निक्षेप: Difference between revisions
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== पुराणकोष से == | |||
<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> द्रव्यों के निर्णय के चार उपायों में एक उपाय । <span class="GRef"> महापुराण 2.101, 62.28 </span></p> | |||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांत कोष से
जिसके द्वारा वस्तु का ज्ञान में क्षेपण किया जाय या उपचार से वस्तु का जिन प्रकारों से आक्षेप किया जाय उसे निक्षेप कहते हैं। सो चार प्रकार से किया जाना संभव है–किसी वस्तु के नाम में उस वस्तु का उपचार वा ज्ञान, उस वस्तु की मूर्ति या प्रतिमा में उस वस्तु का उपचार या ज्ञान वस्तु की पूर्वापर पर्यायों में से किसी भी एक पर्याय में संपूर्ण वस्तु का उपचार या ज्ञान, तथा वस्तु के वर्तमान रूप में संपूर्ण वस्तु का उपचार या ज्ञान। इनके भी यथासंभव उत्तरभेद करके वस्तु को जानने व जनाने का व्यवहार प्रचलित है। वास्तव में ये सभी भेद वक्ता का अभिप्राय विशेष होने के कारण किसी न किसी नय में गर्भित हैं। निक्षेप विषय है और नय विषयी यही दोनों में अंतर है।
इसके अलावा उत्कर्षण अपकर्षण विधान में जघन्य-उत्कृष्ट निक्षेप के अंतर्गत भी निक्षेप का प्रयोग होता है | इस विषय संबंधी निक्षेप के लिए देखें उत्कर्षण और अपकर्षण ।
- निक्षेप सामान्य निर्देश
- चारों निक्षेपों के लक्षण व भेद आदि।–देखें निक्षेप - 4-7।
- वस्तु सिद्धि में निक्षेप का स्थान।–देखें नय - I.3.7।
- निक्षेपों का द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक में अंतर्भाव
- भाव निक्षेप पर्यायार्थिक है और शेष तीन द्रव्यार्थिक।
- भाव में कथंचित् द्रव्यार्थिक और नाम व द्रव्य में कथंचित् पर्यायार्थिकपना।
- नाम निक्षेप को द्रव्यार्थिक कहने में हेतु।
- स्थापना निक्षेप को द्रव्यार्थिक कहने में हेतु।
- द्रव्य निक्षेप को द्रव्यार्थिक कहने में हेतु।
- भाव निक्षेप को पर्यायार्थिक कहने में हेतु।
- भाव निक्षेप को द्रव्यार्थिक कहने में हेतु।
- निक्षेपों का नैगमादि नयों में अंतर्भाव
- नाम निक्षेप निर्देश।–देखें नाम निक्षेप ।
- स्थापना निक्षेप निर्देश
- स्थापना का विषय मूर्तीक द्रव्य है।–देखें नय - 5.3।
- अकृत्रिम प्रतिमाओं में स्थापना व्यवहार कैसे?–देखें निक्षेप - 5.7.6।
- स्थापना व नोकर्म द्रव्य निक्षेप में अंतर।
- द्रव्य निक्षेप के भेद व लक्षण
- द्रव्य निक्षेप सामान्य का लक्षण।
- द्रव्य निक्षेप के भेद-प्रभेद।
- आगम द्रव्य निक्षेप का लक्षण।
- नो आगम द्रव्य निक्षेप का लक्षण।
- ज्ञायक शरीर सामान्य व विशेष के लक्षण।
- भावि-नोआगम का लक्षण।
- तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेष के लक्षण।
- तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य।
- तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य।
- तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य
- लौकिक व लोकोत्तर सामान्य नोकर्म तद्वयतिरिक्त
- सचित्त अचित्त मिश्र सामान्य नोकर्म तद्व्यतिरिक्त
- लौकिक व लोकोत्तर सचित्तादि नोकर्म तद्यतिरिक्त
- स्थित जित आदि भेदों के लक्षण।
- ग्रंथिम आदि भेदों के लक्षण।
- द्रव्य निक्षेप निर्देश व शंकाएँ
- * द्रव्य निक्षेप व द्रव्य के लक्षणों का समन्वय।–देखें द्रव्य - 2.2
- भाव निक्षेप निर्देश व शंका आदि
- निक्षेप सामान्य निर्देश
- निक्षेप सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक 1/5/ –/28/12 न्यसनं न्यस्यत इति वा न्यासो निक्षेप इत्यर्थ:। सौंपना या धरोहर रखना निक्षेप कहलाता है। अर्थात् नामादिकों में वस्तु को रखने का नाम निक्षेप है।
धवला 1/1,1,1/ गाथा 11/17 उपायो न्यास उच्यते।11। =नामादि के द्वारा वस्तु में भेद करने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/1/83 ) धवला 4/1,3,1/2/6 संशये विपर्यये अनध्यवसाये वा स्थित तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेप:। अथवा बाह्यार्थ विकल्पो निक्षेप:। अप्रकृतनिराकरणद्वारेण प्रकृतप्ररूपको वा। =- संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में अवस्थित वस्तु को उनसे निकालकर जो निश्चय में क्षेपण करता है उसे निक्षेप कहते हैं। अर्थात् जो अनिर्णीत वस्तु का नामादिक द्वारा निर्णय करावे, उसे निक्षेप कहते हैं। ( कषायपाहुड़ 2/1 2/475/425/7 ); ( धवला 1/1,1,1/10/4 ); ( धवला 13/5,3,5/3/11 ); ( धवला 13/5,5,3/198/4 ), (और भी देखें निक्षेप - 1.3)।
- अथवा बाहरी पदार्थ के विकल्प को निक्षेप कहते हैं। ( धवला 13/5,5,3/198/4 )।
- अथवा अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का निरूपण करने वाला निक्षेप है। (और भी देखें निक्षेप - 1.4); ( धवला 9/4,1,45/141/1 ); ( धवला 13/5,5,3/198/4 )।
आलापपद्धति/9 प्रमाणनययोर्निक्षेप आरोपणं स नामस्थापनादिभेदचतुर्विधं इति निक्षेपस्य व्युत्पत्ति:। =प्रमाण या नय का आरोपण या निक्षेप नाम स्थापना आदि रूप चार प्रकारों से होता है। यही निक्षेप की व्युत्पत्ति है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/48 वस्तु नामादिषु क्षिपतीति निक्षेप:। =वस्तु का नामादिक में क्षेप करने या धरोहर रखने को निक्षेप कहते हैं।
नयचक्र बृहद्/269 जुत्तीसुजुत्तमग्गे जं चउभेयेण होइ खलु ठवणं। वज्जे सदि णामादिसु तं णिक्खेवं हवे समये।269। =युक्तिमार्ग से प्रयोजनवश जो वस्तु को नाम आदि चार भेदों में क्षेपण करे उसे आगम में निक्षेप कहा जाता है।
- निक्षेप के भेद
- चार भेद
तत्त्वार्थसूत्र/1/5 नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तंत्र्यास:। =नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप से उनका अर्थात् सम्यग्दर्शनादि का और जीव आदि का न्यास अर्थात् निक्षेप होता है। ( षट्खंडागम 13/5,5/ सुत्र 4/198); ( धवला 1/1,1,1/83/1 ); ( धवला 4/1,3,1/ गाथा 2/3); ( आलापपद्धति/9 ); ( नयचक्र बृहद्/271 ); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/48 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड 52/52 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/741 )।
- छह भेद
षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र 71/51 वग्गण्णणिक्खेवे त्ति छव्विहे वग्गणणिक्खेवेणामवग्गणा ठंवणवग्गणा दव्वग्गणा खेत्तवग्गणा कालवग्गणा भाववगगणा चेदि। =वर्गणा निक्षेप का प्रकरण है। वर्गणा निक्षेप छह प्रकार का है–नाम वर्गणा, स्थापना वर्गणा, द्रव्य वर्गणा, क्षेत्र वर्गणा, काल वर्गणा और भाव वर्गणा। ( धवला 1/1,1,1/10/4 )।
नोट―षट्खंडागम व धवला में सर्वत्र प्राय: इन छह निक्षेपों के आश्रय से ही प्रत्येक प्रकरण की व्याख्या की गयी है।
- अनंत भेद
श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 71/282 नंवनंत: पदार्थानां निक्षेपो वाच्य इत्यसन् । नामादिष्वेव तस्यांतर्भावात्संक्षेपरूपत:।71। =प्रश्न–पदार्थों के निक्षेप अनंत कहने चाहिए ? उत्तर–उन अनंत निक्षेपों का संक्षेपरूप से चार में ही अंतर्भाव हो जाता है। अर्थात् संक्षेप से निक्षेप चार हैं और विस्तार से अनंत। ( धवला 14/5,6,71/51/14 )
- निक्षेप भेद प्रभेदों की तालिका
चार्ट
- चार भेद
- प्रमाण नय व निक्षेप में अंतर
तिलोयपण्णत्ति/1/83 णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिदियभावत्थो। णिक्खेओ वि उवाओ जुत्तीए अत्थपडिगहणं।83। =सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के हृदय के अभिप्राय को नय कहते हैं। निक्षेप उपाय स्वरूप है। अर्थात् नामादि के द्वारा वस्तु के भेद करने के उपाय को निक्षेप कहते हैं। युक्ति से अर्थात् नय व निक्षेप से अर्थ का प्रतिग्रहण करना चाहिए।83। ( धवला 1/1,1,1/ गाथा 11/17);
नयचक्र बृहद्/172 वत्थू पमाणविसयं णयविसयं हवइ वत्थुएयंसं। जं दोहि णिण्णयट्ठं तं णिक्खेवे हवे विसयं।=संपूर्ण वस्तु प्रमाण का विषय है और उसका एक अंश नय का विषय है। इन दोनों से निर्णय किया गया पदार्थ निक्षेप में विषय होता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/739-740 ननु निक्षेपो न नयो न च प्रमाणं न चांशकं तस्य। पृथगुद्देश्यत्वादपि पृथगिव लक्ष्यं स्वलक्षणादिति चेत् ।739। सत्यं गुणसापेक्षो सविपक्ष: स च नय: स्वयं क्षिपति। य इह गुणाक्षेप: स्यादुपचरित: केवलं स निक्षेप:।740। =प्रश्न–निक्षेप न तो नय है और न प्रमाण है तथा न प्रमाण व नय का अंश है, किंतु अपने लक्षण से वह पृथक् ही लक्षित होता है, क्योंकि उसका उद्देश पृथक् है ? उत्तर–ठीक है, किंतु गुणों की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाला और विपक्ष की अपेक्षा रखने वाला जो नय है, वह स्वयं जिसका आक्षेप करता है, ऐसा केवल उपचरित गुणाक्षेप ही निक्षेप कहलाता है। (नय और निक्षेप में विषय-विषयी भाव है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप से जो नयों के द्वारा पदार्थों में एक प्रकार का आरोप किया जाता है, उसे निक्षेप कहते हैं। जैसे–शब्द नय से ‘घट’ शब्द ही मानो घट पदार्थ है।)
- निक्षेप निर्देश का कारण व प्रयोजन
तिलोयपण्णत्ति/1/82 जो ण पमाणणयेहिं णिक्खेवेणं णिरक्खदे अत्थं। तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च पडिहादि।82। =जो प्रमाण तथा निक्षेप से अर्थ का निरीक्षण नहीं करता है उसको अयुक्त पदार्थ युक्त और युक्त पदार्थ अयुक्त ही प्रतीत होता है।82। ( धवला 1/1,1,1/ गाथा 10/16) ( धवला 3/1,2,15/ गाथा 61/126)।
धवला 1/1,1,1/ गाथा 15/31 अवगयणिवारणट्ठं पयदस्स परूवणा णिमित्तं च। संसयविणासणट्ठं तच्चत्त्थवधारणट्ठं च।15।
धवला 1/1,1,1/ गाथा 30-31 त्रिविधा: श्रोतार:, अब्युत्पन्न: अवगताशेषविवक्षितपदार्थ: एकदेशतोऽवगतविवक्षितपदार्थ इति। ...तत्र यद्यव्युत्पन्न: पर्यायार्थिको भवेन्निक्षेप: क्रियते अव्युत्पादनमुखेन अप्रकृतनिराकरणाय। अथ द्रव्यार्थिक: तद्द्वारेण प्रकृतप्ररूपणायाशेषनिक्षेप। उच्यंते। ...द्वितीयतृतीययो: संशयितयो: संशयविनाशायाशेषनिक्षेपकथनम् । तयोरेव विपर्यस्यतो: प्रकृतार्थावधारणार्थ निक्षेप: क्रियते। =अप्रकृत विषय के निवारण करने के लिए प्रकृत विषय के प्ररूपण के लिए संशय का विनाश करने के लिए और तत्त्वार्थ का निश्चय करने के लिए निक्षेपों का कथन करना चाहिए। ( धवला 3/1,2,2/ गाथा 12/17); ( धवला 4/1,3,1/ गाथा 1/2); ( धवला 14/5,6,71/ गाथा 1/51) ( सर्वार्थसिद्धि/1/5/8/11 ) (इसका खुलासा इस प्रकार है कि–) श्रोता तीन प्रकार के होते हैं–अव्युत्पन्न श्रोता, संपूर्ण विवक्षित पदार्थ को जानने वाला श्रोता, एकदेश विवक्षित पदार्थ को जानने वाला श्रोता (विशेष देखें श्रोता )। तहाँ अव्युत्पन्न श्रोता यदि पर्याय (विशेष) का अर्थी है तो उसे प्रकृत विषय की व्युत्पत्ति के द्वारा अप्रकृत विषय के निराकरण करने के लिए निक्षेप का कथन करना चाहिए। यदि वह श्रोता द्रव्य (सामान्य) का अर्थी है तो भी प्रकृत पदार्थ के प्ररूपण के लिए संपूर्ण निक्षेप कहे जाते हैं। दूसरी व तीसरी जाति के श्रोताओं को यदि संदेह हो तो उनके संदेह को दूर करने के लिए अथवा यदि उन्हें विपर्यय ज्ञान हो तो प्रकृत वस्तु के निर्णय के लिए संपूर्ण निक्षेपों का कथन किया जाता है। (और भी देखें निक्षेप - 1.5)।
सर्वार्थसिद्धि/1/5/19/1 निक्षेपविधिना शब्दार्थ: प्रस्तीर्यते। =किस शब्द का क्या अर्थ है, यह निक्षेप विधि के द्वारा विस्तार से बताया जाता है।
राजवार्तिक/1/5/20/30/21 लोके हि सर्वैर्नामादिभिर्दृष्ट: संव्यवहार:।=एक ही वस्तु में लोक व्यवहार में नामादि चारों व्यवहार देखे जाते हैं। (जैसे–‘इंद्र’ शब्द को भी इंद्र कहते हैं; इंद्र की मूर्ति को भी इंद्र कहते हैं, इंद्रपद से च्युत होकर मनुष्य होने वाले को भी इंद्र कहते हैं और शचीपति को भी इंद्र कहते हैं) (विशेष देखें आगे शीर्षक नं - 6)
धवला 1/1,1,1/31/9 निक्षेपविस्पृष्ट: सिद्धांतो वर्ण्यमानो वक्तु: श्रोतुश्चोत्त्थानं कुर्यादिति वा।=अथवा निक्षेपों को छोड़कर वर्णन किया गया सिद्धांत संभव है, कि वक्ता और श्रोता दोनों को कुमार्ग में ले जावे, इसलिए भी निक्षेपों का कथन करना चाहिए। ( धवला 3/1,2,15/126/6 )।
नयचक्र बृहद्/270,281,282 दव्वं विविहसहावं जेण सहावेण होइ तं ज्झेयं। तस्स णिमित्तं कीरइ एक्कं पिय दव्वं चउभेयं।270। णिक्खेवणयपमाणं णादूणं भावयंत्ति जे तच्चं। ते तत्थतच्चमग्गे लहंति लग्गा हु तत्थयं तच्च।281। गुणपंजयाण लक्खण सहाव णिक्खेवणयपमाणं वा। जाणदि जदि सवियप्पं दव्वसहावं खु बुज्झेदि।282। =द्रव्य विविध स्वभाववाला है। उनमें से जिस जिस स्वभाव रूप से वह ध्येय होता है, उस उसके निमित्त ही एक द्रव्य को नामादि चार भेद रूप कर दिया जाता है।270। जो निक्षेप नय व प्रमाण को जानकर तत्त्व को भाते हैं वे तथ्य तत्त्व मार्ग में संलग्न होकर तथ्य तत्त्व को प्राप्त करते हैं।281। जो व्यक्ति गुण व पर्यायों के लक्षण, उनके स्वभाव, निक्षेप, नय व प्रमाण को जानता है वही सर्व विशेषों से युक्त द्रव्य स्वभाव को जानता है।282।
- नयों से पृथक् निक्षेपों का निर्देश क्यों
राजवार्तिक/1/5/32-33/32/10 द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकांतर्भावांनामादीनां तयोश्च नयशब्दाभिधेयत्वात् पौनुरुक्त्यप्रसंग:।32। न वा एष दोष:। ...ये सुमेधसो विनेयास्तेषां द्वाभ्यामेव द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभ्यां सर्वनयवक्तव्यार्थ प्रतिपत्ति: तदंतर्भावात् । ये त्वतो मंदमेधस: तेषां व्यादिनयविकल्पनिरूपणम् । अतो विशेषोपपत्तेर्नामादीनामपुनरुक्तत्वम् ।=प्रश्न–द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में अंतर्भाव हो जाने के कारण–देखें निक्षेप - 2, और उन नयों को पृथक् से कथन किया जाने के कारण, इन नामादि निक्षेपों का पृथक् कथन करने से पुनरुक्ति होती है। उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो विद्वान् शिष्य हैं वे दो नयों के द्वारा ही सभी नयों के वक्तव्य प्रतिपाद्य अर्थों को जान लेते हैं, पर जो मंदबुद्धि शिष्य हैं, उनके लिए पृथक् नय और निक्षेप का कथन करना ही चाहिए। अत: विशेष ज्ञान कराने के कारण नामादि निक्षेपों का कथन पुनरुक्त नहीं है।
- चारों निक्षेपों का सार्थक्य व विरोध का निरास
राजवार्तिक/1/5/19-30/30/16 अत्राह नामादिचतुष्टयस्याभाव:। कुत:। विरोधात् । एकस्य शबदार्थस्य नामादिचतुष्टयं विरुध्यते। यथा नामैकं नामैव न स्थापना। अथ नाम स्थापना इष्यते न नामेदं नाम। स्थापना तर्हि; न चेयं स्थापना, नामेदम् । अतो नामार्थ एको विरोधान्न स्थापना। तथैकस्य जीवादेरर्थस्य सम्यग्दर्शनादेर्वा विरोधान्नामाद्यभाव इति।19। न वैष दोष:। किं कारणम् । सर्वेषां संव्यवहारं प्रत्यविरोधान् । लोके हि सर्वैर्नामादिभिर्दृष्ट: संव्यवहार:। इंद्रो देवदत्त: इति नाम। प्रतिमादिषु चेंद्र इति स्थापना। इंद्रार्थे च काष्ठे द्रव्ये इंद्रसंव्यवहार: ‘इंद्र आनीत:’ इति वचनात् । अनागतपरिणामे चार्थे द्रव्यसंव्यवहारो लोके दृष्ट:–द्रव्यमयं माणवक:, आचार्य: श्रेष्ठी वैयाकरणो राजा वा भविष्यतीति व्यवहारदर्शनात् । शचीपतौ च भावे इंद्र इति। न च विरोध:। किंच।20। यथा नामैकं नामैवेष्यते न स्थापना इत्याचक्षाणेन त्वया अभिहितानवबोध: प्रकटीक्रियते। यतो नैवमाचक्ष्महे–‘नामैव स्थापना’ इति, किंतु एकस्यार्थस्य नामस्थापनाद्रव्यभावैर्न्यांस: इत्याचक्ष्महे।21। नैतदेकांतेन प्रतिजानीमहेनामैव स्थापना भवतीति न वा, स्थापना वा नाम भवति नेति च।22। ...यत एव नामादिचतुष्टयस्य विरोधं भवानाचष्टे अतएव नाभाव:। कथम् । इह योऽयं सहानवस्थानलक्षणो विरोधो बध्यघातकवत्, स सतामर्थानां भवति नासतां काकोलूकछायातपवत्, न काकदंतखरविषाणयोर्विरोधोऽसत्त्वात् । किंच।24।...अथ अर्थांतरभावैऽपि विरोधकत्वमिष्यते; सर्वेषां पदार्थानां परस्परतो नित्यं विरोध: स्यात् । न चासावस्तीति। अतो विरोधाभाव:।25। स्यादेतत् ताद्गुण्याद् भाव एव प्रमाणं न नामादि:।...तन्न; किं कारणम् ।...एवं हि सति नामाद्याश्रयो व्यवहारो निवर्तेत। स चास्तीति। अतो न भावस्यैव प्रामाण्यम् ।26। ...यद्यपि भावस्यैव प्रामाण्यं तथापि नामादिव्यवहारो न निवर्तते। कुत:। उपचारात् ।...तत्र, किं कारणम् । तद्गुणाभावात् । युज्यते माणवके सिंहशब्दव्यवहार: क्रौर्यशौर्यादिगुणैकदेशयोगात्, इह तु नामादिषु जीवनादिगुणैकदेशो न कश्चिदप्यस्तीत्युपचाराभावाद् व्यवहारनिवृत्ति: स्यादेव।27। ...यद्युपचारान्नामादिव्यवहार: स्यात् ‘गौणमुख्ययोर्मुख्ये संप्रत्यय:’ इति मुख्यस्यैव संप्रत्यय: स्यान्न नामादीनाम् । यतस्त्वर्थप्रकरणादिविशेषलिंगाभावे सर्वत्र संप्रत्यय: अविशिष्ट: कृतसंगतेर्भवति, अतो न नामादिषूपचाराद् व्यवहार:।28। ...स्यादेतत्–कृत्रिमाकृत्रिमयो: कृत्रिमे संप्रत्ययो भवतीति लोके। तन्न; किं कारणम् । उभयगतिदर्शनात् । लोके ह्यर्थात् प्रकरणाद्वा कृत्रिमे संप्रत्यय: स्यात् अर्थो वास्यैवंसंज्ञकेन भवति।29। ...नामसामान्यापेक्षया स्यादकृत्रिमं विशेषापेक्षया कृत्रिमम् । एवं स्थापनादयश्चेति।30। =प्रश्न–विरोध होने के कारण एक जीवादि अर्थ के नामादि चार निक्षेप नही हो सकते। जैसे–नाम नाम ही है, स्थापना नहीं। यदि उसे स्थापना माना जाता है तो उसे नाम नही कह सकते; यदि नाम कहते हैं तो स्थापना नहीं कह सकते, क्योंकि उनमें विरोध है?।19। उत्तर–- एक ही वस्तु के लोकव्यवहार में नामादि चारों व्यवहार देखे जाते हैं, अत: उनमें कोई विरोध नहीं है। उदाहरणार्थ इंद्र नाम का व्यक्ति है (नाम निक्षेप) मूर्ति में इंद्र की स्थापना होती है। इंद्र के लिए लाये गये काष्ठ को भी लोग इंद्र कह देते हैं (सद्भाव व असद्भाव स्थापना)। आगे की पर्याय की योग्यता से भी इंद्र, राजा, सेठ आदि व्यवहार होते हैं (द्रव्य निक्षेप)। तथा शचीपति को इंद्र कहना प्रसिद्ध ही है (भाव निक्षेप)।20। ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 79-82/288)
- ‘नाम नाम ही है स्थापना नहीं’ यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि नाम स्थापना है, किंतु नाम स्थापना द्रव्य और भाव से एक वस्तु में चार प्रकार से व्यवहार करने की बात है।21।
- (पदार्थ व उसके नामादि में सर्वथा अभेद या भेद हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि अनेकांतवादियों के हाँ संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा कथंचित् भेद और द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा कथंचित् अभेद स्वीकार किया जाता है। ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/73-87/284-313 );
- ‘नाम स्थापना ही है या स्थापना नहीं है’ ऐसा एकांत नहीं है; क्योंकि स्थापना में नाम अवश्य होता है पर नाम में स्थापना हो या न भी हो (देखें निक्षेप - 4/6) इसी प्रकार द्रव्य में भाव अवश्य होता है, पर भाव निक्षेप में द्रव्य विवक्षित हो अथवा न भी हों। (देखें निक्षेप - 7.8)।22।
- छाया और प्रकाश तथा कौआ और उल्लू में पाया जाने वाला सहानवस्थान और बध्यघातक विरोध विद्यमान ही पदार्थों में होता है, अविद्यमान खरविषाण आदि में नहीं। अत: विरोध की संभावना से ही नामादि चतुष्टय का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है।24।
- यदि अर्थांतर रूप होने के कारण इनमें विरोध मानते हो, तब तो सभी पदार्थ परस्पर एक दूसरे के विरोधक हो जायेंगे।25।
- प्रश्न–भाव निक्षेप में वे गुण आदि पाये जाते हैं अत: इसे ही सत्य कहा जा सकता है नामादिक को नहीं? उत्तर–ऐसा मानने पर तो नाम स्थापना और द्रव्य से होने वाले यावत् लोक व्यवहारों का लोप हो जायेगा। लोक व्यवहार में बहुभाग तो नामादि तीन का ही है।26।
- यदि कहो कि व्यवहार तो उपचार से हैं, अत: उनका लोप नहीं होता है, तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि बच्चे में क्रूरता शूरता आदि गुणों का एकदेश देखकर, उपचार से सिंह-व्यवहार तो उचित है, पर नामादि में तो उन गुणों का एकदेश भी नहीं पाया जाता अत: नामाद्याश्रित व्यवहार औपचारिक भी नहीं कहे जा सकते।27। यदि फिर भी उसे औपचारिक ही मानते हो तो ‘गौण और मुख्य में मुख्य का ही ज्ञान होता है इस नियम के अनुसार मुख्यरूप ‘भाव’ का ही संप्रत्यय होगा नामादिका मुख्य प्रत्यय भी देखा जाता है।28।
- ‘कृत्रिम और अकृत्रिम पदार्थों में कृत्रिम का ही बोध होता है’ यह नियम भी सर्वथा एक रूप नहीं है। क्योंकि इस नियम की उभयरूप से प्रवृत्ति देखी जाती है। लोक में अर्थ और प्रकरण से कृत्रिम में प्रत्यय होता है, परंतु अर्थ व प्रकरण से अनभिज्ञ व्यक्ति में तो कृत्रिम व अकृत्रिम दोनों का ज्ञान हो जाता है जैसे किसी गँवार व्यक्ति को ‘गोपाल को लाओ’ कहने पर वह गोपाल नामक व्यक्ति तथा ग्वाला दोनों को ला सकता है।29। फिर सामान्य दृष्टि से नामादि भी तो अकृत्रिम ही हैं। अत: इनमें कृत्रिमत्व और अकृत्रिमत्व का अनेकांत है।30। श्लोकवार्तिक 2/1/5/87/312/24 कांचिदप्यर्थंक्रियां न नामादय: कुर्वंतीत्ययुक्तं तेषामवस्तुत्वप्रसंगात् । न चैतदुपपन्नं भाववन्नामादीनामबाधितप्रतीत्या वस्तुत्वसिद्धे:।
- ये चारों कोई भी अर्थक्रिया नहीं करते, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने से उनमें अवस्तुपने का प्रसंग आता है। परंतु भाववत् नाम आदिक में भी वस्तुत्व सिद्ध है। जैसे–नाम निक्षेप संज्ञा-संज्ञेय व्यवहार को कराता है, इत्यादि।
- निक्षेप सामान्य का लक्षण
- निक्षेपों का द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में अंतर्भाव―
- भाव पर्यायार्थिक है और शेष तीन द्रव्यार्थिक
सर्वार्थसिद्धि/1/6/20/9 नयो द्विविधो द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्च। पर्यायार्थिकनयेन भावतत्त्वमधिगंतव्यम् । इतरेषां त्रयाणां द्रव्यार्थिकनयेन, सामान्यात्मकत्वात् । =नय दो हैं–द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। पर्यायार्थिक नय का विषय भाव निक्षेप है, और शेष तीन को द्रव्यार्थिक नय ग्रहण करता है, क्योंकि वह सामान्य रूप है। ( धवला 1/1,1,1/ गाथा 9 सन्मति तर्क से उद्धृत/15) ( धवला 4/1,3,1/ गाथा 2/3) ( धवला 9/4,1,45/ गाथा 69/185) ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/211/ गाथा 119/260) ( राजवार्तिक 1/5/31/32/6 ) ( सिद्धि विनिश्चय/ मूल/13/3/741) ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 69/279)।
- भाव में कथंचित् द्रव्यार्थिकपना तथा नाम व द्रव्य में पर्यायार्थिकपना
देखें निक्षेप - 3.1 (नैगम संग्रह और व्यवहार इन तीन द्रव्यार्थिक नयों में चारों निक्षेप संभव हैं, तथा ऋजुसूत्र नय में स्थापना से अतिरिक्त तीन निक्षेप संभव हैं। तीनों शब्दनयों में नाम व भाव ये दो ही निक्षेप होते हैं।)
- नाम को द्रव्यार्थिक कहने में हेतु
श्लोकवार्तिक 2/1/5/69/279/24 नन्वस्तु द्रव्यं शुद्धमशुद्धं च द्रव्यार्थिकनयादेशात्, नाम-स्थापने तु कथं तयो: प्रवृत्तिमारभ्य प्रागुपरमादन्वयित्वादिति ब्रूम:। न च तदसिद्धं देवदत्तं इत्यादि नाम्न: क्वचिद्बालाद्यवस्थाभेदाद्भिन्नेऽपि विच्छेदानुपपत्तेरन्वयित्वसिद्धे:। क्षेत्रपालादिस्थापनायाश्च कालभेदेऽपि तथात्वाविच्छेद: इत्यन्वयित्वमन्वयप्रत्ययविषयत्वात् । यदि पुनरनाद्यनंतांवयासत्त्वांनामस्थापनयोरनंवयित्वं तदा घटादेरपि न स्यात् । तथा च कुतो द्रव्यत्वम् । व्यवहारनयात्तस्यावांतरद्रव्यत्वे तत एव नामस्थापनयोस्तदस्तु विशेषाभावात् ।=प्रश्न–शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य तो भले ही द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता से मिल जायें, किंतु नाम स्थापना द्रव्यार्थिकनय के विषय कैसे हो सकते हैं ? उत्तर–तहाँ भी प्रवृत्ति के समय से लेकर विराम या विसर्जन करने के समय तक, अन्वयपना विद्यमान है। और वह असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि देवदत्त नाम के व्यक्ति में बालक कुमार युवा आदि अवस्था भेद होते हुए भी उस नाम का विच्छेद नहीं बनता है। ( धवला 4/1,3,1/3/6 )। इसी प्रकार क्षेत्रपाल आदि की स्थापना में काल भेद होते हुए भी, तिस प्रकार की स्थापनापने का अंतराल नहीं पड़ता है। ‘यह वह है’ इस प्रकार के अन्वय ज्ञान का विषय होते रहने से तहाँ भी अन्वयीपना बहुत काल तक बना रहता है। प्रश्न–परंतु नाम व स्थापना में अनादि से अनंत काल तक तो अन्वय नहीं पाया जाता ? उत्तर–इस प्रकार तो घट, मनुष्यादि को भी अन्वयपना न हो सकने से उनमें भी द्रव्यपना न बन सकेगा। प्रश्न–तहाँ तो व्यवहार नय की अपेक्षा करके अवांतर द्रव्य स्वीकार कर लेने से द्रव्यपना बन जाता है ? उत्तर–तब तो नाम व स्थापना में भी उसी व्यवहारनय की प्रधानता से द्रव्यपना हो जाओ, क्योंकि इस अपेक्षा इन दोनों में कोई भेद नहीं है।
धवला 4/1,3,1/3/7 वाच्यवाचकशक्तिद्वयात्मकैकशब्दस्य पर्यायार्थिकनये असंभवाद्वा दव्वट्ठियणयस्सेत्ति वुच्चदे। =वाच्यवाचक दो शक्तियों वाला एक शब्द पर्यायार्थिक नय में असंभव है, इसलिए नाम द्रव्यार्थिक नय का विषय है, ऐसा कहा जाता है। ( धवला 9/4,1,45/186/6 ) (विशेष देखें नय - IV.3.8.5)।
धवला 10/4,2,2,2/10/2 <span class=""> णामणिक्खेवो दव्वट्ठियणए कुदो संभवदि। एक्कम्हि चेव दव्वम्हि वट्टमाणाणं णामाणं तब्भवसामाणम्मि तीदाणागय-वट्टमाणपज्जाएसु संचरणं पडुच्च अत्तदव्वववएसम्मि अप्पहाणीकयपज्जायम्मि पउत्तिदंसणादो, जाइ-गुण-कम्मेसु वट्टमाणाणं सारिच्छसामण्णम्मि वत्तिविसेसाणुवुत्तीदो लद्धदव्वववएसम्मि अप्पहाणीकयवत्तिभावम्मि पउतिदंसणादो, सारिच्छसामण्णप्पयणामेण विणा सद्दव्ववहाराणुववत्तीदो च। =प्रश्न–नाम निक्षेप द्रव्यार्थिकनय में कैसे संभव है? उत्तर–चूँकि एक ही द्रव्य में रहने वाले द्रव्यवाची शब्दों की, जिसने अतीत, अनागत व वर्तमान पर्यायों में संचार करने की अपेक्षा ‘द्रव्य’ व्यपदेश को प्राप्त किया है और जो पर्याय की प्रधानता से रहित है ऐसे तद्भावसामान्य में, प्रवृत्ति देखी जाती है (अर्थात् द्रव्य से रहित केवल पर्याय में द्रव्यवाची शब्द की प्रवृत्ति नहीं होती है)।
(इसी प्रकार) जाति, गुण व क्रियावाची शब्दों की, जिसने व्यक्ति विशेषों में अनुवृत्ति होने से ‘द्रव्य’ व्यपदेश को प्राप्त किया है, और जो व्यक्ति भाव की प्रधानता से रहित है, ऐसे सादृश्यसामान्य में, प्रवृत्ति देखी जाती है। तथा सादृश्यसामान्यात्मक नाम के बिना शब्द व्यवहार भी घटित नहीं होता है, अत: नाम निक्षेप द्रव्यार्थिक नय में संभव है। ( धवला 4/1,3,1/3/6 )।
और भी देखें निक्षेप - 3 (नाम निक्षेप को नैगम संग्रह व व्यवहार नयों का विषय बताने में हेतु। तथा द्रव्यार्थिक होते हुए भी शब्दनयों का विषय बनने में हेतु।
- स्थापना को द्रव्यार्थिक कहने में हेतु
देखें पहला शीर्षक नं - 3 (‘यह वही है’ इस प्रकार अन्वयज्ञान का विषय होने से स्थापना निक्षेप द्रव्यार्थिक है)।
धवला 4/1,3,1/4/2 सब्भावासब्भावसरूवेण सव्वदव्वावि त्ति वा, पधाणापधाणदव्वाणमेगत्तणिबंधणेत्ति वा ट्ठवणणिक्खेवो दव्वट्ठियणयवुल्लीणो। =स्थापना निक्षेप तदाकार और अतदाकार रूप से सर्व द्रव्यों में व्याप्य होने के कारण; अथवा प्रधान और अप्रधान द्रव्यों को एकता का कारण होने से द्रव्यार्थिकनय के अंतर्गत है।
धवला 10/4,2,2,2/10/8 कधं दव्वट्ठियणए ट्ठवणणामसंभवो। पडिणिहिज्जमाणस्स पडिणिहिणा सह एयत्तवज्झवसायादो सब्भावासब्भावट्ठवणभेएण सव्वत्थेसु अण्णयदंसणादो च। =प्रश्न–द्रव्यार्थिकनय में स्थापना निक्षेप कैसे संभव है ? उत्तर–एक तो स्थापना में प्रतिनिधीयमान की प्रतिनिधि के साथ एकता का निश्चय होता है, और दूसरे सद्भावस्थापना व असद्भावस्थापना के भेद रूप से सब पदार्थों में अन्वय देखा जाता है, इसलिए द्रव्यार्थिक नय में स्थापना निक्षेप संभव है।
धवला 9/4,1,45/186/9 कधं ट्ठवणा दव्वट्ठियविसओ। ण, अतम्हि तग्गहे संते ठवणुववत्तीदो। नहीं; क्योंकि जो वस्तु अतद्रूप है उसका तद्रूप से ग्रहण होने पर स्थापना बन सकता है।
और भी देखें निक्षेप - 3 (स्थापना निक्षेप को नैगम, संग्रह व व्यवहार नयों का विषय बताने में हेतु।)
- द्रव्यनिक्षेप को द्रव्यार्थिक कहने में हेतु
धवला 9/4,1,45/187/1 दव्वसुदणाणं पि दव्वट्ठियणयविसओ, आहाराहेयाणमेयत्तकप्पणाए दव्वसुदग्गहणादो। =द्रव्य श्रुतज्ञान (श्रुतज्ञान के प्रकरण में) भी द्रव्यार्थिकनय का विषय है; क्योंकि आधार और आधेय के एकत्व की कल्पना से द्रव्यश्रुत का ग्रहण किया गया है। (विशेष देखें निक्षेप - 3 में नैगम, संग्रह व व्यवहारनय के हेतु।)
- भावनिक्षेप को पर्यायार्थिक कहने में हेतु
धवला 9/4,1,45/187/2 भावणिक्खेवो पज्जट्ठियणयविसओ, वट्टमाणपज्जाएणुवलक्खियदव्वग्गहणादो। =भाव निक्षेप पर्यायार्थिकनय का विषय है; क्योंकि वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य का यहाँ भाव रूप से ग्रहण किया गया है। (विशेष देखें निक्षेप - 3 में ऋजुसूत्र नय में हेतु।)
- भाव निक्षेप को द्रव्यार्थिक कहने में हेतु
कषायपाहुड़/1/1,13-14/260/1 णाम-ट्ठवणा-दव्व–णिक्खेवाणं तिण्हं पि तिण्णि वि दव्वट्ठियणया सामिया होंतु णाम ण भावणिक्खेवस्स; तस्स पज्जवट्ठियणयमवलंबिय (पवट्टमाणत्तादो)...ण एस दोसो; वट्टमाणपज्जाएण उवलक्खियं दव्वं भावो णाम। अप्पट्टाणीकयपरिणामेसु सुद्धदव्वट्ठिएसु णएसु णादीदाणगयवट्टमाणकालविभागो अत्थि; तस्स पट्टाणीकयपरिणामपरिणम (णय) त्तादो। ण तदो एदेसु ताव अत्थि भावणिक्खेवो; वट्टमाणकालेण विणा अण्णकालाभावादो। वंजणपज्जाएण पादिदव्वेसु सुट्ठु असुद्धदव्वट्ठिएसु वि अत्थि भावणिक्खेवो, तत्थ वि तिकालसंभवादो। अथवा, सव्वदव्वट्ठियणएसु तिण्णि काल संभवंति; सुणएसु तदविरोहादो। ण च दुण्णएहिं ववहारो; तेसिं विसयाभावादो। ण च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो; उज्जुसुदणयविसयभावणिक्खेवमस्सिदूण तप्पउत्तीदो। तम्हा णेगम-संग्गह-ववहारणएसु सव्वणिक्खेवा संभवंति त्ति सिद्धं। =प्रश्न–(तद्भावसामान्य व सादृश्यसामान्य को अवलंबन करके प्रवृत्त होने के कारण) नाम, स्थापना व द्रव्य इन तीनों निक्षेपों के नैगमादि तीनों ही द्रव्यार्थिकनय स्वामी होओ, परंतु भावनिक्षेप के वे स्वामी नहीं हो सकते हैं; क्योंकि, भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नय के आश्रय से होता है (देखें निक्षेप - 2.1)। उत्तर–- यह दोषयुक्त नहीं है; क्योंकि वर्तमानपर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहते हैं। शुद्ध द्रव्यार्थिकनय में तो क्योंकि, भूत भविष्यत् और वर्तमानरूप से काल का विभाग नहीं पाया जाता है, कारण कि वह पर्यायों की प्रधानता से होता है; इसलिए शुद्ध द्रव्यार्थिक नयों में तो भावनिक्षेप नहीं बन सकता है, क्योंकि भावनिक्षेप में वर्तमानकाल को छोड़कर अन्य काल नहीं पाये जाते हैं। परंतु व्यंजनपर्यायों की अपेक्षा भाव में द्रव्य का सद्भाव स्वीकार कर दिया जाता है, तब अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयों में भाव निक्षेप बन जाता है; क्योंकि, व्यंजनपर्याय की अपेक्षा भाव में तीनों काल संभव हैं। ( धवला 9/4,1,48/242/8 ), ( धवला 10/4,2,2,3/11/1 ), ( धवला 14/5,6,4/3/7 )।
- अथवा सभी समीचीन नयों में भी क्योंकि तीनों ही कालों को स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है; इसलिए सभी द्रव्यार्थिक नयों मे भावनिक्षेप बन जाता है। और व्यवहार मिथ्या नयों के द्वारा किया नहीं जाता है; क्योंकि, उनका कोई विषय नहीं है।
- यदि कहा जाय कि भाव निक्षेप का स्वामी द्रव्यार्थिक नयों को भी मान लेने पर सन्मति तर्क के ‘णामं ठवणा’ इत्यादि (देखें निक्षेप - 2.1) सूत्र के साथ विरोध आता है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, जो भावनिक्षेप ऋजुसूत्र नय का विषय है, उसकी अपेक्षा से सन्मति के उक्त सूत्र की प्रवृत्ति हुई है। ( धवला 1/1,1,1/15/6 ), ( धवला 9/4,1,49/244/10 )। अतएव नैगम संग्रह और व्यवहारनयों में सभी निक्षेप संभव हैं, यह सिद्ध होता है।
धवला 1/1,1,1/14/2 कधं दव्वट्ठिय-णये भाव-णिक्खेवस्स संभवो। ण, वट्टमाण-पज्जायोवलक्खियं दव्वं भावो इदि दव्वट्ठिय-णयस्स वट्टमाणमवि आरंभप्पहुडि आ उवरमादो। संगहे सुद्धदव्वट्ठिए वि भावणिक्खेवस्स अत्थित्तं ण विरुज्झदे सुकुक्खि-णिक्खित्तासेस-विसेस-सत्ताए सव्व-कालमवट्ठिदाए भावब्भुवगमादो त्ति। =प्रश्न–द्रव्यार्थिक नय में भावनिक्षेप कैसे संभव है ? उत्तर–
- नहीं; क्योंकि वर्तमान पर्याय से युक्त द्रव्य को ही भाव कहते हैं, और वह वर्तमान पर्याय भी द्रव्य की आरंभ से लेकर अंत तक की पर्यायों में आ ही जाती है। ( धवला 10/5,5,6/39/7 )।
- इसी प्रकार शुद्ध-द्रव्यार्थिक रूप संग्रहनय में भी भाव निक्षेप का सद्भाव विरोध को प्राप्त नहीं होता है; क्योंकि अपनी कुक्षि में समस्त विशेष सत्ताओं को समाविष्ट करने वाली और सदा काल एक रूप से अवस्थित रहने वाली महासत्ता में ही ‘भाव’ अर्थात् पर्याय का सद्भाव माना गया है।
- भाव पर्यायार्थिक है और शेष तीन द्रव्यार्थिक
- निक्षेपों का नैगमादि नयों में अंतर्भाव
- निक्षेपों का नैगमादि नयों में अंतर्भाव
- नयों के विषयरूप से निक्षेपों का निर्देश
षट्खंडागम/13/5,4/ सूत्र 6/39 णेगम-ववहार-संगहा सव्वाणि।6। =नैगम, व्यवहार और संग्रहनय सब कर्मों को (नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि कर्मों को) स्वीकार करते हैं। ( षट्खंडागम/10/4,2,2/ सूत्र 2/10); ( षट्खंडागम/13/5,5/ सूत्र 6/198); ( षट्खंडागम/14/5,6,6/ सूत्र4/3); ( षट्खंडागम/14/5,6/ सूत्र72/52); ( कषायपाहुड़/1/1,13-14/211/ चूर्णसूत्र/259); ( धवला 1/1,1,1/14/1 )।
षट्खंडागम/13/5,4/ सूत्र 7/39 उजुसुदो ट्ठवणकम्मं णेच्छदि।7। =ऋजुसूत्र नय स्थापना कर्म को स्वीकार नहीं करता। अर्थात् अन्य तीन निक्षेपों को स्वीकार करता है। ( षट्खंडागम/10/4,2,2/ सूत्र 3/11); ( षट्खंडागम/13/5,5/ सूत्र 7/199); ( षट्खंडागम/14/5,6/ सूत्र 5/3); ( षट्खंडागम/14/5,6/ सूत्र 73/53); ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/212/ चूर्णसूत्र/262); ( धवला 1/1,1,1/16/1 )।
षट्खंडागम/13/5,4/ सूत्र 8/40 सद्दणओ णामकम्मं भावकम्मं च इच्छदि। =शब्दनय नाम कर्म और भाव कर्म को स्वीकार करता है।( षट्खंडागम/10/4,2,2/ सूत्र 4/11); ( षट्खंडागम/13/5,5/ सूत्र 8/200); ( षट्खंडागम/14/5,6/ सूत्र 6/3); ( षट्खंडागम/14/5,6/ सूत्र 74/53); ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/214/ चूर्ण सूत्र/264)।
धवला 1/1,1,1/16/5 सद्द-समभिरूढ-एवंभूद-णएसु वि णाम-भाव-णिक्खेवा हवंति तेसिं चेय तत्थ संभवादो। =शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय में भी नाम और भाव ये दो निक्षेप होते हैं, क्योंकि ये दो ही निक्षेप वहाँ पर संभव हैं, अन्य नहीं। ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/240/ चूर्ण सूत्र/285)।
- तीनों द्रव्यार्थिक नयों के सभी निक्षेप विषय कैसे ?
धवला 1/1,1,1/14/1 तत्थ णेगम-संगह-ववहारणएसु सव्वे एदे णिक्खेवा हवंति तव्विसयम्मि तब्भव-सारिच्छ-सामण्णम्हि सव्वणिक्खेवसंभवादो। =नैगम, संग्रह और व्यवहार इन तीनों नयों में सभी निक्षेप होते हैं; क्योंकि इन नयों के विषयभूत तद्भवसामान्य और सादृशसामान्य में सभी निक्षेप संभव हैं। ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/211/259/8 )।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/236/283/6 णेगमो सव्वे कसाए इच्छदि। कुदो। संगहासंगहसरूवणेगम्मि विसयीकयसयललोगववहारम्मि सव्वकसायसंभवादो। =नैगमनय सभी (नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव) कषायों को स्वीकार करता है; क्योंकि वह भेदाभेदरूप है और समस्त लोकव्यवहार को विषय करता है।
देखें निक्षेप - 2.3-7 (इन द्रव्यार्थिक नयों में भावनिक्षेप सहित चारों निक्षेपों के अंतर्भाव में हेतु)
- ऋजुसूत्र का विषय नाम निक्षेप कैसे
धवला 1/1,1,1/16/4 ण तत्थ णामणिक्खेवाभावो वि सद्दोवलद्धि काले णियत्तवाचयत्तुवलंभादो। =(जिस प्रकार ऋजुसूत्र में द्रव्य निक्षेप घटित होता है) उसी प्रकार वहाँ नामनिक्षेप का भी अभाव नहीं है; क्योंकि जिस समय शब्द का ग्रहण होता है, उसी समय उसकी नियत वाच्यता अर्थात् उसके विषयभूत अर्थ का भी ग्रहण हो जाता है।
धवला 9/4,1,49/243/10 उजुसुदणओणामपज्जवट्ठियो, कधं तस्स णाम-दव्व—गणणगंथकदी होंति त्ति, विरोहादो। ...एत्थ परिहारो वुच्चदे-उजुसुदो दुविहो सुद्धो असुद्धो चेदि। तत्थ सुद्धो विसईकय अत्थपज्जाओ...। एदस्स भावं मोत्तूण अण्ण कदीओ ण संभवंति, विरोहादो। तत्थ जो सो असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्खुपासियवेंजणपज्जयविसओ। ...तम्हा उजुसुदे ठवणं मोत्तूण सव्वणिक्खेवा संभवंति त्ति वुत्तं। =प्रश्न–ऋजुसूत्र नय पर्यायार्थिक है, अत: वह नामकृति, द्रव्यकृति, गणनकृति और ग्रंथकृति को कैसे विषय कर सकता है, क्योंकि इसमें विरोध है ? उत्तर–यहाँ इस शंका का परिहार करते हैं–ऋजुसूत्र नय शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है। उनमें अर्थपर्याय को विषय करने वाले शुद्ध ऋजुसूत्र में तो भावकृति को छोड़कर अन्य कृतियाँ विषय होनी संभव नहीं हैं; क्योंकि इसमें विरोध है। परंतु अशुद्ध ऋजुसूत्रनय चक्षु इंद्रिय की विषयभूत व्यंजन पर्यायों को विषय करने वाला है। इस कारण उसमें स्थापना को छोड़कर सब निक्षेप संभव है ऐसा कहा गया है। (विशेष देखें नय - III.5.6)।
कषायपाहुड़/1/1,13-14/228/278/3 दव्वट्ठियणयमस्सिदूण ट्ठिदणामं कथमुजुसुदे पज्जवट्ठिए संभवइ। ण; अत्थणएसु सद्दस्स अत्थाणुसारित्ताभावादो। सद्दववहारेचप्पलए संते लोगववहारो सयलो वि उच्छिज्जदि त्ति चे; होदि तदुच्छेदो, किंतु णयस्स विसओ अम्मेहि परूविदो। =प्रश्न–नामनिक्षेप द्रव्यार्थिकनय का आश्रय लेकर होता है और ऋजुसूत्र पर्यायार्थिक है, इसलिए उसमें नामनिक्षेप कैसे संभव है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, अर्थनय में शब्द अपने अर्थ का अनुसरण नहीं करता है (अर्थ शब्दादि नयों की भाँति ऋजुसूत्रनय शब्दभेद से अर्थभेद नहीं करता है, केवल उस शब्द के संकेत से प्रयोजन रखता है) और नाम निक्षेप में भी यही बात है। अत: ऋजुसूत्रनय में नामनिक्षेप संभव है। प्रश्न–यदि अर्थनयों में शब्द अर्थ का अनुसरण नहीं करते हैं तो शब्द व्यवहार को असत्य मानना पड़ेगा, और इस प्रकार समस्त लोकव्यवहार का व्युच्छेद हो जायेगा? उत्तर–यदि इससे लोक व्यवहार का उच्छेद होता है तो होओ, किंतु यहाँ हमने नय के विषय का प्रतिपादन किया है।
और भी देखें निक्षेप - 3.6 (नाम के बिना इच्छित पदार्थ का कथन न हो सकने से इस नय में नामनिक्षेप संभव है।)
- ऋजुसूत्र का विषय द्रव्य निक्षेप कैसे
धवला 1/1,1,1/16/3 कधमुज्जुसुदे पज्जवट्ठिए दव्वणिक्खेवो त्ति। ण, तत्थ वट्टमाणसमयाणंतगुणण्णिद-एगदव्व-संभवादो। =प्रश्न–ऋजुसूत्र तो पर्यायार्थिक नय है, उसमें द्रव्य निक्षेप कैसे घटित हो सकता है ? उत्तर–ऐसी शंका ठीक नहीं है; क्योंकि ऋजुसूत्र नय में वर्तमान समयवर्ती पर्याय से अनंत गुणित एक द्रव्य ही तो विषय रूप से संभव है। (अर्थात् वर्तमान पर्याय से युक्त द्रव्य ही तो विषय होता है, न कि द्रव्य-विहीन केवल पर्याय।)
धवला 13/5,5,7/199/8 कधं उजुसुदे पज्जवट्ठिए दव्वणिक्खेवसंभवो। ण असुद्धपज्जवट्ठिए वंजणपरजायपरतंते सुहुमपज्जायभेदेहि णाणत्तमुवगए तदविरोहादो। =प्रश्न–ऋजुसूत्र नय पर्यायार्थिक है, उसका विषय द्रव्य निक्षेप होना कैसे संभव है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जो व्यंजन पर्यायों के आधीन है और जो सूक्ष्म पर्यायों के भेदों के आलंबन से नानात्व को प्राप्त है, ऐसे अशुद्ध पर्यायार्थिक नय का विषय द्रव्य निक्षेप है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता है। ( धवला 13/5,4,7/40/2 )।
कषायपाहुड़/1/1,13-14/213/263/4 ण च उजुसुदो (सुदे) [पज्जवट्ठिए] णए दव्वणिक्खेवो ण संभवइ; [वंजणपज्जायरूवेण] अवट्ठियस्स वत्थुस्स अणेगेसु अत्थविंजणपज्जाएसु संचरंतस्स दव्वभावुवलंभादो। ...सव्वे (सुद्धे) पुण उजुसुदे णत्थि दव्वं य पज्जायप्पणाये तदसंभवादो। =यदि कहा जाय कि ऋजुसूत्र नय तो पर्यायार्थिक है, इसलिए उसमें द्रव्य निक्षेप संभव नहीं है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ अर्पित (विवक्षित) व्यंजन पर्याय की अपेक्षा अवस्थित है और अनेक अर्थपर्याय तथा अवांतर व्यंजनपर्यायों में संचार करता है (जैसे मनुष्य रूप व्यंजनपर्याय बाल, युवा, वृद्धादि अवांतर पर्यायों में) उसमें द्रव्यपने की उपलब्धि होती ही है, अत: ऋजुसूत्र में द्रव्य निक्षेप बन जाता है। परंतु शुद्ध ऋजुसूत्रनय में द्रव्य निक्षेप नहीं पाया जाता है, क्योंकि उसमें अर्थपर्याय की प्रधानता रहती है। ( कषायपाहुड़/1/1,13-14/228/279/3 )। (और भी देखें निक्षेप - 3.3 तथा नय/III/5/6)।
- ऋजुसूत्र में स्थापना निक्षेप क्यों नहीं
धवला 9/4,1,49/245/2 कधं ट्ठवणणिक्खेवो णत्थि। संकप्पवसेण अण्णस्स दव्वस्स अण्णसरूवेण परिणामाणुवलंभादो सरिसत्तणेण दव्वाणमेगत्ताणुवलंभादो। सारिच्छेण एगत्ताणब्भुवगमे कधं णाम-गणण-गंधक-दीणं संभवो। ण तब्भाव-सारिच्छसामण्णेहि विणा वि वट्टमाणकालविसेसप्पणाए वि तासिमत्थित्तं पडि विरोहाभावादो। =प्रश्न–स्थापना निक्षेप ऋजुसूत्रनय का विषय कैसे नहीं ? उत्तर–क्योंकि एक तो संकल्प के वश से अर्थात् कल्पनामात्र से एक द्रव्य का अन्यस्वरूप से परिणमन नहीं पाया जाता (इसलिए तद्भव सामान्य रूप एकता का अभाव है); दूसरे सादृश्य रूप से भी द्रव्यों के यहाँ एकता नहीं पायी जाती, अत: स्थापना निक्षेप यहाँ संभव नहीं है। ( धवला 13/5,5,7/199/6 )। प्रश्न–सादृश्य सामान्य से एकता के स्वीकार न करने पर इस नय में नामकृति गणनाकृति और ग्रंथकृति की संभावना कैसे हो सकती है ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, तद्भावसामान्य और सादृश्य सामान्य के बिना भी वर्तमानकाल विशेष की विवक्षा से भी उनके अस्तित्व के प्रति कोई विरोध नहीं है।
कषायपाहुड़/1/1,13-14/212/262/2 उजुसुदविसए किमिद ठवणा च चत्थि (णत्थि)। तत्थ सारिच्छलक्खणसामण्णाभावादो। ण च दोण्हं लक्खणसंताणम्मि वट्टमाणाणं सारिच्छविरहिएण एगत्तं संभवइ; विरोहादो। असुद्धेसु उजुसुदेसु बहुएसु घडादिअत्थेसु एगसण्णिमिच्छंतेसु सारिच्छलक्खणसामण्णमत्थि त्ति ठवणाए संभवो किण्ण जायदे। होदु णाम सारित्तं; तेण पुण [णियत्तं]; दव्व-खेत्त-कालभावेहि भिण्णाणमेयत्तविरोहादो। ण च बुद्धीए भिण्णत्थाणमेयत्तं सक्किज्जदे [काउं तहा] अणुवलंभादो। ण च एयत्तेण विणा ठवणा संभवदि, विरोहादो। =प्रश्न–ऋजुसूत्र के विषय में स्थापना निक्षेप क्यों नहीं पाया जाता है ? उत्तर–क्योंकि, ऋजुसूत्रनय के विषय में सादृश्य सामान्य नहीं पाया जाता है। प्रश्न–क्षणसंतान में विद्यमान दो क्षणों में सादृश्य के बिना भी स्थापना का प्रयोजक एकत्व बन जायेगा ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, सादृश्य के बिना एकत्व के मानने में विरोध आता है। प्रश्न–‘घट’ इत्याकारक एक संज्ञा के विषयभूत व्यंजनपर्यायरूप अनेक घटादि पदार्थों में सादृश्यसामान्य पाया जाता है, इसलिए अशुद्ध ऋजुसूत्र नयों में स्थापना निक्षेप क्यों संभव नहीं ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, इस प्रकार उनमें सादृश्यता भले ही रही आओ, पर इससे उनमें एकत्व नहीं स्थापित किया जा सकता है; क्योंकि, जो पदार्थ (इस नय की दृष्टि में) द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा भिन्न हैं (देखें नय - IV.3) उनमें एकत्व मानने में विरोध आता है। प्रश्न–भिन्न पदार्थों को बुद्धि अर्थात् कल्पना से एक मान लेंगे ? उत्तर–यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, भिन्न पदार्थों में एकत्व नहीं पाया जाता है, और एकत्व के बिना स्थापना की संभावना नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। ( कषायपाहुड़/1/1,13-14/228/278/1 ); ( धवला 13/5,5,7/199/6 )। - शब्दनयों का विषय नामनिक्षेप कैसे
धवला 9/4,1,50/245/9 होदुं भावकदो सद्दणयाणं विसओ, तेसिं विसए दव्वादीणमभावादो। किंतु ण तेसिं णामकदी जुज्जदे, दव्वट्ठियणयं मोत्तूण अण्णत्थ सण्णासण्णिसंबंधाणुववत्तीदो ? खणक्खइभावमिच्छंताणं सण्णासंबंधा माघडंतु णाम। किंतु जेण सद्दणया सद्दजणिदभेदपहाणा तेण सण्णासण्णिसंबंधाणमघडणाए अणत्थिणो। सगब्भुवगमम्हि सण्णासण्णिसंबंधो अत्थि चेवे त्ति अज्झवसायं काऊण ववहरणसहावा सद्दणया, तेसिमण्णहा सद्दण्यात्ताणुववत्तीदो। तेण तिसु सद्दणएसु णामकदी वि जुज्जदे। =प्रश्न–भावकृति शब्द नयों की विषय भले ही हो; क्योंकि, उनके विषय में द्रव्यादिक कृतियों का अभाव है। परंतु नामकृति उनकी विषय नहीं हो सकती; क्योंकि, द्रव्यार्थिक नय को छोड़कर अन्य (शब्दादि पर्यायार्थिक) नयों में संज्ञा-संज्ञी संबंध बन नहीं सकता। (विशेष देखें नय - IV.3/8/5) उत्तर–पदार्थ को क्षणक्षयी स्वीकार करने वालों के यहाँ (अर्थात् पर्यायार्थिक नयों में) संज्ञा-संज्ञी भले ही घटित न हो; किंतु चूँकि शब्द नयें शब्द जनित भेद की प्रधानता स्वीकार करते हैं (देखें नय - I.4.5) अत: वे संज्ञा-संज्ञी संबंधों के (सर्वथा) अघटन को स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए (उनके) स्वमत संज्ञा-संज्ञीसंबंध है ही, ऐसा निश्चय करके शब्दनय भेद करने रूप स्वभाव वाले हैं; क्योंकि, इसके बिना उनके शब्दनयत्व ही नहीं बन सकता। अतएव तीनों शब्दनयों में नामकृति भी उचित है।
धवला 14/5,6,7/4/1 कधं णामबंधस्स तत्थ संभवो। ण, णामेण विणा इच्छिदत्थपरूवणाए अणुववत्तीदो। =प्रश्न–इन दोनों (ऋजुसूत्र व शब्द) नयों में नामबंध कैसे संभव है ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, नाम के बिना इच्छित पदार्थ का कथन नहीं किया जा सकता; इस अपेक्षा नामबंध को इन दोनों (पर्यायार्थिक) नयों का विषय स्वीकार किया है। ( धवला 13/5,4,8/40/5 )। कषायपाहुड़/1/1,13-14/229/279/7 अणेगेसु घडत्थेसु दव्व-खेत्त-काल-भावेहि पुधभूदेसु एक्को घडसद्दो वट्टमाणो उवलब्भदे, एवमुवलब्भमाणे कधं सद्दणए पज्जवट्ठिए णामणिक्खेवस्स संभवो त्ति। ण; एदम्मि णए तेसिं घडसद्दाणं दव्व-खेत्त-काल-भाववाचियभावेण भिण्णाणमण्णयाभावादो। तत्थ संकेयग्गहणं दुग्घडं त्ति चे। होदु णाम, किंतु णयस्स विसओ परूविज्जदे, ण च सुणएसु किं पि दुग्धडमत्थि। प्रश्न–द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा भिन्न-भिन्न अनेक घटरूप पदार्थों में (सादृश्य सामान्य रूप) एक घट शब्द प्रवृत्त होता हुआ पाया जाता है। जब कि ‘घट’ शब्द इस प्रकार उपलब्ध होता है तब पर्यायार्थिक शब्दनय में नाम निक्षेप कैसे संभव हैं; (क्योंकि पर्यायार्थिक नयों में सामान्य का ग्रहण नहीं होता देखें नय - IV.3)। उत्तर–नहीं; क्योंकि, इस नय में द्रव्य-क्षेत्र-काल और भावरूप वाच्य से भेद को प्राप्त हुए उन अनेक घट शब्दों का परस्पर अन्वय नहीं पाया जाता है, अर्थात् वह नय द्रव्य क्षेत्रादि के भेद से प्रवृत्त होने वाले घट शब्दों को भिन्न मानता है और इसलिए उसमें नामनिक्षेप बन जाता है। प्रश्न–यदि ऐसा है तो शब्दनय में संकेत का ग्रहण करना कठिन हो जायेगा ? उत्तर–ऐसा होता है तो होओ, किंतु यहाँ तो शब्दनय के विषय का कथन किया है।
दूसरे सुनयों की प्रवृत्ति, क्योंकि, सापेक्ष होती है, इसलिए उनमें कुछ भी कठिनाई नहीं है। (विशेष देखें आगम - 4.4)। - शब्दनयों में द्रव्य निक्षेप क्यों नहीं
धवला 10/4,2,2,4/12/1 किमिदि दव्वं णेच्छदि। पज्जायंतरसंकंतिविरोहादो सद्दभेएण अत्थपढणवावदम्मि वत्थुविसेसाणं णाम-भावंमोत्तूण पहाणत्ताभावादो।=प्रश्न–शब्दनय द्रव्य निक्षेप को स्वीकार क्यों नहीं करता ? उत्तर–एक तो शब्दनय की अपेक्षा दूसरी पर्याय का संक्रमण मानने में विरोध आता है। दूसरे, वह शब्दभेद से अर्थ के कथन करने में व्यापृत रहता है (देखें नय - I.4.5), अत: उसमें नाम और भाव की ही प्रधानता रहती है, पदार्थों के भेदों की प्रधानता नहीं रहती; इसलिए शब्दनय द्रव्य निक्षेप को स्वीकार नहीं करता। धवला 13/5,5,8/200/3 णामे दव्वाविणभावे संते वितत्थ दव्वम्हि तस्स सद्दणयस्स अत्थित्ताभावादो। सद्ददुवारेण पज्जयदुवारेण च अत्थभेदमिच्छंतए सद्दणए दो चेव णिक्खेवा संभवंति त्ति भणिदं होदि। =यद्यपि नाम द्रव्य का अविनाभावी है (और वह शब्दनय का विषय भी है) तो भी द्रव्य में शब्दनय का अस्तित्व नहीं स्वीकार किया गया है। अत: शब्द द्वारा और पर्याय द्वारा अर्थभेद को स्वीकार करने वाले (शब्दभेद से अर्थभेद और अर्थभेद से शब्दभेद को स्वीकार करने वाले) शब्द नय में दो ही निक्षेप संभव हैं।
कषायपाहुड़/1/1,13-14/214/264/4 दव्वणिक्खेवो णत्थि, कुदो। लिंगादे (?) सद्दवाचियाणमेयत्ताभावे दव्वाभावादो। वंजणपज्जाए पडुच्च सुद्धे वि उजुसुदे अत्थि दव्वं, लिंगसंखाकालकारयपुरिसोवग्गहाणं पादेक्कमेयत्तब्भुवगमादो। =शब्द नय में द्रव्यनिक्षेप भी संभव नहीं हैं; क्योंकि, इस नय की दृष्टि में लिंगादि की अपेक्षा शब्दों के वाच्यभूत पदार्थों में एकत्व नहीं पाया जाता है। किंतु व्यंजनपर्याय की अपेक्षा शुद्धसूत्रनय में भी द्रव्यनिक्षेप पाया जाता है; क्योंकि, ऋजुसूत्रनय लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रह में से प्रत्येक का अभेद स्वीकार करता है। (अर्थात् ऋजुसूत्र में द्रव्य निक्षेप बन जाता है परंतु शब्द नय में नहीं)।
- नयों के विषयरूप से निक्षेपों का निर्देश
- स्थापना निक्षेप निर्देश
- स्थापना निक्षेप सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/5/17/4 काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयं इति स्थाप्यमाना स्थापना। = काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप आदि में ‘यह वह है’ इस प्रकार स्थापित करने की स्थापना कहते हैं। ( राजवार्तिक/1/5/2/28/18 )। राजवार्तिक/1/5/2/28/18 सोऽयनित्यभिसंबंधत्वेन अन्यस्य व्यवस्थापनामात्रं स्थापना। = ‘यह वही है’ इस प्रकार अन्य वस्तु में बुद्धि के द्वारा अन्य का आरोपण करना स्थापना है। ( धवला 4/1,5,1/314/1 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड 53/53 ); ( तत्त्वसार/1/11 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/742 )।
श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 54/263 वस्तुन: कृतसंज्ञस्य प्रतिष्ठा स्थापना मता। =कर लिया गया है नाम निक्षेप या संज्ञाकारण जिसका ऐसी वस्तु की उन वास्तविक धर्मों के अध्यारोप से ‘यह वही है’ ऐसी प्रतिष्ठा करना स्थापनानिक्षेप माना गया है। - स्थापना निक्षेप के भेद
- सद्भाव व असद्भाव स्थापना रूप दो भेद
श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 54/263 सद्भावेतरभेदेन द्विधा तत्त्वाधिरोपत:। =वह सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना के भेद से दो प्रकार का है। ( धवला 1/1,1,1/20/1 )।
नयचक्र बृहद्/273
सायार इयर ठवणा। =साकार व अनाकार के भेद से स्थापना दो प्रकार है। - काष्ठ कर्म आदि रूप अनेक भेद
षट्खंडागम 9/4,1/ सूत्र 52/248 जा सा ठवणकदी णाम सा कट्ठकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेण्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जंति कदि त्ति सा सव्वा ठवण कदी णाम।52।=जो वह स्थापनाकृति है वह काष्ठकर्मों में, अथवा चित्रकर्मों में, अथवा पोतकर्मों में, अथवा लेप्यकर्मों में, अथवा लयनकर्मों में, अथवा शैलकर्मों में, अथवा गृहकर्मों में, अथवा भित्तिकर्मों में, अथवा दंतकर्मों में, अथवा भेंडकर्मों में, अथवा अक्ष या वराटक (कौड़ी व शतरंज का पासा); तथा इनको आदि लेकर अन्य भी जो ‘कृति’ इस प्रकार स्थापना में स्थापित किये जाते हैं, वह सब स्थापना कृति कही जाती है। नोट–(धवला में सर्वत्र प्रत्येक विषय में इसी प्रकार निक्षेप किये गये हैं।) ( षट्खंडागम 13/5,3/ सूत्र 10/9), ( षट्खंडागम ,14/5,6/ सूत्र 9/5)
- सद्भाव व असद्भाव स्थापना रूप दो भेद
- सद्भाव असद्भाव स्थापना के लक्षण
श्लोकवार्तिक 2/1/5/54/263/17 तत्राध्यारोप्यमाणेन भावेंद्रादिना समाना प्रतिमा सद्भावस्थापना मुख्यदर्शिन: स्वयं तस्यास्तद्बुद्धिसंभवात् । कथंचित् सादृश्यसद्भावात् । मुख्याकारशून्या वस्तुमात्रा पुनरसद्भावस्थापना परोपदेशादेव तत्र सोऽयमिति सप्रत्ययात् । = भाव निक्षेप के द्वारा कहे गये अर्थात् वास्तविक पर्याय से परिणत इंद्र आदि के समान बनी हुई काष्ठ आदि की प्रतिमा में आरोपे हुए उन इंद्रादि की स्थापना करना सद्भावस्थापना है; क्योंकि, किसी अपेक्षा से इंद्र आदि का सादृश्य यहाँ विद्यमान है, तभी तो मुख्य पदार्थ को जीव की तिस प्रतिमा के अनुसार सादृश्य से स्वयं ‘यह वही है’ ऐसी बुद्धि हो जाती है। मुख्य आकारों से शून्य केवल वस्तु में ‘यह वही है’ ऐसी स्थापना कर लेना असद्भाव स्थापना है; क्योंकि मुख्य पदार्थ को देखने वाले भी जीव को दूसरों के उपदेश से ही ‘यह वही है’ ऐसा समीचीन ज्ञान होता है, परोपदेश के बिना नहीं। ( धवला 1/1,1,1/20/1 ), ( नयचक्र बृहद्/273 ) - सद्भाव असद्भाव स्थापना के भेद
धवला 13/5,4,12/42/1 कट्ठकम्मप्पहुडि जाव भेंडकम्मे त्ति ताव एदेहि सब्भावट्ठवणा परूविदा। उवरिमेहि असब्भावट्ठवणा समुद्दिट्ठा। =(स्थापना के उपरोक्त काष्ठकर्म आदि भेदों में से) काष्ठकर्म से लेकर भेंडकर्म तक जितने कर्म निर्दिष्ट हैं उनके द्वारा सद्भाव स्थापना कही गयी है, और आगे जितने अक्ष वराटक आदि कहे गए हैं, उनके द्वारा असद्भावस्थापना निर्दिष्ट की गयी है। ( धवला 9/4,1,52/250/3 )
धवला 9/4,1,52/250/3 एदे सब्भावट्ठणा। एदे देसामासया दस परूविदा। संपहि असब्भावट्ठवणाविसयस्सुवलक्खणट्ठं भणदि–...जे च अण्णे एवमादिया त्ति वयणं दोण्णं अवहारणपडिसेहणफलं। तेण तंभतुला-हल-मूसलकम्मादीणं गहणं। =ये (काष्ठ कर्म आदि) सद्भाव स्थापना के उदाहरण हैं। ये दस भेद देशामर्षक कहे गये हैं, अर्थात् इनके अतिरिक्त भी अनेकों हो सकते हैं। अब असद्भावस्थापना संबंधी विषय के उपलक्षणार्थ कहते हैं–इस प्रकार ‘इन (अक्ष व वराटक) को आदि लेकर और भी जो अन्य हैं’ इस वचन का प्रयोजन दोनों भेदों के अवधारण का निषेध करना है, अर्थात् ‘दो ही है’ ऐसे ग्रहण का निषेध करना है। इसलिए स्तंभकर्म, तुलाकर्म, हलकर्म, मूसलकर्म आदिकों का भी ग्रहण हो जाता है। - काष्ठकर्म आदि भेदों के लक्षण
धवला 9/4,1,52/249/3 देव-णेरइय-तिरिक्ख-मणुस्साण णच्चण-हसण-गायण-तूर-वीणादिवायणकिरियावावदाणं कट्ठघडिदपडिमाओ कट्ठकम्मं त्ति भणंति। पड-कुड्ड-फलहिसादीसु णच्चणादिकिरिया-वावददेव-णेरइय-तिरिक्खमणुस्साणं पडिमाओ चित्तकम्म, चित्रेण क्रियंते इति व्युत्पत्ते:। पोत्तं वस्त्रम्, तेण कदाओ पडिमाओ पोत्तकम्मं। कड-सक्खर-मट्टियादीणं लेवो लेप्पं, तेण घडिदपडिमाओ लेप्पकम्मं। लेणं पव्वओ, तम्हि घडिदपडिमाओ लेणकम्मं। सेलो पत्थरो, तम्हि घडिदपडिमाओ सेलकम्मं। गिहाणि जिणघरादीणि, तेसु कदपडिमाओ गिहकम्म, हय-हत्थि-णर-वराहादिसरूवेण घडिदघराणि गिहकम्ममिदि वुत्तं होदि। घरकुड्डेसु तदो अभेदेण चिदपडिमाओ भित्तिकम्मं। हत्थिदंतेसु किण्णपडिमाओ दंतकम्मं। भेंडो सुप्पसिद्धो, तेण घडिदपडिमाओ भेडकम्मं। ...अक्खे त्ति वत्ते जूवक्खो सयडक्खो वा घेत्तव्वो। वराडओ त्ति वुत्ते कवडि्डया घेत्तव्वा। =नाचना, हँसना, गाना तथा तुरई एवं वीणा आदि वाद्यों के बजानेरूप क्रियाओं में प्रवृत्त हुए देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों की काष्ठ से निर्मित प्रतिमाओं को काष्ठकर्म कहते हैं। पट, कुडय (भित्ति) एवं फलहिका (काष्ठ आदि का तख्ता) आदि में नाचने आदि क्रिया में प्रवृत्त देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों की प्रतिमाओं को चित्रकर्म कहते हैं; क्योंकि, ‘चित्र से जो किये जाते हैं वे चित्रकर्म हैं’ ऐसी व्युत्पत्ति है। पोत्त का अर्थ वस्त्र है, उससे की गयी प्रतिमाओं का नाम पोत्तकर्म है। कूट (तृण), शर्करा (बालू) व मृत्तिका, आदि के लेप का नाम लेप्य हैं। उससे निर्मित प्रतिमायें लेप्यकर्म कही जाती हैं। लयन का अर्थ पर्वत है, उसमें निर्मित प्रतिमाओं का नाम लयनकर्म है। शैल का अर्थ पत्थर है, उसमें निर्मित प्रतिमाओं का नाम शैलकर्म है। गृहों से अभिप्राय जिनगृह आदिकों से है, उनमें की गयीं प्रतिमाओं का नाम गृहकर्म है। घोड़ा, हाथी, मनुष्य एवं वराह (शूकर) आदि के स्वरूप से निर्मित घर गृहकर्म कहलाते हैं, यह अभिप्राय है। घर की दीवालों में उनसे अभिन्न रची गयी प्रतिमाओं का नाम भित्तिकर्म है। हाथी दाँतों पर खोदी हुई प्रतिमाओं का नाम दंतकर्म है। भेंड सुप्रसिद्ध है। उस पर खोदी गई प्रतिमाओं का नाम भेंडकर्म है। अक्ष ऐसा कहने पर द्यूताक्ष अथवा शकटाक्ष का ग्रहण करना चाहिए (अर्थात् हार जीते के अभिप्राय से ग्रहण किये गये जूआ खेलने के अथवा शतरंज व चौसर आदि के पासे अक्ष हैं) वराटक ऐसा कहने पर कपर्दिका (कौड़ियों) का ग्रहण करना चाहिए। ( धवला 13/5,3,10/9/8 ); ( धवला 14/5,6,9/5/10 ) - नाम व स्थापना में अंतर
राजवार्तिक/1/5/13/29/25 नामस्थापनयोरेकत्वं संज्ञाकर्माविशेषादिति चेत्; न; आदरानुग्रहाकांक्षित्वात् स्थापनायाम् । ...यथा अर्हदिंद्रस्कंदेश्वरादिप्रतिमासु आदरानुग्रहाकांक्षित्वं जनस्य, न तथा परिभाषते वर्तते। ततोऽन्यत्वमनयो:। राजवार्तिक/1/5/23/30/31 यथा ब्राह्मण: स्यान्मनुषयो ब्राह्मणस्य मनुष्यजात्यात्मकत्वात् । मनुष्यस्तु ब्राह्मण: स्यान्न वा, मनुष्यस्य ब्राह्मणजात्यादिपर्यायात्मकत्वादर्शनात् । तथा स्थापना स्यान्नाम, अकृतनाम्न: स्थापनानुपपत्ते:। नाम तु स्थापना स्यान्न वा, उभयथा दर्शनात् ।=- यद्यपि नाम और स्थापना दोनों निक्षेपों में संज्ञा रखी जाती है, बिना नाम रखे स्थापना हो ही नहीं सकती; तो भी स्थापित अर्हंत, इंद्र, स्कंद्व और ईश्वर आदि की प्रतिमाओं में मनुष्य को जिस प्रकार की पूजा, आदर और अनुग्रह की अभिलाषा होती है, उस प्रकार केवल नाम में नहीं होती, अत: इन दोनों में अंतर है। ( धवला 5/1,7,1/ गाथा 1/186), ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 55/264)
- जैसे ब्राह्मण मनुष्य अवश्य होता है; क्योंकि, ब्राह्मण में मनुष्य जातिरूप सामान्य अवश्य पाया जाता है; पर मनुष्य ब्राह्मण हो न भी हो, क्योंकि मनुष्य के ब्राह्मण जाति आदि पर्यायात्मकपना नहीं देखा जाता। इसी प्रकार स्थापना तो नाम अवश्य होगी, क्योंकि बिना नामकरण के स्थापना नहीं होती; परंतु जिसका नाम रखा है उसकी स्थापना हो भी न भी हो, क्योंकि नामवाले पदार्थों में स्थापनायुक्तपना व स्थापनारहितपना दोनों देखे जाते हैं।
धवला 5/1,7,1/ गा.2/186 णामिणि धम्मुवयारो णामंट्ठवणा य जस्स तं थविदं। तद्धम्मे ण वि जादो सुणाम ठवणाणमविसेसं। =नाम में धर्म का उपचार करना नामनिक्षेप है, और जहाँ उस धर्म की स्थापना की जाती है, वह स्थापना निक्षेप है। इस प्रकार धर्म के विषय में भी नाम और स्थापना की अविशेषता अर्थात् एकता सिद्ध नहीं होती।
- सद्भाव व असद्भाव स्थापना में अंतर
देखें निक्षेप - 4.3 (सद्भाव स्थापना में बिना किसी के उपदेश के ‘यह वही है’ ऐसी बुद्धि हो जाती है, पर असद्भाव स्थापना में बिना अन्य के उपदेश के ऐसी बुद्धि होनी संभव नहीं।) धवला 13/5,4,12/42/2 सब्भावासब्भावट्ठवणाणं को विसेसो। बुद्धीए ठविज्जमाणं वण्णाकारादीहि जमणुहरइ दव्वं तस्स सब्भावसण्णा। दव्व-खेत्त-वेयणावेयणादिभेदेहि भिण्णाणं पडिणिभि-पडिणिभेयाणं कधं सरिसत्तमिदि चेण, पाएण सरित्तुवलंभादो। जमसरिसं दव्वं तमसब्भावट्ठवणा। सव्वदव्वाणं सत्त-पमेयत्तादीहि सरिसत्तमुवलब्भदि त्ति चे–होदु णाम एदेहि सरिसत्तं, किंतु अप्पिदेहि वण्ण-कर-चरणादीहि सरिसत्ताभावं पेक्खिय असरिसत्तं उच्चदे। =प्रश्न–सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना में क्या भेद है ? उत्तर–बुद्धि द्वारा स्थापित किया जाने वाला जो पदार्थ वर्ण और आकार आदि के द्वारा अन्य पदार्थ का अनुकरण करता है उसकी सद्भावस्थापना संज्ञा है। प्रश्न–द्रव्य, क्षेत्र, वेदना और अवेदना आदि के भेद से भेद को प्राप्त हुए प्रतिनिभ और ग्रतिनिभेय अर्थात् सदृश और सादृश्य के मूलभूत पदार्थों में सादृश्ता कैसे संभव है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, प्राय: कुछ बातों में इनमें सदृशता देखी जाती है। जो असदृश द्रव्य है वह असद्भावस्थापना है। प्रश्न–सब द्रव्यों में सत्त्व और प्रमेयत्व आदि के द्वारा समानता पायी जाती है ? उत्तर–द्रव्यों में इन धर्मों की अपेक्षा समानता भले ही रहे, किंतु विवक्षित वर्ण हाथ और पैर आदि की अपेक्षा समानता न देखकर असमानता कही जाती है।
धवला 13/5,3,10/10/12 कथमत्र स्पृश्यस्पर्शकभाव:। ण, बुद्धीए एयत्तमावण्णेसु तदविरोहादो सत्त-पमेयत्तादीहि सव्वस्ससव्वविसयफोसणुवलंभादो वा। =प्रश्न–यहाँ (असद्भाव स्थापना में) स्पर्श्य-स्पर्शक भाव कैसे हो सकता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, बुद्धि से एकत्व को प्राप्त हुए उनमें स्पर्श्य-स्पर्शक भाव के होने में कोई विरोध नहीं आता। अथवा सत्त्व और प्रमेयत्व आदि की अपेक्षा सर्व का सर्वविषयक स्पर्शन पाया जाता है।
- स्थापना निक्षेप सामान्य का लक्षण
- द्रव्य निक्षेप के भेद व लक्षण
- द्रव्य निक्षेप सामान्य का लक्षण
- द्रव्य निक्षेप के भेद-प्रभेद
- आगम द्रव्य निक्षेप का लक्षण
- नोआगम द्रव्यनिक्षेप का लक्षण
- ज्ञायक शरीर सामान्य व विशेष के लक्षण
- भावी नोआगम का लक्षण
- तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेष के लक्षण
- तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य
- कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य
- नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य
- लौकिक व लोकोत्तर सामान्य नोकर्म तद्वयतिरिक्त
- सचित्त अचित्त मिश्र सामान्य नोकर्म तद्व्यतिरिक्त
- लौकिक व लोकोत्तर सचित्तादि नोकर्म तद्यतिरिक्त
- स्थित जित आदि भेदों के लक्षण
- ग्रंथिम आदि भेदों के लक्षण
- द्रव्य निक्षेप के भेद व लक्षण
- द्रव्य निक्षेप सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक 1/5/3-4/28/21 यद् भाविपरिणामप्राप्ति प्रति योग्यतामादधानं तद् द्रव्यमित्युच्यते। ...अथवा अतद्भाव वा द्रव्यमित्युच्यते। यथेंद्रमानीतं काष्ठमिंद्रप्रतिमापर्यायप्राप्ति प्रत्यभिमुखम् इंद्र: इत्युच्यते। =आगामी पर्याय की योग्यता वाले उस पदार्थ को द्रव्य कहते हैं, जो उस समय उस पर्याय के अभिमुख हो, अथवा अतद्भाव को द्रव्य कहते हैं। जैसे–इंद्रप्रतिमा के लिए लाये गये काष्ठ को भी इंद्र कहना। (क्योंकि, जो अपने गुणों व पर्यायों को प्राप्त होता है, हुआ था और होगा उसको ही द्रव्य कहते हैं देखें द्रव्य - 1.1) ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 60/266); ( धवला 1/1,11,1/20/6 ); ( तत्त्वसार/1/12 )।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/743 ऋजुसूत्रनिरपेक्षतया, सापेक्ष भाविनैगमादिनयै:। छद्मस्थो जिनजीवो जिन इव मान्यो यथात्र तद्द्रव्यम् । =ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा न करके और भाविनैगमादिक नयों की अपेक्षा से जो कहा जाता है, वह द्रव्य निक्षेप है। जैसे कि छद्मस्थ अवस्था में वर्तमान जिन भगवान् के जीव को जिन कहना।
नय-III.2.5 जैसे–आगे सेठ बनने वाले बालक को अभी से सेठ कहना, अथवा जो राजा दीक्षित होकर श्रमण अवस्था में विद्यमान है उसे भी राजा कहना)।
- द्रव्य निक्षेप के भेद-प्रभेद
- द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं—आगम व नोआगम ( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 53/250); ( षट्खंडागम ,14/5,6/ सूत्र 11/7); ( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/1 ); ( राजवार्तिक/1/5/5/29/3 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 60/266); ( धवला 1/1,1,1/20/7 ); ( धवला 3/1,2,2/12/3 ); ( धवला 4/1,3,1/5/1 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/54/53 ); ( नयचक्र बृहद्/274 )।
- नो आगम द्रव्यनिक्षेप तीन प्रकार का है—ज्ञायक शरीर, भावी व तद्वयतिरिक्त। ( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 61/267); ( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/3 ); ( राजवार्तिक/1/5/7/29/8 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267); ( धवला 1/1,1,1/21/2 ); ( धवला 3/1,2,2/13/2 ); ( धवला 4/1,3,1/6/1 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/55/54 ); ( नयचक्र बृहद्/275 )।
- ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—भूत, वर्तमान, व भावी।–( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267); ( धवला 1/1,1,1/21/3 ( धवला 4/1,3,1/6/2 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/55/54 )।
- भूत ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—च्युत, च्यावित व त्यक्त।–( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 63/269); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267); ( धवला 1/1,1,1/22/3 ); ( धवला 4/1,3,1/6/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/56/54 );।
- त्यक्त ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है—भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन।–( धवला 1/1,1,1/23/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/59/56 )।
- तद्वयतिरिक्त नो आगम द्रव्यनिक्षेप दो प्रकार है—कर्म व नोकर्म।–( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/7 ); ( राजवार्तिक/1/5/7/29/11 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 63/268); ( धवला 1/1,1,1/26/4 ); ( धवला 3/1,2,2/15/1 ); ( धवला 4/1,3,1/6/9 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/63/54 )।
- नोकर्म तद्वयतिरिक्त दो प्रकार का है—लौकिक व लोकोत्तर।–( धवला 1/1,1,1/26/6 ); ( धवला 4/1,3,1/7/1 )।
- लौकिक व लोकोत्तर दोनों ही तद्वयतिरिक्त तीन तीन प्रकार के हैं—सचित्त, अचित्त व मिश्र।–( धवला 1/1,1,1/27/1 व 28/1), ( धवला 5/1,7,1/184/7 )।
- आगम द्रव्य निक्षेप के 9 भेद हैं—स्थित, जित, परिचित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रंथसम, नामसम और घोषसम।–( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 54/251); ( षट्खंडागम ,14/5,6/ सूत्र 25/27)।
- ज्ञायक शरीर के भी उपरोक्त प्रकार स्थित जित आदि 9 भेद हैं–( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 62/268)।
- तद्वयतिरिक्त नो आगम के अनेक भेद हैं—
- ग्रंथिम,
- वाइम,
- वेदिम,
- पूरिम,
- संघातिम,
- अहोदिम,
- णिक्खेदिम,
- ओव्वेलिम,
- उद्वेलिम,
- वर्ण,
- चूर्ण,
- गंध,
- विलेपन, इत्यादि। ( षट्खंडागम/9/4,1/ सू.65/272)।
नोट—इन सब भेद प्रभेदों की तालिका देखें निक्षेप - 1.2)।
- द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं—आगम व नोआगम ( षट्खंडागम/9/4,1/ सूत्र 53/250); ( षट्खंडागम ,14/5,6/ सूत्र 11/7); ( सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/1 ); ( राजवार्तिक/1/5/5/29/3 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 60/266); ( धवला 1/1,1,1/20/7 ); ( धवला 3/1,2,2/12/3 ); ( धवला 4/1,3,1/5/1 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/54/53 ); ( नयचक्र बृहद्/274 )।
- आगम द्रव्य निक्षेप का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/2 जीवप्राभृतज्ञायी मनुष्यजीवप्राभृतज्ञायी वा अनुपयुक्त आत्मा आगमद्रव्यजीव:। =जो जीवविषयक या मनुष्य जीव विषयक शास्त्र को जानता है, किंतु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित है वह आगम द्रव्यजीव है। (इसी प्रकार अन्य भी जिस जिस विषय संबंधी शास्त्र को जानता हुआ उसके उपयोग से रहित रहने वाला आत्मा उस उस नामवाला ही आगम द्रव्य है। जैसे मंगल विषयक शास्त्र को जानने वाला आत्मा आगम द्रव्य मंगल है।) ( राजवार्तिक/1/5/5/29/3 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 61/267); ( धवला 3/1,2,2/12/11 ); ( धवला 4/1,3,1/5/2 ); ( धवला 1/1,1,1/83/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/54/53 ); ( नयचक्र बृहद्/274 )।
धवला 1/1,1,1/21/1 तत्थ आगमदो दव्वमंगलं णाम मंगलपाहुड़जाणओ अणुवजुत्तो, मंगल-पाहुड़-सद्द-रयणा वा, तस्सत्थ-ट्ठवणक्खर-रयणा वा। =मंगल प्राभृत अर्थात् मंगल विषय का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को जानने वाला, किंतु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित जीव को आगम द्रव्यमंगल कहते हैं। अथवा मंगलविषय के प्रतिपादक शास्त्र की शब्द रचना को आगम द्रव्यमंगल कहते हैं। अथवा मंगलविषय के प्रतिपादक शास्त्र की स्थापनारूप अक्षरों की रचना को भी आगम द्रव्य मंगल कहते हैं।( धवला 5/1,6,1/2/3 )।
- नोआगम द्रव्यनिक्षेप का लक्षण
(पूर्वोक्त आगमद्रव्य की आत्मा का आरोप उसके शरीर में करके उस जीव के शरीर को ही नोआगम द्रव्य जीव या नोआगम द्रव्य मंगल आदि कह दिया जाता है। और वह शरीर ही तीन प्रकार का है भूत, भावि व वर्तमान। अथवा उसके शरीर के संबंध रखने वाले अन्य जो कर्म या नोकर्म रूप पदार्थ हैं उनको भी नोआगम द्रव्य कह दिया जाता है। इसी का नाम तद्वयतिरिक्त है। इनके पृथक्-पृथक् लक्षण आगे दिये जाते हैं।)
- ज्ञायक शरीर सामान्य व विशेष के लक्षण
- ज्ञायक शरीर सामान्य
सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/4 तत्र ज्ञातुर्यच्छशरीरं त्रिकालगोचरं तज्ज्ञायकशरीरम् । =ज्ञाता का जो त्रिकाल गोचर शरीर है वह ज्ञायकशरीर नोआगम द्रव्य जीव है।( राजवार्तिक/1/5/7/29/9 ), ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 62/267), ( धवला 1/1,1,1/21/3 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड/55/54 )। - च्युत च्यावित व त्यक्त अतीत ज्ञायक शरीर
धवला 1/1,1,1/22/3 तत्थ चुदं णाम कयलीघादेण विणा पक्कं पि फलं व कम्मोदएण ज्झीयमाणायुक्खयपदिदं। चइदं णाम कयलीघादेण छिण्णायुक्खयपदिसरीरं। चत्तसरीरं तिविहं, पावोगमण-विहाणेण, इंगिणीविहाणेण, भत्तपच्चक्खाणविहाणेण चत्तमिदि। =कदलीघात मरण के बिना कर्म के उदय से झड़ने वाले आयुकर्म के क्षय से, पके हुए फल के समान, अपने आप पतित शरीर को च्युतशरीर कहते हैं। कदलीघात के द्वारा आयु के छिन्न हो जाने से छूटे हुए शरीर को च्यावित शरीर कहते हैं। (कदलीघात का लक्षण देखें मरण - 4)। त्यक्त शरीर तीन प्रकार का है–प्रायोपगमन विधान से छोड़ा गया, इंगिनी विधान से छोड़ा गया और भक्त प्रत्याख्यान विधान से छोड़ा गया। (इन तीनों का स्वरूप देखें सल्लेखना - 3), ( गोम्मटसार कर्मकांड/56,58/54 )।
धवला 1/1,1,1/25/6 कयलीघादेण मरणकंखाए जीवियासाए जीवियमरणासाहि विणा पदिदं सरीरं चइदं। जीवियासाए मरणासाए जीवियमरणासाहि विणा वा कयलीघादेण अचत्तभावेण पदिदं सरीरं चुदं णाम। जीविदमरणासाहि विणा सरूवोवलद्धि णिमित्तं व चत्त बज्झंतरंगपरिग्गहस्स कयलीघादेणियरेण वा पदिदसरीरं चत्तदेहमिदि। =मरण की आशा से या जीवन की आशा से अथवा जीवन और मरण इन दोनों की आशा के बिना ही कदलीघात से छूटे हुए शरीर को च्यावित कहते हैं। जीवन की आशा से, मरण की आशा से अथवा जीवन और मरण इन दोनों की आशा के बिना ही कदलीघात व समाधिमरण से रहित होकर छूटे हुए शरीर को च्युत कहते हैं। आत्मस्वरूप की प्राप्ति के निमित्त, जिसने बहिरंग और अंतरंग परिग्रह का त्याग कर दिया है, ऐसे साधु के जीवन और मरण की आशा के बिना ही, कदलीघात से अथवा इतर कारणों से छूटे हुए शरीर को त्यक्त शरीर कहते हैं।
- भूत वर्तमान व भावी ज्ञायक शरीर
(वर्तमान प्राभृत का ज्ञाता पर अनुपयुक्त आत्मा का वर्तमान वाला शरीर; उस ही आत्मा का भूतकालीन च्युत, च्यावित या त्यक्त शरीर; तथा उस ही आत्मा का आगामी भव में होने वाला शरीर, क्रम से वर्तमान, भूत व भावी ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्य जीव या मंगल आदि कहे जाते हैं।)
- ज्ञायक शरीर सामान्य
- भावी नोआगम का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/5 सामान्यापेक्षया नोआगम-भाविजीवो नास्ति, जीवनसामान्यसदापि विद्यमानत्वात् । विशेषापेक्षया त्वस्ति। गत्यंतरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभवप्राप्तिं प्रत्यभिमुखो मनुष्यभाविजीव:। =जीव सामान्य की अपेक्षा ‘नोआगम भावी जीव’ यह भेद नहीं बनता है; क्योंकि जीव में जीवत्व सदा पाया जाता है। हाँ, पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा ‘नोआगम भावी जीव’ यह भेद बन जाता है; क्योंकि जो जीव अभी दूसरी गति में विद्यमान है, वह (अज्ञायक जीव) जब मनुष्य भव को प्राप्त करने के प्रति अभिमुख होता है, तब वह मनुष्य भावी जीव कहलाता है।
राजवार्तिक/1/5/7/29/9 जीवन-सम्यग्दर्शनपरिणामप्राप्तिं प्रत्यभिमुखं द्रव्यं भावीत्युच्यते। =जीवन या सम्यग्दर्शन आदि पर्यायों की प्राप्ति के अभिमुख अज्ञायक जीव को जीवन या सम्यग्दर्शन आदि कहना भावी नोआगम द्रव्य जीव या भावी नोआगम सम्यग्दर्शन है।
श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 63/268 भाविनोआगमद्रव्यमेष्यत् पर्यायमेव तत् । =जो आत्मा भविष्यत् में आने वाली पर्यायों के अभिमुख है, उन पर्यायों से आक्रांत हो रहा वह आत्मा भावीनोआगम द्रव्य है।
धवला 1/1,1,1/26/3 भव्यनोआगमद्रव्यं भविष्यत्काले मंगलप्राभृतज्ञायको जीव: मंगलपर्यायं परिणंस्यतीति वा। =जो जीव भविष्यकाल में मंगल शास्त्र का जानने वाला होगा, अथवा मंगल पर्याय से परिणत होगा उसे भव्य नोआगम द्रव्यमंगल कहते हैं। ( धवला 4/1,3,1/6/6 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड/62/58 )।
- तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेष के लक्षण
- तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य
सर्वार्थसिद्धि/1/18/7 तद्वयतिरिक्त: कर्मनोकर्मविकल्प:। =तद्वयतिरिक्त के दो भेद हैं–कर्म व नोकर्म। ( राजवार्तिक/1/5/7/29/11 ), ( श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 63/268)।
धवला 1/1,1,1/83/5 तव्वदिरित्तं जीवट्ठाणाहार-भूदागास-दव्वं। =जीवस्थानों के अथवा जीवस्थान विषयक शास्त्र के आधारभूत आकाशद्रव्य को तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य जीवस्थान कहते हैं। (अथवा उस-उस पर्याय के या शास्त्रज्ञान से परिणत जीव के निमित्तभूत कर्म वर्गणाओं या अन्य बाह्य द्रव्यों को उस-उस नाम से कहना तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यनिक्षेप है)।
- कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य
श्लोकवार्तिक/2/1/5/श्लोक 64/268 ज्ञानावृत्त्यादिभेदेन कर्मानेकविधंमतम् । =ज्ञानावरण आदि भेद से कर्म अनेक प्रकार माने गये हैं। ( धवला 4/1,3,1/6/10 )।
धवला 1/1,1,1/26/4 तत्र कर्ममंगलं दर्शनविशुद्धयादिषोडशधाप्रविभक्ततीर्थंकर-नामकर्म-कारणैर्जीव-प्रदेश-निबद्ध-तीर्थंकरनामकर्म-मांगल्य-निबंधनत्वांमंगलम् । =दर्शन विशुद्धि आदि सोलह प्रकार के तीर्थंकर-नामकर्म के कारणों से जीवप्रदेशों के साथ बँधे हुए तीर्थंकर नामकर्म को, कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्य मंगल कहते हैं; क्योंकि वह भी मंगलपने का सहकारी कारण है।
गोम्मटसार कर्मकांड/63/58 कम्मसरूवेणागयकम्मं दव्वं हवे णियमा। =ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूप से परिणमे पुद्गलद्रव्य कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य कर्म जानना। (यहाँ कर्म का प्रकरण होने से कर्म पर लागू करके दिखाया है)।
- नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य
श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 64-65 नोकर्म च शरीरत्वपरिणामनिरुत्सुकम् ।64। पुद्गलद्रव्यमाहारप्रभृत्युपचयात्मकम् ।65। =वर्तमान में शरीरपनारूप परिणति के लिए उत्साहरहित जो आहारवर्गणा, भाषावर्गणा आदि रूप एकत्रित हुआ पुद्गलद्रव्य है वह नोकर्म समझ लेना चाहिए।
धवला 3/1,2,2/15/3 आगममधिगम्य विस्मृत: क्वांतर्भवतीति चेत्तद्व्यतिरिक्तद्रव्यानंते। =प्रश्न–जो आगम का अध्ययन करके भूल गया है उसका द्रव्यनिक्षेप के किस भेद में अंतर्भाव होता है? उत्तर–ऐसे जीव का नोकर्म तद्वयतिरिक्त द्रव्यानंत में अंतर्भाव होता है (यहाँ ‘अनंत’ का प्रकरण है)।
गोम्मटसार कर्मकांड/64,67/59,61 कम्मद्दव्वादण्णं णोकम्मदव्वमिदि होदि।65। पडपडिहारसिमज्जा आहारं देह उच्चणीचंगम् । भंडारी मूलाणं णोकम्मं दवियकम्मं तु।69। =कर्मस्वरूप से अन्य जो कार्य होते हैं उनके बाह्यकारणभूत वस्तु को नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यकर्म जानना (यहाँ ‘कर्म का प्रकरण है)।64। जैसे–ज्ञानावरण का नोकर्म सपीठ वस्त्र है, दर्शनावरण का नोकर्म द्वारविषै तिष्ठता द्वारपाल है। वेदनीय नोकर्म मधुलिप्त मधुलिप्त खड्ग है। मोहनीय का नोकर्म, मदिरा, आयु का नोकर्म चार प्रकार आहार, नामकर्म का नोकर्म औदारिकादि शरीर और गोत्रकर्म का नोकर्म ऊँचा-नीचा शरीर है। - लौकिक व लोकोत्तर सामान्य नोकर्म तद्वयतिरिक्त
धवला 4/1,3,1/7/1 णोकम्मदव्वखेत्तं तं दुविहं ओवयारियं परमत्थियं चेदि। तत्थ ओवयारियं णोकम्मदव्वखेत्तं लोगपसिद्धं सालिखेत्तं वीहिखेत्तमेवमादि। पारमत्थियं णोकम्मदव्वखेत्तं आगासदव्वं। =नोकर्म द्रव्यक्षेत्र (यहाँ क्षेत्र का प्रकरण है) औपचारिक और पारमार्थिक के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से लोक में प्रसिद्ध शालिक्षेत्र, व्रीहिक्षेत्र, इत्यादि औपचारिक नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र कहलाता है। आकाश द्रव्य पारमार्थिक नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र है।
नोट–(अन्य भी देखो वह-वह विषय)।
- सचित्त अचित्त मिश्र सामान्य नोकर्म तद्व्यतिरिक्त
धवला 5/1,7,1/184/7 तव्वदिरित्तणोआगमदव्वभावो तिविहो सचित्ताचित्तमिस्सभेएण। तत्थ सचित्तो जीवदव्वं। अचित्तो पोग्गल-धम्मा-धम्म-कालागासदव्वाणि। पोग्गलजीवदव्वाणं संजोगोकधंचिज्जच्चंतरत्तमावण्णो णोआगममिस्सदव्वभावो णाम।=तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यभावनिक्षेप (यहाँ भाव का प्रकरण है) सचित्त अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें जीव द्रव्य सचित्त भाव है, पुद्गल धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय काल और आकाशद्रव्य अचित्तभाव हैं। कथंचित् जात्यंतर भाव को प्राप्त पुद्गल और जीव द्रव्यों का संयोग अर्थात् शरीरधारी जीव नोआगम मिश्रद्रव्य भावनिक्षेप है। ( धवला 5/1,6,1/3/1 –यहाँ ‘अंतर’ के प्रकरण में तीनों भेद दर्शाये हैं। नोट–(अन्य भी देखो वह वह विषय)।
- लौकिक व लोकोत्तर सचित्तादि नोकर्म तद्यतिरिक्त
धवला 1/1,1,1/27/1 तत्र लौकिकं त्रिविधम्, सचित्तमचित्तं मिश्रमिति। तत्राचित्तमंगलम्-सिद्धत्थ–पुण्ण-कुंभो वंदणमाला य मंगलं छत्तं। सेदो वण्णो आदंसणो य कण्णा य जच्चस्यो।13। सचित्तमंगलम् । मिश्रमंगलं सालंकारकन्यादि:। लोकोत्तरमंगलमपि त्रिविधम्, सचित्तमचित्तं मिश्रमिति। सचित्तमर्हदादीनामनाद्यनिधनजीवद्रव्यम् । न केवलज्ञानादिमंगलपर्यायविशिष्टार्हंदादीनाम् जीवद्रव्यस्यैव ग्रहणं तस्य वर्तमानपर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावइति भाविनिक्षेपांतर्भावात् । न केवलज्ञानादिपर्यायाणां ग्रहणं तेषामपि भावरूपत्वात् । अचित्तमंगलं कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयादि:, तत्स्थप्रतिमास्तु संस्थापनांतर्भावात् । अकृत्रिमाणां कथं स्थापनाव्यपदेश:। इति चेन्न, तत्रापि बुद्धया प्रतिनिधौ स्थापयितमुख्योपलंभात् । यथा अग्निरिव माणवकोऽग्नि: तथा स्थापनेव स्थापनेति तासां तद्वयपदेशोपपत्तेर्वा। तदुभयमपि मिश्रमंगलम् । =लौकिक मंगल (यहाँ मंगल का प्रकरण है) सचित्त-अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें सिद्धार्थ अर्थात् श्वेत सरसों, जल से भरा हुआ कलश, वंदनमाला, छत्र, श्वेतवर्ण और दर्पण आदि अचित्त मंगल हैं। और बालकन्या तथा उत्तम जातिका घोड़ा आदि सचित्त मंगल हैं।13। अलंकार सहित कन्या आदि मिश्रमंगल समझना चाहिए। (देखें मंगल - 1.4)। लोकोत्तर मंगल भी सचित्त अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। अर्हंतादि का अनादि अनिधन जीवद्रव्य सचित्त लोकोत्तर नोआगम तद्व्यतिरिक्तद्रव्य मंगल है। यहाँ पर केवलज्ञानादि मंगलपर्याययुक्त अर्हंत आदि का ग्रहण नहीं करना चाहिए, किंतु उनके सामान्य जीव द्रव्य का ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वर्तमानपर्याय सहित द्रव्य का भाव निक्षेप में अंतर्भाव होता है। उसी प्रकार केवलज्ञानादि पर्यायों का भी इसमें ग्रहण नहीं होता, क्योंकि वे सब पर्यायें भावस्वरूप होने के कारण उनका भी भाव निक्षेप में ही अंतर्भाव होगा। कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयादि अचित्त लोकोत्तर नोआगम तद्व्यतिरिक्त द्रव्यमंगल हैं। उनमें स्थित प्रतिमाओं का इस निक्षेप में ग्रहण नहीं करना चाहिए; क्योंकि उनका स्थापना निक्षेप में अंतर्भाव होता है। प्रश्न–अकृत्रिम प्रतिमाओं में स्थापना का व्यवहार कैसे संभव है ? उत्तर–इस प्रकार की शंका उचित नहीं हैं; क्योंकि, अकृत्रिम प्रतिमाओं में भी बुद्धि के द्वारा प्रतिनिधित्व मान लेने पर ‘ये जिनेंद्रदेव हैं’ इस प्रकार के मुख्य व्यवहार की उपलब्धि होती है। अथवा अग्नि तुल्य तेजस्वी बालक को भी जिस प्रकार अग्नि कहा जाता है उसी प्रकार अकृत्रिम प्रतिमाओं में की गयी स्थापना के समान यह भी स्थापना है। इसलिए अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं में स्थापना का व्यवहार हो सकता है। उन दोनों प्रकार के सचित्त और अचित्त मंगल को मिश्रमंगल कहते हैं (जैसे–साधु संघ सहित चैत्यालय)।
- तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य
- स्थित जित आदि भेदों के लक्षण
धवला 9/4,1,54/251/10 अवधृतमात्रं स्थितम्, जो पुरिसो भावागमम्मि वुड्ढओ गिलाणो व्व सणिं सणिं संचरदि सो तारिससंसकारजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च स्थित्वा वृत्ते: ट्ठिदं णाम। नैसंग्यवृत्तिर्जितम्, जेण संस्कारेण पुरिसो भावागमम्मि अक्खलिओ संचरइ तेण संजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च जिदमिदि भण्णदे। यत्र यत्र प्रश्न: क्रियते तत्र तत्र आशुतमवृत्ति: परिचितम्, क्रमेणोत्क्रमेणानुभयेन च भावागमांभोधौ मत्स्यवच्चटुलतमवृत्तिर्जीवो भावागमश्च परिचितम् । शिष्याध्यापनं वाचना। सा चतुर्विधा नंदा भद्रा जया सौम्या चेति। ...एतासां वाचनानामुपगतं वाचनोपगतं परप्रत्यायनसमर्थम् इति यावत् ।
धवला 9/4,1,54/259/7 तित्थयरवयणविणिग्गयबीजपदं सुत्तं। तेण सुत्तेण समं वट्टदि उप्पज्जदि त्ति गणहरदेवम्मिट्ठिदसुदणाणं सुत्तसमं। अर्यते परिच्छिद्यते गम्यते इत्यर्थो द्वादशांगविषय:, तेण अत्थेण समं सह वट्टदि त्ति अत्थसमं। दव्वसुदाइरिए अणवेक्खिय संजमजणिदसुदणाणावरणक्खओवसमसमुप्पण्णबारहंगसुदं सयंबुद्धाधारमत्थसममिदि वुत्तं होदि। गणहरदेवविरइददव्वसुदं गंथो, तेण सह वट्टदि उप्पज्जदि त्ति बोहियबुद्धाइरिएसु ट्ठिदबारहंगसुदणाणं गंथसमं। नाना मिनोतीति नाम। अणेणेहि, पयारेहि अत्थपरिच्छित्तिं णामभेदेण कुणदि त्ति एगादिअक्खराण बारसंगाणिओगाणं मज्झट्ठिददव्वसुदणाणवियप्पा णाममिदि वुत्तं होदि। तेण नामेण दव्वसुदेणं समं सट्टवट्टदि उप्पज्जदि त्ति सेसाइरिएसु ट्ठिदसुदणाणं णामसमं। ...सुई मुद्दा...पंचैते... अणिओगस्स घोससण्णो णामेगदेसेण अणिओगो वुच्चदे। सच्चभामापदेण अवगम्ममाणत्थस्स तदेगदेसभामासद्दादो वि अवगमादो।...घोसेण दव्वाणिओगद्दारेण समं सह वट्टदि उप्पज्जदि त्ति घोससमं णाम अणियोगसुदणाणं।- अवधारण किये हुए मात्र का नाम स्थितआगम है। अर्थात् जो पुरुष भावआगम में वृद्ध व व्याधिपीड़ित मनुष्य के समान धीरे-धीरे संचार करता है वह उस प्रकार के संस्कार से युक्त पुरुष और वह भावागम भी स्थित होकर प्रवृत्ति करने से अर्थात् रुक-रुककर चलने से स्थित कहलाता है।
- नैसर्ग्यवृत्ति का नाम जित है। अर्थात् जिस संस्कार से पुरुष भावागम में अस्खलितरूप से संचार करता है, उससे युक्त पुरुष और भावागम भी ‘जित’ इस प्रकार का कहा जाता है।
- जिस जिस विषय में प्रश्न किया जाता है, उस-उसमें शीघ्रतापूर्ण प्रवृत्ति का नाम परिचित है। अर्थात् क्रम से, अक्रम से और अनुभयरूप से भावागमरूपी समुद्र में मछली के समान अत्यंत चंचलतापूर्ण प्रवृत्ति करने वाला जीव और वह भावागम भी परिचित कहा जाता है।
- शिष्यों केा पढ़ाने का नाम वाचना है। वह चार प्रकार है–नंदा, भद्रा, जया और सौम्या। (विशेष देखें वाचना )। इन चार प्रकार की वाचनाओं को प्राप्त वाचनोपगत कहलाता है। अर्थात् जो दूसरों को ज्ञान कराने में समर्थ है वह वाचनोपगत है।
- तीर्थंकर के मुख से निकला बीजपद सूत्र कहलाता है। (विशेष देखो आगम-7) उस सूत्र के साथ चूँकि रहता अर्थात् उत्पन्न होता है, अत: गणधरदेव में स्थित श्रुतज्ञान सूत्रसम कहा गया है।
- जो ‘अर्यते’ अर्थात् जाना जाता है वह द्वादशांग का विषयभूत अर्थ है, उस अर्थ के साथ रहने के कारण अर्थसम कहलाता है। द्रव्यश्रुत आचार्यों की अपेक्षा न करके संयम से उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से जन्य स्वयंबुद्धों में रहने वाला द्वादशांगश्रुत अर्थसम है यह अभिप्राय है।
- गणधरदेव से रचा गया द्रव्यश्रुत ग्रंथ कहा जाता है। उसके साथ रहने अर्थात् उत्पन्न होने के कारण बोधितबुद्ध आचार्यों में स्थित द्वादशांग श्रुतज्ञान ग्रंथसम कहलाता है।
- ‘नाना मिनोति’ अर्थात् नानारूप से जो जानता है उसे नाम कहते हैं। अर्थात् अनेक प्रकारों से अर्थज्ञान को नामभेद द्वारा भेद करने के कारण एक आदि अक्षरों स्वरूप बारह अंगों के अनुयोगों के मध्य में स्थित द्रव्यश्रुत ज्ञान के भेद नाम है, यह अभिप्राय है। उस नाम के अर्थात् द्रव्यश्रुत के साथ रहने अर्थात् उत्पन्न होने के कारण शेष आचार्यों में स्थित श्रुतज्ञान नामसम कहलाता है।
- सूची; मुद्रा आदि पाँच दृष्टांतों के वचन से (देखें अनुयोग - 2.1)...घोष संज्ञावाला अनुयोग का अनुयोग (घोषानुयोग) नाम का एकदेश होने से अनुयोग कहा जाता है; क्योंकि, सत्यभामा पद से अवगम्यमान अर्थ उक्तपद के एकदेशभूत भामा शब्द से भी जाना ही जाता है।...घोष अर्थात् द्रव्यानुयोगद्वार के समं अर्थात् साथ रहता है, अर्थात् उत्पन्न होता है, इस कारण अनुयोग श्रुतज्ञान घोषसम कहलाता है।
नोट–ये उपरोक्त नौ के नौ भेदों के लक्षण यहाँ भी दिये हैं–( धवला 9/4,1,62/62/268/5 ) ( धवला 14/5,6,12/7-9 )।
- ग्रंथिम आदि भेदों के लक्षण
धवला 9/4,1,65/272/13 तत्थ गंथणकिरियाणिप्फण्णं फुल्लमादिदव्वं गंथिमं णाम। वायणकिरियाणिप्फण्णं सुप्प-पच्छियाचं गेरि-किदय-चालणि-कंबल-वत्थादिदव्वं वाइमं णाम। सुत्तिधुवकोसपल्लादिदव्वं वेदणकिरियाणिप्फण्णं वेदिमं णाम। तलावलि-जिणहराहिट्ठाणादिदव्वं पूरणकिरियाणिप्फण्णं पूरिमं णाम। कट्टिमजिणभवण घर-पायार-थूहादिदव्वं कट्टिट्ठय पत्थरादिसंघादणकिरियाणिप्पणं संघादिमं णाम। णिंबंबजंबुजंबीरादिदव्वं अहोदिमकिरियाणिप्फण्णमहोदिमं णाम। अहोदिमकिरियासचित्त-अचित्तदव्वाणं रोवणकिरिएत्ति वुत्तं होदि। पोक्खरिणी-वावी-कूव-तलाय-लेण-सुरुंगादिदव्वं णिक्खोदणकिरियाणिप्फण्णं णिक्खोदिमं णाम। णिक्खोदणं-खणणमिदिवुत्तं होदि। एक्क-दु-तिउणसुत्त-डोरावेट्ठादिदव्वमोवेल्लणकिरियाणिप्पण्णमोवेल्लिमं णाम। गंथिम-वाइमादिदव्वाणमुव्वेल्लणेण जाददव्वमुव्वेल्लिमं णाम। चित्तारयाणमण्णेसिं च वण्णुप्पायणकुसलाणं किरियाणिप्पण्णदव्वं णर-तुरयादिबहुसंठाणंवण्णंणामपिट्ठपिट्ठियाकणिकादिदव्वं चुण्णणकिरियाणिप्फण्णं चुण्णं णाम। बहूणं दव्वाणं संजोगेणुप्पाइदगंधपहाणं दव्वं गंधं णाम। घुट्ठ-पिट्ठ-चंदण-कुंकु-मादिदव्वं विलेवणं णाम।=- गूंथनेरूप क्रिया से सिद्ध हुए फूल आदि द्रव्य को ग्रंथिम कहते हैं।
- बुनना क्रिया से सिद्ध हुए सूप, पिटारी, चंगेर, कृतक, चालनी, कंबल और वस्त्र आदि द्रव्य वाइम कहलाते हैं।
- वेधन क्रिया से सिद्ध हुए सूति (सोम निकालने का स्थान) इंधुव (भट्ठी) कोश और पल्य आदि द्रव्य वेधिम कहे जाते हैं।
- पूरण क्रिया से सिद्ध हुए तालाब का बाँध व जिनग्रह का चबूतरा आदि द्रव्य का नाम पूरिम है।
- काष्ठ, ईंट और पत्थर आदि की संघातन क्रिया से सिद्ध हुए कृत्रिम जिनभवन, गृह, प्राकार और स्तूप आदि द्रव्य संघातिम कहलाते हैं।
- नीम, आम, जामुन और जंबीर आदि अधोधिम क्रिया से सिद्ध हुए द्रव्य को अधोधिन कहते हैं। अधोधिम क्रिया का अर्थ सचित्त और अचित्त द्रव्यों की रोपन क्रिया है। यह तात्पर्य है।
- पुष्कारिणी, वापी, कूप, तड़ाग, लयन और सुरंग आदि निष्खनन क्रिया से सिद्ध हुए द्रव्य णिक्खोदिम कहलाते हैं। णिक्खोदिम से अभिप्राय खोदना क्रिया से है।
- उपवेल्लन क्रिया से सिद्ध हुए एकगुणे, दुगुणे एवं तिगुणे सूत्र, डोरा व वेष्ट आदि द्रव्य उपवेल्लन कहलाते हैं।
- ग्रंथिम व वाइम आदि द्रव्यों के उद्वेल्लन से उत्पन्न हुए द्रव्य उद्वेल्लिम कहलाते हैं।
- चित्रकार एवं वर्णों के उत्पादन में निपुण दूसरों की क्रिया से सिद्ध मनुष्य, तुरंग आदि अनेक आकाररूप द्रव्य वर्ण कहे जाते हैं।
- चूर्णन क्रिया से सिद्ध हुए पिष्ट, पिष्टिका और कणिका आदि द्रव्य को चूर्ण कहते हैं।
- बहुत द्रव्यों के संयोग से उत्पादित गंध की प्रधानता रखने वाले द्रव्य का नाम गंध है।
- घिसे व पीसे गये चंदन और कंकुम आदि द्रव्य विलेपन कहे जाते हैं।
- द्रव्य निक्षेप सामान्य का लक्षण
- द्रव्य निक्षेप के लक्षण संबंधी शंका
- आगम द्रव्य निक्षेप विषयक शंका
- नोआगम द्रव्यनिक्षेप विषयक शंका
- नोआगम में द्रव्य निक्षेपपने की सिद्धि
- भावी नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
- कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपना
- नोकर्मतद्वयतिरिक्त नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपना
- ज्ञायकशरीर विषयक शंकाएँ
- त्रिकाल ज्ञायकशरीरों में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
- ज्ञायक शरीरों को नोआगम संज्ञा क्यों ?
- भूत व भावी शरीरों को नोआगमपना कैसे है
- द्रव्यनिक्षेप के भेदों में परस्पर अंतर
- द्रव्यनिक्षेप निर्देश व शंकाएँ
- द्रव्य निक्षेप के लक्षण संबंधी शंका
देखें द्रव्य - 2.2 (भविष्य पर्याय के प्रति अभिमुखपने रूप लक्षण ‘गुणपर्ययवान द्रव्य’ इस लक्षण के साथ विरोध को प्राप्त नहीं होता)। राजवार्तिक/1/5/4/28/25 युक्तं तावत् सम्यग्दर्शनप्राप्तिं प्रति गृहीताभिमुख्यमिति, अतत्परिणामस्य जीवस्य संभवात; इदं त्वयुक्तम्–जीवनपर्यायप्राप्तिं प्रति गृहीताभिमुख्यमिति। कुत:। सदा तत्परिणामात् । यदि न स्यात्, प्रागजीव: प्राप्नोतीति। नैष दोष:, मनुष्यजीवादिविशेषापेक्षया सव्यपदेशो वेदितव्य:। =प्रश्न–सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रति अभिमुख कहना तो युक्त है; क्योंकि, पहले जो पर्याय नहीं है, उसका आगे होना संभव है; परंतु जीवनपर्याय के प्रति अभिमुख कहना तो युक्त नहीं है, क्योंकि, उस पर्यायरूप तो वह सदा ही रहता है। यदि न रहता तो उससे पहले उसे अजीवपने का प्रसंग प्राप्त होता ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, यहाँ जीवन सामान्य की अपेक्षा उपरोक्त बात नहीं कही गयी है, बल्कि मनुष्यादिपने रूप जीवत्व विशेष की अपेक्षा बात कही है।
नोट–यह लक्षण नोआगम तथा भावी नोआगम द्रव्य निक्षेप में घटित होता है–(देखें निक्षेप - 6.3.1,2)। - आगम द्रव्य निक्षेप विषयक शंका
- आगम-द्रव्य-निक्षेप में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/270/9 तदेवेदमित्येकत्वप्रत्यभिज्ञानमन्वयप्रत्यय:। स तावज्जीवादिप्राभृतज्ञायिन्यात्मन्यनुपयुक्ते जीवाद्यागमद्रव्येऽस्ति। स एवाहं जीवादिप्राभृतज्ञाने स्वयमुपयुक्त: प्रागासम् स एवेदानीं तत्रानुपयुक्तो वर्ते पुनरुपयुक्तो भविष्यामीति संप्रत्ययात् । =’यह वही है’ इस प्रकार का एकत्व प्रत्यभिज्ञान अन्वयज्ञान कहलाता है। जीवादि विषयक शास्त्र को जानने वाले वर्तमान अनुपयुक्त आत्मा में वह अवश्य विद्यमान है। क्योंकि, ‘जो ही मैं जीवादि शास्त्रों को जानने में पहले उपयोग सहित था, वही मैं इस समय उस शास्त्रज्ञान में उपयोग रहित होकर वर्त रहा हूँ और पीछे फिर शास्त्रज्ञान में उपयुक्त हो जाऊँगा। इस प्रकार द्रव्यपने की लड़ी को लिये हुए भले प्रकार ज्ञान हो रहा है। - उपयोगरहित की भी आगम संज्ञा कैसे है
धवला 4/1,3,1/5/2 कधमेदस्स जीवदवियस्स सुदणाणावरणीयक्खओवसमविसिट्ठस्स दव्वभावखेत्तागमवदिरित्तस्स आगमदव्वखेत्तववएसो। ण एसदोसो, आधारे आधेयोवयारेण कारणे कज्जुवयारेणलद्धागमववएसखओवसमविसिट्ठजीवदव्वावलंबणेण वा तस्स तदविरोहा। =प्रश्न– श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से विशिष्ट, तथा द्रव्य और भावरूप क्षेत्रागम से रहित इस जीवद्रव्य के आगमद्रव्यक्षेत्ररूप संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है (यहाँ ‘क्षेत्र’ विषयक प्रकरण है)? उत्तर– यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, आधाररूप आत्मा में आधेयभूतक्षयोपशम-स्वरूप आगम के उपचार से; अथवा कारणरूप आत्मा में कार्यरूप क्षयोपशम के उपचार से, अथवा प्राप्त हुई है आगमसंज्ञा जिसको ऐसे क्षयोपशम से युक्त जीवद्रव्य के अवलंबन से जीव के आगमद्रव्यक्षेत्ररूप संज्ञा के होने में कोई विरोध नहीं है।
धवला 7/2,1,1/4/2 कधमागमेण विप्पमुक्कस्स जीवदव्वस्स आगमववएसो। ण एस दोसो, आगमाभावे वि आगमसंस्कारसहियस्स पुव्वं लद्धागमववएसस्स जीवदव्वस्स आगमववएसुवलंभा। एदेण भट्टसंसकारजीवदव्वस्स वि गहणं कायव्वं, तत्थ वि आगमववएसुवलंभा। =प्रश्न–जो आगम के उपयोग से रहित है, उस जीवद्रव्य को ‘आगम’ कैसे कहा जा सकता है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आगम के अभाव होने पर भी आगम के संस्कार सहित एवं पूर्वकाल में आगम संज्ञा को प्राप्त जीवद्रव्य को आगम कहना पाया जाता है। इसी प्रकार जिस जीव का आगमसंस्कार भ्रष्ट हो गया है उसका भी ग्रहण कर लेना चाहिए, क्योंकि, उसके भी (भूतपूर्व प्रज्ञापननय की अपेक्षा– कषायपाहुड़ ) आगमसंज्ञा पायी जाती है। ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/217/269/8 )।
- आगम-द्रव्य-निक्षेप में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
- नोआगम द्रव्यनिक्षेप विषयक शंका
- नोआगम में द्रव्य निक्षेपपने की सिद्धि
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/274/1 एतेन जीवादिनोआगमद्रव्यसिद्धिरुक्ता। य एवाहं मनुष्यजीव: प्रागासं स एवाधुना वर्ते पुनर्मनुष्यो भविष्यामीत्यन्वयप्रत्ययस्य सर्वथाप्यबाध्यमानस्य सद्भावात् ।...ननु च जीवादिनोआगमद्रव्यमसंभाव्यं जीवादित्वस्य सार्वकालिकत्वेनानागतत्वासिद्धेस्तदभिमुख्यस्य कस्यचिदभावादिति चेत्, सत्यमेतत् । तत एव जीवादिविशेषापेक्षयोदाहृतो जीवादिद्रव्यनिक्षेपो। =इस कथन से, जीव, सम्यग्दर्शन आदि के नोआगम द्रव्य की सिद्धि भी कह दी गयी है। क्योंकि ‘जो ही मैं पहले मनुष्य जीव था, सो ही मैं इस समय देव होकर वर्त रहा हूँ तथा भविष्य में फिर मैं मनुष्य हो जाऊँगा’, ऐसा सर्वत: अबाधित अन्वयज्ञान विद्यमान है। प्रश्न–जीव, पुद्गल आदि सामान्य द्रव्यों का नोआगमद्रव्य तो असंभव है; क्योंकि, जीवपना पुद्गलपना आदि धर्म तो उन द्रव्यों में सर्वकाल रहते हैं। अत: भविष्यत् में उन धर्मों की प्राप्ति असिद्ध होने के कारण उनके प्रति अभिमुख होने वाले पदार्थों का अभाव है ? उत्तर–आपकी बात सत्य है, सामान्यरूप से जीव पुद्गल आदि का नोआगम द्रव्यपना नहीं बनता। परंतु जीवादि विशेष की अपेक्षा बन जाता है, इसीलिए मनुष्य देव आदि रूप जीव विशेषों के ही यहाँ उदाहरण दिये गये हैं। (और भी देखें निक्षेप - 6.1 तथा निक्षेप/6/3/2)। - भावी नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/5 सामान्यापेक्षया नोआगमभाविजीवो नास्ति, जीवनसामान्यसदापि विद्यमानत्वात् । विशेषापेक्षया त्वस्ति। गत्यंतरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभवप्राप्तिं प्रत्यभिमुखो मनुष्यभाविजीव:। =जीवसामान्य की अपेक्षा ‘नोआगमभावी जीव’ यह भेद नहीं बनता; क्योंकि, जीव में जीवत्व सदा पाया जाता है। यहाँ पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा ‘नोआगमभावी जीव’ यह भेद बन जाता है; क्योंकि, जो जीव दूसरी गति में विद्यमान है, वह जब मनुष्यभव को प्राप्त करने के लिए सन्मुख होता है तब वह मनुष्यभावी जीव कहलाता है। (यहाँ ‘जीव’ विषयक प्रकरण है। (और भी देखें निक्षेप - 6.1;6/3/1) ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/217/270/6 )।
धवला 4/1,3,1/6/6 भवियं खेत्तपाहुडजाणगभावो जीवो णिद्दिस्सदे। कधं जीवस्स खेत्तागमखओवसमरहिदत्तादो। अणागमस्स खेतववएसो। न, क्षेष्यत्यस्मिन् भावक्षेत्रागम इति जीवद्रव्यस्य पुरैव क्षेत्रत्वसिद्धे:। =नोआगमद्रव्य के तीन भेदों में से जो आगामी काल में क्षेत्रविषयक शास्त्र को जानेगा ऐसे जीव को भावी-नोआगम-द्रव्य कहते हैं। (क्षेत्र विषयक प्रकरण है)। प्रश्न–जो जीव क्षेत्रागमरूप क्षयोपशम से रहित होने के कारण अनागम है, उस जीव के क्षेत्र संज्ञा कैसे बन सकती हे। उत्तर–नहीं, क्योंकि, ‘भावक्षेत्ररूप आगम जिसमें निवास करेगा’ इस प्रकार की निरुक्ति के बल से जीवद्रव्य के क्षेत्रागमरूप क्षयोपशम होने के पूर्व ही क्षेत्रपना सिद्ध है। - कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपना
धवला 4/1,3,1/6/1 तत्थ कम्मदव्वक्खेत्तं णाणावरणादिअट्ठविहकम्मदव्वं। कधं कम्मस्स खेत्तववएसो। न, क्षियंति निवसंत्यस्मिं जीवा इति कर्मणां क्षेत्रत्वसिद्धे:। =ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मद्रव्य को कर्म (तद्वयतिरिक्त नोआगम) द्रव्यक्षेत्र कहते हैं। प्रश्न–कर्मद्रव्य को क्षेत्रसंज्ञा कैसे प्राप्त हुई ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, जिसमें जीव ‘क्षियंति’ अर्थात् निवास करते हैं, इस प्रकार की निरुक्ति के बल से कर्मों के क्षेत्रपना सिद्ध है। - नोकर्मतद्वयतिरिक्त नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपना
धवला 9/4,1,67/322/3 जा सा तव्वदिरित्तदव्वगंथकदी सा गंथिम-वाइम-वेदिम-पूरिमादिभेएण अणेयविहा। कधमेदेसिं गंथसण्णा। ण, एदे जीवो बुद्धीए अप्पाणम्मि गुंथदित्ति तेसिं गंथत्तसिद्धी। =जो तद्वयतिरिक्त द्रव्यग्रंथकृति है वह गँथना, बुनना, वेष्टित करना और पूरना आदि के भेद से अनेक प्रकार की है। =प्रश्न–इनकी ग्रंथ संज्ञा कैसे संभव है? उत्तर–नहीं; क्योंकि, जीव इन्हें बुद्धि से आत्मा में गूँथता है। अत: उनके ग्रंथपना सिद्ध है।
- नोआगम में द्रव्य निक्षेपपने की सिद्धि
- ज्ञायकशरीर विषयक शंकाएँ
- त्रिकाल ज्ञायकशरीरों में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/274/27 नन्वेवमागमद्रव्यं वा बाधितात्तदन्वयप्रत्ययान्मुख्यं सिद्धयतु ज्ञायकशरीरं तु त्रिकालगोचरं तद्वयतिरिक्तं च कर्मनोकर्मविकल्पमनेकविधं कथं तथा सिद्धयेत् प्रतीत्यभावादिति चेन्न, तत्रापि तथाविधान्वयप्रत्ययस्य धान्वयप्रत्ययस्य सद्भावात् । यदेव मे शरीर ज्ञातुमारभमाणस्य तत्त्वं तदेवेदानीं परिसमाप्ततत्त्वज्ञानस्य वर्तते इति वर्तमानज्ञायकशरीरे तावदन्वयप्रत्यय:। यदेवोपयुक्ततत्त्वज्ञानस्य मे शरीरमासीत्तदेवाधुनानुपयुक्ततत्त्वज्ञानस्येत्यतीतज्ञायकशरीरे प्रत्यवमर्श:। यदेवाधुनानुपयुक्ततत्त्वज्ञानस्य शरीरं तदेवोपयुक्ततत्त्वज्ञानस्यभविष्यतीत्यनागतज्ञायकशरीरेप्रत्यय:। =प्रश्न–अन्वयज्ञान से मुख्य आगमद्रव्य तो भले ही निर्बाधरूप से सिद्ध हो जाओ परंतु त्रिकालवर्ती ज्ञायक शरीर और कर्म नोकर्म के भेदों से अनेक प्रकार का तद्वयतिरिक्त भला कैसे मुख्य सिद्ध हो सकता है; क्योंकि, उसकी प्रतीति नहीं होती है? उत्तर–नहीं; वहाँ भी तिस प्रकार अनेक भेदों को लिये हुए अन्वयज्ञान विद्यमान है। वह इस प्रकार कि तत्त्वों को जानने के लिए आरंभ करने वाले मेरा जो ही शरीर पहले था, वही तो इस समय तत्त्वज्ञान की भली भाँति समाप्त कर लेने वाले मेरा यह शरीर वर्त रहा है, इस प्रकार वर्तमान के ज्ञायकशरीर में अन्वय प्रत्यय विद्यमान है। तत्त्वज्ञान में उपयोग लगाये हुए मेरा जो ही शरीर पहले था वही इस भोजन करते समय तत्त्वज्ञान में नहीं उपयोग लगाये हुए मेंरा यहा शरीर है, इस प्रकार भूतकाल के ज्ञायकशरीर में प्रत्यभिज्ञान हो रहा है। तथा इस वाणिज्य करते समय तत्त्वज्ञान में नहीं उपयोग लगा रहे मेरा जो भी शरीर है, पीछे तत्त्वज्ञान में उपयुक्त हो जाने पर वही शरीर रहा आवेगा, इस प्रकार भविष्यत् के ज्ञायक शरीर में अन्वयज्ञान हो रहा है। - ज्ञायक शरीरों को नोआगम संज्ञा क्यों ?
धवला 9/4,1,1/7/1 कधमेदेसिं तिण्णं सरीराणं णिच्चेयणाणं जिणव्ववएसो। ण, धणुहसहचारपज्जाएण तीदाणागयवट्टमाणमणुआण धणुहववएसो व्व जिणाहारपज्जाएण तीदाणागय-वट्टमाणसरीराणं दव्वजिणत्तं पडि विरोहाभावादो। =प्रश्न–इन अचेतन तीन शरीरों के (नोआगम) ‘जिन’ संज्ञा कैसे संभव है (यहाँ ‘जिन’ विषयक प्रकरण है) ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार धनुष-सहचार रूप पर्याय से अतीत, अनागत और वर्तमान मनुष्यों की ‘धनुष’ संज्ञा होती है, उसी प्रकार (आधार आधेय का आरोप करके) जिनाधार रूप पर्याय से अतीत, अनागत और वर्तमान शरीरों के द्रव्य जिनत्व के प्रति कोई विरोध नहीं है।
धवला 9/4,1,63/270/1 कधं सरीराणां णोआगमदव्वकदिव्ववएसो। आधारे आधेओवयारादो। =प्रश्न–शरीरों को नोआगम-द्रव्यप्रकृति संज्ञा कैसे संभव है (यहाँ ‘कृति’ विषयक प्रकरण है)? उत्तर–चूँकि शरीर नोआगम द्रव्यकृति के आधार है, अत: आधार में आधेय का उपचार करने से उक्त संज्ञा संभव है। ( धवला 4/1,3,1/6/6 )। - भूत व भावी शरीरों को नोआगमपना कैसे है
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/270/3 होदु णाम वट्टमाणसरीरस्स पेज्जागमववएसो; पेज्जागमेण सह एयत्तुवलंभादो, ण भविय-समुज्झादाणमेसा सण्णा; पेज्जपाहुडेण संबंधाभावादो त्ति; ण एस दोसो; दव्वट्ठियप्पणाए सरीरम्मि तिसरीरभावेण एयत्तमुवगयम्मि तदविरोहादो। =प्रश्न–वर्तमान शरीर की नोआगम द्रव्यपेज्ज संज्ञा होओ, क्योंकि वर्तमान शरीर का पेज्जविषयक शास्त्र को जानने वाले जीव के साथ एकत्व पाया जाता है। परंतु भाविशरीर और अतीत शरीर को नोआगम-द्रव्य-पेज्ज संज्ञा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि इन दोनों शरीरों का पेज्ज के साथ संबंध नहीं पाया जाता है। (यहाँ ‘पेज्ज’ विषयक प्रकरण है) ? उत्तर–यह दोष उचित नहीं है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से भूत, भविष्यत् और वर्तमान ये तीनों शरीर शरीरत्व की अपेक्षा एकरूप हैं, अत: एकत्व को प्राप्त हुए शरीर में नोआगम द्रव्यपेज्ज संज्ञा के मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। धवला 1/1,1,1/21/5 आहारस्साहेयोवयारादो भवदुधरिदमंगलपज्जाय-परिणद-जीवसरीरस्स मंगलववएसो ण अण्णेसिं, तेसु ट्ठिदमंगलपज्जायाभावा। ण रायपज्जायाहारत्तणेण अणागदादीदजीवे वि रायववहारोलंभा। = प्रश्न–आधारभूत शरीर में आधेयभूत आत्मा के उपचार से धारण की हुई मंगल पर्याय से परिणत जीव के शरीर को नोआगम-ज्ञायकशरीर-द्रव्यमंगल कहना तो उचित भी है, परंतु भावी और भूतकाल के शरीर की अवस्था को मंगल संज्ञा देना किसी प्रकार भी उचित नहीं है; क्योंकि, उनमें मंगलरूप पर्याय का अभाव है। (यहाँ ‘मंगल’ विषयक प्रकरण है)? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि, राजपर्याय का आधार होने से अनागत और अतीत जीव में भी जिस प्रकार राजारूप व्यवहार की उपलब्धि होती है, उसी प्रकार मंगल पर्याय से परिणत जीव का आधार होने से अतीत और अनागत शरीर में भी मंगलरूप व्यवहार हो सकता है। ( धवला 5/1,6,1/2/6 )।
धवला 4/1,3,1/6/3 भवदु पव्विल्लस्स दव्वखेत्तागमत्तादो खेत्तववाएसो, एदस्स पुण सरीरस्स अणागमस्स खेत्तववएसो ण घडदि त्ति। एत्थ परिहारो वुच्चदे। तं जधा–क्षियत्यक्षैषीत्क्षेष्यस्मिन् द्रव्यागमो भावागमो वेति त्रिविधमपि शरीरं क्षेत्रम्, आधारे आधेयोपचाराद्वा। =प्रश्न–द्रव्य क्षेत्रागम के निमित्त से पूर्व के (भूत) शरीर को क्षेत्र संज्ञा घटित नहीं होती। (यहाँ ‘क्षेत्र’ विषयक प्रकरण है)? उत्तर–उक्त शंका का यहाँ परिहार करते हैं। वह इस प्रकार है–जिसमें द्रव्यरूप आगम अथवा भावरूप आगम वर्तमान काल में निवास करता है, भूतकाल में निवास करता था और आगामी काल में निवास करेगा; इस अपेक्षा तीनों ही प्रकार के शरीर क्षेत्र कहलाते हैं। अथवा, आधाररूप शरीर में आधेयरूप क्षेत्रागम का उपचार करने से भी क्षेत्र संज्ञा बन जाती है।
- त्रिकाल ज्ञायकशरीरों में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
- द्रव्यनिक्षेप के भेदों में परस्पर अंतर
- आगम व नोआगम में अंतर
श्लोकवार्तिक 2/1/5/275/18 तस्यागमद्रव्यादन्यत्वं सुप्रतीतमेवानात्मत्वात् । = वह ज्ञायक शरीर नोआगमद्रव्य आगमद्रव्य से तो भिन्न भले प्रकार जाना ही जा रहा था, क्योंकि आगमज्ञान के उपयोग रहित आत्मा को आगमद्रव्य माना है, और जीव के जड़ शरीर को नोआगम माना है।
धवला 9/4,1,63/270/2 जदि एवं तो सरीराणमागमत्तमुवयारेण किण्ण वुच्चदे। आगमणोआगमाणं भेदपदुप्पायणट्ठं ण वुच्चदे पओजणाभावादो च। =प्रश्न–यदि ऐसा है अर्थात् आधार में आधेय का उपचार करके शरीर को नोआगम कहते हों तो शरीरों को उपचार से आगम क्यों नहीं करते? उत्तर–आगम और नोआगम का भेद बतलाने के लिए; अथवा कोई प्रयोजन न होने से भी शरीरों को आगम नहीं कहते। धवला 9/4,1,1/7/3 आगमसण्णा अणुवजुत्तजीवदव्वस्से एत्थ किण्ण कदा, उवजोगाभावं पडि विसेसाभावादो। ण, एत्थ आगमसंस्काराभावेण तदभावादो...भविस्सकाले जिणपाहुड़जाणयस्स भूदकाले णादूण विस्सरिदस्स य णोआगमभवियदव्वजिणत्तं किण्ण इच्छज्जदे। ण, आगमदव्वस्स आगमसंस्कारपज्जायस्स आहारत्तणेण तीदाणागदवट्टमाण णोआगमदव्वत्तविरोहादो। =प्रश्न–अनुपयुक्त जीवद्रव्य के समान यहाँ (त्रिकाल गोचर ज्ञायक शरीरों की भी) आगम संज्ञा क्यों नहीं की, क्योंकि दोनों में उपयोगाभाव की अपेक्षा कोई भेद नहीं है? उत्तर–नहीं की, क्योंकि, यहाँ आगम संस्कार का अभाव होने से उक्त संज्ञा का अभाव है। प्रश्न–भविष्यकाल में जिनप्राभृत को जानने वाले व भूतकाल में जानकर विस्मरण को प्राप्त हुए जीवद्रव्य के नोआगम-भावी-जिनत्व क्यों नहीं स्वीकार करते (यहाँ ‘जिन’ विषयक प्रकरण है)? उत्तर–नहीं क्योंकि आगम संस्कार पर्याय का आधार होने से अतीत, अनागत व वर्तमान आगमद्रव्य के नोआगम द्रव्यत्व का विरोध है। (भावार्थ–आगमद्रव्य में जीवद्रव्य का ग्रहण होता है और नोआगम में उसके आधारभूत शरीर का। जीव में आगमसंस्कार होना संभव है, पर शरीर में वह संभव नहीं है। इसीलिए ज्ञायक के शरीर को आगम अथवा जीवद्रव्य को नोआगम नहीं कह सकते हैं।) - भावी ज्ञायकशरीर व भावी नोआगम में अंतर
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/275/17 तर्हि ज्ञायकशरीरं भाविनोआगमद्रव्यादनन्यदेवेति चेन्न, ज्ञायकविशिष्टस्य ततोऽन्यत्वात् ।=प्रश्न–तब तो (भावी) ज्ञायकशरीर भाविनोआगम से अभिन्न ही हुआ ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उस ज्ञायकशरीर से ज्ञायकआत्मा करके विशिष्ट भावी नोआगमद्रव्य भिन्न है।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/217/270/24- भाषाकार–जिस प्रकार भावी और भूत शरीर में शरीरसामान्य की अपेक्षा वर्तमान शरीरों से एकत्व मानकर (उन भूत व भावी शरीर में) नोआगम द्रव्यपेज्ज संज्ञा का व्यवहार किया है (देखें निक्षेप - 6.4.3), उसी प्रकार वर्तमान जीव ही भविष्यत् में पेज्जविषयक शास्त्र का ज्ञाता होगा; अत: जीव सामान्य की अपेक्षा एकत्व मानकर वर्तमान जीव (के शरीर को) भाविनोआगम द्रव्यपेज्ज कहा है। ( धवला 1/1,1,1/26/21 पर विशेषार्थ)। सर्वार्थसिद्धि/ पं.जगरूप सहाय/1/5/पृ.49 भावी ज्ञायकशरीर में जीव के (जीव विषयक) शास्त्र को जानने वाला शरीर है। परंतु भावी नोआगमद्रव्य में जो शरीर आगे जाकर मनुष्यादि जीवन प्राप्त करेगा। उन्हें उनके (मनुष्यादि विषयों के) शास्त्र जानने की आवश्यकता नहीं। अज्ञायक होकर ही (शरीर) प्राप्त कर सकेगा। ऐसा ज्ञायकपना और अज्ञायकपना का दोनों में भेद व अंतर है। - ज्ञायक शरीर और तद्वयतिरिक्त में अंतर
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/275/25 कर्म नोकर्म वान्वयप्रत्ययपरिच्छिन्नं ज्ञायकशरीरादनन्यदिति चेत् न, कार्मणस्य शरीरस्य तैजसस्य च शरीरस्य शरीरभावमापन्नस्याहारादिपुद्गलस्य वा ज्ञायकशरीरत्वासिद्ध:, औदारिकवैक्रियकाहारकशरीरत्रयस्यैव ज्ञायकशरीरत्वोपत्तेरन्यथा विग्रहगतावपि जीवस्योपयुक्तज्ञानत्वप्रसंगात् तैजसकार्मण शरीरयो: सद्भावात् । =प्रश्न–तद्वयतिरिक्त के कर्म नोकर्म भेद भो अन्वय ज्ञान से जाने जाते हैं, अत: ये दोनों ज्ञायकशरीर नोआगम से भिन्न हो जावेंगे ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, कार्माण वर्गणावों से बने हुए कार्मणशरीर और तैजस वर्गणाओं से बने हुए तैजसशरीर इन दोनों शरीररूप से शरीरपने को प्राप्त हो गये पुद्गलस्कंधों को ज्ञायक शरीरपना सिद्ध नहीं है। अथवा आहार आदि वर्गणाओं को भी ज्ञायकशरीरपना असिद्ध है। वस्तुत: बन चुके औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीरों को ही ज्ञायकशरीरपना कहना युक्त है। अन्यथा विग्रहगति में भी जीव के उपयोगात्मक ज्ञान हो जाने का प्रसंग आवेगा, क्योंकि कार्मण और तैजस दोनों ही शरीर वहाँ विद्यमान हैं। - भाविनोआगम व तद्वयतिरिक्त में अंतर
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/276/9 कर्मनोकर्म नोआगमद्रव्यं भाविनोआगमद्रव्यादनर्थांतरमिति चेन्न, जीवादिप्राभृतज्ञायिपुरुषकर्मनोकर्मभावमापन्नस्यैव तथाभिधानात्, ततोऽन्यस्य भाविनोआगमद्रव्यत्वोपगमात् । =प्रश्न–कर्म और नोकर्मरूप नोआगम द्रव्य भावि-नोआगम-द्रव्य से अभिन्न हो जावेगा ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जीवादि विषयक शास्त्र को जानने वाले ज्ञायक पुरुष के ही कर्म व नोकर्मों को तैसा अर्थात् तद्वयतिरिक्त नोआगम कहा गया है। परंतु उससे भिन्न पड़े हुए और आगे जाकर उस उस पर्यायरूप परिणत होने वाले ऐसे कर्म व नोकर्मों से युक्त जीव को भाविनोआगम माना गया है।
- आगम व नोआगम में अंतर
- द्रव्य निक्षेप के लक्षण संबंधी शंका
- भावनिक्षेप निर्देश व शंका आदि
- भावनिक्षेप सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/5/17/6 वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भाव:। =वर्तमानपर्याय से युक्त द्रव्य को भाव कहते हैं। ( राजवार्तिक/1/5/8/29/12 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लो.67/276); ( धवला 1/1,1,1/14/3 व 29/7); ( धवला 9/4,1,48/242/7 ); ( तत्त्वसार/1/13 )।
धवला 5/1,7,1/187/9 दव्वपरिणामो पुव्वारकोडिवदिरित्तवट्टमाणपरिणामुवलक्खियदव्वं वा। =द्रव्य के परिणाम को अथवा पूर्वा पर कोटि से व्यतिरिक्त वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहते हैं।
देखें नय - I.5.3 (भाव निक्षेप से आत्मा पुरुष के समान प्रवर्तती स्त्री की भाँति पर्यायोल्लासी है)।
- भावनिक्षेप के भेद
सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/7 भावजीवो द्विविध:–आगमभावजीवो नोआगमभावजीवश्चेति। =भाव जीव के दो भेद हैं–आगम-भावजीव और नोआगम-भावजीव। ( राजवार्तिक/1/5/9/29/15 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लो.67); ( धवला 1/1,1,1/29/7;83/6 ); ( धवला 4/1,3,1/7/9 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/64/59 ); ( नयचक्र बृहद्/276 )।
धवला 1/1,1,1/29/9 णो-आगमदो भावमंगलं दुविहं, उपयुक्तस्तत्परिणत इति। =नोआगम भाव मंगल, उपयुक्त और तत्परिणत के भेद से दो प्रकार का है।
- आगम व नोआगम भाव के भेद व उदाहरण
षट्खंडागम 13/5,5/ सू.139-140/390-391 जा सा आगमदो भावपयढ़ी णाम तिस्से इमो णिद्देसो-ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं। जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेहणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा जेचामण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कट्टुजावदिया उवजुत्ता भावा सा सव्वा आगमदो भावपयडी णाम।139। जा सा णोआगमदो भावपयडी णाम सा अणेयविहा। तं जहा-सुर-असुर-णाग-सुवण्ण-किण्णर-किंपुरिस-गरुड-गंधव्व-जक्खारक्ख-मणुअ-महोरग-मिय-पसु-पक्खि-दुवय-चउप्पय-जलचर-थलचर-खगचर-देव-मणुस्स-तिरिक्ख-णेरइय-णियगुणा पयडी सा सव्वा णोआगमदो भावपयडी णाम।140। =जो आगम-भावप्रकृति है, उसका यह निर्देश है–स्थित, जित, परिचित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रंथसम, नामसम, और घोषसम। तथा इनमें जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा तथा इनको आदि लेकर और जो उपयोग हैं वे सब भाव हैं; ऐसा समझकर जितने उपयुक्त भाव हैं वह सब आगम भाव कृति है।139।
जो नोआगम भावप्रकृति है वह अनेक प्रकार की है। यथा–सुर असुर, नाग, सुपर्ण, किंनर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, मनुज, महोरग, मृग, पशु, पक्षी, द्विपद, चतुष्पद, जलचर, स्थलचर, खगचर, देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी; इन जीवों की जो अपनी-अपनी प्रकृति है वह सब नोआगमप्रकृति है। (यहाँ ‘कर्मप्रकृति’ विषयक प्रकरण है।)
- आगम व नोआगम भाव के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/8 तत्र जीवप्राभृतविषयोपयोगविष्टो मनुष्यजीवप्राभृतविषयोपयोगयुक्तो वा आत्मा आगमभावजीव:। जीवनपर्यायेण मनुष्य जीवत्वपर्यायेण वा समाविष्ट आत्मा नोआगमभावजीव:। =जो आत्मा जीव विषयक शास्त्र को जानता है और उसके उपयोग से युक्त है वह आगम-भाव-जीव कहलाता है। तथा जीवनपर्याय या मनुष्य जीवनपर्याय से युक्त आत्मा नोआगम भाव जीव कहलाता है। (यहाँ ‘जीव’ विषयक प्रकरण है) ( राजवार्तिक/1/5/10-11/16 ); ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लो.67-68/276); ( धवला 1/1,1,1/83/6 ); ( धवला 5/1,6,1/3/5 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/65-66/59 )।
धवला 1/1,1,1/29/8 आगमदो मंगलपाहुड़जाणओ उवजुत्तो। णोआगमदो भावमंगलं दुविहं, उपयुक्तस्तत्परिणत इति। आगममंतरेण अर्थोपयुक्त उपयुक्त:। मंगलपर्यायपरिणतस्तत्परिणत इति। =जो मंगलविषयक शास्त्र का ज्ञाता होते हुए वर्तमान में उसमें उपयुक्त है उसे आगमभाव मंगल कहते हैं। नोआगम-भाव-मंगल उपयुक्त और तत्परिणत के भेद से दो प्रकार का है। जो आगम के बिना ही मंगल के अर्थ में उपयुक्त है, उसे उपयुक्त नोआगम भाव मंगल कहते हैं, और मंगलरूप अर्थात् जिनेंद्रदेव आदि की वंदना भावस्तुति आदि में परिणत जीव को तत्परिणत नोआगमभाव मंगल कहते हैं। ( धवला 4/1,3,1/7/8 )।
नयचक्र बृहद्/276-277 अरहतसत्थजाणो आगमभावो हु अरहंतो।276। तग्गुणए य परिणदो णोआगमभाव होइ अरहंतो। तग्गुणएई झादा केवलणाणी हु परिणदो भणिओ।277। =अर्हंत विषयक शास्त्र का ज्ञायक (और उसके उपयोग युक्त आत्मा) आगमभाव अर्हंत है।276। उसके गुणों से परिणत अर्थात् केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयरूप परिणत आत्मा नोआगम-भाव अर्हंत है। अथवा उनके गुणों को ध्याने वाला आत्मा नोआगमभाव अर्हंत है।277। - भावनिक्षेप के लक्षण की सिद्धि
श्लोकवार्तिक 2/1/5/69/278/10 नन्वेवमतीतस्यानागतस्य च पर्यायस्य भावरूपताविरोधाद्वर्तमानस्यापि सा न स्यात्तस्य पूर्वापेक्षयानागतत्वात् उत्तरापेक्षयातीतत्वादतो भावलक्षणस्याव्याप्तिरसंभवो वा स्यादिति चेन्न। अतीतस्यानागतस्य च पर्यायस्य स्वकालापेक्षया सांप्रतिकत्वाद्भावरूपतोपपत्तेरननुयायिन: परिणामस्य सांप्रतिकत्वोपगमादुक्तदोषाभावात् । =प्रश्न–भूत और भविष्य पर्यायों को, इस लक्षण के अनुसार, भाव निक्षेपपने का विरोध हो जाने के कारण वर्तमानकाल की पर्याय को भी वह भावरूपपना न हो सकेगा। क्योंकि वर्तमानकाल की पर्याय भूतकाल की पर्याय की अपेक्षा से भविष्यत्काल में है और उत्तरकाल की अपेक्षा वही पर्याय भूतकाल की है। अत: भावनिक्षेप के कथित लक्षण में अव्याप्ति या असंभव दोष आता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, भूत व भविष्यत् काल की पर्यायें भी अपने अपने काल की अपेक्षा वर्तमान की ही हैं; अत: भावरूपता बन जाती है। जो पर्याय आगे पीछे की पर्यायों में अनुगम नहीं करती हुई केवल वर्तमान काल में ही रहती है, वह वर्तमान काल की पर्याय भावनिक्षेप का विषय मानी गयी है। अत: पूर्वोक्त लक्षण में कोई दोष नहीं है। - आगमभावनिक्षेप में भावनिक्षेपपने की सिद्धि
श्लोकवार्तिक 2/1/5/69/278/16 कथं पुनरागमो जीवादिभाव इति चेत्, प्रत्ययजीवादिवस्तुन: सांप्रतिकपर्यायत्वात् । प्रत्ययात्मका हि जीवादय: प्रसिद्धा: एवार्थाभिधानात्मकजीवादिवत् । =प्रश्न–ज्ञानरूप आगम को जीवादिभाव निक्षेपपना कैसे है ? उत्तर–ज्ञानस्वरूप जीवादि वस्तुओं को वर्तमानकाल की पर्यायपना है, जिस कारण से कि जीवादिपदार्थ ज्ञानस्वरूप होते हुए प्रसिद्ध हो ही रहे हैं, जैसे कि अर्थ और शब्द रूप जीव आदि हैं (देखें नय - I.4.1)। - आगम व नोआगमभाव में अंतर
श्लोकवार्तिक 2/1/5/69/278/17 तत्र जीवादिविषयोपयोगाख्येन तत्प्रत्ययेनाविष्ट: पुमानेव तदागम इति न विरोध:, ततोऽन्यस्य जीवादिपर्यायाविष्टस्यार्थादेर्नोआगमभावजीवत्वेन व्यवस्थापनात् ।=जीवादि विषयों के उपयोग नामक ज्ञानों से सहित आत्मा तो उस उस जीवादि आगमभावरूप कहा जाता है; और उससे भिन्न नोआगम भाव है जो कि जीव आदि पर्यायों से आविष्ट सहकारी पदार्थ आदि स्वरूप व्यवस्थित हो रहा है। - द्रव्य व भावनिक्षेप में अंतर
राजवार्तिक/1/5/13/29/25 द्रव्यभावयोरेकत्वम् अव्यतिरेकादिति चेत्; न; कथंचित् संज्ञास्वालक्षण्यादिभेदात् तद्भेदसिद्धे:।
राजवार्तिक/1/5/23/31/1 तथा द्रव्यं स्याद्भाव: भावद्रव्यार्थादेशात् न भाव पर्यायार्थादेशाद् द्रव्यम् । भावस्तु द्रव्यं स्यान्न वा, उभयथा दर्शनात् । =प्रश्न–द्रव्य व भावनिक्षेप में अभेद है, क्योंकि इनकी पृथक् सत्ता नहीं पायी जाती ? उत्तर–नहीं, संज्ञा लक्षण आदि की दृष्टि से इनमें भेद है। अथवा–द्रव्य तो भाव अवश्य होगा क्योंकि उसकी उस योग्यता का विकास अवश्य होगा, परंतु भावद्रव्य हो भी और न भी हो, क्योंकि उस पर्याय में आगे अमुक योग्यता रहे भी न भी रहे। श्लोकवार्तिक 2/1/5/69/279/9 नापि द्रव्यादनर्थांतरमेव तस्याबाधितभेदप्रत्ययविषयत्वात्, अन्यथान्वयविषयत्वानुषंगाद् द्रव्यवत् । =वर्तमान की विशेष पर्याय को ही विषय करने वाला वह भावनिक्षेप निर्बाध भेदज्ञान का विषय हो रहा है, अन्यथा द्रव्यनिक्षेप के समान भावनिक्षेप को भी तीनों काल के पदार्थों का ज्ञान करने वाले अन्वयज्ञान की विषयता का प्रसंग होवेगा। भावार्थ–अन्वयज्ञान का विषय द्रव्यनिक्षेप है और विशेषरूप भेद के ज्ञान का विषय भावनिक्षेप है। भूतभविष्यत् पर्यायों का संकलन द्रव्यनिक्षेप से होता है, और केवल वर्तमान पर्यायों का भावनिक्षेप से आकलन होता है।
- भावनिक्षेप सामान्य का लक्षण
पुराणकोष से
द्रव्यों के निर्णय के चार उपायों में एक उपाय । महापुराण 2.101, 62.28