अंतरिक्ष लोक: Difference between revisions
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| - देखें [[ ज्योतिषदेव | ज्योतिषदेव ]]।</p> | ||
<p> <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/4/12/244/13 </span><span class="SanskritText">स एष ज्योतिर्गणगोचरो नभोऽवकाशो दशाधिकयोजनशतबहलस्तिर्यगसंख्यातद्वीपसमुद्रप्रमाणो घनोदधिपर्यंत:।</span> =<span class="HindiText">ज्योतिषियों से व्याप्त नभ:प्रदेश 110 योजन मोटा और घनोदधि पर्यंत असंख्यात द्वीपसमुद्र प्रमाण लंबा है।<br /> | |||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/7/5-8 </span>{1 राजू<sup>2</sup>×110}–अगम्यक्षेत्र 13032925015 योजन प्रमाण क्षेत्र में सर्व ज्योतिषी देव रहते हैं। लोक के अंत में पूर्वपश्चिम दिशा में घनोदधि वातवलय को छूते हैं। उत्तर-दक्षिण दिशा में नहीं छूते।<br /> | |||
<strong>भावार्थ</strong>–1 राजू लंबे व चौड़े संपूर्ण मध्यलोक की चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर ज्योतिष लोक प्रारंभ होता है, जो उससे ऊपर 110 योजन तक आकाश में स्थित है। इस प्रकार चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर 1 राजू लंबा, 1 राजू चौड़ा 110 योजन मोटा आकाश क्षेत्र ज्योतिषी देवों के रहने व संचार करने का स्थान है, इससे ऊपर नीचे नहीं। तिसमें भी मध्य में मेरु के चारों तरफ 13032925015 योजन अगम्य क्षेत्र है, क्योंकि मेरु से 1121 योजन परे रहकर वे संचार करते हैं, उसके भीतर प्रवेश नहीं करते।<br /></p> | |||
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Revision as of 12:28, 4 November 2022
- देखें ज्योतिषदेव ।
सर्वार्थसिद्धि/4/12/244/13 स एष ज्योतिर्गणगोचरो नभोऽवकाशो दशाधिकयोजनशतबहलस्तिर्यगसंख्यातद्वीपसमुद्रप्रमाणो घनोदधिपर्यंत:। =ज्योतिषियों से व्याप्त नभ:प्रदेश 110 योजन मोटा और घनोदधि पर्यंत असंख्यात द्वीपसमुद्र प्रमाण लंबा है।
तिलोयपण्णत्ति/7/5-8 {1 राजू2×110}–अगम्यक्षेत्र 13032925015 योजन प्रमाण क्षेत्र में सर्व ज्योतिषी देव रहते हैं। लोक के अंत में पूर्वपश्चिम दिशा में घनोदधि वातवलय को छूते हैं। उत्तर-दक्षिण दिशा में नहीं छूते।
भावार्थ–1 राजू लंबे व चौड़े संपूर्ण मध्यलोक की चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर ज्योतिष लोक प्रारंभ होता है, जो उससे ऊपर 110 योजन तक आकाश में स्थित है। इस प्रकार चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर 1 राजू लंबा, 1 राजू चौड़ा 110 योजन मोटा आकाश क्षेत्र ज्योतिषी देवों के रहने व संचार करने का स्थान है, इससे ऊपर नीचे नहीं। तिसमें भी मध्य में मेरु के चारों तरफ 13032925015 योजन अगम्य क्षेत्र है, क्योंकि मेरु से 1121 योजन परे रहकर वे संचार करते हैं, उसके भीतर प्रवेश नहीं करते।