वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 354
From जैनकोष
जह सिप्पिओ उ चेट्ठं कुव्वइ हवइ य तहा अणण्णो से। तह जीवो वि य कम्मं कुव्वइ हवइ ये अणण्णो से।।354।। जह चेट्ठं कुव्वंतो दु सिप्पिओ णिच्चदुक्खिओ होदि। तत्तो सिया अणण्णो तह चेट्ठंतो दुही जीवो।।355।।
जैसे उस स्वर्णकार ने अपनी चेष्टा की और कुछ नहीं किया, कुंडल पर हथौड़ा नहीं चलाय, अपने में अपने परिणाम के द्वारा भोग परिस्पंद की चेष्टा की। कोई एक दूसरे से लड़े तो उस लड़ाई वाले ने और कुछ नहीं किया, अपने में परिणाम बनाया और अपने में योग का परिस्पंद किया, इससे आगे उस लड़ने वाले ने और कुछ नहीं किया। अपने में परिणाम बनाया और योग का हलन चलन किया। इसके आगे उसकी और कोई करनी नहीं हुई, पर अज्ञानी को इस निश्चय के मर्म का पता नहीं है। बाहर में दृष्टि है तो उसके रोष बढ़ता है, राग बढ़ता है और अंधेरे में बढ़ता चला जाता है, अपनी इस स्वतंत्रता का उन्हें भान नहीं होता। इस स्वर्णकार ने उस समय भी केवल अपने आपमें चेष्टा की यह एक झंझोला दृष्टांत है, कहीं शिल्पी द्रव्य नहीं है, किंतु जो शिल्पी है उसको द्रव्य के दृष्टांत में रखकर बोल रहे हैं। उस सुनार ने क्या किया, अपने आपमें परिश्रम किया कि वह सोना भी बढ़ा दिया ? परिश्रम ही किया और वह अपने परिश्रम से अभिन्न है, कुंडल कर्म से अभिन्न नहीं है।
भोजन से भोजन निर्माता का असंबंध―महिलाएँ रोटी बनाती हैं सभी जानते हैं रोटी बनाना। रोटी बनाने में क्या क्या काम करना पड़ता है ? एक घंटा पहिेले से आटा साना, फिर तत्काल भी एक बार गूनकर खूब मुलायम कर लिया। यह सब व्यवहार में दिख रहा है। पहिले जरासा आटा तोड़ लिया, उसे गोल मटोल लोई बनाकर पटले पर उसे बेल लिया। बेलना घुमाकर उसे गोलकर लिया, यह दिख रहा है कि महिला सब कुछ कर रही है। उस गोल मटोल आटे को लंबा गोल बनाकर तवे पर पटक दिया। पहिली पर्त बड़ी जल्दी उठा लिया ताकि उसमें ज्यादा आंच न लग जाय। दूसरी पर्त जरा ज्यादा पका लिया, उसे एक दो बार गोल मटोल घुमाते रहते हैं। फिर उसे धधकती हुई आग में डाल दिया वह फूलती है, यदि कहीं से हवा निकले तो चीमटे से दबा-दबाकर फुला दिया, पका लिया। कितने काम करती हुई महिला दिख रही है, फिर भी उस महिला ने रोटी में कुछ नहीं किया। उसने तो अपने शरीर में ही परिश्रम किया और ऐसा परिश्रम करती हुई महिला के हाथों के निकट जो वह रोटी उपादान कनकपिंडी पड़ी हुई थी उसमें अपने आपमें क्रिया हु्ई। महिला ने तो उस समय केवल परिश्रम किया, रोटी में कुछ नहीं किया, अपने में ही परिश्रम किया। उस परिश्रम के करने में पसीना आ जाय तो घूँघट से ही उसे पोंछ लिया, तब देखो परिश्रम ही परिश्रम तो उसने किया। रोटी से उस महिला का तो कुछ संबंध ही नहीं है। वे तो सब भिन्न चीजें हैं।
उपदृष्टांतपूर्वक दृष्टांत व दृष्टांत का विवरण―तो जैसे महिला ने रोटी बनाने के प्रसंग में केवल अपना ही परिश्रम किया, रोटी में कुछ नहीं किया, इसी प्रकार इस शिल्पी ने आभूषण गढ़ते समय केवल अपने में परिश्रम किया, स्वर्ण में कुछ नहीं किया। इसी प्रकार इस जीव ने भी जो कर्म किया सो अपने साव कर्मरूप कर्म का किया। न द्रव्यकर्म को किया और न आश्रयभूत परपदार्थ का कुछ किया। उस समय वह जीव अपने भावकर्मरूप कर्म से अभिन्न है। अन्य पदार्थ जो द्रव्यकर्म हैं या आश्रयभूत पदार्थ हैं उनसे भिन्न है। चूंकि सुनार और स्वर्ण ये दोनों भिन्न द्रव्य हैं, इस कारण भिन्नता होने से सुनार स्वर्ण में तन्मय नहीं हो जाता। केवल निमित्त-नैमित्तिक भावमात्र से ही वहां पर कर्ता कर्म भोक्ता भोग्यपने का व्यवहार होता है। इसी प्रकार यह आत्मा भी पुण्य पापरूप पुद्गल के परिणमन को करता है ऐसा कहना व्यवहार नय से है। पुण्य पाप तो भिन्न वस्तु हैं ? भिन्न वस्तु भिन्न वस्तु का क्या करे ?
भिन्न वस्तु में कर्ता, कर्म व भोग का अभाव―भैया ! विभावों की रचना में निमित्त नैमित्तिक भाव तो है। बेबुनियाद की झूठी बात नहीं है। कुछ तो है बुनियाद, मगर उस बुनियाद से ऐसा आगे बढ़े कि असली मर्म का ज्ञान न रखा और उपादान उपादेय को कर्ता कर्म माना जाने लगा। यह आत्मा मन, वचन, काय के द्वारा पुण्य पाप को करता है, यह व्यवहार वचन है। मन, वचन, काय ये तीनों आत्मा से भिन्न है, पुद्गलद्रव्य के परिणमन रूप हैं। अथवा करणों के द्वारा किया और करणों को ही ग्रहण किया। मन, वचन, काय को लिए लिए फिरते हैं। चलते फिरते बिस्तर बनाए पिंडोला बनाए। यह जीव मन, वचन, काय को ग्रहण करता है और उसके फल में सुख दु:ख आदिक पुद्गल द्रव्य के परिणमन को भोगता है जो कि पुण्य पाप कर्म के फल है ऐसा व्यवहारनय का कथन हैं, परंतु ये पुण्य पाप कर्म और यह आत्मा ये एक द्रव्य नहीं हैं। ये परस्पर में एक दूसरे से अत्यंत भिन्न हैं, त्रिकाल भिन्न हैं। अत्यंताभाव है इसलिए ये तन्मय नहीं हो सकते।
स्वर्णकार ने क्या किया और क्या भोगा―जीव तो उसको करे जिसमें यह तन्मय हो, अन्य में तो केवल निमित्त नैमित्तिक भाव वश उनमें कर्ता कर्म भोक्ता भोग का व्यवहार किया जाता है। आत्मा ने अन्य कर्म को किया और आत्मा ने क्या कर्म का फल अन्य भोगा, ऐसा व्यवहार निमित्त-नैमित्तिक भाव वश किया जाता है। वस्तुत: वहां बात यह है कि इस जीव ने अपने योग उपयोग को तो किया और उस योग उपयोग के फल में जो कुछ आनंद गुण का परिणमन हुआ उसको इसने भोगा। जैसे कि उस चेष्टा करने वाले शिल्पी ने चेष्टा के अनुकूल अपने परिणमनरूप कर्म बनाया, अपने परिणामरूप कर्म बनाया और उसी समय दु:खस्वरूप अपने परिणमन का चेष्टानुकूल फल भोगा। अरे गहना जब बिकेगा तब बिकेगा, उस समय तो वह दु:ख ही भोग रहा है। तो उसने उस स्वर्ण के किए जाने का क्या फल भोगा ? अपने में ही उसने चेष्टा की और अपने में ही उस श्रम के परिणाम में दु:ख भोग लिया। दु:ख ही तो भोगा।
परिणाम परिणामी में तन्मयता―भैया ! परिणामपरिणामीभाव की अपेक्षा से देखा जाय तो जीव परिणामी अपने परिणाम में तन्मय होता है। सो वहां उस स्वर्णकार ने अपने को ही किया, अपने को ही भोगा। वह सुनार ही कर्ता है, सुनार ही कर्म है, सुनार ही भोक्ता है, सुनार ही भोग्य है। इस प्रकार यह आत्मा जो कुछ करने की इच्छा करता है इसने अपनी चेष्टा के अनुकूल अपने परिणामोंरूप कर्म को किया और उस काल में दु:ख रूप जो अपने आत्मा का परिणाम है उस फल को भोगा। चूंकि वह आत्मा और आत्मा का वह परिणमन एक द्रव्य है, उसमें ही वह अभिन्न है, उसमें ही उस काल में तन्मय है। सो परिणामपरिणामी भाव चूंकि एक में होते हैं तो इस आत्मा में ही आत्मा का कर्म हुआ और आत्मा में ही आत्मा का भोग हुआ। बाहर आत्मा ने कुछ कर्म नहीं किया और न भोगा। ऐसा निश्चयनय से प्रमाण करते हैं।
अपना कर्तव्य―भैया ! इस कथन को सुनकर अपने आप में कभी तो यह दृष्टि जानी चाहिए कि ओह मैं तो अपने को करता हूँ, अपने को ही भोगता हूँ। इस ज्ञानज्योतिर्मय अपने स्वरूप से बाहर मेरा कहीं कुछ नहीं है। जो होता है वह यहां होता है। इसके ही परिणमन के अनुसार होता है, किसी दूसरे पदार्थ से मुझे भरोसा नहीं है, कोई दूसरा पदार्थ मेरे लिए शरण नहीं है। मेरे लिए मैं ही एक उत्तरदायी हूँ। मेरा जिम्मेदार कोई दूसरा मनुष्य नहीं हो सकता। कोई दूसरा मुझसे राग करता हो तो वहां यह पूर्ण निश्चित समझना कि वह मुझसे राग नहीं करता किंतु वह अपने में अपने कषाय भाव के अनुसार अपने में ही रागपरिणमन करता है। उसके रागपरिणमन के विषयभूत हम हो गए। किस स्वार्थ के कारण राग करता हो वह यह बात उसकी अलग है। मैं भी किसी से राग नहीं करता। केवल अपने कषाय भाव के अनुकूल अपना परिणमन बनाता हूँ और अपना परिणमन करके अपने में ही शांत हो जाता हूँ। बाहर कहीं कुछ नहीं करता हूँ, ऐसी दृष्टि जगे तो आकुलता दूर हो।
आत्मानुभूति का उद्यम―जैसे कोई बीमार आदमी हो, घर में कोई चीज खाने को बनी हो और नुकसान करती हो, मगर बड़ी मीठी बनी हो जिसकी सुगंध ही सूँघ करके मुँह से लार बहने लगे, तो वह सोचता है कि यार अभी तो खा ही लें, पीछे देखा जायेगा। सो यह खाना तो बाद में कुछ अनबन करेगा परंतु हम आप सब बीमारों के लिए यहां एक बात कही जा रही है कि देखा जायेगा पीछे, घर मिल जायेगा, सब कुछ मिल जायेगा, एक आध मिनट को तो विकल्प छोड़कर सबका ख्याल भुलाकर जो होगा सो होगा, न मिलेंगे कपड़े पहिनने को न सही, फटे पुराने मिलें वही ठीक हैं। न अच्छा खाना पीना मिले, न सही, साधारण ही खाना पहिनना सही, जो होगा देखा जायेगा, एक आध मिनट को तो निर्विकल्प अवस्था का आनंद लूट लें। इस आनंद के फल में उस बीमार जैसा कटुक फल न मिलेगा। उसे अच्छा ही फल मिलेगा। इतना सहनशील अपन को होना चाहिए कि जो स्थिति गुजरे तो गुजरे, कम मिले खाना, कम मिले पहिनना। लोग न पूछें इज्जत न करें, जो भी स्थिति गुजरे तो गुजरे, पर एक अपने सहज स्वभाव के अनुभव का आनंद तो लूट लो, जो होना होगा सो होगा।
मोहियों का परस्पर का व्यवहार―देखो भैया ! यहां यदि कोई आदर भी करे तो समझ लो कि ज्वारी-ज्वारी का आदर करते हैं। ये सब तो मोह मोह में ही मस्त हैं और कोई बिरला ही ज्ञानी आपका आदर करे तो वह तो इस ढंग से आदर करेगा कि जिस ढंग में आपको अभिमान उत्पन्न करने का अवसर ही न आयेगा। अभिमान तो वहां होता है जहां अभिमान का आदर किया जाता है। यहां बात तो यों है कि-- ‘उष्ट्राणाम् विवाहेषु गीतं गायंति गर्दभा:। परस्परं प्रशंसतिं अहो रूपम् अहो ध्वनि:।’
एक बार ऊँट का विवाह हुआ तो उसमें गाने वाले चाहिए थे। ऊँटों ने गाने के लिए गधों को बुला लिया। ऊँट गधों से बोले कि भाई हमारे यहां विवाह हो रहा है, सो तुम दादरे, गीत वगैरह गावो। मनुष्य लोग तो गाते गाते रूक जायेंगे, पर वे गधे सांस खींचते और बाहर निकालते (दोनों में ही गाते हैं)। तो गधों ने ऊँट दूल्हा के प्रति और ऊँट बरातियों के प्रति गाया कि―धन्य है ऊँटों ! तुम लोगों का रूप कितना सुंदर है ? ऊँटों का रूप सुंदर तो नहीं होता, पाँव टेढ़े, गर्दन टेढ़ी, पीठ टेढ़ी, सारा शरीर टेढ़ा, ऊँट का कोई भी अंग सीधा नहीं होता। तो खूब गधों ने गाया कि ऐ ऊँटों तुम धन्य हो, कितना सुंदर तुम्हारा रूप है ? तो ऊँटों ने गाया कि धन्य हो गधों―तुम्हारा राग कितना सुंदर है ? तो जैसे गधों ने ऊँटों की प्रशंसा कर दी और ऊँटों ने गधों की प्रशंसा कर दी, वैसे ही एक मोही दूसरे मोही की प्रशंसा कर दिया करते हैं। दोनों ही झूठझूठ कह देते हैं।
गालियों में प्रशंसा का भ्रम―भैया ! लोग प्रशंसा क्या करते हैं गालियां देते हैं। पर लोग उसे प्रशंसा समझ लेते हैं। जैसे कोई यह कहता है कि साहब इनके 5 लड़के हैं। एक लड़का कान्ट्रेक्टर है, एक डॉक्टर है, एक मास्टर है, एक मिनिस्टर है, एक कलेक्टर है। सो सभी अच्छे से अच्छे पोस्ट पर हैं। ऐसा सुनकर वह पिता मन में खुश होता है कि हमारी प्रशंसा हो रही है। अरे ये बातें उसने गाली की कही हैं। क्योंकि उसका अर्थ यह निकलता है कि लड़के तो एक से एक ऊँचे ओहदे पर हैं, पर पिता जी कुछ भी नहीं है, कोरे बुद्धू हैं। सो यहां कोई किसी की प्रशंसा नहीं करता, भ्रम कर करके सभी प्रसन्न होते रहे हैं। दूसरों के लिए रात दिन मरे जा रहे हैं। उन्हीं के लिए सारा श्रम कर रहे हैं।
जपने में अपना सर्व दर्शन―भैया ! शांति चाहते हो तो इतना तो ध्यान रखो कि हर एक अपने में अपनी चेष्टा करता है, अन्य कोई मुझमें कुछ नहीं करता। तो जैसे शिल्पी का उस शिल्पी में ही कर्तापन है, और भोग्यपन है, इसी प्रकार इस जीव का अपने में ही कर्तापन है, कर्म है, भोक्तापन है और भोग्यपना है। यह जीव न पर का कर्ता है और न पर का भोक्ता है, ऐसा ज्ञानी पुरूष निश्चय करते हैं। जिस पर अपना अधिकार नहीं है उस पर कुछ अपना विचार बनाना अपने अनर्थ के लिए होता है। सो भैया ! अपने में अपना सब देखो और अपने में अपने हित का उद्यम करो।
परिणामपरिणामी में कर्तृकर्मभाव―जीव का जो परिणाम है वह तो है जीव का कर्म और उस परिणाम का करने वाला जीव है कर्ता। परिणाम ही कर्म होता है और परिणाम ही कर्ता होता है। परिणाम उस परिणामी का ही है इसलिए कर्ता कर्म अभिन्न हुआ करते हैं। आपने भोजन किया तो बताओ कि आपके आत्मा ने क्या किया ? इच्छा किया, ज्ञान किया और प्रदेश परिस्पंद किया। भोजन को तो आप छू नहीं सकते। पकड़ भी नहीं सकते। भोजन मूर्तिक स्कंध है और यह ज्ञानानंद स्वभावी अमूर्त पदार्थ है। भोजन का और आपका संपर्क ही कैसे हो सकता है ? परंतु इस पर्याय में सभी का परस्पर में निमित्तनैमित्तिक संबंध है। इस कारण यह सब हो रहा है, पर प्रत्येक वस्तु के स्वरूप पर दृष्टि देकर सोचो तो प्रत्येक पदार्थ मात्र अपने अपने में परिणमन करता है। भगवान के सामने खड़े होकर आप बहुत उच्चस्वर से स्तुति गाते हैं, आंसू बहाते हैं, कांप उठते हैं उस समय भी आपने क्या किया ? आप केवल प्रभु के गुणों के अनुराग का परिणाम कर पाये, भोग परिस्पंद कर पाये और इसके अतिरिक्त आपने कुछ नहीं किया। अंग चल उठे, आंसू बह निकले, ये सब निमित्तनैमित्तिक भाववश हो गए। परिणाम परिणामी से अभिन्न होते हैं।
परिणामी में अन्य पदार्थों का अप्रवेश―भैया ! कोई भी कर्म कर्ता से रहित नहीं होता है। इसलिए उस वस्तु के प्रत्येक परिणमन को यही वस्तु करता है। यद्यपि निमित्तनैमित्तिक संबंधों को देखकर यह सब विदित हो रहा है कि कई पदार्थों का साथ है और एक कार्य में सहयोग है, लेकिन परिणमन वाले पदार्थ के अतिरिक्त अन्य सब पदार्थ उस उपादान के बाहर बाहर लोटते हैं कोई किसी में प्रवेश नहीं करता है। औरों की तो बात क्या यह जीव जब इन समस्त पदार्थों को जानता है तो इसके ज्ञान में ये समस्त बाह्य पदार्थ व्यवहार दृष्टि से आ गए ऐसा कहते हैं। लेकिन सब कुछ बाहर बाहर बना हुआ है, ज्ञान में कभी नहीं आता। ज्ञान में ज्ञान की वृत्ति आयी और कोई पदार्थ ज्ञान में नहीं आया। इस जीव ने अनादिकाल से संबंध दृष्टि बनाकर अपने आपका अस्तित्व अपनी कल्पना से खो दिया और बाहर-बाहर के ही गुण गाया करते है। यह आत्मा अनंत शक्तिमान् है। तो भी अन्य वस्तु किसी अन्य वस्तु में प्रवेश नहीं करती है अत: सब इस आत्मा के बाहर ही बाहर लोट रहे हैं।
वस्तु की स्वभावनियतता का नियम―प्रत्येक पदार्थ अपने अपने स्वभाव में ही नियत रहता है। अत: खेद की बात है कि यह जीव अपने स्वभाव से विचलित होकर आकुलित होता है, मोह रूप होता है, क्लेश को प्राप्त होता है। अपने इस स्वभाव की नियम की श्रद्धा करे और कभी भ्रमरूप न हो कि मेरा किसी अन्य से बिगाड़ हुआ या किसी अन्य का मैंने सुधार बिगाड़ किया है। ऐसी अविचलित पद्धति से यदि रह जाय तो फिर कोई क्लेश ही नहीं है। कोई भी वस्तु किसी अन्य वस्तु का कुछ नहीं होता है। जितने निमित्तनैमित्तिक संबंध भी है वे सब इस उपादान के बाहर ही बाहर होते हैं। जैसे किसी को तीव्र अनुराग हुआ तो वह चाहता है कि वह दूसरे से एकमेक बन जाय मगर नहीं बन पाता। वस्तु स्वभाव के नियम के आगे यह अज्ञानी मोही घुटने टेक देता है और खेद करता है कि मैं तो प्रेमी हूँ, पर एकमेक नहीं हो पाता हूँ। कैसे हो ?
अन्य पर किसी अन्य के प्रेम की असंभवता―भैया ! प्रेमी भी कौन किसका है ? इससे बड़ा और आप को क्या उदाहरण मिलेगा, रामचंद्रजी और सीता का कितना विशुद्ध प्रेम था लेकिन राम ने सीता को जंगल में छुड़वाया और सीता ने अग्निपरीक्षा के बाद राम के प्रति मोहबुद्धि भी नहीं की, अपने आत्महित में उद्यमी रही। तो किसका क्या विश्वास हो ? राम लक्ष्मण जैसा आदर्श प्रेम देखो पर क्या करें श्री राम, क्या करें भाई लक्ष्मण, आखिर अलग होना पड़ा और कुछ अवांछनीय घटना के साथ अलग होना पड़ा। बड़े-बड़े पुरूष भी अपनी इच्छानुसार समागम नहीं पा सके। लेकिन यह मोही जीव अपनी इच्छा में रंच भी अंतर नहीं डालता। जो चाहूं सो हो। इच्छा हो जाय कि आज पापड़ ही खाना है इसी समय बनें तो स्त्री कहती है कि हाथ पर आम तो नहीं जमते, कल पापड़़ मिल जायेंगे। नहीं नहीं, हमें तो अभी खाना है। यदि नहीं खाने को मिले तो कहीं भाग जायेंगे। इसी समय इच्छा के अनुसार कार्य हो जाय। यह पुण्य के उदय में ऐसा हठ करता है और मरण के बाद मिल गयी कीड़े मकोड़े की पर्याय तो जीव तो वही हो, अब यहां हठ कर लो। अब हठ क्या करेगा ? सामर्थ्य के समय में गम खाये, शांति पाये तो उसका फल मधुर होता है अन्यथा समर्थहीन होने पर इसकी दुर्दशा ही होती है।
निमित्तनैमित्तिक संबंध में एक का दूसरे में अभाव―एक दूसरे का कुछ नहीं लगता है। एक दूसरे का क्या करता है ? सब बाहर ही बाहर लौट रहे हैं। केवल व्यवहारदृष्टि से ही यह कहा जाता है कि एक पदार्थ ने अमुक दूसरे पदार्थ का कुछ कर दिया ना। इससे बढ़कर और क्या उदाहरण लोगे कि जलते हुए चूल्हे पर पानी की बटलोई रख दी तो पानी तेज गरम हो जाता है तो आग ने उस पानी को गरम कर दिया ना, इसे कौन मना करेगा ? एक ओर से पूछते जावो, पर वस्तु सिद्धांत करके कहते हैं कि आग ने तो अपने आपको ही गरम किया और अपने आपमें ही वह जली और परिणमी। उसका सान्निधान पाकर पानी भी तो पुद्गल है, स्पर्श वाला है, वह भी अपनी शीत पर्याय को छोड़कर उष्ण पर्याय में आ गया। आग ने जो कुछ किया अपने में किया, पानी ने जो कुछ किया अपने में किया। ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध है कि अग्नि का सन्निधान पाकर जल उष्ण हो गया।
किसी की गाली सुनकर जिसका कि नाम लिया जा रहा हो, संकेत किया जा रहा हो वह भड़क उठे तो क्या गाली वाले ने पर में रोष पैदा किया ? अरे गाली वाले ने तो अपने में अपना परिणमन किया, दूसरे में कुछ नहीं किया। वह तो बाहर ही लोट रहा है, पर इस दूसरे ने उसका निमित्त पाकर अपने में कल्पना बनाकर आकुलता उत्पन्न करली। तो निमित्तनैमित्तिक संबंध तो है एक का दूसरे के साथ, पर कर्ता कर्म संबंध नहीं है। कहीं ऐसा भी नहीं सोचना कि एक पदार्थ दूसरे का कर्ता बन जायेगा, इसलिए निमित्तनैमित्तिक संबंध को उड़ा ही दें। निमित्तनैमित्तिक संबंध तो बल्कि यह समर्थन करता है कि एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कर्ता नहीं है। उसे उड़ाने की जरूरत नहीं है।
भैया ! केवल व्यवहारदृष्टि से यह कहा जा रहा है कि एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ भी करता है निश्चय से तो एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ भी नहीं करता है। उपादान स्वयं ही अपने में ऐसी कला रखते हैं कि अनुकूल निमित्त को पाकर खुद अपनी वृत्ति से विभावरूप प्राप्त हो जाते हैं। जैसे आप हम सब ऐसी कला रखते हैं कि बैठने की जमीन का निमित्त पाकर तखत का निमित्त पाकर अपनी परिणति से अपने आप ही इस प्रकार बैठ गये। जमीन ने और तखत ने हम आपमें क्या किया ? कुछ भी नहीं किया। ये बाहर ही बाहर लोट रहे हैं। इस वस्तु की स्वतंत्रता का जब परिचय नहीं होता है तो दीन अनाथ सा रहकर यह खेद करता है, आकुलित होता है। अब इस ही बात का समर्थन करने के लिए कि एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ कुछ भी संबंध नहीं है, इसकी कुछ गाथाएँ कहेंगे।