पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 103 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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Revision as of 17:06, 24 August 2021
[मुणिदूण] मानकर, सर्वप्रथम विशिष्ट स्व-संवेदन ज्ञान द्वारा जानकर । किसे जानकर ? [एदं] इस प्रत्यक्षी-भूत नित्य आनन्द-मय एक शुद्ध जीवास्तिकाय लक्षणवाले [अत्थं] अर्थ को, विशिष्ट पदार्थ को जानकर; [तमणु] उस शुद्ध-जीवास्तिकाय लक्षण अर्थ का अनुलक्षणी कर, समाश्रय कर; [गमणुज्जदो] गमन के लिए उद्यत है, तन्मयता होने से परिणमन के लिए उद्यत है; [णिहदमोहो] शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचि-रूप निश्चय-सम्यक्त्व के प्रतिबंधक दर्शन-मोह का अभाव हो जाने से, तदनन्तर निहत-मोह, नष्ट-दर्शन-मोह वाला है; [पसमिइदरागदोसो] निश्चल आत्म-परिणति-रूप निश्चय-चारित्र से प्रतिकूल चारित्र-मोह के उदय का अभाव होने से, तत्पश्चात् प्रशमित-रागद्वेष है; इसप्रकार पूर्वोक्त प्रकार से स्व-पर का भेदज्ञान होने पर शुद्धात्म-रुचि-रूप सम्यक्त्व और उसीप्रकार शुद्धात्मा में स्थिति-रूप चारित्र होने पर, पश्चात् हवदि होता है । कैसा होता है ? [हदपरावरो] हतपरापर होता है । यहाँ परमानन्द ज्ञानादि गुणों का आधार होने से 'पर' शब्द द्वारा मोक्ष कहा जाता है, पर शब्द के वाच्यभूत मोक्ष से अपर भिन्न / परापर / संसार; इसप्रकार जिसके द्वारा संसार नष्ट किया गया है, वह हतपरापर, नष्ट-संसारी होता है । वह कौन है ? [जीवो] वह भव्य-जीव है ॥१११॥
इसप्रकार पंचास्तिकाय-परिज्ञान के फल-प्रतिपादन-रूप से छठवें स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुईं ।
इसप्रकार प्रथम महाधिकार में आठ गाथा द्वारा छह स्थलों से चूलिका नामक आठवाँ अन्तराधिकार जानना चाहिए ।
यहाँ 'पंचास्तिकाय प्राभृत' ग्रंथ में पूर्वोक्त क्रम से
- सात गाथाओं द्वारा समय-शब्द-पीठिका,
- चौदह गाथाओं द्वारा द्रव्यपीठिका,
- पाँच गाथाओं द्वारा निश्चय-व्यवहारकाल की मुख्यता,
- त्रेपन गाथाओं द्वारा जीवास्तिकाय का व्याख्यान,
- दश गाथाओं द्वारा पुद्गलास्तिकाय का व्याख्यान,
- सात गाथाओं द्वारा धर्माधर्मास्तिकाय-दोनों का विवरण,
- सात गाथाओं द्वारा आकाशास्तिकाय का व्याख्यान,
- आठ गाथाओं द्वारा चूलिका की मुख्यता
इसप्रकार [श्रीमद्जयसेनाचार्य] कृत [तात्पर्य वृत्ति] में 'पंचास्तिकाय षड्द्रव्य प्रतिपादन' नामक 'प्रथम महाधिकार' पूर्ण हुआ ।