योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 118: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- जीव-परीणामं श्रित्वा दारुणं कर्म आस्रवति, (च) दारुणं कर्म श्रित्वा दारुण: परीणाम: उदेति । </p> | <p><b> अन्वय </b>:- जीव-परीणामं श्रित्वा दारुणं कर्म आस्रवति, (च) दारुणं कर्म श्रित्वा दारुण: परीणाम: उदेति । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- जीव के परिणामों का आश्रय करके अत्यंत भयंकर अर्थात् अतिदु:खद कर्म आस्रव को प्राप्त होते हैं और अत्यंत भयंकर दु:खद कर्मो के उदय का आश्रय करके जीव के भी अत्यंत दु:खद परिणाम उदित होते हैं । </p> | <p><b> सरलार्थ </b>:- जीव के परिणामों का आश्रय करके अत्यंत भयंकर अर्थात् अतिदु:खद कर्म आस्रव को प्राप्त होते हैं और अत्यंत भयंकर दु:खद कर्मो के उदय का आश्रय करके जीव के भी अत्यंत दु:खद परिणाम उदित होते हैं । </p> | ||
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Revision as of 08:55, 19 January 2009
जीव-परिणाम व कर्मोदय में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध -
श्रित्वा जीव-परीणामं कर्मास्रवति दा रु ण म् ।
श्रित्वोदेति परीणामो दारुण: कर्म दारुणम् ।।११८।।
अन्वय :- जीव-परीणामं श्रित्वा दारुणं कर्म आस्रवति, (च) दारुणं कर्म श्रित्वा दारुण: परीणाम: उदेति ।
सरलार्थ :- जीव के परिणामों का आश्रय करके अत्यंत भयंकर अर्थात् अतिदु:खद कर्म आस्रव को प्राप्त होते हैं और अत्यंत भयंकर दु:खद कर्मो के उदय का आश्रय करके जीव के भी अत्यंत दु:खद परिणाम उदित होते हैं ।