भावपाहुड गाथा 96: Difference between revisions
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भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि ।<br> | |||
भावरहिएण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ।।९६।।<br> | |||
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भावय अनुप्रेक्षा: अपरा: पंचविंशतिभावना: भावय ।<br> | |||
भावरहितेन किं पुन: बाह्यलिंगेन कर्त्तव्यम् ।।९६ ।।<br> | |||
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भावना द्वादश तथा पच्चीस व्रत की भावना ।<br> | |||
भावना बिन मात्र कोरे वेष से क्या लाभ है ।।९६।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> हे | <p><b> अर्थ - </b> हे मुने ! तू अनुप्रेक्षा अर्थात् अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा हैं उनकी भावना कर और अपर अर्थात् पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावना कही है उनकी भावना कर, भावरहित जो बाह्यलिंग है उससे क्या कर्त्तव्य है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> कष्ट आने पर बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करना योग्य है । इनके नाम ये हैं -<br> | ||
१. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचित्व, ७. आस्रव, ८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ, १२. धर्म, इनका और पच्चीस भावनाओं का भाना बड़ा उपाय है । इनका बारम्बार चिन्तन करने से कष्ट में परिणाम बिगड़ते नहीं हैं, इसलिए यह उपदेश है ।।९६।।<br> | |||
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Latest revision as of 11:08, 14 December 2008
आगे परीषह आने पर भाव शुद्ध रहे ऐसा उपाय कहते हैं -
भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि ।
भावरहिएण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ।।९६।।
भावय अनुप्रेक्षा: अपरा: पंचविंशतिभावना: भावय ।
भावरहितेन किं पुन: बाह्यलिंगेन कर्त्तव्यम् ।।९६ ।।
भावना द्वादश तथा पच्चीस व्रत की भावना ।
भावना बिन मात्र कोरे वेष से क्या लाभ है ।।९६।।
अर्थ - हे मुने ! तू अनुप्रेक्षा अर्थात् अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा हैं उनकी भावना कर और अपर अर्थात् पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावना कही है उनकी भावना कर, भावरहित जो बाह्यलिंग है उससे क्या कर्त्तव्य है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ।
भावार्थ - कष्ट आने पर बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करना योग्य है । इनके नाम ये हैं -
१. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचित्व, ७. आस्रव, ८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ, १२. धर्म, इनका और पच्चीस भावनाओं का भाना बड़ा उपाय है । इनका बारम्बार चिन्तन करने से कष्ट में परिणाम बिगड़ते नहीं हैं, इसलिए यह उपदेश है ।।९६।।