भावपाहुड गाथा 56: Difference between revisions
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(New page: आगे कहते हैं कि ज्ञान, दर्शन, संयम, त्याग, संवर और योग ये भाव भावलिंगी मुन...) |
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आगे | आगे शिष्य पूछता है कि भावलिंग को प्रधान कर निरूपण किया, वह भावलिंग कैसा है ? इसका समाधान करने के लिए भावलिंग का निरूपण करते हैं -<br> | ||
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देहादिसंगरहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचित्तो ।<br> | |||
अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू ।।५६।।<br> | |||
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देहादिसंगरहित: मानकषायै: सकलपरित्यक्त: ।<br> | |||
आत्मा | आत्मा आत्मनि रत: स भावलिंगी भवेत् साधु ।।५६।।<br> | ||
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देहादि के संग से रहित अर रहित मान कषाय से ।<br> | |||
अर आतमारत सदा ही जो भावलिंगी श्रमण वह ।।५६।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> भावलिंगी | <p><b> अर्थ - </b> भावलिंगी साधु ऐसा होता है - देहादिक परिग्रह से रहित होता है तथा मान कषाय से रहित होता है और आत्मा में लीन होता है, वही आत्मा भावलिंगी है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> आत्मा के स्वाभाविक परिणाम को `भाव' कहते हैं, उस रूप लिंग (चिह्न), लक्षण तथा रूप हो वह भावलिंग है । आत्मा अमूर्तिक चेतनारूप है, उसका परिणाम दर्शनज्ञान है । उसमें कर्म के निमित्त से (पराश्रय करने से) बाह्य तो शरीरादिक मूर्तिक पदार्थ का संबंध है और अंतरंग मिथ्यात्व और रागद्वेष आदि कषायों का भाव है इसलिए कहते हैं -<br> | ||
बाह्य तो देहादिक परिग्रह से रहित और अंतरंग रागादिक परिणाम में अहंकाररूप मानकषाय, परभावों में अपनापन मानना इस भाव से रहित हो और अपने दर्शनज्ञानरूप चेतनाभाव में लीन हो वह `भावलिंग' है जिसको इसप्रकार के भाव हों वह भावलिंगी साधु है ।।५६।।<br> | |||
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Latest revision as of 10:36, 14 December 2008
आगे शिष्य पूछता है कि भावलिंग को प्रधान कर निरूपण किया, वह भावलिंग कैसा है ? इसका समाधान करने के लिए भावलिंग का निरूपण करते हैं -
देहादिसंगरहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचित्तो ।
अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू ।।५६।।
देहादिसंगरहित: मानकषायै: सकलपरित्यक्त: ।
आत्मा आत्मनि रत: स भावलिंगी भवेत् साधु ।।५६।।
देहादि के संग से रहित अर रहित मान कषाय से ।
अर आतमारत सदा ही जो भावलिंगी श्रमण वह ।।५६।।
अर्थ - भावलिंगी साधु ऐसा होता है - देहादिक परिग्रह से रहित होता है तथा मान कषाय से रहित होता है और आत्मा में लीन होता है, वही आत्मा भावलिंगी है ।
भावार्थ - आत्मा के स्वाभाविक परिणाम को `भाव' कहते हैं, उस रूप लिंग (चिह्न), लक्षण तथा रूप हो वह भावलिंग है । आत्मा अमूर्तिक चेतनारूप है, उसका परिणाम दर्शनज्ञान है । उसमें कर्म के निमित्त से (पराश्रय करने से) बाह्य तो शरीरादिक मूर्तिक पदार्थ का संबंध है और अंतरंग मिथ्यात्व और रागद्वेष आदि कषायों का भाव है इसलिए कहते हैं -
बाह्य तो देहादिक परिग्रह से रहित और अंतरंग रागादिक परिणाम में अहंकाररूप मानकषाय, परभावों में अपनापन मानना इस भाव से रहित हो और अपने दर्शनज्ञानरूप चेतनाभाव में लीन हो वह `भावलिंग' है जिसको इसप्रकार के भाव हों वह भावलिंगी साधु है ।।५६।।