उपशांतकषाय
From जैनकोष
ग्यारहवाँ गुणस्थान । यहाँ मोहनीय कर्म संपूर्णत: उपशांत हो जाता है । मोहनीय कर्म का उपशम हो जाने से अतिशय विशुद्ध औपशमिक चारित्र प्राप्त होता है किंतु जीव यहाँ अंतर्मुहूर्त मात्र ही ठहर कर च्युत हो जाता है और पुन: क्रमश: उसी स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान में आ पहुँचता है जहाँ से वह इस गुणस्थान में आता है । महापुराण 11.90-92, हरिवंशपुराण 3.82