अपवाद
From जैनकोष
यद्यपि मोक्षमार्ग केवल साम्यता की साधना का नाम है, परंतु शरीर स्थिति के कारण आहार-विहार आदि में प्रवृत्ति भी करनी पड़ती है। यदि इससे सर्वथा उपेक्षित हो जाये तो भी साधना होनी संभव नहीं और यदि केवल इस ही की चर्या में निरर्गल प्रवृत्ति करने लगे तो भी साधना संभव नहीं। अतः साधक को दोनों ही बातों का संतुलन करके चलना आवश्यक है। तहाँ साम्यता की वास्तविक साधना को उत्सर्ग और शरीर चर्या को अपवाद कहते हैं। इन दोनों के सम्मेल संबंधी विषय ही इस अधिकार में प्ररूपित है।
- भेद व लक्षण
- अपवाद सामान्य का लक्षण
- अपवादमार्ग का लक्षण
- उत्सर्गमार्ग का लक्षण
- अपवादमार्ग निर्देश
- मोक्षमार्ग में क्षेत्र काल आदि का विचार आवश्यक है
- अपनी शक्ति का विचार आवश्यक है
- आत्मोपयोग में विघ्न न पड़े ऐसा ही त्याग योग्य है
- आत्मोपयोग में विघ्न पड़ता जाने तो अपवाद मार्ग का आश्रय ले
- परिस्थितिवश साधुवृत्ति में कुछ अपवाद
- कदाचित् 9 कोटि शुद्ध की अपेक्षा 5 कोटि शुद्ध आहार का ग्रहण
- उपदेशार्थ शास्त्रों का और वैयावृत्त्यर्थ औषध आदि का संग्रह
- क्षपक के लिए आहार माँगकर लाना
- क्षपक को कुरले व तेलमर्दन आदि की आज्ञा
- क्षपक के लिए शीतोपचार व अनीमा आदि
- क्षपक के मृतशरीर के अंगोपांगों का छेदन
- परोपकारार्थ विद्या व शस्त्रादि का प्रदान
- कदाचित् रात्रि की भी बातचीत
- उत्सर्ग व अपवादमार्ग का समन्वय
- वास्तव में उत्सर्ग ही मार्ग है अपवाद नहीं
- कारणवश ही अपवाद का ग्रहण निर्दिष्ट है सर्वतः नहीं
- अपवादमार्गमें योग्य ही उपधि आदिके ग्रहणकी आज्ञा है अयोग्यकी नहीं
- अपवाद का ग्रहण भी त्याग के अर्थ होता है
- अपवाद उत्सर्ग का साधक होना चाहिए
- उत्सर्ग व अपवाद में परस्पर सापेक्षता ही श्रेय है
- निरपेक्ष उत्सर्ग या अपवाद श्रेय नहीं
• उत्सर्ग व अपवाद लिंग के लक्षण-देखें लिंग - 1।
• प्रथम व अंतिम तीर्थ में छेदोपस्थापना चारित्र प्रधान होते हैं। -देखें छेदोपस्थापना ।
• उत्सर्ग व अपवाद व्याख्यान में अंतर।
• आचार्य की वैयावृत्त्य के लिए आहार व उपकरणादिक माँगकर लाना।
• कालानुसार चारित्र में हीनाधिकता संभव है।-देखें निर्यापक में भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 671।
• कदाचित् लौकिक संसर्ग की आज्ञा। -देखें संगति ।
• कदाचित् मंत्र प्रयोग की आज्ञा। -देखें मंत्र ।
• कदाचित् अकाल में स्वाध्याय। -देखें स्वाध्याय - 2.2।
• कदाचित् नौका का ग्रहण व जल में प्रवेश। -देखें विहार ।
• शूद्र से छू जाने पर स्नान।-देखें भिक्षा - 6।
• मार्ग में कोई पदार्थ मिलने पर उठाकर आचार्य को दे दे। - देखें अस्तेय ।
• एकांत में आर्य का संगति का विधि-निषेध।-देखें संगति ।
• कदाचित् स्त्री को नग्न रहने की आज्ञा।-देखें लिंग - 1/4।
• साधुके योग्य उपधि। -देखें परिग्रह - 1।
• स्वच्छंदाचारपूर्वक आहार ग्रहण का निषेध। -देखें आहार - II.2.7।
- भेद व लक्षण
- अपवाद सामान्य का लक्षण सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/33/141
- अपवाद मार्ग का लक्षण प्रवचनसार/प्रवचन सरोज भास्कर/230
- उत्सर्ग मार्ग का लक्षण प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 222
पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः।
= पर्याय का अर्थ विशेष अपवाद और व्यावृत्ति है।
दर्शनपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 24/21/20विशेषोक्तो विधिरपवाद इति परिभाषणात्।
= विशेष रूप से कही गयी विधि को अपवाद कहते हैं।
शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूतसंयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा बालवृद्धश्रांतग्लानस्य स्वस्थ योग्यं मृद्वैवाचरणमाचरणीयमित्यपवादः।
= बाल, वृद्ध, श्रांत व ग्लान मुनियों को शुद्धात्म तत्त्व के साधनभूत संयम का साधन होने के कारण जो मूलभूत है, उसका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना, इस प्रकार अपवाद है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 230असमर्थः पुरुषः शुद्धात्मभावनासहकारिभूतं किमपि प्रासुकाहारज्ञानोपकरणादिकं गृह्णातीत्यपवादो `व्यवहारय' एकदेश परित्यागस्तथा चापहृतसंयमः सरागचारित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थः।
= असमर्थ जन शुद्धात्म भावना के सहकारीभूत जो कुछ भी प्रासुक आहार ज्ञान व उपकरण आदि का ग्रहण करते हैं, उसी को अपवाद, व्यवहारनय, एकदेशत्याग, अपहृत संयम, सराग चारित्र, शुभोपयोग इन नामों से कहा जाता है।
आत्मद्रव्यस्य द्वितीयपुद्गलद्रव्याभावात्सर्व एवोपधिः प्रतिषिद्ध इत्युत्सर्गः।
= उत्सर्ग मार्ग वह है जिसमें कि सर्व परिग्रह का त्याग किया जाये, क्योंकि आत्मा के एक अपने भाव के सिवाय परद्रव्य रूप दूसरा पुद्गलभाव नहीं है। इस कारण उत्सर्ग मार्ग परिग्रह रहित है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 230बालवृद्धश्रांतग्लानेनापि संयमस्य शुद्धात्मसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणीयमित्युत्सर्गः।
= बाल, वृद्ध, श्रमित या ग्लान (रोगी श्रमण) को भी संयम का जो कि शुद्धात्म तत्त्व का साधन होने से मूलभूत है, उसका छेद जैसे न हो उस प्रकार संयत को अपने योग्य अति कर्कश आचरण ही आचरना; इस प्रकार उत्सर्ग है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 230/315/5शुद्धात्मनः सकाशादंयद्बाह्याभ्यंतरपरिग्रहरूपं सर्वं त्याज्यमित्युत्सर्गे `निश्चयनयः' सर्व परित्यागः परमोपेक्षासंयमो वीतरागचारित्रं शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः।
= शुद्धात्मा के सिवाय अन्य जो कुछ भी बाह्य अवभ्यंतर परिग्रह रूप है, उस सर्व का त्याग ही उत्सर्ग है। निश्चयनय कहो या सर्वपरित्याग कहो या परमोपेक्षा संयम कहो, या वीतराग चारित्र कहो या शुद्धोपयोग कहो, ये सब एकार्थवाची हैं।
- अपवाद मार्ग निर्देश
- मोक्षमार्ग में क्षेत्र कालादि का विचार आवश्यक है अनगार धर्मामृत अधिकार 5/65/558
- अपनी शक्ति का विचार आवश्यक है धवला पुस्तक 13/5,4,26/56/12
- आत्मोपयोग में विघ्न न पड़े ऐसा ही त्याग योग्य है प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/215
- आत्मोपयोग में विघ्न पड़ता जाने तो अपवाद मार्ग का आश्रय करे स्याद्वादमंजरी श्लोक 11/138 पर उद्धृत
- परिस्थितिवश साधुवृत्ति में कुछ अपवाद
- 9 कोटि की अपेक्षा 5 कोटि शुद्ध आहार का ग्रहण स्याद्वादमंजरी श्लोक 11/138/9
- उपदेशार्थ शास्त्र तथा वैयावृत्त्यर्थ औषध संग्रह भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 175/393
- क्षपक के लिए आहार आदि माँगकर लाना भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 662/666
- क्षपकको कुरले व तेलमर्दन आदि भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 688
- क्षपक के लिए शीतोपचार आदि भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1499
- क्षपक के मृत शरीर के अंगोपांगों का छेदन भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1976-1977
- परोपकारार्थं विद्या व शस्त्रादिका प्रदान महापुराण सर्ग संख्या 95/98
- कदाचित् रात्रि को भी बोलते हैं पद्मपुराण सर्ग 48/38
- उत्सर्ग व अपवाद मार्ग का समन्वय
- वास्तव में उत्सर्ग ही मार्ग है, अपवाद नहीं ष्ट.सा./त.प्र./224
- कारणवश ही अपवाद का ग्रहण निर्दिष्ट है, सर्वतः नहीं भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 421/612/14
- अपवाद मार्ग में भी योग्य ही उपधि आदि के ग्रहण की आज्ञा है अयोग्य की नहीं प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 223
- अपवाद का अर्थ स्वच्छंद वृत्ति नहीं है मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 931
- अपवाद का ग्रहण भी त्याग के अर्थ होता है प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 222
- अपवाद उत्सर्ग का साधक होना चाहिए स्याद्वादमंजरी श्लोक 11/138/6
- उत्सर्ग व अपवादमें परस्पर सापेक्षता ही श्रेय है प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 230
- निरपेक्ष उत्सर्ग या अपवाद श्रेय नहीं प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 231
द्रव्य क्षेत्रं बलं भावं कालं वीर्यं समीक्ष्य च। स्वास्थाय वर्ततां सर्व विशुद्धशुद्धाशनैः सुधीः ॥65॥
= विचार पूर्वक आचरण करने वाले साधुओं को आरोग्य और आत्म स्वरूप में अवस्थान रखने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य इन छः बातों का अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वाशन, विद्वाशन और शुद्धाशन के द्वारा आहार में प्रवृत्ति करना चाहिए।
( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/16-17)।
पित्तप्पकोवेण उववास अक्खयेहि अद्धाहारेण उववासादो अहियपरिस्समेहि....।
= जो पित्त के प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ है; जिन्हें आधे आहार की अपेक्षा उपवास करने में अधिक थकान होती है...(उन्हें यह अवमोदर्य तप करना चाहिए।)
अनगार धर्मामृत अधिकार 5/95; 7/16-17-देखें- पहलेवाला सं.2/1।
\-\प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 230
(असमर्थ पुरुष को अपवाद मार्ग का आश्रय लेना चाहिए देखें पहले सं - 1.2)।
तथाविधशरीरवृत्त्यविरोधेन शुद्धात्मद्रव्यनीरंगनिस्तरंगविश्रांतिसूत्रणानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे....।
= तथाविध शरीर की वृत्ति के साथ विरोध रहित शुद्धात्म द्रव्य में नीरंग और निस्तरंग विश्रांति की रचनानुसार प्रवर्तमान अनशन में...।
`सव्वत्थं संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खिज्जा। मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही नियाविरई।
= मुनि को सर्व प्रकार से अपने संयम की रक्षा करनी चाहिए। यदि संयम का पालन करने में अपना मरण होता हो तो संयम को छोड़कर अपनी आत्मा की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि इस तरह मुनि दोषों से रहित होता है। वह फिर से शुद्ध हो सकता है, और उसके व्रत भंग का दोष नहीं लगता।
यथा जैनानां संयमपरिपालनार्थं नवकोटिविशुद्धाहारग्रहणमुत्सर्गः। तथाविधद्रव्यक्षेत्रकालभावापत्सु च निपतितस्य गत्यंतराभावे पंचकादियतनया अनेषणीयादिग्रहणमपवादः। सोऽपि च संयमपरिपालनार्थमेव।
= जैन मुनियों के वास्ते सामान्यरूप से संयम की रक्षा के लिए नव कोटि से विशुद्ध आहार ग्रहण करने की विधि बतायी गयी है। परंतु यदि किसी कारण से कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावजन्य आपदाओं से ग्रस्त हो जाये और उसे कोई मार्ग सूझ न पड़े, तो ऐसी दशा में वह पांच कोटि से शुद्ध आहार का ग्रहण कर सकता है। यह अपवाद नियम है। परंतु जैसे सामान्य विधि संयम की रक्षा के लिए है, वैसे ही अपवाद विधि भी संयम की रक्षा के लिए है।
किंचितत्कारणमुपदिश्य श्रुतग्रहणं, परेषां वा श्रुतोपदेशम् आचार्यादिवैयावृत्त्यादिकं, वा परिभुक्तं व्यवहृतम्। उवधिं परिग्रहमौषधं अतिरिक्तज्ञानसंयमोपकरणानि वा। अणुपधिं ईषत्परिग्रहम्....वसतिरुच्यते। ....वर्जयित्वा आचारति।
= शास्त्र पढ़ना, दूसरों को शास्त्रोपदेश देना, आचार्यों की वैयावृत्त्य करना इत्यादि कारणों के उद्देश्य से जो परिग्रह संगृहीत किया था, अथवा औषध व तद्व्यतिरिक्त ज्ञानोपकरण और संयमोपकरण संगृहीत किया था, उसका (इस सल्लेखना के अंतिम अवसर पर) त्याग कर विहार करे। तथा ईषत्परिग्रह अर्थात् वसतिका भी त्याग करे।
चत्तारि जणा भत्तं उवकप्पेंति अगिलाए पाओग्गं। छंदियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ॥662॥ चत्तारि जणा पामयमुवकप्पंति अडिलाए पाओग्गं। छंदियमवगददोसं अमाइण लद्धि संपण्णा ॥663॥ चत्तारि जणा रक्खंति दवियमुवकप्पियं तयं तेहिं। अगिलाए अप्पमत्ता खवयस्स समाधिमिच्छंति ॥664॥ काइयमादी सव्वं चत्तारि पदिट्ठवंति खवयस्स। पडिलेहंति य उवधोकाले सेज्जुवधिसंथारं ॥665॥ खवगस्स घरदुवार सारक्खंति जणा चत्तारि। चत्तारि समोसरणदुवारं रक्खंति जदणाए ॥666॥
= चार साधु तो क्षपक के लिए उद्गमादि दोष रहित आहार के पदार्थ (श्रावक के घर से माँगकर) लाते हैं। चार साधु पीने के पदार्थ लाते हैं। कितने दिन तक लाना पड़ेगा, इतना विचार भी नहीं करते हैं। माया भाव रहित वे मुनि वात, पित्त, कफ, संबंधी दोषों को शांत करने वाले ही पदार्थ लाते हैं। भिक्षा लब्धि से संपन्न अर्थात् जिन्हें भिक्षा आसानी से मिल जाती है, ऐसे मुनि ही इस काम के लिए नियुक्त किये जाते है ॥662-663॥ उपर्युक्त मुनियों द्वारा लाये गये आहार-पान की चार मुनि प्रमाद छोड़कर रक्षा करते हैं, ताकि उन पदार्थों में त्रस जीवों का प्रवेश न होने पावे। क्योंकि जिस प्रकार भी क्षपक का मन रत्नत्रय में स्थिर हो वैसा ही वे प्रयत्न करते हैं ॥664॥ चार मुनि क्षपक का मलमूत्र निकालने का कार्य करते हैं, तथा सूर्य के उदयकाल में और अस्तकाल के समय में वे वसतिका, उपकरण और संस्तर इनको शुद्ध करते हैं, स्वच्छ करते हैं ॥665॥ चार परिचारक मुनि क्षपक को वसतिका के दरवाजे का प्रयत्न से रक्षण करते हैं, अर्थात् असंयत और शिक्षकों को वे अंदर आने को मना करते हैं और चार मुनि समोसरण के द्वार का प्रयत्न से रक्षण करते हैं, धर्मोपदेश देने मंडप के द्वार पर चार मुनि रक्षण के लिए बैठते हैं ॥666॥
( भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1993)।
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1978/1742उयसयपडिदावण्णं उवसंगहिदं तु तत्थ उवकरणं। सागारियं च दुविहं पडिहारियमपडिहारिं वा ॥1978॥
= क्षपक की शुश्रूषा करने के लिए जिन उपकरणों का संग्रह किया जाता था उनका वर्णन इस गाथा में किया गया है? कुछ उपकरण गृहस्थों से लाये जाते थे जैसे औषध, जलपात्र, थाली वगैरह। कुछ उपकरण त्यागने योग्य रहते हैं, और कुछ उपकरण त्यागने योग्य नहीं होते। जो त्याज्य नहीं है वे गृहस्थों को वापिस दिये जाते हैं। कुछ कपड़ा वगैरह उपकरण त्याज्य रहता है।
देखें सल्लेखना - 3.12 (इंगिनीमरण धारक क्षपक अपने संस्तर के लिए स्वयं गाँव से तृण माँगकर लाता है।)
तेल्लकसायादीहिं य बहुसो गडूसया दु घेतव्वा। जिब्भाकण्णाण बलं होहि दि तुंडं च से विसदं ॥688॥
= तेल और कषायले द्रव्य के क्षपक को बहुत बार कुरले करने चाहिये। कुरले करने से जीभ और कानों में सामर्थ्य प्राप्त होती है। कर्ण में तेल डालने से श्रवण शक्ति बढ़ती है ॥688॥
बच्छीहिं अवट्ठवणतावणेहिं आलेवसीदकिरियाहिं। अब्भंगणपरिमद्दण आदीहिं तिगिंछदे खवयं ॥1499॥
= वस्ति कर्म (अनीमा करना), अग्नि से सैंकना, शरीर में उष्णता उत्पन्न करना, औषधि का लेप करना, शीतपना उत्पन्न करना, सर्व अंग मर्दन करना, इत्यादि के द्वारा क्षपक की वेदना का उपशमन करना चाहिए।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 375`प्रतिरूपकालक्रिया'-उष्णकाले शीतक्रिया, शीतकाले उष्णक्रिया, वर्षाकाले तद्योग्यक्रिया।
= उष्णकाल में शीतक्रिया और शीतकाल में उष्णक्रिया, वर्षाकाल में तद्योग्य क्रिया करना प्रतिरूपकाल क्रिया है (जिसके करने का मूल गाथा में निर्देश किया है)।
तत्त्वार्थवृत्ति अध्याय 9/47/316/12केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादौ कंबलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृह्णंति।....केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषाल्लज्जित्वात् तथा कुर्वंतीति। व्याख्यानमाराधनाभगवतीप्रोक्ताभिप्रायेणापवादरूपं ज्ञातव्यम्।
= कोई-कोई असमर्थ महर्षि शीत आदि काल में कंबल शब्द का वाच्य कुश घास या पराली आदिक ग्रहण कर लेते हैं। कोई शरीर में उत्पन्न हुए दोष वश लज्जा के कारण ऐसा करते हैं। यह व्याख्यान भगवती आराधना में कहे हुए अभिप्राय से अपवाद रूप है।
( भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 421/611/18)।
बोधपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 17/85तस्य....आचार्यस्य-वात्सल्यं भोजनं पानं पादमर्दनं शुद्धतैलादिनांगाभ्यंजनं तत्प्रक्षालनं चैत्यादिकं कर्म सर्वं तीर्थंकरनाम कर्मोपार्जनहेतुभूतं वैयावृत्त्यं कुरुत यूयम्।
= उन आचार्य (उपाध्याय व साधु ) परमेष्ठी की वात्सल्य, भोजन, पान, पादमर्दन, शुद्ध तेल आदि के द्वारा अंगमर्दन, शरीर प्रक्षालन आदिक द्वारा वैयावृत्ति करना, ये सब कर्म तीर्थंकर नाम कर्मोपार्जन के हेतुभूत हैं।
गीदत्था कदकज्जा महाबलपरक्कमा महासत्ता। बंधंति य छिंदंति य करचरणंगुट्ठयपदेसे ॥1676॥ जदि वा एस ण कीरेज्ज विधी तो तत्थ देवदा कोई। आदाय तं कलेवरमुट्ठिज्ज रमिज्ज बाधेज्ज ॥1977॥
= महान् पराक्रम और धैर्य युक्त मुनि क्षपक के हाथ और पाँव तथा अंगूठा इनका कुछ भाग बांधते हैं अथवा छेदते हैं ॥1976॥ यदि यह विधि न की जायेगी तो उस मृतशरीर में क्रीड़ा करने का स्वभाव वाला कोई भूत अथवा पिशाच प्रवेश करेगा, जिसके उपकरण वह शरीर उठना, बैठना, भागना आदि भीषण क्रियायें करेगा ॥1977॥
कामधेन्वभिधां विद्यामीप्सितार्थप्रदायिनीम्। तस्यै विश्राणयांचक्रे समंत्रं परशुं च सः ॥98॥
= उन्होंने (मुनिराज ने रेणुका को, उसके सम्यक्त्व व व्रत ग्रहण से संतुष्ट होकर) मनवांछित पदार्थ देनेवाली कामधेनु नाम की विद्या और मंत्र सहित एक फरसा भी उसके लिए प्रदान किया ॥98॥
स्मरेषुहतचित्तोऽसौ तामुद्दिश्य ब्रजन्निशि। मुनिनावधियुक्तेन मैवमित्यभ्यभाषत ॥38॥
= (दरिद्रों की बस्ती में किसी सुंदरी को देखकर) काम बाणों से उसका (यक्षदत्त का) हृदय हरा गया। सो वह रात्रि के समय उसके उद्देश्य से जा रहा था, कि अवधिज्ञान से युक्त मुनिराज ने `मा अर्थात् नहीं' इस प्रकार (शब्द) उच्चारण किया।
ततोऽवधार्यते उत्सर्ग एव वस्तुधर्मो न पुनरपवादः। इदमत्र तात्पर्यं वस्तुधर्मत्वात्परमनैर्ग्रंथ्यमेवावलंब्यं।
= इससे निश्चय होता है कि उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है अपवाद नहीं। तात्पर्य यह है कि वस्तु धर्म होने से परम निर्ग्रंथत्व ही अवलंबन योग्य है।
तस्माद्वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारमषेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम्।
= इसलिए अर्थाधिकार की अपेक्षा से बहुत-से सूत्रों में जो वस्त्र और पात्र का ग्रहण कहा गया है, वह कारण की अपेक्षा से निर्दिष्ट है, ऐसा समझना चाहिए।
महापुराण सर्ग संख्या 74/314चतुर्थ ज्ञाननेत्रस्य निसर्गबलशालिनः। तस्याद्यमेव चारित्रं द्वितीयं तु प्रमादिनाम् ॥314॥
= मनःपर्ययज्ञानरूपी नेत्र को धारण करने वाले और स्वाभाविक बल से सुशोभित उन भगवान् के पहिला सामायिक चारित्र ही था, क्योंकि दूसरा छेदोपस्थापना चारित्र प्रमादी जीवों के ही होता है।
( गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 547/714/5)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 222अयं तु विशिष्टकालक्षेत्रवशात्कश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवादः। यदा हि श्रमणः सर्वोपधिप्रतिषेधमास्थाय परमुपेक्षासंयमं प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्टकालक्षेत्रवशादवसंन्नशक्तिर्न प्रतिपत्तुं क्षमते तदापकृष्य संयमं प्रतिपद्यमानस्तद्बहिरंगसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते।
= विशिष्ट काल, क्षेत्र के वश कोई उपधि अनिषिद्ध है। ऐसा अपवाद है। जब श्रमण सर्व उपधि के निषेध का आश्रय लेकर परमोपेक्षा संयम को प्राप्त करने का इच्छुक होने पर भी विशिष्ट काल, क्षेत्र के वश हीन शक्तिवाला होने से उसे प्राप्त करने में असमर्थ होता है, तब उसमें अपकर्षण करके (अनुत्कृष्ट) संयम प्राप्त करता हुआ उसकी बाह्य साधन मात्र उपधि का आश्रय लेता है।
अप्पडिकुट्ठं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं। मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ॥223॥
= भले ही अल्प हो तथापि जो अनिंदित हो, असंयत जनों से अप्रार्थनीय हो और मूर्च्छादि उत्पन्न करने वाली न हो, ऐसी ही उपधि को श्रमण ग्रहण करो।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 162/375/19उपधिर्नाम पिच्छांतरं कमंडल्वंतरं वा तदानीं संयमसिद्धौ न करणमिति संयमसाधनं न भवति।...अथवा ज्ञानोपकरणं अवशिष्टोपधिरुच्यते।
= एक ही पिच्छिका और एक ही कमंडल रखता है, क्योंकि उससे ही उसका संयम साधन होता है। दूसरा कमंडल व दूसरी पिच्छिका उसको संयम साधन में कारण नहीं है। अवशिष्ट ज्ञानोपकरण (शास्त्र) भी उस (सल्लेखनाके) समय परिग्रह माना गया है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 222 की उत्थानिका"कस्यचित्कदाचित्कथंचित्कश्चिदुपधिरप्रतिषिद्धोऽप्यस्तीत्यपवादमुपदिशति।
= किसी के कहीं कभी किसी प्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भी है, ऐसा अपवाद कहते हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 223गृह्णातु श्रमणो यमप्यल्पं तथापि पूर्वोक्तोचितलक्षणमेव ग्राह्यं न च तद्विपरीतमधिकं वेत्यभिप्रायः।
= श्रमण जो कुछ भी अल्पमात्र उपधि ग्रहण करता है। वह पूर्वोक्त उचित लक्षणवाली ही ग्रहण करता है, उससे विपरीत या अधिक नहीं, ऐसा अभिप्राय है।
जो जट्ठ जहा लद्धं गेण्हदि आहारमुवधियादीयं। समणगुणमुक्कजोगी संसारपवड्ढओ होदि ॥931॥
= जो साधु जिस शुद्ध-अशुद्ध देश में जैसा कैसा शुद्ध-अशुद्ध मिला आहार व उपकरण ग्रहण करता है, वह श्रमण गुणसे रहित योगी संसार को बढ़ाने वाला ही होता है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/91जे. जिणलिंगु धरेवि मुणि इट्ठ परिग्गह लेंति। छद्दि करेविणु ते जि जिय सा पुणु छिद्दि गिलंति ॥91॥
= जो मुनि जिनलिंग को धारण कर फिर भी इच्छित परिग्रह का ग्रहण करते हैं, वे जीव! वे ही वमन करके फिर उस वमन को पीछे निगलते हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 250योऽसौ स्वशरीरपोषणार्थं शिष्यादिमोहेन वा सावद्यं नेच्छति तस्येदं (अपवादमार्ग) व्याख्यानं शोभते। यदि पुनरन्यत्र सावद्यमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्तीति।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 252अत्रेदं तात्पर्यम्.... स्वभावनाविघातकरोगादिप्रस्तावे वैयावृत्त्यं करोति शेषकाले स्वकीयानुष्ठानं करोतीति॥
= जो स्व शरीर का पोषण करने के लिए अथवा शिष्य आदि के मोह के कारण सावद्य की इच्छा नहीं करता है, उसको ही यह अपवाद मार्ग का व्याख्यान शोभा देता है। यदि अन्यत्र तो सावद्य की इच्छा करे और वैयावृत्ति आदि स्वकीय अवस्था के योग्य धर्मकार्य में इच्छा न करे, तब तो उसके सम्यक्त्व ही नहीं है ॥250॥ यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि स्वभाव विघातक रोगादि आ जानेपर तो वैयावृत्ति करता है, परंतु शेषकाल में स्वकीय अनुष्ठान (ध्यान आदि) ही करता है ॥252॥
अयं तु....आहारनिहारादिग्रहणविसर्जनविषयच्छेदप्रतिषेधार्थसुपादीयमानः सर्वथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छेदप्रतिषेध एव स्यात्।
= यह आहारनीहारादि का ग्रहण-विसर्जन संबंधी बात छेद के निषेधार्थ ग्रहण करने में आयी है, क्योंकि, सर्वत्र शुद्धोपयोग सहित है। इसलिए वह छेद के निषेध रूप ही है।
अन्यार्थमुत्सृष्टम्....अन्यस्मै कार्याय प्रयुक्तम्-उत्सर्गवाक्यम्, अन्यार्थप्रयुक्तेन वाक्येन नापोद्यते-नापवादगोचरीक्रियते। यमेवार्थमाश्रित्य शास्त्रेषूत्सर्गः प्रवर्तते, तमेवाश्रित्यापवादोऽपि प्रवर्तते, तयोन्निम्नोन्नतादिव्यवहारवत् परस्परसापेक्षत्वेनैकार्थ साधनविषयत्वात्।....सोऽपि च संयमपरिपालनार्थमेव।
= सामान्य (उत्सर्ग) और अपवाद दोनों वाक्य शास्त्रों के एक ही अर्थ को लेकर प्रयुक्त होते हैं। जैसे ऊँच-नीच आदि का व्यवहार सापेक्ष होने से एक ही अर्थ का साधक है, वैसे ही सामान्य और अपवाद दोनों परस्पर सापेक्ष होने से एक ही प्रयोजन की सिद्ध करते हैं। -(उदाहरणार्थ नव कोटि शुद्ध की बजाये परिस्थितिवश साधु जो पंचकोटि भी शुद्ध आहार का ग्रहण कर लेता है। जैसे सामान्य विधि संयम की रक्षा के लिए है, तैसे ही वह अपवाद भी संयम की रक्षा के लिए ही है।
बालो वा बुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा। चरियं चरउ सजोग्गं मूलच्छेदं जधा ण हवदि ॥230॥
= बाल, वृद्ध, श्रांत अथवा ग्लान श्रमण, मूलका छेद जिस प्रकारसे न होय उस प्रकार अपने योग्य आचरण आचरो।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 230बालवृद्धश्रांतग्लानेनापि संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यातिकर्कशमेवाचरणमाचरणीयमित्युत्सर्गः। .....शरीरस्य.....छेदो न यथा स्यात्तथा.....स्वस्य योग्यं मृद्वेवाचरणमाचरणीयमित्यपवादः। संयमस्य....छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणमाचरता शरीरस्य.....छेदो यथा न स्यात्तथा....स्वस्य योग्यं मृद्वप्याचरणमाचरणीयमित्ययमपवादसापेक्ष उत्सर्गः। शरीरस्य छेदो न यथा स्यात्तथा स्वस्य योग्यं मृद्वाचरणमाचरता संयमस्य....छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमप्याचरणमाचरणीयमित्युत्सर्गसापेक्षोऽपवादः। अतः सर्वथोत्सर्गपवादमैत्र्या सौस्थितस्यमाचरणस्य विधेयम्।
= बाल, वृद्ध, श्रांत अथवा ग्लान श्रमण को भी संयम का, कि जो शुद्धात्म तत्त्व का साधन होने से मूलभूत है, उसका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार संयत का ऐसा अपने योग्य अतिकर्कश आचरण ही आचरना उत्सर्ग है।....संयम के साधनभूत शरीर का छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना अपवाद है। संयम का छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य अतिकर्कश आचरण आचरते हुए भी शरीर का छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरणका आचरना अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग है। शरीर का छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरणको आचारते हुए भी संयमका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य अतिकर्कश आचरणको भी आचरना उत्सर्गसापेक्ष अपवाद है। इससे सर्वथा उत्सर्ग अपवादकी मैत्री के द्वारा आचरण को स्थिर करना चाहिए।
अथ देशकालज्ञस्यापि....मृद्वाचरणप्रवृत्तत्वादल्पो लेपां भवत्येव तद्वरमुत्सर्गः। .....मृद्वाचरणं प्रवृत्तत्वादल्प एव लेपो भवति तद्वरमपवादः। ....अल्पलेपभयेनाप्रवर्तमानस्यातिकर्कशाचरणीभूयाक्रमेण शरीरं पातयित्वा सुरलोकं प्राप्योद्वांतसमस्तसंयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतयाऽशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति। तन्न श्रेयानपवादनिरपेक्ष उत्सर्गः। देशकालज्ञस्यापि.....आहारविहारयोरल्पलेपत्वं विगणय्य यथेष्टं प्रवर्त्तमानस्य मृद्वाचरणीभूय संयम विराध्या संयतजनसमानीभूतस्य तदात्वे तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति, तत्र श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवादः। अत....परस्परसापेक्षोत्सर्गापवादविजृंभितवृत्तिः स्याद्वादः।
= देशकालज्ञ को भी मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अल्प लेप होता ही है, इसलिए उत्सर्ग अच्छा है। और मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अल्प (मात्र) ही लेप होता है, इसलिए अपवाद अच्छा है अल्पलेप के भय से उसमें प्रवृत्ति न करे तो अतिकर्कश आचरण रूप होकर अक्रम से ही शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करता है। तहाँ जिसने समस्त संयमामृत का समूह वमन कर डाला है, उसे तप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतिकार अशक्य है, ऐसा महान् लेप होता है। इसलिए अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं। देशकालज्ञ को भी, आहार-विहार आदि से होनेवाले अल्पलेप को न गिनकर यदि वह उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो, मृदु आचरण रूप होकर संयम विरोधी असंयतजन के समान हुए उसको उस समय तप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतिकार अशक्य है ऐसा महान् लेप होता है। इसलिए उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है। इसलिए परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग और अपवाद से जिसकी वृत्ति प्रगट होती है ऐसा स्याद्वाद सदा अनुगम्य है।