स्वाध्याय: Difference between revisions
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<span class="HindiText">सत्शास्त्र का वांचना, मनन करना, या उपदेश देना आदि स्वाध्याय कहा जाता है जो सर्वोत्तम तप माना गया है मोक्षमार्ग में इसका बहुत ऊँचा स्थान है। यथा विधि यथा काल ही स्वाध्याय करना योग्य है। सूर्यग्रहण आदि काल स्वाध्याय के लिए अयोग्य समझे जाते हैं।</span> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<span class="HindiText">सत्शास्त्र का वांचना, मनन करना, या उपदेश देना आदि स्वाध्याय कहा जाता है जो सर्वोत्तम तप माना गया है मोक्षमार्ग में इसका बहुत ऊँचा स्थान है। यथा विधि यथा काल ही स्वाध्याय करना योग्य है। सूर्यग्रहण आदि काल स्वाध्याय के लिए अयोग्य समझे जाते हैं।</span> | |||
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<li id="I"><strong>[[स्वाध्याय#1 | स्वाध्याय निर्देश]]</strong> | <li id="I"><strong>[[स्वाध्याय#1 | स्वाध्याय निर्देश]]</strong> | ||
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<li id="">निश्चय स्वाध्याय के अपर नाम।- देखें | <li id="">निश्चय स्वाध्याय के अपर नाम।-देखें [[ मोक्षमार्ग#2.5 | मोक्षमार्ग - 2.5]]।</li> | ||
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<li id="">स्वाध्याय में विनय का महत्त्व।- देखें | <li id="">स्वाध्याय में विनय का महत्त्व।-देखें [[ विनय#2.5 | विनय - 2.5]]।</li> | ||
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<li id="">निश्चय व व्यवहार विषयक स्वाध्याय का क्रम।- देखें | <li id="">निश्चय व व्यवहार विषयक स्वाध्याय का क्रम।-देखें [[ उपदेश#3.4 | उपदेश - 3.4]]-5।</li> | ||
<li id="">स्वपर समय विषयक स्वाध्याय का क्रम।- देखें | <li id="">स्वपर समय विषयक स्वाध्याय का क्रम।-देखें [[ उपदेश#3.4 | उपदेश - 3.4]]-5।</li> | ||
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<li id="">स्वाध्याय की अपेक्षा वैयावृत्त्य की प्रधानता।- देखें | <li id="">स्वाध्याय की अपेक्षा वैयावृत्त्य की प्रधानता।-देखें [[ वैयावृत्त्य#6 | वैयावृत्त्य - 6]]।</li> | ||
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<li id="">स्वाध्याय में फलेच्छा का निषेध।- देखें | <li id="">स्वाध्याय में फलेच्छा का निषेध।-देखें [[ राग#4.5 | राग - 4.5]]-6।</li> | ||
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<li id="">पठित ज्ञान के संस्कार साथ जाते हैं।- देखें | <li id="">पठित ज्ञान के संस्कार साथ जाते हैं।-देखें [[ संस्कार#1.2 | संस्कार - 1.2]]।</li> | ||
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<li id="II"><strong>[[स्वाध्याय#2 | स्वाध्याय विधि]]</strong> | <li id="II"><strong>[[स्वाध्याय#2 | स्वाध्याय विधि]]</strong> | ||
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<li id="">स्वाध्याय में द्रव्य क्षेत्रादि शुद्धि का निर्देश-देखें | <li id="">स्वाध्याय में द्रव्य क्षेत्रादि शुद्धि का निर्देश-देखें [[ शुद्धि ]]।</li> | ||
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<li id="">स्वाध्याय प्रकरण में कायोत्सर्ग का काल प्रमाण।- देखें | <li id="">स्वाध्याय प्रकरण में कायोत्सर्ग का काल प्रमाण।-देखें [[ व्युत्सर्ग#1 | व्युत्सर्ग - 1]]।</li> | ||
<li id="">स्वाध्याय से शेष बचे समय में क्या करे।- देखें | <li id="">स्वाध्याय से शेष बचे समय में क्या करे।-देखें [[ कृतिकर्म#4.1 | कृतिकर्म - 4.1]]।</li> | ||
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<li id="">शास्त्र श्रवण व पठन के योग्यायोग्य पात्र।-देखें | <li id="">शास्त्र श्रवण व पठन के योग्यायोग्य पात्र।-देखें [[ श्रोता ]]।</li> | ||
<li id="">कैसे व्यक्ति को कैसा शास्त्र पढ़ना चाहिए।-देखें | <li id="">कैसे व्यक्ति को कैसा शास्त्र पढ़ना चाहिए।-देखें [[ श्रोता ]]।</li> | ||
<li id="">कैसे जीव को कैसा उपदेश दे।- देखें | <li id="">कैसे जीव को कैसा उपदेश दे।-देखें [[ उपदेश#3 | उपदेश - 3]]।</li> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="1" id = "1">1. स्वाध्याय निर्देश</strong></p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="1.1" id = "1.1">1. स्वाध्याय सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
<ol class ="HindiText" > | <ol class ="HindiText" > | ||
<li><strong>निश्चय</strong> | <li><strong>निश्चय</strong> | ||
<p>स.सि./ | <p>स.सि./9/20/439/7 <span class="SanskritText">ज्ञानभावनालस्यत्याग: स्वाध्याय:।</span> =<span>आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय तप है।</span></p> | ||
<p>चा.सा./ | <p>चा.सा./152/5 <span class="SanskritText">स्वस्मै हितोऽध्याय: स्वाध्याय:।</span> =<span>अपने आत्मा का हित करने वाला अध्ययन करना स्वाध्याय है।</span></p> | ||
</li> | </li> | ||
<li><strong>व्यवहार</strong> | <li><strong>व्यवहार</strong> | ||
<p>मू.आ./ | <p>मू.आ./511 <span class="PrakritText">बारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधें।</span>-।=<span>बारह अंग चौदहपूर्व जो जिनदेव ने कहे हैं उनको पण्डितजन स्वाध्याय कहते हैं।</span></p> | ||
<p>ध. | <p>ध.13/5,4,26/64/1 <span class="PrakritText">अंगंगबाहिरआगमवायणपुच्छणाणुपेहा-परियट्ठण-धम्मकहाओ सज्झायो णाम।</span> =<span>अंग और अंगबाह्य आगम की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तन और धर्मकथा करना स्वाध्याय नाम का तप है (अन.ध./9/4)।</span></p> | ||
<p>चा.सा./ | <p>चा.सा./44/3 <span class="SanskritText">स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च।</span> =<span>तत्त्वज्ञान को पढ़ना, पढ़ाना, स्मरण करना आदि स्वाध्याय है।</span></p> | ||
<p>का.अ./मू./ | <p>का.अ./मू./462 <span class="PrakritText">पूयादिसु णिरवेक्खो जिण-सत्थं जो पढेइ भत्तो, कम्म-मल-सोहणट्ठं सुय-लाहो सुहयरो तस्स</span>=<span>जो मुनि अपनी पूजादि से निरपेक्ष, केवल कर्ममल शोधन के अर्थ जिन शास्त्रों को भक्तिपूर्वक पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ सुखकारी है।</span></p> | ||
</li> | </li> | ||
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<br/><p><strong class ="HindiText" | <br/><p><strong class ="HindiText" name ="1.2" id ="1.2">2. स्वाध्याय के भेद</strong></p> | ||
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मू.आ./ | मू.आ./393 <span class="PrakritText">परियट्टणाय वायण पडिच्छणाणुपेहया य धम्मकहा। थु तिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होइ सज्झाओ।393।</span> =<span class="HindiText">पढ़े हुए ग्रन्थ का पाठ करना, वाचन-व्याख्यान करना, पृच्छना-शास्त्रों के अर्थ को किसी दूसरे से पूछना, अनुप्रेक्षा-बारम्बार शास्त्र का मनन करना, धर्मकथा-त्रेसठ शलाका पुरुषों का चारित्र पढ़ना ये पाँच प्रकार का स्वाध्याय मुनि देव वन्दना मंगल सहित करना चाहिए।393। (देखें [[ ऊपर वाले शीर्षक में ध#13 | ऊपर वाले शीर्षक में ध - 13]]), (अन.ध./7)।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
त.सू./ | त.सू./9/25 <span class="SanskritText">वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षम्नायधर्मोपदेशा:।25।</span> =<span class="HindiText">वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय है।25। (चा.सा./152/5); (अन.ध.7/83-87)।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class="HindiText">देखें | <span class="HindiText">देखें [[ वाचना चार प्रकार है ]]नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="1.3" id = "1.3">3. स्वाध्याय में सम्यक्त्व की प्रधानता</strong></p> | ||
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भा.पा./मू./ | भा.पा./मू./89 <span class="PrakritText">सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं।</span> =<span class="HindiText">भावरहित श्रमणों का सकल ध्यान और अध्ययन निरर्थक हैं।</span></p> | ||
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ध. | ध.9/4,1,1/6/3 <span class="PrakritText">ण च सम्मत्तेण विरहियाणं णाणझाणाणमसंखेज्जगुणसेडीकम्मणिज्जराए अणिमित्ताणं णाण झाणववएसो पारमत्थिओ अत्थि, अवगयट्ठ सद्दहणणाणे...तव्ववएसब्भुवगमे संते अइप्पसगादो।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्व से रहित ज्ञान ध्यान के असंख्यात गुणी श्रेणी रूप कर्म निर्जरा के कारण न होने से ‘ज्ञानध्यान’ यह संज्ञा वास्तविक नहीं है। क्योंकि अर्थ श्रद्धान से रहित ज्ञान...में वह संज्ञा स्वीकार करने में अतिप्रसंग दोष आता है।</span></p> | ||
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यो.सा.अ./ | यो.सा.अ./7/44 <span class="SanskritText">संसारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मरहितानां।44।</span> =<span class="HindiText">जो विद्वान हैं-शास्त्रों का अक्षराभ्यास तो कर चुके हैं परन्तु आत्मध्यान से शून्य हैं उनका संसार शास्त्र है।</span></p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="1.4" id = "1.4">4. स्तुति आदि परिवर्तन रूप भी स्वाध्याय है</strong></p> | ||
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अन.ध./ | अन.ध./7/92 <span class="SanskritText">अर्हद्धयानपरस्यार्हन् शं वो दिश्यात्सदास्तु व:। शान्तिरित्यादिरूपोऽपि स्वाध्याय: श्रेयसे मत:।92।</span> = <span class="HindiText">जो | ||
साधु | साधु निरन्तर अर्हन्त भगवान् के ध्यान में लीन रहता है उसके '</span><span class="SanskritText">अर्हन् शं वो दिश्यात्</span> | ||
<span class="HindiText">' अर्थात् | <span class="HindiText">' अर्थात् अर्हन्त भगवान् तुम्हारा कल्याण करें। तथा '</span> | ||
<span class="SanskritText"> | <span class="SanskritText">सदास्तु व: शान्ति:</span> | ||
<span class="HindiText">' अर्थात् मुझे सदा शान्ति बनी रहे | <span class="HindiText">' अर्थात् मुझे सदा शान्ति बनी रहे इत्यादि वचनों को भी स्वाध्याय कहना चाहिए। क्योंकि पूर्वाचार्यों ने इसके द्वारा भी कल्याण और परम्परा मोक्ष की सिद्धि मानी है।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class="HindiText"> देखें | <span class="HindiText">देखें [[ स्वाध्याय#1.2 | स्वाध्याय - 1.2 ]]ये पाँच प्रकार का स्वाध्याय मुनि देव वन्दना मंगल सहित करना चाहिए।</span></p> | ||
<p> | <p> | ||
<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="1.5" id = "1.5">5. प्रयोजन व अप्रयोजन भूत विषय</strong></p> | ||
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<span class="HindiText">मो.मा.प्र./ | <span class="HindiText">मो.मा.प्र./7/317/21 मोक्षमार्ग विषै देव, गुरु, धर्म व जीवादि तत्त्व वा बन्ध मोक्षमार्ग प्रयोजनभूत हैं। ...द्वीप समुद्रादि का कथन अप्रयोजनभूत है।</span></p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="1.6" id = "1.6">6. चारों अनुयोगों के स्वाध्याय का क्रम</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./7/347/18 पहला सच्चा तत्त्व ज्ञान हो (द्रव्यानुयोग), पीछे पुण्य पाप के फल को जाने (प्रथमानुयोग) शुद्धोपयोग से मोक्ष माने (चरणानुयोग) और गुणस्थानादि जीव का व्यवहार निरूपण जाने (करणानुयोग) इत्यादि जैसे हैं वैसे श्रद्धान करके उसका अर्थात् (आगम का) अभ्यास करे तो सम्यक्ज्ञान होय।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./8/पृ./पंक्ति सं.करणानुयोग विषै भी किसी ठिकाने उपदेश की मुख्यता पूर्वक व्याख्यान होता है। उसे सर्वथा वैसा ही न मानना (407/2) मुख्यपने तो निचली दशा में द्रव्यानुयोग कार्यकारी है। गौणपने जाकौं मोक्षमार्ग की प्राप्ति होति न जानियें ताकौं पहले कोई व्रतादि का उपदेश दीजिए है। तातै ऊँची दशा वालों को अध्यात्म अभ्यास योग्य है। (431/7)।</p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="1.7" id = "1.7">7. स्वाध्याय सर्वोत्तम तप है</strong></p> | ||
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भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./107-109 <span class="PrakritText">बारसविहम्मि य तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिट्ठे। ण वि अत्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवो कम्मं।107। जं अण्णाणीकम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तं णाणीतिहिं गुत्तो खवेदि अंतोमुहुत्तेण।108। छट्ठट्ठमदसमदुबालसेहिं अण्णाणियस्स जा सोही। तत्तो बहुगुणदरिया होज्ज हु जिमिदस्स णाणिस्स।109।</span> =<span class="HindiText">1. सर्वज्ञ देवकर उपदेशे हुए अभ्यन्तर और बाह्य भेद सहित बारह प्रकार के तप में से स्वाध्याय तप के समान अन्य कोई न तो है और न होगा।107। (मू.आ./409,970) 2. सम्यग्ज्ञान से रहित जीव लक्षावधि कोटि भवों में जितने कर्मों के क्षय करने में समर्थ होता है, ज्ञानी जीव गुप्तिगुप्त होकर उतने कर्मों का क्षय अन्तर्मूहूर्त में कर देता है।108। (प्र.सा./मू./238); (ध.9/5,5,50/गा.23/281) एक, दो, तीन, चार व पाँच, अथवा पक्षोपवास व मासोपवास करने वाले सम्यग्ज्ञान रहित जीव से भोजन करने वाला स्वाध्याय में तत्पर सम्यग्दृष्टि परिणामों की ज्यादा विशुद्धि कर लेता है।109।</span></p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="1.8" id = "1.8">8. स्वाध्याय का लौकिक व अलौकिक फल</strong></p> | ||
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ति.प./ | ति.प./1/35-42 <span class="PrakritText">दुविहो हवेदि हेदू तिलोयपण्णतिगंथयज्झयणे। जिणवरवयणुद्दिट्ठोपच्चक्खपरोक्खभेएहिं।35। सक्खापच्चक्खपरंपच्चक्खा दोण्णि होदि पच्चक्खा। अण्णाणस्स विणासं णाणदिवायरस्स उप्पत्ती।36। देवमणुस्सादीहिं संततमब्भच्चणप्पयाराणि। पडिसमयमसंखेज्जगुणसेढिकम्मणिज्जरणं।37। इस सक्खापच्चक्खं पच्चक्ख परं परं च णादव्वं। सिस्सपडिसिस्सपहुदीहिं सददमब्भच्चणयारं।38। दोभेदं च परोक्खं अभुदयसोक्खाइं मोक्खसोक्खाइं सादादिविविहसुपरसत्थकम्मतिव्वाणुभागउदएहिं।39। इंदपडिं ददिगिंदय तेत्तीसामररसमाणपहुदिसुहं। राजाहिराजमहराजद्धमंडलिमंडलयाणं।40। महमंडलियाणं अद्धचक्किचक्कहरितित्थयरसोक्खं। अट्ठारसमेत्ताणं सामी सेसाणं भत्तिजुत्ताणं।41। वररयण मउडधारी सेवयमाणाण वत्ति तह अट्ठं। देंता हवेति राजा जितसत्तू समरसंघट्ठे।42।</span> =<span class="HindiText">त्रिलोक प्रज्ञप्तिग्रन्थ के अध्ययन में, जिनेन्द्रदेव के वचनों से उपदिष्ट हेतु, प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है।35। 1. प्रत्यक्ष हेतु साक्षात् और परम्परा के भेद से दो प्रकार का है। अज्ञान का विनाश, ज्ञानरूपी दिवाकर की उत्पत्ति, देव और मनुष्यादिकों के द्वारा निरन्तर की जाने वाली विविध प्रकार की अभ्यर्थना, और प्रत्येक समय में होने वाली असंख्यात गुणी रूप से कर्मों की निर्जरा, इसे साक्षात् प्रत्यक्ष हेतु समझना चाहिए। और शिष्य-प्रशिष्य आदि के द्वारा निरन्तर अनेक प्रकार से की जाने वाली पूजा को परम्परा परोक्ष हेतु समझना चाहिए।36-38। 2. परोक्ष हतु भी दो प्रकार का है-एक अभ्युदय और दूसरा मोक्ष सुख। सातावेदनीय आदि सुप्रशस्त कर्मों के तीव्र अनुभाग के उदय से प्राप्त हुआ इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र, त्रायस्त्रिंश, व सामानिक आदि देवों का सुख तथा राजा, अधिराज, महाराज, मण्डलीक, अर्धमण्डलोक, महामण्डलीक, अर्धचक्री, चक्रवर्ती और तीर्थंकर इनका सुख अभ्युदय सुख है। जो भक्तियुक्त अठारह प्रकार की सेनाओं का स्वामी है, उत्कृष्ट रत्नों के मुकुट को धारण करने वाला है, सेवकजनों को वृत्ति अर्थात् भूमि तथा अर्थ (धन) प्रदान करने वाला है, और समर के संघर्ष में शत्रुओं को जीत चुका है, वह राजा है।39-42। (ध.1/1,1,1/56/1)।</span></p> | ||
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ध. | ध.1/1,1,1/गा.47-51/59 <span class="PrakritText">भविय-सिद्धांताणं दिणयर कर-णिम्मलं हवइ णाणं। सिसिर-यर-कर सिच्छं हवइ चरित्तं स-वस चित्तं।47। मेरु व्व णिक्कंपं णट्ठट्ठ मलं तिमूढ उम्मुक्कं। सम्मद्‌दंसणमणुवमसमुप्पज्जइ पवयणब्भासा।48। तत्तो चेव सुहाइं सयलाइं देवमणुयखयराणं। उम्मूलियट्ठ कम्मं फुड सिद्ध-सुहं पि पवयणदो।49। जियमोहिंधण-जलणो अण्णाण तमंधयार-दिणयरओ। कम्ममलकलुसपुसओ जिणवयणमिवोवही सुहओ।50। अण्णाण-तिमिर-हरणं सुभविय-हिययारविंद-जोहणयं। उज्जोइय-सयल बद्धं सिद्धंतदिवायरं भजह।51।</span> =<span class="HindiText">जिन्होंने सिद्धान्त का उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है ऐसे पुरुषों का ज्ञान सूर्य की किरणों के समान निर्मल होता है और जिसने अपने चित्त को स्वाधीन कर लिया है ऐसा चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल चरित्र होता है।47। प्रवचन के अभ्यास से मेरु के समान निष्कम्प, आठ मल रहित, तीन मूढता रहित सम्यग्दर्शन होता है।48। देव, मनुष्य और विद्याधरों के सुख प्राप्त होते हैं और आठ कर्मों के उन्मूलित होने पर प्रवचन के अभ्यास से विशद सिद्ध सुख भी प्राप्त होता है।49। जिनागम जीवों के महारूपी ईंधन को अग्नि के समान, अज्ञानरूप अन्धकार के विनाश के लिए सूर्य के समान और द्रव्य व भाव कर्म के मार्जन के लिए समुद्र के समान है।50। अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाशक भव्यजीवों के हृदय को विकसित करने वाले, मोक्षपथ को प्रकाशित करने वाले सिद्धान्त को भजो।51।</span></p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="1.9" id = "1.9">9. स्वाध्याय का फल गुणश्रेणी निर्जरा व संवर</strong></p> | ||
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ध. | ध.1/1,1,1/56/3 <span class="SanskritText">कर्मणामसंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा केषां प्रत्यक्षेति चेन्न, अवधिमन:पर्ययज्ञानिनां सूत्रमधीयानानां तत्प्रत्यक्षताया: समुपलम्भात् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-कर्मों की असंख्यातगुणित-श्रेणी रूप से निर्जरा होती है, यह किनको प्रत्यक्ष है ? <strong>उत्तर</strong>-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, सूत्र का अध्ययन करने वालों की असंख्यात गुणित श्रेणीरूप से प्रतिसमय कर्म निर्जरा होती है, यह बात अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानियों को प्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध होती है।</span></p> | ||
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ध. | ध.9/4,1,1/3/1 <span class="PrakritText">उसहसेणादिगणहरदेवेहि विरइयसद्दरयणादो दव्वसुत्तादो तत्पढण-गुणणकिरियावावदाणं सव्वजीवाणं पडिसमयमसंखेवेज्जगुणसेढीए पुव्वसंचिदकम्मणिज्जरा होदि त्ति।</span> =<span class="HindiText">वृषभसेनादि गणधर देवों द्वारा जिनकी शब्द रचना की गयी है, ऐसे द्रव्य सूत्रों से उनके पढ़ने और मनन करने रूप क्रिया में प्रवृत्त हुए सब जीवों के प्रतिसमय असंख्यातगुणित श्रेणी से पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है।</span></p> | ||
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ध. | ध.9/5,5,50/281/3 <span class="SanskritText">किमर्थं सर्वकालं व्याख्यायते। श्रोतुर्व्याख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरणहेतुत्वात्।</span><span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>-इसका सर्वकाल किसलिए व्याख्यान करते हैं ? <strong>उत्तर</strong>-क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोता के असंख्यात गुणी श्रेणी रूप से होने वाली कर्म निर्जरा का कारण है।</span></p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="1.10" id = "1.10">10. स्वाध्याय का प्रयोजन व महत्त्व</strong></p> | ||
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भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./104-106 <span class="PrakritText">सज्झायं कुव्वंतो पंचिंदियसुंवुडो तिगुत्तो य। हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू।104। जह जह सुदमोग्गाहदि अदिसयरसपसरमसुदपुव्वं तु। तह तह पल्हादिज्जदि नवनवसंवेगसड्‌ढाए।105। आयापायविदण्हू दंसणणाणतवसंजमें ठिच्चा। विहरदि विसुज्झमाणो जावज्जीवं दु णिक्कंपो।106।</span> =<span class="HindiText">जो साधु स्वाध्याय करता है वह पाँचों इन्द्रियों का संवर करता है, मन आदि गुप्तियों को भी पालने वाला होता है और एकाग्रचित्त हुआ विनयकर संयुक्त होता है।104। (मू.आ./410) जिसमें अतिशय रस का प्रसार है और जो अश्रुतपूर्व है ऐसे श्रुत का वह जैसे-जैसे अवगाहन करता है वैसे ही वैसे अतिशय नवीन धर्म श्रद्धा से संयुक्त होता हुआ परम आनन्द का अनुभव करता है। (ध.13/5,5,50/गा.21-22/281) स्वाध्याय से प्राप्त आत्म विशुद्धि के द्वारा निष्कम्प तथा हेयोपादेय में विचक्षण बुद्धि होकर यावज्जीवन रत्नत्रयमार्ग में प्रवर्तता है।106।</span></p> | ||
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प्र.सा.मू./ | प्र.सा.मू./86,232-237 <span class="PrakritText">जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं।86। एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु। णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा।232। आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि। अविजाणंतो अट्ठे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू।233। आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि। देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु।234। सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं। जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा।235। आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स। णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो।236। ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु।237।</span> =<span class="HindiText">जिन शास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले के नियम से मोह समूह क्षय हो जाता है इसलिए शास्त्र का सम्यक्‌प्रकार से अध्ययन करना चाहिए।86। (न.च.वृ./317 पर उद्‌धृत)। श्रमण एकाग्रता को प्राप्त होता है, एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान् के होती है, निश्चय आगम द्वारा होता है, इसलिए आगम के व्यापार मुख्य हैं।232। आगमहीन श्रमण आत्मा को और पर को नहीं जानता, पदार्थों को नही जानता हुआ भिक्षु कर्मों को किस प्रकार क्षय करे ?।233। साधु आगम चक्षु हैं, सर्वप्राणी इन्द्रिय चक्षुवाले हैं, देव अवधि चक्षु वाले हैं और सिद्ध सर्वत: चक्षु हैं।234। समस्त पदार्थ विचित्र गुण पर्यायों सहित आगम सिद्ध हैं उन्हें भी वे श्रमण आगम द्वारा वास्तव में देखकर जानते हैं।235। (यो.सा.अ./6/16-17)। इस लोक में जिसकी आगम पूर्वक दृष्टि नहीं है उसके संयम नहीं है इस प्रकार सूत्र कहता है, और असंयत वह श्रमण कैसे हो सकता है।236। आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती।237।</span></p> | ||
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र.सा./ | र.सा./91,95 <span class="PrakritText">पवयण सारब्भासं परमप्पाज्झाणकारणं जाणं। कम्मक्खवणणिमित्तं कम्मक्खवणेहि मोक्खसोक्खंहि।91। अज्झयणमेव झाणं पंचेदियणिगहं कसायं पि। तत्ते पंचमकाले पवयणसारब्भासमेव कुज्जा हो।95।</span> =<span class="HindiText">प्रवचन के सार का अभ्यास ही परब्रह्म परमात्मा के ध्यान का कारण है। विशुद्ध आत्मा के स्वरूप का ध्यान ही कर्मों का नाश व मोक्षसुख की प्राप्ति का प्रधान कारण है।91। प्रवचनसार (जिनागम) का अभ्यास पठन-पाठन और वस्तुविचार ही ध्यान है। उसी से इन्द्रियों का निग्रह, मन का वशीकरण व कषायों का उपशम होता है। इस पंचम काल में जिनागम का अभ्यास करना ही जिनागम है।95।</span></p> | ||
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दं.पा./मू./ | दं.पा./मू./17 <span class="PrakritText">जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं। जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाण।</span> =<span class="HindiText">यह जिनवचन रूप औषधि इन्द्रिय विषय से उत्पन्न सुख को दूर करने वाला है। तथा जन्म-मरण रूप रोग को दूर करने के लिए अमृत सदृश है और सर्व दु:खों के क्षय का कारण है।17।</span></p> | ||
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सू.पा./मू./ | सू.पा./मू./3 <span class="PrakritText">सत्तुम्मि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च से कुणदि। सूई जहा समुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि।3।</span> =<span class="HindiText">जो पुरुष सूत्र का जानकार है वह भव का नाश करता है, जैसे सूई डोरे सहित हो तो नष्ट नहीं होती, यदि डोरे से रहित हो तो नष्ट हो जाती है।</span></p> | ||
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स.सि./ | स.सि./9/25/443/6 <span class="SanskritText">प्रज्ञातिशय: प्रशस्ताध्यवसाय: परमसंवेगस्तपोवृद्धिरतिचारविशुद्धिरित्येवमाद्यर्थ:।</span> =<span class="HindiText">प्रज्ञा में अतिशय लाने के लिए, अध्यवसाय को प्रशस्त करने के लिए, परम संवेग के लिए, तप वृद्धि व अतिचार शुद्धि के लिए, (संशयोच्छेद व परवादियों की शंका अभाव रा.वा.) आदि के लिए स्वाध्याय तप आवश्यक है। (रा.वा./9/25/6/624/20)।</span></p> | ||
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ति.प./ | ति.प./1/51 <span class="PrakritText">कणयधराधरधीरं मूढत्तयविरहिदं हयट्ठमलं। जायदिपवयणपढणे सम्मद्दसणमणुवसाणं।51।</span> =<span class="HindiText">प्रवचन अर्थात् परमागम के पढ़ने पर सुमेरु पर्वत के समान निश्चल लोकमूढता, देवमूढता, गुरुमूढता से रहित, शंका आदि आठ दोषों से मुक्त अनुपम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है।</span></p> | ||
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देखें [[ स्वाध्याय#1.8 | स्वाध्याय - 1.8 ]]में ध./1 <span class="HindiText">जिनागम जीवों के मोहरूपी ईंधन के जलाने के लिए अग्नि के समान, अज्ञान को विनाश के लिए सूर्य के समान, तथा कर्मों के मार्जन के लिए समुद्र के समान है।</span></p> | |||
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न.च.वृ./ | न.च.वृ./394 पर उद्‌धृत व 348 <span class="PrakritText">दव्वसुयादो भावं भावदो होइ सव्वसण्णाणं। संवेयणसंवित्ति केवलणाणं तदो भणियो।1। गहिओ सो सुदणाणे पच्छा संवेयणेण झायव्वो। जो णहु सुदमवलंबइ सो मुज्झइ अप्पसब्भावे।348।</span> =<span class="HindiText">द्रव्यश्रुत से भावश्रुत होता है फिर क्रम से सम्यग्ज्ञान, संवेदन, आत्मसंवित्ति, तथा केवलज्ञान होते हैं, ऐसा कहा गया है। (न.च.वृ./297) श्रुतज्ञान को ग्रहण करके पश्चात् आत्म-संवेदन से ध्याना चाहिए। जो श्रुतज्ञान का अवलम्बन नहीं लेता वह आत्मसद्भाव में मोह करता है।348।</span></p> | ||
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स.सा./आ./ | स.सा./आ./274 <span class="SanskritText">स किल गुण: श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानम् । | ||
</span>=<span class="HindiText">जो भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्मा का ज्ञान वह शास्त्र पठन का गुण है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">जो भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्मा का ज्ञान वह शास्त्र पठन का गुण है।</span></p> | ||
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आ.अनु./ | आ.अनु./170 <span class="SanskritText">अनेकान्तात्मार्थप्रसवफलभारातिविनते वच:पर्णाकीर्णे विपुलनयशाखाशतयुते। समुत्तुङ्‌गे सम्यक्प्रततमतिमूले प्रतिदिनं श्रुतस्कन्धे धोमान् रमयतु मनोकर्मटममुम् ।170।</span> =<span class="HindiText">जो श्रुतस्कन्ध रूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थ रूप फूल एवं फलों के भार से अतिशय झुका हुआ है, वचनों रूपी पत्तों से व्याप्त है, विस्तृत नयों रूप सैकड़ों शाखाओं से युक्त है, उन्नत है, तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञान रूप जड़ से स्थिर है, उस श्रुत स्कन्ध रूप वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान साधु के लिए अपने मनरूपी बन्दर को सदा रमाना चाहिए।</span></p> | ||
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प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./2/191 <span class="SanskritText">निजशुद्धात्मैवोपादेय इति मत्वा...तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परम्परया मोक्षसाधकं भवति।</span> =<span class="HindiText">जो निज शुद्धात्मा को उपादेय जानकर,...ज्ञान की प्राप्ति का उपाय जो शास्त्र, उनको पढ़ता है, तो परम्परा मोक्ष का साधक होता है।</span></p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="2" id = "2">2. स्वाध्याय विधि</strong></p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="2.1" id = "2.1">1. स्वाध्याय योग्य काल व उसका विभाजन</strong></p> | ||
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देखें [[ कृतिकर्म#4.1 | कृतिकर्म - 4.1]] <span class="HindiText">प्रात: का स्वाध्याय सूर्योदय से दो घड़ी पश्चात् प्रारम्भ करके मध्याह्न में दो घड़ी बाकी रहने पर समाप्त कर देना चाहिए। अपराह्न का स्वाध्याय मध्याह्न के दो घड़ी पश्चात् से प्रारम्भ कर सूर्यास्त से दो घड़ी पूर्व समाप्त कर देना चाहिए। यही क्रम पूर्व रात्रिक व वैरात्रिक स्वाध्याय में अपनाना चाहिए।</span></p> | |||
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ध. | ध.9/4,1,54/गा.111-114/258 <span class="SanskritText">प्रतिपद्येक: पादो ज्येष्ठा मूलस्य पौर्णमास्यां तु। सा वाचना विमोक्षे छाया पूर्वाह्णवेलायाम् ।111। सैवापराह्णकाले वेला स्याद्वाचनाविधौ विहिता। सप्तपदी पूर्वाह्णापराह्णयोर्ग्रहण-मोक्षेषु।112। ज्येष्ठामूलात्परतोऽप्यापौषाद्‌द्वयङ्गुला हि वृद्धि: स्यात् । मासे मासे विहिता क्रमेण सा वाचनाछाया।113। एवं क्रमप्रवृद्धया पादद्वयमत्र होयते पश्चात् । पौषादाज्येष्ठान्ताद् द्वयङ्गुलमेवेति विज्ञेयम् ।114।</span> =<span class="HindiText">ज्येष्ठ मास की प्रतिपदा एवं पूर्णमासी को पूर्वाह्नकाल में वाचना की समाप्ति में एक पाद अर्थात् एक वितस्ति प्रमाण (जाँघों की) वह छाया कही गयी है अर्थात् इस समय पूर्वाह्न काल में बारह अंगुल प्रमाण छाया के रह जाने पर अध्ययन समाप्त कर देना चाहिए।111। वही समय अपराह्न काल में वाचना प्रारम्भ करने में कहा गया है। पूर्वाह्न काल में वाचना प्रारम्भ करके अपराह्न काल में उसे छोड़ने में सात पाद प्रमाण छाया कही गयी है।112। ज्येष्ठ मास से आगे पौष मास तक प्रत्येक मास में दो अंगुल प्रमाण वृद्धि होती है, यह क्रम से वाचना समाप्त करने की छाया का प्रमाण कहा गया है।113। इस प्रकार क्रम से वृद्धि होने पर पौष मास तक दो पाद हो जाते हैं। पश्चात् पौष मास से ज्येष्ठ मास तक दो अंगुल ही क्रमश: कम होते जाते हैं, ऐसा जानना चाहिए।114। (और भी देखें [[ काल#1.10 | काल - 1.10]])।</span></p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="2.2" id = "2.2">2. स्वाध्याय योग्य काल में कुछ अपवाद</strong></p> | ||
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भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./2052/1784 <span class="PrakritText">वायणपरियट्टणपुच्छणाओ मोत्तूण तध य धम्मथुदिं। सुत्तस्स पोरिसीसि वि सरेदि सुत्तत्थमेयमणो।2052।</span> =<span class="HindiText">(सल्लेखना गत साधु) वाचना, पृच्छना, परिवर्तना व धर्मोपदेश को छोड़कर सूत्र और अर्थ का एकाग्रता से स्मरण करते हैं। अथवा दिन का पूर्व, मध्य, अन्त तथा अर्धरात्रि ऐसे चार समयों में तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि खिरती है। ये काल स्वाध्याय के नहीं हैं, परन्तु ऐसे समयों में भी वे अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं।</span></p> | ||
<br/><p><strong class ="HindiText" | <br/><p><strong class ="HindiText" name ="2.3" id = "2.3">3. स्वाध्याय के अयोग्य द्रव्य क्षेत्र काल</strong></p> | ||
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ध. | ध.9/4,1,54/गा.96-114/255-257 यमपटहरवश्रवणे रुधिरस्रावेङ्गतोऽतिचारे च। दातृष्वशुद्धकायेषु भुक्तवति चापि नाध्येयम् ।96। तिल पलल-पृथुकलाजापूपादिस्निग्धसुरभिगन्धेषु। भुक्तेषु भोजनेषु च दवाग्निधूमे च नाध्येयम् ।97। योजनमण्डलमात्रे संन्यासविधौ महोपवासे च। आवश्कक्रियायां केशेषु च लुच्यमानेषु।98। सप्तदिनान्यध्ययनं प्रतिषिद्धं स्वर्गगते श्रमणसूरौ। योजनमात्रे दिवसत्रितयं त्वतिदूरतो दिवसम् ।99। प्राणिनि च तीव्रदु:खान्म्रियमाणे स्फुरति चातिवेदनया। एकनिर्वतनमात्रे तिर्यक्षु चरत्सु च न पाठयम् ।100। तावन्मात्रे स्थावरकायक्षयकर्मणि प्रवृत्ते च। क्षेत्राशुद्धौ दुर्गन्धे वातिकुणपे वा।101। विगतार्थागमने वा स्वशरीरे शुद्धिवृत्तिविरहे वा। नाध्येय: सिद्धान्त: शिवसुखफलमिच्छता व्रतिना।102। प्रमिति-व्यन्तरभेरीताडन-तत्पूजासंकटे कर्षणे वा। संमृक्षण-संमार्ज्जनसमीपचाण्डालबालेषु।105। अग्निजलरुधिरदीपे मांसास्थिप्रजनने तु जीवानाम् । क्षेत्रविशुद्धिर्न स्याद्यथोदितं सर्वभावज्ञै:।106। युक्त्या समधीयानो वक्षणकक्षाद्यमस्पृशन् स्वाङ्गम् । यत्नेनाधीत्य पुनर्यथाश्रुतं वाचनां मुञ्चेत् ।108। तपसि द्वादशसंख्ये स्वाध्याय: श्रेष्ठ उच्यते सद्भि:। अस्वाध्यायदिनानि ज्ञेयानि ततोऽत्र विद्वद्भि:।109। पर्वसु नन्दीश्वरवरमहिमादिवसेषु चोपरागेषु। सूर्याचन्द्रमसोरपि नाध्येयं जानता व्रतिना।110। अष्टम्यामध्ययनं गुरुशिष्यद्वयवियोगमावहति। कलहं तु पौर्णमास्यां करोति विघ्नं चतुर्दश्याम् ।111। कृष्णचतुर्दश्यां यद्यधीयते साधवो ह्यमावस्याम् । विद्योपवासविधयो विनाशवृत्तिं प्रयान्त्यशेषं सर्वे।112। मध्याह्ने जिनरूपं नाशयति करोति संध्योर्व्याधिम् । तुष्यन्तोऽप्यप्रियतां मध्यमरात्रौ समपयान्ति।113। अतितीव्रदु:खितानां रुदतां सदर्शने समीपे च। स्तनयिंत्नुविद्युदभ्रेष्वतिवृष्टया उल्कनिर्घाते।114।</p> | ||
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<strong>द्रव्य</strong>-यम पटहका शब्द सुनने पर, अंग से रक्तस्राव के होने पर, अतिचार के होने पर तथा दाताओं के अशुद्धकाय होते हुए भोजन कर लेने पर स्वाध्याय नहीं करना | <strong>द्रव्य</strong>-यम पटहका शब्द सुनने पर, अंग से रक्तस्राव के होने पर, अतिचार के होने पर तथा दाताओं के अशुद्धकाय होते हुए भोजन कर लेने पर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।96। तिलमोदक, चिउड़ा, लाई और पुआ आदि चिक्कण एवं सुगन्धित भोजनों के खाने पर दावानल का धुँआ होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए।97। एक योजन के घेरे में संन्यासविधि, महोपवास विधि, आवश्यकक्रिया एवं केशों का लोंच होने पर तथा आचार्य का स्वर्गवास होने पर सात दिन तक अध्ययन करने का प्रतिषेध है। उक्त घटनाओं के एक योजन मात्र में होने पर तीन दिन तक तथा अत्यन्त दूर होने पर एक दिन तक अध्ययन नहीं करना चाहिए।98-99। प्राणी के तीव्र दु:ख से मरणासन्न होने पर या अत्यन्त वेदना से तड़फड़ाने पर तथा एक निर्वतन (एक बीघा) मात्र में तिर्यंचों का संचार होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए।100। | ||
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<strong>क्षेत्र</strong>-उतने मात्र स्थावर काय जीवों के घातरूप कार्य में प्रवृत्त होने पर, क्षेत्र की अशुद्धि होने पर, दूर से दुर्गन्ध आने पर अथवा अत्यन्त सड़ी गन्ध के आने पर, ठीक अर्थ समझ में न आने पर (?) अथवा अपने शरीर से शुद्धि से रहित होने पर मोक्ष सुख के चाहने वाले व्रती पुरुष को सिद्धान्त का अध्ययन नहीं करना | <strong>क्षेत्र</strong>-उतने मात्र स्थावर काय जीवों के घातरूप कार्य में प्रवृत्त होने पर, क्षेत्र की अशुद्धि होने पर, दूर से दुर्गन्ध आने पर अथवा अत्यन्त सड़ी गन्ध के आने पर, ठीक अर्थ समझ में न आने पर (?) अथवा अपने शरीर से शुद्धि से रहित होने पर मोक्ष सुख के चाहने वाले व्रती पुरुष को सिद्धान्त का अध्ययन नहीं करना चाहिए।101-102। व्यन्तरों के द्वारा भेरी ताड़न करने पर, उनकी पूजा का संकट आने पर, कर्षण के होने पर, चाण्डाल बालकों के समीप झाड़ा-बुहारी करने पर, अग्नि, जल व रुधिर की तीव्रता होने पर, तथा जीवों के मांस व हड्डियों के निकाले जाने पर क्षेत्र की विशुद्धि नहीं होती।105-106। | ||
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<strong>काल</strong>-साधु पुरुषों ने बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय को श्रेष्ठ कहा है। इसलिए विद्वानों को स्वाध्याय न करने के दिनों को जानना | <strong>काल</strong>-साधु पुरुषों ने बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय को श्रेष्ठ कहा है। इसलिए विद्वानों को स्वाध्याय न करने के दिनों को जानना चाहिए।109। पर्वदिनों, नन्दीश्वर के श्रेष्ठ महिम दिवसों और सूर्य, चन्द्र ग्रहण होने पर विद्वान् व्रती को अध्ययन नहीं करना चाहिए।110। अष्टमी में अध्ययन गुरु और शिष्य दोनों का वियोग करने वाला होता है। पूर्णमासी के दिन किया गया अध्ययन कलह और चतुर्दशी के दिन किया गया अध्ययन विघ्न को करता है।107। यदि साधुजन कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्या के दिन अध्ययन करते हैं तो विद्या और उपवास विधि सब विनाशवृत्ति को प्राप्त होते हैं।108। मध्याह्न काल में किया गया अध्ययन जिन रूप को नष्ट करता है, दोनों सन्ध्या कालों में किया गया अध्ययन व्याधि को करता है, तथा मध्यम रात्रि में किये गये अध्ययन से अनुरक्तजन भी द्वेष को प्राप्त होते हैं।113। अतिशय तीव्र दु:ख से युक्त और रोते हुए प्राणियों को देखने या समीप होने पर, मेघों की गर्जना व बिजली के चमकने पर और अतिवृष्टि के साथ उल्कापात होने पर (अध्ययन नहीं करना चाहिए)।114। (और भी देखें [[ काल#1.10 | काल - 1.10]])। | ||
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<br/><p><strong class ="HindiText" | <br/><p><strong class ="HindiText" name ="2.4" id = "2.4">4. अयोग्य द्रव्यादि में स्वाध्याय करने से हानि</strong></p> | ||
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ध. | ध.9/4,1,54/गा.119/259 <span class="SanskritText">दव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तत्थसिक्खलोहेण। असमाहिमसज्झायं कलहं वाहिं वियोगं च।119।</span> =<span class="HindiText">सूत्र और अर्थ की शिक्षा के लोभ से किया गया द्रव्यादि का अतिक्रमण असमाधि अर्थात् सम्यक्त्वादि की विराधना, अस्वाध्याय अर्थात् अलाभ, कलह, व्याधि और वियोग को करता है।119।</span></p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="2.5" id = "2.5">5. स्वाध्याय प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधि</strong></p> | ||
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ध. | ध.9/4,1,54/गा.107-108/256 <span class="SanskritText">क्षेत्रं संशोध्य पुन: स्वहस्तपादौ विशोध्य शुद्धमना:। प्राशुकदेशावस्थो गृह्लीयाद् वाचनां पश्चात् ।107। युक्त्या समधीयानो वक्षणकक्षाद्यमस्पृशन् स्वाङ्‌म् । यत्नेनाधीत्य पुनर्यथाश्रुतं वाचनां मुञ्चेत् ।108।</span> =<span class="HindiText">क्षेत्र की शुद्धि करने के पश्चात् अपने हाथ और पैरों को शुद्ध करके तदन्तर विशुद्ध मन युक्त होता हुआ प्रासुक देश में स्थित होता हुआ वाचना को ग्रहण करे।107। बाजू और कांख आदि अपने अंग का स्पर्श न करता हुआ उचित रीति से अध्ययन करे और यत्नपूर्वक अध्ययन के पश्चात् शास्त्र विधि से वाचना को छोड़ दे।108।</span></p> | ||
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देखें [[ कृतिकर्म#4.3 | कृतिकर्म - 4.3 ]]<span class="HindiText">[स्वाध्याय का प्रारम्भ दिन और रात्रि के पूर्वाह्न, अपराह्न चारों ही बेलाओं में लघु श्रुत भक्ति, और आचार्य भक्ति का पाठ करके करना चाहिए, नियत समय तक स्वाध्याय करके लघु श्रुतभक्ति पूर्वक निष्ठापना करनी चाहिए। ये सब पाठ योग्य कृतिकर्म सहित किये जाते हैं।]</span></p> | |||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="2.6" id = "2.6">6. विशेष शास्त्रों के प्रारम्भ व समाप्ति पर उपवासादि का निर्देश</strong></p> | ||
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मू.आ./ | मू.आ./280 <span class="PrakritText">उद्देस समुद्देसे अणुणापणए अ होंति पंचेव। अंगसुदखंध झेणुवदेसा विय पदविभागो य।280।</span> =<span class="HindiText">बारह अंग चौदह पूर्व वस्तु प्राभृत-प्राभृत इनके पाद विभाग के प्रारम्भ में वा समाप्ति में वा गुरुओं की अवज्ञा होने पर पाँच-पाँच उपवास अथवा प्रायश्चित्त अथवा कायोत्सर्ग कहे हैं।280।</span></p> | ||
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<br/><strong class ="HindiText" | <br/><strong class ="HindiText" name ="2.7" id = "2.7">7. नियमित व अनियमित विधि युक्त पढ़े जाने योग्य कुछ शास्त्र</strong></p> | ||
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मू.आ./ | मू.आ./277-279 <span class="PrakritText">सुत्तं गणधरकधिदं तहेव पत्तेयबुद्धिकथिदं च। सुदकेवलिणा कधिदं अभिण्णदसपुव्वकधिदं च।277। तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स। एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्झाए।278। आराहणणिजुत्ती मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ। पच्चक्खाणावासयधम्मकहाओ य एरिसओ।279।</span> =<span class="HindiText">अंग पूर्व वस्तु प्राभृत रूप सूत्र गणधर कथित श्रुतकेवली कथित अभिन्न दशपूर्व कथित होता है।277। वे चार प्रकार के सूत्र कालशुद्धि आदि के बिना संयमियों को तथा आर्यिकाओं को नहीं पढ़ने चाहिए। इनसे अन्य ग्रन्थ कालशुद्धि आदि के न होने पर भी पढ़ने योग्य माने गये हैं।278। सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओं का स्वरूप कहने वाला ग्रन्थ, सत्रह प्रकार के मरण को वर्णन करने वाला ग्रन्थ, पंच संग्रहग्रन्थ, स्तोत्र ग्रन्थ, आहारादि के त्याग का उपदेश करने वाला ग्रन्थ, सामायिकादि छह आवश्यकों को कहने वाला ग्रन्थ, महापुरुषों के चारित्र को वर्णन करने वाला ग्रन्थ कालशुद्धि आदि न होने पर भी पढ़ना चाहिए।</span></p> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> भरतेश द्वारा निर्दिष्ट व्रतियों के षट्कर्मों में एक कर्म और छठा आभ्यन्तर तप । ज्ञान की भावना और बुद्धि की निर्मलता के लिए आलस्य का त्याग करके शास्त्राभ्यास करना स्वाध्याय है । इससे मन के संकल्प-विकल्प दूर होकर मन का निरोध हो जाता है और मन के निरोध से इन्द्रियों का निग्रह हो जाता है तथा चित्त-वृत्ति स्थिर होती है । इसके पांच भेद हैं― 1. वाचना 2. पृच्छना 3. अनुप्रेक्षा 4. आम्नाय और 5. उपदेश । इनमें ग्रंथ का अर्थ समझना, समझाना वाचना और अनिश्चित तत्त्व का निश्चय करने के लिए दूसरे से पूछना पृच्छना है । ज्ञान का मन से अभ्यास-चिन्तन अनुप्रेक्षा, पाठ को बार-बार पढ़ना (अवधारण करना) आम्नाय और दूसरों को धर्म का उपदेश देना उपदेश नाम का स्वाध्याय है । यह पाँचों प्रकार का स्वाध्याय-प्रशस्त अध्यवसाय, भेद विज्ञान, संवेग और तप की वृद्धि के लिए किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 20. 189, 197-199, 21.96, 34.134, 38-24-34, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 14. 116-117, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 64. 30, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-45 </span></p> | |||
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Revision as of 21:49, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से == सत्शास्त्र का वांचना, मनन करना, या उपदेश देना आदि स्वाध्याय कहा जाता है जो सर्वोत्तम तप माना गया है मोक्षमार्ग में इसका बहुत ऊँचा स्थान है। यथा विधि यथा काल ही स्वाध्याय करना योग्य है। सूर्यग्रहण आदि काल स्वाध्याय के लिए अयोग्य समझे जाते हैं।
- स्वाध्याय निर्देश
- निश्चय स्वाध्याय के अपर नाम।-देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
- स्वाध्याय में विनय का महत्त्व।-देखें विनय - 2.5।
- निश्चय व व्यवहार विषयक स्वाध्याय का क्रम।-देखें उपदेश - 3.4-5।
- स्वपर समय विषयक स्वाध्याय का क्रम।-देखें उपदेश - 3.4-5।
- स्वाध्याय की अपेक्षा वैयावृत्त्य की प्रधानता।-देखें वैयावृत्त्य - 6।
- स्वाध्याय में फलेच्छा का निषेध।-देखें राग - 4.5-6।
- पठित ज्ञान के संस्कार साथ जाते हैं।-देखें संस्कार - 1.2।
- स्वाध्याय विधि
- स्वाध्याय में द्रव्य क्षेत्रादि शुद्धि का निर्देश-देखें शुद्धि ।
- स्वाध्याय योग्य काल व उसका विभाजन।
- स्वाध्याय योग्य काल में कुछ अपवाद।
- स्वाध्याय के अयोग्य द्रव्य क्षेत्र काल।
- अयोग्य द्रव्यादि में स्वाध्याय करने से हानि।
- स्वाध्याय प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधि।
- स्वाध्याय प्रकरण में कायोत्सर्ग का काल प्रमाण।-देखें व्युत्सर्ग - 1।
- स्वाध्याय से शेष बचे समय में क्या करे।-देखें कृतिकर्म - 4.1।
1. स्वाध्याय निर्देश
1. स्वाध्याय सामान्य का लक्षण
- निश्चय
स.सि./9/20/439/7 ज्ञानभावनालस्यत्याग: स्वाध्याय:। =आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय तप है।
चा.सा./152/5 स्वस्मै हितोऽध्याय: स्वाध्याय:। =अपने आत्मा का हित करने वाला अध्ययन करना स्वाध्याय है।
- व्यवहार
मू.आ./511 बारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधें।-।=बारह अंग चौदहपूर्व जो जिनदेव ने कहे हैं उनको पण्डितजन स्वाध्याय कहते हैं।
ध.13/5,4,26/64/1 अंगंगबाहिरआगमवायणपुच्छणाणुपेहा-परियट्ठण-धम्मकहाओ सज्झायो णाम। =अंग और अंगबाह्य आगम की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तन और धर्मकथा करना स्वाध्याय नाम का तप है (अन.ध./9/4)।
चा.सा./44/3 स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च। =तत्त्वज्ञान को पढ़ना, पढ़ाना, स्मरण करना आदि स्वाध्याय है।
का.अ./मू./462 पूयादिसु णिरवेक्खो जिण-सत्थं जो पढेइ भत्तो, कम्म-मल-सोहणट्ठं सुय-लाहो सुहयरो तस्स=जो मुनि अपनी पूजादि से निरपेक्ष, केवल कर्ममल शोधन के अर्थ जिन शास्त्रों को भक्तिपूर्वक पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ सुखकारी है।
2. स्वाध्याय के भेद
मू.आ./393 परियट्टणाय वायण पडिच्छणाणुपेहया य धम्मकहा। थु तिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होइ सज्झाओ।393। =पढ़े हुए ग्रन्थ का पाठ करना, वाचन-व्याख्यान करना, पृच्छना-शास्त्रों के अर्थ को किसी दूसरे से पूछना, अनुप्रेक्षा-बारम्बार शास्त्र का मनन करना, धर्मकथा-त्रेसठ शलाका पुरुषों का चारित्र पढ़ना ये पाँच प्रकार का स्वाध्याय मुनि देव वन्दना मंगल सहित करना चाहिए।393। (देखें ऊपर वाले शीर्षक में ध - 13), (अन.ध./7)।
त.सू./9/25 वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षम्नायधर्मोपदेशा:।25। =वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय है।25। (चा.सा./152/5); (अन.ध.7/83-87)।
देखें वाचना चार प्रकार है नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या।
3. स्वाध्याय में सम्यक्त्व की प्रधानता
भा.पा./मू./89 सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं। =भावरहित श्रमणों का सकल ध्यान और अध्ययन निरर्थक हैं।
ध.9/4,1,1/6/3 ण च सम्मत्तेण विरहियाणं णाणझाणाणमसंखेज्जगुणसेडीकम्मणिज्जराए अणिमित्ताणं णाण झाणववएसो पारमत्थिओ अत्थि, अवगयट्ठ सद्दहणणाणे...तव्ववएसब्भुवगमे संते अइप्पसगादो। =सम्यक्त्व से रहित ज्ञान ध्यान के असंख्यात गुणी श्रेणी रूप कर्म निर्जरा के कारण न होने से ‘ज्ञानध्यान’ यह संज्ञा वास्तविक नहीं है। क्योंकि अर्थ श्रद्धान से रहित ज्ञान...में वह संज्ञा स्वीकार करने में अतिप्रसंग दोष आता है।
यो.सा.अ./7/44 संसारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मरहितानां।44। =जो विद्वान हैं-शास्त्रों का अक्षराभ्यास तो कर चुके हैं परन्तु आत्मध्यान से शून्य हैं उनका संसार शास्त्र है।
4. स्तुति आदि परिवर्तन रूप भी स्वाध्याय है
अन.ध./7/92 अर्हद्धयानपरस्यार्हन् शं वो दिश्यात्सदास्तु व:। शान्तिरित्यादिरूपोऽपि स्वाध्याय: श्रेयसे मत:।92। = जो साधु निरन्तर अर्हन्त भगवान् के ध्यान में लीन रहता है उसके 'अर्हन् शं वो दिश्यात् ' अर्थात् अर्हन्त भगवान् तुम्हारा कल्याण करें। तथा ' सदास्तु व: शान्ति: ' अर्थात् मुझे सदा शान्ति बनी रहे इत्यादि वचनों को भी स्वाध्याय कहना चाहिए। क्योंकि पूर्वाचार्यों ने इसके द्वारा भी कल्याण और परम्परा मोक्ष की सिद्धि मानी है।
देखें स्वाध्याय - 1.2 ये पाँच प्रकार का स्वाध्याय मुनि देव वन्दना मंगल सहित करना चाहिए।
5. प्रयोजन व अप्रयोजन भूत विषय
मो.मा.प्र./7/317/21 मोक्षमार्ग विषै देव, गुरु, धर्म व जीवादि तत्त्व वा बन्ध मोक्षमार्ग प्रयोजनभूत हैं। ...द्वीप समुद्रादि का कथन अप्रयोजनभूत है।
6. चारों अनुयोगों के स्वाध्याय का क्रम
मो.मा.प्र./7/347/18 पहला सच्चा तत्त्व ज्ञान हो (द्रव्यानुयोग), पीछे पुण्य पाप के फल को जाने (प्रथमानुयोग) शुद्धोपयोग से मोक्ष माने (चरणानुयोग) और गुणस्थानादि जीव का व्यवहार निरूपण जाने (करणानुयोग) इत्यादि जैसे हैं वैसे श्रद्धान करके उसका अर्थात् (आगम का) अभ्यास करे तो सम्यक्ज्ञान होय।
मो.मा.प्र./8/पृ./पंक्ति सं.करणानुयोग विषै भी किसी ठिकाने उपदेश की मुख्यता पूर्वक व्याख्यान होता है। उसे सर्वथा वैसा ही न मानना (407/2) मुख्यपने तो निचली दशा में द्रव्यानुयोग कार्यकारी है। गौणपने जाकौं मोक्षमार्ग की प्राप्ति होति न जानियें ताकौं पहले कोई व्रतादि का उपदेश दीजिए है। तातै ऊँची दशा वालों को अध्यात्म अभ्यास योग्य है। (431/7)।
7. स्वाध्याय सर्वोत्तम तप है
भ.आ./मू./107-109 बारसविहम्मि य तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिट्ठे। ण वि अत्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवो कम्मं।107। जं अण्णाणीकम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तं णाणीतिहिं गुत्तो खवेदि अंतोमुहुत्तेण।108। छट्ठट्ठमदसमदुबालसेहिं अण्णाणियस्स जा सोही। तत्तो बहुगुणदरिया होज्ज हु जिमिदस्स णाणिस्स।109। =1. सर्वज्ञ देवकर उपदेशे हुए अभ्यन्तर और बाह्य भेद सहित बारह प्रकार के तप में से स्वाध्याय तप के समान अन्य कोई न तो है और न होगा।107। (मू.आ./409,970) 2. सम्यग्ज्ञान से रहित जीव लक्षावधि कोटि भवों में जितने कर्मों के क्षय करने में समर्थ होता है, ज्ञानी जीव गुप्तिगुप्त होकर उतने कर्मों का क्षय अन्तर्मूहूर्त में कर देता है।108। (प्र.सा./मू./238); (ध.9/5,5,50/गा.23/281) एक, दो, तीन, चार व पाँच, अथवा पक्षोपवास व मासोपवास करने वाले सम्यग्ज्ञान रहित जीव से भोजन करने वाला स्वाध्याय में तत्पर सम्यग्दृष्टि परिणामों की ज्यादा विशुद्धि कर लेता है।109।
8. स्वाध्याय का लौकिक व अलौकिक फल
ति.प./1/35-42 दुविहो हवेदि हेदू तिलोयपण्णतिगंथयज्झयणे। जिणवरवयणुद्दिट्ठोपच्चक्खपरोक्खभेएहिं।35। सक्खापच्चक्खपरंपच्चक्खा दोण्णि होदि पच्चक्खा। अण्णाणस्स विणासं णाणदिवायरस्स उप्पत्ती।36। देवमणुस्सादीहिं संततमब्भच्चणप्पयाराणि। पडिसमयमसंखेज्जगुणसेढिकम्मणिज्जरणं।37। इस सक्खापच्चक्खं पच्चक्ख परं परं च णादव्वं। सिस्सपडिसिस्सपहुदीहिं सददमब्भच्चणयारं।38। दोभेदं च परोक्खं अभुदयसोक्खाइं मोक्खसोक्खाइं सादादिविविहसुपरसत्थकम्मतिव्वाणुभागउदएहिं।39। इंदपडिं ददिगिंदय तेत्तीसामररसमाणपहुदिसुहं। राजाहिराजमहराजद्धमंडलिमंडलयाणं।40। महमंडलियाणं अद्धचक्किचक्कहरितित्थयरसोक्खं। अट्ठारसमेत्ताणं सामी सेसाणं भत्तिजुत्ताणं।41। वररयण मउडधारी सेवयमाणाण वत्ति तह अट्ठं। देंता हवेति राजा जितसत्तू समरसंघट्ठे।42। =त्रिलोक प्रज्ञप्तिग्रन्थ के अध्ययन में, जिनेन्द्रदेव के वचनों से उपदिष्ट हेतु, प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है।35। 1. प्रत्यक्ष हेतु साक्षात् और परम्परा के भेद से दो प्रकार का है। अज्ञान का विनाश, ज्ञानरूपी दिवाकर की उत्पत्ति, देव और मनुष्यादिकों के द्वारा निरन्तर की जाने वाली विविध प्रकार की अभ्यर्थना, और प्रत्येक समय में होने वाली असंख्यात गुणी रूप से कर्मों की निर्जरा, इसे साक्षात् प्रत्यक्ष हेतु समझना चाहिए। और शिष्य-प्रशिष्य आदि के द्वारा निरन्तर अनेक प्रकार से की जाने वाली पूजा को परम्परा परोक्ष हेतु समझना चाहिए।36-38। 2. परोक्ष हतु भी दो प्रकार का है-एक अभ्युदय और दूसरा मोक्ष सुख। सातावेदनीय आदि सुप्रशस्त कर्मों के तीव्र अनुभाग के उदय से प्राप्त हुआ इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र, त्रायस्त्रिंश, व सामानिक आदि देवों का सुख तथा राजा, अधिराज, महाराज, मण्डलीक, अर्धमण्डलोक, महामण्डलीक, अर्धचक्री, चक्रवर्ती और तीर्थंकर इनका सुख अभ्युदय सुख है। जो भक्तियुक्त अठारह प्रकार की सेनाओं का स्वामी है, उत्कृष्ट रत्नों के मुकुट को धारण करने वाला है, सेवकजनों को वृत्ति अर्थात् भूमि तथा अर्थ (धन) प्रदान करने वाला है, और समर के संघर्ष में शत्रुओं को जीत चुका है, वह राजा है।39-42। (ध.1/1,1,1/56/1)।
ध.1/1,1,1/गा.47-51/59 भविय-सिद्धांताणं दिणयर कर-णिम्मलं हवइ णाणं। सिसिर-यर-कर सिच्छं हवइ चरित्तं स-वस चित्तं।47। मेरु व्व णिक्कंपं णट्ठट्ठ मलं तिमूढ उम्मुक्कं। सम्मद्दंसणमणुवमसमुप्पज्जइ पवयणब्भासा।48। तत्तो चेव सुहाइं सयलाइं देवमणुयखयराणं। उम्मूलियट्ठ कम्मं फुड सिद्ध-सुहं पि पवयणदो।49। जियमोहिंधण-जलणो अण्णाण तमंधयार-दिणयरओ। कम्ममलकलुसपुसओ जिणवयणमिवोवही सुहओ।50। अण्णाण-तिमिर-हरणं सुभविय-हिययारविंद-जोहणयं। उज्जोइय-सयल बद्धं सिद्धंतदिवायरं भजह।51। =जिन्होंने सिद्धान्त का उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है ऐसे पुरुषों का ज्ञान सूर्य की किरणों के समान निर्मल होता है और जिसने अपने चित्त को स्वाधीन कर लिया है ऐसा चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल चरित्र होता है।47। प्रवचन के अभ्यास से मेरु के समान निष्कम्प, आठ मल रहित, तीन मूढता रहित सम्यग्दर्शन होता है।48। देव, मनुष्य और विद्याधरों के सुख प्राप्त होते हैं और आठ कर्मों के उन्मूलित होने पर प्रवचन के अभ्यास से विशद सिद्ध सुख भी प्राप्त होता है।49। जिनागम जीवों के महारूपी ईंधन को अग्नि के समान, अज्ञानरूप अन्धकार के विनाश के लिए सूर्य के समान और द्रव्य व भाव कर्म के मार्जन के लिए समुद्र के समान है।50। अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाशक भव्यजीवों के हृदय को विकसित करने वाले, मोक्षपथ को प्रकाशित करने वाले सिद्धान्त को भजो।51।
9. स्वाध्याय का फल गुणश्रेणी निर्जरा व संवर
ध.1/1,1,1/56/3 कर्मणामसंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा केषां प्रत्यक्षेति चेन्न, अवधिमन:पर्ययज्ञानिनां सूत्रमधीयानानां तत्प्रत्यक्षताया: समुपलम्भात् । = प्रश्न-कर्मों की असंख्यातगुणित-श्रेणी रूप से निर्जरा होती है, यह किनको प्रत्यक्ष है ? उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, सूत्र का अध्ययन करने वालों की असंख्यात गुणित श्रेणीरूप से प्रतिसमय कर्म निर्जरा होती है, यह बात अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानियों को प्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध होती है।
ध.9/4,1,1/3/1 उसहसेणादिगणहरदेवेहि विरइयसद्दरयणादो दव्वसुत्तादो तत्पढण-गुणणकिरियावावदाणं सव्वजीवाणं पडिसमयमसंखेवेज्जगुणसेढीए पुव्वसंचिदकम्मणिज्जरा होदि त्ति। =वृषभसेनादि गणधर देवों द्वारा जिनकी शब्द रचना की गयी है, ऐसे द्रव्य सूत्रों से उनके पढ़ने और मनन करने रूप क्रिया में प्रवृत्त हुए सब जीवों के प्रतिसमय असंख्यातगुणित श्रेणी से पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है।
ध.9/5,5,50/281/3 किमर्थं सर्वकालं व्याख्यायते। श्रोतुर्व्याख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरणहेतुत्वात्। प्रश्न-इसका सर्वकाल किसलिए व्याख्यान करते हैं ? उत्तर-क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोता के असंख्यात गुणी श्रेणी रूप से होने वाली कर्म निर्जरा का कारण है।
10. स्वाध्याय का प्रयोजन व महत्त्व
भ.आ./मू./104-106 सज्झायं कुव्वंतो पंचिंदियसुंवुडो तिगुत्तो य। हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू।104। जह जह सुदमोग्गाहदि अदिसयरसपसरमसुदपुव्वं तु। तह तह पल्हादिज्जदि नवनवसंवेगसड्ढाए।105। आयापायविदण्हू दंसणणाणतवसंजमें ठिच्चा। विहरदि विसुज्झमाणो जावज्जीवं दु णिक्कंपो।106। =जो साधु स्वाध्याय करता है वह पाँचों इन्द्रियों का संवर करता है, मन आदि गुप्तियों को भी पालने वाला होता है और एकाग्रचित्त हुआ विनयकर संयुक्त होता है।104। (मू.आ./410) जिसमें अतिशय रस का प्रसार है और जो अश्रुतपूर्व है ऐसे श्रुत का वह जैसे-जैसे अवगाहन करता है वैसे ही वैसे अतिशय नवीन धर्म श्रद्धा से संयुक्त होता हुआ परम आनन्द का अनुभव करता है। (ध.13/5,5,50/गा.21-22/281) स्वाध्याय से प्राप्त आत्म विशुद्धि के द्वारा निष्कम्प तथा हेयोपादेय में विचक्षण बुद्धि होकर यावज्जीवन रत्नत्रयमार्ग में प्रवर्तता है।106।
प्र.सा.मू./86,232-237 जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं।86। एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु। णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा।232। आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि। अविजाणंतो अट्ठे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू।233। आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि। देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु।234। सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं। जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा।235। आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स। णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो।236। ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु।237। =जिन शास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले के नियम से मोह समूह क्षय हो जाता है इसलिए शास्त्र का सम्यक्प्रकार से अध्ययन करना चाहिए।86। (न.च.वृ./317 पर उद्धृत)। श्रमण एकाग्रता को प्राप्त होता है, एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान् के होती है, निश्चय आगम द्वारा होता है, इसलिए आगम के व्यापार मुख्य हैं।232। आगमहीन श्रमण आत्मा को और पर को नहीं जानता, पदार्थों को नही जानता हुआ भिक्षु कर्मों को किस प्रकार क्षय करे ?।233। साधु आगम चक्षु हैं, सर्वप्राणी इन्द्रिय चक्षुवाले हैं, देव अवधि चक्षु वाले हैं और सिद्ध सर्वत: चक्षु हैं।234। समस्त पदार्थ विचित्र गुण पर्यायों सहित आगम सिद्ध हैं उन्हें भी वे श्रमण आगम द्वारा वास्तव में देखकर जानते हैं।235। (यो.सा.अ./6/16-17)। इस लोक में जिसकी आगम पूर्वक दृष्टि नहीं है उसके संयम नहीं है इस प्रकार सूत्र कहता है, और असंयत वह श्रमण कैसे हो सकता है।236। आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती।237।
र.सा./91,95 पवयण सारब्भासं परमप्पाज्झाणकारणं जाणं। कम्मक्खवणणिमित्तं कम्मक्खवणेहि मोक्खसोक्खंहि।91। अज्झयणमेव झाणं पंचेदियणिगहं कसायं पि। तत्ते पंचमकाले पवयणसारब्भासमेव कुज्जा हो।95। =प्रवचन के सार का अभ्यास ही परब्रह्म परमात्मा के ध्यान का कारण है। विशुद्ध आत्मा के स्वरूप का ध्यान ही कर्मों का नाश व मोक्षसुख की प्राप्ति का प्रधान कारण है।91। प्रवचनसार (जिनागम) का अभ्यास पठन-पाठन और वस्तुविचार ही ध्यान है। उसी से इन्द्रियों का निग्रह, मन का वशीकरण व कषायों का उपशम होता है। इस पंचम काल में जिनागम का अभ्यास करना ही जिनागम है।95।
दं.पा./मू./17 जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं। जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाण। =यह जिनवचन रूप औषधि इन्द्रिय विषय से उत्पन्न सुख को दूर करने वाला है। तथा जन्म-मरण रूप रोग को दूर करने के लिए अमृत सदृश है और सर्व दु:खों के क्षय का कारण है।17।
सू.पा./मू./3 सत्तुम्मि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च से कुणदि। सूई जहा समुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि।3। =जो पुरुष सूत्र का जानकार है वह भव का नाश करता है, जैसे सूई डोरे सहित हो तो नष्ट नहीं होती, यदि डोरे से रहित हो तो नष्ट हो जाती है।
स.सि./9/25/443/6 प्रज्ञातिशय: प्रशस्ताध्यवसाय: परमसंवेगस्तपोवृद्धिरतिचारविशुद्धिरित्येवमाद्यर्थ:। =प्रज्ञा में अतिशय लाने के लिए, अध्यवसाय को प्रशस्त करने के लिए, परम संवेग के लिए, तप वृद्धि व अतिचार शुद्धि के लिए, (संशयोच्छेद व परवादियों की शंका अभाव रा.वा.) आदि के लिए स्वाध्याय तप आवश्यक है। (रा.वा./9/25/6/624/20)।
ति.प./1/51 कणयधराधरधीरं मूढत्तयविरहिदं हयट्ठमलं। जायदिपवयणपढणे सम्मद्दसणमणुवसाणं।51। =प्रवचन अर्थात् परमागम के पढ़ने पर सुमेरु पर्वत के समान निश्चल लोकमूढता, देवमूढता, गुरुमूढता से रहित, शंका आदि आठ दोषों से मुक्त अनुपम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है।
देखें स्वाध्याय - 1.8 में ध./1 जिनागम जीवों के मोहरूपी ईंधन के जलाने के लिए अग्नि के समान, अज्ञान को विनाश के लिए सूर्य के समान, तथा कर्मों के मार्जन के लिए समुद्र के समान है।
न.च.वृ./394 पर उद्धृत व 348 दव्वसुयादो भावं भावदो होइ सव्वसण्णाणं। संवेयणसंवित्ति केवलणाणं तदो भणियो।1। गहिओ सो सुदणाणे पच्छा संवेयणेण झायव्वो। जो णहु सुदमवलंबइ सो मुज्झइ अप्पसब्भावे।348। =द्रव्यश्रुत से भावश्रुत होता है फिर क्रम से सम्यग्ज्ञान, संवेदन, आत्मसंवित्ति, तथा केवलज्ञान होते हैं, ऐसा कहा गया है। (न.च.वृ./297) श्रुतज्ञान को ग्रहण करके पश्चात् आत्म-संवेदन से ध्याना चाहिए। जो श्रुतज्ञान का अवलम्बन नहीं लेता वह आत्मसद्भाव में मोह करता है।348।
स.सा./आ./274 स किल गुण: श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानम् । =जो भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्मा का ज्ञान वह शास्त्र पठन का गुण है।
आ.अनु./170 अनेकान्तात्मार्थप्रसवफलभारातिविनते वच:पर्णाकीर्णे विपुलनयशाखाशतयुते। समुत्तुङ्गे सम्यक्प्रततमतिमूले प्रतिदिनं श्रुतस्कन्धे धोमान् रमयतु मनोकर्मटममुम् ।170। =जो श्रुतस्कन्ध रूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थ रूप फूल एवं फलों के भार से अतिशय झुका हुआ है, वचनों रूपी पत्तों से व्याप्त है, विस्तृत नयों रूप सैकड़ों शाखाओं से युक्त है, उन्नत है, तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञान रूप जड़ से स्थिर है, उस श्रुत स्कन्ध रूप वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान साधु के लिए अपने मनरूपी बन्दर को सदा रमाना चाहिए।
प.प्र./टी./2/191 निजशुद्धात्मैवोपादेय इति मत्वा...तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परम्परया मोक्षसाधकं भवति। =जो निज शुद्धात्मा को उपादेय जानकर,...ज्ञान की प्राप्ति का उपाय जो शास्त्र, उनको पढ़ता है, तो परम्परा मोक्ष का साधक होता है।
2. स्वाध्याय विधि
1. स्वाध्याय योग्य काल व उसका विभाजन
देखें कृतिकर्म - 4.1 प्रात: का स्वाध्याय सूर्योदय से दो घड़ी पश्चात् प्रारम्भ करके मध्याह्न में दो घड़ी बाकी रहने पर समाप्त कर देना चाहिए। अपराह्न का स्वाध्याय मध्याह्न के दो घड़ी पश्चात् से प्रारम्भ कर सूर्यास्त से दो घड़ी पूर्व समाप्त कर देना चाहिए। यही क्रम पूर्व रात्रिक व वैरात्रिक स्वाध्याय में अपनाना चाहिए।
ध.9/4,1,54/गा.111-114/258 प्रतिपद्येक: पादो ज्येष्ठा मूलस्य पौर्णमास्यां तु। सा वाचना विमोक्षे छाया पूर्वाह्णवेलायाम् ।111। सैवापराह्णकाले वेला स्याद्वाचनाविधौ विहिता। सप्तपदी पूर्वाह्णापराह्णयोर्ग्रहण-मोक्षेषु।112। ज्येष्ठामूलात्परतोऽप्यापौषाद्द्वयङ्गुला हि वृद्धि: स्यात् । मासे मासे विहिता क्रमेण सा वाचनाछाया।113। एवं क्रमप्रवृद्धया पादद्वयमत्र होयते पश्चात् । पौषादाज्येष्ठान्ताद् द्वयङ्गुलमेवेति विज्ञेयम् ।114। =ज्येष्ठ मास की प्रतिपदा एवं पूर्णमासी को पूर्वाह्नकाल में वाचना की समाप्ति में एक पाद अर्थात् एक वितस्ति प्रमाण (जाँघों की) वह छाया कही गयी है अर्थात् इस समय पूर्वाह्न काल में बारह अंगुल प्रमाण छाया के रह जाने पर अध्ययन समाप्त कर देना चाहिए।111। वही समय अपराह्न काल में वाचना प्रारम्भ करने में कहा गया है। पूर्वाह्न काल में वाचना प्रारम्भ करके अपराह्न काल में उसे छोड़ने में सात पाद प्रमाण छाया कही गयी है।112। ज्येष्ठ मास से आगे पौष मास तक प्रत्येक मास में दो अंगुल प्रमाण वृद्धि होती है, यह क्रम से वाचना समाप्त करने की छाया का प्रमाण कहा गया है।113। इस प्रकार क्रम से वृद्धि होने पर पौष मास तक दो पाद हो जाते हैं। पश्चात् पौष मास से ज्येष्ठ मास तक दो अंगुल ही क्रमश: कम होते जाते हैं, ऐसा जानना चाहिए।114। (और भी देखें काल - 1.10)।
2. स्वाध्याय योग्य काल में कुछ अपवाद
भ.आ./मू./2052/1784 वायणपरियट्टणपुच्छणाओ मोत्तूण तध य धम्मथुदिं। सुत्तस्स पोरिसीसि वि सरेदि सुत्तत्थमेयमणो।2052। =(सल्लेखना गत साधु) वाचना, पृच्छना, परिवर्तना व धर्मोपदेश को छोड़कर सूत्र और अर्थ का एकाग्रता से स्मरण करते हैं। अथवा दिन का पूर्व, मध्य, अन्त तथा अर्धरात्रि ऐसे चार समयों में तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि खिरती है। ये काल स्वाध्याय के नहीं हैं, परन्तु ऐसे समयों में भी वे अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं।
3. स्वाध्याय के अयोग्य द्रव्य क्षेत्र काल
ध.9/4,1,54/गा.96-114/255-257 यमपटहरवश्रवणे रुधिरस्रावेङ्गतोऽतिचारे च। दातृष्वशुद्धकायेषु भुक्तवति चापि नाध्येयम् ।96। तिल पलल-पृथुकलाजापूपादिस्निग्धसुरभिगन्धेषु। भुक्तेषु भोजनेषु च दवाग्निधूमे च नाध्येयम् ।97। योजनमण्डलमात्रे संन्यासविधौ महोपवासे च। आवश्कक्रियायां केशेषु च लुच्यमानेषु।98। सप्तदिनान्यध्ययनं प्रतिषिद्धं स्वर्गगते श्रमणसूरौ। योजनमात्रे दिवसत्रितयं त्वतिदूरतो दिवसम् ।99। प्राणिनि च तीव्रदु:खान्म्रियमाणे स्फुरति चातिवेदनया। एकनिर्वतनमात्रे तिर्यक्षु चरत्सु च न पाठयम् ।100। तावन्मात्रे स्थावरकायक्षयकर्मणि प्रवृत्ते च। क्षेत्राशुद्धौ दुर्गन्धे वातिकुणपे वा।101। विगतार्थागमने वा स्वशरीरे शुद्धिवृत्तिविरहे वा। नाध्येय: सिद्धान्त: शिवसुखफलमिच्छता व्रतिना।102। प्रमिति-व्यन्तरभेरीताडन-तत्पूजासंकटे कर्षणे वा। संमृक्षण-संमार्ज्जनसमीपचाण्डालबालेषु।105। अग्निजलरुधिरदीपे मांसास्थिप्रजनने तु जीवानाम् । क्षेत्रविशुद्धिर्न स्याद्यथोदितं सर्वभावज्ञै:।106। युक्त्या समधीयानो वक्षणकक्षाद्यमस्पृशन् स्वाङ्गम् । यत्नेनाधीत्य पुनर्यथाश्रुतं वाचनां मुञ्चेत् ।108। तपसि द्वादशसंख्ये स्वाध्याय: श्रेष्ठ उच्यते सद्भि:। अस्वाध्यायदिनानि ज्ञेयानि ततोऽत्र विद्वद्भि:।109। पर्वसु नन्दीश्वरवरमहिमादिवसेषु चोपरागेषु। सूर्याचन्द्रमसोरपि नाध्येयं जानता व्रतिना।110। अष्टम्यामध्ययनं गुरुशिष्यद्वयवियोगमावहति। कलहं तु पौर्णमास्यां करोति विघ्नं चतुर्दश्याम् ।111। कृष्णचतुर्दश्यां यद्यधीयते साधवो ह्यमावस्याम् । विद्योपवासविधयो विनाशवृत्तिं प्रयान्त्यशेषं सर्वे।112। मध्याह्ने जिनरूपं नाशयति करोति संध्योर्व्याधिम् । तुष्यन्तोऽप्यप्रियतां मध्यमरात्रौ समपयान्ति।113। अतितीव्रदु:खितानां रुदतां सदर्शने समीपे च। स्तनयिंत्नुविद्युदभ्रेष्वतिवृष्टया उल्कनिर्घाते।114।
- द्रव्य-यम पटहका शब्द सुनने पर, अंग से रक्तस्राव के होने पर, अतिचार के होने पर तथा दाताओं के अशुद्धकाय होते हुए भोजन कर लेने पर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।96। तिलमोदक, चिउड़ा, लाई और पुआ आदि चिक्कण एवं सुगन्धित भोजनों के खाने पर दावानल का धुँआ होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए।97। एक योजन के घेरे में संन्यासविधि, महोपवास विधि, आवश्यकक्रिया एवं केशों का लोंच होने पर तथा आचार्य का स्वर्गवास होने पर सात दिन तक अध्ययन करने का प्रतिषेध है। उक्त घटनाओं के एक योजन मात्र में होने पर तीन दिन तक तथा अत्यन्त दूर होने पर एक दिन तक अध्ययन नहीं करना चाहिए।98-99। प्राणी के तीव्र दु:ख से मरणासन्न होने पर या अत्यन्त वेदना से तड़फड़ाने पर तथा एक निर्वतन (एक बीघा) मात्र में तिर्यंचों का संचार होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए।100।
- क्षेत्र-उतने मात्र स्थावर काय जीवों के घातरूप कार्य में प्रवृत्त होने पर, क्षेत्र की अशुद्धि होने पर, दूर से दुर्गन्ध आने पर अथवा अत्यन्त सड़ी गन्ध के आने पर, ठीक अर्थ समझ में न आने पर (?) अथवा अपने शरीर से शुद्धि से रहित होने पर मोक्ष सुख के चाहने वाले व्रती पुरुष को सिद्धान्त का अध्ययन नहीं करना चाहिए।101-102। व्यन्तरों के द्वारा भेरी ताड़न करने पर, उनकी पूजा का संकट आने पर, कर्षण के होने पर, चाण्डाल बालकों के समीप झाड़ा-बुहारी करने पर, अग्नि, जल व रुधिर की तीव्रता होने पर, तथा जीवों के मांस व हड्डियों के निकाले जाने पर क्षेत्र की विशुद्धि नहीं होती।105-106।
- काल-साधु पुरुषों ने बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय को श्रेष्ठ कहा है। इसलिए विद्वानों को स्वाध्याय न करने के दिनों को जानना चाहिए।109। पर्वदिनों, नन्दीश्वर के श्रेष्ठ महिम दिवसों और सूर्य, चन्द्र ग्रहण होने पर विद्वान् व्रती को अध्ययन नहीं करना चाहिए।110। अष्टमी में अध्ययन गुरु और शिष्य दोनों का वियोग करने वाला होता है। पूर्णमासी के दिन किया गया अध्ययन कलह और चतुर्दशी के दिन किया गया अध्ययन विघ्न को करता है।107। यदि साधुजन कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्या के दिन अध्ययन करते हैं तो विद्या और उपवास विधि सब विनाशवृत्ति को प्राप्त होते हैं।108। मध्याह्न काल में किया गया अध्ययन जिन रूप को नष्ट करता है, दोनों सन्ध्या कालों में किया गया अध्ययन व्याधि को करता है, तथा मध्यम रात्रि में किये गये अध्ययन से अनुरक्तजन भी द्वेष को प्राप्त होते हैं।113। अतिशय तीव्र दु:ख से युक्त और रोते हुए प्राणियों को देखने या समीप होने पर, मेघों की गर्जना व बिजली के चमकने पर और अतिवृष्टि के साथ उल्कापात होने पर (अध्ययन नहीं करना चाहिए)।114। (और भी देखें काल - 1.10)।
4. अयोग्य द्रव्यादि में स्वाध्याय करने से हानि
ध.9/4,1,54/गा.119/259 दव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तत्थसिक्खलोहेण। असमाहिमसज्झायं कलहं वाहिं वियोगं च।119। =सूत्र और अर्थ की शिक्षा के लोभ से किया गया द्रव्यादि का अतिक्रमण असमाधि अर्थात् सम्यक्त्वादि की विराधना, अस्वाध्याय अर्थात् अलाभ, कलह, व्याधि और वियोग को करता है।119।
5. स्वाध्याय प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधि
ध.9/4,1,54/गा.107-108/256 क्षेत्रं संशोध्य पुन: स्वहस्तपादौ विशोध्य शुद्धमना:। प्राशुकदेशावस्थो गृह्लीयाद् वाचनां पश्चात् ।107। युक्त्या समधीयानो वक्षणकक्षाद्यमस्पृशन् स्वाङ्म् । यत्नेनाधीत्य पुनर्यथाश्रुतं वाचनां मुञ्चेत् ।108। =क्षेत्र की शुद्धि करने के पश्चात् अपने हाथ और पैरों को शुद्ध करके तदन्तर विशुद्ध मन युक्त होता हुआ प्रासुक देश में स्थित होता हुआ वाचना को ग्रहण करे।107। बाजू और कांख आदि अपने अंग का स्पर्श न करता हुआ उचित रीति से अध्ययन करे और यत्नपूर्वक अध्ययन के पश्चात् शास्त्र विधि से वाचना को छोड़ दे।108।
देखें कृतिकर्म - 4.3 [स्वाध्याय का प्रारम्भ दिन और रात्रि के पूर्वाह्न, अपराह्न चारों ही बेलाओं में लघु श्रुत भक्ति, और आचार्य भक्ति का पाठ करके करना चाहिए, नियत समय तक स्वाध्याय करके लघु श्रुतभक्ति पूर्वक निष्ठापना करनी चाहिए। ये सब पाठ योग्य कृतिकर्म सहित किये जाते हैं।]
6. विशेष शास्त्रों के प्रारम्भ व समाप्ति पर उपवासादि का निर्देश
मू.आ./280 उद्देस समुद्देसे अणुणापणए अ होंति पंचेव। अंगसुदखंध झेणुवदेसा विय पदविभागो य।280। =बारह अंग चौदह पूर्व वस्तु प्राभृत-प्राभृत इनके पाद विभाग के प्रारम्भ में वा समाप्ति में वा गुरुओं की अवज्ञा होने पर पाँच-पाँच उपवास अथवा प्रायश्चित्त अथवा कायोत्सर्ग कहे हैं।280।
7. नियमित व अनियमित विधि युक्त पढ़े जाने योग्य कुछ शास्त्र
मू.आ./277-279 सुत्तं गणधरकधिदं तहेव पत्तेयबुद्धिकथिदं च। सुदकेवलिणा कधिदं अभिण्णदसपुव्वकधिदं च।277। तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स। एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्झाए।278। आराहणणिजुत्ती मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ। पच्चक्खाणावासयधम्मकहाओ य एरिसओ।279। =अंग पूर्व वस्तु प्राभृत रूप सूत्र गणधर कथित श्रुतकेवली कथित अभिन्न दशपूर्व कथित होता है।277। वे चार प्रकार के सूत्र कालशुद्धि आदि के बिना संयमियों को तथा आर्यिकाओं को नहीं पढ़ने चाहिए। इनसे अन्य ग्रन्थ कालशुद्धि आदि के न होने पर भी पढ़ने योग्य माने गये हैं।278। सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओं का स्वरूप कहने वाला ग्रन्थ, सत्रह प्रकार के मरण को वर्णन करने वाला ग्रन्थ, पंच संग्रहग्रन्थ, स्तोत्र ग्रन्थ, आहारादि के त्याग का उपदेश करने वाला ग्रन्थ, सामायिकादि छह आवश्यकों को कहने वाला ग्रन्थ, महापुरुषों के चारित्र को वर्णन करने वाला ग्रन्थ कालशुद्धि आदि न होने पर भी पढ़ना चाहिए।
पुराणकोष से
भरतेश द्वारा निर्दिष्ट व्रतियों के षट्कर्मों में एक कर्म और छठा आभ्यन्तर तप । ज्ञान की भावना और बुद्धि की निर्मलता के लिए आलस्य का त्याग करके शास्त्राभ्यास करना स्वाध्याय है । इससे मन के संकल्प-विकल्प दूर होकर मन का निरोध हो जाता है और मन के निरोध से इन्द्रियों का निग्रह हो जाता है तथा चित्त-वृत्ति स्थिर होती है । इसके पांच भेद हैं― 1. वाचना 2. पृच्छना 3. अनुप्रेक्षा 4. आम्नाय और 5. उपदेश । इनमें ग्रंथ का अर्थ समझना, समझाना वाचना और अनिश्चित तत्त्व का निश्चय करने के लिए दूसरे से पूछना पृच्छना है । ज्ञान का मन से अभ्यास-चिन्तन अनुप्रेक्षा, पाठ को बार-बार पढ़ना (अवधारण करना) आम्नाय और दूसरों को धर्म का उपदेश देना उपदेश नाम का स्वाध्याय है । यह पाँचों प्रकार का स्वाध्याय-प्रशस्त अध्यवसाय, भेद विज्ञान, संवेग और तप की वृद्धि के लिए किया जाता है । महापुराण 20. 189, 197-199, 21.96, 34.134, 38-24-34, पद्मपुराण 14. 116-117, हरिवंशपुराण 64. 30, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-45