सिद्धों के गुण व भाव आदि: Difference between revisions
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लघु सिद्धभक्ति/8 <span class="PrakritGatha">सम्मत्त-णाण-दंसण-वीरिय-सुहुमं तहेव अवगहणं। अगुरुलघुमव्वावाहं अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं। </span>= <span class="HindiText">क्षयिक सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघत्व और अव्याबाधात्व, ये सिद्धों के आठ गुण वर्णन किये गये हैं। ( | लघु सिद्धभक्ति/8 <span class="PrakritGatha">सम्मत्त-णाण-दंसण-वीरिय-सुहुमं तहेव अवगहणं। अगुरुलघुमव्वावाहं अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं। </span>= <span class="HindiText">क्षयिक सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघत्व और अव्याबाधात्व, ये सिद्धों के आठ गुण वर्णन किये गये हैं। ( वसुनन्दी श्रावकाचार/537 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/14/42/2 पर उद्धृत); (पं. प्र./टी./1/61/61/8 पर उद्धृत); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/617-618 ); (विशेष देखो आगे शीर्षक नं. 3-5)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> सिद्धों में अन्य गुणों का निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> सिद्धों में अन्य गुणों का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/2157/1847 <span class="PrakritGatha">अकसायमवेदत्तमकारकदाविदेहदा चेव। अचलत्तमलेपत्तं च हुंति अच्चंतियाइं से।2157।</span> = <span class="HindiText">अकषायत्व, अवेदत्व, अकारकत्व, देहराहित्य, अचलत्व, अलेपत्व, ये सिद्धों के आत्यंतिक गुण होते हैं। ( धवला 13/5, 4, 26/ गा. 31/70)। <br /> | |||
धवला 7/2, 1, 7/ गा. 4-11/14-15 का भावार्थ−(अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, क्षयिक सम्यक्त्व, अकषायत्व रूप चारित्र, जन्म-मरण रहितता (अवगाहनत्व), अशरीरत्व (सूक्ष्मत्व), नीच-ऊँच रहितता (अगुरुलघुत्व), पंचक्षायिक लब्धि (अर्थात्−क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग और क्षायिकवीर्य) ये गुण सिद्धों में आठ कर्मों के क्षय से उत्पन्न हो जाते हैं। 4-11। (विशेष देखें [[ आगे शीर्षक नं#3 | आगे शीर्षक नं - 3]])। </span><br /> | |||
धवला 13/5, 4, 26/ श्लो. 30/69<span class="SanskritGatha"> द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा। सिद्धाप्तगुणसंयुक्ता गुणाः द्वादशधा स्मृताः।30। </span>= <span class="HindiText">सिद्धों के उपरोक्त गुणों में (देखें [[ शीर्षक नं#1 | शीर्षक नं - 1]]) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार गुण मिलाने पर बारह गुण माने गये हैं। </span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह टीका/14/43/6 <span class="SanskritText"> इति मध्यमरुचिशिष्यापेक्षया सम्यक्त्वादिगुणाष्टकं भणितम्। मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुनर्विशेषभेदनयेन निर्गतित्वं निरिन्द्रियत्वं, निष्कायत्वं, निर्योगत्वं, निर्वेदत्वं, निष्कषायत्वं, निर्नामत्वं निर्गोत्रत्वं, निरायुषत्वमित्यादिविशेषगुणास्तथैवास्तित्व-वस्तुत्वप्रमेयत्वादिसामान्यगुणाः स्वागमाविरोधेनानन्ता ज्ञातव्या।</span> = <span class="HindiText">इस प्रकार सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचिवाले शिष्यों के लिए हैं। मध्यम रुचिवाले शिष्य के प्रति विशेष भेदनय के अवलम्बन से गतिरहितता, इन्द्रियरहितता, शरीररहितता, योगरहितता, वेदहितता, कषायरहिता, नामरहितता, गोत्ररहितता तथा आयुरहितता आदि विशेष गुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि सामान्यगुण, इस तरह जैनागम के अनुसार अनन्त गुण जानने चाहिए। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.3" id="3.3"></a>उपरोक्त गुणों के अवरोधक कर्मों का निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.3" id="3.3"></a>उपरोक्त गुणों के अवरोधक कर्मों का निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> ( | <li class="HindiText"> ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/ जी./प्र./68/178 पर उद्धृत दो गाथाएँ)। </li> | ||
<li class="HindiText"> ( | <li class="HindiText"> ( तत्त्वसार/8/37-40 ); ( क्षपणासार/ मू./611-613); ( परमात्मप्रकाश टीका/1/61/61/16 )। </li> | ||
<li class="HindiText"> ( | <li class="HindiText"> ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/61 *)। </li> | ||
<li class="HindiText"> (पं. विं./8/6); 7. ( | <li class="HindiText"> (पं. विं./8/6); 7. ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1114 *)। संकेत- *= विशेष देखो नीचे इन संदर्भों की व्याख्या। </li> | ||
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<p> | <p> प्रवचनसार/60 <span class="PrakritGatha">जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणामं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा । </span>= <span class="HindiText">जो केवलज्ञान है, वह ही सुख है और परिणाम भी वही है । उसे खेद नहीं है, क्योंकि घातीकर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं । </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/61 <span class="SanskritText"> स्वभावप्रतिघाताभावहेतुकं हि सौख्यं ।</span> =<span class="HindiText"> सुख का हेतु स्वभाव-प्रतिघात का अभाव है । </span><br /> | |||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध /1114 <span class="SanskritGatha">कर्माष्टकं विपक्षि स्यात् सुखस्यैकगुणस्य च । अस्ति किंचिन्न कर्मैकं तद्विपक्षं ततः पृथक् ।1114। </span>=<span class="HindiText"> आठों ही कर्म समुदाय रूप से एक सुख गुण के विपक्षी हैं । कोई एक पृथक् कर्म उसका विपक्षी नहीं है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.4" id="3.4"></a>सूक्ष्मत्व व अगुरुलघुत्व गुणों के अवरोधक कर्मों की स्वीकृति में हेतु</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.4" id="3.4"></a>सूक्ष्मत्व व अगुरुलघुत्व गुणों के अवरोधक कर्मों की स्वीकृति में हेतु</strong> </span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/1/61/62/1 <span class="SanskritText"> सूक्ष्मत्वायुष्ककर्मणा प्रच्छादितम् । कस्मादिति चेत् । विवक्षितायुः कर्मोदयेन भवान्तरे प्राप्ते सत्यतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वं त्यक्त्वा पश्चादिन्द्रियज्ञानविषयो भवतीत्यर्थः ।....सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुलघुत्वं नामकर्मोदयेन प्रच्छादितम् । गुरुत्वशब्देनोच्चगोत्रजनितं महत्त्वं भण्यते, लघुत्वशब्देन नीचगोत्रजनितं तुच्छत्वमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुत्वं प्रच्छाद्यत इति । </span>= <span class="HindiText">आयुकर्म के द्वारा सूक्ष्मत्वगुण ढका गया, क्योंकि विवक्षित आयुकर्म के उदय से भवान्तर को प्राप्त होने पर अतीन्द्रिय ज्ञान के विषयरूप सूक्ष्मत्व को छोड़कर इन्द्रियज्ञान का विषय हो जाता है । सिद्ध अवस्था के योग्य विशिष्ट अगुरुलघुत्व गुण (अगुरुलघु संज्ञक) नामकर्म के उदय से ढका गया । अथवा गुरुत्व शब्द से उच्चगोत्रजनित बड़प्पन और लघुत्व शब्द से नीचगोत्रजनित छोटापन कहा जाता है । इसलिए उन दोनों के कारणभूत गोत्रकर्म के उदय से विशिष्ट अगुरुलघुत्व का प्रच्छादन होता है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> सिद्धों में कुछ गुणों व भावों का अभाव</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> सिद्धों में कुछ गुणों व भावों का अभाव</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/10/3-4 <span class="SanskritText">औपशमिकादिभव्यत्वानां च ।3। अन्यत्र केवलसम्यकत्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ।4।</span> = <span class="HindiText">औपशमिक, क्षायोपशमिक व औदयिक ये तीन भाव तथा पारिणामिक भावों में भव्यत्व भाव के अभाव होने से मोक्ष होता है ।3। क्षायिक भावों में केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्वभाव का अभाव नहीं होता है । ( तत्त्वसार/8/5 )। <br /> | |||
देखें [[ ]]‘सत्’ की ओघप्ररूपणा- (न वे संयत हैं, न असंयत और न संयतासंयत । न वे भव्य हैं और न अभव्य । न वे संज्ञी हैं और न असंज्ञी ।) <br /> | देखें [[ ]]‘सत्’ की ओघप्ररूपणा- (न वे संयत हैं, न असंयत और न संयतासंयत । न वे भव्य हैं और न अभव्य । न वे संज्ञी हैं और न असंज्ञी ।) <br /> | ||
देखें [[ ]]जीव/2/2/(दश प्राणों का अभाव होने के कारण वे जीव ही नहीं हैं । अधिक से अधिक उनको जीवितपूर्व कह सकते हैं ।) </span><br /> | देखें [[ ]]जीव/2/2/(दश प्राणों का अभाव होने के कारण वे जीव ही नहीं हैं । अधिक से अधिक उनको जीवितपूर्व कह सकते हैं ।) </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/10/4/468/11 <span class="SanskritText">यदि चत्वार एवावशिष्यन्ते, अनन्तवीर्यादीनां निवृत्तिः प्राप्नोति । नैषदोषः, ज्ञानदर्शनाविनाभावित्वादनन्तवीर्यादीनामविशेषः; अनन्तसामर्थ्यहीनस्यानन्तावबोधवृत्त्यभावाज्ज्ञानमयत्वाच्च सुखस्येति ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>सिद्धों के यदि चार ही भाव शेष रहते हैं, तो अनन्तवीर्य आदि की निवृत्ति प्राप्त होती है ? <strong>उत्तर−</strong>यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ज्ञानदर्शन के अविनाभावी अनन्तवीर्य आदिक भी सिद्धों में अवशिष्ट रहते हैं । क्योंकि अनन्त सामर्थ्य से हीन व्यक्ति के अनन्तज्ञान की वृत्ति नहीं हो सकती और सुख ज्ञानमय होता है । ( राजवार्तिक/10/4/3/642/23 )। </span><br /> | |||
धवला 1/1, 1, 33/ गा. 140/248<span class="PrakritGatha"> ण वि इंदियकरणजुदा अवग्गहादीहिगाहिया अत्थे । णेव य इंदियसोक्खा अणिंदियाणंतणाणसुहा ।140।</span> =<span class="HindiText"> वे सिद्ध जीव इन्द्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं और अवग्रहादिक क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते हैं, उनके इन्द्रिय सुख भी नहीं हैं; क्योंकि उनका अनन्तज्ञान और अनन्तसुख अतीन्द्रिय है । ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/174/404 )। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> इन्द्रिय व संयम के अभाव सम्बन्धी शंका </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> इन्द्रिय व संयम के अभाव सम्बन्धी शंका </strong></span><br /> | ||
धवला 1/1, 1, 33/248/11 <span class="SanskritText"> तेषु सिद्धेषु भावेन्द्रियोपयोगस्य सत्त्वात्सेन्द्रियास्त इति चेन्न, क्षयोपशमजनितस्योपयोगस्येन्द्रियत्वात् । न च क्षीणाशेषकर्मसु सिद्धेषु क्षयोपशमोऽस्ति तस्य क्षायिकभावेनापसारितत्वात् । </span><br /> | |||
धवला 1/1, 1, 130/378/8 <span class="SanskritText">सिद्धानां कः संयमो भवतीति चेन्नैकोऽपि । यथाबुद्धिपूर्वकनिवृत्तेरभावान्न संयतास्तत एव न संयतासंयताः नाप्यसंयताः प्रणष्टाशेषपापक्रियत्वात् । </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong>उन सिद्धों में भावेन्द्रिय और तज्जन्य उपयोग पाया जाता है, इसलिए वे इन्द्रिय सहित हैं ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि क्षयोपशम से उत्पन्न हुए उपयोग को इन्द्रिय कहते हैं । परन्तु जिनके सम्पूर्ण कर्म क्षीण हो गये हैं, ऐसे सिद्धों में क्षयोपशम नहीं पाया जाता है, क्योंकि वह क्षायिक भाव के द्वारा दूर कर दिया जाता है । (और भी देखें [[ ]]केवली/5)। <strong>प्रश्न−</strong>सिद्ध जीवों के कौन-सा संयम होता है ? <strong>उत्तर−</strong>एक भी संयम नहीं होता है; क्योंकि उनके बुद्धिपूर्वक निवृत्ति का अभाव है । इसी प्रकार वे संयतासंयत भी नहीं हैं और असंयत भी नहीं हैं, क्योंकि उनके सम्पूर्ण पापरूप क्रियाएँ नष्ट हो चुकी हैं । </span></li> | |||
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Revision as of 19:16, 17 July 2020
- सिद्धों के गुण व भाव आदि
- सिद्धों के आठ प्रसिद्ध गुणों का नाम निर्देश
लघु सिद्धभक्ति/8 सम्मत्त-णाण-दंसण-वीरिय-सुहुमं तहेव अवगहणं। अगुरुलघुमव्वावाहं अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं। = क्षयिक सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघत्व और अव्याबाधात्व, ये सिद्धों के आठ गुण वर्णन किये गये हैं। ( वसुनन्दी श्रावकाचार/537 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/14/42/2 पर उद्धृत); (पं. प्र./टी./1/61/61/8 पर उद्धृत); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/617-618 ); (विशेष देखो आगे शीर्षक नं. 3-5)।
- सिद्धों में अन्य गुणों का निर्देश
भगवती आराधना/2157/1847 अकसायमवेदत्तमकारकदाविदेहदा चेव। अचलत्तमलेपत्तं च हुंति अच्चंतियाइं से।2157। = अकषायत्व, अवेदत्व, अकारकत्व, देहराहित्य, अचलत्व, अलेपत्व, ये सिद्धों के आत्यंतिक गुण होते हैं। ( धवला 13/5, 4, 26/ गा. 31/70)।
धवला 7/2, 1, 7/ गा. 4-11/14-15 का भावार्थ−(अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, क्षयिक सम्यक्त्व, अकषायत्व रूप चारित्र, जन्म-मरण रहितता (अवगाहनत्व), अशरीरत्व (सूक्ष्मत्व), नीच-ऊँच रहितता (अगुरुलघुत्व), पंचक्षायिक लब्धि (अर्थात्−क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग और क्षायिकवीर्य) ये गुण सिद्धों में आठ कर्मों के क्षय से उत्पन्न हो जाते हैं। 4-11। (विशेष देखें आगे शीर्षक नं - 3)।
धवला 13/5, 4, 26/ श्लो. 30/69 द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा। सिद्धाप्तगुणसंयुक्ता गुणाः द्वादशधा स्मृताः।30। = सिद्धों के उपरोक्त गुणों में (देखें शीर्षक नं - 1) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार गुण मिलाने पर बारह गुण माने गये हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/14/43/6 इति मध्यमरुचिशिष्यापेक्षया सम्यक्त्वादिगुणाष्टकं भणितम्। मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुनर्विशेषभेदनयेन निर्गतित्वं निरिन्द्रियत्वं, निष्कायत्वं, निर्योगत्वं, निर्वेदत्वं, निष्कषायत्वं, निर्नामत्वं निर्गोत्रत्वं, निरायुषत्वमित्यादिविशेषगुणास्तथैवास्तित्व-वस्तुत्वप्रमेयत्वादिसामान्यगुणाः स्वागमाविरोधेनानन्ता ज्ञातव्या। = इस प्रकार सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचिवाले शिष्यों के लिए हैं। मध्यम रुचिवाले शिष्य के प्रति विशेष भेदनय के अवलम्बन से गतिरहितता, इन्द्रियरहितता, शरीररहितता, योगरहितता, वेदहितता, कषायरहिता, नामरहितता, गोत्ररहितता तथा आयुरहितता आदि विशेष गुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि सामान्यगुण, इस तरह जैनागम के अनुसार अनन्त गुण जानने चाहिए।
- <a name="3.3" id="3.3"></a>उपरोक्त गुणों के अवरोधक कर्मों का निर्देश
प्रमाण-- ( प्रवचनसार/60 *)।
- ( धवला 7/2, 1, 7/ गा. 4-11/14)।
- ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/ जी./प्र./68/178 पर उद्धृत दो गाथाएँ)।
- ( तत्त्वसार/8/37-40 ); ( क्षपणासार/ मू./611-613); ( परमात्मप्रकाश टीका/1/61/61/16 )।
- ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/61 *)।
- (पं. विं./8/6); 7. ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1114 *)। संकेत- *= विशेष देखो नीचे इन संदर्भों की व्याख्या।
- सिद्धों के आठ प्रसिद्ध गुणों का नाम निर्देश
नं. |
कर्म का नाम |
सन्दर्भ नं. |
गुण का नाम |
1 |
दर्शनावरणीय |
2, 3, 4, 6 |
केवलदर्शन |
2 |
ज्ञानवरणीय |
2, 3, 4, 6 |
केवलज्ञान |
3 |
वेदनीय स्वभावघाती |
2, 3, 4 5* |
अनन्तसुख या अव्याबाधत्व |
4 |
चारों घातियाकर्म |
1* |
’’ |
5 |
समुदितरूप से आठों कर्म |
7* |
’’ |
6 |
मोहनीय |
6. |
’’ |
7 |
आयु |
4. |
सूक्ष्मत्व या अशरीरता |
|
|
2, 3, 6 |
अवगाहनत्व या जन्म-मरणरहितता |
8 |
नाम |
4 |
’’ |
|
’’ |
2, 3, 4 |
सूक्ष्मत्व या अशरीरता |
9 |
’’ |
शीर्षक नं. 4 |
अगुरुलघुत्व या उँच- |
10 |
गोत्रकर्म |
2, 3, 4, 6 |
नीचरहितता |
11 |
अन्तराय |
2, 3, 4, 6 |
अनन्तवीर्य |
|
’’ |
2 |
5 क्षायिकलब्धि |
प्रवचनसार/60 जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणामं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा । = जो केवलज्ञान है, वह ही सुख है और परिणाम भी वही है । उसे खेद नहीं है, क्योंकि घातीकर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/61 स्वभावप्रतिघाताभावहेतुकं हि सौख्यं । = सुख का हेतु स्वभाव-प्रतिघात का अभाव है ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध /1114 कर्माष्टकं विपक्षि स्यात् सुखस्यैकगुणस्य च । अस्ति किंचिन्न कर्मैकं तद्विपक्षं ततः पृथक् ।1114। = आठों ही कर्म समुदाय रूप से एक सुख गुण के विपक्षी हैं । कोई एक पृथक् कर्म उसका विपक्षी नहीं है ।
- <a name="3.4" id="3.4"></a>सूक्ष्मत्व व अगुरुलघुत्व गुणों के अवरोधक कर्मों की स्वीकृति में हेतु
परमात्मप्रकाश टीका/1/61/62/1 सूक्ष्मत्वायुष्ककर्मणा प्रच्छादितम् । कस्मादिति चेत् । विवक्षितायुः कर्मोदयेन भवान्तरे प्राप्ते सत्यतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वं त्यक्त्वा पश्चादिन्द्रियज्ञानविषयो भवतीत्यर्थः ।....सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुलघुत्वं नामकर्मोदयेन प्रच्छादितम् । गुरुत्वशब्देनोच्चगोत्रजनितं महत्त्वं भण्यते, लघुत्वशब्देन नीचगोत्रजनितं तुच्छत्वमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुत्वं प्रच्छाद्यत इति । = आयुकर्म के द्वारा सूक्ष्मत्वगुण ढका गया, क्योंकि विवक्षित आयुकर्म के उदय से भवान्तर को प्राप्त होने पर अतीन्द्रिय ज्ञान के विषयरूप सूक्ष्मत्व को छोड़कर इन्द्रियज्ञान का विषय हो जाता है । सिद्ध अवस्था के योग्य विशिष्ट अगुरुलघुत्व गुण (अगुरुलघु संज्ञक) नामकर्म के उदय से ढका गया । अथवा गुरुत्व शब्द से उच्चगोत्रजनित बड़प्पन और लघुत्व शब्द से नीचगोत्रजनित छोटापन कहा जाता है । इसलिए उन दोनों के कारणभूत गोत्रकर्म के उदय से विशिष्ट अगुरुलघुत्व का प्रच्छादन होता है ।
- सिद्धों में कुछ गुणों व भावों का अभाव
तत्त्वार्थसूत्र/10/3-4 औपशमिकादिभव्यत्वानां च ।3। अन्यत्र केवलसम्यकत्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ।4। = औपशमिक, क्षायोपशमिक व औदयिक ये तीन भाव तथा पारिणामिक भावों में भव्यत्व भाव के अभाव होने से मोक्ष होता है ।3। क्षायिक भावों में केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्वभाव का अभाव नहीं होता है । ( तत्त्वसार/8/5 )।
देखें [[ ]]‘सत्’ की ओघप्ररूपणा- (न वे संयत हैं, न असंयत और न संयतासंयत । न वे भव्य हैं और न अभव्य । न वे संज्ञी हैं और न असंज्ञी ।)
देखें [[ ]]जीव/2/2/(दश प्राणों का अभाव होने के कारण वे जीव ही नहीं हैं । अधिक से अधिक उनको जीवितपूर्व कह सकते हैं ।)
सर्वार्थसिद्धि/10/4/468/11 यदि चत्वार एवावशिष्यन्ते, अनन्तवीर्यादीनां निवृत्तिः प्राप्नोति । नैषदोषः, ज्ञानदर्शनाविनाभावित्वादनन्तवीर्यादीनामविशेषः; अनन्तसामर्थ्यहीनस्यानन्तावबोधवृत्त्यभावाज्ज्ञानमयत्वाच्च सुखस्येति । = प्रश्न−सिद्धों के यदि चार ही भाव शेष रहते हैं, तो अनन्तवीर्य आदि की निवृत्ति प्राप्त होती है ? उत्तर−यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ज्ञानदर्शन के अविनाभावी अनन्तवीर्य आदिक भी सिद्धों में अवशिष्ट रहते हैं । क्योंकि अनन्त सामर्थ्य से हीन व्यक्ति के अनन्तज्ञान की वृत्ति नहीं हो सकती और सुख ज्ञानमय होता है । ( राजवार्तिक/10/4/3/642/23 )।
धवला 1/1, 1, 33/ गा. 140/248 ण वि इंदियकरणजुदा अवग्गहादीहिगाहिया अत्थे । णेव य इंदियसोक्खा अणिंदियाणंतणाणसुहा ।140। = वे सिद्ध जीव इन्द्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं और अवग्रहादिक क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते हैं, उनके इन्द्रिय सुख भी नहीं हैं; क्योंकि उनका अनन्तज्ञान और अनन्तसुख अतीन्द्रिय है । ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/174/404 )।
- इन्द्रिय व संयम के अभाव सम्बन्धी शंका
धवला 1/1, 1, 33/248/11 तेषु सिद्धेषु भावेन्द्रियोपयोगस्य सत्त्वात्सेन्द्रियास्त इति चेन्न, क्षयोपशमजनितस्योपयोगस्येन्द्रियत्वात् । न च क्षीणाशेषकर्मसु सिद्धेषु क्षयोपशमोऽस्ति तस्य क्षायिकभावेनापसारितत्वात् ।
धवला 1/1, 1, 130/378/8 सिद्धानां कः संयमो भवतीति चेन्नैकोऽपि । यथाबुद्धिपूर्वकनिवृत्तेरभावान्न संयतास्तत एव न संयतासंयताः नाप्यसंयताः प्रणष्टाशेषपापक्रियत्वात् । = प्रश्न−उन सिद्धों में भावेन्द्रिय और तज्जन्य उपयोग पाया जाता है, इसलिए वे इन्द्रिय सहित हैं ? उत्तर−नहीं, क्योंकि क्षयोपशम से उत्पन्न हुए उपयोग को इन्द्रिय कहते हैं । परन्तु जिनके सम्पूर्ण कर्म क्षीण हो गये हैं, ऐसे सिद्धों में क्षयोपशम नहीं पाया जाता है, क्योंकि वह क्षायिक भाव के द्वारा दूर कर दिया जाता है । (और भी देखें [[ ]]केवली/5)। प्रश्न−सिद्ध जीवों के कौन-सा संयम होता है ? उत्तर−एक भी संयम नहीं होता है; क्योंकि उनके बुद्धिपूर्वक निवृत्ति का अभाव है । इसी प्रकार वे संयतासंयत भी नहीं हैं और असंयत भी नहीं हैं, क्योंकि उनके सम्पूर्ण पापरूप क्रियाएँ नष्ट हो चुकी हैं ।