भावपाहुड गाथा 47: Difference between revisions
From जैनकोष
(New page: आगे इसी को दृढ़ करने के लिए द्रव्यलिंगधारक को उलटा उपद्रव हुआ, उदाहरण कह...) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
आगे | आगे कहते हैं कि भावरहित चौरासी लाख योनियों में भ्रण करता है -<br> | ||
<p class="PrakritGatha"> | |||
सो णत्थि तप्पएसो चउरासीलक्खजोणिवासम्मि ।<br> | |||
भावविरओ वि सवणो जत्थ णं ढुरुढुल्लिओ जीव ।।४७।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p class="SanskritGatha"> | <p class="SanskritGatha"> | ||
स: नास्ति तं प्रदेश: चतुरशीतिलक्षयोनिवासे ।<br> | |||
भावविरत: अपि श्रमण: यत्र न भ्रमित: जीव: ।।४७।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p class="HindiGatha"> | <p class="HindiGatha"> | ||
चौरासिलख योनीविषें है नहीं कोई थल जहाँ ।<br> | |||
रे भावबिन द्रवलिंगधर घूमा नहीं हो तू जहाँ ।।४७।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> इस संसार में चौरासीलाख योनि उनके निवास में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जिसमें इस जीव ने द्रव्यलिंगी मुनि होकर भी भावरहित होता हुआ भ्रण न किया हो । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> द्रव्यलिंग धारणकर | <p><b> भावार्थ -</b> द्रव्यलिंग धारणकर निर्ग्रन्थ मुनि बनकर शुद्ध स्वरूप के अनुभवरूप भाव बिना यह जीव चौरासीलाख योनियों में भ्रण ही करता रहा, ऐसा स्थान नहीं रहा, जिसमें मरण नहीं हुआ हो । आगे चौरासी लाख योनि के भेद कहते हैं - पृथ्वी, तप, तेज, आयु, नित्यनिगोद और इतरनिगोद ये तो सात-सात लाख हैं, सब बयालीस लाख हुए, वनस्पति दस लाख हैं, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय दो-दो लाख हैं, पंचेन्द्रिय तिर्यंच चार लाख, देव चार लाख, नारकी चार लाख, मनुष्य चौदह लाख । इसप्रकार चौरासी लाख हैं । ये जीवों के उत्पन्न होने के स्थान हैं ।।४७।।<br> | ||
</p> | </p> | ||
[[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | [[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | ||
[[Category:अष्टपाहुड]] | [[Category:अष्टपाहुड]] | ||
[[Category:भावपाहुड]] | [[Category:भावपाहुड]] |
Latest revision as of 10:29, 14 December 2008
आगे कहते हैं कि भावरहित चौरासी लाख योनियों में भ्रण करता है -
सो णत्थि तप्पएसो चउरासीलक्खजोणिवासम्मि ।
भावविरओ वि सवणो जत्थ णं ढुरुढुल्लिओ जीव ।।४७।।
स: नास्ति तं प्रदेश: चतुरशीतिलक्षयोनिवासे ।
भावविरत: अपि श्रमण: यत्र न भ्रमित: जीव: ।।४७।।
चौरासिलख योनीविषें है नहीं कोई थल जहाँ ।
रे भावबिन द्रवलिंगधर घूमा नहीं हो तू जहाँ ।।४७।।
अर्थ - इस संसार में चौरासीलाख योनि उनके निवास में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जिसमें इस जीव ने द्रव्यलिंगी मुनि होकर भी भावरहित होता हुआ भ्रण न किया हो ।
भावार्थ - द्रव्यलिंग धारणकर निर्ग्रन्थ मुनि बनकर शुद्ध स्वरूप के अनुभवरूप भाव बिना यह जीव चौरासीलाख योनियों में भ्रण ही करता रहा, ऐसा स्थान नहीं रहा, जिसमें मरण नहीं हुआ हो । आगे चौरासी लाख योनि के भेद कहते हैं - पृथ्वी, तप, तेज, आयु, नित्यनिगोद और इतरनिगोद ये तो सात-सात लाख हैं, सब बयालीस लाख हुए, वनस्पति दस लाख हैं, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय दो-दो लाख हैं, पंचेन्द्रिय तिर्यंच चार लाख, देव चार लाख, नारकी चार लाख, मनुष्य चौदह लाख । इसप्रकार चौरासी लाख हैं । ये जीवों के उत्पन्न होने के स्थान हैं ।।४७।।