केवली 05: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा पंचेंद्रियत्व है, भावेंद्रियों की अपेक्षा नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा पंचेंद्रियत्व है, भावेंद्रियों की अपेक्षा नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/30/9/92/14 </span><span class="SanskritText"> आर्षं हि सयोग्ययोगिकेवलिनो: पंचेंद्रियत्वं द्रव्येंद्रियं प्रति उक्तं न भावेंद्रियं प्रति। यदि हि भावेंद्रियमभविष्यत्, अपि तु तर्हि असंक्षीणसकलावरणत्वात् सर्वज्ञतैवास्य न्यवर्तिष्यम् ।</span>=<span class="HindiText">आगम में सयोगी और अयोगी केवली को पंचेंद्रियत्व कहा है वहाँ द्रव्येंद्रियों की विवक्षा है, ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप भावेंद्रियों की नहीं। यदि भावेंद्रियों की विवक्षा होती तो ज्ञानावरण का सद्भाव होने से सर्वज्ञता ही नहीं हो सकती थी।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला/1/1,1/37/263/5 </span><span class="SanskritText"> केवलिनां निर्मूलतो विनष्टांतरंगेंद्रियाणां प्रहतबाह्येंद्रियव्यापाराणां भावेंद्रियजनितद्रव्येंद्रियसत्त्वापेक्षया पंचेंद्रियत्वप्रतिपादनात् ।</span>=<span class="HindiText">केवलियों के यद्यपि भावेंद्रियाँ समूल नष्ट हो गयी है, और बाह्य इंद्रियों का व्यापार भी बंद हो गया है, तो भी (छद्मस्थ अवस्था में) भावेंद्रियों के निमित्त से उत्पन्न हुर्इ द्रव्येंद्रियों के सद्भाव की अपेक्षा उन्हें पंचेंद्रिय कहा गया है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/701/1135/12 </span><span class="SanskritText">सयोगिजिने भावेंद्रियं न, द्रव्येंद्रियापेक्षया षट्पर्याप्तय:।</span>=<span class="HindiText">सयोगी जिनविषैं भावेंद्रिय तौ है नाहीं, द्रव्येंद्रिय की अपेक्षा छह पर्याप्ति हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> जातिनाम कर्मोदय की अपेक्षा पंचेंद्रिय हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> जातिनाम कर्मोदय की अपेक्षा पंचेंद्रिय हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,39/264/2 </span><span class="SanskritText">पंचेंद्रियजातिनामकर्मोदयात्पंचेंद्रिय:। समस्ति च केवलिनां....पंचेंद्रियजातिनामकर्मोदय:। निरवद्यत्वात् व्याख्यानमिदं समाश्रयणीयम् ।</span>=<span class="HindiText">पंचेंद्रिय नामकर्म के उदय से पंचेंद्रिय जीव होते हैं। व्याख्यान के अनुसार केवली के भी....पंचेंद्रिय जाति नामकर्म का उदय होता है। अत: यह व्याख्यान निर्दोष है। अतएव इसका आश्रय करना चाहिए। (<span class="GRef"> धवला 7/2,1,9/16/5 </span>) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> पंचेंद्रिय कहना उपचार है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> पंचेंद्रिय कहना उपचार है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,37/263/5 </span><span class="SanskritText"> केवलिनां... पंचेंद्रियत्व...भूतपूर्वगतिन्यायसमाश्रयणाद्वा।</span> =<span class="HindiText">केवली को भूतपूर्व का ज्ञान कराने वाले न्याय के आश्रय से पंचेंद्रिय कहा है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 7/2,1,15/67/3 </span><span class="PrakritText">एइंदियादीणमोदइयो भावो वत्तव्वो, एइंदियजादिआदिणामकम्मोदएण एइंदियादिभावोवलंभा। जदि एवं ण इच्छिज्जदि तो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तं ण लब्भदे, खीणावरणे पंचण्हमिंदियाणं खओवसमा भावा। ण च तेसिं पंचिंदियत्ताभावो पंचिंदिएसु समुग्घादपदेण असंखेज्जेषु भागेसु सव्वलोगे वा त्ति सुत्तविरोहादो। एत्थ परिहारो वुच्चदे...सजोगिअजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तजुज्जदि त्ति जीवट्ठाणे पि उववण्णं। किंतु खुद्दाबंधे सजोगि-अजोगिजिणाणं सुद्धणएणाणिंदियाणं पंचिंदियत्तं जदि इच्छिज्जदि तो ववहारणएण वत्तव्वं। तं जहा-पंचसु जाईसु जाणि पडिबद्धाणि पंच इंदियाणि ताणि खओवसमियाणि त्ति काऊण उवयारेण पंच वि जादीओ खओवसमियाओ त्ति कट्टु सजोगि-अजोगिजिणाणं खओवसमियं पंचिंदियत्तं जुज्जदे। अधवा खीणावरणे णट्ठे वि पंचिंदियखओवसमे खओवसमजणिद णं पंचण्ह वज्झिंदियाणमुवयारेण लद्धखओवसमण्णाणमत्थित्तदंसणादो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तं साहेयव्वं।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—एकेंद्रियादि को औदयिक भाव कहना चाहिए, क्योंकि एकेंद्रिय जाति आदिक नामकर्म के उदय से एकेंद्रियादिक भाव पाये जाते हैं। यदि ऐसा न माना जायेगा तो सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रिय भाव नहीं पाया जायेगा, क्योंकि, उनके आवरण के क्षीण हो जाने पर पाँचों इंद्रियों के क्षयोपशम का भी अभाव हो गया है। और सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रियत्व का अभाव होता नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर ‘‘पंचेंद्रिय जीवों की अपेक्षा समुद्घातपदके द्वारा लोक के असंख्यात बहुभागों में अथवा सर्वलोक में जीवों का अस्तित्व है’’ इस सूत्र से विरोध आ जायेगा? <strong>उत्तर</strong>—यहाँ उक्त शंका का परिहार करते हैं...सयोगी और अयोगी जिनों का पंचेंद्रियत्व योग्य होता है, ऐसा जीवस्थान खंड में स्वीकार किया गया है। (<span class="GRef"> षट्खंडागम/1/1,1/ </span>सू.37/262) किंतु इस क्षुद्रकबंध खंड में शुद्ध नय से अनिंद्रिय कहे जाने वाले सयोगी और अयोगी जिनों के यदि पंचेंद्रियत्व कहना है, तो वह केवल व्यवहार नय से ही कहा जा सकता है। वह इस प्रकार है—पाँच जातियों में जो क्रमश: पाँच इंदियाँ संबद्ध हैं वे क्षायोपशमिक हैं ऐसा मानकर और उपचार से पाँचों जातियों को भी क्षायोपशमिक स्वीकार करके सयोगी और अयोगी जिनों के क्षायोपशमिक पंचेंद्रियत्व सिद्ध हो जाता है। अथवा, आवरण के क्षीण होने से पंचेंद्रियों के क्षयोपशम के नष्ट हो जाने पर भी क्षयोपशम से उत्पन्न और उपचार से क्षायोपशमिक संज्ञा को प्राप्त पाँचों बाह्येंद्रियों का अस्तित्व पाये जाने से सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रियत्व सिद्ध कर लेना चाहिए।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4">भावेंद्रिय के अभाव संबंधी शंका-समाधान</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4">भावेंद्रिय के अभाव संबंधी शंका-समाधान</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/444/5 </span><span class="PrakritText">भाविंदायाभावादो। भाविंदियं णाम पंचण्हमिंदियाणं खओवसमो। ण सो खीणावरणे अत्थि।</span>=<span class="HindiText">सयोगी जिन के भावेंद्रियाँ नहीं पायी जाती हैं। पाँचों इंद्रियावरण कर्मों के क्षयोपशम को भावेंद्रियाँ कहते हैं। परंतु जिनका आवरण समूल नष्ट हो गया है उनके वह क्षयोपशम नहीं होता। (<span class="GRef"> धवला/2/1,1/658/4 </span>)<br /> | |||
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<li name="5.5" id="5.5"><span class="HindiText"><strong> केवली के मन उपचार से होता है</strong></span><br /> | <li name="5.5" id="5.5"><span class="HindiText"><strong> केवली के मन उपचार से होता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,52/285/3 </span><span class="SanskritText">उपचारतस्तयोस्तत: समुत्पत्तिविधानात् ।</span>=<span class="HindiText">उपचार से मन के द्वारा (केवली के) उन दोनों प्रकार के वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/228 </span><span class="PrakritGatha">मणसहियाणं वयणं दिट्ठं तप्पुव्वमिदि सजोगम्हि। उत्तो मणोवयारेणिंदियणाणेण हीणम्मि।228।</span>=<span class="HindiText">इंदिय ज्ञानियों के वचन मनोयोग पूर्वक देखा जाता है। इंद्रिय ज्ञान से रहित केवली भगवान् के मुख्यपनैं तो मनोयोग नहीं है, उपचार से कहा है।<br /> | |||
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<li name="5.6" id="5.6"><span class="HindiText"><strong> केवली के द्रव्यमन होता है भावमन नहीं</strong></span><br /> | <li name="5.6" id="5.6"><span class="HindiText"><strong> केवली के द्रव्यमन होता है भावमन नहीं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,50/284/4 </span><span class="SanskritText"> अतींद्रियज्ञानत्वांन केवलीनो मन इति चेन्न, द्रव्यमनस: सत्त्वात् ।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—केवली के अतींद्रिय ज्ञान होता है, इसलिए उनके मन नहीं पाया जाता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, उनके द्रव्य मन का सद्भाव पाया जाता है।<br /> | |||
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<li name="5.7" id="5.7"><span class="HindiText"><strong> तहाँ मन का भावात्मक कार्य नहीं होता, पर परिस्पंदनरूप द्रव्यात्मक कार्य होता है</strong> </span><br /> | <li name="5.7" id="5.7"><span class="HindiText"><strong> तहाँ मन का भावात्मक कार्य नहीं होता, पर परिस्पंदनरूप द्रव्यात्मक कार्य होता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,50/284/5 </span><span class="SanskritText">भवतु द्रव्यमनस: सत्त्वं न तत्कार्यमिति चेद्भवतु तत्कार्यस्य क्षायोपशमिकज्ञानस्याभाव:, अपि तु तदुत्पादने प्रयत्नोऽस्त्येव तस्य प्रतिबंधकत्वाभावात् । तेनात्मनो योग: मनोयोग:। विद्यमानोऽपि तदुत्पादने प्रयत्न: किमिति स्वकार्यं न विदध्यादिति चेन्न, तत्सहकारिकारणक्षयोपशमाभावात् ।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—केवली के द्रव्यमन का सद्भाव रहा आवे, परंतु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है? <strong>उत्तर</strong>—द्रव्यमन के कार्यरूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञान का अभाव भले ही रहा आवे, परंतु द्रव्य मन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो पाया ही जाता है, क्योंकि, द्रव्य मन की वर्गणाओं को लाने के लिए होने वाले प्रयत्न में कोई प्रतिबंधक कारण नहीं पाया जाता है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उस मन के निमित्त से जो आत्मा का परिस्पंदरूप प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। <strong>प्रश्न</strong>—केवली के द्रव्यमन को उत्पन्न करने में प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी वह अपने कार्य को क्यों नहीं करता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, केवली के मानसिक ज्ञान के सहकारी कारणरूप क्षयोपशम का अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमित्तक ज्ञान नहीं होता है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,22/367-368/7 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड </span>व जी.प्र./229)।<br /> | |||
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<li name="5.8" id="5.8"><span class="HindiText"><strong> भावमन के अभाव में वचन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है</strong> </span><br /> | <li name="5.8" id="5.8"><span class="HindiText"><strong> भावमन के अभाव में वचन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,123/368/3 </span><span class="SanskritText">तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न सत्त्वमिति चेन्न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात् । अक्रमज्ञानात्कथं क्रमवतां वचनानामुत्पत्तिरिति चेन्न, घटविषयाक्रमज्ञानसमवेतकुंभकाराद्घंटस्य क्रमेणोत्पत्त्युपलंभात् । मनोयोगाभावे सूत्रेण सह विरोध: स्यादिति चेन्न, मन:कार्यप्रथमचतुर्थवचसो: सत्त्वापेक्षयोपचारेण तत्सत्त्वोपदेशात् । जीवप्रदेशपरिस्पंदहेतुनोकर्मजनितशक्त्यस्तित्वापेक्षया वा तत्सत्त्वान्न विरोध:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—अरहंत परमेष्ठी में मन का अभाव होने पर मन के कार्यरूप वचन का सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के नहीं। <strong>प्रश्न</strong>—अक्रम ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, घट विषयक अक्रम ज्ञान से युक्त कुंभकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। <strong>प्रश्न</strong>—सयोगि केवली के मनोयोग का अभाव मानने पर ‘‘सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलित्ति। (ष.ख./1/1,1/50/282) इस सूत्र के साथ विरोध आ जायेगा? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, मन के कार्यरूप प्रथम और चतुर्थ भाषा के सद्भाव की अपेक्षा उपचार से मन के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। अथवा, जीवप्रदेशों के परिस्पंद के कारणरूप मनोवर्गणारूप नोकर्म से उत्पन्न हुई शक्ति के अस्तित्व की अपेक्षा सयोगि केवली के मन का सद्भाव पाया जाता है ऐसा मान लेने में भी कोई विरोध नहीं आता है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,50/285/2 </span>) (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,122/368/2 </span>)। <br /> | |||
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<li name="5.9" id="5.9"><span class="HindiText"><strong> मन सहित होते हुए भी केवली को संज्ञी क्यों नहीं कहते</strong> </span><br /> | <li name="5.9" id="5.9"><span class="HindiText"><strong> मन सहित होते हुए भी केवली को संज्ञी क्यों नहीं कहते</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,172/408/10 </span><span class="SanskritText">समनस्कत्वात्सयोगिकेवलिनोऽपि संज्ञिन इति चेन्न, तेषां क्षीणावरणानां मनोऽवष्टंभबलेन बाह्यार्थ ग्रहणाभावतस्तदसत्त्वात् । तर्हि भवंतु केवलिनोऽसंज्ञिन इति चेन्न, साक्षात्कृतशेषपदार्थानामसंज्ञित्वविरोधात् । असंज्ञिन: केवलिनो मनोऽनपेक्ष्य बाह्यर्थ ग्रहणाद्विकलेंद्रियवदिति चेद्भवत्येवं यदि मनोऽनपेक्ष्य ज्ञानोत्पत्तिमात्रमाश्रित्यासंज्ञित्वस्य निबंधनमिति चेन्मनसोऽभावाद् बुद्धयतिशयाभाव:, ततो नानंतरोक्तदोष इति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—मन सहित होने के कारण सयोगकेवली भी संज्ञी होते हैं? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से रहित उनके मन के अवलंबन से बाह्य अर्थ का ग्रहण नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें संज्ञी नहीं कह सकते। <strong>प्रश्न</strong>—तो केवली असंज्ञी रहे आवें? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थों को साक्षात् कर लिया है, उन्हें असंज्ञी मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>—केवली असंज्ञी होते हैं, क्योंकि, वे मन की अपेक्षा के बिना ही विकलेंद्रिय जीवों की तरह बाह्य पदार्थों का ग्रहण करते हैं? <strong>उत्तर</strong>—यदि मन की अपेक्षा न करके ज्ञान की उत्पत्ति मात्र का आश्रय करके ज्ञानोत्पत्ति असंज्ञीपने की कारण होती तो ऐसा होता। परंतु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि कदाचित् मन के अभाव से विकलेंद्रिय जीवों की तरह केवली के बुद्धि के अतिशय का अभाव भी कहा जावेगा। इसलिए केवली के पूर्वोक्त दोष लागू नहीं होता।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> योगों के सद्भाव संबंधी समाधान</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> योगों के सद्भाव संबंधी समाधान</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/1/319/1 </span><span class="SanskritText">क्षयेऽपि त्रिविधवर्गणापेक्ष: सयोगकेवलिन: आत्मप्रदेशपरिस्पंदो योगो वेदितव्य:।</span>=<span class="HindiText">वीर्यांतराय और ज्ञानवरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोगकेवली के जो <a name="5.10" id="5.10"></a>तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्मप्रदेश परिस्पंद होता है वह भी योग है ऐसा जानना चाहिए। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,/123/368/1 </span>)</span><br /> | |||
<strong> धवला 1/1,1,27/220/59 )</strong><span class="PrakritText"> अत्थि लोगपूरणम्हि ट्ठियकेवलीणं।</span>=<span class="HindiText">लोकपूरण समुद्घात में स्थित केवलियों के भी योग प्रतिपादक आगम उपलब्ध है। <br /> | <strong><span class="GRef"> धवला 1/1,1,27/220/59 </span>)</strong><span class="PrakritText"> अत्थि लोगपूरणम्हि ट्ठियकेवलीणं।</span>=<span class="HindiText">लोकपूरण समुद्घात में स्थित केवलियों के भी योग प्रतिपादक आगम उपलब्ध है। <br /> | ||
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<li name="5.11" id="5.11"><span class="HindiText"><strong> केवली के पर्याप्ति, योग तथा प्राण विषयक प्ररूपणा—</strong> <br /> | <li name="5.11" id="5.11"><span class="HindiText"><strong> केवली के पर्याप्ति, योग तथा प्राण विषयक प्ररूपणा—</strong> <br /> | ||
( धवला 2/11/444 .3+446.4÷658.7+419.16); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/701/1135 .12;726/1162.1) </span></li> | (<span class="GRef"> धवला 2/11/444 </span>.3+446.4÷658.7+419.16); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/701/1135 </span>.12;726/1162.1) </span></li> | ||
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<li name="5.12" id="5.12"><span class="HindiText"><strong> द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते</strong> </span><br /> | <li name="5.12" id="5.12"><span class="HindiText"><strong> द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/444/6 </span><span class="PrakritText">अध दव्विंदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमपज्जतकाले सत्त पाणा पिंडिदूण दो चेव पाणा भवंति। पंचण्ह दव्वेंदियाणमभावादो। तम्हा सजोगिकेवलिस्स चत्तारि पाणा दो पाणा वा।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते? <strong>उत्तर</strong>—यदि प्राणों में द्रव्येंद्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों के स्थान पर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि, उनके द्रव्येंद्रियों का अभाव होता है। अत: यह सिद्ध हुआ कि सयोगी जिन के चार अथवा दो ही प्राण होते हैं। (<span class="GRef"> धवला 2/1,1/658/5 </span>)। </span></li> | |||
<li name="5.13" id="5.13"><span class="HindiText"><strong> समुद्घातगत केवली को चार प्राण कैसे कहते हो</strong></span><strong><br></strong> धवला 2/1,1/659/1 <span class="PrakritText">तेसिं कारणभूद-पज्जत्तीओ अत्थि त्ति पुणो उवरिमछट्ठसमयप्पहुडिं वचि-उस्सासपाणाणं समणा भवदि चत्तारि वि पाणा हवंति।</span>=<span class="HindiText">समुद्घातगत केवली के वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों की कारणभूत वचन और आनपान पर्याप्तियाँ पायी जाती हैं, इसलिए लोकपूरण समुद्घात के अनंतर होने वाले प्रतर समुद्घात के पश्चात् उपरिम छठे समय से लेकर आगे वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों का सद्भाव हो जाता है, इसलिए सयोगिकेवली के औदारिकमिश्र काययोग में चार प्राण भी होते हैं।</span></li> | <li name="5.13" id="5.13"><span class="HindiText"><strong> समुद्घातगत केवली को चार प्राण कैसे कहते हो</strong></span><strong><br></strong><span class="GRef"> धवला 2/1,1/659/1 </span><span class="PrakritText">तेसिं कारणभूद-पज्जत्तीओ अत्थि त्ति पुणो उवरिमछट्ठसमयप्पहुडिं वचि-उस्सासपाणाणं समणा भवदि चत्तारि वि पाणा हवंति।</span>=<span class="HindiText">समुद्घातगत केवली के वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों की कारणभूत वचन और आनपान पर्याप्तियाँ पायी जाती हैं, इसलिए लोकपूरण समुद्घात के अनंतर होने वाले प्रतर समुद्घात के पश्चात् उपरिम छठे समय से लेकर आगे वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों का सद्भाव हो जाता है, इसलिए सयोगिकेवली के औदारिकमिश्र काययोग में चार प्राण भी होते हैं।</span></li> | ||
<li name="5.14" id="5.14"><span class="HindiText"><strong> अयोगी के एक आयु प्राण होने का क्या कारण है</strong></span><strong><br> | <li name="5.14" id="5.14"><span class="HindiText"><strong> अयोगी के एक आयु प्राण होने का क्या कारण है</strong></span><strong><br> | ||
</strong> | </strong> <span class="GRef"> धवला 2/1,1/445/10 </span><span class="PrakritText"> आउस-पाणो एक्को चेव। केण कारणेण। ण ताव णाणावरण-खओवसम-लक्खण-पचिंदियपाणा तत्थ संति, खीणावरणे खओवसमाभावादो। आणापाणभासा-मणपाणा वि णत्थि, पज्जत्ति-जणिद-पाण-सण्णिद-सत्ति-अभावादो। ण सरीर-बलपाणो वि अत्थि, सरीरो-दय-जणिद-कम्म-णोकम्मागमाभावादो तदो एक्को चेव प्राणो।</span>=<span class="HindiText">(अयोग केवली के) एक आयु नामक प्राण होता है। <strong>प्रश्न</strong>—एक आयु प्राण के होने का क्या कारण है? <strong>उत्तर</strong>—ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमस्वरूप पाँच इंद्रिय प्राण तो अयोगकेवली के हैं नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय हो जाने पर क्षयोपशम का अभाव पाया जाता है। इसी प्रकार आनपान, भाषा और मन:प्राण भी उनके नहीं हैं, क्योंकि पर्याप्ति जनित प्राण संज्ञावाली शक्ति का उनके अभाव है। उसी प्रकार उनके कायबल नाम का भी प्राण नहीं है, क्योंकि उनके शरीर नामकर्म के उदय जनितकर्म और नोकर्मों के आगमन का अभाव है। इसलिए अयोगकेवली के एक आयु ही प्राण होता है। ऐसा समझना चाहिए।</span></li> | ||
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Revision as of 12:59, 14 October 2020
- इंद्रिय, मन व योग संबंधी निर्देश व शंका-समाधान
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा पंचेंद्रियत्व है, भावेंद्रियों की अपेक्षा नहीं
राजवार्तिक/1/30/9/92/14 आर्षं हि सयोग्ययोगिकेवलिनो: पंचेंद्रियत्वं द्रव्येंद्रियं प्रति उक्तं न भावेंद्रियं प्रति। यदि हि भावेंद्रियमभविष्यत्, अपि तु तर्हि असंक्षीणसकलावरणत्वात् सर्वज्ञतैवास्य न्यवर्तिष्यम् ।=आगम में सयोगी और अयोगी केवली को पंचेंद्रियत्व कहा है वहाँ द्रव्येंद्रियों की विवक्षा है, ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप भावेंद्रियों की नहीं। यदि भावेंद्रियों की विवक्षा होती तो ज्ञानावरण का सद्भाव होने से सर्वज्ञता ही नहीं हो सकती थी।
धवला/1/1,1/37/263/5 केवलिनां निर्मूलतो विनष्टांतरंगेंद्रियाणां प्रहतबाह्येंद्रियव्यापाराणां भावेंद्रियजनितद्रव्येंद्रियसत्त्वापेक्षया पंचेंद्रियत्वप्रतिपादनात् ।=केवलियों के यद्यपि भावेंद्रियाँ समूल नष्ट हो गयी है, और बाह्य इंद्रियों का व्यापार भी बंद हो गया है, तो भी (छद्मस्थ अवस्था में) भावेंद्रियों के निमित्त से उत्पन्न हुर्इ द्रव्येंद्रियों के सद्भाव की अपेक्षा उन्हें पंचेंद्रिय कहा गया है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/701/1135/12 सयोगिजिने भावेंद्रियं न, द्रव्येंद्रियापेक्षया षट्पर्याप्तय:।=सयोगी जिनविषैं भावेंद्रिय तौ है नाहीं, द्रव्येंद्रिय की अपेक्षा छह पर्याप्ति हैं।
- जातिनाम कर्मोदय की अपेक्षा पंचेंद्रिय हैं
धवला 1/1,1,39/264/2 पंचेंद्रियजातिनामकर्मोदयात्पंचेंद्रिय:। समस्ति च केवलिनां....पंचेंद्रियजातिनामकर्मोदय:। निरवद्यत्वात् व्याख्यानमिदं समाश्रयणीयम् ।=पंचेंद्रिय नामकर्म के उदय से पंचेंद्रिय जीव होते हैं। व्याख्यान के अनुसार केवली के भी....पंचेंद्रिय जाति नामकर्म का उदय होता है। अत: यह व्याख्यान निर्दोष है। अतएव इसका आश्रय करना चाहिए। ( धवला 7/2,1,9/16/5 )
- पंचेंद्रिय कहना उपचार है
धवला 1/1,1,37/263/5 केवलिनां... पंचेंद्रियत्व...भूतपूर्वगतिन्यायसमाश्रयणाद्वा। =केवली को भूतपूर्व का ज्ञान कराने वाले न्याय के आश्रय से पंचेंद्रिय कहा है।
धवला 7/2,1,15/67/3 एइंदियादीणमोदइयो भावो वत्तव्वो, एइंदियजादिआदिणामकम्मोदएण एइंदियादिभावोवलंभा। जदि एवं ण इच्छिज्जदि तो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तं ण लब्भदे, खीणावरणे पंचण्हमिंदियाणं खओवसमा भावा। ण च तेसिं पंचिंदियत्ताभावो पंचिंदिएसु समुग्घादपदेण असंखेज्जेषु भागेसु सव्वलोगे वा त्ति सुत्तविरोहादो। एत्थ परिहारो वुच्चदे...सजोगिअजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तजुज्जदि त्ति जीवट्ठाणे पि उववण्णं। किंतु खुद्दाबंधे सजोगि-अजोगिजिणाणं सुद्धणएणाणिंदियाणं पंचिंदियत्तं जदि इच्छिज्जदि तो ववहारणएण वत्तव्वं। तं जहा-पंचसु जाईसु जाणि पडिबद्धाणि पंच इंदियाणि ताणि खओवसमियाणि त्ति काऊण उवयारेण पंच वि जादीओ खओवसमियाओ त्ति कट्टु सजोगि-अजोगिजिणाणं खओवसमियं पंचिंदियत्तं जुज्जदे। अधवा खीणावरणे णट्ठे वि पंचिंदियखओवसमे खओवसमजणिद णं पंचण्ह वज्झिंदियाणमुवयारेण लद्धखओवसमण्णाणमत्थित्तदंसणादो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तं साहेयव्वं।=प्रश्न—एकेंद्रियादि को औदयिक भाव कहना चाहिए, क्योंकि एकेंद्रिय जाति आदिक नामकर्म के उदय से एकेंद्रियादिक भाव पाये जाते हैं। यदि ऐसा न माना जायेगा तो सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रिय भाव नहीं पाया जायेगा, क्योंकि, उनके आवरण के क्षीण हो जाने पर पाँचों इंद्रियों के क्षयोपशम का भी अभाव हो गया है। और सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रियत्व का अभाव होता नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर ‘‘पंचेंद्रिय जीवों की अपेक्षा समुद्घातपदके द्वारा लोक के असंख्यात बहुभागों में अथवा सर्वलोक में जीवों का अस्तित्व है’’ इस सूत्र से विरोध आ जायेगा? उत्तर—यहाँ उक्त शंका का परिहार करते हैं...सयोगी और अयोगी जिनों का पंचेंद्रियत्व योग्य होता है, ऐसा जीवस्थान खंड में स्वीकार किया गया है। ( षट्खंडागम/1/1,1/ सू.37/262) किंतु इस क्षुद्रकबंध खंड में शुद्ध नय से अनिंद्रिय कहे जाने वाले सयोगी और अयोगी जिनों के यदि पंचेंद्रियत्व कहना है, तो वह केवल व्यवहार नय से ही कहा जा सकता है। वह इस प्रकार है—पाँच जातियों में जो क्रमश: पाँच इंदियाँ संबद्ध हैं वे क्षायोपशमिक हैं ऐसा मानकर और उपचार से पाँचों जातियों को भी क्षायोपशमिक स्वीकार करके सयोगी और अयोगी जिनों के क्षायोपशमिक पंचेंद्रियत्व सिद्ध हो जाता है। अथवा, आवरण के क्षीण होने से पंचेंद्रियों के क्षयोपशम के नष्ट हो जाने पर भी क्षयोपशम से उत्पन्न और उपचार से क्षायोपशमिक संज्ञा को प्राप्त पाँचों बाह्येंद्रियों का अस्तित्व पाये जाने से सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेंद्रियत्व सिद्ध कर लेना चाहिए।
- भावेंद्रिय के अभाव संबंधी शंका-समाधान
धवला 2/1,1/444/5 भाविंदायाभावादो। भाविंदियं णाम पंचण्हमिंदियाणं खओवसमो। ण सो खीणावरणे अत्थि।=सयोगी जिन के भावेंद्रियाँ नहीं पायी जाती हैं। पाँचों इंद्रियावरण कर्मों के क्षयोपशम को भावेंद्रियाँ कहते हैं। परंतु जिनका आवरण समूल नष्ट हो गया है उनके वह क्षयोपशम नहीं होता। ( धवला/2/1,1/658/4 )
- केवली के मन उपचार से होता है
धवला 1/1,1,52/285/3 उपचारतस्तयोस्तत: समुत्पत्तिविधानात् ।=उपचार से मन के द्वारा (केवली के) उन दोनों प्रकार के वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है।
गोम्मटसार जीवकांड/228 मणसहियाणं वयणं दिट्ठं तप्पुव्वमिदि सजोगम्हि। उत्तो मणोवयारेणिंदियणाणेण हीणम्मि।228।=इंदिय ज्ञानियों के वचन मनोयोग पूर्वक देखा जाता है। इंद्रिय ज्ञान से रहित केवली भगवान् के मुख्यपनैं तो मनोयोग नहीं है, उपचार से कहा है।
- केवली के द्रव्यमन होता है भावमन नहीं
धवला 1/1,1,50/284/4 अतींद्रियज्ञानत्वांन केवलीनो मन इति चेन्न, द्रव्यमनस: सत्त्वात् । प्रश्न—केवली के अतींद्रिय ज्ञान होता है, इसलिए उनके मन नहीं पाया जाता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उनके द्रव्य मन का सद्भाव पाया जाता है।
- तहाँ मन का भावात्मक कार्य नहीं होता, पर परिस्पंदनरूप द्रव्यात्मक कार्य होता है
धवला 1/1,1,50/284/5 भवतु द्रव्यमनस: सत्त्वं न तत्कार्यमिति चेद्भवतु तत्कार्यस्य क्षायोपशमिकज्ञानस्याभाव:, अपि तु तदुत्पादने प्रयत्नोऽस्त्येव तस्य प्रतिबंधकत्वाभावात् । तेनात्मनो योग: मनोयोग:। विद्यमानोऽपि तदुत्पादने प्रयत्न: किमिति स्वकार्यं न विदध्यादिति चेन्न, तत्सहकारिकारणक्षयोपशमाभावात् । प्रश्न—केवली के द्रव्यमन का सद्भाव रहा आवे, परंतु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है? उत्तर—द्रव्यमन के कार्यरूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञान का अभाव भले ही रहा आवे, परंतु द्रव्य मन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो पाया ही जाता है, क्योंकि, द्रव्य मन की वर्गणाओं को लाने के लिए होने वाले प्रयत्न में कोई प्रतिबंधक कारण नहीं पाया जाता है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उस मन के निमित्त से जो आत्मा का परिस्पंदरूप प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। प्रश्न—केवली के द्रव्यमन को उत्पन्न करने में प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी वह अपने कार्य को क्यों नहीं करता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, केवली के मानसिक ज्ञान के सहकारी कारणरूप क्षयोपशम का अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमित्तक ज्ञान नहीं होता है। ( धवला 1/1,1,22/367-368/7 ); ( गोम्मटसार जीवकांड व जी.प्र./229)।
- भावमन के अभाव में वचन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है
धवला 1/1,1,123/368/3 तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न सत्त्वमिति चेन्न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात् । अक्रमज्ञानात्कथं क्रमवतां वचनानामुत्पत्तिरिति चेन्न, घटविषयाक्रमज्ञानसमवेतकुंभकाराद्घंटस्य क्रमेणोत्पत्त्युपलंभात् । मनोयोगाभावे सूत्रेण सह विरोध: स्यादिति चेन्न, मन:कार्यप्रथमचतुर्थवचसो: सत्त्वापेक्षयोपचारेण तत्सत्त्वोपदेशात् । जीवप्रदेशपरिस्पंदहेतुनोकर्मजनितशक्त्यस्तित्वापेक्षया वा तत्सत्त्वान्न विरोध:।=प्रश्न—अरहंत परमेष्ठी में मन का अभाव होने पर मन के कार्यरूप वचन का सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के नहीं। प्रश्न—अक्रम ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर—नहीं, क्योंकि, घट विषयक अक्रम ज्ञान से युक्त कुंभकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। प्रश्न—सयोगि केवली के मनोयोग का अभाव मानने पर ‘‘सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलित्ति। (ष.ख./1/1,1/50/282) इस सूत्र के साथ विरोध आ जायेगा? उत्तर—नहीं, क्योंकि, मन के कार्यरूप प्रथम और चतुर्थ भाषा के सद्भाव की अपेक्षा उपचार से मन के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। अथवा, जीवप्रदेशों के परिस्पंद के कारणरूप मनोवर्गणारूप नोकर्म से उत्पन्न हुई शक्ति के अस्तित्व की अपेक्षा सयोगि केवली के मन का सद्भाव पाया जाता है ऐसा मान लेने में भी कोई विरोध नहीं आता है। ( धवला 1/1,1,50/285/2 ) ( धवला 1/1,1,122/368/2 )।
- मन सहित होते हुए भी केवली को संज्ञी क्यों नहीं कहते
धवला 1/1,1,172/408/10 समनस्कत्वात्सयोगिकेवलिनोऽपि संज्ञिन इति चेन्न, तेषां क्षीणावरणानां मनोऽवष्टंभबलेन बाह्यार्थ ग्रहणाभावतस्तदसत्त्वात् । तर्हि भवंतु केवलिनोऽसंज्ञिन इति चेन्न, साक्षात्कृतशेषपदार्थानामसंज्ञित्वविरोधात् । असंज्ञिन: केवलिनो मनोऽनपेक्ष्य बाह्यर्थ ग्रहणाद्विकलेंद्रियवदिति चेद्भवत्येवं यदि मनोऽनपेक्ष्य ज्ञानोत्पत्तिमात्रमाश्रित्यासंज्ञित्वस्य निबंधनमिति चेन्मनसोऽभावाद् बुद्धयतिशयाभाव:, ततो नानंतरोक्तदोष इति।=प्रश्न—मन सहित होने के कारण सयोगकेवली भी संज्ञी होते हैं? उत्तर—नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से रहित उनके मन के अवलंबन से बाह्य अर्थ का ग्रहण नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें संज्ञी नहीं कह सकते। प्रश्न—तो केवली असंज्ञी रहे आवें? उत्तर—नहीं, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थों को साक्षात् कर लिया है, उन्हें असंज्ञी मानने में विरोध आता है। प्रश्न—केवली असंज्ञी होते हैं, क्योंकि, वे मन की अपेक्षा के बिना ही विकलेंद्रिय जीवों की तरह बाह्य पदार्थों का ग्रहण करते हैं? उत्तर—यदि मन की अपेक्षा न करके ज्ञान की उत्पत्ति मात्र का आश्रय करके ज्ञानोत्पत्ति असंज्ञीपने की कारण होती तो ऐसा होता। परंतु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि कदाचित् मन के अभाव से विकलेंद्रिय जीवों की तरह केवली के बुद्धि के अतिशय का अभाव भी कहा जावेगा। इसलिए केवली के पूर्वोक्त दोष लागू नहीं होता।
- योगों के सद्भाव संबंधी समाधान
सर्वार्थसिद्धि/6/1/319/1 क्षयेऽपि त्रिविधवर्गणापेक्ष: सयोगकेवलिन: आत्मप्रदेशपरिस्पंदो योगो वेदितव्य:।=वीर्यांतराय और ज्ञानवरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोगकेवली के जो <a name="5.10" id="5.10"></a>तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्मप्रदेश परिस्पंद होता है वह भी योग है ऐसा जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,/123/368/1 )
धवला 1/1,1,27/220/59 ) अत्थि लोगपूरणम्हि ट्ठियकेवलीणं।=लोकपूरण समुद्घात में स्थित केवलियों के भी योग प्रतिपादक आगम उपलब्ध है।
- केवली के पर्याप्ति, योग तथा प्राण विषयक प्ररूपणा—
( धवला 2/11/444 .3+446.4÷658.7+419.16); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/701/1135 .12;726/1162.1)
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा पंचेंद्रियत्व है, भावेंद्रियों की अपेक्षा नहीं
निर्देश |
पर्याप्तापर्याप्त विचार |
प्राण (देखें उपर्युक्त प्रमाण ) |
पर्याप्ति (देखें पर्याप्ति - 3 |
||||||
|
योग देखें योग - 4 |
आहारकत्व देखें आहारक |
पर्याप्तापर्याप्त देखें नीचे |
सं. |
विवरण |
सं. |
विवरण |
||
सयोग केवली— |
|
||||||||
सामान्य |
7* |
आहा.,अना |
पर्या., अप. |
4 |
वचन, काय, आयु, श्वास |
6 |
छहों पर्याप्ति,अप. |
||
पर्याप्त |
5* |
आहारक |
पर्याप्त |
4 |
" |
6 |
" पर्याप्ति |
||
अपर्याप्त |
2* |
अनाहारक |
अपर्याप्त |
2 |
आयु तथा श्वास |
6 |
" अपर्याप्ति |
||
समुद्घात केवली— |
(देखें केवली - 7.12,13) |
||||||||
प्र. समय दंड |
औदारिक |
आहारक |
पर्याप्त |
3 |
काय, आयु, श्वास |
6 |
छहों पर्याप्ति |
||
द्वि. " कपाट |
औदा.मिश्र |
आहारक |
अपर्याप्त |
2 |
काय तथा आयु |
1 |
आहार पर्याप्ति |
||
तृ॰ " प्रतर |
कार्मण |
अनाहारक |
" |
1 |
आयु |
6 |
छहों अपर्याप्ति |
||
चतु॰ " लोकपूरण |
कार्मण |
" |
" |
1 |
" |
6 |
" " |
||
पंचम " प्रतर |
" |
" |
" |
1 |
" |
6 |
" " |
||
षष्टम " कपाट |
औदा.मिश्र |
आहारक |
" |
2 |
काय, आयु, श्वास |
1 |
आहार पर्याप्ति |
||
सप्तम " दंड |
औदारिक |
" |
पर्याप्त |
3 |
काय, आयु, श्वास |
6 |
छहों पर्याप्ति |
||
अष्टम " शरीर प्रवेश |
" |
" |
" |
4 |
वचन, काय, आयु, श्वास |
6 |
" " |
||
अयोग केवली— |
(देखें प्राण तथा पर्याप्ति विषयक द्वि तृ. कोष्टक) |
||||||||
प्रथम समय |
3* |
आहारक |
पर्याप्त |
6 |
काय, आयु, श्वास(वचन निरोध) |
6 |
छहों पर्याप्ति |
||
अंतिम समय |
× |
अनाहारक |
" |
1 |
आयु, (श्वास निरोध) |
6 |
" " |
||
*—7 योग=सत्य तआ अनुभव मन तथा वचन, औदा. द्विक, कार्मण 5 योग=उक्त 2 मन, 2 वचन औदारिक काय 3 योग=उक्त 2 मन, औदारिक काय 2 योग=औदारिक मिश्र तथा कार्मण |
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते
धवला 2/1,1/444/6 अध दव्विंदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमपज्जतकाले सत्त पाणा पिंडिदूण दो चेव पाणा भवंति। पंचण्ह दव्वेंदियाणमभावादो। तम्हा सजोगिकेवलिस्स चत्तारि पाणा दो पाणा वा।=प्रश्न—द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते? उत्तर—यदि प्राणों में द्रव्येंद्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों के स्थान पर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि, उनके द्रव्येंद्रियों का अभाव होता है। अत: यह सिद्ध हुआ कि सयोगी जिन के चार अथवा दो ही प्राण होते हैं। ( धवला 2/1,1/658/5 )। - समुद्घातगत केवली को चार प्राण कैसे कहते हो
धवला 2/1,1/659/1 तेसिं कारणभूद-पज्जत्तीओ अत्थि त्ति पुणो उवरिमछट्ठसमयप्पहुडिं वचि-उस्सासपाणाणं समणा भवदि चत्तारि वि पाणा हवंति।=समुद्घातगत केवली के वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों की कारणभूत वचन और आनपान पर्याप्तियाँ पायी जाती हैं, इसलिए लोकपूरण समुद्घात के अनंतर होने वाले प्रतर समुद्घात के पश्चात् उपरिम छठे समय से लेकर आगे वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों का सद्भाव हो जाता है, इसलिए सयोगिकेवली के औदारिकमिश्र काययोग में चार प्राण भी होते हैं। - अयोगी के एक आयु प्राण होने का क्या कारण है
धवला 2/1,1/445/10 आउस-पाणो एक्को चेव। केण कारणेण। ण ताव णाणावरण-खओवसम-लक्खण-पचिंदियपाणा तत्थ संति, खीणावरणे खओवसमाभावादो। आणापाणभासा-मणपाणा वि णत्थि, पज्जत्ति-जणिद-पाण-सण्णिद-सत्ति-अभावादो। ण सरीर-बलपाणो वि अत्थि, सरीरो-दय-जणिद-कम्म-णोकम्मागमाभावादो तदो एक्को चेव प्राणो।=(अयोग केवली के) एक आयु नामक प्राण होता है। प्रश्न—एक आयु प्राण के होने का क्या कारण है? उत्तर—ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमस्वरूप पाँच इंद्रिय प्राण तो अयोगकेवली के हैं नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय हो जाने पर क्षयोपशम का अभाव पाया जाता है। इसी प्रकार आनपान, भाषा और मन:प्राण भी उनके नहीं हैं, क्योंकि पर्याप्ति जनित प्राण संज्ञावाली शक्ति का उनके अभाव है। उसी प्रकार उनके कायबल नाम का भी प्राण नहीं है, क्योंकि उनके शरीर नामकर्म के उदय जनितकर्म और नोकर्मों के आगमन का अभाव है। इसलिए अयोगकेवली के एक आयु ही प्राण होता है। ऐसा समझना चाहिए।