व्युत्सर्ग: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 7: | Line 7: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> कायोत्सर्ग का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> कायोत्सर्ग का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/121 </span><span class="PrakritGatha">कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं। तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्विअप्पेण।121।</span> =<span class="HindiText"> काय आदि परद्रव्यों में स्थिर भाव छोड़कर, जो आत्मा को निर्विकल्परूप से ध्याता है, उसे कायोत्सर्ग कहते हैं।121। </span><br /> | |||
मू.आ./28 <span class="PrakritGatha">देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि। जिणगुणचिंतणजुत्तो काओसग्गो तणुविसग्गो।28। </span>= <span class="HindiText">दैवसिक निश्चित क्रियाओं में यथोक्त कालप्रमाण पर्यंत उत्तम क्षमा आदि जिनगुणों की भावना सहित देह में ममत्व को छोड़ना कायोत्सर्ग है। </span><br /> | मू.आ./28 <span class="PrakritGatha">देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि। जिणगुणचिंतणजुत्तो काओसग्गो तणुविसग्गो।28। </span>= <span class="HindiText">दैवसिक निश्चित क्रियाओं में यथोक्त कालप्रमाण पर्यंत उत्तम क्षमा आदि जिनगुणों की भावना सहित देह में ममत्व को छोड़ना कायोत्सर्ग है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/24/11/530/14 </span><span class="SanskritText"> परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिवृत्तिः कायोत्सर्गः। </span>=<span class="HindiText"> परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। (<span class="GRef"> चारित्रसार/56/3 </span>)। </span><br /> | |||
भा.आ./वि./6/32/21 <span class="SanskritText">देहे ममत्वनिरासः कायोत्सर्गः।</span> = <span class="HindiText">देह में ममत्व का निरास करना कायोत्सर्ग है। </span><br /> | भा.आ./वि./6/32/21 <span class="SanskritText">देहे ममत्वनिरासः कायोत्सर्गः।</span> = <span class="HindiText">देह में ममत्व का निरास करना कायोत्सर्ग है। </span><br /> | ||
यो.सा./अ./5/52 <span class="SanskritGatha">ज्ञात्वा योऽचेतनं कायं नश्वरं कर्मनिर्मितम् । न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्गं करोति सः।52। </span>=<span class="HindiText"> देह को अचेतन, नश्वर व कर्मनिर्मित समझकर जो उसके पोषण आदि के अर्थ कोई कार्य नहीं करता, वह कायोत्सर्ग का धारक है। </span><br /> | यो.सा./अ./5/52 <span class="SanskritGatha">ज्ञात्वा योऽचेतनं कायं नश्वरं कर्मनिर्मितम् । न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्गं करोति सः।52। </span>=<span class="HindiText"> देह को अचेतन, नश्वर व कर्मनिर्मित समझकर जो उसके पोषण आदि के अर्थ कोई कार्य नहीं करता, वह कायोत्सर्ग का धारक है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/467-468 </span><span class="PrakritGatha"> जल्लमललित्तगत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो। मुहधोवणादि-विरओ भोयणसेज्जदिणिरवे-क्खो।467। ससरूवचिंतणरओ दुज्जणसुयणाण जो हु मज्झत्थो। देहे वि णिम्ममत्ते काओसग्गो तओ तस्स।468।</span> = <span class="HindiText">जिस मुनि का शरीर जल्ल और मल से लिप्त हो, जो दुस्सह रोग के हो जाने पर भी उसका इलाज नहीं करता हो, मुख धोना आदि शरीर के संस्कार से उदासीन हो और भोजन शय्या आदि की अपेक्षा नहीं करता हो, तथा अपने स्वरूप के चिंतन में ही लीन रहता हो, दुर्जन और सज्जन में मध्यस्थ हो और शरीर से भी ममत्व न करता हो, उस मुनि के कायोत्सर्ग नाम का तप होता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/70 </span><span class="SanskritText">सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वयः क्रिया विद्यंते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः, स एव गुप्तिर्भवति। </span>= <span class="HindiText">सब जनों को कायसंबंधी बहुत क्रियाएँ होती हैं; उनकी निवृत्ति सो कायोत्सर्ग है। वही गुप्ति है। <br /> | |||
देखें [[ कृतिकर्म#3.2 | कृतिकर्म - 3.2 ]](खड़े-खड़े या बैठे-बैठे शरीर का तथा कषायों का त्याग करना कायोत्सर्ग है)। <br /> | देखें [[ कृतिकर्म#3.2 | कृतिकर्म - 3.2 ]](खड़े-खड़े या बैठे-बैठे शरीर का तथा कषायों का त्याग करना कायोत्सर्ग है)। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> कायोत्सर्ग के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> कायोत्सर्ग के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./673-677 <span class="SanskritGatha">उट्ठिदउट्ठिद उट्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठ-उट्ठिदो चेव। उवविट्ठदणिविट्ठोवि य काओसग्गो चदुट्ठाणो।673। धम्मं सुक्कं च दुवे झायदि ज्झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो इह उट्ठिदउट्ठिदो णाम।674। अट्टं रुद्दं च दुवे झायदि झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो उट्ठिदणिविट्ठिदो णाम।375। धम्मं सुक्कं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काउसग्गो उवविट्ठउट्ठिदो णाम।676। अट्टं रुद्दं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काउसग्गो णिसण्णिदणिसण्णिदो णाम।677।</span> = <span class="HindiText">अत्थितात्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्ट निविष्ट, इस प्रकार कायोत्सर्ग के चार भेद हैं।673। जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ धर्म शुक्ल ध्यानों को चिंतवन करता है, वह उत्थितोत्थि है।674। जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ आर्त रौद्र ध्यानों को चिंतवन करता है, वह उत्थितनिविष्ट है।675। जो बैठे हुए धर्म व शुक्लध्यानों का चिंतवन करता है वह उपविष्टोत्थित है।676। और जो बैठा हुआ आर्त रौद्र ध्यानों का चिंतवन करता है, वह उपविष्टोपविष्ट है।677। ( अनगारधर्मामृत 8/123/833 )। </span><br /> | मू.आ./673-677 <span class="SanskritGatha">उट्ठिदउट्ठिद उट्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठ-उट्ठिदो चेव। उवविट्ठदणिविट्ठोवि य काओसग्गो चदुट्ठाणो।673। धम्मं सुक्कं च दुवे झायदि ज्झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो इह उट्ठिदउट्ठिदो णाम।674। अट्टं रुद्दं च दुवे झायदि झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो उट्ठिदणिविट्ठिदो णाम।375। धम्मं सुक्कं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काउसग्गो उवविट्ठउट्ठिदो णाम।676। अट्टं रुद्दं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काउसग्गो णिसण्णिदणिसण्णिदो णाम।677।</span> = <span class="HindiText">अत्थितात्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्ट निविष्ट, इस प्रकार कायोत्सर्ग के चार भेद हैं।673। जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ धर्म शुक्ल ध्यानों को चिंतवन करता है, वह उत्थितोत्थि है।674। जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ आर्त रौद्र ध्यानों को चिंतवन करता है, वह उत्थितनिविष्ट है।675। जो बैठे हुए धर्म व शुक्लध्यानों का चिंतवन करता है वह उपविष्टोत्थित है।676। और जो बैठा हुआ आर्त रौद्र ध्यानों का चिंतवन करता है, वह उपविष्टोपविष्ट है।677। (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत 8/123/833 </span>)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/278/27 </span><span class="SanskritText">उत्थितोत्थितं, उत्थितनिविष्टम्, उपविष्टोत्थितं, उपविष्टोपविष्टं इति चत्वारो विकल्पाः। धर्मे शुक्ले वा परिणतो यस्तिष्ठति तस्य कायोत्सर्गः उत्थितोत्थितो नाम। द्रव्यभावोत्थानसमन्वितत्वादुत्थानप्रकर्षः उत्थितोत्थितशब्देनोच्यते। तत्र द्रव्योत्थानं शरीरं स्थाणुवदूर्ध्वं अविचलमवस्थानं। ध्येयैकवस्तुनिष्ठता ज्ञानमयस्य भावस्य भावोत्थानं। आर्तरौद्रयोः परिणतो यस्तिष्ठति तस्य उत्थितनिषण्णो नाम कायोत्सर्गः। शरीरोत्थानादुत्थितत्वं शुभपरिणामोद्गतिरूपस्योत्थानस्याभावान्निषण्ण इत्युच्यते। अतएव विरोधाभावो भिन्ननिमित्तत्वादुत्थानासनयोः एकत्र एकदा। यस्त्वासीन एवं धर्मशुक्लध्यानपरिणतिमुपैति तस्य उत्थितनिषण्णो भवति परिणामोत्था-नात्कायानुत्थानाच्च। यस्तु निषण्णोऽशुभध्यानपरस्तस्य निषण्णनिषण्णकः। कायाशुभपरिणामाभ्यां अनुत्थानात्। </span>= <span class="HindiText">कायोत्सर्ग के उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्टोपविष्ट ऐसे चार भेद कहे हैं। धर्म व शुक्लध्यान में परिणत होकर जो खड़े होते हैं, उनका कायोत्सर्ग उत्थितोत्थित नाम वाला है। क्योंकि द्रव्य व भाव दोनों का उत्थान होने के कारण यहाँ उत्थान का प्रकर्ष है जो उत्थितोत्थित शब्द के द्वारा कहा गया है । तहाँ शरीर का खंबे के समान खड़ा रहना द्रव्योत्थान है तथा ज्ञान का एक ध्येय वस्तु में एकाग्र होकर ठहरना भावोत्थान है। आर्त और रौद्रध्यान से परिणत होकर जो खड़े होते हैं, उनका कायोत्सर्ग उत्थितनिविष्ट है। शरीर के उत्थान से उत्थित और शुभपरिणामों की उद्गतिरूप उत्थान के अभाव से निविष्ट है। शरीर व भावरूप भिन्न-भिन्न कारण होने से उत्थितावस्था और आसनावस्था में यहाँ विरोध नहीं है। जो मुनि बैठकर ही धर्म और शुक्लध्यान में लवलीन होता है, उसका उपविष्टोत्थि कायोत्सर्ग है, क्योंकि उसके परिणाम तो खड़े हैं, पर शरीर नहीं खड़ा है। जो मुनि बैठकर अशुभध्यान कर रहा है, वह निषण्णनिषण्ण कायोत्सर्ग युक्त समझना चाहिए। क्योंकि वह शरीर से बैठा हुआ है और परिणामों से भी उत्थानशील नहीं है। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 27: | Line 27: | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> मानसिक व कायिक कायोत्सर्ग विधि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> मानसिक व कायिक कायोत्सर्ग विधि</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./गा.<span class="PrakritGatha">वोसरिदबाहुजुगलो चदुरंगुलअंतरेण समपादो। सव्वंगचलणरहिओ काउसग्गो विसुद्धो दु।650। जे केई उवसग्गा देव माणुसतिरिक्खचेदणिया। ते सव्वे अधिआसे काओसग्गे ठिदो संते।655। काओसग्गम्मि ठिदो चिंचिदु इरियावधस्स अतिचारं। तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च चिंतेज्जो।664।</span> = <span class="HindiText">जिसने दोनों बाहु लंबी की हैं, चार अंगुल के अंतर सहित समपाद हैं तथा हाथ आदि अंगों का चालन नहीं है, वह शुद्ध कायोत्सर्ग है।650। देव, मनुष्य, तिर्यंच व अचेतनकृत जितने भी उपसर्ग हैं, सबको कायोत्सर्ग में स्थित हुआ मैं अच्छी तरह सहन करता हूँ।655। कायोत्सर्ग में तिष्ठा ईर्यापथ के अतिचार के नाश को चिंतवन करता मुनि उन सब नियमों को समाप्त कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिंतवन करो।664। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/278/20 ); ( अनगारधर्मामृत/8/76/804 )। </span><br /> | मू.आ./गा.<span class="PrakritGatha">वोसरिदबाहुजुगलो चदुरंगुलअंतरेण समपादो। सव्वंगचलणरहिओ काउसग्गो विसुद्धो दु।650। जे केई उवसग्गा देव माणुसतिरिक्खचेदणिया। ते सव्वे अधिआसे काओसग्गे ठिदो संते।655। काओसग्गम्मि ठिदो चिंचिदु इरियावधस्स अतिचारं। तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च चिंतेज्जो।664।</span> = <span class="HindiText">जिसने दोनों बाहु लंबी की हैं, चार अंगुल के अंतर सहित समपाद हैं तथा हाथ आदि अंगों का चालन नहीं है, वह शुद्ध कायोत्सर्ग है।650। देव, मनुष्य, तिर्यंच व अचेतनकृत जितने भी उपसर्ग हैं, सबको कायोत्सर्ग में स्थित हुआ मैं अच्छी तरह सहन करता हूँ।655। कायोत्सर्ग में तिष्ठा ईर्यापथ के अतिचार के नाश को चिंतवन करता मुनि उन सब नियमों को समाप्त कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिंतवन करो।664। (<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/278/20 </span>); (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/8/76/804 </span>)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/509/729/16 </span><span class="SanskritText">मनसा शरीरे ममेदंभावनिवृत्तिः मानसः कायोत्सर्गः। प्रलंबभुजस्य, चतुरंगुलमात्रपा-दांतरस्य निश्चलावस्थानं कायेन कायोत्सर्गः।</span> =<span class="HindiText"> मन से शरीर में ममेदं बुद्धि की निवृत्ति मानस कायोत्सर्ग है और (‘मैं शरीर का त्याग करता हूँ–ऐसा वचनोच्चार करना वचनकृत कायोत्सर्ग है’)। बाहु नीचे छोड़कर चार अंगुलमात्र अंतर दोनों पाँवों में रखकर निश्चल खड़े होना, वह शरीर के द्वारा कायोत्सर्ग है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/9/22-24/866 </span><span class="SanskritText">जिनेंद्रमुद्रया गाथां ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे। हृत्पंकजे प्रवेश्यांतर्निरुध्य मनसानिलम्।22। पृथग् द्विद्वयेकगाथांशचिंतांते रेचयेच्छनैः। नवकृत्वः प्रयोक्तैवं दहत्यंहः सुधीर्महत्।23। वाचाप्युपांशु व्युत्सर्गे कार्यो जप्यः स वाचिकः। पुण्यं शतगुणं चैत्तः सहस्रगुणमावहेत्।24। </span>=<span class="HindiText"> व्युत्सर्ग के समय अपनी प्राणवायु को भीतर प्रविष्ट करके, उसे आनंद से विकसित हृदयकमल में रोककर, जिनेंद्र मुद्रा के द्वारा णमोकार मंत्र की गाथा का ध्यान करना चाहिए।23। गाथा के दो-दो और एक अंश को पृथक्-पृथक् चिंतवन करके अंत में उस प्राणवायु को धीरे-धीरे बाहर निकालना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्रयोग करने वाले के चिरसंचित महान् कर्मराशि भस्म हो जाती है।23। प्राणायाम में असमर्थ साधु वचन के द्वारा भी उस मंत्र का जाप कर सकता है, परंतु उसे अन्य कोई न सुने, इस प्रकार करना चाहिए। परंतु वाचनिक और मानसिक जपों के फल में महान् अंतर है। दंडकों के उच्चारण की अपेक्षा सौ गुना पुण्य संचय वाचनिक जाप में होता है और हजार गुणा मानसिक जाप में।24। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">कायोत्सर्ग के योग्य दिशा व क्षेत्र</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">कायोत्सर्ग के योग्य दिशा व क्षेत्र</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/550/763 </span><span class="PrakritGatha"> पाचीणोदीचिमुहो चेदिमहुत्तो व कुणदि एगंते। आलोयणपत्तीयं काउसग्गं अणाबाधे।550।</span> = <span class="HindiText">पूर्व अथवा उत्तर दिशा की तरफ मुँह करके किंवा जिनप्रतिमा की तरफ मुँह करके आलोचना के लिए क्षपक कायोत्सर्ग करता है। यह कायोत्सर्ग वह एकांत स्थान में, अबाधित स्थान में अर्थात् जहाँ दूसरों का आना-जाना न हो, ऐसे अमार्ग में करता है। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> कायोत्सर्ग के योग्य अवसर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> कायोत्सर्ग के योग्य अवसर</strong> </span><br /> | ||
Line 139: | Line 139: | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | </table> | ||
<p><span class="HindiText">( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/278/22 ); ( चारित्रसार/158/1 ); ( अनगारधर्मामृत/8/72-73/801 )। </span></p> | <p><span class="HindiText">(<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/278/22 </span>); (<span class="GRef"> चारित्रसार/158/1 </span>); (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/8/72-73/801 </span>)। </span></p> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<ol start="7"> | <ol start="7"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> कायोत्सर्ग का प्रयोजन व फल</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> कायोत्सर्ग का प्रयोजन व फल</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./662, 666 <span class="PrakritGatha">काओसग्गं इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि। वोसट्ठचत्तदेहा करंति दुक्खक्खयट्ठाए।662। काओसग्गम्हि कदे जह भिज्जदि अंगुवंगसंधीओ। तह भिज्जदि कम्मरयं काउसग्गस्स करणेण।666।</span> = <span class="HindiText">ईर्यापथ के अतिचार को सोधने के लिए (तथा उपर्युक्त सर्व अवसरों पर यथायोग्य दोषों को शोधने के लिए) मोक्षमार्ग में स्थित शरीर में ममत्व को छोड़ने वाले मुनि दुःख के नाश करने के लिए कायोत्सर्ग करते हैं।662। कायोत्सर्ग करने पर जैसे अंगोपांगों की संधियाँ भिद जाती हैं, उसी प्रकार इससे कर्मरूपी धूलि भी अलग हो जाती है।666। ( अनगारधर्मामृत/8/76/ 804 )। <br /> | मू.आ./662, 666 <span class="PrakritGatha">काओसग्गं इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि। वोसट्ठचत्तदेहा करंति दुक्खक्खयट्ठाए।662। काओसग्गम्हि कदे जह भिज्जदि अंगुवंगसंधीओ। तह भिज्जदि कम्मरयं काउसग्गस्स करणेण।666।</span> = <span class="HindiText">ईर्यापथ के अतिचार को सोधने के लिए (तथा उपर्युक्त सर्व अवसरों पर यथायोग्य दोषों को शोधने के लिए) मोक्षमार्ग में स्थित शरीर में ममत्व को छोड़ने वाले मुनि दुःख के नाश करने के लिए कायोत्सर्ग करते हैं।662। कायोत्सर्ग करने पर जैसे अंगोपांगों की संधियाँ भिद जाती हैं, उसी प्रकार इससे कर्मरूपी धूलि भी अलग हो जाती है।666। (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/8/76/ 804 </span>)। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 157: | Line 157: | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> मरण के बिना काय का त्याग कैसे?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> मरण के बिना काय का त्याग कैसे?</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/278/13 </span><span class="SanskritText"> ननु च आयुषो निरवशेषगलने आत्मा शरीरमुत्सृजति नान्यदा तत्किमुच्यते कायोत्सर्ग इति।.... अनपायित्वेऽपि शरीरे अशुचित्वं...तथानित्यत्वं, अपायित्वं, दुर्वहत्वं, असारत्वं, दुःखहेतुत्वं, शरीरगतममताहेतुकमनंतसंसारपरिभ्रमणं इत्यादिकान्संप्रधार्य दोषान्नेदं मम नाहमस्येति संकल्पवतस्तदादराभावात्कायस्य त्यागो घटत एव। यथा प्राणेभ्योऽपि प्रियतमा कृतापराधावस्थिता ह्येकस्मिंमंदिरे त्यक्तेत्युच्यते तस्यामनुरागाभावान्ममेदं भावव्यावृत्तिमपेक्ष्य एवमिहापि। किंच....शरीरापायनिराकरणानुत्सुकश्च यतिस्तस्माद्युज्यते कायत्यागः। </span>= | |||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong> आयु के निरवशेष समाप्त हो जाने पर आत्मा शरीर को छोड़ती है, अन्य समय में नहीं, तब अन्य समय में कायोत्सर्ग का कथन कैसा? <strong>उत्तर–</strong>शरीर का विछोह न होते हुए भी, इसके अशुचित्व, अनित्यत्व, विनाशशील, असारत्व, दुःखहेतुत्व, अनंतसंसार परिभ्रमणहेतुत्व इत्यादि दोषों का विचार कर ‘यह शरीर मेरा नहीं है और मैं इसका स्वामी नहीं हूँ’ ऐसा संकल्प मन में उत्पन्न हो जाने से शरीर पर प्रेम का अभाव होता है, उससे शरीर का त्याग सिद्ध होता है। जैसे प्रियतमा पत्नी से कुछ अपराध हो जाने पर, पति के साथ ही घर में रहते हुए भी, पति का प्रेम का हट जाने के कारण वह त्यागी हुई कही जाती है। इसी प्रकार यहाँ भी समझना। </li> | <li class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong> आयु के निरवशेष समाप्त हो जाने पर आत्मा शरीर को छोड़ती है, अन्य समय में नहीं, तब अन्य समय में कायोत्सर्ग का कथन कैसा? <strong>उत्तर–</strong>शरीर का विछोह न होते हुए भी, इसके अशुचित्व, अनित्यत्व, विनाशशील, असारत्व, दुःखहेतुत्व, अनंतसंसार परिभ्रमणहेतुत्व इत्यादि दोषों का विचार कर ‘यह शरीर मेरा नहीं है और मैं इसका स्वामी नहीं हूँ’ ऐसा संकल्प मन में उत्पन्न हो जाने से शरीर पर प्रेम का अभाव होता है, उससे शरीर का त्याग सिद्ध होता है। जैसे प्रियतमा पत्नी से कुछ अपराध हो जाने पर, पति के साथ ही घर में रहते हुए भी, पति का प्रेम का हट जाने के कारण वह त्यागी हुई कही जाती है। इसी प्रकार यहाँ भी समझना। </li> | ||
Line 165: | Line 165: | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.10" id="1.10"> कायोत्सर्ग के अतिचार व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.10" id="1.10"> कायोत्सर्ग के अतिचार व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/279/8 </span><span class="SanskritText"> कायोत्सर्गं प्रपन्नः स्थानदोषान् परिहरेत्। के ते इति चेदुच्यते। </span> | |||
<ol> | <ol> | ||
<li class="SanskritText"> तुरग इव कुंटीकृतपादेन अवस्थानम्, </li> | <li class="SanskritText"> तुरग इव कुंटीकृतपादेन अवस्थानम्, </li> | ||
Line 204: | Line 204: | ||
<li class="HindiText"> भील की स्त्री की भाँति अपने गुह्य प्रदेश को हाथ से ढकते हुए खड़े होना शबरीगुह्यगूहन दोष है। </li> | <li class="HindiText"> भील की स्त्री की भाँति अपने गुह्य प्रदेश को हाथ से ढकते हुए खड़े होना शबरीगुह्यगूहन दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> बेड़ी से जकड़े मनुष्य की भाँति खड़े होना शृंखलित दोष है। </li> | <li class="HindiText"> बेड़ी से जकड़े मनुष्य की भाँति खड़े होना शृंखलित दोष है। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> मद्यपायीवत् शरीर को इधर-उधर झुकाते हुए खड़े होना उन्मत्त दोष है। ऐसे ये कायोत्सर्ग के दोष हैं ( अनगारधर्मामृत/8/112-119, शेष देखें [[ आगे ]])। </span><br /> | <li><span class="HindiText"> मद्यपायीवत् शरीर को इधर-उधर झुकाते हुए खड़े होना उन्मत्त दोष है। ऐसे ये कायोत्सर्ग के दोष हैं (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/8/112-119, </span>शेष देखें [[ आगे ]])। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्रसार/156/2 </span><span class="SanskritText">व्युत्सृष्टबाहुयुगले सर्वांगचलनरहिते कायोत्सर्गेऽपि दोषाः स्युः। घोटकपादं, लतावक्रं, स्तंभावष्टंभं, कुड्याश्रितं, मालिकोद्वहनं, शबरीगुह्यगूहनं, शृंखलितं, लंबितं उत्तरितं, स्तनदृष्टिः, काकालोकनं, खलीनितं, युगकंधरं, कपित्थमुष्टिः, शीर्षप्रकंपितं, मूकसंज्ञा, अंगुलिचालनं, भ्रूक्षेपं, उन्मत्तं पिशाचं, अष्टदिगवलोकनं, ग्रीवोन्नमनं, ग्रीवावनमनं, निष्ठीवनं, अंगस्पर्शनमिति द्वात्रिंशद्दोषा भवंति।</span> = <span class="HindiText">जिसमें दोनों भुजाएँ लंबी छोड़ दी गयी हैं, चार अंगुल के अंतर से दोनों पैर एक से रक्खे हुए हैं और शरीर के अंगोपांग सब स्थिर हैं, ऐसे कायोत्सर्ग के भी 32 दोष होते हैं–घोटकपाद, लतावक्र, स्तंभावष्टंभ, कुड्याश्रित, मालिकोद्वहन, शबरीगुह्यगूहन, शृंखलित, लंबित, उत्तरित, स्तनदृष्टि, काकालोकन, खलीनित, युगकंधर, कपित्थमुष्टि, शीर्षप्रकंपित, मूकसंज्ञा, अंगुलिचालन, भ्रूक्षेप, उन्मत्त, पिशाच, पूर्व दिशावलोकन, आग्नेयदिशावलोकन, दक्षिण दिशावलोकन, नैऋत्य दिशावलोकन, पश्चिमदिशावलोकन, वायव्य दिशावलोकन, उत्तर दिशावलोकन, ईशान दिशावलोकन, ग्रीवोन्नमन, ग्रीवावनमन, निष्ठीवन और अंगस्पर्श। इनमें से कुछ के लक्षण ऊपर <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका </span>में दे दिये गये हैं, शेष के लक्षण स्पष्ट हैं। अथवा निम्न प्रकार हैं।] </span><br /> | |||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/8/115-121 </span><span class="SanskritText">लंबितं नमनं मूर्ध्न स्तस्योत्तरितमुन्नमः। उन्नमय्य स्थितिर्वक्षः स्तनदावत्स्तनोन्नतिः।115।...... शीर्षकंपनं।117। शिरः प्रकंपितं संज्ञा....।118।.....ऊर्ध्वं नयनं शिरोधेर्बहुधाप्यधः।119। निष्ठीवनं वपुःस्पर्शो न्यूनत्वं दिगवेक्षणम्। मायाप्रायास्थितिश्चित्रा वयोपेक्षा विवर्जनम्।120। व्याक्षेपासक्तचित्तत्वं कालापेक्षव्यतिक्रमः। लोभाकुलत्वं मूढत्वं पापकर्मैसर्गता ।121।</span> = </li> | |||
</ol> | </ol> | ||
<ol start="1"> <li class="HindiText"> शिर को नीचा करके खड़े होना लंबित दोष है । </li> | <ol start="1"> <li class="HindiText"> शिर को नीचा करके खड़े होना लंबित दोष है । </li> | ||
Line 230: | Line 230: | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.11" id="1.11"> वंदना के अतिचार व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.11" id="1.11"> वंदना के अतिचार व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./603-607 <span class="PrakritGatha">अणादिट्ठं च थद्धं च पविट्ठं परिपीडिदं। दोलाइयमंकुसियं तहा कच्छभरिंगियं।603। मच्छुव्वत्तं मणोदुट्ठं वेदिआबद्धमेव य। भयदोसो वभयत्तं इड्ढिगारव गारवं।604। तेणिदं पडिणिदं चावि पदुट्ठं तज्जिदं तधा। सद्दं च हीलिदं चावि तह तिवलिदकंचिदं।605। दिट्ठमदिट्ठं चावि य संगस्स करमोयणं। आलद्धमणालद्धं च हीणमुत्तरचूलियं।606। मूगं च दद्दुरं चावि चुलुलिदमपच्छिमं। बत्तीसदोसविसुद्धं किदियम्मं पउचदे।607। </span>= <span class="HindiText">अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीडित, दोलायित, अंकुशित, कच्छपरिंगित, मत्स्योद्वर्त, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भय, विभ्य, ऋद्धिगौरव, अन्य गौरव, स्तेनित, प्रतिनीत, प्रदुष्ट, तर्जित, शब्द, हीलित, त्रिवलित, कुंचित, दृष्ट, अदृष्ट, संघकरमोचन आलब्ध, अनालब्ध, हीन, उत्तरचूलिका, मूक, दर्दुर, चलुलित, इन बत्तीस दोषों से रहित विशुद्ध कृतिकर्म जो साधु करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है।603-607। ( चारित्रसार/155/3 )। </span><br /> | मू.आ./603-607 <span class="PrakritGatha">अणादिट्ठं च थद्धं च पविट्ठं परिपीडिदं। दोलाइयमंकुसियं तहा कच्छभरिंगियं।603। मच्छुव्वत्तं मणोदुट्ठं वेदिआबद्धमेव य। भयदोसो वभयत्तं इड्ढिगारव गारवं।604। तेणिदं पडिणिदं चावि पदुट्ठं तज्जिदं तधा। सद्दं च हीलिदं चावि तह तिवलिदकंचिदं।605। दिट्ठमदिट्ठं चावि य संगस्स करमोयणं। आलद्धमणालद्धं च हीणमुत्तरचूलियं।606। मूगं च दद्दुरं चावि चुलुलिदमपच्छिमं। बत्तीसदोसविसुद्धं किदियम्मं पउचदे।607। </span>= <span class="HindiText">अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीडित, दोलायित, अंकुशित, कच्छपरिंगित, मत्स्योद्वर्त, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भय, विभ्य, ऋद्धिगौरव, अन्य गौरव, स्तेनित, प्रतिनीत, प्रदुष्ट, तर्जित, शब्द, हीलित, त्रिवलित, कुंचित, दृष्ट, अदृष्ट, संघकरमोचन आलब्ध, अनालब्ध, हीन, उत्तरचूलिका, मूक, दर्दुर, चलुलित, इन बत्तीस दोषों से रहित विशुद्ध कृतिकर्म जो साधु करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है।603-607। (<span class="GRef"> चारित्रसार/155/3 </span>)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/8/98-111/822 </span><span class="SanskritGatha">अनादृतमतात्पर्यं वंदनायां मदोद्धृतिः। स्तब्धमत्यासन्नभावः प्रविष्टं परमेष्ठिनाम्।98। हस्ताभ्यां जानुनोः स्वस्य संस्पर्शः परिपीडितम्। दोलायितं चलन् कायो दोलावत् प्रत्ययोऽथवा।99। भालेंकुशवदंगुष्ठविन्यासोऽंकुशितं मतम्। निषेदुषः कच्छपवद्रिङ्रवा कच्छपरिंगितम्।100। मत्स्योद्वर्तं स्थितिर्मत्स्योद्वर्तवत् त्वेकपार्श्वतः। मनोदुष्टं खेदकृतिर्गुर्वाद्युपरि चेतसि।101। वेदिबद्धं स्तनोत्पीडो दोर्भ्यां वा जानुबंधनम्। भयं क्रिया सप्तभयाद्विभ्यत्ता विभ्यतो गुरोः।102। भक्तो गणो मे भावीति वंदारोर्ऋद्धिगौरवम्। गौरवं स्वस्य महिमन्याहारादावथ स्पृहा।103। स्याद्वंदने चोरिकया गुर्वादेः स्तेनितं मलः। प्रतिनीतं गुरोराज्ञाखंडनं प्रातिकूल्यतः।104। प्रदुष्टं वंदमानस्य द्विष्ठेऽकृत्वा क्षमां त्रिधा। तर्जितं तर्जनान्येषां स्वेन स्वस्याथ सूरिभिः।105। शब्दो जल्पक्रियान्येषामुपहासादि हेलितम्। त्रिवलितं कटिग्रीवाहृद्भंगो भृकुटिर्नवा।106। करामर्शोऽथ जांवंतः क्षेपः शीर्षस्य कुंचितम्। दृष्टं पश्यन् दिशः स्तौति पश्यन्स्वान्येषु सुष्ठु वा।107। अदृष्टं गुरुदृङ्मार्गत्यागो वाप्रतिलेखनम्। विष्टिः संघस्येयमिति धीः संघकरमोचनम्।108। उपध्यात्त्या क्रियालब्धमनालब्धं तदाशया। हीनं न्यूनाधिकं चूला चिरेणोत्तरचूलिका।109। मूको मुखांतवंदारोर्हुंकाराद्यथ कुर्वतः। दुर्दरो ध्वनिनान्येषां स्वेन च्छादयतो ध्वनीन्।110। द्वात्रिंशो वंदने गीत्या दोषः सुललिताह्वयः। इति दोषोज्झिता कार्या वंदना निर्जरार्थिना।111। </span>= | |||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"> वंदना में तत्परता या आदर का अभाव अनादृत दोष है, </span></li> | <li><span class="HindiText"> वंदना में तत्परता या आदर का अभाव अनादृत दोष है, </span></li> | ||
Line 273: | Line 273: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/8 </span><span class="SanskritText">आत्माऽत्मीयसंकल्पत्यागो व्युत्सर्गः। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/22/440/8 </span><span class="SanskritText">कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्गः। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/26/443/10 </span><span class="SanskritText">व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गस्त्यागः।</span> = | |||
<ol> | <ol> | ||
<li> <span class="HindiText">अहंकार और ममकाररूप संकल्प का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। </span></li> | <li> <span class="HindiText">अहंकार और ममकाररूप संकल्प का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। </span></li> | ||
<li class="HindiText"> कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। ( राजवार्तिक/9/22/6/621/28 ); ( तत्त्वसार/7/24 )। <br /> | <li class="HindiText"> कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/22/6/621/28 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वसार/7/24 </span>)। <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"> व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है। जिसका नाम त्याग है। ( राजवार्तिक/9/26/1/624/26 )। </span><br /> | <li><span class="HindiText"> व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है। जिसका नाम त्याग है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/26/1/624/26 </span>)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 8/3, 41/85/2 </span><span class="PrakritText">सरीराहारेसु हु मणवयणपवुत्तीओ ओसारिय ज्झेयम्मि एअग्गेण चित्तणिरोहो विओसग्गो णाम। </span>= <span class="HindiText">शरीर वआहार में मन एवं वचन की प्रवृत्तियों को हटाकर ध्येय वस्तु की ओर एकाग्रता से चित्त का निरोध करने को व्युत्सर्ग कहते हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 4, 26/61/2 </span><span class="PrakritText">झाणेण सह कायमुज्झिदूण मुहुत्त-दिवस-पक्ख-मासादिकालमच्छणं उवसग्गो णाम पायच्छित्तं। </span>= <span class="HindiText">काय का उत्सर्ग करके ध्यानपूर्वक एक मुहूर्त्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महीना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नाम का प्रायश्चित्त है। (<span class="GRef"> चारित्रसार/142/3 </span>); (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/51/695 </span>)। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/94/721 </span><span class="PrakritGatha">बाह्याभ्यंतरदोषा ये विविधा बंधहेतवः। यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्युत्सर्गो निरुच्यते।94। </span>= <span class="HindiText">बंध के हेतुभूत विविध प्रकार के बाह्य और अभ्यंतर दोषों का उत्तम प्रकार से त्याग करना, यह ‘व्युत्सर्ग’ की निरुक्ति है। </span></li> | |||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> व्युत्सर्ग तप के भेद-प्रभेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> व्युत्सर्ग तप के भेद-प्रभेद</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./406 <span class="PrakritText">दुविहो य विउसग्गो अब्भंतर बाहिरो मुणेयव्वो।406।</span><span class="HindiText"> व्युत्सर्ग दो प्रकार का है-अभ्यंतर व बाह्य। ( तत्त्वार्थसूत्र/9/26 ); ( तत्त्वसार/7/29 )। </span><br /> | मू.आ./406 <span class="PrakritText">दुविहो य विउसग्गो अब्भंतर बाहिरो मुणेयव्वो।406।</span><span class="HindiText"> व्युत्सर्ग दो प्रकार का है-अभ्यंतर व बाह्य। (<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/9/26 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वसार/7/29 </span>)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्रसार/ </span>पृष्ठ/पंक्ति <span class="SanskritText">अभ्यंतरोपधिव्युत्सर्गः स द्विविधः-यावज्जीवं, नियतकालश्चेति। (154/3)। तत्र यावज्जीवं त्रिविधः–भक्तप्रत्याख्यानेंगिनीमरणप्रायोपगमनभेदात्। (154/3)। नियतकालो द्विविधः-नित्यनैमित्तिकभेदेन। </span>(155/1)। = <span class="HindiText">अभ्यंतर उपधि का व्युत्सर्ग दो प्रकार का है–यावज्जीव व नियतकाल। तहाँ यावज्जीव व्युत्सर्ग तीन प्रकार है–भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन। नियतकाल दो प्रकार का है–नित्य व नैमित्तिक। (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/ 96-98/721 </span>); (<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/78/225/16 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> बाह्य व अभ्यंतर व्युत्सर्ग के लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> बाह्य व अभ्यंतर व्युत्सर्ग के लक्षण </strong></span><br /> | ||
मू.आ./406 <span class="SanskritText">अभ्यंतरः क्रोधादिः बाह्यः क्षेत्रादिकं द्रव्यं।406।</span> = <span class="HindiText">अभ्यंतर उपधिरूप क्रोधादि का त्याग करना अभ्यंतर व्युत्सर्ग है और बाह्य उपधि, रूप, क्षेत्र, वास्तु आदि का त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है।406। विशेष (देखें [[ ग्रंथ#2 | ग्रंथ - 2]])। </span><br /> | मू.आ./406 <span class="SanskritText">अभ्यंतरः क्रोधादिः बाह्यः क्षेत्रादिकं द्रव्यं।406।</span> = <span class="HindiText">अभ्यंतर उपधिरूप क्रोधादि का त्याग करना अभ्यंतर व्युत्सर्ग है और बाह्य उपधि, रूप, क्षेत्र, वास्तु आदि का त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है।406। विशेष (देखें [[ ग्रंथ#2 | ग्रंथ - 2]])। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/26/443/11 </span><span class="SanskritText">अनुपात्तं वास्तुधनधान्यादि बाह्योपधिः। क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यंतरोपधिः। कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वाभ्यंतरोपधित्याग इत्युच्यते।</span> = <span class="HindiText">आत्मा के एकत्व को नहीं प्राप्त हुए ऐसे वास्तु, धन और धान्य आदि बाह्य उपधि हैं और क्रोधादि आत्मभाव अभ्यंतर उपधि हैं। (इनका त्याग बाह्य व अभ्यंतर उपधि व्युत्सर्ग है)। तथा नियत काल तक या यावज्जीवन तक काय का त्याग करना भी अभ्यंतर उपधित्याग कहा जाता है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/ 26/3-4/624/30 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वसार/7/29 </span>); (<span class="GRef"> चारित्रसार/154/1 </span>); (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/7/93, 96/720 </span>)। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> चारित्रसार/155/2 </span><span class="SanskritText">नित्य आवश्यकादयः। नैमित्तिकः पार्वणी क्रिया निषद्याक्रियाद्याश्च।</span> =<span class="HindiText"> [काय संबंधी अभ्यंतर व्युत्सर्ग नियत व अनियतकाल की अपेक्षा दो प्रकार का है। तहाँ अनियतकाल व्युत्सर्ग भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन विधि से शरीर को त्यागने की अपेक्षा तीन प्रकार का है। (इन तीनों के लक्षण देखें [[ सल्लेखना#2 | सल्लेखना - 2]])। नियत काल व्युत्सर्ग नित्य व नैमित्तिक के भेद से दो प्रकार का है–(देखें [[ व्युत्सर्ग#2.2 | व्युत्सर्ग - 2.2]])] इन दोनों में से आवश्यक आदि क्रियाओं का करना नित्य है तथा पर्व के दिनों में होने वाली क्रियाएँ करना व निषद्या आदि क्रिया करना नैमित्तिक है। (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/ 7/97-98/722 </span>)। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/225/16 </span><span class="SanskritText">नियतकालो यावज्जीवं वा कायस्य त्यागोऽभ्यंतरोपधिव्युत्सर्गः। बाह्यस्त्वनेकप्रायो व्युत्सर्गः।</span> = <span class="HindiText">काय का नियत काल के लिए अथवा यावज्जीवन त्याग करना अभ्यंतरोपधि व्युत्सर्ग है। बाह्योपधि व्युत्सर्ग अनेक प्रकार का है। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 304: | Line 304: | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> व्युत्सर्गतप का प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> व्युत्सर्गतप का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/26/443/12 </span><span class="SanskritText"> निस्संगत्वनिर्भयत्वजीविताशाव्युदासाद्यर्थः। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/26/10/625/14 </span><span class="SanskritText">निसंगत्वं मिर्भयत्वं जीविताशाव्युदासः, दोषोच्छेदो, मोक्षमार्गप्रभावनापरत्वमित्ये-वमाद्यर्थो व्युत्सर्गोऽभिधीयते द्विविधः। </span>= <span class="HindiText">निःसंगत्व, निर्भयत्व, जीविताशा का त्याग, दोषोच्छेद और मोक्षमार्गप्रभावना, तत्परत्व आदि के लिए दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग करना आवश्यक है। (<span class="GRef"> चारित्रसार/166/5 </span>); (<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/7/ 225/17 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> व्युत्सर्गतप के अतिचार</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> व्युत्सर्गतप के अतिचार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/487/707/23 </span><span class="SanskritText">व्युत्सर्गातिचारः। कुतो भवति शरीरममतायामनिवृत्तिः।</span> = <span class="HindiText">शरीर पर से ममता हटाना व्युत्सर्ग तप है। परंतु ममत्व दूर नहीं करना, यह व्युत्सर्ग तप का अतिचार है। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त में अंतर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त में अंतर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/26/8/625/7 </span><span class="SanskritText">अथ मतमेतत्-प्रायश्चित्ताभ्यंतरो व्युत्सर्गस्ततः पुनस्तस्य वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्य प्रतिद्वंद्विभावात्, तस्य हि व्युत्सर्गस्यातिचारः प्रतिद्वंद्वी विद्यते, अयं पुनरनपेक्षः क्रियते इत्यस्ति विशेषः। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>प्रायश्चित्त के भेदों में व्युत्सर्ग कह दिया गया। पुनः तप के भेदों में उसे गिनाना निरर्थक है? <strong>उत्तर–</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि इनमें भेद है। प्रायश्चित्त में गिनाया गया व्युत्सर्ग, अतिचार होने पर उसकी शुद्धि के लिए किया जाता है, पर व्युत्सर्ग तप स्वयं निरपेक्षभाव से किया जाता है। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> व्युत्सर्गतप व परिग्रहत्याग व्रत में अंतर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> व्युत्सर्गतप व परिग्रहत्याग व्रत में अंतर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/6/625/1 </span><span class="SanskritText">स्यादेतत्-महाव्रतोपदेशकाले परिग्रहनिवृत्तिरुक्ता, ततः पुनरिदं वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्य धनहिरण्यवसनादिविषयत्वात्। </span><span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>महाव्रतों का उपदेश देते समय परिग्रहत्याग कह दिया गया। अब तप प्रकरण में पुनः व्युत्सर्ग कहना अनर्थक है? <strong>उत्तर–</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि परिग्रहत्याग व्रत में सोना-चाँदी आदि के त्याग का उपदेश है, अतः यह उससे पृथक् है। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> व्युत्सर्गतप व त्याग धर्म में अंतर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> व्युत्सर्गतप व त्याग धर्म में अंतर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/19/598/6 </span><span class="SanskritText">स्यान्मतम्-वक्ष्यते तपोऽभ्यंतरं षड्विधम्, तत्रोत्सर्गलक्षणेन तपसाग्रहणमस्य सिद्धमित्य-नर्थकं त्यागग्रहणमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्यान्यार्थत्वात्। तद्धि नियतकालं सर्वोत्सर्गलक्षणम्, अयं पुनस्त्यागः यथा–शक्ति अनियतकालः क्रियते इत्यस्ति भेदः। </span>=<span class="HindiText"><strong> प्रश्न–</strong>छह प्रकार के अभ्यंतर तप में उत्सर्ग लक्षण वाले तप का ग्रहण किया गया है, अतः यहाँ दस धर्मों के प्रकरण में त्यागधर्म का ग्रहण निरर्थक है? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि, वहाँ तप के प्रकरण में तो नियतकाल के लिए सर्वत्याग किया जाता है और त्याग धर्म में अनियतकाल के लिए यथाशक्ति त्याग किया जाता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/26/7/625/4 </span><span class="SanskritText">स्यादेतत्-दशविधधर्मेऽंतरीभूतस्त्याग इति पुनरिदं वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। प्रासुकनिरवद्याहारादिनिवृत्तितंत्रत्वात् तस्य।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>दश धर्मों में त्याग नाम का धर्म अंतर्भूत है, अतः यहाँ व्युत्सर्ग का व्याख्यान करना निरर्थक है? <strong>उत्तर–</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि त्याग धर्म प्रासुक औषधि व निरवद्य आहारादि का अमुक समय तक त्याग के लिए त्याग धर्म है। अतः यह उससे पृथक् है। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> |
Revision as of 13:02, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
बाहर में क्षेत्र वास्तु आदि का और अभ्यंतर में कषाय आदि का अथवा नित्य व अनियत काल के लिए शरीर का त्याग करना व्युत्सर्ग तप या व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त का अपर नाम कायोत्सर्ग है जो दैवसिक, रात्रिक, चातुर्मासिक आदि दोषों के साधनार्थ विधि पूर्वक किया जाता है। शरीर पर से ममत्व बुद्धि छोड़कर, उपसर्ग आदि को जीतता हुआ, अंतर्मुहूर्त्त या एक दिन, मास व वर्ष पर्यंत निश्चल खड़े रहना कायोत्सर्ग है।
- कायोत्सर्ग निर्देश
- कायोत्सर्ग का लक्षण
नियमसार/121 कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं। तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्विअप्पेण।121। = काय आदि परद्रव्यों में स्थिर भाव छोड़कर, जो आत्मा को निर्विकल्परूप से ध्याता है, उसे कायोत्सर्ग कहते हैं।121।
मू.आ./28 देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि। जिणगुणचिंतणजुत्तो काओसग्गो तणुविसग्गो।28। = दैवसिक निश्चित क्रियाओं में यथोक्त कालप्रमाण पर्यंत उत्तम क्षमा आदि जिनगुणों की भावना सहित देह में ममत्व को छोड़ना कायोत्सर्ग है।
राजवार्तिक/6/24/11/530/14 परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिवृत्तिः कायोत्सर्गः। = परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। ( चारित्रसार/56/3 )।
भा.आ./वि./6/32/21 देहे ममत्वनिरासः कायोत्सर्गः। = देह में ममत्व का निरास करना कायोत्सर्ग है।
यो.सा./अ./5/52 ज्ञात्वा योऽचेतनं कायं नश्वरं कर्मनिर्मितम् । न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्गं करोति सः।52। = देह को अचेतन, नश्वर व कर्मनिर्मित समझकर जो उसके पोषण आदि के अर्थ कोई कार्य नहीं करता, वह कायोत्सर्ग का धारक है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/467-468 जल्लमललित्तगत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो। मुहधोवणादि-विरओ भोयणसेज्जदिणिरवे-क्खो।467। ससरूवचिंतणरओ दुज्जणसुयणाण जो हु मज्झत्थो। देहे वि णिम्ममत्ते काओसग्गो तओ तस्स।468। = जिस मुनि का शरीर जल्ल और मल से लिप्त हो, जो दुस्सह रोग के हो जाने पर भी उसका इलाज नहीं करता हो, मुख धोना आदि शरीर के संस्कार से उदासीन हो और भोजन शय्या आदि की अपेक्षा नहीं करता हो, तथा अपने स्वरूप के चिंतन में ही लीन रहता हो, दुर्जन और सज्जन में मध्यस्थ हो और शरीर से भी ममत्व न करता हो, उस मुनि के कायोत्सर्ग नाम का तप होता है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/70 सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वयः क्रिया विद्यंते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः, स एव गुप्तिर्भवति। = सब जनों को कायसंबंधी बहुत क्रियाएँ होती हैं; उनकी निवृत्ति सो कायोत्सर्ग है। वही गुप्ति है।
देखें कृतिकर्म - 3.2 (खड़े-खड़े या बैठे-बैठे शरीर का तथा कषायों का त्याग करना कायोत्सर्ग है)।
- कायोत्सर्ग के भेद व उनके लक्षण
मू.आ./673-677 उट्ठिदउट्ठिद उट्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठ-उट्ठिदो चेव। उवविट्ठदणिविट्ठोवि य काओसग्गो चदुट्ठाणो।673। धम्मं सुक्कं च दुवे झायदि ज्झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो इह उट्ठिदउट्ठिदो णाम।674। अट्टं रुद्दं च दुवे झायदि झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो उट्ठिदणिविट्ठिदो णाम।375। धम्मं सुक्कं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काउसग्गो उवविट्ठउट्ठिदो णाम।676। अट्टं रुद्दं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काउसग्गो णिसण्णिदणिसण्णिदो णाम।677। = अत्थितात्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्ट निविष्ट, इस प्रकार कायोत्सर्ग के चार भेद हैं।673। जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ धर्म शुक्ल ध्यानों को चिंतवन करता है, वह उत्थितोत्थि है।674। जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ आर्त रौद्र ध्यानों को चिंतवन करता है, वह उत्थितनिविष्ट है।675। जो बैठे हुए धर्म व शुक्लध्यानों का चिंतवन करता है वह उपविष्टोत्थित है।676। और जो बैठा हुआ आर्त रौद्र ध्यानों का चिंतवन करता है, वह उपविष्टोपविष्ट है।677। ( अनगारधर्मामृत 8/123/833 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/278/27 उत्थितोत्थितं, उत्थितनिविष्टम्, उपविष्टोत्थितं, उपविष्टोपविष्टं इति चत्वारो विकल्पाः। धर्मे शुक्ले वा परिणतो यस्तिष्ठति तस्य कायोत्सर्गः उत्थितोत्थितो नाम। द्रव्यभावोत्थानसमन्वितत्वादुत्थानप्रकर्षः उत्थितोत्थितशब्देनोच्यते। तत्र द्रव्योत्थानं शरीरं स्थाणुवदूर्ध्वं अविचलमवस्थानं। ध्येयैकवस्तुनिष्ठता ज्ञानमयस्य भावस्य भावोत्थानं। आर्तरौद्रयोः परिणतो यस्तिष्ठति तस्य उत्थितनिषण्णो नाम कायोत्सर्गः। शरीरोत्थानादुत्थितत्वं शुभपरिणामोद्गतिरूपस्योत्थानस्याभावान्निषण्ण इत्युच्यते। अतएव विरोधाभावो भिन्ननिमित्तत्वादुत्थानासनयोः एकत्र एकदा। यस्त्वासीन एवं धर्मशुक्लध्यानपरिणतिमुपैति तस्य उत्थितनिषण्णो भवति परिणामोत्था-नात्कायानुत्थानाच्च। यस्तु निषण्णोऽशुभध्यानपरस्तस्य निषण्णनिषण्णकः। कायाशुभपरिणामाभ्यां अनुत्थानात्। = कायोत्सर्ग के उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्टोपविष्ट ऐसे चार भेद कहे हैं। धर्म व शुक्लध्यान में परिणत होकर जो खड़े होते हैं, उनका कायोत्सर्ग उत्थितोत्थित नाम वाला है। क्योंकि द्रव्य व भाव दोनों का उत्थान होने के कारण यहाँ उत्थान का प्रकर्ष है जो उत्थितोत्थित शब्द के द्वारा कहा गया है । तहाँ शरीर का खंबे के समान खड़ा रहना द्रव्योत्थान है तथा ज्ञान का एक ध्येय वस्तु में एकाग्र होकर ठहरना भावोत्थान है। आर्त और रौद्रध्यान से परिणत होकर जो खड़े होते हैं, उनका कायोत्सर्ग उत्थितनिविष्ट है। शरीर के उत्थान से उत्थित और शुभपरिणामों की उद्गतिरूप उत्थान के अभाव से निविष्ट है। शरीर व भावरूप भिन्न-भिन्न कारण होने से उत्थितावस्था और आसनावस्था में यहाँ विरोध नहीं है। जो मुनि बैठकर ही धर्म और शुक्लध्यान में लवलीन होता है, उसका उपविष्टोत्थि कायोत्सर्ग है, क्योंकि उसके परिणाम तो खड़े हैं, पर शरीर नहीं खड़ा है। जो मुनि बैठकर अशुभध्यान कर रहा है, वह निषण्णनिषण्ण कायोत्सर्ग युक्त समझना चाहिए। क्योंकि वह शरीर से बैठा हुआ है और परिणामों से भी उत्थानशील नहीं है।
- कायोत्सर्ग बैठे व खड़े दोनों प्रकार से होता है ।–देखें व्युत्सर्ग - 1.2।
- मानसिक व कायिक कायोत्सर्ग विधि
मू.आ./गा.वोसरिदबाहुजुगलो चदुरंगुलअंतरेण समपादो। सव्वंगचलणरहिओ काउसग्गो विसुद्धो दु।650। जे केई उवसग्गा देव माणुसतिरिक्खचेदणिया। ते सव्वे अधिआसे काओसग्गे ठिदो संते।655। काओसग्गम्मि ठिदो चिंचिदु इरियावधस्स अतिचारं। तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च चिंतेज्जो।664। = जिसने दोनों बाहु लंबी की हैं, चार अंगुल के अंतर सहित समपाद हैं तथा हाथ आदि अंगों का चालन नहीं है, वह शुद्ध कायोत्सर्ग है।650। देव, मनुष्य, तिर्यंच व अचेतनकृत जितने भी उपसर्ग हैं, सबको कायोत्सर्ग में स्थित हुआ मैं अच्छी तरह सहन करता हूँ।655। कायोत्सर्ग में तिष्ठा ईर्यापथ के अतिचार के नाश को चिंतवन करता मुनि उन सब नियमों को समाप्त कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिंतवन करो।664। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/278/20 ); ( अनगारधर्मामृत/8/76/804 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/509/729/16 मनसा शरीरे ममेदंभावनिवृत्तिः मानसः कायोत्सर्गः। प्रलंबभुजस्य, चतुरंगुलमात्रपा-दांतरस्य निश्चलावस्थानं कायेन कायोत्सर्गः। = मन से शरीर में ममेदं बुद्धि की निवृत्ति मानस कायोत्सर्ग है और (‘मैं शरीर का त्याग करता हूँ–ऐसा वचनोच्चार करना वचनकृत कायोत्सर्ग है’)। बाहु नीचे छोड़कर चार अंगुलमात्र अंतर दोनों पाँवों में रखकर निश्चल खड़े होना, वह शरीर के द्वारा कायोत्सर्ग है।
अनगारधर्मामृत/9/22-24/866 जिनेंद्रमुद्रया गाथां ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे। हृत्पंकजे प्रवेश्यांतर्निरुध्य मनसानिलम्।22। पृथग् द्विद्वयेकगाथांशचिंतांते रेचयेच्छनैः। नवकृत्वः प्रयोक्तैवं दहत्यंहः सुधीर्महत्।23। वाचाप्युपांशु व्युत्सर्गे कार्यो जप्यः स वाचिकः। पुण्यं शतगुणं चैत्तः सहस्रगुणमावहेत्।24। = व्युत्सर्ग के समय अपनी प्राणवायु को भीतर प्रविष्ट करके, उसे आनंद से विकसित हृदयकमल में रोककर, जिनेंद्र मुद्रा के द्वारा णमोकार मंत्र की गाथा का ध्यान करना चाहिए।23। गाथा के दो-दो और एक अंश को पृथक्-पृथक् चिंतवन करके अंत में उस प्राणवायु को धीरे-धीरे बाहर निकालना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्रयोग करने वाले के चिरसंचित महान् कर्मराशि भस्म हो जाती है।23। प्राणायाम में असमर्थ साधु वचन के द्वारा भी उस मंत्र का जाप कर सकता है, परंतु उसे अन्य कोई न सुने, इस प्रकार करना चाहिए। परंतु वाचनिक और मानसिक जपों के फल में महान् अंतर है। दंडकों के उच्चारण की अपेक्षा सौ गुना पुण्य संचय वाचनिक जाप में होता है और हजार गुणा मानसिक जाप में।24।
- कायोत्सर्ग के योग्य दिशा व क्षेत्र
भगवती आराधना/550/763 पाचीणोदीचिमुहो चेदिमहुत्तो व कुणदि एगंते। आलोयणपत्तीयं काउसग्गं अणाबाधे।550। = पूर्व अथवा उत्तर दिशा की तरफ मुँह करके किंवा जिनप्रतिमा की तरफ मुँह करके आलोचना के लिए क्षपक कायोत्सर्ग करता है। यह कायोत्सर्ग वह एकांत स्थान में, अबाधित स्थान में अर्थात् जहाँ दूसरों का आना-जाना न हो, ऐसे अमार्ग में करता है।
- कायोत्सर्ग के योग्य अवसर
मू.आ./663, 665 भत्ते पाणे गामंतरे य चदुमासिवरिसचरिमेसु। णाऊण ठंति धीरा घणिदं दुक्खक्खयट्ठाए।663। तह दिवसियरादियपक्खियचदुमासिवरिसचरिमेसु। तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च झायेज्जो।665। = भक्त, पान, ग्रामांतर, चातुर्मासिक, वार्षिक, उत्तमार्थ, इनको जानकर धीरपुरुष अतिशयकर दुःख के क्षय के अर्थ कायोत्सर्ग में तिष्ठते हैं।663। इसी प्रकार दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक व उत्तमार्थ इन सब नियमों को पूर्ण कर धर्मध्यान शुक्लध्यान को ध्यावे।665।
देखें अगला शीर्षक –(हिंसा आदि पापों के अतिचारों में भक्त पान व गोचरी के पश्चात्, तीर्थ व निषद्यका आदि की वंदनार्थ जाने पर, लघु व दीर्घ शंका करने पर, ग्रंथ को आरंभ करते समय व पूर्ण हो जाने पर, ईर्यापथ के दोषों की निवृत्ति के अर्थ कायोत्सर्ग किया जाता है।)
- यथा अवसर कायोत्सर्ग के काल का प्रमाण
मू.आ./656-661 संवरच्छरमुक्कस्सं भिण्णमुहुत्तं जहण्णयं होदि। सेसा काओसग्गा होंति अणेगेसु ठाणेसु।656। अट्ठसदं देवसियं कल्लद्धं पक्खियं च तिण्णिसया। उस्सासा कायव्वा णियमंता अपमत्तेण।657। चादुम्मासे चउरो सदाइं संवत्थरे य पंचसदा। काओसग्गुस्सासा पंचसु ठाणेसु णादव्वा।658। पाणिवह मुसावाए अदत्त मेहुण परिग्गहे चे य। अट्ठसदं उस्सासा काओसग्गम्हि कादव्वा।659। भत्ते पाणे गामंतरे य अरहहंत समणसेज्जासु। उच्चारेपस्सवणे पणवीसं होंति उस्सासा।660। उद्देसे णिद्देसे सज्झाए वंदणेय परिधाणे। सत्तावीसुस्सासा काओसग्गम्हि कादव्वा।661। = कायोत्सर्ग एक वर्ष का उत्कृष्ट और अंतर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य होता है। शेष कायोत्सर्ग दिन-रात्रि आदि के भेद से बहुत हैं।656।
- कायोत्सर्ग का लक्षण
0 |
अवसर |
उच्छवास |
1. |
दैवसिक प्रतिक्र. |
108 |
2. |
रात्रिक प्रतिक्र. |
54 |
3. |
पाक्षिक प्रतिक्र. |
300 |
4. |
चातुर्मासिक प्रतिक्र. |
400 |
5. |
वार्षिक प्रतिक्र. |
500 |
6. |
हिंसादि रूप अतिचारों में |
108 |
7. |
गोचरी से आने पर |
25 |
8. |
निर्वाण भूमि |
25 |
9. |
अर्हंत शय्या |
25 |
10. |
अर्हंत निषद्यका |
25 |
11. |
श्रमण शय्या |
25 |
12. |
लघु व दीर्घ शंका |
25 |
13. |
ग्रंथ के आरंभ में |
27 |
14. |
ग्रंथ की समाप्ति |
27 |
15. |
वंदना |
27 |
16. |
अशुभ परिणाम |
27 |
17 |
कायोत्सर्ग के श्वास भूल जाने पर |
8-अधिक |
नोट–सर्व प्रतिक्रमणों में यह कायोत्सर्ग वीर भक्ति के पश्चात् किया जाता है। |
( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/278/22 ); ( चारित्रसार/158/1 ); ( अनगारधर्मामृत/8/72-73/801 )।
- कायोत्सर्ग का प्रयोजन व फल
मू.आ./662, 666 काओसग्गं इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि। वोसट्ठचत्तदेहा करंति दुक्खक्खयट्ठाए।662। काओसग्गम्हि कदे जह भिज्जदि अंगुवंगसंधीओ। तह भिज्जदि कम्मरयं काउसग्गस्स करणेण।666। = ईर्यापथ के अतिचार को सोधने के लिए (तथा उपर्युक्त सर्व अवसरों पर यथायोग्य दोषों को शोधने के लिए) मोक्षमार्ग में स्थित शरीर में ममत्व को छोड़ने वाले मुनि दुःख के नाश करने के लिए कायोत्सर्ग करते हैं।662। कायोत्सर्ग करने पर जैसे अंगोपांगों की संधियाँ भिद जाती हैं, उसी प्रकार इससे कर्मरूपी धूलि भी अलग हो जाती है।666। ( अनगारधर्मामृत/8/76/ 804 )।
- कायोत्सर्ग व धर्मध्यान में अंतर–देखें धर्मध्यान - 3।
- कायोत्सर्ग व कायगुप्ति में अंतर–देखें धर्मध्यान - 3।
- कायोत्सर्ग शक्ति अनुसार करना चाहिए
मू. आ. /667, 671-672 बलवीरियमासेज्ज य खेत्ते काले सरीरसंहडणं। काओसग्गं कुज्जा इमे दु दोसे परिहरंतो।667। णिक्कूडं सविसेसं बलाणुरूवं वयाणुरूवं च। काओसग्गं धीरा करंति दुक्खक्खयट्ठाए।671। जो पुण तीसदिसरिसो सत्तरिवरिसेण पारणायसमो। विसमो य कूडवादी णिव्विण्णाणी य सो य जड़ो।672। = बल और आत्म शक्ति का आश्रय कर क्षेत्र, काल और संहनन इनके बल की अपेक्षा कर कायोत्सर्ग के कहे जाने वाले दोषों का त्याग करता हुआ कायोत्सर्ग करे।667। मायाचारी से रहित (देखें आगे इसके अतिचार ) विशेषकर सहित, अपनी शक्ति के अनुसार, बाल आदि अवस्था के अनुकूल धीर पुरुष दुःख के क्षय के लिए कात्योसर्ग करते हैं।671। जो तीस वर्ष प्रमाण यौवन अवस्थावाला समर्थ साधु 70 वर्ष वाले असक्त वृद्ध के साथ कायोत्सर्ग की पूर्णता करके समान रहता है वृद्ध की बराबरी करता है, वह साधु शांत रूप नहीं है, मायाचारी है, विज्ञानरहित है, चरित्ररहित है और मूर्ख है।672।
- मरण के बिना काय का त्याग कैसे?
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/278/13 ननु च आयुषो निरवशेषगलने आत्मा शरीरमुत्सृजति नान्यदा तत्किमुच्यते कायोत्सर्ग इति।.... अनपायित्वेऽपि शरीरे अशुचित्वं...तथानित्यत्वं, अपायित्वं, दुर्वहत्वं, असारत्वं, दुःखहेतुत्वं, शरीरगतममताहेतुकमनंतसंसारपरिभ्रमणं इत्यादिकान्संप्रधार्य दोषान्नेदं मम नाहमस्येति संकल्पवतस्तदादराभावात्कायस्य त्यागो घटत एव। यथा प्राणेभ्योऽपि प्रियतमा कृतापराधावस्थिता ह्येकस्मिंमंदिरे त्यक्तेत्युच्यते तस्यामनुरागाभावान्ममेदं भावव्यावृत्तिमपेक्ष्य एवमिहापि। किंच....शरीरापायनिराकरणानुत्सुकश्च यतिस्तस्माद्युज्यते कायत्यागः। =- प्रश्न– आयु के निरवशेष समाप्त हो जाने पर आत्मा शरीर को छोड़ती है, अन्य समय में नहीं, तब अन्य समय में कायोत्सर्ग का कथन कैसा? उत्तर–शरीर का विछोह न होते हुए भी, इसके अशुचित्व, अनित्यत्व, विनाशशील, असारत्व, दुःखहेतुत्व, अनंतसंसार परिभ्रमणहेतुत्व इत्यादि दोषों का विचार कर ‘यह शरीर मेरा नहीं है और मैं इसका स्वामी नहीं हूँ’ ऐसा संकल्प मन में उत्पन्न हो जाने से शरीर पर प्रेम का अभाव होता है, उससे शरीर का त्याग सिद्ध होता है। जैसे प्रियतमा पत्नी से कुछ अपराध हो जाने पर, पति के साथ ही घर में रहते हुए भी, पति का प्रेम का हट जाने के कारण वह त्यागी हुई कही जाती है। इसी प्रकार यहाँ भी समझना।
- और भी दूसरी बात यह है कि शरीर के अपाय के कारण को हटाने में यति निरुत्सुक रहते हैं, इसलिए उनका कायत्याग योग्य ही है।
- कायोत्सर्ग के अतिचार व उनके लक्षण
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/279/8 कायोत्सर्गं प्रपन्नः स्थानदोषान् परिहरेत्। के ते इति चेदुच्यते।- तुरग इव कुंटीकृतपादेन अवस्थानम्,
- लतेवेतस्ततश्चलतोऽवस्थानं,
- स्तंभवत्स्तब्धशरीरं कृत्वा स्थानं,
- स्तंभोपाश्रयेण वा कुड्याश्रयेण वा मालावलग्नशिरसा वावस्थानम्,
- लंबिताधरतया, स्तनगतदृष्ट्या वायस इव इतस्ततो नयनोद्वर्तनं कृत्वावस्थानम्,
- खलीनावपीडितमुखहय इव मुखचालनं संपादयतोऽवस्थानं,
- युगावष्टब्धबलीवर्द्द इव शिरोऽधः पातयता,
- कपित्थफलग्राहीव विकाशिकरतलं, संकुचितांगुलिपंचकं वा कृत्वा,
- शिरश्चालनं कुर्वन्,
- मूक इव हुंकारं संपाद्यावस्थानं,
- मूक इव नासिकया वस्तूपदर्शयता वा,
- अंगुलिस्फोटनं,
- भ्रूनर्तनं वा कृत्वा,
- शबरवधूरिव स्वकौपीनदेशाच्छादनपुरोगं,
- शृंखलाबद्धपाद इवावस्थानं,
- पीतमदिर इव परवशगतशरीरो वा भूत्वावस्थानं इत्यमी दोषाः। =
- मुनियों को उत्थित कायोत्सर्ग के दोषों का त्याग करना चाहिए। उन दोषों का स्वरूप इस प्रकार है–
- जैसे घोड़ा अपना एक पाँव अकड़ लँगड़ा करके खड़ा हो जाता है वैसे खड़ा होना घोटकपाद दोष है।
- बेल की भाँति इधर-उधर हिलना लतावक्र दोष है।
- स्तंभवत् शरीर अकड़ाकर खड़े होना स्तंभस्थिति दोष है।
- खंबे के आश्रय स्तंभावष्टंभ।
- भित्ति के आधार से कुड्याश्रित।
- अथवा मस्तक ऊपर करके किसी पदार्थ का आश्रय देकर खड़ा होना मालिकोद्वहन दोष है।
- अधरोष्ठ लंबा करके खड़े होना या,
- स्तन की ओर दृष्टि देकर खड़े होना स्तन दृष्टि।
- कौवे की भाँति दृष्टि को इतस्ततः फेंकते हुए खड़े होना काकावलोकन दोष है।
- लगाम से पीड़ित घोड़ेवत् मुख को हिलाते हुए खड़े होना खलीनित दोष है।
- जैसे बैल अपने कंधे से जूये की मान नीचे करता है, उस पर कंधे झुकाते हुए खड़ा होना युगकंधर दोष है।
- कैथ का फल पकड़ने वाले मनुष्य की भाँति हाथ का तलभाग पसारकर या पाँचों अंगुली सिकोड़कर अर्थात् मुट्ठी बाँधकर खड़े होना कपित्थमुष्टि है। सिर को हिलाते हुए खड़े होना सिरचालन दोष है।
- गूंगे की भाँति हुंकार करते हुए खड़े होना, अंगुली से नाक या किसी वस्तु की ओर संकेत करते हुए खड़े होना मूकसंज्ञा दोष है।
- अँगुली चलाना या चुटकी बजाना अंगुलिचालन है।
- भौंह टेढ़ी करना या नचाना भ्रूक्षेप दोष है।
- भील की स्त्री की भाँति अपने गुह्य प्रदेश को हाथ से ढकते हुए खड़े होना शबरीगुह्यगूहन दोष है।
- बेड़ी से जकड़े मनुष्य की भाँति खड़े होना शृंखलित दोष है।
- मद्यपायीवत् शरीर को इधर-उधर झुकाते हुए खड़े होना उन्मत्त दोष है। ऐसे ये कायोत्सर्ग के दोष हैं ( अनगारधर्मामृत/8/112-119, शेष देखें आगे )।
चारित्रसार/156/2 व्युत्सृष्टबाहुयुगले सर्वांगचलनरहिते कायोत्सर्गेऽपि दोषाः स्युः। घोटकपादं, लतावक्रं, स्तंभावष्टंभं, कुड्याश्रितं, मालिकोद्वहनं, शबरीगुह्यगूहनं, शृंखलितं, लंबितं उत्तरितं, स्तनदृष्टिः, काकालोकनं, खलीनितं, युगकंधरं, कपित्थमुष्टिः, शीर्षप्रकंपितं, मूकसंज्ञा, अंगुलिचालनं, भ्रूक्षेपं, उन्मत्तं पिशाचं, अष्टदिगवलोकनं, ग्रीवोन्नमनं, ग्रीवावनमनं, निष्ठीवनं, अंगस्पर्शनमिति द्वात्रिंशद्दोषा भवंति। = जिसमें दोनों भुजाएँ लंबी छोड़ दी गयी हैं, चार अंगुल के अंतर से दोनों पैर एक से रक्खे हुए हैं और शरीर के अंगोपांग सब स्थिर हैं, ऐसे कायोत्सर्ग के भी 32 दोष होते हैं–घोटकपाद, लतावक्र, स्तंभावष्टंभ, कुड्याश्रित, मालिकोद्वहन, शबरीगुह्यगूहन, शृंखलित, लंबित, उत्तरित, स्तनदृष्टि, काकालोकन, खलीनित, युगकंधर, कपित्थमुष्टि, शीर्षप्रकंपित, मूकसंज्ञा, अंगुलिचालन, भ्रूक्षेप, उन्मत्त, पिशाच, पूर्व दिशावलोकन, आग्नेयदिशावलोकन, दक्षिण दिशावलोकन, नैऋत्य दिशावलोकन, पश्चिमदिशावलोकन, वायव्य दिशावलोकन, उत्तर दिशावलोकन, ईशान दिशावलोकन, ग्रीवोन्नमन, ग्रीवावनमन, निष्ठीवन और अंगस्पर्श। इनमें से कुछ के लक्षण ऊपर भगवती आराधना / विजयोदया टीका में दे दिये गये हैं, शेष के लक्षण स्पष्ट हैं। अथवा निम्न प्रकार हैं।]
अनगारधर्मामृत/8/115-121 लंबितं नमनं मूर्ध्न स्तस्योत्तरितमुन्नमः। उन्नमय्य स्थितिर्वक्षः स्तनदावत्स्तनोन्नतिः।115।...... शीर्षकंपनं।117। शिरः प्रकंपितं संज्ञा....।118।.....ऊर्ध्वं नयनं शिरोधेर्बहुधाप्यधः।119। निष्ठीवनं वपुःस्पर्शो न्यूनत्वं दिगवेक्षणम्। मायाप्रायास्थितिश्चित्रा वयोपेक्षा विवर्जनम्।120। व्याक्षेपासक्तचित्तत्वं कालापेक्षव्यतिक्रमः। लोभाकुलत्वं मूढत्वं पापकर्मैसर्गता ।121। =
- शिर को नीचा करके खड़े होना लंबित दोष है ।
- शिर को ऊपर को उठाकर खड़े होना उत्तरित दोष है।
- बालक को दूध पिलाने को उद्यत स्त्रीवत् वक्षःस्थल के स्तनभाग को ऊपर उठा कर खड़े होना स्तनोन्नति दोष है।
- कायोत्सर्ग के समय शिर हिलाना शीर्षप्रकंपित,
- ग्रीवा को ऊपर उठाना ग्रीवोर्ध्वनयन।
- ग्रीवा को नीचे की तरफ झुकाना ग्रीवाधोनयन या ग्रीवावनमन दोष है।115-119।
- थूकना आदि निष्ठीवन।
- शरीर को इधर-उधर स्पर्श करना वपुःस्पर्श।
- कायोत्सर्ग के योग्य प्रमाण से कम काल तक करना हीन या न्यून।
- आठों दिशाओं की तरफ देखना दिगवलोकन।
- लोगों को आश्चर्योत्पादक ढंग से खड़े होना मायाप्रायास्थिति।
- और वृद्धावस्था के कारण कायोत्सर्ग को छोड़ देना वयोपेक्षाविवर्जन नामक दोष है।120।
- मन में विक्षेप होना या चलायमान होना व्याक्षेपासक्तचित्तता।
- समय की कमी के कारण कायोत्सर्ग के अंशों को छोड़ देना कालापेक्ष व्यतिक्रम।
- लोभ वश चित्त में विक्षेप होना लोभाकुलता।
- कर्त्तव्य अकर्त्तव्य के विवेक से शून्य होना मूढ़ता और कायोत्सर्ग के समय हिंसादि के परिणामों का उत्कर्ष होना पापकर्मैकसर्गता नामक दोष है।121।
- वंदना के अतिचार व उनके लक्षण
मू.आ./603-607 अणादिट्ठं च थद्धं च पविट्ठं परिपीडिदं। दोलाइयमंकुसियं तहा कच्छभरिंगियं।603। मच्छुव्वत्तं मणोदुट्ठं वेदिआबद्धमेव य। भयदोसो वभयत्तं इड्ढिगारव गारवं।604। तेणिदं पडिणिदं चावि पदुट्ठं तज्जिदं तधा। सद्दं च हीलिदं चावि तह तिवलिदकंचिदं।605। दिट्ठमदिट्ठं चावि य संगस्स करमोयणं। आलद्धमणालद्धं च हीणमुत्तरचूलियं।606। मूगं च दद्दुरं चावि चुलुलिदमपच्छिमं। बत्तीसदोसविसुद्धं किदियम्मं पउचदे।607। = अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीडित, दोलायित, अंकुशित, कच्छपरिंगित, मत्स्योद्वर्त, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भय, विभ्य, ऋद्धिगौरव, अन्य गौरव, स्तेनित, प्रतिनीत, प्रदुष्ट, तर्जित, शब्द, हीलित, त्रिवलित, कुंचित, दृष्ट, अदृष्ट, संघकरमोचन आलब्ध, अनालब्ध, हीन, उत्तरचूलिका, मूक, दर्दुर, चलुलित, इन बत्तीस दोषों से रहित विशुद्ध कृतिकर्म जो साधु करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है।603-607। ( चारित्रसार/155/3 )।
अनगारधर्मामृत/8/98-111/822 अनादृतमतात्पर्यं वंदनायां मदोद्धृतिः। स्तब्धमत्यासन्नभावः प्रविष्टं परमेष्ठिनाम्।98। हस्ताभ्यां जानुनोः स्वस्य संस्पर्शः परिपीडितम्। दोलायितं चलन् कायो दोलावत् प्रत्ययोऽथवा।99। भालेंकुशवदंगुष्ठविन्यासोऽंकुशितं मतम्। निषेदुषः कच्छपवद्रिङ्रवा कच्छपरिंगितम्।100। मत्स्योद्वर्तं स्थितिर्मत्स्योद्वर्तवत् त्वेकपार्श्वतः। मनोदुष्टं खेदकृतिर्गुर्वाद्युपरि चेतसि।101। वेदिबद्धं स्तनोत्पीडो दोर्भ्यां वा जानुबंधनम्। भयं क्रिया सप्तभयाद्विभ्यत्ता विभ्यतो गुरोः।102। भक्तो गणो मे भावीति वंदारोर्ऋद्धिगौरवम्। गौरवं स्वस्य महिमन्याहारादावथ स्पृहा।103। स्याद्वंदने चोरिकया गुर्वादेः स्तेनितं मलः। प्रतिनीतं गुरोराज्ञाखंडनं प्रातिकूल्यतः।104। प्रदुष्टं वंदमानस्य द्विष्ठेऽकृत्वा क्षमां त्रिधा। तर्जितं तर्जनान्येषां स्वेन स्वस्याथ सूरिभिः।105। शब्दो जल्पक्रियान्येषामुपहासादि हेलितम्। त्रिवलितं कटिग्रीवाहृद्भंगो भृकुटिर्नवा।106। करामर्शोऽथ जांवंतः क्षेपः शीर्षस्य कुंचितम्। दृष्टं पश्यन् दिशः स्तौति पश्यन्स्वान्येषु सुष्ठु वा।107। अदृष्टं गुरुदृङ्मार्गत्यागो वाप्रतिलेखनम्। विष्टिः संघस्येयमिति धीः संघकरमोचनम्।108। उपध्यात्त्या क्रियालब्धमनालब्धं तदाशया। हीनं न्यूनाधिकं चूला चिरेणोत्तरचूलिका।109। मूको मुखांतवंदारोर्हुंकाराद्यथ कुर्वतः। दुर्दरो ध्वनिनान्येषां स्वेन च्छादयतो ध्वनीन्।110। द्वात्रिंशो वंदने गीत्या दोषः सुललिताह्वयः। इति दोषोज्झिता कार्या वंदना निर्जरार्थिना।111। =- वंदना में तत्परता या आदर का अभाव अनादृत दोष है,
- आठ मदों के वश होकर अहंकार सहित वंदना करना स्तब्ध दोष है,
- अर्हंतादि परमेष्ठियों के अत्यंत निकट होकर वंदना करना प्रविष्ट दोष है,
- वंदना के समय जंघाओं का स्पर्श करना परिपीडित दोष है,
- हिंडोले की भाँति शरीर का अथवा मन का डोलना दोलायित दोष है।98-99।
- अंकुश की भाँति हाथ को मस्तक पर रखना अंकुशित दोष है,
- बैठे-बैठे इधर उधर रींगना कच्छपरिंगित दोष है।100।
- मछली की भाँति कटिभाग को ऊपर को निकालना मत्स्योद्वर्त दोष है।
- आचार्य आदि के प्रति आक्षेप या खिन्नता होना मनोदुष्ट दोष है।101।
- अपनी छाती के स्तनभाग मर्दन करना अथवा दोनों भुजाओं से दोनों घुटने बाँधकर बैठना वेदिकाबद्ध दोष है,
- सप्तभय युक्त होकर वंदनादि करना भयदोष,
- आचार्य आदि के भय से करना विभ्य दोष है।102।
- चतुः प्रकार संघ को अपना भक्त बनाने के अभिप्राय से वंदनादि करना ऋद्धि गौरव,
- भोजन, उपकरण आदि की चाह से करना गौरव दोष है।103।
- गुरुजनों से छिपाकर करना स्तेनित,
- और गुरु की आज्ञा से प्रतिकूल करना प्रतिनीत दोष है।104।
- तीनों योगों से द्वेषी को क्षमा धारण कराये बिना या उसे क्षमा किये बिना करना प्रदुष्ट और
- तर्जनी अंगुली के द्वारा अन्य साधुओं को भय दिखाते हुए अथवा आचार्य आदि से स्वयं तर्जित होकर वंदनादि करना तर्जित दोष है।105।
- वंदना के बीच में बातचीत करना शब्द,
- वंदना के समय दूसरों को धक्का आदि देना या उनकी हँसी आदि करना हेलित,
- कटि ग्रीवा मस्तक आदि पर तीन बल पड़ जाना त्रिवलित दोष है।106।
- दोनों घुटनों के बीच में सिर रखना कुंचित,
- दिशाओं की तरफ देखना अथवा दूसरे उसकी ओर देखें तब अधिक उत्साह से स्तुति आदि करना दृष्ट दोष है।107।
- गुरु की दृष्टि से ओझल होकर अथवा पीछे से प्रतिलेखना न करके वंदनादि करना अदृष्ट,
- ‘संघ जबरदस्ती मुझसे वंदनादि करता है’ ऐसा विचार आना ‘संघकर मोचन’ दोष है।108।
- उपकरणादि का लोभ हो जाने पर क्रिया करना आलब्ध,
- उपकरणादि की आशा से करना अनालब्ध,
- मात्रा प्रमाण की अपेक्षा हीन अधिक करना हीन,
- वंदना को थोड़ी ही देर में ही समाप्त करके उसकी चूलिका रूप आलोचनादि को अधिक समय तक करना उत्तर चूलिका दोष है।109।
- मन मन में पढ़ना ताकि दूसरा न सुने अथवा वंदना करते-करते बीच-बीच में इशारे आदि करना मूक दोष है,
- इतनी जोर-जोर से पाठ का उच्चारण करना जिससे दूसरों को बाधा हो सो दुर्दर दोष है।110।
- पाठ को पंचम स्वर में गा-गाकर बोलना सुललित या चलुलित दोष है। इस प्रकार ये वंदना के 32 दोष कहे।111।
- व्युत्सर्ग तप या प्रायश्चित्त निर्देश
- व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/8 आत्माऽत्मीयसंकल्पत्यागो व्युत्सर्गः।
सर्वार्थसिद्धि/9/22/440/8 कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्गः।
सर्वार्थसिद्धि/9/26/443/10 व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गस्त्यागः। =- अहंकार और ममकाररूप संकल्प का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है।
- कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। ( राजवार्तिक/9/22/6/621/28 ); ( तत्त्वसार/7/24 )।
- व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है। जिसका नाम त्याग है। ( राजवार्तिक/9/26/1/624/26 )।
धवला 8/3, 41/85/2 सरीराहारेसु हु मणवयणपवुत्तीओ ओसारिय ज्झेयम्मि एअग्गेण चित्तणिरोहो विओसग्गो णाम। = शरीर वआहार में मन एवं वचन की प्रवृत्तियों को हटाकर ध्येय वस्तु की ओर एकाग्रता से चित्त का निरोध करने को व्युत्सर्ग कहते हैं।
धवला 13/5, 4, 26/61/2 झाणेण सह कायमुज्झिदूण मुहुत्त-दिवस-पक्ख-मासादिकालमच्छणं उवसग्गो णाम पायच्छित्तं। = काय का उत्सर्ग करके ध्यानपूर्वक एक मुहूर्त्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महीना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नाम का प्रायश्चित्त है। ( चारित्रसार/142/3 ); ( अनगारधर्मामृत/7/51/695 )।
अनगारधर्मामृत/7/94/721 बाह्याभ्यंतरदोषा ये विविधा बंधहेतवः। यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्युत्सर्गो निरुच्यते।94। = बंध के हेतुभूत विविध प्रकार के बाह्य और अभ्यंतर दोषों का उत्तम प्रकार से त्याग करना, यह ‘व्युत्सर्ग’ की निरुक्ति है।
- व्युत्सर्ग तप के भेद-प्रभेद
मू.आ./406 दुविहो य विउसग्गो अब्भंतर बाहिरो मुणेयव्वो।406। व्युत्सर्ग दो प्रकार का है-अभ्यंतर व बाह्य। ( तत्त्वार्थसूत्र/9/26 ); ( तत्त्वसार/7/29 )।
चारित्रसार/ पृष्ठ/पंक्ति अभ्यंतरोपधिव्युत्सर्गः स द्विविधः-यावज्जीवं, नियतकालश्चेति। (154/3)। तत्र यावज्जीवं त्रिविधः–भक्तप्रत्याख्यानेंगिनीमरणप्रायोपगमनभेदात्। (154/3)। नियतकालो द्विविधः-नित्यनैमित्तिकभेदेन। (155/1)। = अभ्यंतर उपधि का व्युत्सर्ग दो प्रकार का है–यावज्जीव व नियतकाल। तहाँ यावज्जीव व्युत्सर्ग तीन प्रकार है–भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन। नियतकाल दो प्रकार का है–नित्य व नैमित्तिक। ( अनगारधर्मामृत/7/ 96-98/721 ); ( भावपाहुड़ टीका/78/225/16 )।
- बाह्य व अभ्यंतर व्युत्सर्ग के लक्षण
मू.आ./406 अभ्यंतरः क्रोधादिः बाह्यः क्षेत्रादिकं द्रव्यं।406। = अभ्यंतर उपधिरूप क्रोधादि का त्याग करना अभ्यंतर व्युत्सर्ग है और बाह्य उपधि, रूप, क्षेत्र, वास्तु आदि का त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है।406। विशेष (देखें ग्रंथ - 2)।
सर्वार्थसिद्धि/9/26/443/11 अनुपात्तं वास्तुधनधान्यादि बाह्योपधिः। क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यंतरोपधिः। कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वाभ्यंतरोपधित्याग इत्युच्यते। = आत्मा के एकत्व को नहीं प्राप्त हुए ऐसे वास्तु, धन और धान्य आदि बाह्य उपधि हैं और क्रोधादि आत्मभाव अभ्यंतर उपधि हैं। (इनका त्याग बाह्य व अभ्यंतर उपधि व्युत्सर्ग है)। तथा नियत काल तक या यावज्जीवन तक काय का त्याग करना भी अभ्यंतर उपधित्याग कहा जाता है। ( राजवार्तिक/9/ 26/3-4/624/30 ); ( तत्त्वसार/7/29 ); ( चारित्रसार/154/1 ); ( अनगारधर्मामृत/7/93, 96/720 )।
चारित्रसार/155/2 नित्य आवश्यकादयः। नैमित्तिकः पार्वणी क्रिया निषद्याक्रियाद्याश्च। = [काय संबंधी अभ्यंतर व्युत्सर्ग नियत व अनियतकाल की अपेक्षा दो प्रकार का है। तहाँ अनियतकाल व्युत्सर्ग भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन विधि से शरीर को त्यागने की अपेक्षा तीन प्रकार का है। (इन तीनों के लक्षण देखें सल्लेखना - 2)। नियत काल व्युत्सर्ग नित्य व नैमित्तिक के भेद से दो प्रकार का है–(देखें व्युत्सर्ग - 2.2)] इन दोनों में से आवश्यक आदि क्रियाओं का करना नित्य है तथा पर्व के दिनों में होने वाली क्रियाएँ करना व निषद्या आदि क्रिया करना नैमित्तिक है। ( अनगारधर्मामृत/ 7/97-98/722 )।
भावपाहुड़ टीका/225/16 नियतकालो यावज्जीवं वा कायस्य त्यागोऽभ्यंतरोपधिव्युत्सर्गः। बाह्यस्त्वनेकप्रायो व्युत्सर्गः। = काय का नियत काल के लिए अथवा यावज्जीवन त्याग करना अभ्यंतरोपधि व्युत्सर्ग है। बाह्योपधि व्युत्सर्ग अनेक प्रकार का है।
- व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त का लक्षण
- बाह्य व अभ्यंतर उपधि–देखें ग्रंथ - 2।
- व्युत्सर्गतप का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि/9/26/443/12 निस्संगत्वनिर्भयत्वजीविताशाव्युदासाद्यर्थः।
राजवार्तिक/9/26/10/625/14 निसंगत्वं मिर्भयत्वं जीविताशाव्युदासः, दोषोच्छेदो, मोक्षमार्गप्रभावनापरत्वमित्ये-वमाद्यर्थो व्युत्सर्गोऽभिधीयते द्विविधः। = निःसंगत्व, निर्भयत्व, जीविताशा का त्याग, दोषोच्छेद और मोक्षमार्गप्रभावना, तत्परत्व आदि के लिए दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग करना आवश्यक है। ( चारित्रसार/166/5 ); ( भावपाहुड़ टीका/7/ 225/17 )।
- व्युत्सर्गतप के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/487/707/23 व्युत्सर्गातिचारः। कुतो भवति शरीरममतायामनिवृत्तिः। = शरीर पर से ममता हटाना व्युत्सर्ग तप है। परंतु ममत्व दूर नहीं करना, यह व्युत्सर्ग तप का अतिचार है।
- व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त में अंतर
राजवार्तिक/9/26/8/625/7 अथ मतमेतत्-प्रायश्चित्ताभ्यंतरो व्युत्सर्गस्ततः पुनस्तस्य वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्य प्रतिद्वंद्विभावात्, तस्य हि व्युत्सर्गस्यातिचारः प्रतिद्वंद्वी विद्यते, अयं पुनरनपेक्षः क्रियते इत्यस्ति विशेषः। = प्रश्न–प्रायश्चित्त के भेदों में व्युत्सर्ग कह दिया गया। पुनः तप के भेदों में उसे गिनाना निरर्थक है? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि इनमें भेद है। प्रायश्चित्त में गिनाया गया व्युत्सर्ग, अतिचार होने पर उसकी शुद्धि के लिए किया जाता है, पर व्युत्सर्ग तप स्वयं निरपेक्षभाव से किया जाता है।
- व्युत्सर्गतप व परिग्रहत्याग व्रत में अंतर
राजवार्तिक/9/6/6/625/1 स्यादेतत्-महाव्रतोपदेशकाले परिग्रहनिवृत्तिरुक्ता, ततः पुनरिदं वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्य धनहिरण्यवसनादिविषयत्वात्। प्रश्न–महाव्रतों का उपदेश देते समय परिग्रहत्याग कह दिया गया। अब तप प्रकरण में पुनः व्युत्सर्ग कहना अनर्थक है? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि परिग्रहत्याग व्रत में सोना-चाँदी आदि के त्याग का उपदेश है, अतः यह उससे पृथक् है।
- व्युत्सर्गतप व त्याग धर्म में अंतर
राजवार्तिक/9/6/19/598/6 स्यान्मतम्-वक्ष्यते तपोऽभ्यंतरं षड्विधम्, तत्रोत्सर्गलक्षणेन तपसाग्रहणमस्य सिद्धमित्य-नर्थकं त्यागग्रहणमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्यान्यार्थत्वात्। तद्धि नियतकालं सर्वोत्सर्गलक्षणम्, अयं पुनस्त्यागः यथा–शक्ति अनियतकालः क्रियते इत्यस्ति भेदः। = प्रश्न–छह प्रकार के अभ्यंतर तप में उत्सर्ग लक्षण वाले तप का ग्रहण किया गया है, अतः यहाँ दस धर्मों के प्रकरण में त्यागधर्म का ग्रहण निरर्थक है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, वहाँ तप के प्रकरण में तो नियतकाल के लिए सर्वत्याग किया जाता है और त्याग धर्म में अनियतकाल के लिए यथाशक्ति त्याग किया जाता है।
राजवार्तिक/9/26/7/625/4 स्यादेतत्-दशविधधर्मेऽंतरीभूतस्त्याग इति पुनरिदं वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। प्रासुकनिरवद्याहारादिनिवृत्तितंत्रत्वात् तस्य। = प्रश्न–दश धर्मों में त्याग नाम का धर्म अंतर्भूत है, अतः यहाँ व्युत्सर्ग का व्याख्यान करना निरर्थक है? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि त्याग धर्म प्रासुक औषधि व निरवद्य आहारादि का अमुक समय तक त्याग के लिए त्याग धर्म है। अतः यह उससे पृथक् है।
- व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किसको कब दिया जाता है–देखें प्रायश्चित्त - 4।
पुराणकोष से
(1) आभ्यंतर तप का पाँचवाँ भेद । आत्मा को देह से भिन्न जानकर शरीर से निस्पृह होकर तप करना व्युत्सर्ग-तप कहलाता है । इसमें बाह्य और आभ्यंतर परिग्रहों का त्याग किया जाता है । यह दो प्रकार का होता है― आभ्यंतरोपाधित्याग-तप और बाह्योपाधित्याग-तप । इनमें क्रोध आदि अंतरंग उपाधि का त्याग करना तथा शरीर के विषय में ‘‘यह मेरा नहीं है’’ इस प्रकार क विचार करना आभ्यंतरोपाधित्याग-तप और आभूषण आदि बाह्य उपाधि का त्याग करना बाह्मोपाधित्याग-तप है । इन दोनों उपाधियों का त्याग निष्परिग्रहता, निर्भयता और जिजोविषा को दूर करने के लिए किया जाता है । महापुराण 20.189, 200-201, पद्मपुराण 14.116-117, हरिवंशपुराण 64.30, 49-50, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-46
(2) प्रायश्चित्त के नौ वेदों में पाँचवां भेद । कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त-तप कहलाता है । यह अतिचार लगने पर उसकी शुद्धि के लिए किया जाता है । हरिवंशपुराण 64. 35