पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 136 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
कोधो व जदा माणो माया लोहो व चित्तमासेज्ज । (136)
जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो त्ति य तं बुधा वेंति ॥146॥
अर्थ:
जब चित्त का आश्रय पाकर क्रोध, मान, माया, लोभ जीव को क्षुब्ध करते हैं; तब उसे ज्ञानी कलुषता कहते हैं ।
समय-व्याख्या:
चित्तकलुषत्वस्वरूपाख्यानमेतत् ।
क्रोधमानमायालोभानां तीव्रोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम् । तेषामेव मन्दोदयेतस्य प्रसादोऽकालुष्यम् । तत् कादाचित्कविशिष्टकषायक्षयोपशमे सत्यज्ञानिनोभवति । कषायोदयानुवृत्तेरसमग्रव्यावर्तितोपयोगस्यावान्तरभूमिकासु कदाचित् ज्ञानिनोऽपिभवतीति ॥१३६॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, चित्त की कलुषता के स्वरूप का कथन है ।
क्रोध, मान, माया और लोभ के तीव्र उदय से चित्त का क्षोभ सो कलुषता है। उन्हीं के (क्रोधादि के ही) मंद उदय से चित्त की प्रसन्नता सो अकलुषता है । वह अकलुषता, कदाचित् कषाय का विशिष्ट (-खास प्रकार का) क्षयोपशम होने पर, अज्ञानी को होती है, कषाय के उदय का अनुसरण करने वाली परिणति में से उपयोग को १असमग्ररूप से विमुख किया हो तब (अर्थात् कषाय के उदय का अनुसरण करने वाले परिणमन में से उपयोग को पूर्ण विमुख न किया हो तब), मध्यम भूमिकाओं में (मध्यम गुणस्थानों में), कदाचित् ज्ञानी को भी होती है ॥१३६॥
१असमग्ररूप से= अपूर्णरूप से, अधूरेरूप से, अंशतः।