनीय का उदय सातारूप होइकरि परिनमैं है। काहैं तै? केवली के विषैं विशुद्धता विशेष है तातैं असातावेदनीय की अनुभाग शक्ति अनंतगुणी हीन भई है अर मोह का सहाय था ताका अभाव भया है तातैं असातावेदनीय का अप्रगट सूक्ष्म उदय है। बहुरि जो सातावेदनीय बंधै है ताका अनुभाग अनंतगुणा है जातैं, साता वेदनीय की स्थिति की अधिकता तो संक्लेश तातैं हो है अनुभाग की अधिकता विशुद्धतातै हो है सो केवली के विशुद्धता विशेष है तातैं स्थिति का तौ अभाव है बंध है सो उदयरूप परिणमता ही हो है अर ताकैं सातावेदनीय का अनुभाग अनंतगुणा हो है ताहीतैं जो असाता का भी उदय है सो सातारूप होइकरि परिनमै है। कोऊ कहै कि साता असातारूप होइ परिनमै है ऐसे क्यों न कहों? ताका उत्तर–ताका स्थितिबंध दोय समय का न ठहरे वा अन्य प्रकार कहैं असाता ही का बंध होइ तातैं तैं कह्या कहना संभवे नाहीं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="4.12" id="4.12"> निष्फल होने के कारण असाता का उदय ही नहीं कहना चाहिए</strong></span><br /> | |||
/ | धवला 13/4,2,7,2/24/12 <span class="PrakritText">णिप्फलस्स परमाणुपुंजस्स समयं पडि परिसयंतस्स कधं उदयववएसो। ण, जीव-कम्मविवेगमेत्ताफलं दट्ठूण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो। जदि एवं तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि, असादावेदणीयस्सेव उदओ अत्थि त्ति ण वत्तव्वं, सगफलाणुप्पायणेण दोण्णं पि सरिसत्तुवलंभादो। ण, असादपरमाणूणं व सादपरमाणूणं सगसरूवेण णिज्जराभावादो। सादपरमाणओ असादसरूवेण विणस्संतावत्थाए परिणमिदूण विणस्संते दट्ठूण सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि त्ति वुच्चदे। ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अत्थि, (असाद)-परमाणूणं सगसरूवेणेव णिज्जरूवलंभादो। तम्हा दुक्खरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयभावो जुज्जदि त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण होने वाले परमाणु समूह की उदय संज्ञा कैसे हो सकती है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, जीव व कर्म के विवेकमात्र फल को देखकर उदय को फलरूप से स्वीकार किया गया है। <strong>प्रश्न</strong>—यदि ऐसा है तो असातावेदनीय के उदय काल में साता वेदनीय का उदय नहीं होता, केवल असाता वेदनीय का ही उदय रहता है ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि अपने फल को नहीं उत्पन्न करने की अपेक्षा दोनों में ही समानता पायी जाती है। <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, तब असातावेदनीय के परमाणुओं के समान सातावेदनीय के परमाणुओं की अपने रूप से निर्जरा नहीं होती। किंतु विनाश होने की अवस्था में असाता रूप से परिणमकर उनका विनाश होता है यह देखकर सातावेदनीय का उदय नहीं हैं, ऐसा कहा जाता है। परंतु असाता वेदनीय का यह क्रम नहीं है, क्योंकि तब असाता के परमाणुओं की अपने रूप से निर्जरा पायी जाती है। इस कारण दुःखरूप फल के अभाव में भी असातावेदनीय का उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है।</span><br /> | ||
/ | धवला 13/5,4,24/53/5 <span class="PrakritText">जदि असादावेदणीयं णिप्फलं चेव, तो उदओ अत्थि त्ति किमिदि उच्चदे। ण, भूदपुव्वणयं पडुच्च तदुत्तीदो। किंच ण सहकारिकारणघादिकम्माभावेणेव सेसकम्माणिव्व पत्तणिव्वीयभावमसादावेदणीयं, किंतु सादावेदणीयबंधेण उदयसरूवेण उदयागदउक्कस्साणुभागसादावेदणीयसहकारिकारणेण पडिहयउदयत्तादो वि। ण च बंधे उदयसरूवे संते सादावेदणीयगोवुच्छा थिडक्कसंकमेण असादावेदणीयं गच्छदि, विरोहादो। थिउसंक्कमाभावे सादासादाणमजोगिचरिमसमए संतवोच्छेदो पसज्जदि त्ति भणिदे—ण, वोच्छिण्णसादबंधम्मि अजोगिम्हि सादोदयणियमाभावादो। सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो फिट्टिदूण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे—ण, अजोगिकेवलिं मोत्तूण अण्णत्थ उदयकालस्स अंतोमुहुत्तणियमब्भुवगमादो।....सादावेदणीयस्स बंधो अत्थि त्ति चे ण, तस्स ट्ठिदि-अणुभागबंधाभावेण...बंधववएसविरोहादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—यदि असातावेदनीय कर्म निष्फल ही है तो वहाँ उसका उदय है, ऐसा क्यों कहा जाता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, भूतपूर्व नय की अपेक्षा से वैसा कहा जाता है। दूसरे...वह न केवल निर्बीज भाव को प्राप्त हुआ है किंतु उदयस्वरूप सातावदेनीय का बंध होने से और उदयागत उत्कृष्ट अनुभाग युक्त सातावेदनीय रूप सहकारी कारण होने से उसका उदय भी प्रतिहत हो जाता है। <strong>प्रश्न</strong>—बंध के उदय स्वरूप रहते हुए साता वेदनीयकर्म की गोपुच्छा स्तिबुक संक्रमण के द्वारा असाता वेदनीय को प्राप्त होती होगी? <strong>उत्तर</strong>—ऐसा मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>—यदि यहाँ स्तिबुक संक्रमण का अभाव मानते हैं, तो साता और असाता को सत्त्व व्युच्छित्ति अयोगी के अंतिमसमय में होने का प्रसंग आता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि साता के बंध की व्युच्छित्ति हो जाने पर अयोगी गुणस्थान में साता के उदय का कोई नियम नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>—इस तरह तो सातावेदनीय का उदयकाल अंतर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि अयोगिकेवली गुणस्थान को छोड़कर अन्यत्र उदयकाल का अंतर्मुहूर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है।...। <strong>प्रश्न</strong>—वहाँ सातावेदनीय का बंध है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि स्थितिबंध और अनुभागबंध के बिना....सातावेदनीय कर्म को ‘बंध’ संज्ञा देने में विरोध आता है। </span></li> | ||
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Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
- कवलाहार व परीषह संबंधी निर्देश व शंका—समाधान
- केवली को नोकर्माहार होता है
क्षपणासार/618 पडिसमयं दिव्वतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्धं। समयपबद्धं बंधदि गलिदवसेसाउमेत्तठिदी।618।=सयोगी जिन हैं सो समय समय प्रति नोकर्म जो औदारिक तीहि संबंधी जो समय प्रबद्ध ताकौ ग्रहण करै है। ताकी स्थिति आयु व्यतीत भए पीछे जेता अवशेष रहा तावन्मात्र जाननी। सो नोकर्म वर्गणा के ग्रहण ही का नाम आहार मार्गणा है ताका सद्भाव केवली कैं है।
- समुद्घात अवस्था में नोकर्माहार भी नहीं होता
षट खंडागम1/1,1/सू.177/410 अणाहारा....केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं अजोगिकेवली....चेदि।177।
धवला 2/1,1/669/5 कम्मग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारित्तं किण्ण उच्चदि त्ति भणिदे ण उच्चदि; आहारस्स तिण्णिसमयविरहकालोवलद्धीदो।=1. समुद्घातगत केवलियों के सयोग केवली और अयोग केवली अनाहारक होते हैं। 2. प्रश्न–कार्माण काय योगी की अवस्था में भी कर्म वर्गणाओं के ग्रहण का अस्तित्व पाया जाता है, इस अपेक्षा कार्माण काय योगी जीवों को आहारक क्यों नहीं कहा जाता ? उत्तर–उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्माण काययोग के समय नोकर्मणाओं के आहार का अधिक से अधिक तीन समय तक विरह काल पाया जाता हैं।
क्षपणासार/619 णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।=समुद्घात कौ प्राप्त केवली विषै दोय तौ प्रतर के समय अर एक लोक पूरण का समय इनि तीन समयानिविषै नोकर्म का आहार नियमतै नहीं है।
- केवली को कवलाहार नहीं होता
सर्वार्थसिद्धि/8/1/375 केवली कवलाहारी...विपर्यय।=केवली को कवलाहारी मानना विपरीत मिथ्या-दर्शन है।
- मनुष्य होने के कारण केवली को भी कवलाहारी होना चाहिए
स्वयंभू स्तोत्र/ मूल/75 मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वपि च देवता यत:। तेन नाथ ! परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष! प्रसीद न:।5।=हे नाथ ! चूँकि आप मानुषी प्रकृति को अतिक्रांत कर गये हैं और देवताओं में भी देवता हैं, इसलिए आप उत्कृष्ट देवता हैं, अत: हे धर्म जिन ! आप हमारे कल्याण के लिए प्रसन्न होवें।75। ( बोधपाहुड़/ टीका/34/101)
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/29/12 केवलिनो कवलाहारोऽस्ति मनुष्यत्वात् वर्तमानमनुष्यवत् । तदप्ययुक्तम् । तर्हि पूर्वकालपुरुषाणां सर्वज्ञत्वं नास्ति, रामरावणादिपुरुषाणां च विशेषसामर्थ्यं नास्ति वर्तमानमनुष्यवत् । न च तथा।=प्रश्न–केवली भगवान् के कवलाहार होता है, क्योंकि वह मनुष्य है, वर्तमान मनुष्य की भाँति? उत्तर–ऐसा कहना युक्त नहीं है। क्योंकि अन्यथा पूर्वकाल के पुरुषों में सर्वज्ञता भी नहीं है। अथवा राम रावणादि पुरुषों में विशेष सामर्थ्य नहीं है, वर्तमान मनुष्य की भाँति। ऐसा मानना पड़ेगा। परंतु ऐसा है नहीं। (अत: केवली कवलाहारी नहीं है।)
- संयम की रक्षा के लिए भी केवली को कवलाहार की आवश्यकता थी
कषायपाहुड़/1/1,1/52/5 किंतु तिरयणट्ठमिदि ण वोत्तुं जुत्तं, तत्थ पत्तासेसरुवम्मि तदसंभवादो। तं जहा, ण ताव णाणट्ठं भुंजइ, पत्तकेवलणाणभावादो। ण च केवलणाणादो अहियमण्णं पत्थणिज्जं णाणमत्थि जेण तदट्ठं केवली भुंजेज्ज। ण संजमट्ठं, पत्तजहाक्खादसंजमादो। ण ज्झाणट्ठं; विसईकयासेसतिहुवणस्स ज्झेयाभावादो। ण भुंजइ केवली भुत्तिकारणाभावादो त्ति सिद्धं।
कषायपाहुड़ 1/1,1/53/71/1 अह जइ सो भुंजइ तो बलाउ-सादुसरीरुवचयतेज-सुहट्ठं चेव भुंजइ संसारिजावो व्व, ण च एवं, समोहस्स केवलणाणाणुववत्तीदो। ण च अकेवलिवयणमागमो, रागदोसमोहकलंककिए ....सच्चाभावादो। आगमाभावे ण तिरयणपउत्ति त्ति तित्थवोच्छेदो तित्थस्स णिव्वाहवोहविसयीकयस्स उवलंभादो।=1. प्रश्न–यदि कहा जाय कि केवली रत्नत्रय के लिए भोजन करते हैं? उत्तर–यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि केवली जिन पूर्णरूप से आत्मस्वभाव को प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए वे ‘रत्नत्रय अर्थात् ज्ञान, संयम और ध्यान के लिए भोजन करते हैं, यह बात संभव नहीं है। इसी का स्पष्टीकरण करते हैं–केवली जिन ज्ञान की प्राप्ति के लिए तो भोजन करते नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है। तथा केवलज्ञान से बड़ा और कोई दूसरा ज्ञान प्राप्त करने योग्य नहीं है, जिससे उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए भोजन करें। न ही संयम के लिए भोजन करते हैं क्योंकि उन्हें यथाख्यात संयम की प्राप्ति हो चुकी है। तथा ध्यान के लिए भी भोजन नहीं करते क्योंकि उन्होंने त्रिभुवन को जान लिया है, इसलिए इनके ध्यान करने योग्य कोई पदार्थ ही नहीं रहा है। अतएव भोजन करने का कोई कारण न रहने से केवली जिन भोजन नहीं करते हैं, यह सिद्ध हो जाता है। 2. यदि केवली जिन भोजन करते हैं तो संसारी जीवों के समान बल, आयु, स्वादिष्ट भोजन, शरीर की वृद्धि, तेज और सुख के लिए ही भोजन करते हैं ऐसा मानना पड़ेगा, परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वह मोहयुक्त हो जायेंगे और इसलिए उनके केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। यदि कहा जाये कि जिनदेव को केवलज्ञान नहीं होता तो केवलज्ञान से रहित जीव के वचन ही आगम हो जावें ? यह भी ठीक नहीं क्योंकि ऐसा मानने पर राग, द्वेष, और मोह से कलंकित...जीवों के सत्यता का अभाव होने से वचन आगम नहीं कहे जायेंगे। आगम का अभाव होने से रत्नत्रय की प्रवृत्ति न होगी और तीर्थ का व्युच्छेद हो जायेगा। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि निर्बाध बोध के द्वारा ज्ञात तीर्थ की उपलब्धि बराबर होती है। न्यायकुमुद चंद्रिका/पृ.852।
प्रमेयकमलमार्तंड/पृ.300 कवलाहारित्वे चास्य सरागत्वप्रसंग:। =केवली भगवान् को कवलाहारी मानने पर सरागत्व का प्रसंग प्राप्त होता है।
- औदारिक शरीर होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/7 केवलिनां भुक्तिरस्ति, औदारिकशरीरसद्भावात् ।....अस्मदादिवत् । परिहारमाह—तद्भगवत: शरीरमौदारिकं न भवति किंतु परमौदारिकम्–शुद्धस्फटिकसकाशं तेजोमूर्तिमयं वपु:। जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् । =प्रश्न–केवली भगवान् भोजन करते हैं, औदारिक शरीर का सद्भाव होने से; हमारी भाँति? उत्तर–भगवान् का शरीर औदारिक नहीं होता अपितु परमौदारिक है। कहा भी है कि–‘दोषों के विनाश हो जाने से शुद्ध स्फटिक के सदृश सात धातु से रहित तेज मूर्तिमय शरीर हो जाता है।
- आहारक होने के कारण केवली का कवलाहार होना चाहिए
धवला/1/1,1,173/409/10 अत्र कवललेपोष्ममन:कर्माहारान् परित्यज्यनोकर्माहारो ग्राह्य:, अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सहविरोधात्=आहारक मार्गणा में आहार शब्द से कवलाहार, लेपाहार...आदि को छोड़कर नोकर्माहार का ही ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा आहारकाल और विरह के साथ विरोध आता है।
प्रवचनसार/20/28/21 मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवलिपर्यंतास्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनो जीवा आहारका भवंतीत्याहारकमार्गणायामागमे भणितमास्ते, तत: कारणात् केवलिनामाहारोऽस्तीति। तदप्ययुक्तम् । परिहार...यद्यपि षट्प्रकार आहारो भवति तथापि नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वमवबोद्धव्यम् । न च कवलाहारापेक्षया। तथाहि–सूक्ष्मा: सुरसा: सुगंधा अन्यमनुजानामसंभविन: कवलाहारं विनापि किंचिदूनपूर्वकोटिपर्यंतं शरीरस्थितिहेतव: सप्तधातुरहितपरमौदारिकशरीरनोकर्माहारयोग्या लाभांतरायकर्मनिरवशेषक्षयात् प्रतिक्षणं पुद्गला आस्रवंतीति...ततो ज्ञायते नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वम् । अथ मतम्–भवदीयकल्पनया आहारानाहारकत्वं नोकर्माहारापेक्षया, न च कवलाहारापेक्षया चेति कथं ज्ञायते। नैवम् । ‘‘एकं द्वौ त्रीन् वानाहारक:’’ इति तत्त्वार्थे कथितमास्ते। अस्य सूत्रस्यार्थ: कथ्यते–भवांतरगमनकाले विग्रहगतौ शरीराभावे सति नूतनशरीरधारणार्थं त्रयाणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलपिंडग्रहणं नोकर्माहार उच्यते। स च विग्रहगतौ कर्माहारे विद्यमानेऽप्येकद्वित्रिसमयपर्यंतं नास्ति। ततो नोकर्माहारापेक्षयाहारानाहारकत्वमागमे ज्ञायते। यदि पुन: कवलाहारापेक्षया तर्हि भोजनकालं विहाय सर्वदैवानाहारक एव, समयत्रयनियमो न घटते।=प्रश्न–मिथ्यादृष्टि आदि सयोग केवली पर्यंत तेरह गुणस्थानवर्ती जीव आहारक होते हैं ऐसा आहारक मार्गणा में आगम में कहा है। इसलिए केवली भगवान् के आहार होता है? उत्तर–ऐसा कहना युक्त नहीं है। इसका परिहार करते हैं। यद्यपि छह प्रकार का आहार होता है परंतु नोकर्माहार की अपेक्षा केवली को आहारक जानना चाहिए कवलाहार की अपेक्षा नहीं। सो ऐसे हैं–लाभांतराय कर्म का निरवशेष विनाश हो जाने के कारण सप्तधातुरहित परमौदारिक शरीर के नोकर्माहार के योग्य शरीर की स्थिति के हेतुभूत अन्य मनुष्यों को जो असंभव हैं ऐसे पुद्गल किंचिदून पूर्वकोटि पर्यंत प्रतिक्षण आते रहते हैं, इसलिए जाना जाता है कि केवली भगवान् को नोकर्माहार की अपेक्षा आहारकत्व है। प्रश्न–यह आपकी अपनी कल्पना है कि आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है कवलाहार की अपेक्षा नहीं। कैसे जाना जाता है? उत्तर–ऐसा नहीं है। एक दो अथवा तीन समय तक अनाहारक होता है’ ऐसा तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है। इस सूत्र का अर्थ कहते हैं–एक भव से दूसरे भव में गमन के समय विग्रहगति में शरीर का अभाव होने पर नवीन शरीर को धारण करने के लिए तीन शरीरों की पर्याप्ति के योग्य पुद्गल पिंड को ग्रहण करना नोकर्माहार कहलाता है। वह कर्माहार विग्रहगति में विद्यमान होने पर भी एक, दो, तीन समय पर्यंत नहीं होता है। इसलिए आगम में आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है ऐसा जाना जाता है। यदि कवलाहार की अपेक्षा हो तो भोजनकाल को छोड़कर सर्वदा अनाहारक ही होवे, तीन समय का नियम घटित न होवे। ( बोधपाहुड़/ टी./34/101/15)।
- परिषहों का सद्भाव होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए
धवला 12/4,2,7,2/24/7 असादं वेदयमाणस्स सजोगिभयवंतस्स भुक्खातिसादीहि एक्कारसपरीसहेहि बाहिज्जमाणस्स कधं ण भुत्ती होज्ज। ण एस दोसो, पाणोयणेसु जादतण्हाए स समोहस्स मरणभएण भुंजंतस्स परीसहेहि पराजियस्स केवलित्तविरोहादो। =प्रश्न–असाता वेदनीय का वेदन करने वाले तथा क्षुधा तृषादि ग्यारह परिषहों द्वारा बाधा को प्राप्त हुए ऐसे सयोग केवली भगवान् के भोजन का ग्रहण कैसे नहीं होगा? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो भोजन पान में उत्पन्न हुई इच्छा से मोह युक्त है तथा मरण के भय से जो भोजन करता है, अतएव परीषहों से जो पराजित हुआ है ऐसे जीव के केवली होने में विरोध है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/12 यदि पुनर्मोहाभावेऽपि क्षुधादिपरिषहं जनयति तर्हि वधरोगादिपरिषहमपि जनयतु न च तथा। तदपि कस्मात् । ‘‘भुक्तयुपसर्गाभावात्’’ इति वचनात् अन्यदपि दूषणमस्ति। यदि क्षुधाबाधास्ति तर्हि क्षुधाक्षीणशक्तेरनंतवीर्यं नास्ति। तथैव दु:खितस्यानंतसुखमपि नास्ति। जिह्वेंद्रियपरिच्छित्तिरूपमतिज्ञानपरिणतस्य केवलज्ञानमपि न संभवति।=यदि केवली भगवान् को मोह का अभाव होने पर भी क्षुधादि परिषह होती हैं, तो वध तथा रोगादि परिषह भी होनी चाहिए। परंतु ये होती नहीं हैं, वह भी कैसे ‘‘भुक्ति और उपसर्ग का अभाव है’’ इस वचन से सिद्ध होता है। और भी दूषण लगता है। यदि केवली भगवान् को क्षुधा हो तो क्षुधा की बाधा से शक्ति क्षीण हो जाने से अनंत वीर्यपना न रहेगा, उसी से दुःखी होकर अनंत सुख भी नहीं बनेगा। तथा जिह्वा इंद्रिय की परिच्छित्तिरूप मतिज्ञान से परिणत उन केवली भगवान् को केवलज्ञान भी न बनेगा। ( बोधपाहुड़/ टी./34/101/22)।
- केवली भगवान् को क्षुधादि परिषह नहीं होती
तिलोयपण्णत्ति/1/59 चउविहउवसग्गेहिं णिच्चविमुक्को कसायपरिहीणो। छुहपहुदिपरिसहेहिं परिचत्तो रायदोसेंहि।51।=देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत चार प्रकार के उपसर्गों से सदा विमुक्त हैं, कषायों से रहित हैं, क्षुधादिक बाईस परीषहों व रागद्वेष से परित्यक्त हैं।
- केवली को परिषह कहना उपचार है
सर्वार्थसिद्धि/9/11/429/8 मोहनीयोदयसहायाभावात्क्षुदादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्त:। सत्यमेवमेतत्–वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसद्भावापेक्षया परिषहोपचार: क्रियते।=प्रश्न–मोहनीय के उदय की सहायता न होने से क्षुधादि वेदना के न होने पर परिषह संज्ञायुक्त नहीं है? उत्तर–यह कथन सत्य ही है तथापि वेदना का अभाव होने पर द्रव्यकर्म के सद्भाव की अपेक्षा से यहाँ परीषहों का उपचार किया जाता है। ( राजवार्तिक/9/11/1/614/1 )।
- असाता वेदनीय कर्म के उदय के कारण केवली को क्षुधादि परिषह होनी चाहिए
- घाति व मोहनीय कर्म की सहायता न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है—
राजवार्तिक/9/11/1/613/27 स्यान्मतम्-घातिकर्मप्रक्षयान्निमित्तोपरमे सति नाग्न्यरतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनालाभसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानदर्शनानि मा भृवन्, अमी पुनर्वेदनीयाश्रया: खलु परीषहा: प्राप्नुवंति भगवति जिने इति; तन्न; किं कारणम् । घातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात् । यथा विषद्रव्यं मंत्रौषधिबलादुपक्षीणमारणशक्तिकमुपयुज्यमानं न मरणाय कल्प्यते तथा ध्यानानलनिर्दग्धघातिकर्मेंधनस्यानंताप्रतिहतज्ञानादिचतुष्टयस्यांतरायाभावांनिरंतरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति क्षुधाद्यभाव: तत्सद्भावोपचाराद्ध्यानकल्पनवत् ।=प्रश्न–केवली में घातिया कर्म का नाश होने से निमित्त के हट जाने के कारण नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, अलाभ, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन परीषहें न हों, पर वेदनीय कर्म का उदय होने से तदाश्रित परीषहें तो होनी ही चाहिए? उत्तर–घातिया कर्मोदय रूपी सहायक के अभाव से अन्य कर्मों की सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। जैसे मंत्र औषधि के प्रयोग से जिसकी मारण शक्ति उपक्षीण हो गयी है ऐसे विष को खाने पर भी मरण नहीं होता, उसी तरह ध्यानाग्नि के द्वारा घाति कर्मेंधन के जल जाने पर अनंतचतुष्टय के स्वामी केवली के अंतराय का अभाव हो जाने से प्रतिक्षण शुभकर्म के पुद्गलों का संचय होते रहने से प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। इसलिए केवली में क्षुधादि नहीं होते। ( धवला 13/5,4,24/53/1 ); ( धवला 12/4,2,7,2/24/11 ); ( कषायपाहुड़/1/1,1/51/69/1 ); ( चारित्रसार/131/2 ); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/10 )।
गोम्मटसार कर्मकांड व जीवतत्त्व प्रदीपिका/273 णट्ठा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्हि जदो। तेण दु सादासादजसुहदुक्खं णत्थि इंदियजं।273। सहकारिकारणमोहनीयाभावे विद्यमानोऽपि न स्वकार्यकारीत्यर्थ:।=जातैं सयोग केवलीकैं घातिकर्म का नाश भया है तातैं राग व द्वेष को कारणभूत क्रोधादि कषायों का निर्मूल नाश भया है। बहुरि युगपत् सकल प्रकाशी केवलज्ञान विषैं क्षयोपशमरूप परोक्ष मतिज्ञान और श्रुतज्ञान न संभवै तातैं इंद्रिय जनित ज्ञान नष्ट भया तिस कारण करि केवलिकैं साता असाता वेदनीय के उदयतैं सुख दुख नाहीं हैं जातैं सुख-दुख इंद्रिय जनित हैं बहुरि वेदनीय का सहकारी कारण मोहनीय का अभाव भया है तातैं वेदनीय का उदय होत संतै भी अपना सुख-दुख देने रूप कार्य करने कौं समर्थ नाहीं। ( क्षपणासार/ मू./616/728)
प्रमेयकमलमार्तंड/पृ.303 तथा असातादि वेदनीयं विद्यमानोदयमपि, असति मोहनीये, नि:सामर्थ्यत्वान्न क्षुद्दु:खकरणे प्रभु: सामग्रीत: कार्योत्पत्तिप्रसिद्ध:। =असातादि वेदनीय के विद्यमान होते हुए भी, मोहनीय के अभाव में असमर्थ होने से, वे केवली भगवान् को क्षुधा संबंधी दुःख को करने में असमर्थ हैं।
- साता वेदनीय के सहवर्तीपने से असाता की शक्ति अनंतगुणी क्षीण हो जाती है
राजवार्तिक/9/11/1/613/31 निरंतरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनं प्रत्यसमर्थमिति।=अंतरायकर्म का अभाव होने से प्रतिक्षण शुभकर्मपुद्गलों का संचय होते रहने से प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। ( चारित्रसार/131/3 )
धवला 2/1,1/433/2 असादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णत्थि। कारणभूत-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भयमेहुण-परिग्गहसण्णा अत्थि।=असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव हो जाने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं होती है। किंतु भय आदि संज्ञाओं के कारणभूत कर्मों का उदय संभव है, इसलिए उपचार से भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाएँ हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/20/28/16 असद्वेद्योदयापेक्षया सद्वेद्योदयोऽनंतगुणोऽस्ति। तत: कारणात् शर्कराराशिमध्ये निंबकणिकावदसद्वेद्योदयो विद्यमानोऽपि न ज्ञायते। तथैवान्यदपि बाधकमस्ति—यथा प्रमत्तसंयतादि तपोधनानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मंदमोहोदयत्वादखंडबह्मचारीणां त्रिपरीषहबाधा नास्ति। यथैव च नवग्रेवेयकाद्यहमिंद्रदेवानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मंदमोहोदयेन स्त्रीविषयबाधा नास्ति, तथा भगवत्यसद्वेद्योदये विद्यमानेऽपि निरवशेषमोहाभावात् क्षुधाबाधा नास्ति।=और भी कारण है, कि केवली (भगवान् के) असाता वेदनीय के उदय की अपेक्षा साता वेदनीय का उदय अनंतगुणा है। इस कारण खंड (चीनी) की बड़ी राशि के बीच में नीम की एक कणिका की भाँति असातावेदनीय का उदय होने पर भी नहीं जाना जाता है। और दूसरी एक और बाधा है—जैसे अप्रमत्तसंयत आदि तपोधनों के वेद का उदय होने पर भी मोह का मंद उदय होने से उन अखंड ब्रह्मचारियों के स्त्रीपरीषहरूप बाधा नहीं होती, और जिस प्रकार नवेग्रेवेयकादि में अहमिंद्रदेवों के वेद का उदय विद्यमान होने पर भी मोह के मंद उदय से स्त्री-विषयक बाधा नहीं होती, उसी प्रकार भगवान् के असातावेदनीय का उदय विद्यमान होने पर भी निरवशेष मोह का अभाव होने से क्षुधा की बाधा नहीं होती। (और भी–देखें केवली - 4.12)
- असाता भी सातारूप परिणमन कर जाता है
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./274/403 समयट्ठिदिगो बंधो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स। तेण असादस्सुदओ सादसरूवेण परिणदि।274। यतस्तस्य केवलिन: सातवेदनीयस्य बंध: समयस्थितिक: तत: उदयात्मक एव स्यात् तेन तत्रासातोदय: सातास्वरूपेण परिणमति कुत: विशिष्टशुद्धे तस्मिन् असातस्य अनंतगुणहीनशक्तित्वसहायरहितत्वाभ्यां अव्यक्तोदयत्वात् । बध्यमानसातस्य च अनंतगुणानुभागत्वात् तथात्वस्यावश्यंभावात् । न च तत्र सातोदयोऽसातस्वरूपेण परिणमतीति शक्यते वक्तुं द्विसमयस्थितिकत्वप्रसंगात् अन्यथा असातस्यैव बंध: प्रसज्यते।=जातैं तिस केवलीकैं साता वेदनीय का बंध एक समय स्थितिकौ लियें है तातैं उदय स्वरूप ही है तातैं केवलीकै असाता वेदनीय का उदय सातारूप होइकरि परिनमैं है। काहैं तै? केवली के विषैं विशुद्धता विशेष है तातैं असातावेदनीय की अनुभाग शक्ति अनंतगुणी हीन भई है अर मोह का सहाय था ताका अभाव भया है तातैं असातावेदनीय का अप्रगट सूक्ष्म उदय है। बहुरि जो सातावेदनीय बंधै है ताका अनुभाग अनंतगुणा है जातैं, साता वेदनीय की स्थिति की अधिकता तो संक्लेश तातैं हो है अनुभाग की अधिकता विशुद्धतातै हो है सो केवली के विशुद्धता विशेष है तातैं स्थिति का तौ अभाव है बंध है सो उदयरूप परिणमता ही हो है अर ताकैं सातावेदनीय का अनुभाग अनंतगुणा हो है ताहीतैं जो असाता का भी उदय है सो सातारूप होइकरि परिनमै है। कोऊ कहै कि साता असातारूप होइ परिनमै है ऐसे क्यों न कहों? ताका उत्तर–ताका स्थितिबंध दोय समय का न ठहरे वा अन्य प्रकार कहैं असाता ही का बंध होइ तातैं तैं कह्या कहना संभवे नाहीं।
- घाति व मोहनीय कर्म की सहायता न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है—
- निष्फल होने के कारण असाता का उदय ही नहीं कहना चाहिए
धवला 13/4,2,7,2/24/12 णिप्फलस्स परमाणुपुंजस्स समयं पडि परिसयंतस्स कधं उदयववएसो। ण, जीव-कम्मविवेगमेत्ताफलं दट्ठूण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो। जदि एवं तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि, असादावेदणीयस्सेव उदओ अत्थि त्ति ण वत्तव्वं, सगफलाणुप्पायणेण दोण्णं पि सरिसत्तुवलंभादो। ण, असादपरमाणूणं व सादपरमाणूणं सगसरूवेण णिज्जराभावादो। सादपरमाणओ असादसरूवेण विणस्संतावत्थाए परिणमिदूण विणस्संते दट्ठूण सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि त्ति वुच्चदे। ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अत्थि, (असाद)-परमाणूणं सगसरूवेणेव णिज्जरूवलंभादो। तम्हा दुक्खरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयभावो जुज्जदि त्ति सिद्धं।=प्रश्न—बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण होने वाले परमाणु समूह की उदय संज्ञा कैसे हो सकती है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, जीव व कर्म के विवेकमात्र फल को देखकर उदय को फलरूप से स्वीकार किया गया है। प्रश्न—यदि ऐसा है तो असातावेदनीय के उदय काल में साता वेदनीय का उदय नहीं होता, केवल असाता वेदनीय का ही उदय रहता है ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि अपने फल को नहीं उत्पन्न करने की अपेक्षा दोनों में ही समानता पायी जाती है। उत्तर—नहीं, क्योंकि, तब असातावेदनीय के परमाणुओं के समान सातावेदनीय के परमाणुओं की अपने रूप से निर्जरा नहीं होती। किंतु विनाश होने की अवस्था में असाता रूप से परिणमकर उनका विनाश होता है यह देखकर सातावेदनीय का उदय नहीं हैं, ऐसा कहा जाता है। परंतु असाता वेदनीय का यह क्रम नहीं है, क्योंकि तब असाता के परमाणुओं की अपने रूप से निर्जरा पायी जाती है। इस कारण दुःखरूप फल के अभाव में भी असातावेदनीय का उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है।
धवला 13/5,4,24/53/5 जदि असादावेदणीयं णिप्फलं चेव, तो उदओ अत्थि त्ति किमिदि उच्चदे। ण, भूदपुव्वणयं पडुच्च तदुत्तीदो। किंच ण सहकारिकारणघादिकम्माभावेणेव सेसकम्माणिव्व पत्तणिव्वीयभावमसादावेदणीयं, किंतु सादावेदणीयबंधेण उदयसरूवेण उदयागदउक्कस्साणुभागसादावेदणीयसहकारिकारणेण पडिहयउदयत्तादो वि। ण च बंधे उदयसरूवे संते सादावेदणीयगोवुच्छा थिडक्कसंकमेण असादावेदणीयं गच्छदि, विरोहादो। थिउसंक्कमाभावे सादासादाणमजोगिचरिमसमए संतवोच्छेदो पसज्जदि त्ति भणिदे—ण, वोच्छिण्णसादबंधम्मि अजोगिम्हि सादोदयणियमाभावादो। सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो फिट्टिदूण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे—ण, अजोगिकेवलिं मोत्तूण अण्णत्थ उदयकालस्स अंतोमुहुत्तणियमब्भुवगमादो।....सादावेदणीयस्स बंधो अत्थि त्ति चे ण, तस्स ट्ठिदि-अणुभागबंधाभावेण...बंधववएसविरोहादो।=प्रश्न—यदि असातावेदनीय कर्म निष्फल ही है तो वहाँ उसका उदय है, ऐसा क्यों कहा जाता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, भूतपूर्व नय की अपेक्षा से वैसा कहा जाता है। दूसरे...वह न केवल निर्बीज भाव को प्राप्त हुआ है किंतु उदयस्वरूप सातावदेनीय का बंध होने से और उदयागत उत्कृष्ट अनुभाग युक्त सातावेदनीय रूप सहकारी कारण होने से उसका उदय भी प्रतिहत हो जाता है। प्रश्न—बंध के उदय स्वरूप रहते हुए साता वेदनीयकर्म की गोपुच्छा स्तिबुक संक्रमण के द्वारा असाता वेदनीय को प्राप्त होती होगी? उत्तर—ऐसा मानने में विरोध आता है। प्रश्न—यदि यहाँ स्तिबुक संक्रमण का अभाव मानते हैं, तो साता और असाता को सत्त्व व्युच्छित्ति अयोगी के अंतिमसमय में होने का प्रसंग आता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि साता के बंध की व्युच्छित्ति हो जाने पर अयोगी गुणस्थान में साता के उदय का कोई नियम नहीं है। प्रश्न—इस तरह तो सातावेदनीय का उदयकाल अंतर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राप्त होता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि अयोगिकेवली गुणस्थान को छोड़कर अन्यत्र उदयकाल का अंतर्मुहूर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है।...। प्रश्न—वहाँ सातावेदनीय का बंध है? उत्तर—नहीं, क्योंकि स्थितिबंध और अनुभागबंध के बिना....सातावेदनीय कर्म को ‘बंध’ संज्ञा देने में विरोध आता है।
- केवली को नोकर्माहार होता है