विदेह: Difference between revisions
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<li> रा.वा./३/१०/११/१७२/३३ <span class="SanskritText">विगतदेहाः विदेहाः। के पुनस्ते। येषां देहो नास्ति, कर्मबन्धसंतानोच्छेदात्। ये वा सत्यपि देहे विगतशरीरसंस्कारास्ते विदेहाः। तद्योगाज्जनपदे विदेहव्यपदेशः। तत्र हि मनुष्यो देहोच्छेदार्थं यतमाना विदेहत्वमास्कन्दन्ति। ननु च भरतैरावतयोरपि विदेहाः सन्ति। सत्यं, सन्ति कदाचिन्न तु सर्वकालम्, तत्र तु सततं धर्मोच्छेदाभावाद्विदेहाः सन्तीति प्रकर्षापेक्षो विदेहव्यपदेशः। क्व पुनरसौ। निषधनीलवतोरन्तराले तत्संनिवेशः।</span> = <span class="HindiText">विगतदेह अर्थात् देहरहित सिद्धभगवान् विदेह कहलाते हैं, क्योंकि उनके कर्मबन्धन का उच्छेद हो गया है। अथवा देह के होते हुए भी जो शरीर के संस्कारों से रहित हैं ऐसे अर्हंत भगवान् विदेह हैं। उनके योग से उस देश को भी विदेह कहते हैं। वहाँ रहने वाले मनुष्य देह का उच्छेद करने के लिए यत्न करते हुए विदेहत्व को प्राप्त किया करते हैं। <strong>प्रश्न–</strong>इस प्रकार तो भरत और ऐरावत क्षेत्रों में भी विदेह होते हैं? <strong>उत्तर–</strong>होते अवश्य हैं, परन्तु सदा नहीं, कभी-कभी होते हैं और विदेह क्षेत्र में तो सतत धर्मोच्छेद का अभाव ही रहता है, अर्थात् वहाँ धर्म की धारा अविच्छिन्न रूप से बहती है, इसलिए वहाँ सदा विदेही जन (अर्हंत भगवान्) रहते हैं। अतः प्रकर्ष की अपेक्षा उसकी विदेह कहा जाता है। यह क्षेत्र निषध और नील पर्वतों के अन्तराल में है। [इसके बहु मध्य भाग में एक सुमेरु व चार गजदन्त पर्वत हैं, जिनसे रोका गया भू-खण्ड उत्तरकुरु व देवकुरु कहलाते हैं। इनके पूर्व व पश्चिम में स्थित क्षेत्रों को पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह कहते हैं। यह दोनों ही विदेह चार-चार वक्षार गिरियों, तीन-तीन विभंगा नदियों और सीता व सीतोदा नाम की महानदियों द्वारा १६-१६ देशों में विभाजित कर दिये गये हैं। इन्हें ही ३२ विदेह कहते हैं। इस एक-एक सुमेरु सम्बन्धी ३२-३२ विदेह हैं। पाँच सुमेरुओं के मिलकर कुल १६० विदेह होते हैं ]–(विशेष | <li> रा.वा./३/१०/११/१७२/३३ <span class="SanskritText">विगतदेहाः विदेहाः। के पुनस्ते। येषां देहो नास्ति, कर्मबन्धसंतानोच्छेदात्। ये वा सत्यपि देहे विगतशरीरसंस्कारास्ते विदेहाः। तद्योगाज्जनपदे विदेहव्यपदेशः। तत्र हि मनुष्यो देहोच्छेदार्थं यतमाना विदेहत्वमास्कन्दन्ति। ननु च भरतैरावतयोरपि विदेहाः सन्ति। सत्यं, सन्ति कदाचिन्न तु सर्वकालम्, तत्र तु सततं धर्मोच्छेदाभावाद्विदेहाः सन्तीति प्रकर्षापेक्षो विदेहव्यपदेशः। क्व पुनरसौ। निषधनीलवतोरन्तराले तत्संनिवेशः।</span> = <span class="HindiText">विगतदेह अर्थात् देहरहित सिद्धभगवान् विदेह कहलाते हैं, क्योंकि उनके कर्मबन्धन का उच्छेद हो गया है। अथवा देह के होते हुए भी जो शरीर के संस्कारों से रहित हैं ऐसे अर्हंत भगवान् विदेह हैं। उनके योग से उस देश को भी विदेह कहते हैं। वहाँ रहने वाले मनुष्य देह का उच्छेद करने के लिए यत्न करते हुए विदेहत्व को प्राप्त किया करते हैं। <strong>प्रश्न–</strong>इस प्रकार तो भरत और ऐरावत क्षेत्रों में भी विदेह होते हैं? <strong>उत्तर–</strong>होते अवश्य हैं, परन्तु सदा नहीं, कभी-कभी होते हैं और विदेह क्षेत्र में तो सतत धर्मोच्छेद का अभाव ही रहता है, अर्थात् वहाँ धर्म की धारा अविच्छिन्न रूप से बहती है, इसलिए वहाँ सदा विदेही जन (अर्हंत भगवान्) रहते हैं। अतः प्रकर्ष की अपेक्षा उसकी विदेह कहा जाता है। यह क्षेत्र निषध और नील पर्वतों के अन्तराल में है। [इसके बहु मध्य भाग में एक सुमेरु व चार गजदन्त पर्वत हैं, जिनसे रोका गया भू-खण्ड उत्तरकुरु व देवकुरु कहलाते हैं। इनके पूर्व व पश्चिम में स्थित क्षेत्रों को पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह कहते हैं। यह दोनों ही विदेह चार-चार वक्षार गिरियों, तीन-तीन विभंगा नदियों और सीता व सीतोदा नाम की महानदियों द्वारा १६-१६ देशों में विभाजित कर दिये गये हैं। इन्हें ही ३२ विदेह कहते हैं। इस एक-एक सुमेरु सम्बन्धी ३२-३२ विदेह हैं। पाँच सुमेरुओं के मिलकर कुल १६० विदेह होते हैं ]–(विशेष देखें - [[ लोक#3.3 | लोक / ३ / ३ ]], १२, १४)। </span><br /> | ||
त्रि.सा./मू./६८०-६८१ <span class="PrakritGatha">देसा दुब्भिक्खीदीमारिकुदेववण्णलिंगमदहीणा। भरिदा सदावि केवलिसलागपुरिसिड्ढि-साहूहिं।६८०। तित्थद्धसयलचक्की सट्ठिसयं पुह वरेण अवरेण। वीसं वीसं सयले खेत्तेसत्तरिसयं वरदो।६८१। </span>=<span class="HindiText"> विदेह क्षेत्र के उपरोक्त सर्व देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूसा, टीडी, सूवा, अपनी सेना और पर की सेना इन सात प्रकार की ईतियों से रहित हैं। रोग मरी आदि से रहित हैं। कुदेव, कुलिंगी और कुमत से रहित हैं। केवलज्ञानी, तीर्थंकरादि शलाकापुरुष और ऋद्धिधारी साधुओं से सदा पूर्ण रहते हैं।६८०। तीर्थंकर, चक्रवर्ती व अर्धचक्री नारायण व प्रतिनारायण, ये यदि अधिक से अधिक होवें तो प्रत्येक देश में एक-एक होते हैं और इस प्रकार कुल १६० होते हैं। यदि कम से कम होवें तो सीता और सीतोदा के दक्षिण और उत्तर तटों पर एक-एक होते हैं, इस प्रकार एक विदेह में चार और पाँचों विदेहों में २० होते हैं । पाँचों भरत व पाँचों ऐरावत के मिलाने पर उत्कृष्ट रूप से १७० होते हैं। (म.पु./७६/४९६-४९७)। </span></li> | त्रि.सा./मू./६८०-६८१ <span class="PrakritGatha">देसा दुब्भिक्खीदीमारिकुदेववण्णलिंगमदहीणा। भरिदा सदावि केवलिसलागपुरिसिड्ढि-साहूहिं।६८०। तित्थद्धसयलचक्की सट्ठिसयं पुह वरेण अवरेण। वीसं वीसं सयले खेत्तेसत्तरिसयं वरदो।६८१। </span>=<span class="HindiText"> विदेह क्षेत्र के उपरोक्त सर्व देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूसा, टीडी, सूवा, अपनी सेना और पर की सेना इन सात प्रकार की ईतियों से रहित हैं। रोग मरी आदि से रहित हैं। कुदेव, कुलिंगी और कुमत से रहित हैं। केवलज्ञानी, तीर्थंकरादि शलाकापुरुष और ऋद्धिधारी साधुओं से सदा पूर्ण रहते हैं।६८०। तीर्थंकर, चक्रवर्ती व अर्धचक्री नारायण व प्रतिनारायण, ये यदि अधिक से अधिक होवें तो प्रत्येक देश में एक-एक होते हैं और इस प्रकार कुल १६० होते हैं। यदि कम से कम होवें तो सीता और सीतोदा के दक्षिण और उत्तर तटों पर एक-एक होते हैं, इस प्रकार एक विदेह में चार और पाँचों विदेहों में २० होते हैं । पाँचों भरत व पाँचों ऐरावत के मिलाने पर उत्कृष्ट रूप से १७० होते हैं। (म.पु./७६/४९६-४९७)। </span></li> | ||
<li class="HindiText"> द्वारवंग (दरभंगा) के समीप का प्रदेश है। मिथिला या जनकपुरी इसी देश में है। (म.पु.प्र.५०/पं. पन्नालाल)। </li> | <li class="HindiText"> द्वारवंग (दरभंगा) के समीप का प्रदेश है। मिथिला या जनकपुरी इसी देश में है। (म.पु.प्र.५०/पं. पन्नालाल)। </li> |
Revision as of 16:25, 6 October 2014
- रा.वा./३/१०/११/१७२/३३ विगतदेहाः विदेहाः। के पुनस्ते। येषां देहो नास्ति, कर्मबन्धसंतानोच्छेदात्। ये वा सत्यपि देहे विगतशरीरसंस्कारास्ते विदेहाः। तद्योगाज्जनपदे विदेहव्यपदेशः। तत्र हि मनुष्यो देहोच्छेदार्थं यतमाना विदेहत्वमास्कन्दन्ति। ननु च भरतैरावतयोरपि विदेहाः सन्ति। सत्यं, सन्ति कदाचिन्न तु सर्वकालम्, तत्र तु सततं धर्मोच्छेदाभावाद्विदेहाः सन्तीति प्रकर्षापेक्षो विदेहव्यपदेशः। क्व पुनरसौ। निषधनीलवतोरन्तराले तत्संनिवेशः। = विगतदेह अर्थात् देहरहित सिद्धभगवान् विदेह कहलाते हैं, क्योंकि उनके कर्मबन्धन का उच्छेद हो गया है। अथवा देह के होते हुए भी जो शरीर के संस्कारों से रहित हैं ऐसे अर्हंत भगवान् विदेह हैं। उनके योग से उस देश को भी विदेह कहते हैं। वहाँ रहने वाले मनुष्य देह का उच्छेद करने के लिए यत्न करते हुए विदेहत्व को प्राप्त किया करते हैं। प्रश्न–इस प्रकार तो भरत और ऐरावत क्षेत्रों में भी विदेह होते हैं? उत्तर–होते अवश्य हैं, परन्तु सदा नहीं, कभी-कभी होते हैं और विदेह क्षेत्र में तो सतत धर्मोच्छेद का अभाव ही रहता है, अर्थात् वहाँ धर्म की धारा अविच्छिन्न रूप से बहती है, इसलिए वहाँ सदा विदेही जन (अर्हंत भगवान्) रहते हैं। अतः प्रकर्ष की अपेक्षा उसकी विदेह कहा जाता है। यह क्षेत्र निषध और नील पर्वतों के अन्तराल में है। [इसके बहु मध्य भाग में एक सुमेरु व चार गजदन्त पर्वत हैं, जिनसे रोका गया भू-खण्ड उत्तरकुरु व देवकुरु कहलाते हैं। इनके पूर्व व पश्चिम में स्थित क्षेत्रों को पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह कहते हैं। यह दोनों ही विदेह चार-चार वक्षार गिरियों, तीन-तीन विभंगा नदियों और सीता व सीतोदा नाम की महानदियों द्वारा १६-१६ देशों में विभाजित कर दिये गये हैं। इन्हें ही ३२ विदेह कहते हैं। इस एक-एक सुमेरु सम्बन्धी ३२-३२ विदेह हैं। पाँच सुमेरुओं के मिलकर कुल १६० विदेह होते हैं ]–(विशेष देखें - लोक / ३ / ३ , १२, १४)।
त्रि.सा./मू./६८०-६८१ देसा दुब्भिक्खीदीमारिकुदेववण्णलिंगमदहीणा। भरिदा सदावि केवलिसलागपुरिसिड्ढि-साहूहिं।६८०। तित्थद्धसयलचक्की सट्ठिसयं पुह वरेण अवरेण। वीसं वीसं सयले खेत्तेसत्तरिसयं वरदो।६८१। = विदेह क्षेत्र के उपरोक्त सर्व देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूसा, टीडी, सूवा, अपनी सेना और पर की सेना इन सात प्रकार की ईतियों से रहित हैं। रोग मरी आदि से रहित हैं। कुदेव, कुलिंगी और कुमत से रहित हैं। केवलज्ञानी, तीर्थंकरादि शलाकापुरुष और ऋद्धिधारी साधुओं से सदा पूर्ण रहते हैं।६८०। तीर्थंकर, चक्रवर्ती व अर्धचक्री नारायण व प्रतिनारायण, ये यदि अधिक से अधिक होवें तो प्रत्येक देश में एक-एक होते हैं और इस प्रकार कुल १६० होते हैं। यदि कम से कम होवें तो सीता और सीतोदा के दक्षिण और उत्तर तटों पर एक-एक होते हैं, इस प्रकार एक विदेह में चार और पाँचों विदेहों में २० होते हैं । पाँचों भरत व पाँचों ऐरावत के मिलाने पर उत्कृष्ट रूप से १७० होते हैं। (म.पु./७६/४९६-४९७)। - द्वारवंग (दरभंगा) के समीप का प्रदेश है। मिथिला या जनकपुरी इसी देश में है। (म.पु.प्र.५०/पं. पन्नालाल)।