अनंतानुबंधी
From जैनकोष
जीवों की कषायों की विचित्रता सामान्य बुद्धि का विषय नहीं है। आगममें वे कषाय अनन्तानुबन्धी आदि चार प्रकार की बतायी गयी हैं। इन चारों के निमित्त-भूत कर्म भी इन्हीं नामवाले हैं। यह वासना रूप होती हैं व्यक्त रूप नहीं। तहाँ पर पदार्थों के प्रति मेरे-तेरेपने की, या इष्ट-अनिष्टपने की जो वासना जीवमें देखी जाती है, वह अनन्तानुबन्धी कषाय है, क्योंकि वह जीवका अनन्त संसार से बन्ध कराती है। यह अनन्तानुबन्धी प्रकृति के उदय से होती है। अभिप्राय की विपरीतता के कारण इसे सम्यक्त्वघाती तथा परपदार्थों में राग-द्वेष उत्पन्न कराने के कारण चारित्रघाती स्वीकार किया है।
१. अनन्तानुबन्धी का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /८/९/३८६ अनन्तसंसारकारणत्वान्मिथ्यादर्शनमनन्तम्। तदनुबन्धिनोऽनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाः।
= अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है तथा जो कषाय उसके अनुबन्धी हैं, वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ८/९, ५/५७४/३)।
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-१,२३/४१/५ अनन्तान् भवाननुबद्धं शीलं येषां ते अनन्तानुबन्धिनः। ...जेहि कोह-माण-माया-लोहेहि अविणट्ठसरूवेहि सह जीवो अणंते भवे हिंडदि तेसिं कोह-माण-माया-लोहाणं अणंताणुबंधी सण्णा त्ति उत्तं होदि। ...एदेहि जीवम्हि जणिदसंसकारस्स अणंतेसु भवेसु अवट्ठाणब्भुवगमादो। अधवा अणंतो अणुबंधो तेसिं कोह-माण-माया-लोहाणं ते अणंताणुबंधी कोह-माण-माया-लोहा। एदेहिंतो संसारो अणंतेसु भवेसु अणुबंधं ण छद्देदि त्ति अणंताणुबंधो संसारो। सो जेसिं ते अणंताणुबंधिणो कोह-माण-माया-लोहा।
= १. अनन्त भवों को बाँधना ही जिनका स्वभाव है, वे अनन्तानुबन्धी कहलाते हैं। अनन्तानुबन्धी जो क्रोध, मान, माया, लोभ होते हैं, वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते हैं। जिन अविनष्ट स्वरूपवाले अर्थात् अनादि परम्परागत क्रोध, मान, माया और लोभ के साथ जीव अनन्तभवों में परिभ्रमण करता है उन क्रोध, मान, माया व लोभ कषायों की `अनन्तानुबन्धी' संज्ञा है, यह अर्थ कहा गया है। २. इन कषायों के द्वारा जीवमें उत्पन्न हुए संस्कार का अनन्त भवों में अवस्थान माना गया है। अथवा जिन क्रोध, मान, माया, लोभों का अनुबन्ध (विपाक या सम्बन्ध) अनन्त होता है वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते हैं। ३. इनके द्वारा वृद्धिगत संसार अनन्त भवों में अनुबन्धको नहीं छोड़ता है इसलिए `अनन्तानुबन्ध' यह नाम संसार का है। वह संसारात्मक अनन्तानुबन्ध जिनके होता है वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या २६/५५/५ न विद्यते अन्तः अवसानं यस्य तदनन्तं मिथ्यात्वम्, तदनुबध्नन्तीत्येवं शीला अनन्तानुबन्धिनः क्रोध-मान-माया-लोभाः।
= नहीं पाइये है अन्त जाका ऐसा अनन्त कहिये मिथ्यात्व ताहि अनुबन्धति कहिये आश्रय करि प्रवर्ते ऐसे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या २८३/६०८/१३ अनन्तसंसारकारणत्वात्, अनन्तं मिथ्यात्वम् अनन्तभवसंस्कारकालं वा अनुबध्नन्ति संघटयन्तीत्यनन्तानुबन्धिन इति निरुक्तिसामर्थ्यात्।
= अनन्त संसार का कारण मिथ्यात्व वा अनन्त संसार अवस्था रूप काल ताहि अनुबध्नन्ति कहिए सम्बन्ध रूप करें तिनिको अनन्तानुबन्धी कहिए। ऐसा निरुक्ति से अर्थ है।
दर्शनपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या २/पं. जयचन्द "जो सर्वथा एकान्त तत्त्वार्थ के कहनेवाले जे अन्यमत, जिनका श्रद्धान तथा बाह्य वेष, ता विषै सत्यार्थपने का अभिमान करना, तथा पर्यायनि विषै एकान्त तै आत्मबुद्धि करि अभिमान तथा प्रीति करनी, यह अनन्तानुबन्धी का कार्य है।
(समयसार / २०/क./१३७/पं. जयचन्द)।
२. अनन्तानुबन्धी का स्वभाव सम्यक्त्व को घातना है-
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/११५ पढमो दंसणघाई विदिओ तह घाइ देसविरइ त्ति। तइओ संजमघाई चउत्थो जहखायघाईया।
= प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन का घात करती है, द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशविरति की घातक है। तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय सकलसंयम की घातक है और चतुर्थ संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र की घातक है।
( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/११०) (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या/२८३/६०८) (गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ४५) ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या १/२०४-२०५) - देखे सासादन २/६।
३. वास्तव में यह सम्यक्त्व व चारित्र दोनों को घातती है-
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१०/१६५/१ अनन्तानुबन्धिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलत्वात्। ...यस्माच्च विपरीताभिनिवेशोऽभूदनन्तानुबन्धिनो, न तद्दर्शनमोहनीयं तस्य चारित्रावरणत्वात्। तस्योभयप्रतिबन्धकत्वादुभयव्यपदेशो न्याय्य इति चेन्न, इष्टत्वात्।
= अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है तथा जिस अनन्तानुबन्धी के उदय से दूसरे गुणस्थान में विपरीतभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शन मोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आवरण करनेवाला होने से चारित्र मोहनीय का भेद है।
प्रश्न - अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबन्धक होनेसे उसे उभयरूप संज्ञा देना न्याय संगत है?
उत्तर - यह आरोप ठीक नहीं है, क्योंकि यह तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् अनन्तानुबन्धी को सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबन्धक माना ही है।
(धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-१,२३/४२/३)।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./५४६/७९/१२ मिथ्यात्वेन सह उदीयमाना कषायः सम्यक्त्वं घ्नन्ति। अनन्तानुबन्धिना च सम्यक्त्वसंयमौ।
= मिथ्यात्व के साथ उदय होनेवाली कषाय सम्यक्त्व को घातती है और अनन्तानुबन्धी के साथ सम्यक्त्व व चारित्र दोनों को घातती है।
४. एक ही प्रकृति में दो गुणों को घातने की शक्ति कैसे सम्भव है
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-१,२३/४२/४ का एत्थ जुत्ती। उच्चदे-ण ताव एदे दंसणमोहणिज्जा, सम्मत्त-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तेहि चेव आवरियस्स सम्मत्तस्स आवरणे फलाभावादो। ण चारित्तमोहणिज्जा वि, अपच्चक्खाणावरणादीहिं आवरिदचारित्तस्स आवरणे फलाभावा। तदो एदोसिमभावो चेय। ण च अभावो सुत्तम्हि एसेसिमत्थित्तपदुप्पायणादो। तम्हा एदेसिमुदएण सासणगुणुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो सिद्ध दंसणमोहणीयत्तं चारित्तमोहणीयत्तं च।
=
प्रश्न - अनन्तानुबन्धी कषायों की शक्ति दो प्रकार की है, इस विषयमें क्या युक्ति है?
उत्तर - ये चतुष्क दर्शन मोहनीय स्वरूप नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के द्वारा ही आवरण किये जानेवाले दर्शन मोहनीय के फल का अभाव है। और न इन्हें चारित्र मोहनीय स्वरूप ही माना जा सकता है, क्योंकि अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के द्वारा आवरण किये गये चारित्र के आवरण करने में फल का अभाव है। इसलिए उपर्युक्त अनन्तानुबन्धी कषायों का अभाव ही सिद्ध होता है। किन्तु उनका अभाव नहीं है, क्योंकि सूत्रमें इनका अस्तित्व पाया जाता है। इसलिए इन अनन्तानुबन्धी कषायों के उदयसे सासादन भावकी उत्पत्ति अन्यथा हो नहीं सकती है। इस हो अन्यथानुपत्ति से इनके दर्शनमोहनीयता और चारित्रमोहनीयता अर्थात् सम्यक्त्व और चारित्र को घात करनेकी शक्ति का होना, सिद्ध होता है।
५. चारित्र मोह की प्रकृति सम्यक्त्व घातक कैसे?
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ११४० सत्यं तत्राविनाभाविनो बन्धसत्त्वोदयं प्रति। द्वयोरन्यतरस्यातो विवक्षायां न दूषणम् ।।११४०।।
= मिथ्यात्व के बन्ध, उदय, सत्त्व के साथ अनन्तानुबन्धी कषाय का अविनाभाव है। इसलिए दोमें से एककी विवक्षा करने से दूसरे की विवक्षा आ जाती है। अतः कोई दोष नहीं।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./५४६/७१/१२ मिथ्यात्वेन सहोदीयमानाःकषायाःसम्यक्त्वं घ्नन्ति। अनन्तानुबन्धिना च सम्यक्त्वसंयमौ।
= मिथ्यात्व के साथ उदय होनेवाली कषाय सम्यक्त्व को घातती है और अनन्तानुबन्धी के द्वारा सम्यक्त्व और संयम घाता जाता है।
६. अनन्तानुबन्धी का जघन्य व उत्कृष्ट सत्त्व काल
१. ओघ की अपेक्षा
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या २/$११८/९९/५ अणंताणु० चउक्क विहत्ती केवचिरं का०। अणादि० अपज्जवसिदा अणादि० सपज्जवसिदा, सादि० सपज्जवसिदा वा। जा सा सपज्जवसिदा तिस्से इमो णिद्देसो-जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्टं देसूण।
= अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विभक्तिवाले जीवों का कितना काल है? अनादि-अनन्त, अनादि सान्त और सादि सान्त काल है। सादि सान्त अनन्तानुबन्धी चतुष्कविभक्ति का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या २/$१२५/१०८/५ अथवा सव्वत्थ उप्पज्जमाणसासणस्स एगसमओ वत्तव्वो। पंचिंदियअपज्जत्तएसु सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ति० जह० एगसमओ।
= अथवा जिन आचार्यों के मतसे सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियादि सभी पर्यायों में उत्पन्न होता है उनके मतसे पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के अनन्तानुबन्धी चतुष्क का एक समय जघन्य काल कहना चाहिए।
२. आदेश की अपेक्षा
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या २/$११९/१०१/१ आदेसेण णिरयगदीए णेरयिएसु मिच्छत्त-बारस-कसाय-णवनोकसाय० विहत्ती केव०। जह० दस वाससहस्साणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि। ...पढमादि जाव सत्तमा त्ति एव चेव वत्तव्वं। ...णवरि सत्तमाए पुढवीए अणंताणु० चउक्कस्स जह० अंतोमुहुत्त।
= आदेश की अपेक्षा नरकगतिमें नारकियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषाय विभक्ति का कितना काल है।
उत्तर - जघन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सम्यक्त्व-प्रकृति, सम्यक्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क का काल भी समझना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनका जघन्यकाल एक समय है। पहली पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार समझना चाहिए। परन्तु सातवीं पृथिवीमें अनन्तानुबन्धी का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या २/$१२०/१०२/१ तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु...अणंताणु० चउक्कस्स जह० एगसमओ, उक्क० दोण्हं पि अणंतकालो।
= तिर्यञ्च गतिमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क का जघन्य काल एक समय है तथा पूर्वोक्त बाईस और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन दोनों का उत्कृष्ट अनन्तकाल है।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या २/$१२०/१०/२७ एवं मणुसतियस्स वत्तव्वं।
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या २/$१२२/१०४/२ देवाणं णारगभंगो।
= मनुष्य-त्रिक् अर्थात् सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी के भी उक्त अट्ठाईस प्रकृतियों का काल समझना चाहिए। देवगति में सामान्य देवों के अट्ठाईस प्रकृतियों की विभक्ति का सत्त्व काल सामान्य नारकियों के समान कहना चाहिए।
७. जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर काल
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या २/$१३५/१२३/७ अणंताणुबंधिचउक्क० विहत्ति० जह० अंतोमुहुत्त, उक्क० वेछावट्ठिसागरोवमाणि देसूणाणि।
= अनन्तानुबन्धी चतुष्क का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक सौ बत्तीस सागर है।
८. अन्तर्मुहूर्त मात्र उदयवाली भी इस कषाय में अनन्तानुबन्धीपना कैसे?
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-१,२३/४१/९ एदेसिमुदयकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो चेय,...तदो एददेसिमणंतभवाणुबंधित्तं ण जुज्जदि त्ति। ण एस दोसो, एदेहि जीवम्हि जणिदसंसकारस्स अणंतेसु भवेसु अवट्ठाणब्भुवगमादो।
=
प्रश्न - उन अनन्तानुबन्धी क्रोधादिकषायों का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है ...अतएव इन कषायों में अनन्तानुबन्धिता घटित नहीं होती?
उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इन कषायों के द्वारा जीवमें उत्पन्न हुए संस्कार का अवस्थान अनन्तभवों में माना गया है।
(विशेष देखे अनन्तानुबन्धी १)।
९. अनन्तानुबन्धी का वासना काल
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./४६,४७ अंतोमुहुत्तपक्खं छम्मासं संखासंखणंतभवं। संजलणमादियाणं वासणकालो दुणियमेण ।।४६।। उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकालः स च संज्वलनानामन्तर्मुहूर्तः। प्रत्याख्यानावरणानामेकपक्ष अप्रत्याख्यानावरणानां षण्मासाः अनन्तानुबन्धिनां संख्यातभवाः असंख्यातभवाः, अनन्तभवाः वा भवन्ति नियमेन।
= उदय का अभाव होते संतै भी जो कषायनिका संस्कार जितने काल रहै ताका नाम वासनाकाल है। सो संज्वलन कषायनिका वासनाकाल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। प्रत्याख्यानकषायनिका एक पक्ष है। अप्रत्याख्यान कषायनिका छः महीना है। अनन्तानुबन्धी कषायनिका संख्यात भव, असंख्यात भव, अनन्त भव पर्यन्त वासना काल है। जैसे-काहू पुरुषने क्रोध किया पीछे क्रोध मिटि और कार्य विषै लग्या, तहाँ क्रोध का उदय तो नाहीं परन्तु वासना काल रहै, तेतैं जीहस्यों क्रोध किया था तीहस्यों क्षमा रूप भी न प्रवर्तै सो ऐसैं वासना काल पूर्वोक्त प्रमाण सब कषायनिका नियम करके जानना।
(चारित्रसार पृष्ठ संख्या ९०/१)।
१०. अन्य सम्बन्धित विषय
• अनन्तानुबन्धी प्रकृति का बंध उदय सत्त्व व तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान – देखे वह वह नाम ।
• अनन्तानुबन्धी में दशों करणों की सम्भावना – देखे करण २।
• अनन्तानुबन्धी की उद्वेलना – देखे संक्रमण ४।
• कषायों की तीव्रता मन्दता में अनन्तानुबन्धी नहीं, लेश्या कारण है – देखे कषाय ३।
• अनन्तानुबन्धी का सर्वघातियापन – देखे अनुभाग ४।
• अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना – देखे विसंयोजना ।
• यदि अनन्तानुबन्धी द्विस्वभावी है तो इसे दर्शनचारित्र मोहनीय क्यों नहीं कहते? – देखे अनन्तानुबन्धी ३।
• अनन्तानुबन्धी व मिथ्यात्वजन्य विपरीताभिनिवेश में अन्तर – देखे सासादन १/२।