पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 58 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p> | <p><span class="AnvayArth">भावों जदि कम्मकदो</span> भाव यदि कर्म-कृत हैं, यदि एकान्त से (सर्वथा) रागादि-भाव कर्मकृत हैं; <span class="AnvayArth">आदा कम्मस्स होदि किह कत्ता</span> तो आत्मा द्रव्य-कर्मों का कर्ता कैसे होता है (हो सकता है)? जिस कारण रागादि परिणाम का अभाव होने पर द्रव्य-कर्म उत्पन्न नहीं होता है । वह भी कैसे ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- <span class="AnvayArth">ण कुणदि अत्ता किंचिवि</span> आत्मा कुछ भी नहीं करता है ? वह क्या करके कुछ भी नहीं करता है ? <span class="AnvayArth">मुत्ता अण्णं सगं भावं</span> अपने चैतन्यभाव को छोडकर अन्य द्रव्य-कर्मादि का कुछ भी नहीं करता है । -- इसप्रकार आत्मा के सर्वथा अकर्तृत्व में दूषण की अपेक्षा पूर्व-पक्ष में और आगे द्वितीय गाथा में परिहार (इसप्रकार गाथा पूर्ण हुई) । -- ऐसा एक व्याख्यान है ।</p> | ||
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<p>तथा द्वितीय व्याख्यान में पुन: यहाँ ही पूर्वपक्ष और यहाँ ही परिहार है -- द्वितीय गाथा में तो स्थित पक्ष (सुनिश्चित हुआ तथ्य) ही दिखाया है । यह कैसे ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- 'पूर्वोक्त प्रकार से आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं है' इसमें दोष दिए जाने पर सांख्यमतानुसारी शिष्य कहता है 'कपिल शासन (सांख्यमत) में जीव अकर्ता, निर्गुण शुद्ध, नित्य, सर्वगत, अक्रिय, अमूर्त, चेतन, भोक्ता है ।' ऐसा वचन होने से हमारे मत में आत्मा को कर्मों का अकर्तृत्व भूषण ही है, दूषण नहीं है । यहाँ (उसका) परिहार करते हैं --</p> | <p>तथा द्वितीय व्याख्यान में पुन: यहाँ ही पूर्वपक्ष और यहाँ ही परिहार है -- द्वितीय गाथा में तो स्थित पक्ष (सुनिश्चित हुआ तथ्य) ही दिखाया है । यह कैसे ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- 'पूर्वोक्त प्रकार से आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं है' इसमें दोष दिए जाने पर सांख्यमतानुसारी शिष्य कहता है 'कपिल शासन (सांख्यमत) में जीव अकर्ता, निर्गुण शुद्ध, नित्य, सर्वगत, अक्रिय, अमूर्त, चेतन, भोक्ता है ।' ऐसा वचन होने से हमारे मत में आत्मा को कर्मों का अकर्तृत्व भूषण ही है, दूषण नहीं है । यहाँ (उसका) परिहार करते हैं --</p> |
Revision as of 16:51, 24 August 2021
भावों जदि कम्मकदो भाव यदि कर्म-कृत हैं, यदि एकान्त से (सर्वथा) रागादि-भाव कर्मकृत हैं; आदा कम्मस्स होदि किह कत्ता तो आत्मा द्रव्य-कर्मों का कर्ता कैसे होता है (हो सकता है)? जिस कारण रागादि परिणाम का अभाव होने पर द्रव्य-कर्म उत्पन्न नहीं होता है । वह भी कैसे ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- ण कुणदि अत्ता किंचिवि आत्मा कुछ भी नहीं करता है ? वह क्या करके कुछ भी नहीं करता है ? मुत्ता अण्णं सगं भावं अपने चैतन्यभाव को छोडकर अन्य द्रव्य-कर्मादि का कुछ भी नहीं करता है । -- इसप्रकार आत्मा के सर्वथा अकर्तृत्व में दूषण की अपेक्षा पूर्व-पक्ष में और आगे द्वितीय गाथा में परिहार (इसप्रकार गाथा पूर्ण हुई) । -- ऐसा एक व्याख्यान है ।
तथा द्वितीय व्याख्यान में पुन: यहाँ ही पूर्वपक्ष और यहाँ ही परिहार है -- द्वितीय गाथा में तो स्थित पक्ष (सुनिश्चित हुआ तथ्य) ही दिखाया है । यह कैसे ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- 'पूर्वोक्त प्रकार से आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं है' इसमें दोष दिए जाने पर सांख्यमतानुसारी शिष्य कहता है 'कपिल शासन (सांख्यमत) में जीव अकर्ता, निर्गुण शुद्ध, नित्य, सर्वगत, अक्रिय, अमूर्त, चेतन, भोक्ता है ।' ऐसा वचन होने से हमारे मत में आत्मा को कर्मों का अकर्तृत्व भूषण ही है, दूषण नहीं है । यहाँ (उसका) परिहार करते हैं --
जैसे शुद्ध निश्चय से आत्मा के रागादि का अकर्तृत्व है, उसीप्रकार अशुद्ध निश्चय से भी यदि अकर्तृत्व होता तो द्रव्य-कर्म के बंध का अभाव हो जाता, उसके अभाव में संसार का अभाव हो जाता, संसार के अभाव में सर्वदा ही मुक्त का प्रसंग आ जाता; परन्तु वह प्रत्यक्ष का विरोध है -- ऐसा अभिप्राय है ॥६५॥
इसप्रकार प्रथम व्याख्यान में पूर्व-पक्ष की अपेक्षा और द्वितीय व्याख्यान में पूर्व-पक्ष के परिहार की अपेक्षा गाथा पूर्ण हुई ।