अवमौदर्य
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
1. अवमौदर्य तप का लक्षण-
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 350
बत्तीसा किरकवला पुरसस्स तु होदि पयदि आहारो। एगकवलादिहिं ततो ऊणियगहणं उमोदरियं ॥350॥
= पुरुष का स्वाभाविक आहार 32 ग्रास है उसमें से एक ग्रास आदि कम करके लेना अवमौदर्य तप है।
( राजवार्तिक अध्याय 9/19/3/618/21) (तत्त्वार्थसार अधिकार 7/9) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/22/672) ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 78/222/3)।
धवला पुस्तक 13/5,4,26/56/1
अद्धाहारणियमो अवमोदरियतवो। जो जस्स पयडिआहारो तत्तो ऊणाहारविसयअभिग्गहो अवमोदरियमिदि भणिदं होदि।
= आधे आहारका नियम करना अवमौदर्य तप है। जो जिसका प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहार विषयक अभिग्रह (प्रतिज्ञा) करना अवमौदर्य तप है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 6/32/17
योगत्रयेण तृप्तिकारिण्यां भुजिक्रियायां दर्पवाहिन्यां निराकृतिः अवमौदर्यम्।
= तृप्ति करने वाला, दर्प उत्पन्न करने वाला ऐसा जो आहार उसका मन वचन काय रूप तीनों योगों से त्याग करना अवमौदर्य है।
2. अवमौदर्य तपके अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 487/707/5
रसवदाहारमंतरेण परिश्रमो मम नापै ति इति वा। षड्जीवनिकायबाधायां अन्यतमेन योगेन वृत्तिः। प्रचुरनिद्रतया संक्लेशकमनर्थमिदमनुष्ठितं मया, संतापकारीदं नाचरिष्यामि इति संकल्प अवमौदर्यातिचारः। मनसा बहुभोजनादरः। परं बहुभोजयामीति चिंता। भुंक्ष्व यावद्भवतस्तृप्तिरिति वचनं, भुक्तं मया बह्वित्युक्ते सम्यक्कृतमिति वा वचनं, हस्तसंज्ञया प्रदर्शनं कंठदेशमुपस्पृश्य।
= रस युक्त आहारके बिना यह मेरा परिश्रम दूर न होगा, ऐसी चिंता करना, षट्काय जीवों को मन वचन काय में से किसी भी एक योग से बाधा देने में प्रवृत्त होना। `मेरे को बहुत निद्रा आती है, और यह अवमौदर्य नामक तप मैंने व्यर्थ धारण किया है, यह संक्लेशदायक है, संताप उत्पन्न करने वाला है, ऐसा यह तप तो मैं फिर कभी भी न करूँगा' ऐसा संकल्प करना-ये अवमौदर्य तप के अतिचार हैं। अथवा बहुत भोजन करने की मन में इच्छा रखना; `दूसरोंको बहुत भोजन करने में प्रवृत्त करूँगा', ऐसा विचार रखना; `तुम तृप्ति होने तक भोजन करो' ऐसा कहना; यदि वह `मैंने बहुत भोजन किया है' ऐसा कहे तो `तुमने अच्छा किया' ऐसा बोलना; अपने गले को हाथ से स्पर्श कर `यहाँ तक तुमने भोजन किया है ना?' ऐसा हस्त चिह्न से अपना अभिप्राय प्रगट करना-ये सब अवमौदर्य तप के अतिचार हैं।
3. अवमौदर्य तप किसके करने योग्य है
धवला पुस्तक 13/5,4,26/56/12
एसो वि तवो केहि कायव्वो। पित्तप्पकोवेण उववास अक्खमेहि अद्धाहारेण उववासादो अहियपरिस्समेहि सगतवोमाहप्पेण भव्वजीवुवसमणवावदेहिं वा सगकुक्खिकिमिउप्पत्तिणिरोहकंखुएहिं वा अदिमत्ताहारभोयणेण वाहिवेयणाणिमित्तेण सज्झायभंगीभीरुएहिं वा।
= प्रश्न-यह तप किन्हें करना चाहिए? उत्तर-जो पित्त के प्रकोप वश उपवास करने में असमर्थ हैं, उन्हें आधे आहार की अपेक्षा उपवास करने में अधिक थकान आती है, जो अपने तप के माहात्म्य से भव्य जीवों को उपशांत करने में लगे हैं, जो अपने उदर में कृमि की उत्पत्ति का निरोध करना चाहते हैं, और जो व्याधिजन्य वेदना के निमित्तभूत अतिमात्रा में भोजन कर लेने से स्वाध्याय के भंग होने का भय करते हैं, उन्हें यह अवमौदर्य तप करना चाहिए।
4. अवमौदर्य तप का प्रयोजन
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 351
धम्मावासयजोगे णाणादीये उवग्गहं कुणदि। ण य इंदियप्पदोसयरी उमोदरितवोवुत्ती ॥351॥
= क्षमादि धर्मो में सामायिकादि आवश्यकों में, वृक्षमूलादि योगों में तथा स्वाध्याय आदि में यह अवमौदर्य तप की वृत्ति उपकार करती है और इंद्रियों को स्वेच्छाचारी नहीं होने देती।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/19/438/7
संजमप्रजागरदोषप्रशमसंतोषस्वाध्यायादिसुखसिद्ध्यर्थमवमौदर्यम्।
= संयम को जागृत रखने, दोषों के प्रशम करने, संतोष और स्वाध्यायादि की सुखपूर्वक सिद्धि के लिए अवमौदर्य तप किया जाता है।
पुराणकोष से
छ: बाह्य तपों में दूसरा बाह्य तप― दोषशमन, स्वाध्याय और ध्यान की सिद्धि के लिए भूख से न्यून आहार करना, अथवा नाम मात्र का आहार लेना । महापुराण 18.60-68, 20.175, पद्मपुराण 14.114-115, हरिवंशपुराण 64.22, वीर वर्द्धमान चरित्र 6.32-41