अपकर्षसमा: Difference between revisions
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| न्यायदर्शन सूत्र/5/1/4/288 साध्यदृष्टान्तयोर्धर्मविकल्पादुभयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षवर्ण्यावर्ण्यविकल्पसाध्यसमाः ॥4॥ न्या.भा.5/1/4/288 साध्ये धर्माभावे दृष्टान्तात् प्रसञ्जतोऽपकर्षसमः। लोष्ठः खलु क्रियावानविभर्दृष्टः काममात्मापि क्रियावानविभुरस्तु विपर्यये वा विशेषो वक्तव्य इति।= साध्यमें दृष्टान्तसे धर्माभावके प्रसंगको अपकर्षसम कहते हैं। जैसे कि `लोष्ठ निश्चय क्रियावाला व अविभु देखा गया है अतः (इस दृष्टान्त-द्वारा साध्य) आत्मा भी क्रियावान् व अविभु होना चाहिए। जो ऐसा नहीं है तो विशेषता दिखानी चाहिए। श्लोकवार्तिक पुस्तक 4/न्या.344/477/4 विद्यमानधर्मापनयोऽपकर्षः।श्लोकवार्तिक पुस्तक 4/न्या.341/476 तत्रैव क्रियावज्जीवसाधने प्रयुक्ते सति साध्यधर्मिणि धर्मस्याभावं दृष्टान्तात् समासंजयत् यो वक्ति सोऽपकर्षसमाजातिं वदति। यथा लोष्ठः क्रियाश्रयोऽसर्वगतो दृष्टस्तद्वदात्मा सदाप्यसर्वगतोऽस्तु विपर्यये वा विशेषकृद्धेतुर्वाच्य इति।= विद्यमान हो रहे धर्मका पक्षमें-से अलग कर देना अपकर्ष है। क्रियावान् जीवके साधनेका प्रयोग प्राप्त होनेपर जो प्रतिवादी साध्यधर्मीमें धर्मके अभावको दृष्टान्तसे भले प्रकार प्रसंग कराता हुआ कह रहा हो कि वह अपकर्षसमा जाति है। - जैसे कि लोष्ठ क्रियावान् हो रहा अव्यापक देखा गया है, उसीके समान आत्मा भी सर्वदा असर्वगत हो जाओ। अथवा विपरीत माननेपर कोई विशेषताको करनेवाला कारण बतलाना चाहिए, जिससे कि ढेलेका एक धर्म (क्रियावान्पना) तो आत्मामें मिला रहे और दूसरा धर्म (असर्वगतपना) आत्मामें न ठहर सके। | ||
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Revision as of 14:15, 20 July 2020
न्यायदर्शन सूत्र/5/1/4/288 साध्यदृष्टान्तयोर्धर्मविकल्पादुभयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षवर्ण्यावर्ण्यविकल्पसाध्यसमाः ॥4॥ न्या.भा.5/1/4/288 साध्ये धर्माभावे दृष्टान्तात् प्रसञ्जतोऽपकर्षसमः। लोष्ठः खलु क्रियावानविभर्दृष्टः काममात्मापि क्रियावानविभुरस्तु विपर्यये वा विशेषो वक्तव्य इति।= साध्यमें दृष्टान्तसे धर्माभावके प्रसंगको अपकर्षसम कहते हैं। जैसे कि `लोष्ठ निश्चय क्रियावाला व अविभु देखा गया है अतः (इस दृष्टान्त-द्वारा साध्य) आत्मा भी क्रियावान् व अविभु होना चाहिए। जो ऐसा नहीं है तो विशेषता दिखानी चाहिए। श्लोकवार्तिक पुस्तक 4/न्या.344/477/4 विद्यमानधर्मापनयोऽपकर्षः।श्लोकवार्तिक पुस्तक 4/न्या.341/476 तत्रैव क्रियावज्जीवसाधने प्रयुक्ते सति साध्यधर्मिणि धर्मस्याभावं दृष्टान्तात् समासंजयत् यो वक्ति सोऽपकर्षसमाजातिं वदति। यथा लोष्ठः क्रियाश्रयोऽसर्वगतो दृष्टस्तद्वदात्मा सदाप्यसर्वगतोऽस्तु विपर्यये वा विशेषकृद्धेतुर्वाच्य इति।= विद्यमान हो रहे धर्मका पक्षमें-से अलग कर देना अपकर्ष है। क्रियावान् जीवके साधनेका प्रयोग प्राप्त होनेपर जो प्रतिवादी साध्यधर्मीमें धर्मके अभावको दृष्टान्तसे भले प्रकार प्रसंग कराता हुआ कह रहा हो कि वह अपकर्षसमा जाति है। - जैसे कि लोष्ठ क्रियावान् हो रहा अव्यापक देखा गया है, उसीके समान आत्मा भी सर्वदा असर्वगत हो जाओ। अथवा विपरीत माननेपर कोई विशेषताको करनेवाला कारण बतलाना चाहिए, जिससे कि ढेलेका एक धर्म (क्रियावान्पना) तो आत्मामें मिला रहे और दूसरा धर्म (असर्वगतपना) आत्मामें न ठहर सके।