द्रव्यार्थिक नय निर्देश: Difference between revisions
From जैनकोष
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.1" id="IV.1"> द्रव्यार्थिकनय सामान्य निर्देश<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.1.1" id="IV.1.1"> द्रव्यार्थिकनय का लक्षण<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="IV.1.1.1" id="IV.1.1.1">द्रव्य ही प्रयोजन जिसका</span><br /> | ||
स.सि./१/६/२१/१<span class="SanskritText"> द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य जिसका प्रयोजन है, सो द्रव्यार्थिक है। (रा.वा./१/३३/१/९५/८); (ध.१/१,१,१/८३/११) (ध.९/४,१,४५/१७०/१) (क.पा./१/१३-१४/१८०/२१६/६) (आ.प./९) (नि.सा./ता.वृ./१९)।<br /> | स.सि./१/६/२१/१<span class="SanskritText"> द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य जिसका प्रयोजन है, सो द्रव्यार्थिक है। (रा.वा./१/३३/१/९५/८); (ध.१/१,१,१/८३/११) (ध.९/४,१,४५/१७०/१) (क.पा./१/१३-१४/१८०/२१६/६) (आ.प./९) (नि.सा./ता.वृ./१९)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.1.1.2" id="IV.1.1.2"> पर्याय को गौण करके द्रव्य का ग्रहण </span><br /> | ||
श्लो.वा.२/१/६/श्लो.१९/३६१ <span class="SanskritGatha">तत्रांशिन्यपि नि:शेषधर्माणां गुणतागतौ। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपत:।१९।</span> =<span class="HindiText">जब सब अंशों को गौणरूप से तथा अंशी को मुख्यरूप से जानना इष्ट हो, तब द्रव्यार्थिकनय का व्यापार होता है।</span><br /> | श्लो.वा.२/१/६/श्लो.१९/३६१ <span class="SanskritGatha">तत्रांशिन्यपि नि:शेषधर्माणां गुणतागतौ। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपत:।१९।</span> =<span class="HindiText">जब सब अंशों को गौणरूप से तथा अंशी को मुख्यरूप से जानना इष्ट हो, तब द्रव्यार्थिकनय का व्यापार होता है।</span><br /> | ||
न.च.वृ./१९० <span class="PrakritText">पज्जयगउणं किच्चा दव्वंपि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ...।१९०।</span>=<span class="HindiText">पर्याय को गौण करके जो इस लोक में द्रव्य को ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं।</span><br /> | न.च.वृ./१९० <span class="PrakritText">पज्जयगउणं किच्चा दव्वंपि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ...।१९०।</span>=<span class="HindiText">पर्याय को गौण करके जो इस लोक में द्रव्य को ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं।</span><br /> | ||
स.सा./आ./१३ <span class="SanskritText">द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु में जो द्रव्य को मुख्यरूप से अनुभव करावे सो द्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | स.सा./आ./१३ <span class="SanskritText">द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु में जो द्रव्य को मुख्यरूप से अनुभव करावे सो द्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | ||
न.दी./३/८२/१२५<span class="SanskritText"> तत्र द्रव्यार्थिकनय: द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकान्तं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थं विभज्य पर्यायार्थिकनयविषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमभ्यनुजानन् स्वविषयं द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, नयान्तरविषयसापेक्ष: सन्नय: इत्यभिधानात् । यथा सुवर्णमानयेति। अत्र द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्णद्रव्यानयनचोदनायां कटकं कुण्डलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय प्रमाण के विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानेकात्मक अनेकान्तस्वरूप अर्थ का विभाग करके पर्यायार्थिकनय के विषयभूत भेद को गौण करता हुआ, उसकी स्थितिमात्र को स्वीकार कर अपने विषयभूत द्रव्य को अभेदरूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता। इसलिए दूसरे नय के विषय की अपेक्षा रखने वाले नय को सद्नय कहा है। जैसे‒यह कहना कि ‘सोना लाओ’। | न.दी./३/८२/१२५<span class="SanskritText"> तत्र द्रव्यार्थिकनय: द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकान्तं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थं विभज्य पर्यायार्थिकनयविषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमभ्यनुजानन् स्वविषयं द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, नयान्तरविषयसापेक्ष: सन्नय: इत्यभिधानात् । यथा सुवर्णमानयेति। अत्र द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्णद्रव्यानयनचोदनायां कटकं कुण्डलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय प्रमाण के विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानेकात्मक अनेकान्तस्वरूप अर्थ का विभाग करके पर्यायार्थिकनय के विषयभूत भेद को गौण करता हुआ, उसकी स्थितिमात्र को स्वीकार कर अपने विषयभूत द्रव्य को अभेदरूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता। इसलिए दूसरे नय के विषय की अपेक्षा रखने वाले नय को सद्नय कहा है। जैसे‒यह कहना कि ‘सोना लाओ’। यहाँ द्रव्यार्थिकनय के अभिप्राय से ‘सोना लाओ’ के कहने पर लाने वाला कड़ा, कुण्डल, केयूर (या सोने की डली) इनमें से किसी को भी ले आने से कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोनारूप से कड़ा आदि में कोई भेद नहीं है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.1.2" id="IV.1.2"> द्रव्यार्थिकनय वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है</span><br /> | ||
स.सि./१/३३/१४०/९ <span class="SanskritText">द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग: अनुवृत्तिरियर्त्थ:। तद्विषयो द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। और इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिकनय है। (त.सा./१/३९)।</span><br /> | स.सि./१/३३/१४०/९ <span class="SanskritText">द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग: अनुवृत्तिरियर्त्थ:। तद्विषयो द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। और इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिकनय है। (त.सा./१/३९)।</span><br /> | ||
क.पा./१/१३-१४/गा.१०७/२०५/२५२<span class="PrakritGatha"> पज्जवणयवाक्कंतं वत्थू [त्थं] द्रव्वट्ठियस्स वयणिज्जं। जाव दवियोपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।१०७। </span>=<span class="HindiText">जिस के पश्चात् विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसा द्रव्योपयोग अर्थात् सामान्यज्ञान | क.पा./१/१३-१४/गा.१०७/२०५/२५२<span class="PrakritGatha"> पज्जवणयवाक्कंतं वत्थू [त्थं] द्रव्वट्ठियस्स वयणिज्जं। जाव दवियोपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।१०७। </span>=<span class="HindiText">जिस के पश्चात् विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसा द्रव्योपयोग अर्थात् सामान्यज्ञान जहाँ तक होता है, वहाँ तक वह वस्तु द्रव्यार्थिकनय का विषय है। तथा वह पर्यायार्थिकनय से आक्रान्त है। अथवा जो वस्तु पर्यायार्थिकनय के द्वारा ग्रहण करके छोड़ दी गयी है, वह द्रव्यार्थिकनय का विषय है। (स.सि./१/६/२०/१०); (ह.पु./५८/४२)।</span><br /> | ||
श्लो.वा.४/१/३३/३/२१५/१०<span class="SanskritText"> द्रव्यविषयो द्रव्यार्थ:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थ है। (न.च.वृ./१८९)।</span><br /> | श्लो.वा.४/१/३३/३/२१५/१०<span class="SanskritText"> द्रव्यविषयो द्रव्यार्थ:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थ है। (न.च.वृ./१८९)।</span><br /> | ||
क.पा./१/१३-१४/१८०/२१६/७<span class="SanskritText"> तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">तद्भावलक्षण वाले सामान्य से अर्थात् पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले ऊर्ध्वता सामान्य से जो अभिन्न हैं, और सादृश्य लक्षण सामान्य से अर्थात् अनेक समान जातीय पदार्थों में पाये जाने वाले तिर्यग्सामान्य से जो कथंचित् अभिन्न है, ऐसी वस्तु को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। (ध.९/४,१,४५/१६९/११)।</span><br /> | क.पा./१/१३-१४/१८०/२१६/७<span class="SanskritText"> तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">तद्भावलक्षण वाले सामान्य से अर्थात् पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले ऊर्ध्वता सामान्य से जो अभिन्न हैं, और सादृश्य लक्षण सामान्य से अर्थात् अनेक समान जातीय पदार्थों में पाये जाने वाले तिर्यग्सामान्य से जो कथंचित् अभिन्न है, ऐसी वस्तु को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। (ध.९/४,१,४५/१६९/११)।</span><br /> | ||
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का.अ./मू./२६९<span class="PrakritText"> जो साहदि सामण्णं अविणाभूदं विसेसरूवेहिं। णाणाजुत्तिबलादो दव्वत्थो सो णओ होदि।</span>=<span class="HindiText">जो नय वस्तु के विशेषरूपों से अविनाभूत सामान्यरूप को नाना युक्तियों के बल से साधता है, वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | का.अ./मू./२६९<span class="PrakritText"> जो साहदि सामण्णं अविणाभूदं विसेसरूवेहिं। णाणाजुत्तिबलादो दव्वत्थो सो णओ होदि।</span>=<span class="HindiText">जो नय वस्तु के विशेषरूपों से अविनाभूत सामान्यरूप को नाना युक्तियों के बल से साधता है, वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.1.3" id="IV.1.3"> द्रव्य की अपेक्षा विषय की अद्वैतता<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="IV.1.3.1" id="IV.1.3.1">द्रव्य से भिन्न पर्याय नाम की कोई वस्तु नहीं</span><br /> | ||
रा.वा./१/३३/१/९४/२५ <span class="SanskritText">द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव नातोऽन्ये भावविकारा:, नाप्यभाव: तद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरिति द्रव्यास्तिक:। ...अथवा, द्रव्यमेवार्थोऽस्य न गुणकर्मणी तदवस्थारूपत्वादिति द्रव्यार्थिक:।...।</span>=<span class="HindiText">द्रव्य का होना ही द्रव्य का अस्तित्व है उससे अन्य भावविकार या पर्याय नहीं है, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यास्तिकनय है। अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ या विषय है, गुण व कर्म (क्रिया या पर्याय) नहीं, क्योंकि वे भी तदवस्थारूप अर्थात् द्रव्यरूप ही हैं, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | रा.वा./१/३३/१/९४/२५ <span class="SanskritText">द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव नातोऽन्ये भावविकारा:, नाप्यभाव: तद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरिति द्रव्यास्तिक:। ...अथवा, द्रव्यमेवार्थोऽस्य न गुणकर्मणी तदवस्थारूपत्वादिति द्रव्यार्थिक:।...।</span>=<span class="HindiText">द्रव्य का होना ही द्रव्य का अस्तित्व है उससे अन्य भावविकार या पर्याय नहीं है, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यास्तिकनय है। अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ या विषय है, गुण व कर्म (क्रिया या पर्याय) नहीं, क्योंकि वे भी तदवस्थारूप अर्थात् द्रव्यरूप ही हैं, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
क.पा./१/१३-१४/१८०/२१६/१ <span class="SanskritText">द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् । न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते; सत्तादिव्यतिरिक्तपर्यायानुपलम्भात् । न चोत्पत्तिरप्यस्ति; असत: खरविषाणस्योत्पत्तिविरोधात् ।... एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। पर्याय द्रव्य से पृथक् उत्पन्न होती है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्तादिरूप द्रव्य से पृथक् पर्यायें नहीं पायी जाती हैं। तथा सत्तादिरूप द्रव्य से उनको पृथक् मानने पर वे असत्रूप हो जाती हैं, अत: उनकी उत्पत्ति भी नहीं बन सकती है, क्योंकि खरविषाण की तरह असत् की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। ऐसा द्रव्य जिस नय का प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | क.पा./१/१३-१४/१८०/२१६/१ <span class="SanskritText">द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् । न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते; सत्तादिव्यतिरिक्तपर्यायानुपलम्भात् । न चोत्पत्तिरप्यस्ति; असत: खरविषाणस्योत्पत्तिविरोधात् ।... एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। पर्याय द्रव्य से पृथक् उत्पन्न होती है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्तादिरूप द्रव्य से पृथक् पर्यायें नहीं पायी जाती हैं। तथा सत्तादिरूप द्रव्य से उनको पृथक् मानने पर वे असत्रूप हो जाती हैं, अत: उनकी उत्पत्ति भी नहीं बन सकती है, क्योंकि खरविषाण की तरह असत् की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। ऐसा द्रव्य जिस नय का प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | ||
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<li class="HindiText" | <li class="HindiText" name="IV.1.3.2" id="IV.1.3.2"> वस्तु के सब धर्म अभिन्न व एकरस हैं<br /> | ||
देखें - [[ सप्तभंगी#5.8 | सप्तभंगी / ५ / ८ ]](द्रव्यार्थिक नय से काल, आत्मस्वरूप आदि ८ अपेक्षाओं से द्रव्य के सर्व धर्मों में अभेद वृत्ति है)। और भी देखो‒(नय/IV/२/३/१) (नय/IV/२/६/३)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.1.4" id="IV.1.4"> क्षेत्र की अपेक्षा विषय की अद्वैतता है।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./२७/५७/६ <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकनयेन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि भवन्ति, जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि। </span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं और जीव पुद्गल व काल ये तीन द्रव्य अनेक अनेक हैं। ( देखें - [[ द्रव्य#3.4 | द्रव्य / ३ / ४ ]])।<br /> | पं.का./ता.वृ./२७/५७/६ <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकनयेन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि भवन्ति, जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि। </span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं और जीव पुद्गल व काल ये तीन द्रव्य अनेक अनेक हैं। ( देखें - [[ द्रव्य#3.4 | द्रव्य / ३ / ४ ]])।<br /> | ||
और भी देखो नय/IV/२/६/३ भेद निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश व जीव इन चारों में एक प्रदेशीपना है।<br /> | और भी देखो नय/IV/२/६/३ भेद निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश व जीव इन चारों में एक प्रदेशीपना है।<br /> | ||
देखें - [[ नय#IV.2.3 | नय / IV / २ / ३ ]]/२ प्रत्येक द्रव्य अपने अपने में स्थित है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.1.5" id="IV.1.5"> काल की अपेक्षा विषय की अद्वैतता </span><br /> | ||
ध.१/१,१,१/गा.८/१३ <span class="PrakritText">दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पणमविणट्ठं।८। </span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाववाले हैं। (ध.४/१,५,४/गा.२९/३३७) (ध.९/४,१,४९/गा.९४/२४४) (क.पा.१/१३-१४/गा.९५/२०४/२४८) (पं.का./मू./११) (पं.ध./पू.२४७)।</span><br /> | ध.१/१,१,१/गा.८/१३ <span class="PrakritText">दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पणमविणट्ठं।८। </span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाववाले हैं। (ध.४/१,५,४/गा.२९/३३७) (ध.९/४,१,४९/गा.९४/२४४) (क.पा.१/१३-१४/गा.९५/२०४/२४८) (पं.का./मू./११) (पं.ध./पू.२४७)।</span><br /> | ||
क.पा.१/१३-१४/१८०/२१६/१ <span class="SanskritText">अयं सर्वोऽपि द्रव्यप्रस्तार: सदादि परमाणुपर्यन्तो नित्य:; द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् ।...सत: आविर्भाव एव उत्पाद: तस्यैव तिरोभाव एव विनाश:, इति द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तुनित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेत् स्थितम् । एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">सत् से लेकर परमाणु पर्यन्त ये सब द्रव्यप्रस्तार नित्य हैं, क्योंकि द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। सत् का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है ऐसा समझना चाहिए। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से समस्त | क.पा.१/१३-१४/१८०/२१६/१ <span class="SanskritText">अयं सर्वोऽपि द्रव्यप्रस्तार: सदादि परमाणुपर्यन्तो नित्य:; द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् ।...सत: आविर्भाव एव उत्पाद: तस्यैव तिरोभाव एव विनाश:, इति द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तुनित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेत् स्थितम् । एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">सत् से लेकर परमाणु पर्यन्त ये सब द्रव्यप्रस्तार नित्य हैं, क्योंकि द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। सत् का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है ऐसा समझना चाहिए। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से समस्त वस्तुएँ नित्य हैं। इसलिए न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है। यह निश्चय हो जाता है। इस प्रकार का द्रव्य जिस नय का प्रयोजन या विषय है, वह द्रव्यार्थिकनय है। (ध.१/१,१,१/८४/७)।<br /> | ||
और भी देखो‒(नय/IV/२/३/३) (नय/IV/२/६/२)।<br /> | और भी देखो‒(नय/IV/२/३/३) (नय/IV/२/६/२)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.1.6" id="IV.1.6"> भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता</span><br /> | ||
रा.वा./१/३३/१/९५/४ <span class="SanskritText">अथवा अर्यते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थ: कार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवार्थोऽस्य कारणमेव कार्यं नार्थान्तरत्वम्, न कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वाङ्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:।...अथवा अर्थनमर्थ: प्रयोजनम्, द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिङ्गदर्शनस्य निह्नोतुमशक्यत्वादिति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">अथवा जो प्राप्त होता है या निष्पन्न होता है, ऐसा कार्य ही अर्थ है। और परिणमन करता है या प्राप्त करता है ऐसा द्रव्य कारण है। द्रव्य ही उस कारण का अर्थ या कार्य है। अर्थात् कारण ही कार्य है, जो कार्य से भिन्न नहीं है। कारण व कार्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है। उङ्गली व उसकी पोरी की | रा.वा./१/३३/१/९५/४ <span class="SanskritText">अथवा अर्यते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थ: कार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवार्थोऽस्य कारणमेव कार्यं नार्थान्तरत्वम्, न कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वाङ्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:।...अथवा अर्थनमर्थ: प्रयोजनम्, द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिङ्गदर्शनस्य निह्नोतुमशक्यत्वादिति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">अथवा जो प्राप्त होता है या निष्पन्न होता है, ऐसा कार्य ही अर्थ है। और परिणमन करता है या प्राप्त करता है ऐसा द्रव्य कारण है। द्रव्य ही उस कारण का अर्थ या कार्य है। अर्थात् कारण ही कार्य है, जो कार्य से भिन्न नहीं है। कारण व कार्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है। उङ्गली व उसकी पोरी की भाँति दोनों एकाकार हैं। ऐसा द्रव्यार्थिकनय कहता है। अथवा अर्थन या अर्थ का अर्थ प्रयोजन है। द्रव्य ही जिसका अर्थ या प्रयोजन है सो द्रव्यार्थिक नय है। इसके विचार में अन्वय विज्ञान, अनुगताकार वचन और अनुगत धर्मों का अर्थात् ज्ञान, शब्द व अर्थ तीनों का लोप नहीं किया जा सकता। तीनों एकरूप हैं। </span><br /> | ||
क.पा.१/१३-१४/१८०/२१६/२ <span class="SanskritText">न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते ...असदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभावाच्च।...एतद्द्रव्यमर्थं प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य से पृथग्भूत पर्यायों की उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि असत् पदार्थ किया नहीं जा सकता; कार्य को उत्पन्न करने के लिए उपादानकारण का ग्रहण किया जाता है; सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पायी जाती; समर्थ कारण भी शक्य कार्य को ही करते हैं; तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है। ऐसा द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | क.पा.१/१३-१४/१८०/२१६/२ <span class="SanskritText">न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते ...असदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभावाच्च।...एतद्द्रव्यमर्थं प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य से पृथग्भूत पर्यायों की उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि असत् पदार्थ किया नहीं जा सकता; कार्य को उत्पन्न करने के लिए उपादानकारण का ग्रहण किया जाता है; सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पायी जाती; समर्थ कारण भी शक्य कार्य को ही करते हैं; तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है। ऐसा द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | ||
और भी दे०‒(नय/IV/२/३/४); (नय/IV/२/६/७,१०)।<br /> | और भी दे०‒(नय/IV/२/३/४); (नय/IV/२/६/७,१०)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="IV.1.7" id="IV.1.7">इसी से यह नय वास्तव में एक, अवक्तव्य व निर्विकल्प है </span><br /> | ||
क.पा.१/१३-१४/गा.१०७/२०५ <span class="PrakritText">जाव दविओपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।१०७। </span>=<span class="HindiText">जिसके पीछे विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसे अन्तिमविशेष तक द्रव्योपयोग की प्रवृत्ति होती है।</span><br /> | क.पा.१/१३-१४/गा.१०७/२०५ <span class="PrakritText">जाव दविओपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।१०७। </span>=<span class="HindiText">जिसके पीछे विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसे अन्तिमविशेष तक द्रव्योपयोग की प्रवृत्ति होती है।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./५१८<span class="SanskritText"> भवति द्रव्यार्थिक इति नय: स्वधात्वर्थसंज्ञकश्चैक: </span>=<span class="HindiText">वह अपने धात्वर्थ के अनुसार संज्ञावाला द्रव्यार्थिक नय एक है।<br /> | पं.ध./पू./५१८<span class="SanskritText"> भवति द्रव्यार्थिक इति नय: स्वधात्वर्थसंज्ञकश्चैक: </span>=<span class="HindiText">वह अपने धात्वर्थ के अनुसार संज्ञावाला द्रव्यार्थिक नय एक है।<br /> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2" id="IV.2"> शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय निर्देश</span><br /> | ||
ध.९/४,१,४५/१७०/५ <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:...अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:।</span> =<span class="HindiText">संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक है और व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक। (क.पा.१/१३-१४/१८२/२१९/१) (त.सा./१/४१)।</span><br /> | ध.९/४,१,४५/१७०/५ <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:...अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:।</span> =<span class="HindiText">संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक है और व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक। (क.पा.१/१३-१४/१८२/२१९/१) (त.सा./१/४१)।</span><br /> | ||
आ.प./९ <span class="PrakritText">शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदो।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध निश्चय व अशुद्ध निश्चय दोनों द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं।<br /> | आ.प./९ <span class="PrakritText">शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदो।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध निश्चय व अशुद्ध निश्चय दोनों द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं।<br /> | ||
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<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.2" id="IV.2.2"> शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण<br /> | ||
</span> | </span> | ||
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.2.1" id="IV.2.2.1"> शुद्ध, एक व वचनातीत तत्त्व का प्रयोजक </span><br /> | ||
आ.प./९ <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध द्रव्य ही है अर्थ और प्रयोजन जिसका सो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | आ.प./९ <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध द्रव्य ही है अर्थ और प्रयोजन जिसका सो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
न.च./श्रुत/पृ.४३<span class="SanskritText"> शुद्धद्रव्यार्थेन चरतीति शुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">जो शुद्धद्रव्य के अर्थरूप से आचरण करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | न.च./श्रुत/पृ.४३<span class="SanskritText"> शुद्धद्रव्यार्थेन चरतीति शुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">जो शुद्धद्रव्य के अर्थरूप से आचरण करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.3" id="IV.2.3"> शुद्धद्रव्यार्थिक नय का विषय<br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="IV.2.3.1" id="IV.2.3.1">द्रव्य की अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य</span><br /> | ||
स.सा./मू./१४ <span class="PrakritGatha">जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।१४। </span>=<span class="HindiText">जो नय आत्मा को बन्ध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे | स.सा./मू./१४ <span class="PrakritGatha">जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।१४। </span>=<span class="HindiText">जो नय आत्मा को बन्ध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे पाँच भावरूप से देखता है, उसे हे शिष्य ! तू शुद्धनय जान।१४। (पं.वि./११/१७)।</span><br /> | ||
ध.९/४,१,४५/१७०/५ <span class="SanskritText">सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलङ्काभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:।</span> =<span class="HindiText">जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी अद्वैतता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। (विशेष देखें - [[ नय#III.4 | नय / III / ४ ]]) (क.पा./१/१३-१४/१८२/२१९/१) (न्या.दी./३/८४/१२८)।</span><br /> | ध.९/४,१,४५/१७०/५ <span class="SanskritText">सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलङ्काभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:।</span> =<span class="HindiText">जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी अद्वैतता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। (विशेष देखें - [[ नय#III.4 | नय / III / ४ ]]) (क.पा./१/१३-१४/१८२/२१९/१) (न्या.दी./३/८४/१२८)।</span><br /> | ||
प्र.स./त.प्र./१२५<span class="SanskritText"> शुद्धद्रव्यनिरूपणायां परद्रव्यसंपर्कासंभवात्पर्यायाणां द्रव्यान्त:प्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते। </span>=<span class="HindiText">शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य के संपर्क का असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर लीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है।<br /> | प्र.स./त.प्र./१२५<span class="SanskritText"> शुद्धद्रव्यनिरूपणायां परद्रव्यसंपर्कासंभवात्पर्यायाणां द्रव्यान्त:प्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते। </span>=<span class="HindiText">शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य के संपर्क का असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर लीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है।<br /> | ||
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और भी देखो नय/IV/२/६/३ (भेद निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय)।<br /> | और भी देखो नय/IV/२/६/३ (भेद निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.3.2" id="IV.2.3.2"> क्षेत्र की अपेक्षा स्व में स्थिति</span><br /> | ||
प.प्र./मू./१/२९/३२ <span class="PrakritGatha">देहादेहिं जो वसइ भेयाभेयणएण। सो अप्पा मुणि जीव तुहुं किं अण्णें बहुएण।२९।</span><br /> | प.प्र./मू./१/२९/३२ <span class="PrakritGatha">देहादेहिं जो वसइ भेयाभेयणएण। सो अप्पा मुणि जीव तुहुं किं अण्णें बहुएण।२९।</span><br /> | ||
प.प्र./टी./२ <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयनयेन तु अभेदनयेन स्वदेहाद्भिन्ने स्वात्मनि वसति य: तमात्मानं मन्यस्व। </span>=<span class="HindiText">जो व्यवहार नय से देह में तथा निश्चयनय से आत्मा में बसता है उसे ही हे जीव तू आत्मा जान।२९। शुद्धनिश्चयनय अर्थात् अभेदनय से अपनी देह से भिन्न रहता हुआ वह निजात्मा में बसता है।</span><br /> | प.प्र./टी./२ <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयनयेन तु अभेदनयेन स्वदेहाद्भिन्ने स्वात्मनि वसति य: तमात्मानं मन्यस्व। </span>=<span class="HindiText">जो व्यवहार नय से देह में तथा निश्चयनय से आत्मा में बसता है उसे ही हे जीव तू आत्मा जान।२९। शुद्धनिश्चयनय अर्थात् अभेदनय से अपनी देह से भिन्न रहता हुआ वह निजात्मा में बसता है।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./१९/५८/२ <span class="SanskritText">सर्वद्रव्याणि निश्चयनयेन स्वकीयप्रदेशेषु तिष्ठन्ति।</span> =<span class="HindiText">सभी द्रव्य निश्चयनय से निज निज प्रदेशों में रहते हैं। और भी देखो‒(नय/IV/१/४); (नय/२/६/३)।<br /> | द्र.सं./टी./१९/५८/२ <span class="SanskritText">सर्वद्रव्याणि निश्चयनयेन स्वकीयप्रदेशेषु तिष्ठन्ति।</span> =<span class="HindiText">सभी द्रव्य निश्चयनय से निज निज प्रदेशों में रहते हैं। और भी देखो‒(नय/IV/१/४); (नय/२/६/३)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.3.3" id="IV.2.3.3"> काल की अपेक्षा उत्पादव्यय रहित है</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./११/२७/१९ <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन नरनारकादिविभावपरिणामोत्पत्तिविनाशरहितम् । </span>=<span class="HindiText">शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से नर नारकादि विभाव परिणामों की उत्पत्ति तथा विनाश से रहित है।</span><br /> | पं.का./ता.वृ./११/२७/१९ <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन नरनारकादिविभावपरिणामोत्पत्तिविनाशरहितम् । </span>=<span class="HindiText">शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से नर नारकादि विभाव परिणामों की उत्पत्ति तथा विनाश से रहित है।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./२१६ <span class="SanskritText">यदि वा शुद्धत्वनयान्नाप्युप्पादो व्ययोऽपि न ध्रौव्यम् । ...केवलं सदिति।२१६। </span>=<span class="HindiText">शुद्धनय की अपेक्षा न उत्पाद है, न व्यय है और न ध्रौव्य है, केवल सत् है।<br /> | पं.ध./पू./२१६ <span class="SanskritText">यदि वा शुद्धत्वनयान्नाप्युप्पादो व्ययोऽपि न ध्रौव्यम् । ...केवलं सदिति।२१६। </span>=<span class="HindiText">शुद्धनय की अपेक्षा न उत्पाद है, न व्यय है और न ध्रौव्य है, केवल सत् है।<br /> | ||
और भी देखो‒(नय/IV/१/५); (नय/IV/२/६/२)।<br /> | और भी देखो‒(नय/IV/१/५); (नय/IV/२/६/२)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.3.4" id="IV.2.3.4"> भाव की अपेक्षा एक व शुद्ध स्वभावी है</span><br /> | ||
आ.प./८ <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभाव:।</span> =<span class="HindiText">(पुद्गल का भी) शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से शुद्धस्वभाव है।</span><br /> | आ.प./८ <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभाव:।</span> =<span class="HindiText">(पुद्गल का भी) शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से शुद्धस्वभाव है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./परि./नय नं.४७ <span class="SanskritText">शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरूपाधिस्वभावम् । </span>=<span class="HindiText">शुद्धनय से आत्मा केवल मिट्टीमात्र की | प्र.सा./त.प्र./परि./नय नं.४७ <span class="SanskritText">शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरूपाधिस्वभावम् । </span>=<span class="HindiText">शुद्धनय से आत्मा केवल मिट्टीमात्र की भाँति शुद्धस्वभाव वाला है। (घट, रामपात्र आदि की भाँति पर्यायगत स्वभाव वाला नहीं)।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ.१/४/२१ <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव होता है।<br /> | पं.का./ता.वृ.१/४/२१ <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव होता है।<br /> | ||
और भी देखें - [[ नय | नय | और भी देखें - [[ नय#V.1.5 | नय / V / १ / ५ ]]/१ (जीव तो बन्ध व मोक्ष से अतीत है)।<br /> | ||
और भी देखो आगे (नय/IV/२/६/१०)।<br /> | और भी देखो आगे (नय/IV/२/६/१०)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.4" id="IV.2.4"> अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण </span><br /> | ||
ध.९/४,१,४५/१७१/३<span class="SanskritText"> पर्यायकलङ्किततया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:। </span>=<span class="HindiText">(अनेक भेदों रूप) पर्यायकलंक से युक्त होने के कारण व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक है। (विशेष देखें - [[ नय | नय | ध.९/४,१,४५/१७१/३<span class="SanskritText"> पर्यायकलङ्किततया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:। </span>=<span class="HindiText">(अनेक भेदों रूप) पर्यायकलंक से युक्त होने के कारण व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक है। (विशेष देखें - [[ नय#V.4 | नय / V / ४ ]]) (क.पा.१/१३-१४/१८२/२१९/२)।</span><br /> | ||
आ.प./८ <span class="SanskritText">अशुद्धद्रव्यार्थिकेन अशुद्धस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय से (पुद्गल द्रव्य का) अशुद्ध स्वभाव है।</span><br /> | आ.प./८ <span class="SanskritText">अशुद्धद्रव्यार्थिकेन अशुद्धस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय से (पुद्गल द्रव्य का) अशुद्ध स्वभाव है।</span><br /> | ||
आ.प./९ <span class="SanskritText">अशुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध द्रव्य ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। (न.च./श्रुत/पृ.४३)।</span><br /> | आ.प./९ <span class="SanskritText">अशुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध द्रव्य ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। (न.च./श्रुत/पृ.४३)।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./परि./नय.नं.४६ <span class="SanskritText">अशुद्धनयेन घटशराबविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधि स्वभावम् ।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध नय से आत्मा घट शराब आदि विशिष्ट (अर्थात् पर्यायकृत भेदों से विशिष्ट) मिट्टी मात्र की | प्र.सा./त.प्र./परि./नय.नं.४६ <span class="SanskritText">अशुद्धनयेन घटशराबविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधि स्वभावम् ।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध नय से आत्मा घट शराब आदि विशिष्ट (अर्थात् पर्यायकृत भेदों से विशिष्ट) मिट्टी मात्र की भाँति सोपाधिस्वभाव वाला है।</span><br /> | ||
पं.वि./१/१७,२७...<span class="SanskritText">इतरद्वाच्यं च तद्वाचकं।...प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कल्पितम् ।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध तत्त्व वचनगोचर है। उसका वाचक तथा भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध नय है।<br /> | पं.वि./१/१७,२७...<span class="SanskritText">इतरद्वाच्यं च तद्वाचकं।...प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कल्पितम् ।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध तत्त्व वचनगोचर है। उसका वाचक तथा भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध नय है।<br /> | ||
स.सा./पं.जयचन्द/६ अन्य परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषय हैं।<br /> | स.सा./पं.जयचन्द/६ अन्य परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषय हैं।<br /> | ||
और भी देखो नय/V/४ (व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होने से, उसके ही सर्व विकल्प अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विकल्प हैं।<br /> | और भी देखो नय/V/४ (व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होने से, उसके ही सर्व विकल्प अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विकल्प हैं।<br /> | ||
और भी देखो नय/IV/२/६ (अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय | और भी देखो नय/IV/२/६ (अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय पाँच विकल्पों द्वारा लक्षण किया गया है)।<br /> | ||
और भी देखो नय/V/१–(अशुद्ध निश्चय नय का लक्षण)।<br /> | और भी देखो नय/V/१–(अशुद्ध निश्चय नय का लक्षण)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.5" id="IV.2.5"> द्रव्यार्थिक के दश भेदों का निर्देश</span><br /> | ||
आ.प./५ <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकस्य दश भेदा:। कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको, ...उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिक:, ...भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिक:, ...कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको,...उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको,...स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको।</span> =<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय के १० भेद हैं––१. कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; २. उत्पादव्यय गौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक; ३. भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; ४. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; ५. उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; ६. भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक; ७. अन्वय द्रव्यार्थिक; ८. स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; ९. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; १०. परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक। (न.च./श्रुत/पृ.३६-३७)<br /> | आ.प./५ <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकस्य दश भेदा:। कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको, ...उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिक:, ...भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिक:, ...कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको,...उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको,...स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको।</span> =<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय के १० भेद हैं––१. कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; २. उत्पादव्यय गौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक; ३. भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; ४. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; ५. उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; ६. भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक; ७. अन्वय द्रव्यार्थिक; ८. स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; ९. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; १०. परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक। (न.च./श्रुत/पृ.३६-३७)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6" id="IV.2.6"> द्रव्यार्थिक नयदशक के लक्षण<br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.1" id="IV.2.6.1"> कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक </span><br /> | ||
आ.प./५ <span class="SanskritText">कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारी जीवो सिद्धसदृक् शुद्धात्मा।</span>=<span class="HindiText">’संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्धात्मा है’ ऐसा कहना कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | आ.प./५ <span class="SanskritText">कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारी जीवो सिद्धसदृक् शुद्धात्मा।</span>=<span class="HindiText">’संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्धात्मा है’ ऐसा कहना कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
न.च.वृ./१९१<span class="PrakritGatha"> कम्माणं मज्झगदं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं। भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो। </span>=<span class="HindiText">कर्मों से | न.च.वृ./१९१<span class="PrakritGatha"> कम्माणं मज्झगदं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं। भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो। </span>=<span class="HindiText">कर्मों से बँधे हुए जीव को जो सिद्धों के सदृश शुद्ध बताता है, वह कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय है। (न.च./श्रुत/पृ.४०/श्लो.३)</span><br /> | ||
न.च./श्रुत/पृ.३<span class="SanskritText"> मिथ्यात्वादिगुणस्थाने सिद्धत्वं वदति स्फुटं। कर्मभिर्निरपेक्षो य: शुद्धद्रव्यार्थिको हि स:।१।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में अर्थात् अशुद्ध भावों में स्थित जीव का जो सिद्धत्व कहता है वह कर्मनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | न.च./श्रुत/पृ.३<span class="SanskritText"> मिथ्यात्वादिगुणस्थाने सिद्धत्वं वदति स्फुटं। कर्मभिर्निरपेक्षो य: शुद्धद्रव्यार्थिको हि स:।१।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में अर्थात् अशुद्ध भावों में स्थित जीव का जो सिद्धत्व कहता है वह कर्मनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./१०७<span class="SanskritText"> कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ताग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्तम् ।</span>=<span class="HindiText">कर्मोपाधि निरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्धनिश्चयरूप द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा इन द्रव्य व भाव कर्मों से निर्मुक्त है।<br /> | नि.सा./ता.वृ./१०७<span class="SanskritText"> कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ताग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्तम् ।</span>=<span class="HindiText">कर्मोपाधि निरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्धनिश्चयरूप द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा इन द्रव्य व भाव कर्मों से निर्मुक्त है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.2" id="IV.2.6.2"> सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक</span><br /> | ||
आ.प./५ उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा, द्रव्यं नित्यम् ।=<span class="HindiText">उत्पादव्ययगौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक नय से द्रव्य नित्य या नित्यस्वभावी है। (आ.प./८), (न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.२)</span><br /> | आ.प./५ उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा, द्रव्यं नित्यम् ।=<span class="HindiText">उत्पादव्ययगौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक नय से द्रव्य नित्य या नित्यस्वभावी है। (आ.प./८), (न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.२)</span><br /> | ||
न.च.वृ./१९२ <span class="PrakritGatha">उप्पादवयं गउणं किच्चा जो गहइ केवला सत्ता। भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहिओ समये।१९२।</span> =<span class="HindiText">उत्पाद और व्यय को गौण करके मुख्य रूप से जो केवल सत्ता को ग्रहण करता है, वह सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। (न.च./श्रुत/४०/श्लो.४)</span><br /> | न.च.वृ./१९२ <span class="PrakritGatha">उप्पादवयं गउणं किच्चा जो गहइ केवला सत्ता। भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहिओ समये।१९२।</span> =<span class="HindiText">उत्पाद और व्यय को गौण करके मुख्य रूप से जो केवल सत्ता को ग्रहण करता है, वह सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। (न.च./श्रुत/४०/श्लो.४)</span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./१९ <span class="SanskritText">सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन पूर्वोक्तव्यञ्जनपर्यायेभ्य: सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्तजीवराशय: सर्वथा व्यतिरिक्ता एव।</span> =<span class="HindiText">सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के बल से, मुक्त तथा अमुक्त सभी जीव पूर्वोक्त (नर नारक आदि) व्यंजन पर्यायों से सर्वथा व्यतिरिक्त ही हैं।<br /> | नि.सा./ता.वृ./१९ <span class="SanskritText">सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन पूर्वोक्तव्यञ्जनपर्यायेभ्य: सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्तजीवराशय: सर्वथा व्यतिरिक्ता एव।</span> =<span class="HindiText">सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के बल से, मुक्त तथा अमुक्त सभी जीव पूर्वोक्त (नर नारक आदि) व्यंजन पर्यायों से सर्वथा व्यतिरिक्त ही हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.3" id="IV.2.6.3"> भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक </span><br /> | ||
आ.प./५ <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिको यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद् द्रव्यमभिन्नम् ।</span><br /> | आ.प./५ <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिको यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद् द्रव्यमभिन्नम् ।</span><br /> | ||
आ.प./८ <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्षेणैकस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य निज गुणपर्यायों के स्वभाव से अभिन्न है तथा एक स्वभावी है। (न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.३)</span><br /> | आ.प./८ <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्षेणैकस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य निज गुणपर्यायों के स्वभाव से अभिन्न है तथा एक स्वभावी है। (न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.३)</span><br /> | ||
न.च.वृ./१९३ <span class="SanskritGatha">गुणगुणिआइचउक्के अत्थे जो णो करइ खलु भेयं। सुद्धो सो दव्वत्थो भेयवियप्पेण णिरवेक्खो।१९३।</span>=<span class="HindiText">गुण-गुणी और पर्याय-पर्यायी रूप ऐसे चार प्रकार के अर्थ में जो भेद नहीं करता है अर्थात् उन्हें एकरूप ही कहता है, वह भेदविकल्पों से निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है। (और भी देखें - [[ नय | नय | न.च.वृ./१९३ <span class="SanskritGatha">गुणगुणिआइचउक्के अत्थे जो णो करइ खलु भेयं। सुद्धो सो दव्वत्थो भेयवियप्पेण णिरवेक्खो।१९३।</span>=<span class="HindiText">गुण-गुणी और पर्याय-पर्यायी रूप ऐसे चार प्रकार के अर्थ में जो भेद नहीं करता है अर्थात् उन्हें एकरूप ही कहता है, वह भेदविकल्पों से निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है। (और भी देखें - [[ नय#V.1.2 | नय / V / १ / २ ]]) (न.च./श्रुत/४१/श्लो.५)</span><br /> | ||
आ.प./८ <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां धर्माधर्माकाशजीवानां चाखण्डत्वादेकप्रदेशत्वम् ।</span>=<span class="HindiText">भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश और जीव इन चारों बहुप्रदेशी द्रव्यों के अखण्डता होने के कारण एकप्रदेशपना है।<br /> | आ.प./८ <span class="SanskritText">भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां धर्माधर्माकाशजीवानां चाखण्डत्वादेकप्रदेशत्वम् ।</span>=<span class="HindiText">भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश और जीव इन चारों बहुप्रदेशी द्रव्यों के अखण्डता होने के कारण एकप्रदेशपना है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="IV.2.6.4" id="IV.2.6.4">कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक </span><br /> | ||
आ.प./५ <span class="SanskritText">कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा। </span>=<span class="HindiText">कर्मजनित क्रोधादि भाव ही आत्मा है ऐसा कहना कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | आ.प./५ <span class="SanskritText">कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा। </span>=<span class="HindiText">कर्मजनित क्रोधादि भाव ही आत्मा है ऐसा कहना कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
न.च.वृ./१९४ <span class="SanskritGatha">भावे सरायमादी सव्वे जीवम्मि जो दु जंपदि। सो हु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो।१९४। </span>=<span class="HindiText">जो सर्व रागादि भावों को जीव में कहता है अर्थात् जीव को रागादिस्वरूप कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। (न.च./श्रुत/४१/श्लो.१)</span><br /> | न.च.वृ./१९४ <span class="SanskritGatha">भावे सरायमादी सव्वे जीवम्मि जो दु जंपदि। सो हु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो।१९४। </span>=<span class="HindiText">जो सर्व रागादि भावों को जीव में कहता है अर्थात् जीव को रागादिस्वरूप कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। (न.च./श्रुत/४१/श्लो.१)</span><br /> | ||
न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.४ <span class="SanskritGatha">औदयिकादित्रिभावान् यो ब्रूते सर्वात्मसत्तया। कर्मोपाधिविशिष्टात्मा स्यादशुद्धस्तु निश्चय:।४।</span> =<span class="HindiText">जो नय औदयिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक इन तीन भावों को आत्मसत्ता से युक्त बतलाता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।<br /> | न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.४ <span class="SanskritGatha">औदयिकादित्रिभावान् यो ब्रूते सर्वात्मसत्तया। कर्मोपाधिविशिष्टात्मा स्यादशुद्धस्तु निश्चय:।४।</span> =<span class="HindiText">जो नय औदयिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक इन तीन भावों को आत्मसत्ता से युक्त बतलाता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="IV.2.6.5" id="IV.2.6.5">उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक</span><br /> | ||
आ.प./५ <span class="SanskritText">उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथैकस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम् ।</span>=<span class="HindiText">उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य एक समय में ही उत्पाद व्यय व ध्रौव्य रूप इस प्रकार त्रयात्मक है। (न.च.वृ./१९५), (न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.५) (न.च./श्रुत/४१/श्लो.२)<br /> | आ.प./५ <span class="SanskritText">उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथैकस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम् ।</span>=<span class="HindiText">उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य एक समय में ही उत्पाद व्यय व ध्रौव्य रूप इस प्रकार त्रयात्मक है। (न.च.वृ./१९५), (न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.५) (न.च./श्रुत/४१/श्लो.२)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.6" id="IV.2.6.6"> भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक</span><br /> | ||
आ.प./५<span class="SanskritText"> भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथात्मनो ज्ञानदर्शनज्ञानादयो गुणा:।</span><br /> | आ.प./५<span class="SanskritText"> भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथात्मनो ज्ञानदर्शनज्ञानादयो गुणा:।</span><br /> | ||
आ.प./८ <span class="SanskritText">भेदकल्पनासापेक्षेण चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम् । </span>=<span class="HindiText">भेद कल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा ज्ञान दर्शन आदि आत्मा के गुण हैं, (ऐसा गुण गुणी भेद होता है)–तथा धर्म, अधर्म, आकाश व जीव ये चारों द्रव्य अनेक प्रदेश स्वभाव वाले हैं।</span><br /> | आ.प./८ <span class="SanskritText">भेदकल्पनासापेक्षेण चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम् । </span>=<span class="HindiText">भेद कल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा ज्ञान दर्शन आदि आत्मा के गुण हैं, (ऐसा गुण गुणी भेद होता है)–तथा धर्म, अधर्म, आकाश व जीव ये चारों द्रव्य अनेक प्रदेश स्वभाव वाले हैं।</span><br /> | ||
न.च.वृ./१९६ <span class="PrakritText">भेए सदि सबन्धं गुणगुणियाईहि कुणदि जो दव्वे। सो वि अशुद्धो दिट्टी सहिओ सो भेदकप्पेण।</span>=<span class="HindiText">जो द्रव्य में गुण-गुणी भेद करके उनमें सम्बन्ध स्थापित करता है (जैसे द्रव्य गुण व पर्याय वाला है अथवा जीव ज्ञानवान् है) वह भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। (न.च./श्रुत/५/श्लो.६ तथा/४१/ख.३) (विशेष देखें - [[ नय | नय | न.च.वृ./१९६ <span class="PrakritText">भेए सदि सबन्धं गुणगुणियाईहि कुणदि जो दव्वे। सो वि अशुद्धो दिट्टी सहिओ सो भेदकप्पेण।</span>=<span class="HindiText">जो द्रव्य में गुण-गुणी भेद करके उनमें सम्बन्ध स्थापित करता है (जैसे द्रव्य गुण व पर्याय वाला है अथवा जीव ज्ञानवान् है) वह भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। (न.च./श्रुत/५/श्लो.६ तथा/४१/ख.३) (विशेष देखें - [[ नय#V.4 | नय / V / ४ ]])<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.7" id="IV.2.6.7"> अन्वय द्रव्यार्थिक </span><br /> | ||
आ.प./५ <span class="SanskritText">अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको यथा, गुणपर्यायस्वभावं द्रव्यम् ।</span><br /> | आ.प./५ <span class="SanskritText">अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको यथा, गुणपर्यायस्वभावं द्रव्यम् ।</span><br /> | ||
आ.प./८ <span class="SanskritText">अन्वयद्रव्यार्थिकत्वेनैकस्याप्यनेकस्वभावत्वम् ।</span> =<span class="HindiText">अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है और इसीलिए इस नय की अपेक्षा एक द्रव्य के भी अनेक स्वभावीपना है। (जैसे–जीव ज्ञानस्वरूप है, जीव दर्शनस्वरूप है इत्यादि)</span><br /> | आ.प./८ <span class="SanskritText">अन्वयद्रव्यार्थिकत्वेनैकस्याप्यनेकस्वभावत्वम् ।</span> =<span class="HindiText">अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है और इसीलिए इस नय की अपेक्षा एक द्रव्य के भी अनेक स्वभावीपना है। (जैसे–जीव ज्ञानस्वरूप है, जीव दर्शनस्वरूप है इत्यादि)</span><br /> | ||
न.च.वृ./१९७<span class="PrakritGatha"> निस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदव्वेहिं। विवहावणाहि जो सो अण्णयदव्वत्थिओ भणिदो।१९७। </span>=<span class="HindiText">नि:शेष स्वभावों को जो सर्व द्रव्यों के साथ अन्वय या अनुस्यूत रूप से कहता है वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है (न.च./श्रुत/४१/श्लो.४)</span><br /> | न.च.वृ./१९७<span class="PrakritGatha"> निस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदव्वेहिं। विवहावणाहि जो सो अण्णयदव्वत्थिओ भणिदो।१९७। </span>=<span class="HindiText">नि:शेष स्वभावों को जो सर्व द्रव्यों के साथ अन्वय या अनुस्यूत रूप से कहता है वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है (न.च./श्रुत/४१/श्लो.४)</span><br /> | ||
न.च./श्रुत/पृ.५/श्लो.७ <span class="SanskritGatha">नि:शेषगुणपर्यायान् प्रत्येकं द्रव्यमब्रबीत् । सोऽन्वयो निश्चयो हेम यथा सत्कटकादिषु।७।</span> =<span class="HindiText">जो सम्पूर्ण गुणों और पर्यायों में से प्रत्येक को द्रव्य बतलाता है, वह विद्यमान कड़े वगैरह में अनुबद्ध रहने वाले स्वर्ण की | न.च./श्रुत/पृ.५/श्लो.७ <span class="SanskritGatha">नि:शेषगुणपर्यायान् प्रत्येकं द्रव्यमब्रबीत् । सोऽन्वयो निश्चयो हेम यथा सत्कटकादिषु।७।</span> =<span class="HindiText">जो सम्पूर्ण गुणों और पर्यायों में से प्रत्येक को द्रव्य बतलाता है, वह विद्यमान कड़े वगैरह में अनुबद्ध रहने वाले स्वर्ण की भाँति अन्वयद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./१०१/१४०/११ <span class="SanskritText">पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्यार्थिकनय:। </span>= <span class="HindiText">जो पूर्वोक्त उत्पाद आदि तीन का तथा स्वसंवेदन ज्ञान दर्शन चारित्र इन तीन गुणों का (उपलक्षण से सम्पूर्ण गुण व पर्यायों का) आधार है वह अन्वय द्रव्य कहलाता है। वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है।<br /> | प्र.सा./ता.वृ./१०१/१४०/११ <span class="SanskritText">पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्यार्थिकनय:। </span>= <span class="HindiText">जो पूर्वोक्त उत्पाद आदि तीन का तथा स्वसंवेदन ज्ञान दर्शन चारित्र इन तीन गुणों का (उपलक्षण से सम्पूर्ण गुण व पर्यायों का) आधार है वह अन्वय द्रव्य कहलाता है। वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="IV.2.6.8" id="IV.2.6.8">स्वद्रव्यादि ग्राहक</span><br /> | ||
आ.प./५ <span class="SanskritText">स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति।</span> =<span class="HindiText">स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव इस स्वचतुष्टय से ही द्रव्य का अस्तित्व है या इन चारों रूप ही द्रव्य का अस्तित्व स्वभाव है। (आ.प./८); (न.च.वृ./१९८); (न.च./श्रुत/पृ.३ व पृ.४१/श्लो.५); (नय/I/५/२)<br /> | आ.प./५ <span class="SanskritText">स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति।</span> =<span class="HindiText">स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव इस स्वचतुष्टय से ही द्रव्य का अस्तित्व है या इन चारों रूप ही द्रव्य का अस्तित्व स्वभाव है। (आ.प./८); (न.च.वृ./१९८); (न.च./श्रुत/पृ.३ व पृ.४१/श्लो.५); (नय/I/५/२)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.9" id="IV.2.6.9"> परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक</span><br /> | ||
आ.प./५ <span class="SanskritText">परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति।</span>=<span class="HindiText">परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव इस परचतुष्टय से द्रव्य का नास्तित्व है। अर्थात् परचतुष्टय की अपेक्षा द्रव्य का नास्तित्व स्वभाव है। (आ.प./८); (न.च.वृ./१९८); (न.च./श्रुत/पृ.३ तथा ४१/श्लो.६); (नय/I/५/२)<br /> | आ.प./५ <span class="SanskritText">परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति।</span>=<span class="HindiText">परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव इस परचतुष्टय से द्रव्य का नास्तित्व है। अर्थात् परचतुष्टय की अपेक्षा द्रव्य का नास्तित्व स्वभाव है। (आ.प./८); (न.च.वृ./१९८); (न.च./श्रुत/पृ.३ तथा ४१/श्लो.६); (नय/I/५/२)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.10" id="IV.2.6.10"> परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक </span><br /> | ||
आ.प./५ <span class="SanskritText">परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–ज्ञानस्वरूप आत्मा। </span>=<span class="HindiText">परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा ज्ञानस्वभाव में स्थित है।</span><br /> | आ.प./५ <span class="SanskritText">परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–ज्ञानस्वरूप आत्मा। </span>=<span class="HindiText">परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा ज्ञानस्वभाव में स्थित है।</span><br /> | ||
आ.प./८ <span class="SanskritText">परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभाव:। ...कर्मनोकर्मणोरचेतनस्वभाव:। ... कर्मनोकर्मणोर्मूर्तस्वभाव:।...पुद्गलं विहाय इतरेषाममूर्त्तस्वभाव:। ...कालपरमाणूनामेकप्रदेशस्वभावम् । </span>=<span class="HindiText">परमभावग्राहक नय से भव्य व अभव्य पारिणामिक स्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म अचेतनस्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म मूर्तस्वभावी हैं, पुद्गल के अतिरिक्त शेष द्रव्य अमूर्तस्वभावी हैं; काल व परमाणु एकप्रदेशस्वभावी है।</span><br /> | आ.प./८ <span class="SanskritText">परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभाव:। ...कर्मनोकर्मणोरचेतनस्वभाव:। ... कर्मनोकर्मणोर्मूर्तस्वभाव:।...पुद्गलं विहाय इतरेषाममूर्त्तस्वभाव:। ...कालपरमाणूनामेकप्रदेशस्वभावम् । </span>=<span class="HindiText">परमभावग्राहक नय से भव्य व अभव्य पारिणामिक स्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म अचेतनस्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म मूर्तस्वभावी हैं, पुद्गल के अतिरिक्त शेष द्रव्य अमूर्तस्वभावी हैं; काल व परमाणु एकप्रदेशस्वभावी है।</span><br /> |
Revision as of 22:20, 1 March 2015
- द्रव्यार्थिकनय सामान्य निर्देश
- द्रव्यार्थिकनय का लक्षण
- द्रव्य ही प्रयोजन जिसका
स.सि./१/६/२१/१ द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य जिसका प्रयोजन है, सो द्रव्यार्थिक है। (रा.वा./१/३३/१/९५/८); (ध.१/१,१,१/८३/११) (ध.९/४,१,४५/१७०/१) (क.पा./१/१३-१४/१८०/२१६/६) (आ.प./९) (नि.सा./ता.वृ./१९)।
- पर्याय को गौण करके द्रव्य का ग्रहण
श्लो.वा.२/१/६/श्लो.१९/३६१ तत्रांशिन्यपि नि:शेषधर्माणां गुणतागतौ। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपत:।१९। =जब सब अंशों को गौणरूप से तथा अंशी को मुख्यरूप से जानना इष्ट हो, तब द्रव्यार्थिकनय का व्यापार होता है।
न.च.वृ./१९० पज्जयगउणं किच्चा दव्वंपि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ...।१९०।=पर्याय को गौण करके जो इस लोक में द्रव्य को ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं।
स.सा./आ./१३ द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु में जो द्रव्य को मुख्यरूप से अनुभव करावे सो द्रव्यार्थिकनय है।
न.दी./३/८२/१२५ तत्र द्रव्यार्थिकनय: द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकान्तं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थं विभज्य पर्यायार्थिकनयविषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमभ्यनुजानन् स्वविषयं द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, नयान्तरविषयसापेक्ष: सन्नय: इत्यभिधानात् । यथा सुवर्णमानयेति। अत्र द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्णद्रव्यानयनचोदनायां कटकं कुण्डलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् ।=द्रव्यार्थिकनय प्रमाण के विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानेकात्मक अनेकान्तस्वरूप अर्थ का विभाग करके पर्यायार्थिकनय के विषयभूत भेद को गौण करता हुआ, उसकी स्थितिमात्र को स्वीकार कर अपने विषयभूत द्रव्य को अभेदरूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता। इसलिए दूसरे नय के विषय की अपेक्षा रखने वाले नय को सद्नय कहा है। जैसे‒यह कहना कि ‘सोना लाओ’। यहाँ द्रव्यार्थिकनय के अभिप्राय से ‘सोना लाओ’ के कहने पर लाने वाला कड़ा, कुण्डल, केयूर (या सोने की डली) इनमें से किसी को भी ले आने से कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोनारूप से कड़ा आदि में कोई भेद नहीं है।
- द्रव्य ही प्रयोजन जिसका
- द्रव्यार्थिकनय वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है
स.सि./१/३३/१४०/९ द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग: अनुवृत्तिरियर्त्थ:। तद्विषयो द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। और इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिकनय है। (त.सा./१/३९)।
क.पा./१/१३-१४/गा.१०७/२०५/२५२ पज्जवणयवाक्कंतं वत्थू [त्थं] द्रव्वट्ठियस्स वयणिज्जं। जाव दवियोपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।१०७। =जिस के पश्चात् विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसा द्रव्योपयोग अर्थात् सामान्यज्ञान जहाँ तक होता है, वहाँ तक वह वस्तु द्रव्यार्थिकनय का विषय है। तथा वह पर्यायार्थिकनय से आक्रान्त है। अथवा जो वस्तु पर्यायार्थिकनय के द्वारा ग्रहण करके छोड़ दी गयी है, वह द्रव्यार्थिकनय का विषय है। (स.सि./१/६/२०/१०); (ह.पु./५८/४२)।
श्लो.वा.४/१/३३/३/२१५/१० द्रव्यविषयो द्रव्यार्थ:। =द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थ है। (न.च.वृ./१८९)।
क.पा./१/१३-१४/१८०/२१६/७ तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् ।=तद्भावलक्षण वाले सामान्य से अर्थात् पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले ऊर्ध्वता सामान्य से जो अभिन्न हैं, और सादृश्य लक्षण सामान्य से अर्थात् अनेक समान जातीय पदार्थों में पाये जाने वाले तिर्यग्सामान्य से जो कथंचित् अभिन्न है, ऐसी वस्तु को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। (ध.९/४,१,४५/१६९/११)।
प्र.सा./त.प्र./११४ पर्यायार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यंङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यमेकमवलोकयतामनवलोकितविशेषाणां तत्सर्वजीवद्रव्यमिति प्रतिभाति। =पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, तिर्यंक्त्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीव सामान्य को देखने वाले और विशेषों को न देखने वाले जीवों को ‘यह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है।
का.अ./मू./२६९ जो साहदि सामण्णं अविणाभूदं विसेसरूवेहिं। णाणाजुत्तिबलादो दव्वत्थो सो णओ होदि।=जो नय वस्तु के विशेषरूपों से अविनाभूत सामान्यरूप को नाना युक्तियों के बल से साधता है, वह द्रव्यार्थिकनय है।
- द्रव्य की अपेक्षा विषय की अद्वैतता
- द्रव्य से भिन्न पर्याय नाम की कोई वस्तु नहीं
रा.वा./१/३३/१/९४/२५ द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव नातोऽन्ये भावविकारा:, नाप्यभाव: तद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरिति द्रव्यास्तिक:। ...अथवा, द्रव्यमेवार्थोऽस्य न गुणकर्मणी तदवस्थारूपत्वादिति द्रव्यार्थिक:।...।=द्रव्य का होना ही द्रव्य का अस्तित्व है उससे अन्य भावविकार या पर्याय नहीं है, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यास्तिकनय है। अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ या विषय है, गुण व कर्म (क्रिया या पर्याय) नहीं, क्योंकि वे भी तदवस्थारूप अर्थात् द्रव्यरूप ही हैं, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यार्थिक नय है।
क.पा./१/१३-१४/१८०/२१६/१ द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् । न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते; सत्तादिव्यतिरिक्तपर्यायानुपलम्भात् । न चोत्पत्तिरप्यस्ति; असत: खरविषाणस्योत्पत्तिविरोधात् ।... एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। पर्याय द्रव्य से पृथक् उत्पन्न होती है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्तादिरूप द्रव्य से पृथक् पर्यायें नहीं पायी जाती हैं। तथा सत्तादिरूप द्रव्य से उनको पृथक् मानने पर वे असत्रूप हो जाती हैं, अत: उनकी उत्पत्ति भी नहीं बन सकती है, क्योंकि खरविषाण की तरह असत् की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। ऐसा द्रव्य जिस नय का प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।
- वस्तु के सब धर्म अभिन्न व एकरस हैं
देखें - सप्तभंगी / ५ / ८ (द्रव्यार्थिक नय से काल, आत्मस्वरूप आदि ८ अपेक्षाओं से द्रव्य के सर्व धर्मों में अभेद वृत्ति है)। और भी देखो‒(नय/IV/२/३/१) (नय/IV/२/६/३)।
- द्रव्य से भिन्न पर्याय नाम की कोई वस्तु नहीं
- क्षेत्र की अपेक्षा विषय की अद्वैतता है।
पं.का./ता.वृ./२७/५७/६ द्रव्यार्थिकनयेन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि भवन्ति, जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि। =द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं और जीव पुद्गल व काल ये तीन द्रव्य अनेक अनेक हैं। ( देखें - द्रव्य / ३ / ४ )।
और भी देखो नय/IV/२/६/३ भेद निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश व जीव इन चारों में एक प्रदेशीपना है।
देखें - नय / IV / २ / ३ /२ प्रत्येक द्रव्य अपने अपने में स्थित है।
- काल की अपेक्षा विषय की अद्वैतता
ध.१/१,१,१/गा.८/१३ दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पणमविणट्ठं।८। =द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाववाले हैं। (ध.४/१,५,४/गा.२९/३३७) (ध.९/४,१,४९/गा.९४/२४४) (क.पा.१/१३-१४/गा.९५/२०४/२४८) (पं.का./मू./११) (पं.ध./पू.२४७)।
क.पा.१/१३-१४/१८०/२१६/१ अयं सर्वोऽपि द्रव्यप्रस्तार: सदादि परमाणुपर्यन्तो नित्य:; द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् ।...सत: आविर्भाव एव उत्पाद: तस्यैव तिरोभाव एव विनाश:, इति द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तुनित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेत् स्थितम् । एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। =सत् से लेकर परमाणु पर्यन्त ये सब द्रव्यप्रस्तार नित्य हैं, क्योंकि द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। सत् का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है ऐसा समझना चाहिए। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से समस्त वस्तुएँ नित्य हैं। इसलिए न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है। यह निश्चय हो जाता है। इस प्रकार का द्रव्य जिस नय का प्रयोजन या विषय है, वह द्रव्यार्थिकनय है। (ध.१/१,१,१/८४/७)।
और भी देखो‒(नय/IV/२/३/३) (नय/IV/२/६/२)।
- भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता
रा.वा./१/३३/१/९५/४ अथवा अर्यते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थ: कार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवार्थोऽस्य कारणमेव कार्यं नार्थान्तरत्वम्, न कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वाङ्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:।...अथवा अर्थनमर्थ: प्रयोजनम्, द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिङ्गदर्शनस्य निह्नोतुमशक्यत्वादिति द्रव्यार्थिक:। =अथवा जो प्राप्त होता है या निष्पन्न होता है, ऐसा कार्य ही अर्थ है। और परिणमन करता है या प्राप्त करता है ऐसा द्रव्य कारण है। द्रव्य ही उस कारण का अर्थ या कार्य है। अर्थात् कारण ही कार्य है, जो कार्य से भिन्न नहीं है। कारण व कार्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है। उङ्गली व उसकी पोरी की भाँति दोनों एकाकार हैं। ऐसा द्रव्यार्थिकनय कहता है। अथवा अर्थन या अर्थ का अर्थ प्रयोजन है। द्रव्य ही जिसका अर्थ या प्रयोजन है सो द्रव्यार्थिक नय है। इसके विचार में अन्वय विज्ञान, अनुगताकार वचन और अनुगत धर्मों का अर्थात् ज्ञान, शब्द व अर्थ तीनों का लोप नहीं किया जा सकता। तीनों एकरूप हैं।
क.पा.१/१३-१४/१८०/२१६/२ न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते ...असदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभावाच्च।...एतद्द्रव्यमर्थं प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य से पृथग्भूत पर्यायों की उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि असत् पदार्थ किया नहीं जा सकता; कार्य को उत्पन्न करने के लिए उपादानकारण का ग्रहण किया जाता है; सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पायी जाती; समर्थ कारण भी शक्य कार्य को ही करते हैं; तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है। ऐसा द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।
और भी दे०‒(नय/IV/२/३/४); (नय/IV/२/६/७,१०)।
- इसी से यह नय वास्तव में एक, अवक्तव्य व निर्विकल्प है
क.पा.१/१३-१४/गा.१०७/२०५ जाव दविओपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।१०७। =जिसके पीछे विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसे अन्तिमविशेष तक द्रव्योपयोग की प्रवृत्ति होती है।
पं.ध./पू./५१८ भवति द्रव्यार्थिक इति नय: स्वधात्वर्थसंज्ञकश्चैक: =वह अपने धात्वर्थ के अनुसार संज्ञावाला द्रव्यार्थिक नय एक है।
और भी देखो‒(नय/V/२)
- द्रव्यार्थिकनय का लक्षण
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय निर्देश
ध.९/४,१,४५/१७०/५ शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:...अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:। =संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक है और व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक। (क.पा.१/१३-१४/१८२/२१९/१) (त.सा./१/४१)।
आ.प./९ शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदो। =शुद्ध निश्चय व अशुद्ध निश्चय दोनों द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं।
- शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण
- शुद्ध, एक व वचनातीत तत्त्व का प्रयोजक
आ.प./९ शुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक:। =शुद्ध द्रव्य ही है अर्थ और प्रयोजन जिसका सो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
न.च./श्रुत/पृ.४३ शुद्धद्रव्यार्थेन चरतीति शुद्धद्रव्यार्थिक:। =जो शुद्धद्रव्य के अर्थरूप से आचरण करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।
पं.विं./१/१५७ शुद्धं वागतिवर्तितत्त्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति...। =शुद्ध तत्त्व वचन के अगोचर है, ऐसे शुद्ध तत्त्व को ग्रहण करने वाला नय शुद्धादेश है। (पं.ध./पू./७४७)।
पं.ध./उ./३३,१३३ अथ शुद्धनयादेशाच्छुद्धश्चैकविधोऽपि य:। =शुद्ध नय की अपेक्षा से जीव एक तथा शुद्ध है।
और भी देखें - नय / III / ४ ‒(सत्मात्र है अन्य कुछ नहीं)।
- शुद्ध, एक व वचनातीत तत्त्व का प्रयोजक
- शुद्धद्रव्यार्थिक नय का विषय
- द्रव्य की अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य
स.सा./मू./१४ जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।१४। =जो नय आत्मा को बन्ध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे पाँच भावरूप से देखता है, उसे हे शिष्य ! तू शुद्धनय जान।१४। (पं.वि./११/१७)।
ध.९/४,१,४५/१७०/५ सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलङ्काभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:। =जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी अद्वैतता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। (विशेष देखें - नय / III / ४ ) (क.पा./१/१३-१४/१८२/२१९/१) (न्या.दी./३/८४/१२८)।
प्र.स./त.प्र./१२५ शुद्धद्रव्यनिरूपणायां परद्रव्यसंपर्कासंभवात्पर्यायाणां द्रव्यान्त:प्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते। =शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य के संपर्क का असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर लीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है।
और भी देखो नय/V/१/२ (निश्चय से न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है (आत्मा तो एक ज्ञायक मात्र है)।
और भी देखो नय/IV/१/३ (द्रव्यार्थिक नय सामान्य में द्रव्य का अद्वैत)।
और भी देखो नय/IV/२/६/३ (भेद निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय)।
- क्षेत्र की अपेक्षा स्व में स्थिति
प.प्र./मू./१/२९/३२ देहादेहिं जो वसइ भेयाभेयणएण। सो अप्पा मुणि जीव तुहुं किं अण्णें बहुएण।२९।
प.प्र./टी./२ शुद्धनिश्चयनयेन तु अभेदनयेन स्वदेहाद्भिन्ने स्वात्मनि वसति य: तमात्मानं मन्यस्व। =जो व्यवहार नय से देह में तथा निश्चयनय से आत्मा में बसता है उसे ही हे जीव तू आत्मा जान।२९। शुद्धनिश्चयनय अर्थात् अभेदनय से अपनी देह से भिन्न रहता हुआ वह निजात्मा में बसता है।
द्र.सं./टी./१९/५८/२ सर्वद्रव्याणि निश्चयनयेन स्वकीयप्रदेशेषु तिष्ठन्ति। =सभी द्रव्य निश्चयनय से निज निज प्रदेशों में रहते हैं। और भी देखो‒(नय/IV/१/४); (नय/२/६/३)।
- काल की अपेक्षा उत्पादव्यय रहित है
पं.का./ता.वृ./११/२७/१९ शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन नरनारकादिविभावपरिणामोत्पत्तिविनाशरहितम् । =शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से नर नारकादि विभाव परिणामों की उत्पत्ति तथा विनाश से रहित है।
पं.ध./पू./२१६ यदि वा शुद्धत्वनयान्नाप्युप्पादो व्ययोऽपि न ध्रौव्यम् । ...केवलं सदिति।२१६। =शुद्धनय की अपेक्षा न उत्पाद है, न व्यय है और न ध्रौव्य है, केवल सत् है।
और भी देखो‒(नय/IV/१/५); (नय/IV/२/६/२)।
- भाव की अपेक्षा एक व शुद्ध स्वभावी है
आ.प./८ शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभाव:। =(पुद्गल का भी) शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से शुद्धस्वभाव है।
प्र.सा./त.प्र./परि./नय नं.४७ शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरूपाधिस्वभावम् । =शुद्धनय से आत्मा केवल मिट्टीमात्र की भाँति शुद्धस्वभाव वाला है। (घट, रामपात्र आदि की भाँति पर्यायगत स्वभाव वाला नहीं)।
पं.का./ता.वृ.१/४/२१ शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति। =शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव होता है।
और भी देखें - नय / V / १ / ५ /१ (जीव तो बन्ध व मोक्ष से अतीत है)।
और भी देखो आगे (नय/IV/२/६/१०)।
- द्रव्य की अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य
- अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण
ध.९/४,१,४५/१७१/३ पर्यायकलङ्किततया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:। =(अनेक भेदों रूप) पर्यायकलंक से युक्त होने के कारण व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक है। (विशेष देखें - नय / V / ४ ) (क.पा.१/१३-१४/१८२/२१९/२)।
आ.प./८ अशुद्धद्रव्यार्थिकेन अशुद्धस्वभाव:। =अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय से (पुद्गल द्रव्य का) अशुद्ध स्वभाव है।
आ.प./९ अशुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धद्रव्यार्थिक:। =अशुद्ध द्रव्य ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। (न.च./श्रुत/पृ.४३)।
प्र.सा./त.प्र./परि./नय.नं.४६ अशुद्धनयेन घटशराबविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधि स्वभावम् । =अशुद्ध नय से आत्मा घट शराब आदि विशिष्ट (अर्थात् पर्यायकृत भेदों से विशिष्ट) मिट्टी मात्र की भाँति सोपाधिस्वभाव वाला है।
पं.वि./१/१७,२७...इतरद्वाच्यं च तद्वाचकं।...प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कल्पितम् ।=शुद्ध तत्त्व वचनगोचर है। उसका वाचक तथा भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध नय है।
स.सा./पं.जयचन्द/६ अन्य परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषय हैं।
और भी देखो नय/V/४ (व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होने से, उसके ही सर्व विकल्प अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विकल्प हैं।
और भी देखो नय/IV/२/६ (अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय पाँच विकल्पों द्वारा लक्षण किया गया है)।
और भी देखो नय/V/१–(अशुद्ध निश्चय नय का लक्षण)।
- द्रव्यार्थिक के दश भेदों का निर्देश
आ.प./५ द्रव्यार्थिकस्य दश भेदा:। कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको, ...उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिक:, ...भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिक:, ...कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको,...उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको,...स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको। =द्रव्यार्थिकनय के १० भेद हैं––१. कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; २. उत्पादव्यय गौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक; ३. भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; ४. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; ५. उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; ६. भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक; ७. अन्वय द्रव्यार्थिक; ८. स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; ९. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; १०. परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक। (न.च./श्रुत/पृ.३६-३७)
- द्रव्यार्थिक नयदशक के लक्षण
- कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक
आ.प./५ कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारी जीवो सिद्धसदृक् शुद्धात्मा।=’संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्धात्मा है’ ऐसा कहना कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।
न.च.वृ./१९१ कम्माणं मज्झगदं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं। भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो। =कर्मों से बँधे हुए जीव को जो सिद्धों के सदृश शुद्ध बताता है, वह कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय है। (न.च./श्रुत/पृ.४०/श्लो.३)
न.च./श्रुत/पृ.३ मिथ्यात्वादिगुणस्थाने सिद्धत्वं वदति स्फुटं। कर्मभिर्निरपेक्षो य: शुद्धद्रव्यार्थिको हि स:।१। =मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में अर्थात् अशुद्ध भावों में स्थित जीव का जो सिद्धत्व कहता है वह कर्मनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।
नि.सा./ता.वृ./१०७ कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ताग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्तम् ।=कर्मोपाधि निरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्धनिश्चयरूप द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा इन द्रव्य व भाव कर्मों से निर्मुक्त है।
- सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक
आ.प./५ उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा, द्रव्यं नित्यम् ।=उत्पादव्ययगौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक नय से द्रव्य नित्य या नित्यस्वभावी है। (आ.प./८), (न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.२)
न.च.वृ./१९२ उप्पादवयं गउणं किच्चा जो गहइ केवला सत्ता। भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहिओ समये।१९२। =उत्पाद और व्यय को गौण करके मुख्य रूप से जो केवल सत्ता को ग्रहण करता है, वह सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। (न.च./श्रुत/४०/श्लो.४)
नि.सा./ता.वृ./१९ सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन पूर्वोक्तव्यञ्जनपर्यायेभ्य: सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्तजीवराशय: सर्वथा व्यतिरिक्ता एव। =सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के बल से, मुक्त तथा अमुक्त सभी जीव पूर्वोक्त (नर नारक आदि) व्यंजन पर्यायों से सर्वथा व्यतिरिक्त ही हैं।
- भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक
आ.प./५ भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिको यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद् द्रव्यमभिन्नम् ।
आ.प./८ भेदकल्पनानिरपेक्षेणैकस्वभाव:। =भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य निज गुणपर्यायों के स्वभाव से अभिन्न है तथा एक स्वभावी है। (न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.३)
न.च.वृ./१९३ गुणगुणिआइचउक्के अत्थे जो णो करइ खलु भेयं। सुद्धो सो दव्वत्थो भेयवियप्पेण णिरवेक्खो।१९३।=गुण-गुणी और पर्याय-पर्यायी रूप ऐसे चार प्रकार के अर्थ में जो भेद नहीं करता है अर्थात् उन्हें एकरूप ही कहता है, वह भेदविकल्पों से निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है। (और भी देखें - नय / V / १ / २ ) (न.च./श्रुत/४१/श्लो.५)
आ.प./८ भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां धर्माधर्माकाशजीवानां चाखण्डत्वादेकप्रदेशत्वम् ।=भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश और जीव इन चारों बहुप्रदेशी द्रव्यों के अखण्डता होने के कारण एकप्रदेशपना है।
- कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक
आ.प./५ कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा। =कर्मजनित क्रोधादि भाव ही आत्मा है ऐसा कहना कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
न.च.वृ./१९४ भावे सरायमादी सव्वे जीवम्मि जो दु जंपदि। सो हु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो।१९४। =जो सर्व रागादि भावों को जीव में कहता है अर्थात् जीव को रागादिस्वरूप कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। (न.च./श्रुत/४१/श्लो.१)
न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.४ औदयिकादित्रिभावान् यो ब्रूते सर्वात्मसत्तया। कर्मोपाधिविशिष्टात्मा स्यादशुद्धस्तु निश्चय:।४। =जो नय औदयिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक इन तीन भावों को आत्मसत्ता से युक्त बतलाता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
- उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक
आ.प./५ उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथैकस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम् ।=उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य एक समय में ही उत्पाद व्यय व ध्रौव्य रूप इस प्रकार त्रयात्मक है। (न.च.वृ./१९५), (न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.५) (न.च./श्रुत/४१/श्लो.२)
- भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक
आ.प./५ भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथात्मनो ज्ञानदर्शनज्ञानादयो गुणा:।
आ.प./८ भेदकल्पनासापेक्षेण चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम् । =भेद कल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा ज्ञान दर्शन आदि आत्मा के गुण हैं, (ऐसा गुण गुणी भेद होता है)–तथा धर्म, अधर्म, आकाश व जीव ये चारों द्रव्य अनेक प्रदेश स्वभाव वाले हैं।
न.च.वृ./१९६ भेए सदि सबन्धं गुणगुणियाईहि कुणदि जो दव्वे। सो वि अशुद्धो दिट्टी सहिओ सो भेदकप्पेण।=जो द्रव्य में गुण-गुणी भेद करके उनमें सम्बन्ध स्थापित करता है (जैसे द्रव्य गुण व पर्याय वाला है अथवा जीव ज्ञानवान् है) वह भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। (न.च./श्रुत/५/श्लो.६ तथा/४१/ख.३) (विशेष देखें - नय / V / ४ )
- अन्वय द्रव्यार्थिक
आ.प./५ अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको यथा, गुणपर्यायस्वभावं द्रव्यम् ।
आ.प./८ अन्वयद्रव्यार्थिकत्वेनैकस्याप्यनेकस्वभावत्वम् । =अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है और इसीलिए इस नय की अपेक्षा एक द्रव्य के भी अनेक स्वभावीपना है। (जैसे–जीव ज्ञानस्वरूप है, जीव दर्शनस्वरूप है इत्यादि)
न.च.वृ./१९७ निस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदव्वेहिं। विवहावणाहि जो सो अण्णयदव्वत्थिओ भणिदो।१९७। =नि:शेष स्वभावों को जो सर्व द्रव्यों के साथ अन्वय या अनुस्यूत रूप से कहता है वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है (न.च./श्रुत/४१/श्लो.४)
न.च./श्रुत/पृ.५/श्लो.७ नि:शेषगुणपर्यायान् प्रत्येकं द्रव्यमब्रबीत् । सोऽन्वयो निश्चयो हेम यथा सत्कटकादिषु।७। =जो सम्पूर्ण गुणों और पर्यायों में से प्रत्येक को द्रव्य बतलाता है, वह विद्यमान कड़े वगैरह में अनुबद्ध रहने वाले स्वर्ण की भाँति अन्वयद्रव्यार्थिक नय है।
प्र.सा./ता.वृ./१०१/१४०/११ पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्यार्थिकनय:। = जो पूर्वोक्त उत्पाद आदि तीन का तथा स्वसंवेदन ज्ञान दर्शन चारित्र इन तीन गुणों का (उपलक्षण से सम्पूर्ण गुण व पर्यायों का) आधार है वह अन्वय द्रव्य कहलाता है। वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है।
- स्वद्रव्यादि ग्राहक
आ.प./५ स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति। =स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव इस स्वचतुष्टय से ही द्रव्य का अस्तित्व है या इन चारों रूप ही द्रव्य का अस्तित्व स्वभाव है। (आ.प./८); (न.च.वृ./१९८); (न.च./श्रुत/पृ.३ व पृ.४१/श्लो.५); (नय/I/५/२)
- परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक
आ.प./५ परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति।=परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव इस परचतुष्टय से द्रव्य का नास्तित्व है। अर्थात् परचतुष्टय की अपेक्षा द्रव्य का नास्तित्व स्वभाव है। (आ.प./८); (न.च.वृ./१९८); (न.च./श्रुत/पृ.३ तथा ४१/श्लो.६); (नय/I/५/२)
- परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक
आ.प./५ परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–ज्ञानस्वरूप आत्मा। =परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा ज्ञानस्वभाव में स्थित है।
आ.प./८ परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभाव:। ...कर्मनोकर्मणोरचेतनस्वभाव:। ... कर्मनोकर्मणोर्मूर्तस्वभाव:।...पुद्गलं विहाय इतरेषाममूर्त्तस्वभाव:। ...कालपरमाणूनामेकप्रदेशस्वभावम् । =परमभावग्राहक नय से भव्य व अभव्य पारिणामिक स्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म अचेतनस्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म मूर्तस्वभावी हैं, पुद्गल के अतिरिक्त शेष द्रव्य अमूर्तस्वभावी हैं; काल व परमाणु एकप्रदेशस्वभावी है।
न.च.वृ./१९९ गेह्णइ दव्वसहावं असुद्धसुद्धोवयारपरिचत्तं। सो परमभावगाही णायव्वो सिद्धिकामेण।१९९। =जो औदयिकादि अशुद्धभावों से तथा शुद्ध क्षायिकभाव के उपचार से रहित केवल द्रव्य के त्रिकाली परिणामाभावरूप स्वभाव को ग्रहण करता है उसे परमभावग्राही नय जानना चाहिए। (न.च.वृ./११६)
न.च./श्रुत/पृ.३ संसारमुक्तपर्यायाणामाधारं भूत्वाप्यात्मद्रव्यकर्मबन्धमोक्षाणां कारणं न भवतीति परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकनय:। =परमभाव ग्राहकनय की अपेक्षा आत्मा संसार व मुक्त पर्यायों का आधार होकर भी कर्मों के बन्ध व मोक्ष का कारण नहीं होता है।
स.सा./ता.वृ./३२०/४०८/५ सर्वविशुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धोपादानभूतेन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन कर्तृत्व-भोक्तृत्वमोक्षादिकारणपरिणामशून्यो जीव इति सूचित:। =सर्वविशुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक, शुद्ध उपादानभूत शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से, जीव कर्ता, भोक्ता व मोक्ष आदि के कारणरूप परिणमों से शून्य है।
द्र.सं./टी./५७/२३६ यस्तु शुद्धशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न। =जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्ध-पारिणामिक परमभावरूप परम निश्चय मोक्ष है वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है। वह अब प्रकट होगी, ऐसा नहीं है।
और भी दे० (नय/V/१/५ शुद्धनिश्चय नय बन्ध मोक्ष से अतीत शुद्ध जीव को विषय करता है)।
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