नित्य: Difference between revisions
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सर्वार्थसिद्धि/5/4/270/3 <span class="SanskritText">नित्यं ध्रुवमित्यर्थ:। ‘नेर्ध्रुव: त्य:’ इति निष्पादित्वात् । </span> सर्वार्थसिद्धि/5/31/302/5 <span class="SanskritText">येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते। यद्यत्यन्तनिरोधोऽभिनवप्रादुर्भावमात्रमेव वा स्यात्तत: स्मरणानुपपत्ति:। तदधीनलोकसंव्यवहारो विरुध्यते। ततस्तद्भावेनाव्ययं नित्यमिति निश्चीयते।</span> =</p> | |||
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<li> <span class="HindiText">नित्य शब्द का अर्थ ध्रुव है (‘नेर्ध्रुवेत्य’ इस वार्तिक के अनुसार ‘नि’ शब्द से ध्रुवार्थ में ‘त्य’ प्रत्यय लगकर नित्य शब्द बना है। </span></li> | <li> <span class="HindiText">नित्य शब्द का अर्थ ध्रुव है (‘नेर्ध्रुवेत्य’ इस वार्तिक के अनुसार ‘नि’ शब्द से ध्रुवार्थ में ‘त्य’ प्रत्यय लगकर नित्य शब्द बना है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> पहले जिस रूप वस्तु को देखा है उसी रूप उसके पुन: होने से ‘वही यह है’ इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है। यदि पूर्ववस्तु का सर्वथा नाश हो जाये या सर्वथा नयी वस्तु का उत्पाद माना जाये तो इससे स्मरण की उत्पत्ति नहीं हो सकती और स्मरण की उत्पत्ति न हो सकने से स्मरण के आधीन जितना लोक संव्यवहार चालू है, वह सब विरोध को प्राप्त होता है। इसलिए जिस वस्तु का जो भाव है उस रूप से च्युत न होना तद्भावाव्यय अर्थात् नित्य है, ऐसा निश्चित होता है। ( | <li><span class="HindiText"> पहले जिस रूप वस्तु को देखा है उसी रूप उसके पुन: होने से ‘वही यह है’ इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है। यदि पूर्ववस्तु का सर्वथा नाश हो जाये या सर्वथा नयी वस्तु का उत्पाद माना जाये तो इससे स्मरण की उत्पत्ति नहीं हो सकती और स्मरण की उत्पत्ति न हो सकने से स्मरण के आधीन जितना लोक संव्यवहार चालू है, वह सब विरोध को प्राप्त होता है। इसलिए जिस वस्तु का जो भाव है उस रूप से च्युत न होना तद्भावाव्यय अर्थात् नित्य है, ऐसा निश्चित होता है। ( राजवार्तिक/5/4/1-2/443/6 ); ( राजवार्तिक/5/31/1/496/32 )।</span><br> नयचक्र बृहद्/61 <span class="PrakritText"> सोऽयं इति तं णिच्चा। </span>=<span class="HindiText">’यह वह है’ इस प्रकार का प्रत्यय जहां पाया जाता है, वह नित्य है। </span></li> | ||
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Revision as of 19:11, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
वैशे.सू./मू./4/1/1 सदकारणवन्नित्यम् । =सत् और कारण रहित नित्य कहलाता है। (आप्त प./टी./2/6/4/3)। तत्त्वार्थसूत्र/5/31 तद्भावाव्ययं नित्यं।31। =सत के भाव से या स्वभाव से अर्थात् अपनी जाति से च्युत न होना नित्य है।
सर्वार्थसिद्धि/5/4/270/3 नित्यं ध्रुवमित्यर्थ:। ‘नेर्ध्रुव: त्य:’ इति निष्पादित्वात् । सर्वार्थसिद्धि/5/31/302/5 येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते। यद्यत्यन्तनिरोधोऽभिनवप्रादुर्भावमात्रमेव वा स्यात्तत: स्मरणानुपपत्ति:। तदधीनलोकसंव्यवहारो विरुध्यते। ततस्तद्भावेनाव्ययं नित्यमिति निश्चीयते। =
- नित्य शब्द का अर्थ ध्रुव है (‘नेर्ध्रुवेत्य’ इस वार्तिक के अनुसार ‘नि’ शब्द से ध्रुवार्थ में ‘त्य’ प्रत्यय लगकर नित्य शब्द बना है।
- पहले जिस रूप वस्तु को देखा है उसी रूप उसके पुन: होने से ‘वही यह है’ इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है। यदि पूर्ववस्तु का सर्वथा नाश हो जाये या सर्वथा नयी वस्तु का उत्पाद माना जाये तो इससे स्मरण की उत्पत्ति नहीं हो सकती और स्मरण की उत्पत्ति न हो सकने से स्मरण के आधीन जितना लोक संव्यवहार चालू है, वह सब विरोध को प्राप्त होता है। इसलिए जिस वस्तु का जो भाव है उस रूप से च्युत न होना तद्भावाव्यय अर्थात् नित्य है, ऐसा निश्चित होता है। ( राजवार्तिक/5/4/1-2/443/6 ); ( राजवार्तिक/5/31/1/496/32 )।
नयचक्र बृहद्/61 सोऽयं इति तं णिच्चा। =’यह वह है’ इस प्रकार का प्रत्यय जहां पाया जाता है, वह नित्य है।
- द्रव्य में नित्य अनित्य धर्म–देखें अनेकान्त - 4।
- द्रव्य व गुणों में कथंचित् नित्यानित्यात्मकता–देखें उत्पाद व्ययध्रौव्य - 2।
- पर्याय में कथंचित् नित्यत्व–देखें उत्पाद व्ययध्रौव्य - 3।
- षट् द्रव्यों में नित्य अनित्य विभाग–देखें द्रव्य - 3।
पुराणकोष से
भरतेश और सौधर्मेद्र दारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.44,25.130