भावपाहुड गाथा 70: Difference between revisions
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भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियइ ।।७०।।<br> | |||
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भावमलेन च जीव: बाह्यसंगे मलिनयति ।।७०।।<br> | |||
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हे आत्मन् जिनलिंगधर तू भावशुद्धी पूर्वक ।<br> | |||
भावशुद्धि के बिना जिनलिंग भी हो निरर्थक ।।७०।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> हे आत्मन् ! तू अभ्यन्तर भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध ऐसा जिनवरलिंग अर्थात् बाह्य निर्ग्रन्थलिंग प्रकट कर, भावशुद्धि के बिना द्रव्यलिंग बिगड़ जायेगा, क्योंकि भावमलिन जीव बाह्य परिग्रह में मलिन होता है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> यदि भाव शुद्ध कर द्रव्यलिंग धारण करे तो भ्रष्ट न हो और भाव मलिन हो तो बाह्य परिग्रह की संगति से द्रव्यलिंग भी बिगाड़े इसलिए प्रधानरूप से भावलिंग ही का उपदेश है, विशुद्ध भावों के बिना बाह्यभेष धारण करना योग्य नहीं है ।।७०।।<br> | ||
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Latest revision as of 10:47, 14 December 2008
आगे इसप्रकार भावलिंगी होने का उपदेश करते हैं -
पयडहिं जिणवरलिंगं अब्भिंतरभावदोसपरिसुद्धो ।
भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियइ ।।७०।।
प्रकटय जिनवरलिंगं अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्ध: ।
भावमलेन च जीव: बाह्यसंगे मलिनयति ।।७०।।
हे आत्मन् जिनलिंगधर तू भावशुद्धी पूर्वक ।
भावशुद्धि के बिना जिनलिंग भी हो निरर्थक ।।७०।।
अर्थ - हे आत्मन् ! तू अभ्यन्तर भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध ऐसा जिनवरलिंग अर्थात् बाह्य निर्ग्रन्थलिंग प्रकट कर, भावशुद्धि के बिना द्रव्यलिंग बिगड़ जायेगा, क्योंकि भावमलिन जीव बाह्य परिग्रह में मलिन होता है ।
भावार्थ - यदि भाव शुद्ध कर द्रव्यलिंग धारण करे तो भ्रष्ट न हो और भाव मलिन हो तो बाह्य परिग्रह की संगति से द्रव्यलिंग भी बिगाड़े इसलिए प्रधानरूप से भावलिंग ही का उपदेश है, विशुद्ध भावों के बिना बाह्यभेष धारण करना योग्य नहीं है ।।७०।।