चूर्णी: Difference between revisions
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<li class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1">कर्मप्रकृति चूर्णि</strong><br>शिवशर्म सूरि (वि.5) कृत ‘कर्म प्रकृति’ पर किसी अज्ञात आचार्य द्वारा रचित इस प्राकृत भाषा बद्ध चूर्णि में यद्यपि यत्र तत्र ‘कषायपाहुड़ चूर्णि’ (वि.श.2-3) के साथ साम्य पाया जाता है तदपि शैली।306। तथा भाषा का भेद होने से दोनों भिन्न हैं। 309। कर्म प्रकृति चूर्णि में जो गद्यांश पाया जाता है वह ‘नन्दि सूत्र’ (वि.516) से लिया गया प्रतीत होता है और दूसरी ओर चन्द्रर्षि महत्तर (वि.750-1000) कृत पंच संग्रह के द्वितीय भाग में इस चूर्णि का पर्याप्त उपयोग किया गया है। इसलिये पं.कैलाशचन्द जी इसका रचना काल वि.550 से 750 के मध्य स्थापित करते हैं।311। (जै./1/पृष्ठ)। </li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> कषायपाहुड़ चूर्णि</strong><br>आ.गुणधर (वि.पू.श.1) द्वारा कथित कषायपाहुड़ के सिद्धान्त सूत्रों पर यति वृषभाचार्य ने वि.श.2-3 में चूर्णि सूत्रों की रचना की थी, जिनको आधार मानकर पश्चाद्वर्ती आचार्यों ने इस ग्रन्थ पर विस्तृत वृत्तियें लिखीं, यह बात सर्वप्रसिद्ध है (देखें [[ इससे पहले कषाय पाहुड़ ]])। यद्यपि इन सूत्रों का प्रतिपाद्य भी वही है जो कि कषायपाहुड़ का तथापि कुछ ऐसे विषयों की भी यहां विवेचना कर दी गई है जिनका कि संकेत मात्र देकर गुणधर स्वामी ने छोड़ दिया था।210। सिद्धान्त सूत्रों के आधार पर रचित होते हुए भी, आ.वीरसेन स्वामी ने इन्हें सिद्धान्त सूत्रों के समकक्ष माना है और इनको समक्ष रखकर षट्खण्डागम के मूलसूत्रों का समीक्षात्मक अध्ययन किया है।174। जिस प्रकार कषाय पाहुड़ के मूल सूत्रों का रहस्य जानने के लिये यतिवृषभ को आर्यमंक्षु तथा नागहस्ति के पादमूल में रहना पड़ा उसी प्रकार इनके चूर्णि सूत्रों का रहस्य समझने के लिये श्री वीरसेन स्वामी को उच्चारणाचार्यों तथा चिरन्ताचार्यों की शरण में जाना पड़ा।178। (जै./1/पृष्ठ)।</li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3">लघु शतक चूर्णि</strong><br>श्वेताम्बराचार्य श्री शिवशर्म सूरि (वि.श.5) कृत ‘शतक’ पर प्राकृत गाथा बद्ध यह ग्रन्थ।357। चन्द्रर्षि महत्तर की कृति माना गया है।358। ये चन्द्रर्षि पंचसंग्रहकार ही है या कोई अन्य इसका कुछ निश्चय नहीं है (देखें [[ आगे परिशिष्ट#2 | आगे परिशिष्ट - 2]])। परन्तु क्योंकि तत्त्वार्थ भाष्य की सिद्धसेन गणी (वि.श.9) कृत टीका के साथ इसकी बहुत सी गाथाओं या वाक्यों का साम्य पाया जाता है, इसलिए उसके साथ इसका आदान प्रदान निश्चित है।362-363। वृहद् द्रव्यसंग्रह के मूल में सम्मिलित दिगम्बरीय पंच संग्रह (वि.श.8 से पूर्व) की अति प्रसिद्ध <span class="PrakritText">‘जंसामण्णं गहणं...’</span> गाथा इसमें उद्धृत पाई जाती है।362। इसके अतिरिक्त विशेषावश्यक भाष्य (वि.650) की भी अनेकों गाथायें इसमें उद्धृत हुई मिलती हैं।360। अभयदेव देव सूरि (वि.1088-1135) के अनुसार उनका स्रित्तरि भाष्य इसके आधार पर रचा गया है। इन सब प्रमाणों पर से यह कहा जा सकता है कि इसकी रचना वि.750-1000 में किसी समय हुई है।366। </li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> वृहद् शतक चूर्णि</strong><br>आ.हेमचन्द्र कृत शतक वृत्ति में प्राप्त ‘चूर्णिका बहुवचनान्त निर्देश’ पर से ऐसा लगता है कि शतक पर अनेकों चूर्णियें लिखी गई हैं, परन्तु उनमें से दो प्रसिद्ध हैं–लघु तथा वृहद् । कहीं-कहीं दोनों के मतों में परस्पर भेद पाया जाने से इन दोनों को एक नहीं कहा जा सकता।367। लघु चूर्णि प्रकाशित हो चुकी हैं।315। शतक चूर्णि के नाम से जिसका उल्लेख प्राय: किया जाता है वह यह (लघु) चूर्णि ही है। बृहद् चूर्णि यद्यपि आज उपलब्ध नहीं है, तदपि आ.मलयगिरि (वि.श.12 कृत पंचसंग्रह टीका तथा कर्म प्रकृति टीका में ‘उक्तं च शतक वृहच्चूर्णौ’ ऐसे उल्लेख द्वारा वि.श.12 में इसकी विद्यमानता सिद्ध होती है। परन्तु लघु शतक चूर्णि में क्योंकि इसका नामोल्लेख प्राप्त नहीं होता है इसलिए यह अनुमान किया जा सकता है कि इसकी रचना उसके अर्थात् वि.750-1000 के पश्चात् कभी हुई है।</li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5">सप्ततिका चूर्णि</strong><br>‘सित्तरि या सप्ततिका’ नामक श्वेताम्बर ग्रन्थ पर प्राकृत भाषा में लिखित इस चूर्णि में परिमित शब्दों द्वारा ‘सित्तरि’ की ही मूल गाथाओं का अभिप्राय स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। इसमें ‘कर्म प्रकृति’, ‘शतक’ तथा ‘सत्कर्म’ के साथ ‘कषाय पाहुड़’ का भी निर्देश किया गया उपलब्ध होता है।368। इसके अनेक स्थलों पर ‘शतक’ के नाम से ‘शतक चूर्णि’ (वि.750-1000) का भी नामोल्लेख किया गया प्रतीत होता है।370। आ.अभयदेव सूरि (वि.1088-1135) ने इसका अनुसरण करते हुए सप्ततिका पर भाष्य लिखा है।370। और इसी का अर्थावबोध कराने के लिये आ.मलयगिरि (वि.श.12) ने सप्ततिका पर टीका लिखी है।368। इसलिये इसका रचना काल वि.श.10-11 माना जा सकता है।370। (जै./1/पृष्ठ)। </li> | |||
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Revision as of 22:40, 22 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- कर्मप्रकृति चूर्णि
शिवशर्म सूरि (वि.5) कृत ‘कर्म प्रकृति’ पर किसी अज्ञात आचार्य द्वारा रचित इस प्राकृत भाषा बद्ध चूर्णि में यद्यपि यत्र तत्र ‘कषायपाहुड़ चूर्णि’ (वि.श.2-3) के साथ साम्य पाया जाता है तदपि शैली।306। तथा भाषा का भेद होने से दोनों भिन्न हैं। 309। कर्म प्रकृति चूर्णि में जो गद्यांश पाया जाता है वह ‘नन्दि सूत्र’ (वि.516) से लिया गया प्रतीत होता है और दूसरी ओर चन्द्रर्षि महत्तर (वि.750-1000) कृत पंच संग्रह के द्वितीय भाग में इस चूर्णि का पर्याप्त उपयोग किया गया है। इसलिये पं.कैलाशचन्द जी इसका रचना काल वि.550 से 750 के मध्य स्थापित करते हैं।311। (जै./1/पृष्ठ)। - कषायपाहुड़ चूर्णि
आ.गुणधर (वि.पू.श.1) द्वारा कथित कषायपाहुड़ के सिद्धान्त सूत्रों पर यति वृषभाचार्य ने वि.श.2-3 में चूर्णि सूत्रों की रचना की थी, जिनको आधार मानकर पश्चाद्वर्ती आचार्यों ने इस ग्रन्थ पर विस्तृत वृत्तियें लिखीं, यह बात सर्वप्रसिद्ध है (देखें इससे पहले कषाय पाहुड़ )। यद्यपि इन सूत्रों का प्रतिपाद्य भी वही है जो कि कषायपाहुड़ का तथापि कुछ ऐसे विषयों की भी यहां विवेचना कर दी गई है जिनका कि संकेत मात्र देकर गुणधर स्वामी ने छोड़ दिया था।210। सिद्धान्त सूत्रों के आधार पर रचित होते हुए भी, आ.वीरसेन स्वामी ने इन्हें सिद्धान्त सूत्रों के समकक्ष माना है और इनको समक्ष रखकर षट्खण्डागम के मूलसूत्रों का समीक्षात्मक अध्ययन किया है।174। जिस प्रकार कषाय पाहुड़ के मूल सूत्रों का रहस्य जानने के लिये यतिवृषभ को आर्यमंक्षु तथा नागहस्ति के पादमूल में रहना पड़ा उसी प्रकार इनके चूर्णि सूत्रों का रहस्य समझने के लिये श्री वीरसेन स्वामी को उच्चारणाचार्यों तथा चिरन्ताचार्यों की शरण में जाना पड़ा।178। (जै./1/पृष्ठ)। - लघु शतक चूर्णि
श्वेताम्बराचार्य श्री शिवशर्म सूरि (वि.श.5) कृत ‘शतक’ पर प्राकृत गाथा बद्ध यह ग्रन्थ।357। चन्द्रर्षि महत्तर की कृति माना गया है।358। ये चन्द्रर्षि पंचसंग्रहकार ही है या कोई अन्य इसका कुछ निश्चय नहीं है (देखें आगे परिशिष्ट - 2)। परन्तु क्योंकि तत्त्वार्थ भाष्य की सिद्धसेन गणी (वि.श.9) कृत टीका के साथ इसकी बहुत सी गाथाओं या वाक्यों का साम्य पाया जाता है, इसलिए उसके साथ इसका आदान प्रदान निश्चित है।362-363। वृहद् द्रव्यसंग्रह के मूल में सम्मिलित दिगम्बरीय पंच संग्रह (वि.श.8 से पूर्व) की अति प्रसिद्ध ‘जंसामण्णं गहणं...’ गाथा इसमें उद्धृत पाई जाती है।362। इसके अतिरिक्त विशेषावश्यक भाष्य (वि.650) की भी अनेकों गाथायें इसमें उद्धृत हुई मिलती हैं।360। अभयदेव देव सूरि (वि.1088-1135) के अनुसार उनका स्रित्तरि भाष्य इसके आधार पर रचा गया है। इन सब प्रमाणों पर से यह कहा जा सकता है कि इसकी रचना वि.750-1000 में किसी समय हुई है।366। - वृहद् शतक चूर्णि
आ.हेमचन्द्र कृत शतक वृत्ति में प्राप्त ‘चूर्णिका बहुवचनान्त निर्देश’ पर से ऐसा लगता है कि शतक पर अनेकों चूर्णियें लिखी गई हैं, परन्तु उनमें से दो प्रसिद्ध हैं–लघु तथा वृहद् । कहीं-कहीं दोनों के मतों में परस्पर भेद पाया जाने से इन दोनों को एक नहीं कहा जा सकता।367। लघु चूर्णि प्रकाशित हो चुकी हैं।315। शतक चूर्णि के नाम से जिसका उल्लेख प्राय: किया जाता है वह यह (लघु) चूर्णि ही है। बृहद् चूर्णि यद्यपि आज उपलब्ध नहीं है, तदपि आ.मलयगिरि (वि.श.12 कृत पंचसंग्रह टीका तथा कर्म प्रकृति टीका में ‘उक्तं च शतक वृहच्चूर्णौ’ ऐसे उल्लेख द्वारा वि.श.12 में इसकी विद्यमानता सिद्ध होती है। परन्तु लघु शतक चूर्णि में क्योंकि इसका नामोल्लेख प्राप्त नहीं होता है इसलिए यह अनुमान किया जा सकता है कि इसकी रचना उसके अर्थात् वि.750-1000 के पश्चात् कभी हुई है। - सप्ततिका चूर्णि
‘सित्तरि या सप्ततिका’ नामक श्वेताम्बर ग्रन्थ पर प्राकृत भाषा में लिखित इस चूर्णि में परिमित शब्दों द्वारा ‘सित्तरि’ की ही मूल गाथाओं का अभिप्राय स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। इसमें ‘कर्म प्रकृति’, ‘शतक’ तथा ‘सत्कर्म’ के साथ ‘कषाय पाहुड़’ का भी निर्देश किया गया उपलब्ध होता है।368। इसके अनेक स्थलों पर ‘शतक’ के नाम से ‘शतक चूर्णि’ (वि.750-1000) का भी नामोल्लेख किया गया प्रतीत होता है।370। आ.अभयदेव सूरि (वि.1088-1135) ने इसका अनुसरण करते हुए सप्ततिका पर भाष्य लिखा है।370। और इसी का अर्थावबोध कराने के लिये आ.मलयगिरि (वि.श.12) ने सप्ततिका पर टीका लिखी है।368। इसलिये इसका रचना काल वि.श.10-11 माना जा सकता है।370। (जै./1/पृष्ठ)।
पुराणकोष से
देखें परिशिष्ट - 1।