पूजा निर्देश व मूर्ति पूजा: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" name="3.1" id="3.1"><strong>एक जिन व जिनालय की | <li><span class="HindiText" name="3.1" id="3.1"><strong>एक जिन व जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है</strong> </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/1,1/ §87/112/5 <span class="PrakritText">अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसिं पि वंदणुववत्तीदो। ...एगजिणवंदणाफलेण समाणफलत्तादो सेसजिणवंदणा फलवंता तदो सेसजिणवंदणासु अहियफलाणुवलंभादो एक्कस्स चेव वंदणा कायव्वा, अणंतेसु जिणेसु अक्कमेण छदुमत्थुपजोगपडतीए विसेसरूवाए असंभवादो वा एक्कस्सेव जिणस्स वंदणा कायव्वा त्ति ण एसो वि एयंतग्गहो कायव्वो; एयंतावहारणस्स सव्वहा दुण्णयत्तप्पसंगादो। </span>= <span class="HindiText">एक जिन या जिनालय की | कषायपाहुड़ 1/1,1/ §87/112/5 <span class="PrakritText">अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसिं पि वंदणुववत्तीदो। ...एगजिणवंदणाफलेण समाणफलत्तादो सेसजिणवंदणा फलवंता तदो सेसजिणवंदणासु अहियफलाणुवलंभादो एक्कस्स चेव वंदणा कायव्वा, अणंतेसु जिणेसु अक्कमेण छदुमत्थुपजोगपडतीए विसेसरूवाए असंभवादो वा एक्कस्सेव जिणस्स वंदणा कायव्वा त्ति ण एसो वि एयंतग्गहो कायव्वो; एयंतावहारणस्स सव्वहा दुण्णयत्तप्पसंगादो। </span>= <span class="HindiText">एक जिन या जिनालय की वंदना करने से सभी जिन या जिनालय की वंदना हो जाती है। <strong>प्रश्न -</strong> एक जिन की वंदना का जितना फल है शेष जिनों की वंदना का भी उतना ही फल होने से शेष जिनों की वंदना करना सफल नहीं है। अतः शेष जिनों की वंदना में फल अधिक नहीं होने के कारण एक ही जिन की वंदना करनी चाहिए। अथवा अनंत जिनों में छद्मस्थ के उपयोग की एक साथ विशेषरूप प्रवृत्ति नहीं हो सकती, इसलिए भी एक जिन की वंदना करनी चाहिए। <strong>उत्तर -</strong> इस प्रकार का एकांताग्रह भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार का निश्चय करना दुर्नय है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">एक की | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">एक की वंदना से सबकी वंदना कैसे होती है</strong> </span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/1,1/ §86-87/111-112/5<span class="PrakritText"> एक्कजिण-जिणालय-वंदणा ण कम्मक्खयं कुणइ, सेसजिण-जिणालय-चासण...। §86। ण ताव पक्खवाओ अत्थि; एक्कं चेव जिणं जिणालयं वा वंदामि त्ति णियमा-भावादो। ण च सेसजिणजिणालयाणं णियमेण वंदणा ण कया चेव; अणंतणाण-दंसण-विरिय-सुहादिदुवारेण एयत्तमावण्णेसु अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसिं पि वंदणुववत्तीदो। §87। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> एक जिन या जिनालय की | कषायपाहुड़/1/1,1/ §86-87/111-112/5<span class="PrakritText"> एक्कजिण-जिणालय-वंदणा ण कम्मक्खयं कुणइ, सेसजिण-जिणालय-चासण...। §86। ण ताव पक्खवाओ अत्थि; एक्कं चेव जिणं जिणालयं वा वंदामि त्ति णियमा-भावादो। ण च सेसजिणजिणालयाणं णियमेण वंदणा ण कया चेव; अणंतणाण-दंसण-विरिय-सुहादिदुवारेण एयत्तमावण्णेसु अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसिं पि वंदणुववत्तीदो। §87। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> एक जिन या जिनालय की वंदना कर्मों का क्षय नहीं कर सकती है, क्योंकि इससे शेष जिन और जिनालयों की आसादना होती है? <strong>उत्तर -</strong> एक जिन या जिनालय की वंदना करने से पक्षपात तो होता नहीं है, क्योंकि वंदना करनेवाले के ‘मैं एक जिन या जिनालय की वंदना करूँगा अन्य की नहीं’ ऐसा प्रतिज्ञा रूप नियम नहीं पाया जाता है। तथा वंदना करनेवाले ने शेष जिन और जिनालयों की वंदना नहीं की ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अनंत ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख आदि के द्वारा अनंत जिन एकत्व को प्राप्त हैं। इसलिए उनमें गुणों की अपेक्षा कोई भेद नहीं है अतएव एक जिन या जिनालय की वंदना से सभी जिन या जिनालय की वंदना हो जाती है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">देव व शास्त्र की पूजा में समानता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">देव व शास्त्र की पूजा में समानता</strong> </span><br /> | ||
सागार धर्मामृत/2/44 <span class="SanskritGatha">ये | सागार धर्मामृत/2/44 <span class="SanskritGatha">ये यजंते श्रुतं भक्त्या, ते यजंतेऽंजसा जिनम्। न किंचिदंतरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः। 44। </span>= <span class="HindiText">जो पुरुष भक्ति से जिनवाणी को पूजते हैं, वे पुरुष वास्तव में जिन भगवान् को ही पूजते हैं, क्योंकि सर्वज्ञदेव जिनवाणी और जिनेंद्रदेव में कुछ भी अंतर नहीं करते हैं। 44। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">साधु व प्रतिमा भी पूज्य है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">साधु व प्रतिमा भी पूज्य है</strong> </span><br /> | ||
बोधपाहुड़/ मू./17 <span class="PrakritGatha">तस्य य करइ पणामं सव्वं पुज्जं च विणयवच्छल्लं। जस्स य दंसण णाणं अत्थि ध्रुवं चेयणा भावो। 17।</span> =<span class="HindiText"> ऐसे जिनबिंब अर्थात् आचार्य कूँ प्रणाम करो, सर्व प्रकार पूजा करो, विनय करो, वात्सल्य करो, काहैं तैं-जाकैं ध्रुव कहिये निश्चयतैं दर्शन ज्ञान पाइये है बहुरि चेतनाभाव है। </span><br /> | बोधपाहुड़/ मू./17 <span class="PrakritGatha">तस्य य करइ पणामं सव्वं पुज्जं च विणयवच्छल्लं। जस्स य दंसण णाणं अत्थि ध्रुवं चेयणा भावो। 17।</span> =<span class="HindiText"> ऐसे जिनबिंब अर्थात् आचार्य कूँ प्रणाम करो, सर्व प्रकार पूजा करो, विनय करो, वात्सल्य करो, काहैं तैं-जाकैं ध्रुव कहिये निश्चयतैं दर्शन ज्ञान पाइये है बहुरि चेतनाभाव है। </span><br /> | ||
बोधपाहुड़/ टी./17/84/9 <span class="SanskritText"> | बोधपाहुड़/ टी./17/84/9 <span class="SanskritText">जिनबिंबस्य जिनबिंबमूर्तेराचार्यस्य प्रणामं नमस्कारं पंचांगमष्टांग वा कुरुत। चकारादुपाध्यायस्य सर्वसाधोश्च प्रणामं कुरुत तयोरपि जिनबिंबस्वरूपत्वात्। ...सर्वां पूजामष्टविधमर्चनं च कुरुत यूयमिति, तथा विनय... वैयावृत्यं कुरुत यूयं।... चकारात्पाषाणादिघाटितस्य जिनबिंबस्य पंचामृतैः स्नपनं, अष्टविधैः पूजाद्रव्यैश्च पूजनं कुरुत यूयं।</span> = <span class="HindiText">जिनेंद्र की मूर्ति स्वरूप आचार्य को प्रणाम, तथा पंचांग वा अष्टांग नमस्कार करो। ...च शब्द से उपाध्याय तथा सर्व साधुओं को प्रणाम करो, क्योंकि वह भी जिनबिंब स्वरूप हैं। ...इन सबकी अष्टविध पूजा, तथा अर्चना करो, विनय, एवं वैयावृत्य करो। ...चकार से पाषाणादि से उकेरे गये जिनेंद्र भगवान् के बिंब का पंचामृत से अभिषेक करो और अष्टविध पूजा के द्रव्य से पूजा करो, भक्ति करो। (और भी देखें [[ पूजा#2.1 | पूजा - 2.1]])। <br /> | ||
देखें [[ पूजा#1.4 | पूजा - 1.4 ]]आकारवान व निराकार वस्तु में | देखें [[ पूजा#1.4 | पूजा - 1.4 ]]आकारवान व निराकार वस्तु में जिनेंद्र भगवान् के गुणों की कल्पना करके पूजा करनी चाहिए। <br /> | ||
देखें [[ पूजा#2.1 | पूजा - 2.1 ]](पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।)<br /> | देखें [[ पूजा#2.1 | पूजा - 2.1 ]](पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">साधु की पूजा से पाप नाश कैसे हो सकता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">साधु की पूजा से पाप नाश कैसे हो सकता है</strong> </span><br /> | ||
धवला 9/4, 1,1/11/1 <span class="PrakritText"> होदु णाम सयलजिणणमोक्कारो पावप्पणासओ, तत्थ सव्वगुणाणमुवलंभादो। ण देसजिणाणभेदेसु तदणुवलंभादो त्ति। ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्हं रयणाणमुवलंभादो। ...तदो सयल-जिणणमोक्कारो व्व देसजिणणमोक्कारो वि सव्वकम्मक्खयकारओ त्ति दट्ठव्वो। सयलासयलजिणट्ठियतिरयणाणं ण समाणत्तं। ...संपुण्णतिरणकज्जमसंपुण्णतिरयणाणि ण करेंति, असमणत्तादो त्ति ण, णाण-दंसण-चरणाणमुप्पणसमाणत्तुवलंभादो। ण च असमाणाणं कज्जं असमाणमेव त्ति णियमो अत्थि, संपुण्णग्गिया कीरमाणदाह-कज्जस्स तदवयवे वि उवलंभादो, अभियघडसएण कीरमाण णिव्विसीकरणादि कज्जस्स अमियस्स चलुवे वि उवलंभादो वा।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> सकल जिन-नमस्कार पाप का नाशक भले ही हो, क्योंकि उनमें सब गुण पाये जाते हैं | धवला 9/4, 1,1/11/1 <span class="PrakritText"> होदु णाम सयलजिणणमोक्कारो पावप्पणासओ, तत्थ सव्वगुणाणमुवलंभादो। ण देसजिणाणभेदेसु तदणुवलंभादो त्ति। ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्हं रयणाणमुवलंभादो। ...तदो सयल-जिणणमोक्कारो व्व देसजिणणमोक्कारो वि सव्वकम्मक्खयकारओ त्ति दट्ठव्वो। सयलासयलजिणट्ठियतिरयणाणं ण समाणत्तं। ...संपुण्णतिरणकज्जमसंपुण्णतिरयणाणि ण करेंति, असमणत्तादो त्ति ण, णाण-दंसण-चरणाणमुप्पणसमाणत्तुवलंभादो। ण च असमाणाणं कज्जं असमाणमेव त्ति णियमो अत्थि, संपुण्णग्गिया कीरमाणदाह-कज्जस्स तदवयवे वि उवलंभादो, अभियघडसएण कीरमाण णिव्विसीकरणादि कज्जस्स अमियस्स चलुवे वि उवलंभादो वा।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> सकल जिन-नमस्कार पाप का नाशक भले ही हो, क्योंकि उनमें सब गुण पाये जाते हैं किंतु देशजिनों को किया गया नमस्कार पाप प्रणाशक नहीं हो सकता, क्योंकि इनमें वे सब गुण नहीं पाय जाते? <strong>उत्तर -</strong> नहीं, क्योंकि सकलजिनों के समान देशजिनों में भी तीन रत्न पाये जाते हैं। ...इसलिए सकलजिनों के नमस्कार के समान देशजिनों का नमस्कार भी सब कर्मों का क्षयकारक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। <strong>प्रश्न -</strong> सकलजिनों और देशजिनों में स्थित तीन रत्नों की समानता नहीं हो सकती... क्योंकि संपूर्ण रत्नत्रय का कार्य असंपूर्ण रत्नत्रय नहीं करते, क्योंकि वे असमान हैं। <strong>उत्तर -</strong> नहीं, क्योंकि ज्ञान, दर्शन और चारित्र के संबंध में उत्पन्न हुई समानता उनमें पायी जाती है। और असमानों का कार्य असमान ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि संपूर्ण अग्नि के द्वारा किया जानेवाला दाह कार्य उसके अवयव में भी पाया जाता है, अथवा अमृत के सैकड़ों घड़ों से किया जानेवाला निर्विषीकरणादि कार्य चुल्लू भर अमृत में भी पाया जाता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6">देव तो भावों में है मूर्ति में नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6">देव तो भावों में है मूर्ति में नहीं</strong> </span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश/ मू./0/123<span class="PrakritGatha"> *1 देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति। अखउ णिरंजुण णाणमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति। 123।</span> = <span class="HindiText">आत्मदेव देवालय में नहीं है, पाषाण की प्रतिमा में भी नहीं है, लेप में नहीं है, चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है। वह देव अविनाशी है, कर्म अंजन से रहित है, केवलज्ञान कर पूर्ण है, ऐसा निज परमात्मा समभाव में तिष्ठ रहा है। 123। ( योगसार ( | परमात्मप्रकाश/ मू./0/123<span class="PrakritGatha"> *1 देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति। अखउ णिरंजुण णाणमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति। 123।</span> = <span class="HindiText">आत्मदेव देवालय में नहीं है, पाषाण की प्रतिमा में भी नहीं है, लेप में नहीं है, चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है। वह देव अविनाशी है, कर्म अंजन से रहित है, केवलज्ञान कर पूर्ण है, ऐसा निज परमात्मा समभाव में तिष्ठ रहा है। 123। ( योगसार (योगेंदुदेव)/43-44 )</span><br /> | ||
योगसार ( | योगसार (योगेंदुदेव)/42 <span class="PrakritGatha">तिथहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि वुत्तु। देहा-देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुतु। 42 ।</span> = <span class="HindiText">श्रुतकेवली ने कहा कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं हैं, जिनदेव तो देह-देवालय में विराजमान हैं। 42। </span><br /> | ||
बोधपाहुड़/ टी./162-302 पर उद्धृत -<span class="PrakritGatha"> न देवो विद्यते काष्ठ न पाषाणे न मृण्मये। भावेषु विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणं। 1। भावविहूणउ जीव तुहं जइ जिणु बहहि सिरेण। पत्थरि कमलु कि निप्पजइ जइ सिंचहि अमिएण। 2।</span> = <span class="HindiText">काष्ठ की प्रतिमा में, पाषाण की प्रतिमा में अथवा मिट्टी की प्रतिमा में देव नहीं है। देव तो भावों में है। इसलिए भाव ही कारण है। 1। हे जीव! यदि भाव रहित केवल शिर से | बोधपाहुड़/ टी./162-302 पर उद्धृत -<span class="PrakritGatha"> न देवो विद्यते काष्ठ न पाषाणे न मृण्मये। भावेषु विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणं। 1। भावविहूणउ जीव तुहं जइ जिणु बहहि सिरेण। पत्थरि कमलु कि निप्पजइ जइ सिंचहि अमिएण। 2।</span> = <span class="HindiText">काष्ठ की प्रतिमा में, पाषाण की प्रतिमा में अथवा मिट्टी की प्रतिमा में देव नहीं है। देव तो भावों में है। इसलिए भाव ही कारण है। 1। हे जीव! यदि भाव रहित केवल शिर से जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार करता है तो वह निष्फल है, क्योंकि क्या कभी अमृत से सींचने पर भी कमल पत्थर पर उत्पन्न हो सकता है। 2। <br /> | ||
देखें [[ पूजा#1.5 | पूजा - 1.5 ]](निश्चय से आत्मा ही पूज्य है।)<br /> | देखें [[ पूजा#1.5 | पूजा - 1.5 ]](निश्चय से आत्मा ही पूज्य है।)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7">फिर मूर्ति को क्यों पूजते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7">फिर मूर्ति को क्यों पूजते हैं</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/160/13 <span class="SanskritText">अर्हदादयो भव्यानां | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/160/13 <span class="SanskritText">अर्हदादयो भव्यानां शुभोपयोगकारणतामुपायंति। तद्वदेतान्यपि तदीयानि प्रतिबिंबानि। ...यथा...स्वपुत्रसदृशदर्शनं पुत्रस्मृतेरालंबनं। एवमर्हदादिगुणानुस्मरणनिबंधनं प्रतिबिंबं। तथानुस्मरणं अभिनवाशुभप्रकृतेः संवरणे, ...क्षममिति सकलाभिमतपुरुषार्थ सिद्धिहेतुतया उपासनीयानीति।</span> = <span class="HindiText">जैसे अर्हदादि भव्यों को शुभोपयोग उत्पन्न करने में कारण हो जाते हैं, वैसे उनके प्रतिबिंब भी शुभोपयोग उत्पन्न करते हैं। जैसे - अपने पुत्र के समान ही दूसरे का सुंदर पुत्र देखने से अपने पुत्र की याद आती है। इसी प्रकार अर्हदादि के प्रतिबिंब देखने से अर्हदादि के गुणों का स्मरण हो जाता है, इस स्मरण से नवीन अशुभ कर्म का संवरण होता है। ... इसलिए समस्त इष्ट पुरुषार्थ की सिद्धि करने में, जिन प्रतिबिंब हेतु होते हैं, अतः उनकी उपासना अवश्य करनी चाहिए। </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511/15 <span class="SanskritText">चेदियभत्ता य चैत्यानि जिनसिद्धप्रति- | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511/15 <span class="SanskritText">चेदियभत्ता य चैत्यानि जिनसिद्धप्रति-बिंबानि कृत्रिमाकृत्रिमाणि तेषु भक्ताः। यथा शत्रूणां मित्राणां वा प्रतिकृतिदर्शनाद्द्वेषो रागश्च जायते। यदि नाम उपकारोऽनुपकारो वा न कृतस्तया प्रतिकृत्या तत्कृतापकारस्योपकारस्य वा अनुसरणे निमित्ततास्ति तद्वज्जैनसिद्धगुणाः अनंतज्ञानदर्शनसम्यक्त्ववीतरागत्वादयस्तत्र यद्यपि न संति, तथापि तद्गुणानुस्मरणं संपादयंति सादृश्यात्तच्च गुणानुस्मरणं अनुरागात्मकं ज्ञानदर्शने संनिधापयति। ते च संवरनिर्जर महत्यौ संपादयतः। तस्माच्चैत्यभक्तिमुपयोगिनीं कुरुत।</span> = <span class="HindiText">हे मुनिगण! आप अर्हंत और सिद्ध की अकृत्रिम और कृत्रिम प्रतिमाओं पर भक्ति करो। शत्रुओं अथवा मित्रों की फोटो अथवा प्रतिमा दीख पड़ने पर द्वेष और प्रेम उत्पन्न होता है। यद्यपि उस फोटो ने उपकार अथवा अनुपकार कुछ भी नहीं किया है, परंतु वह शत्रुकृत उपकार और मित्रकृत उपकार का स्मरण होने में कारण है। जिनेश्वर और सिद्धों के अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, सम्यग्दर्शन, वीतरागादिक गुण यद्यपि अर्हत्प्रतिमा में और सिद्ध प्रतिमा में नहीं हैं, तथापि उन गुणों का स्मरण होने में वे कारण अवश्य होती हैं, क्योंकि अर्हत् और सिद्धों का उन प्रतिमाओं में सादृश्य है। यह गुण-स्मरण अनुरागस्वरूप होने से ज्ञान और श्रद्धान को उत्पन्न करता है, और इनसे नवीन कर्मों का अपरिमित संवर और पूर्व से बँधे हुए कर्मों की महानिर्जरा होती है। इसलिए आत्म स्वरूप की प्राप्ति होने में सहायक चैत्य भक्ति हमेशा करो। ( धवला 9/4,1,1/8/4 ); ( अनगारधर्मामृत/9/15 )। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8">एक प्रतिमा में सर्व का संकल्प</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8">एक प्रतिमा में सर्व का संकल्प</strong> <br /> | ||
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख/119/173/3 एक तर्थंकरकै हू निरुक्ति द्वारै चौबीस का नाम संभवै है। तथा एक हजार आठ नामकरि एक तीर्थंकर का सौधर्म इंद्र स्तवन किया है, तथा एक तीर्थंकर के गुणनि के द्वारे असंख्यात नाम अनंतकालतैं अनंत तीर्थंकर के हो गये हैं। ...तातैं हूँ एक तीर्थंकर में एक का भी संकल्प अर चौबीस का भी संकल्प संभवै है। ...अर प्रतिमा कै चिह्न है सो ... नामादिक व्यवहार के अर्थि हैं। अर एक अरहंत परमात्मा स्वरूपकरि एक रूप है अर नामादि करि अनेक स्वरूप है। सत्यार्थ ज्ञानस्वभाव तथा रत्नत्रय रूप करि वीतराग भावकरि पंच परमेष्ठी रूप ही प्रतिमा जाननी। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9">पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर फण लगाने का विधि निषेध</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9">पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर फण लगाने का विधि निषेध</strong> <br /> | ||
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख/23/39/10 तिनके (पद्मावती के) मस्तक ऊपर पार्श्वनाथ स्वामी का प्रतिबिंब अर ऊपर फणनि का धारक सर्प का रूप करि बहुत अनुराग करि पूजैं हैं, सो परमागमतैं जानि निर्णय करो। मूढलोकनिं का कहिवी योग्य नाहीं। <br /> | |||
चर्चा समाधान/चर्चा नं.70 - <strong>प्रश्न -</strong> पार्श्वनाथजी के तपकाल विषै | चर्चा समाधान/चर्चा नं.70 - <strong>प्रश्न -</strong> पार्श्वनाथजी के तपकाल विषै धरणेंद्र पद्मावती आये मस्तक ऊपर फण का मंडप किया। केवलज्ञान समय रहा नाहीं। अब प्रतिमा विषैं देखिये। सो क्यों कर संभवै?<strong>उत्तर -</strong> जो परंपरा सौं रीति चली आवै सो अयोग्य कैसे कही जावै। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10">बाहुबलि की प्रतिमा | <li class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10">बाहुबलि की प्रतिमा संबंधी शंका समाधान</strong> <br /> | ||
चर्चा समाधान/शंका नं. 69 = <strong>प्रश्न -</strong> बाहुबलिजी की प्रतिमा पूज्य है कि नहीं? <strong>उत्तर -</strong> जिनलिंग सर्वत्र पूज्य है। धातु में, पाषाण में जहाँ है तहाँ पूज्य है। याही तैं पाँचों परमेष्ठी की प्रतिमा पूज्य है। </li> | चर्चा समाधान/शंका नं. 69 = <strong>प्रश्न -</strong> बाहुबलिजी की प्रतिमा पूज्य है कि नहीं? <strong>उत्तर -</strong> जिनलिंग सर्वत्र पूज्य है। धातु में, पाषाण में जहाँ है तहाँ पूज्य है। याही तैं पाँचों परमेष्ठी की प्रतिमा पूज्य है। </li> | ||
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Revision as of 16:28, 19 August 2020
- पूजा निर्देश व मूर्ति पूजा
- एक जिन व जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है
कषायपाहुड़ 1/1,1/ §87/112/5 अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसिं पि वंदणुववत्तीदो। ...एगजिणवंदणाफलेण समाणफलत्तादो सेसजिणवंदणा फलवंता तदो सेसजिणवंदणासु अहियफलाणुवलंभादो एक्कस्स चेव वंदणा कायव्वा, अणंतेसु जिणेसु अक्कमेण छदुमत्थुपजोगपडतीए विसेसरूवाए असंभवादो वा एक्कस्सेव जिणस्स वंदणा कायव्वा त्ति ण एसो वि एयंतग्गहो कायव्वो; एयंतावहारणस्स सव्वहा दुण्णयत्तप्पसंगादो। = एक जिन या जिनालय की वंदना करने से सभी जिन या जिनालय की वंदना हो जाती है। प्रश्न - एक जिन की वंदना का जितना फल है शेष जिनों की वंदना का भी उतना ही फल होने से शेष जिनों की वंदना करना सफल नहीं है। अतः शेष जिनों की वंदना में फल अधिक नहीं होने के कारण एक ही जिन की वंदना करनी चाहिए। अथवा अनंत जिनों में छद्मस्थ के उपयोग की एक साथ विशेषरूप प्रवृत्ति नहीं हो सकती, इसलिए भी एक जिन की वंदना करनी चाहिए। उत्तर - इस प्रकार का एकांताग्रह भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार का निश्चय करना दुर्नय है।
- एक की वंदना से सबकी वंदना कैसे होती है
कषायपाहुड़/1/1,1/ §86-87/111-112/5 एक्कजिण-जिणालय-वंदणा ण कम्मक्खयं कुणइ, सेसजिण-जिणालय-चासण...। §86। ण ताव पक्खवाओ अत्थि; एक्कं चेव जिणं जिणालयं वा वंदामि त्ति णियमा-भावादो। ण च सेसजिणजिणालयाणं णियमेण वंदणा ण कया चेव; अणंतणाण-दंसण-विरिय-सुहादिदुवारेण एयत्तमावण्णेसु अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसिं पि वंदणुववत्तीदो। §87। = प्रश्न - एक जिन या जिनालय की वंदना कर्मों का क्षय नहीं कर सकती है, क्योंकि इससे शेष जिन और जिनालयों की आसादना होती है? उत्तर - एक जिन या जिनालय की वंदना करने से पक्षपात तो होता नहीं है, क्योंकि वंदना करनेवाले के ‘मैं एक जिन या जिनालय की वंदना करूँगा अन्य की नहीं’ ऐसा प्रतिज्ञा रूप नियम नहीं पाया जाता है। तथा वंदना करनेवाले ने शेष जिन और जिनालयों की वंदना नहीं की ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अनंत ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख आदि के द्वारा अनंत जिन एकत्व को प्राप्त हैं। इसलिए उनमें गुणों की अपेक्षा कोई भेद नहीं है अतएव एक जिन या जिनालय की वंदना से सभी जिन या जिनालय की वंदना हो जाती है।
- देव व शास्त्र की पूजा में समानता
सागार धर्मामृत/2/44 ये यजंते श्रुतं भक्त्या, ते यजंतेऽंजसा जिनम्। न किंचिदंतरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः। 44। = जो पुरुष भक्ति से जिनवाणी को पूजते हैं, वे पुरुष वास्तव में जिन भगवान् को ही पूजते हैं, क्योंकि सर्वज्ञदेव जिनवाणी और जिनेंद्रदेव में कुछ भी अंतर नहीं करते हैं। 44।
- साधु व प्रतिमा भी पूज्य है
बोधपाहुड़/ मू./17 तस्य य करइ पणामं सव्वं पुज्जं च विणयवच्छल्लं। जस्स य दंसण णाणं अत्थि ध्रुवं चेयणा भावो। 17। = ऐसे जिनबिंब अर्थात् आचार्य कूँ प्रणाम करो, सर्व प्रकार पूजा करो, विनय करो, वात्सल्य करो, काहैं तैं-जाकैं ध्रुव कहिये निश्चयतैं दर्शन ज्ञान पाइये है बहुरि चेतनाभाव है।
बोधपाहुड़/ टी./17/84/9 जिनबिंबस्य जिनबिंबमूर्तेराचार्यस्य प्रणामं नमस्कारं पंचांगमष्टांग वा कुरुत। चकारादुपाध्यायस्य सर्वसाधोश्च प्रणामं कुरुत तयोरपि जिनबिंबस्वरूपत्वात्। ...सर्वां पूजामष्टविधमर्चनं च कुरुत यूयमिति, तथा विनय... वैयावृत्यं कुरुत यूयं।... चकारात्पाषाणादिघाटितस्य जिनबिंबस्य पंचामृतैः स्नपनं, अष्टविधैः पूजाद्रव्यैश्च पूजनं कुरुत यूयं। = जिनेंद्र की मूर्ति स्वरूप आचार्य को प्रणाम, तथा पंचांग वा अष्टांग नमस्कार करो। ...च शब्द से उपाध्याय तथा सर्व साधुओं को प्रणाम करो, क्योंकि वह भी जिनबिंब स्वरूप हैं। ...इन सबकी अष्टविध पूजा, तथा अर्चना करो, विनय, एवं वैयावृत्य करो। ...चकार से पाषाणादि से उकेरे गये जिनेंद्र भगवान् के बिंब का पंचामृत से अभिषेक करो और अष्टविध पूजा के द्रव्य से पूजा करो, भक्ति करो। (और भी देखें पूजा - 2.1)।
देखें पूजा - 1.4 आकारवान व निराकार वस्तु में जिनेंद्र भगवान् के गुणों की कल्पना करके पूजा करनी चाहिए।
देखें पूजा - 2.1 (पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।)
- साधु की पूजा से पाप नाश कैसे हो सकता है
धवला 9/4, 1,1/11/1 होदु णाम सयलजिणणमोक्कारो पावप्पणासओ, तत्थ सव्वगुणाणमुवलंभादो। ण देसजिणाणभेदेसु तदणुवलंभादो त्ति। ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्हं रयणाणमुवलंभादो। ...तदो सयल-जिणणमोक्कारो व्व देसजिणणमोक्कारो वि सव्वकम्मक्खयकारओ त्ति दट्ठव्वो। सयलासयलजिणट्ठियतिरयणाणं ण समाणत्तं। ...संपुण्णतिरणकज्जमसंपुण्णतिरयणाणि ण करेंति, असमणत्तादो त्ति ण, णाण-दंसण-चरणाणमुप्पणसमाणत्तुवलंभादो। ण च असमाणाणं कज्जं असमाणमेव त्ति णियमो अत्थि, संपुण्णग्गिया कीरमाणदाह-कज्जस्स तदवयवे वि उवलंभादो, अभियघडसएण कीरमाण णिव्विसीकरणादि कज्जस्स अमियस्स चलुवे वि उवलंभादो वा। = प्रश्न - सकल जिन-नमस्कार पाप का नाशक भले ही हो, क्योंकि उनमें सब गुण पाये जाते हैं किंतु देशजिनों को किया गया नमस्कार पाप प्रणाशक नहीं हो सकता, क्योंकि इनमें वे सब गुण नहीं पाय जाते? उत्तर - नहीं, क्योंकि सकलजिनों के समान देशजिनों में भी तीन रत्न पाये जाते हैं। ...इसलिए सकलजिनों के नमस्कार के समान देशजिनों का नमस्कार भी सब कर्मों का क्षयकारक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। प्रश्न - सकलजिनों और देशजिनों में स्थित तीन रत्नों की समानता नहीं हो सकती... क्योंकि संपूर्ण रत्नत्रय का कार्य असंपूर्ण रत्नत्रय नहीं करते, क्योंकि वे असमान हैं। उत्तर - नहीं, क्योंकि ज्ञान, दर्शन और चारित्र के संबंध में उत्पन्न हुई समानता उनमें पायी जाती है। और असमानों का कार्य असमान ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि संपूर्ण अग्नि के द्वारा किया जानेवाला दाह कार्य उसके अवयव में भी पाया जाता है, अथवा अमृत के सैकड़ों घड़ों से किया जानेवाला निर्विषीकरणादि कार्य चुल्लू भर अमृत में भी पाया जाता है।
- देव तो भावों में है मूर्ति में नहीं
परमात्मप्रकाश/ मू./0/123 *1 देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति। अखउ णिरंजुण णाणमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति। 123। = आत्मदेव देवालय में नहीं है, पाषाण की प्रतिमा में भी नहीं है, लेप में नहीं है, चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है। वह देव अविनाशी है, कर्म अंजन से रहित है, केवलज्ञान कर पूर्ण है, ऐसा निज परमात्मा समभाव में तिष्ठ रहा है। 123। ( योगसार (योगेंदुदेव)/43-44 )
योगसार (योगेंदुदेव)/42 तिथहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि वुत्तु। देहा-देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुतु। 42 । = श्रुतकेवली ने कहा कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं हैं, जिनदेव तो देह-देवालय में विराजमान हैं। 42।
बोधपाहुड़/ टी./162-302 पर उद्धृत - न देवो विद्यते काष्ठ न पाषाणे न मृण्मये। भावेषु विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणं। 1। भावविहूणउ जीव तुहं जइ जिणु बहहि सिरेण। पत्थरि कमलु कि निप्पजइ जइ सिंचहि अमिएण। 2। = काष्ठ की प्रतिमा में, पाषाण की प्रतिमा में अथवा मिट्टी की प्रतिमा में देव नहीं है। देव तो भावों में है। इसलिए भाव ही कारण है। 1। हे जीव! यदि भाव रहित केवल शिर से जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार करता है तो वह निष्फल है, क्योंकि क्या कभी अमृत से सींचने पर भी कमल पत्थर पर उत्पन्न हो सकता है। 2।
देखें पूजा - 1.5 (निश्चय से आत्मा ही पूज्य है।)
- फिर मूर्ति को क्यों पूजते हैं
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/160/13 अर्हदादयो भव्यानां शुभोपयोगकारणतामुपायंति। तद्वदेतान्यपि तदीयानि प्रतिबिंबानि। ...यथा...स्वपुत्रसदृशदर्शनं पुत्रस्मृतेरालंबनं। एवमर्हदादिगुणानुस्मरणनिबंधनं प्रतिबिंबं। तथानुस्मरणं अभिनवाशुभप्रकृतेः संवरणे, ...क्षममिति सकलाभिमतपुरुषार्थ सिद्धिहेतुतया उपासनीयानीति। = जैसे अर्हदादि भव्यों को शुभोपयोग उत्पन्न करने में कारण हो जाते हैं, वैसे उनके प्रतिबिंब भी शुभोपयोग उत्पन्न करते हैं। जैसे - अपने पुत्र के समान ही दूसरे का सुंदर पुत्र देखने से अपने पुत्र की याद आती है। इसी प्रकार अर्हदादि के प्रतिबिंब देखने से अर्हदादि के गुणों का स्मरण हो जाता है, इस स्मरण से नवीन अशुभ कर्म का संवरण होता है। ... इसलिए समस्त इष्ट पुरुषार्थ की सिद्धि करने में, जिन प्रतिबिंब हेतु होते हैं, अतः उनकी उपासना अवश्य करनी चाहिए।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511/15 चेदियभत्ता य चैत्यानि जिनसिद्धप्रति-बिंबानि कृत्रिमाकृत्रिमाणि तेषु भक्ताः। यथा शत्रूणां मित्राणां वा प्रतिकृतिदर्शनाद्द्वेषो रागश्च जायते। यदि नाम उपकारोऽनुपकारो वा न कृतस्तया प्रतिकृत्या तत्कृतापकारस्योपकारस्य वा अनुसरणे निमित्ततास्ति तद्वज्जैनसिद्धगुणाः अनंतज्ञानदर्शनसम्यक्त्ववीतरागत्वादयस्तत्र यद्यपि न संति, तथापि तद्गुणानुस्मरणं संपादयंति सादृश्यात्तच्च गुणानुस्मरणं अनुरागात्मकं ज्ञानदर्शने संनिधापयति। ते च संवरनिर्जर महत्यौ संपादयतः। तस्माच्चैत्यभक्तिमुपयोगिनीं कुरुत। = हे मुनिगण! आप अर्हंत और सिद्ध की अकृत्रिम और कृत्रिम प्रतिमाओं पर भक्ति करो। शत्रुओं अथवा मित्रों की फोटो अथवा प्रतिमा दीख पड़ने पर द्वेष और प्रेम उत्पन्न होता है। यद्यपि उस फोटो ने उपकार अथवा अनुपकार कुछ भी नहीं किया है, परंतु वह शत्रुकृत उपकार और मित्रकृत उपकार का स्मरण होने में कारण है। जिनेश्वर और सिद्धों के अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, सम्यग्दर्शन, वीतरागादिक गुण यद्यपि अर्हत्प्रतिमा में और सिद्ध प्रतिमा में नहीं हैं, तथापि उन गुणों का स्मरण होने में वे कारण अवश्य होती हैं, क्योंकि अर्हत् और सिद्धों का उन प्रतिमाओं में सादृश्य है। यह गुण-स्मरण अनुरागस्वरूप होने से ज्ञान और श्रद्धान को उत्पन्न करता है, और इनसे नवीन कर्मों का अपरिमित संवर और पूर्व से बँधे हुए कर्मों की महानिर्जरा होती है। इसलिए आत्म स्वरूप की प्राप्ति होने में सहायक चैत्य भक्ति हमेशा करो। ( धवला 9/4,1,1/8/4 ); ( अनगारधर्मामृत/9/15 )।
- एक प्रतिमा में सर्व का संकल्प
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख/119/173/3 एक तर्थंकरकै हू निरुक्ति द्वारै चौबीस का नाम संभवै है। तथा एक हजार आठ नामकरि एक तीर्थंकर का सौधर्म इंद्र स्तवन किया है, तथा एक तीर्थंकर के गुणनि के द्वारे असंख्यात नाम अनंतकालतैं अनंत तीर्थंकर के हो गये हैं। ...तातैं हूँ एक तीर्थंकर में एक का भी संकल्प अर चौबीस का भी संकल्प संभवै है। ...अर प्रतिमा कै चिह्न है सो ... नामादिक व्यवहार के अर्थि हैं। अर एक अरहंत परमात्मा स्वरूपकरि एक रूप है अर नामादि करि अनेक स्वरूप है। सत्यार्थ ज्ञानस्वभाव तथा रत्नत्रय रूप करि वीतराग भावकरि पंच परमेष्ठी रूप ही प्रतिमा जाननी।
- पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर फण लगाने का विधि निषेध
रत्नकरंड श्रावकाचार/ पं. सदासुख/23/39/10 तिनके (पद्मावती के) मस्तक ऊपर पार्श्वनाथ स्वामी का प्रतिबिंब अर ऊपर फणनि का धारक सर्प का रूप करि बहुत अनुराग करि पूजैं हैं, सो परमागमतैं जानि निर्णय करो। मूढलोकनिं का कहिवी योग्य नाहीं।
चर्चा समाधान/चर्चा नं.70 - प्रश्न - पार्श्वनाथजी के तपकाल विषै धरणेंद्र पद्मावती आये मस्तक ऊपर फण का मंडप किया। केवलज्ञान समय रहा नाहीं। अब प्रतिमा विषैं देखिये। सो क्यों कर संभवै?उत्तर - जो परंपरा सौं रीति चली आवै सो अयोग्य कैसे कही जावै।
- बाहुबलि की प्रतिमा संबंधी शंका समाधान
चर्चा समाधान/शंका नं. 69 = प्रश्न - बाहुबलिजी की प्रतिमा पूज्य है कि नहीं? उत्तर - जिनलिंग सर्वत्र पूज्य है। धातु में, पाषाण में जहाँ है तहाँ पूज्य है। याही तैं पाँचों परमेष्ठी की प्रतिमा पूज्य है।
- एक जिन व जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है