निग्रहस्थान: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
(Imported from text file) |
||
(One intermediate revision by one other user not shown) | |||
Line 2: | Line 2: | ||
<li><strong class="HindiText" name="1" id="1">निग्रहस्थान का लक्षण</strong> <br> | <li><strong class="HindiText" name="1" id="1">निग्रहस्थान का लक्षण</strong> <br> | ||
<span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/ </span>मू./1/2/119 <span class="SanskritText">विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् । </span>=<span class="HindiText">विप्रतिपत्ति अर्थात् पक्ष को स्वयं ठीक न समझकर उलटा समझना; तथा अप्रतिपत्ति और दूसरे के द्वारा सिद्ध किये गये पक्ष को समझकर भी उसकी परवाह न करते हुए उसका खंडन न करना, अथवा प्रतिवादी द्वारा अपने पर दिये गये दोषों का निराकरण न करना, ये निग्रहस्थान हैं। अर्थात् इनसे वादी की पराजय होती है। </span><br><span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 4/1/33/ </span>न्या./श्लो.99-100/343 <span class="SanskritText">तूष्णींभावोऽथवा दोषानासक्ति: सत्यसाधने। वादिनोक्ते परस्येष्टा पक्षसिद्धिर्न चान्यथा।99। कस्यचित्तत्त्संसिद्धयप्रतिक्षेपो निराकृते:। कीर्ति: पराजयोऽवश्यमकीर्तिकृदिति स्थितम् ।100। </span>=<span class="HindiText">वादी के द्वारा कहे गये सत्य हेतु में प्रतिवादी का चुप रह जाना, अथवा सत्य हेतु में दोषों का प्रसंग न उठाना ही, वादी के पक्ष की सिद्धि है, अन्य प्रकार नहीं।99। दूसरे के पक्ष का निराकरण करने से एक की यश:कीर्ति होती है और दूसरे का पराजय होता है, जो कि अवश्य ही अपकीर्ति को करने वाला है। अत: स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण करना ही जय का कारण है। इस कर्तव्य को नहीं करने वाले वादी या प्रतिवादी का निग्रहस्थान हो जाता है। देखें [[ न्याय#2 | न्याय - 2 ]]वास्तव में तो स्वपक्ष की सिद्धि ही प्रतिवादी का निग्रहस्थान है। </span></li> | <span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/ </span>मू./1/2/119 <span class="SanskritText">विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् । </span>=<span class="HindiText">विप्रतिपत्ति अर्थात् पक्ष को स्वयं ठीक न समझकर उलटा समझना; तथा अप्रतिपत्ति और दूसरे के द्वारा सिद्ध किये गये पक्ष को समझकर भी उसकी परवाह न करते हुए उसका खंडन न करना, अथवा प्रतिवादी द्वारा अपने पर दिये गये दोषों का निराकरण न करना, ये निग्रहस्थान हैं। अर्थात् इनसे वादी की पराजय होती है। </span><br><span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 4/1/33/ </span>न्या./श्लो.99-100/343 <span class="SanskritText">तूष्णींभावोऽथवा दोषानासक्ति: सत्यसाधने। वादिनोक्ते परस्येष्टा पक्षसिद्धिर्न चान्यथा।99। कस्यचित्तत्त्संसिद्धयप्रतिक्षेपो निराकृते:। कीर्ति: पराजयोऽवश्यमकीर्तिकृदिति स्थितम् ।100। </span>=<span class="HindiText">वादी के द्वारा कहे गये सत्य हेतु में प्रतिवादी का चुप रह जाना, अथवा सत्य हेतु में दोषों का प्रसंग न उठाना ही, वादी के पक्ष की सिद्धि है, अन्य प्रकार नहीं।99। दूसरे के पक्ष का निराकरण करने से एक की यश:कीर्ति होती है और दूसरे का पराजय होता है, जो कि अवश्य ही अपकीर्ति को करने वाला है। अत: स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण करना ही जय का कारण है। इस कर्तव्य को नहीं करने वाले वादी या प्रतिवादी का निग्रहस्थान हो जाता है। देखें [[ न्याय#2 | न्याय - 2 ]]वास्तव में तो स्वपक्ष की सिद्धि ही प्रतिवादी का निग्रहस्थान है। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">निग्रहस्थान के भेद</strong></span><br> <span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/ </span>मू.5/2/1<span class="SanskritText"> प्रतिज्ञाहानि: प्रतिज्ञांतरं प्रतिज्ञाविरोध: प्रतिज्ञासंन्यासो हेत्वंतरमर्थांतरं निरर्थकमविज्ञातार्थमपार्थकमप्राप्तकालं न्यूनमधिकं पुनरुक्तमननुभाषणमज्ञानंप्रतिभाविक्षेपो मतानुज्ञापर्यनुयोज्योपेक्षणनिरनुयोज्यानुयोगोऽपसिद्धांतो हेत्वाभासश्च निग्रहस्थानानि।</span> =<span class="HindiText">निग्रहस्थान 22 हैं– </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"> प्रतिज्ञाहानि, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> प्रतिज्ञांतर, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> प्रतिज्ञाविरोध, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> प्रतिज्ञासंन्यास, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> हेत्वंतर, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अर्थांतर, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> निरर्थक, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अविज्ञातार्थ, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अपार्थक, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अप्राप्तकाल, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> न्यून, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अधिक, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> पुनरुक्त, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अननुभाषण, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अज्ञान, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अप्रतिभा, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> विक्षेप, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> मतानुज्ञा, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> पर्यनुयोज्यानुपेक्षण, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> निरनुयोज्यानुयोग, </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अपसिद्धांत और </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> हेत्वाभास। </span></li></ol><br><span class="HindiText"><span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ </span>मू./5/10/334 <span class="SanskritText">असाधनांग वचनमदोषोद्भावनं द्वयो:। निग्रहस्थानमिष्टं चेत् किं पुन: साध्यसाधनै:।10।</span> =<span class="HindiText">(बौद्धों के अनुसार) असाधनांग वचन अर्थात् असिद्ध व अनैकांतिक आदि दूषणों सहित प्रतिज्ञा आदि के वचनों का कहना और अदोषोद्भावन अर्थात् प्रतिवादी के साधनों में दोषों का न उठाना ये दो निग्रहस्थान स्वीकार किये गये हैं, फिर साध्य के अन्य साधनों से क्या प्रयोजन है। </span> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3">अन्य संबंधित विषय</strong> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"> जय पराजय व्यवस्था।–देखें [[ न्याय#2 | न्याय - 2]]।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> नैयायिकों द्वारा निग्रहस्थानों के प्रयोग का समर्थन–देखें [[ वितंडा ]]।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> नैयायिकों व बौद्धमान्य निग्रहस्थानों का व उनके प्रयोग का निषेध। देखें [[ न्याय#2 | न्याय - 2]]। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> निग्रहस्थान के भेदों के लक्षण–देखें [[ वह वह नाम ]]।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 47: | Line 47: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: न]] | [[Category: न]] | ||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
- निग्रहस्थान का लक्षण
न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/2/119 विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् । =विप्रतिपत्ति अर्थात् पक्ष को स्वयं ठीक न समझकर उलटा समझना; तथा अप्रतिपत्ति और दूसरे के द्वारा सिद्ध किये गये पक्ष को समझकर भी उसकी परवाह न करते हुए उसका खंडन न करना, अथवा प्रतिवादी द्वारा अपने पर दिये गये दोषों का निराकरण न करना, ये निग्रहस्थान हैं। अर्थात् इनसे वादी की पराजय होती है।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ न्या./श्लो.99-100/343 तूष्णींभावोऽथवा दोषानासक्ति: सत्यसाधने। वादिनोक्ते परस्येष्टा पक्षसिद्धिर्न चान्यथा।99। कस्यचित्तत्त्संसिद्धयप्रतिक्षेपो निराकृते:। कीर्ति: पराजयोऽवश्यमकीर्तिकृदिति स्थितम् ।100। =वादी के द्वारा कहे गये सत्य हेतु में प्रतिवादी का चुप रह जाना, अथवा सत्य हेतु में दोषों का प्रसंग न उठाना ही, वादी के पक्ष की सिद्धि है, अन्य प्रकार नहीं।99। दूसरे के पक्ष का निराकरण करने से एक की यश:कीर्ति होती है और दूसरे का पराजय होता है, जो कि अवश्य ही अपकीर्ति को करने वाला है। अत: स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण करना ही जय का कारण है। इस कर्तव्य को नहीं करने वाले वादी या प्रतिवादी का निग्रहस्थान हो जाता है। देखें न्याय - 2 वास्तव में तो स्वपक्ष की सिद्धि ही प्रतिवादी का निग्रहस्थान है। - निग्रहस्थान के भेद
न्यायदर्शन सूत्र/ मू.5/2/1 प्रतिज्ञाहानि: प्रतिज्ञांतरं प्रतिज्ञाविरोध: प्रतिज्ञासंन्यासो हेत्वंतरमर्थांतरं निरर्थकमविज्ञातार्थमपार्थकमप्राप्तकालं न्यूनमधिकं पुनरुक्तमननुभाषणमज्ञानंप्रतिभाविक्षेपो मतानुज्ञापर्यनुयोज्योपेक्षणनिरनुयोज्यानुयोगोऽपसिद्धांतो हेत्वाभासश्च निग्रहस्थानानि। =निग्रहस्थान 22 हैं–- प्रतिज्ञाहानि,
- प्रतिज्ञांतर,
- प्रतिज्ञाविरोध,
- प्रतिज्ञासंन्यास,
- हेत्वंतर,
- अर्थांतर,
- निरर्थक,
- अविज्ञातार्थ,
- अपार्थक,
- अप्राप्तकाल,
- न्यून,
- अधिक,
- पुनरुक्त,
- अननुभाषण,
- अज्ञान,
- अप्रतिभा,
- विक्षेप,
- मतानुज्ञा,
- पर्यनुयोज्यानुपेक्षण,
- निरनुयोज्यानुयोग,
- अपसिद्धांत और
- हेत्वाभास।
सिद्धि विनिश्चय/ मू./5/10/334 असाधनांग वचनमदोषोद्भावनं द्वयो:। निग्रहस्थानमिष्टं चेत् किं पुन: साध्यसाधनै:।10। =(बौद्धों के अनुसार) असाधनांग वचन अर्थात् असिद्ध व अनैकांतिक आदि दूषणों सहित प्रतिज्ञा आदि के वचनों का कहना और अदोषोद्भावन अर्थात् प्रतिवादी के साधनों में दोषों का न उठाना ये दो निग्रहस्थान स्वीकार किये गये हैं, फिर साध्य के अन्य साधनों से क्या प्रयोजन है। - अन्य संबंधित विषय