बोधपाहुड़ गाथा 9: Difference between revisions
From जैनकोष
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<div class="HindiGatha"><div>मुक्ति-बंधन और सुख-दु:ख जानते जो चैत्य वे ।</div> | <div class="HindiGatha"><div>मुक्ति-बंधन और सुख-दु:ख जानते जो चैत्य वे ।</div> | ||
<div>बस इसलिए षट्काय हितकर मुनी ही हैं चैत्यगृह ॥९॥</div> | <div>बस इसलिए षट्काय हितकर मुनी ही हैं चैत्यगृह ॥९॥</div> | ||
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<div class="HindiBhavarth"><div>जिसके बंध और मोक्ष, सुख और दु:ख हो उस आत्मा को चैत्य कहते हैं अर्थात् ये चिह्न जिसके स्वरूप में हो उसे ‘चैत्य’ कहते हैं, क्योंकि जो चेतनास्वरूप हो उसी के बंध, मोक्ष, सुख, दु:ख संभव हैं । इसप्रकार चैत्य का जो गृह हो वह ‘चैत्यगृह’ है । जिनमार्ग में इसप्रकार चैत्यगृह छहकाय का हित करनेवाला होता है वह इसप्रकार का ‘मुनि’ है । पाँच स्थावर और त्रस में विकलत्रय और असैनी पंचेन्द्रिय तक केवल रक्षा ही करने योग्य है इसलिए उनकी रक्षा करने का उपदेश करता है तथा आप उनका घात नहीं करता है यही उनका हित है और सैनी पंचेन्द्रिय जीव हैं, उनकी रक्षा भी करता है, रक्षा का उपदेश भी करता है तथा उनको संसार से निवृत्तिरूप मोक्ष प्राप्त करने का उपदेश करते हैं । इसप्रकार मुनिराज को ‘चैत्यगृह’ कहते हैं ।</div> | |||
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<div class="HindiBhavarth"><div>लौकिक जन चैत्यगृह का स्वरूप अन्यथा अनेकप्रकार मानते हैं, उनको सावधान किया है कि जिनसूत्र में छहकाय का हित करनेवाला ज्ञानमयी संयमी मुनि है वह ‘चैत्यगृह’ है; अन्य को चैत्यगृह कहना मानना व्यवहार है । इसप्रकार चैत्यगृह का स्वरूप कहा ॥९॥</div> | <div class="HindiBhavarth"><div>लौकिक जन चैत्यगृह का स्वरूप अन्यथा अनेकप्रकार मानते हैं, उनको सावधान किया है कि जिनसूत्र में छहकाय का हित करनेवाला ज्ञानमयी संयमी मुनि है वह ‘चैत्यगृह’ है; अन्य को चैत्यगृह कहना मानना व्यवहार है । इसप्रकार चैत्यगृह का स्वरूप कहा ॥९॥</div> |
Revision as of 16:04, 2 November 2013
चेइयं बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स ।
चेइहरं जिणमग्गे छक्कायहियंकरं भणियं ॥९॥
चैत्यं बन्धं मोक्षं दु:खं सुखं च आत्मकं तस्य ।
चैत्यगृहं जिनमार्गे षड्कायहितङ्करं भणितम् ॥९॥
आगे फिर कहते हैं -
हरिगीत
मुक्ति-बंधन और सुख-दु:ख जानते जो चैत्य वे ।
बस इसलिए षट्काय हितकर मुनी ही हैं चैत्यगृह ॥९॥
जिसके बंध और मोक्ष, सुख और दु:ख हो उस आत्मा को चैत्य कहते हैं अर्थात् ये चिह्न जिसके स्वरूप में हो उसे ‘चैत्य’ कहते हैं, क्योंकि जो चेतनास्वरूप हो उसी के बंध, मोक्ष, सुख, दु:ख संभव हैं । इसप्रकार चैत्य का जो गृह हो वह ‘चैत्यगृह’ है । जिनमार्ग में इसप्रकार चैत्यगृह छहकाय का हित करनेवाला होता है वह इसप्रकार का ‘मुनि’ है । पाँच स्थावर और त्रस में विकलत्रय और असैनी पंचेन्द्रिय तक केवल रक्षा ही करने योग्य है इसलिए उनकी रक्षा करने का उपदेश करता है तथा आप उनका घात नहीं करता है यही उनका हित है और सैनी पंचेन्द्रिय जीव हैं, उनकी रक्षा भी करता है, रक्षा का उपदेश भी करता है तथा उनको संसार से निवृत्तिरूप मोक्ष प्राप्त करने का उपदेश करते हैं । इसप्रकार मुनिराज को ‘चैत्यगृह’ कहते हैं ।
लौकिक जन चैत्यगृह का स्वरूप अन्यथा अनेकप्रकार मानते हैं, उनको सावधान किया है कि जिनसूत्र में छहकाय का हित करनेवाला ज्ञानमयी संयमी मुनि है वह ‘चैत्यगृह’ है; अन्य को चैत्यगृह कहना मानना व्यवहार है । इसप्रकार चैत्यगृह का स्वरूप कहा ॥९॥