गुण
From जैनकोष
जैन दर्शन में ‘गुण’ शब्द वस्तु की किन्हीं सहभावी विशेषताओं का वाचक है। प्रत्येक द्रव्य में अनेकों गुण होते हैं–कुछ साधारण कुछ असाधारण कुछ स्वाभाविक और कुछ विभाविक। परिणमनशील होने के कारण गुणों की अखंड शक्तियों की व्यक्तियों में नित्य हानि वृद्धि दृष्टिगत होती है, जिसे मापने के लिए उसमें अविभागी प्रतिच्छेदों या गुणांशों की कल्पना की जाती है। एक गुण में आगे पीछे अनेकों पर्यायें देखी जा सकती हैं; परंतु एक गुण में कभी भी अन्य गुण नहीं देखे जा सकते हैं।
1. गुण के भेद व लक्षण
1. गुण सामान्य का लक्षण।
* "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा:" ऐसा लक्षण–देखें गुण - 3.4।
2. गुण के साधारण असाधारणादि मूल-भेद।
3. साधारण असाधारण गुणों के लक्षण।
* अनुजीवी व प्रतिजीवी गुणों के लक्षण।–देखें गुण - 3.8।
* सामान्य विशेषादि गुणों के उत्तर भेद। –देखें गुण - 3।
4. स्वभाव विभाव गुणों के लक्षण।
* गुण को स्वभाव कह सकते हैं पर स्वभाव को गुण नहीं।–देखें स्वभाव - 2।
* मूलगुण व उत्तर गुण।–देखें वह वह नाम ।
* पंच परमेष्ठी के गुण।–देखें वह वह नाम ।
2. गुण-निर्देश
1. ‘गुण’ का अनेक अर्थों में प्रयोग।
2. गुणांश के अर्थ में गुण शब्द का प्रयोग।
3. एक अखंड गुण में अविभागी प्रतिच्छेद रूप खंड कल्पना।
4. उपरोक्त खंड कल्पना में हेतु तथा भेद-अभेद समन्वय।
* गुणांशों में कथंचित् अन्वय व्यतिरेक।–देखें सप्तभंगी - 5.8।
5. गुण का परिणामीपना तथा तद्गत शंका।
6. गुण का अर्थ अनंत पर्यायों का पिंड।
7. परिणमन करे पर गुणांतररूप नहीं हो सकता।
8. प्रत्येक गुण अपने-अपने रूप से पूर्ण स्वतंत्र है।
9. गुणों में परस्पर कथंचित् भेदाभेद।
* गुणों में कथंचित् नित्यानित्यात्मकता।
10. ज्ञान के अतिरिक्त सर्व गुण निर्विकल्प हैं।
11. सामान्य गुण द्रव्य के पारिणामिक भाव हैं।
12. सामान्य व विशेष गुणों का प्रयोजन।
3. द्रव्य-गुण संबंध
* द्रव्यांश होने के कारण गुण भी वास्तव में पर्याय है।
1. गुण वस्तु के विशेष है।
2. गुण द्रव्य के सहभावी विशेष हैं।
3. गुण द्रव्य के अन्वयी विशेष है।
4. द्रव्य के आश्रय गुण रहते हैं पर गुण के आश्रय अन्य गुण नहीं रहते।
5. द्रव्यों में सामान्य गुणों के नाम निर्देश।
6. द्रव्यों में विशेष गुणों के नाम निर्देश।
* प्रत्येक द्रव्य में अवगाहन गुण।–देखें अवगाहन ।
7. द्रव्य में साधारणासाधरण गुणों के नामनिर्देश।
* आपेक्षिक गुणों संबंधी।–देखें स्वभाव ।
* जीव में अनेकों विरोधी धर्मों का निर्देश।–देखें जीव - 3।
8. द्रव्यों में अनुजीवी और प्रतिजीवी गुणों के नाम निर्देश।
9. द्रव्य में अनंत गुण हैं।
10. जीव द्रव्य में अनंत गुणों का निर्देश।
11. गुणों के अनंतत्व विषयक शंका व समन्वय।
12. द्रव्य के अनुसार उसके गुण भी मूर्त या चेतन आदि कहे जाते हैं।
* गुण-गुणी में कथंचित् भेदाभेद।
* गुण का द्रव्यरूप से और द्रव्य व पर्याय का गुणरूप से उपचार।–देखें उपचार - 3।
1. गुण के भेद व लक्षण
1. गुण सामान्य का लक्षण।
* "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा:" ऐसा लक्षण–देखें गुण - 3.4।
2. गुण के साधारण असाधारणादि मूल-भेद।
3. साधारण असाधारण गुणों के लक्षण।
* अनुजीवी व प्रतिजीवी गुणों के लक्षण।–देखें गुण - 3.8।
* सामान्य विशेषादि गुणों के उत्तर भेद। –देखें गुण - 3।
4. स्वभाव विभाव गुणों के लक्षण।
* गुण को स्वभाव कह सकते हैं पर स्वभाव को गुण नहीं।–देखें स्वभाव - 2।
* मूलगुण व उत्तर गुण।–देखें वह वह नाम ।
* पंच परमेष्ठी के गुण।–देखें वह वह नाम ।
2. गुण-निर्देश
1. ‘गुण’ का अनेक अर्थों में प्रयोग।
2. गुणांश के अर्थ में गुण शब्द का प्रयोग।
3. एक अखंड गुण में अविभागी प्रतिच्छेद रूप खंड कल्पना।
4. उपरोक्त खंड कल्पना में हेतु तथा भेद-अभेद समन्वय।
* गुणांशों में कथंचित् अन्वय व्यतिरेक।–देखें सप्तभंगी - 5.8।
5. गुण का परिणामीपना तथा तद्गत शंका।
6. गुण का अर्थ अनंत पर्यायों का पिंड।
7. परिणमन करे पर गुणांतररूप नहीं हो सकता।
8. प्रत्येक गुण अपने-अपने रूप से पूर्ण स्वतंत्र है।
9. गुणों में परस्पर कथंचित् भेदाभेद।
* गुणों में कथंचित् नित्यानित्यात्मकता।
10. ज्ञान के अतिरिक्त सर्व गुण निर्विकल्प हैं।
11. सामान्य गुण द्रव्य के पारिणामिक भाव हैं।
12. सामान्य व विशेष गुणों का प्रयोजन।
3. द्रव्य-गुण संबंध
* द्रव्यांश होने के कारण गुण भी वास्तव में पर्याय है।
1. गुण वस्तु के विशेष है।
2. गुण द्रव्य के सहभावी विशेष हैं।
3. गुण द्रव्य के अन्वयी विशेष है।
4. द्रव्य के आश्रय गुण रहते हैं पर गुण के आश्रय अन्य गुण नहीं रहते।
5. द्रव्यों में सामान्य गुणों के नाम निर्देश।
6. द्रव्यों में विशेष गुणों के नाम निर्देश।
* प्रत्येक द्रव्य में अवगाहन गुण।–देखें अवगाहन ।
7. द्रव्य में साधारणासाधरण गुणों के नामनिर्देश।
* आपेक्षिक गुणों संबंधी।–देखें स्वभाव ।
* जीव में अनेकों विरोधी धर्मों का निर्देश।–देखें जीव - 3।
8. द्रव्यों में अनुजीवी और प्रतिजीवी गुणों के नाम निर्देश।
9. द्रव्य में अनंत गुण हैं।
10. जीव द्रव्य में अनंत गुणों का निर्देश।
11. गुणों के अनंतत्व विषयक शंका व समन्वय।
12. द्रव्य के अनुसार उसके गुण भी मूर्त या चेतन आदि कहे जाते हैं।
* गुण-गुणी में कथंचित् भेदाभेद।
* गुण का द्रव्यरूप से और द्रव्य व पर्याय का गुणरूप से उपचार।–देखें उपचार - 3।
1. गुण के भेद व लक्षण
1. गुण सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/5/38/30 पर उद्धृत
गुण इदि दव्वविहाणं।
=द्रव्य में भेद करने वाले धर्म को गुण कहते हैं।
आलापपद्धति/6
गुण्यते पृथक्क्रियते द्रव्यं द्रव्यांतराद्यैस्ते गुणा:।
=जो द्रव्य को द्रव्यांतर से पृथक् करता है सो गुण है।
न्यायदीपिका/3/78/121
यावद्द्रव्यभाविन: सकलपर्यायानुवर्त्तिनो गुणा: वस्तुत्वरूपरसगंधस्पर्शादय:।
=जो संपूर्ण द्रव्य में व्याप्त कर रहते हैं और समस्त पर्यायों के साथ रहने वाले हैं उन्हें गुण कहते हैं। और वे वस्तुत्व, रूप, रस, गंध और स्पर्शादि हैं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/48
शक्तिर्लक्ष्मविशेषो धर्मो रूपं गुण: स्वभावश्च। प्रकृतिशीलं चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दा:।48।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/478
लक्षणं च गुणश्चांगं शब्दांचैकार्थवाचका:।478।
=1. शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, शील और आकृति ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं।48। 2. लक्षण, गुण और अंग ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं।।478।
2. गुण के साधारण असाधारणादि मूल भेद
नयचक्र बृहद्/11
दव्वाणं सहभूदा सामण्णविसेसदो गुणा णेया।
=द्रव्यों के सहभूत गुण सामान्य व विशेष के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ 95
गुणा विस्तारविशेषा:, ते द्विविधा: सामान्यविशेषात्मकत्वात् ।
=गुण द्रव्य के विस्तार विशेष हैं। वे सामान्य विशेषात्मक होने से दो प्रकार के हैं। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/160-161 )
परमात्मप्रकाश टीका/1/58/58/7
गुणास्त्रिविधा भवंति। केचन साधारणा: केचनासाधारणा:, केचन साधारणासाधारणा इति।
=गुण तीन प्रकार के हैं–कुछ साधारण हैं, कुछ असाधारण हैं और कुछ साधारणासाधारण हैं।
श्लोकवार्तिक/ भाषा 2/1/4/53/158/11
अनुजीवी प्रतिजीवी, पर्यायशक्तिरूप और आपेक्षिक धर्म इन चार प्रकार के गुणों का समुदाय रूप ही वस्तु है।
3. साधारण व असाधारण या सामान्य व विशेष गुणों के लक्षण
परमात्मप्रकाश टीका/1/58/58/8
ज्ञानसुखादय: स्वजातौ साधारणा अपि विजातौ पुनसाधारणा:।
=ज्ञान सुखादि गुण स्वजाति की अर्थात् जीव की अपेक्षा साधारण है और विजाति द्रव्यों की अपेक्षा असाधारण है।
अध्यात्मकमल मार्तंड/2/7-8
सर्वेष्वविशेषेण हि ये द्रव्येषु च गुणा: प्रवर्तंते। ते सामान्यगुणा इह यथा सदादिप्रमाणत: सिद्धम् ।7। तस्मिन्नेव विवक्षितवस्तुनि मग्ना: इहेदमिति चिज्जा:। ज्ञानादयो यथा ते द्रव्यप्रतिनियतो विशेषगुणा:।8।
=सभी द्रव्यों में विशेषता रहित जो गुण वर्तन करते हैं, ते सामान्य गुण हैं जैसे कि सत् आदि गुण प्रमाण से सिद्ध हैं।7। उस ही विवक्षित वस्तु में जो मग्न हो तथा ‘यह वह है’ इस प्रकार का ज्ञान कराने वाले गुण विशेष हैं। जैसे–द्रव्य के प्रतिनियत ज्ञानादि गुण।8।
4. स्वभाव विभाव गुणों के लक्षण
परमात्मप्रकाश टीका/1/57/56/12
जीवस्य यावत्कथ्यंते। केवलज्ञानादय: स्वभावगुणा असाधारणा इति। अगुरुलघु का स्वगुणास्ते....सर्वद्रव्यसाधारणा:। तस्यैव जीवस्य मतिज्ञानादिविभावगुणा...इति। इदानीं पुद्गलस्य कथ्यंते। तस्मिन्नेव परमाणौ वर्णादय: स्वभावगुणा इति।...द्वयणुकादिस्कंधेषु वर्णादयो विभावगुणा: इति भावार्थ:। धर्माधर्माकाशकालानां स्वभावगुणपर्यायास्ते च यथावसरं कथ्यंते।
=जीव की अपेक्षा कहते हैं। केवलज्ञानादि उसके असाधारण स्वभाव गुण है और अगुरुलघु उसका साधारण स्वभाव गुण है। उसी जीव के मतिज्ञानादि विभावगुण हैं। अब पुद्गल के कहते हैं। परमाणु के वर्णादिगुण स्वभावगुण है और द्वयणुकादि स्कंधों के विभावगुण है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों के भी स्वभाव गुण और पर्याय यथा अवसर कहते हैं।
2. गुण निर्देश
1. गुण का अनेक अर्थों में प्रयोग
राजवार्तिक/2/34/2/498/17
गुणशब्दोऽनेकस्मिन्नर्थे दृष्टप्रयोग: कश्चिद्रूपादिषु वर्तते-रूपादयो गुणा इति क्वचिद्भागे वर्तते द्विगुणा यवास्त्रिगुणा यवा इति। क्वचिदुपकारे वर्तते-गुणज्ञ: साधु: उपकारज्ञ इति यावत् । क्वचिद्द्रव्ये वर्तते-गुणवानयं देश इत्युच्येते यस्मिन् गाव: शस्यानि च निष्पद्यंते। क्वचित्समेष्ववयवेषु-द्विगुणा रज्जु: त्रिगुणा रज्जुरिति। क्वचिदुपसर्जने-गुणभूता वयमस्मिन् ग्रामे उपसर्जनभूता इत्यर्थ:।
=गुण शब्द के अनेक अर्थ हैं–जैसे रूपादि गुण (रूप रस गंध स्पर्श इत्यादि गुण) में गुण का अर्थ रूपादि है। ‘दोगुणा यव त्रिगुणा यव’ में गुण का अर्थ भाग है। ‘गुणज्ञ साधु’ में या ‘उपकारज्ञ’ में उपकार अर्थ है। ‘गुणवानदेश’ में द्रव्य अर्थ है, क्योंकि जिसमें गौयें या धान्य अच्छा उत्पन्न होता है वह देश गुणवान कहलाता है। द्वि गुण रज्जु त्रिगुणरज्जु में समान अवयव अर्थ है। ‘गुणभूता वयम्’ में गौण अर्थ है। (भगवति आराधना/विजयोदया टीका/7/37/4)।
धवला/1/1,1,8/ गाथा 104/161
जेहि दु लक्खिज्जंते उदयादिसु संभवेहि भावेहि। जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहि।174।
राजवार्तिक/7/11/6/438/25
सम्यग्दर्शनादयो गुणा:।
धवला 15/174/1
को पुण गुणा ? संजमो संजमासंजमो वा।
धवला 1/1,1,8/161/3
गुणसहचरित्वादात्मापि गुणसंज्ञां प्रतिलभते।
धवला 1/1,8/160/7
के गुणा:। औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिका इति गुणा:।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/95
गुणा विस्तारविशेषा:।95।
वसुनंदी श्रावकाचार/513
अणिमा महिमा लघिमा पागम्म वसित्त कामरूवित्तं। ईसत्त पावणं तह अट्ठगुणा वण्णिया समए।513।
=1. कर्मों के उदय उपशमादि से उत्पन्न जिन परिणामों से युक्त जो जीव देखे जाते हैं, वे उसी गुण संज्ञावाले कहे जाते हैं।104। ( गोम्मटसार कर्मकांड/812/987)।
2.सम्यग्दर्शनादि भी गुण हैं। 3. संजम व संजमासंजम भी गुण कहे जाते हैं। 4. गुणों के सहवर्ती होने से आत्मा भी गुण कह दिया जाता है। 5. औदयिक औपशमिक आदि पाँच भाव भी गुण कहे गये हैं। 6. गुण को विस्तार विशेष भी कहा जाता है। 7. अणिमा महिमा आदि ऋद्धियाँ भी गुण कहे जाते हैं।
2. गुणांश के अर्थ में गुण शब्द का प्रयोग
तत्त्वार्थसूत्र/5/33-36
स्निग्धरूक्षत्वाद् बंध:।33। न जघन्यगुणानां।34। गुणसाम्ये सदृशानाम् ।35। द्वयधिकादि गुणानां तु।36।
सर्वार्थसिद्धि/5/35/305/10
गुणसाम्यग्रहणं तुल्यभागसंप्रत्ययार्थम् ।
राजवार्तिक/5/34/2/498/21
तत्रेह भागे वर्तमान: परिगृह्यते। जघन्यो गुणो येषां ते जघन्यगुणास्तेषां जघन्यगुणानां नास्ति बंध:।
धवला 14/5,6,539/450/5
एयगुणं ति किं घेप्पदि। जहण्णगुणस्स गहणं। सो च जहण्णगुणो अणंतेहि अविभागपडिच्छेदेहि णिप्पण्णो।
धवला 14/5,6,540/451/5
गुणस्स विदियअवत्थाविसेसो विदियगुणो णाम। तदियो अवत्थाविसेसो तदियगुणो णाम।
=1. स्निग्धत्व और रूक्षत्व से बंध होता है।33। जघन्य गुणवाले पुद्गलों का बंध नहीं होता है।34। समान गुण होने पर तुल्य जातिवालों का बंध नहीं होता है।35। दो अधिक गुणवालों का बंध होता है।36। 2. तुल्य शक्त्यंशों का ज्ञान कराने के लिए ‘गुणसाम्य’ पद का ग्रहण किया है। 3. यहाँ भाग अर्थ विवक्षित है। जिनके जघन्य (एक) गुण होते हैं वे जघन्य गुण कहलाते हैं। उनका बंध नहीं होता। 4. एक गुण से जघन्य गुण ग्रहण किया जाता है जो अनंत अविभागी प्रतिच्छेदों से निष्पन्न है। 5. उसके ऊपर एक आदि अविभागी प्रतिच्छेद की वृद्धि होने पर गुण की द्वितीयादि अवस्था विशेषों की द्वितीयगुण तृतीयगुण आदि संज्ञा होती है।ध.।
3. एक अखंड गुण में अविभागी प्रतिच्छेदरूप खंड कल्पना
धवला 14/5,6,539/450/6
सो च जहण्णगुणो अणंतेहि अविभागपडिच्छेदेहिं णिप्पण्णो।
=वह जघन्यगुण अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों से निष्पन्न होता है।
पंचाध्यायी x`/53
तासामन्यतरस्या भवंत्यनंता निरंशका अंशा:।
=उन अनंत शक्तियों या गुणों में-से प्रत्येक शक्ति के अनंत अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं। (अध्यात्मकमलमार्तंड/2/6 )
4. उपरोक्त खंड कल्पना में हेतु तथा भेद-अभेद समन्वय
धवला 14/5,6,53 /450/7
तं कथं णव्वदे। सो अणंतविस्सासुवचएहि उवचिदो त्ति सुत्तण्णहाणुववत्तीदो। ण च एक्कम्मि अविभागपडिच्छेदे संते एगविस्सासुवचयं मोत्तूण अणंताणंतविस्सासुवचयाणं तत्थ संभवो अत्थि, तेसिं संबंधस्स णिप्पच्चत्तयप्पसंगादो। ण च तस्स विस्सासुवचएहि बंधो वि अत्थि जहण्णवज्जे त्ति सुत्तेण सह विरोहादो।
=प्रश्न–यह किस प्रमाण से जाना जाता है (कि पुद्गल के बंध योग्य एक जघन्य गुण अनंत अविभागी प्रतिच्छेदों से निष्पन्न है)? उत्तर–‘वह अनंत विस्रसोपचयों से उपचरित है’ यह सूत्र ( षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र 539/450) अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है कि वह अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों से निष्पन्न होता है। प्रश्न–अनंत अविभाग प्रतिच्छेद के रहते हुए वहाँ केवल एक विस्रसोपचय (बंध योग्य परमाणु) न होकर अनंत विस्रसोपचय संभव हैं (या हो जायेंगे)? उत्तर–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्था में उनका संबंध (उन परमाणुओं का बंध) बिना कारण के होता है, ऐसा प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाये कि उसका विस्रसोपचयों के साथ बंध भी होता है, सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ‘जघन्य गुणवाले के साथ बंध नहीं होता’ (‘न जघन्य गुणानां’/ तत्त्वार्थसूत्र/5/34 ) इस सूत्र के साथ विरोध आता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/56,59
देशच्छेदो हि यथा न तथा छेदो भवेद्गुणांशस्य। विष्कंभस्य विभागात्स्थूलो देशस्तथा न गुणभाग:।56। तेन गुणांशेन पुनर्गणिता: सर्वे भवंत्यनंतास्ते तेषामात्मा गुण इति न हि ते गुणत: पृथक्त्वसत्ताक:।59।
=जैसे चौड़ाई के विभाग से देश का छेद होता है वैसे गुणांश का छेद नहीं होता। क्योंकि जैसे वह देश देशांश स्थूल होता है वैसे गुणांश स्थूल नहीं होता।56। उस जघन्य अविभाग प्रतिच्छेद से यदि सब गुणांश गिने जावें तो वे अनंत होते हैं, और उन सब गुणांशों का आत्मा ही गुण कहलाता है। तथा वे सब गुणांश निश्चय से गुण से पृथक् सत्तावाले नहीं हैं।59।
5. गुण का परिणामीपना तथा तद्गत शंका
अध्यात्मकमल मार्तंड/2/6
अन्वयिन: किल नित्या गुणाश्च निर्गुणाऽवयवा ह्यनंतांशा:। द्रव्याश्रया विनाशप्रादुर्भावा: स्वशक्तिभि: शश्वत् ।6।
=गुणों में नित्य ही अपनी शक्तियों द्वारा विनाश व प्रादुर्भाव होता रहता है।
पंचाध्यायी x`/5/112-159
वस्तु यथा परिणामी तथैव परिणामिनो गुणाश्चापि। तस्मादुत्पादव्ययद्वयमपि भवति हि गुणानां तु।112। ननु नित्या हि गुणा अपि भवंत्यनित्यास्तु पर्यया: सर्वे। तत्किं द्रव्यवदिह किल नित्यानित्यात्मका: गुणा: प्रोक्ता:।115। सत्यं तत्र यत: स्यादिदमेव विवक्षितं यथा द्रव्ये। न गुणेभ्य: पृथगिह तत्सदिति द्रव्यं च पर्यायाश्चेति।116। अयमर्थ: संति गुणा अपि किल परिणामिन: स्वत: सिद्धा:। नित्यानित्यत्वादप्युत्पादादित्रयात्मका: सम्यक् ।159।
=जैसे वस्तु परिणमनशील है वैसे ही गुण भी परिणमनशील है, इसलिए निश्चय करके गुण के भी उत्पाद और व्यय ये दोनों होते हैं।112। प्रश्न–गुण नित्य होते हैं और संपूर्ण पर्यायें अनित्य होती हैं, तो फिर क्यों इस प्रकरण में द्रव्य की तरह गुणों को नित्यानित्यात्मक कहा है? उत्तर–ठीक है, क्योंकि तहाँ यही विवक्षित है कि जैसे द्रव्य में जो ‘सत्’ है, यह सत् गुणों से पृथक् नहीं है वैसे ही द्रव्य और पर्यायें भी गुणों से पृथक् नहीं हैं।116। गुण स्वयंसिद्ध है और परिणामी भी है, इसलिए वे नित्य और अनित्य रूप होने से उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक भी हैं।159।
6. गुण का अर्थ अनंत पर्यायों का समूह
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ 95
गुणा विस्तारविशेषा:।
=गुण विस्तार विशेष हैं।
श्लोकवार्तिक/ भाषा/2/1/6/56/503/7
कालत्रयवर्ती अनंतानंत पर्यायों का ऊर्ध्वांश समुदाय एक गुण है।
7. परिणमन करे पर गुणांतर रूप नहीं हो सकता
राजवार्तिक/5/24/25/490/28
स्पर्शादीनां गुणानां परिणाम एकजातीय इत्येतस्यार्थस्य ख्यापनार्थं ‘च’ क्रियते पृथक्ग्रहणम् । तद्यथा स्पर्श एको गुण: काठिन्यलक्षण: स्वजात्यपरित्यागेन पूर्वोत्तरस्वगतभेदनिरोधोपजननसंतत्या वर्तनात्, द्वित्रिचतु:संख्येयासंख्येयानंतगुणस्पर्शपर्यायैरेव परिणमते न मृदुगुरुलघ्वादिस्पर्शे:। एवं मृद्वादयोऽपि जेयया:। रसश्च तिक्त एक एव गुण: रसजातिमजहन् पूर्ववन्नाशोत्पादावनुभवन् द्वित्रिचतु:संख्येयासंख्येयानंतगुणतिक्तरसैरेव परिणमते न कटुकादिरसै:। एवं कटुकादयो वेदितव्या: ।...अथ यदा कठिनस्पर्शो मृदुस्पर्शेन, गुरुलघुना, स्निग्धो रूक्षेण, शीत उष्णेन परिणमते तिक्तश्च कटुकादिभि: ...इतरे चेतरै:, संयोगे च गुणांतरैस्तदा कथम् । तत्रापि कठिनस्पर्श: ...स्पर्शजातिमजहन् मृदुस्पर्शेनैव विनाशोत्पादौ अनुभवन् परिणमते नेतरै:, एवमितरत्रापि योज्यम् ।
=’स्पर्शादि गुणों का एकजातीय परिणमन होता है’ इसकी सूचना करने के लिए पृथक् सूत्र बनाया है। जैसे कठिन स्पर्श अपनी जाति को न छोड़कर पूर्व और उत्तर स्वगत भेदों के उत्पाद विनाश को करता हुआ दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनंत गुण स्पर्श पर्यायों से ही परिणत होता है, मृदु गुरु लघु आदि स्पर्शों से नहीं। इसी तरह मृदु आदि भी। तिक्त रस रस जाति को न छोड़कर उत्पाद विनाश को प्राप्त होकर भी दो तीन चार संख्यात असंख्यात अनंत गुण तिक्त रस रूप ही परिणमन करेगा कटुक आदि रसों से नहीं। इसी तरह कटुक आदि में समझना चाहिए। (इसी प्रकार गंध व वर्ण गुण में भी लागू कर लेना)। प्रश्न–जब कठिन स्पर्श मृदुरूप में, गुरु लघुरूप में, स्निग्ध रूक्ष में, और भी परस्पर संयोग से गुणांतर रूप में परिणमन करते हैं, तब यह एकजातीय परिणमन का नियम कैसे रहेगा? उत्तर–ऐसे स्थान में कठिन स्पर्श अपनी स्पर्श जाति को न छोड़कर ही मृदु स्पर्श से विनाश उत्पाद का अनुभव करता हुआ परिणमन करता है अन्य रूप में नहीं। इसी तरह अन्य गुणों में भी समझ लेना चाहिए।
8. प्रत्येक गुण अपने-अपने रूप से पूर्ण स्वतंत्र है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1012-1013
न गुण: कोऽपि कस्यापि गुणस्यांतर्भव: क्वचित् । नाधारोऽपि च नाधेयो हेतुर्नापीह हेतुमान् ।1012। किंतु सर्वेऽपि स्वात्मीया: स्वात्मीयशक्तियोगत:। नानारूपा ह्यनेकेऽपि सता सम्मिलिता मिथ:।1013।
=प्रकृत में कहीं भी कोई भी गुण किसी भी गुण का अंतर्भावी नहीं है, आधार नहीं है, आधेय भी नहीं है, कारण और कार्य भी नहीं है।1012। किंतु अपनी-अपनी शक्ति को धारण करने की अपेक्षा से सब गुण अपने अपने स्वरूप में स्थित हैं। इसलिए यद्यपि वे नानारूप व अनेक हैं तथापि निश्चयपूर्वक वे सब गुण परस्पर में एक ही सत् के साथ अन्वयरूप से संबंध रखते हैं।
उपादान निमित्त चिट्ठी (पं. बनारसीदास)–
ज्ञान चारित्र के आधीन नहीं, चारित्र ज्ञान के आधीन नहीं। दोनों असहाय रूप हैं। ऐसी तो मर्यादा है।
9. गुणों में परस्पर कथंचित् भेदाभेद
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/51-52
तदुदाहरणं चैतज्जीवे यद्दर्शनं गुणश्चैक:। तन्न ज्ञानं न सुखं चारित्रं वा न कश्चिदितरश्च।51। एवं य: कोऽपि गुण: सोऽपि च न स्यात्तदन्यरूपो वा। स्वयमुच्छलंति तदिमा मिथो विभिन्नाश्च शक्तयोऽनंता:।52।
=जीव में जो दर्शन नाम का एक गुण है, वह न ज्ञान गुण है, न सुख है, न चारित्र अथवा कोई अन्य गुण ही हो सकता है। किंतु वह ‘दर्शन’ दर्शन ही है।51। इसी तरह द्रव्य का जो कोई भी गुण है, वह भी उससे भिन्न रूपवाला नहीं हो सकता है अर्थात् सब गुण अपने अपने स्वरूप में ही रहते हैं, इसलिए ये परस्पर भिन्न अनंत ही शक्तियाँ द्रव्य में उछलती हैं–प्रतिभासित होती हैं।52।
10. ज्ञान के अतिरिक्त सर्व गुण निर्विकल्प हैं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/392,395
नाकार: स्यादनाकारो वस्तुतो निर्विकल्पता। शेषानंतगुणानां तल्लक्षणं ज्ञानमंतरा।392। ज्ञानादिना गुणा: सर्वे प्रोक्ता: सल्लक्षणांकिता:। सामान्याद्वा विशेषाद्वा सत्यं नाकारमात्रका:।395।
=जो आकार न हो सो अनाकार है। इसलिए वास्तव में ज्ञान के बिना शेष अनंत गुणों में निर्विकल्पता होती है। इसलिए ज्ञान के बिना शेष सब गुणों का लक्षण अनाकार होता है।392। ज्ञान के बिना शेष सब गुण केवल सत् रूप लक्षण से ही लक्षित हैं। इसलिए सामान्य अथवा विशेष दोनों ही अपेक्षा से वास्तव में अनाकार रूप ही होते हैं।395।
11. सामान्य गुण द्रव्य के पारिणामिक भाव हैं
सर्वार्थसिद्धि/2/7/161/5
ननु चास्तित्वनित्यत्वप्रदेशत्त्वादयोऽपि भावा: पारिणामिका: संति तेषामिह ग्रहणं कर्त्तव्यम् । न कर्तव्यम्; कृतमेव। कथम् । ‘च’ शब्देन समुच्चितत्वात् । यद्येवं त्रय इति संख्या विरुध्यते। न विरुध्यते, असाधारणा जीवस्य भावा: पारिणामिकास्त्रय एव। अस्तित्वादय: पुनर्जीवाजीवविषयत्वात्साधारणा इति ‘च’ शब्देन पृथग्गृह्यंते।
=प्रश्न–अस्तित्व, नित्यत्व, और प्रदेशत्व आदिक भी पारिणामिक भाव हैं। उनका इस सूत्र में ग्रहण करना चाहिए। उत्तर–उनका ग्रहण पहले भी ‘च’ शब्द द्वारा कर लिया गया है, अत: पुन: ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं। प्रश्न–यदि ऐसा है तो ‘तीन’ संख्या (जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व) विरोध को प्राप्त होती है? उत्तर–नहीं होती, क्योंकि, जीव के असाधारण पारिणामिक भाव तीन ही हैं। अस्तित्वादिक तो जीव और अजीव दोनों के साधारण हैं। इसीलिए उनका ‘च’ शब्द के द्वारा अलग से ग्रहण किया गया है।
12. सामान्य व विशेष गुणों का प्रयोजन
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/134
चैतन्यपरिणामो चेतनत्वादेव शेषद्रव्याणामसंभवन् जीवमधिगमयति। एवं गुणविशेषाद्द्रव्यविशेषोऽधिगंतव्य:।
=चेतना गुण जीव का ही है। शेष पाँच द्रव्यों में असंभव होने से जीव को ही प्रगट करता है। इस प्रकार विशेष गुणों के भेद से द्रव्यों का भेद जाना जाता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/162
तेषामिह वक्तव्ये हेतु: साधारणैर्गुणैर्यस्मात् । द्रव्यत्वमस्ति साध्यं द्रव्यविशेषस्तु साध्यते त्वितरै:।162।
=यहाँ पर उन गुणों के कहने में प्रयोजन यह है कि जिस कारण से साधारण गुणों के द्वारा तो केवल द्रव्यत्व सिद्ध किया जाता है और विशेष गुणों के द्वारा द्रव्य विशेष सिद्ध किया जाता है।
3. द्रव्य गुण संबंध
1. गुण वस्तु के विशेष हैं
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/38
अथ चैव ते प्रदेशा: सविशेषा द्रव्यसंज्ञया भणिता:। अपि च विशेषा: सर्वे गुणसंज्ञास्ते भवंति यावंत:।38।
=विशेष गुणसहित वे प्रदेश ही द्रव्य नाम से कहे गये हैं और जितने भी विशेष हैं वे सब गुण कहे जाते हैं।
2. गुण द्रव्य के सहभावी विशेष हैं
परमात्मप्रकाश/ मूल/1/57
सह-भुव जाणहि ताहँ गुण कमभुवपज्जउ वुत्तु।
=सहभू को तो गुण जानों और क्रमभू को पर्याय। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/6 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/9); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ 93/121/11); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/107 ); ( तत्त्वानुशासन/114 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 138 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/235
सहक्रमप्रवृत्तानेकधर्मव्यापकानेकांतमय:।
=(विचित्र गुणपर्याय विशिष्ट द्रव्य) सह-क्रम-प्रवृत्त अनेक धर्मों में व्यापक अनेकांतमय है।
नयचक्र बृहद्/11
दव्वाणं सहभूदा सामण्णविसेसदो गुणा णेया।
=सामान्य विशेष गुण द्रव्यों के सहभूत जानने चाहिए।
आलापपद्धति/6 सहभावा गुणा:।
=गुण द्रव्य के सहभाव होते हैं।
3. गुण द्रव्य के अन्वयी विशेष हैं
सर्वार्थ सिद्धि/5/38/309/5 अन्वयिनो गुणा:।
=गुण अन्वयी होते हैं। ( परमात्मप्रकाश टीका/1/57/56 ); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ 93/121/11); (अध्यात्म कमल मार्तंड/2/6); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 138 )।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/80
तत्रान्वयो द्रव्यं, अन्वयविशेषणं गुण:।
=वहाँ अन्वय द्रव्य है। अन्वय का विशेषण गुण है।
4. द्रव्य के आश्रय गुण रहते हैं पर गुण के आश्रय अन्य गुण नहीं रहते
वैशेषिक दर्शन/1-1/सूत्र16
द्रव्याश्रयगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम् ।16।
=द्रव्य के सहारे रहने वाला हो, जिसमें कोई अन्य गुण न हो, और वस्तुओं के संयोग व विभाग में कारण न हो। क्रिया व विभाग की अपेक्षा न रखता हो। यही गुण का लक्षण है।
तत्त्वार्थसूत्र/5/41
द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा:।41।
=जो निरंतर द्रव्य में रहते हैं और अन्य गुण रहित हैं वे गुण हैं। (अध्यात्म कमल मार्तंड/2/6)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/130
द्रव्यमाश्रित्य परानाश्रयत्वेन वर्तमानैर्लिंगयते गम्यते द्रव्यमेतैरिति लिंगानि गुणा:।
=द्रव्य का आश्रय लेकर और पर के आश्रय के बिना प्रवर्तमान होने से जिसके द्वारा द्रव्य लिंगित (प्राप्त) होता है, पहचाना जा सकता है, ऐसे लिंग गुण हैं। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/87 )
5. द्रव्यों में सामान्य गुणों के नाम निर्देश
नयचक्र बृहद्/11-16
सव्वेसिं सामण्णा दह...।11। अत्थित्तं वत्थुत्तं दव्वत्तं पमेयत्तं अगुरुलहुगुत्तं। देसत्तं चेदणिदरं मुत्तममुत्तं वियाणेहि।12। एक्केक्का अट्ठट्ठा सामण्णा हुंति सव्वदव्वाणं।15।
नयचक्र बृहद्/16 की टिप्पणी<p class="SanskritText">-कौ द्वौ द्वौ गुणौ हीनौ। जीवद्रव्येऽचेतनत्वं मूर्तत्वं च नास्ति, पुद्गलद्रव्ये चेतनत्वममूर्तत्वं च नास्ति। धर्माधर्माकाशकालद्रव्येषु चेतनत्वममूर्तत्वं च नास्ति। एवं द्विद्विगुणवर्जिते अष्टौ अष्टौ सामान्यगुणा: प्रत्येकद्रव्ये भवंति।
=सर्व ही सामान्य गुण दस हैं–अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व। इनमें से प्रत्येक द्रव्य में आठ आठ होते हैं। प्रश्न–वे दो दो गुण कौने से कम हैं? उत्तर–जीवद्रव्य में अचेतनत्व व मूर्तत्व नहीं है। पुद्गल द्रव्य में चेतनत्व व अमूर्तत्व नहीं हैं। धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्यों में चेतनत्व व मूर्तत्व नहीं हैं। इस प्रकार दो गुण वर्जित आठ-आठ सामान्य गुण प्रत्येक द्रव्य में हैं। ( आलापपद्धति/2 ); (परमात्म प्रकाश/टीका 1/58/58/8)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ 95
तत्रास्तित्वं नास्तित्वमेकत्वमन्यत्वं द्रव्यत्वं पर्यायत्वं सर्वगतत्वमसर्वगतत्वं सप्रदेशत्वमप्रदेशत्वं मूर्तत्वममूर्तत्वं सक्रियत्वमक्रियत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं कर्तृत्वमकर्तृत्वं भोक्तृत्वमभोक्तृत्वमगुरुलघुत्वं चेत्यादय: सामान्यगुणा:।
=(तहाँ दो प्रकार के गुणों में) अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व, असर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व, अगुरुलघुत्व इत्यादि सामान्य गुण हैं। (नोट–इनमें कुछ आपेक्षिक धर्मों के भी नाम हैं–जैसे नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व।
6. द्रव्यों में विशेष गुणों के नाम निर्देश
नयचक्र बृहद्/11,13,15
सव्वेसिं सामण्णा दह भणिया सोलस विसेसा।11। णाणं दंसणसुहसत्तिरूपरसगंधफासगमण्णठिदी। वट्टणगाहणहेउं मुत्तममुत्तं खलु चेदणिदरं च।13। छ वि जीवपोग्गलाणं इयराण वि सेस तितिभेदा।15।
=सर्व द्रव्यों में विशेष गुण सोलह कहे गये हैं।11।–ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, रूप, रस, गंध, स्पर्श, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, अवगाहनाहेतुत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, चेतनत्व और अचेतनत्व।13। तिनिमें से जीव पुद्गल में तो छह छह है और शेष चार द्रव्यों में तीन-तीन। (विशेष देखो उस उस द्रव्य का नाम); ( आलापपद्धति/2 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ 95
अवगाहनाहेतुत्वं गतिनिमित्तता स्थितिकारणत्वं वर्तनायतनत्वं रूपादिमत्ता चेतनत्वमित्यादयो विशेषगुणा:।
=अवगाहनाहेतुत्व, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, रूप-रस-गंधादिमत्ता, चेतनत्व इत्यादि विशेष गुण हैं।
7. द्रव्यों में साधारणासाधारण गुणों के नाम निर्देश
नयचक्र बृहद्/16
चेदणमचेदणा तह मुत्तममुत्ता वि चरिमे जे भणिया। समण्णा सजाईणं ते वि विसेसा विजाईणं।16।
=अंत में कहे गये जो चार सामान्य या विशेष गुण, अर्थात् मूर्तत्व, अमूर्तत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व ये स्वजाति की अपेक्षा तो साधारण हैं और विजाति की अपेक्षा विशेष हैं। यथा–(देखो निचला उद्धरण)।
परमात्मप्रकाश टीका/1/58/58/8
जीवस्य तावदुच्यंते।...ज्ञानसुखादय: स्वजातौ साधारणा अपि विजातौ पुनरसाधारणा:। अमूर्तत्वं पुद्गलद्रव्यं प्रत्यसाधारणमाकाशादिकं प्रति साधारणम् । प्रदेशत्वं पुन: कालद्रव्यं प्रति पुद्गलपरमाणुद्रव्यं च प्रत्यसाधारणं शेषद्रव्यं प्रति साधारणमिति संक्षेपव्याख्यानम् । एवं शेषद्रव्याणामपि यथासंभवं ज्ञातव्यमिति भावार्थ:।
=पहले जीव की अपेक्षा कहते हैं।...ज्ञान सुखादि गुण स्वजाति की अपेक्षा साधारण होते हुए भी विजाति की अपेक्षा असाधारण हैं। (सर्व जीवों में सामान्यरूप से पाये जाने के कारण जीवद्रव्य के प्रति साधारण हैं और शेष द्रव्यों में न पाये जाने से उनके प्रति असाधारण हैं।) अमूर्तत्व गुण पुद्गलद्रव्य के प्रति असाधारण है परंतु आकाशादि अन्य द्रव्यों के प्रति साधारण है। प्रदेशत्व गुण काल द्रव्य व पुद्गल परमाणु के प्रति साधारण है परंतु शेष द्रव्यों के प्रति असाधारण है। इस प्रकार जीव के गुणों का संक्षेप व्याख्यान किया। इसी प्रकार अन्य द्रव्यों के गुणों का भी यथासंभव जानना चाहिए।
8. द्रव्यों में अनुजीवी और प्रतिजीवी गुणों के नाम निर्देश
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/74,379
अस्ति वैभाविकी शक्तिस्तत्तद्द्रव्योपजीविनी।...।74। ज्ञानानंदी चितो धर्मौ नित्यौ द्रव्योपजीविनौ। देहेंद्रियाद्यभावेऽपि नाभावस्तद्द्वयोरिति।37।
=वैभाविकी शक्ति उस उस द्रव्य के अर्थात् जीव और पुद्गल के अपने अपने लिए उपजीविनी है।74। ज्ञान व आनंद ये दोनों चेतन-धर्म नित्य द्रव्योपजीवी हैं, क्योंकि देह व इंद्रियों का अभाव हो जाने पर भी उसका अभाव नहीं हो जाता।37।
जैन सिद्धांत प्रवेशिका/178-179
भावस्वरूप गुणों को अनुजीवीगुण कहते हैं। जैसे–सम्यक्त्व, चारित्र, सुख, चेतना, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदिक।178। वस्तु के अभावस्वरूप धर्म को प्रतिजीवी गुण कहते हैं। जैसे–नास्तित्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व वगैरह।17।
श्लोकवार्तिक/ भाषा/1/4/53/158/8 प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यंताभाव और अन्योन्याभाव ये प्रतिजीवी गुण स्वरूप अभाव अंश माने जाते हैं।
9. द्रव्य में अनंत गुण हैं
ध.9/4,1,2/27/6
अणंतेसु वट्टमाणपज्जएसु तत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपज्जाया जहण्णोहिणाणेण विसईकया जहण्णभावो। के वि आइरिया जहण्णदव्वस्सुवरिट्ठिदरूव-रस-गंध-फासादिसव्वपज्जाए जाणदि त्ति भणंति। तण्ण घडदे, तेसिमाणंतियादो। ण हि ओहिणाणमुक्कस्सं पि अणंतसंखावगमक्खमं, आगमे तहोवदेसाभावादो।
=उस (द्रव्य) की अनंत वर्तमान पर्यायों में से जघन्य अवधिज्ञान के द्वारा विषयीकृत आवली के असंख्यातवें भागमात्र पर्यायें जघन्य भाव हैं। कितने आचार्य ‘जघन्य द्रव्य के ऊपर स्थित रूप, रस, गंध, एवं स्पर्श आदि रूप सब पर्यायों को उक्त अवधिज्ञान जानता है’ ऐसा कहते हैं। किंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि वे अनंत हैं। और उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनंत संख्या के जानने में समर्थ नहीं हैं, क्योंकि, आगम में वैसे उपदेश का अभाव है। (नोट–अनंत गुणों की ही एक समय में अनंत पर्यायें होनी संभव हैं)।
नयचक्र बृहद्/69
इगवीसं तु सहावा जीवे तह जाण पोग्गले णयदो। इयराणं संभवादो णायव्वा णाणवंतेहिं।69।
=जीव व पुद्गल में 21 स्वभाव जानने चाहिए और शेष संभव स्वभावों को ज्ञानियों से जानना चाहिए।
लब्धिसार/1/37
–वस्तुनोऽनंतधर्मस्य प्रमाणव्यंजितात्मन:।
=अनंत धर्म या गुणों के समुदायरूप वस्तु का स्वरूप प्रमाण द्वारा जाना जाता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/टीका/224/156/11
सर्वद्रव्याणि...त्रिष्वपि कालेषु...अनंतानंता संति, अनंतानंतपर्यायात्मकानि भवंति, अनंतानंतसदसंनित्यानित्याद्यनेकधर्मविशिष्टानि भवंति। अत: सर्व...द्रव्यं जिनेंद्रै:....अनेकांतं भणितं।
=तीनों ही कालों में सर्व द्रव्य अनंतानंत हैं; अनंतानंत पर्यायात्मक होते हैं; अनंतानंत सत्, असत्, नित्य, अनित्यादि अनेक धर्मों से विशिष्ट होते हैं। इसलिए जिनेंद्र देवों ने सर्व द्रव्यों को अनेकांत स्वरूप कहा है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/49
देशस्यैका शक्तिर्या काचित् सा न शक्तिरन्या स्यात् । क्रमतो वितर्क्यमाणा भवंत्यनंताश्च शक्तयो व्यक्ता:।49।
=द्रव्य की एक विवक्षित शक्ति दूसरी शक्ति नहीं हो सकती अर्थात् सब अपने-अपने स्वरूप से भिन्न-भिन्न हैं, इस प्रकार क्रम से सब शक्तियों का विचार किया जाय तो प्रत्येक वस्तु में अनंतों ही शक्तियाँ स्पष्ट रूप से प्रतीत होने लगती हैं। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/52 )।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1014
गुणानां चाप्यनंतत्वे वाग्व्यवहारगौरवात् । गुणा: केचित्समुदिृष्टा: प्रसिद्धा पूर्वसूरिभि:।1014।
=यद्यपि गुणों में अनंतपना है तो भी प्राचीन आचार्यों ने अति ग्रंथ विस्तार से गौरवदोष आता है इसलिए संक्षेप से प्रसिद्ध-प्रसिद्ध कुछ गुणों का नामोल्लेख किया है।
10. जीव द्रव्य में अनंतगुणों का निर्देश
समयसार / आत्मख्याति/ कलश 2
अनंतधर्मणस्तत्त्वं पश्यंती प्रत्यगात्मन:। अनेकांतमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम् ।2।
समयसार / आत्मख्याति/ परिशिष्ठ
अत एवास्य ज्ञानमात्रैकभाषांत:पातिंयोऽनंता: शक्तय उत्प्लवंते।
=1.जिसमें अनंत धर्म हैं ऐसे जो ज्ञान तथा वचन तन्मयी जो मूर्ति (आत्मा) सदा ही प्रकाशमान है। 2. अतएव उस (आत्मा) में ज्ञानमात्र एक भाव की अंत:पातिनी अनंत शक्तियाँ उछलती हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/14/43/6
एवं मध्यमरुचिशिष्यापेक्षया सम्यक्त्वादि गुणाष्टकं भणितम् । मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुनर्विशेषभेदेन येन निर्गतित्वं, निरिंद्रियत्वं....निरायुषत्वमित्यादिविशेषगुणास्तथैवास्तित्ववस्तुत्वप्रमेयत्वादिसामान्यगुणा: स्वागमाविरोधेनानंता ज्ञातव्या:।
=इस प्रकार (सिद्धों में) सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचिवाले शिष्यों के लिए हैं। मध्यम रुचिवाले शिष्यों के प्रति विशेष भेदनय के अवलंबन से गतिरहितता, इंद्रियरहितता, आयुरहितता आदि विशेषगुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि सामान्यगुण, इस तरह जैनागम के अनुसार अनंत गुण जानने चाहिए।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/ 943
जच्यतेऽनंतधर्माधिरूढोऽप्येक: सचेतन:। अर्थजातं यतो यावत्स्यादनंतगुणात्मकम् ।943।
=एक ही जीव अनंत धर्म युक्त कहा जाता है, क्योंकि, जितना भी पदार्थ का समुदाय है वह सब अनंत गुणात्मक होता है।
11. गुणों के अनंतत्व विषयक शंका व समन्वय
समयसार / आत्मख्याति/ कलश 2/पं.जयचंद
–प्रश्न–आत्मा को जो अनंत धर्मवाला कहा है, सो उसमें वे अनंत धर्म कौन से हैं? उत्तर–वस्तु में अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तित्व, अमूर्तित्व इत्यादि (धर्म) तो गुण हैं और उन गुणों का तीनों कालों में समय समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनंत हैं। और वस्तु में एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म हैं। वे सामान्यरूप धर्म तो वचन गोचर हैं, किंतु अन्य विशेषरूप अनंत धर्म भी हैं, जो कि वचन के विषय नहीं है, किंतु वे ज्ञानगम्य हैं। आत्मा भी वस्तु है इसलिए उसमें भी अपने अनंत धर्म हैं।
12. द्रव्य के अनुसार उसके गुण भी मूर्त या चेतन आदि कहे जाते हैं
प्रवचनसार/131
मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा। दव्वाणममुत्ताणं गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा।131।
=इंद्रियग्राह्य मूर्तगुण पुद्गलद्रव्यात्मक अनेक प्रकार के हैं। अमूर्त द्रव्यों के गुण अमूर्त जानना चाहिए।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/46
मूर्तद्रव्यस्य मूर्ता गुणा:।
=मूर्त द्रव्य के मूर्त गुण होते हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/168
मूर्तस्य मूर्तगुणा:, अचेतनस्याचेतनगुणा:, अमूर्तस्यामूर्तगुणा:, चेतनस्य चेतनगुणा:।
=मूर्त द्रव्य के मूर्तगुण होते हैं, अचेतन के अचेतन गुण होते हैं, अमूर्त के अमूर्त गुण होते हैं, चेतन के चेतनगुण होते हैं।