उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबंध संबंधी नियम
From जैनकोष
उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबन्ध सम्बन्धी नियम
१. मरण समय उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव नहीं
ध.१२/४,२,१३,९/३७८/१२ चरिमसमये उक्कस्सट्ठिदिबंधाभावादो। = (नारक जीव के) अन्तिम समय में उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का अभाव है।
२. स्थितिबन्ध में संक्लेश विशुद्ध परिणामों का स्थान
पं.सं./प्रा./४/४२५ सव्वट्ठिदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंकिलेसेण। विवरीओ दु जहण्णो आउगतिगं वज्ज सेसाणं।४२५। = आयुत्रिक को छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियों की स्थितियों का उत्कृष्ट बन्ध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है और उनका जघन्य स्थितिबन्ध विपरीत अर्थात् संक्लेश के कम होने से होता है। यहाँ पर आयुत्रिक से अभिप्राय नरकायु के बिना शेष तीन आयु से है। (गो.क./मू./१३४/१३२); (पं.सं./सं./४/२३९); (ल.सा./भाषा/१७/३)।
गो.क./जी.प्र./१३४/१३२/१७ तत्त्रयस्य तु उत्कृष्टं उत्कृष्टविशुद्धपरिणामेन जघन्यं तद्विपरीतेन भवति। = तीन आयु (तिर्यग्, मनुष्य व देवायु) का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से और जघन्य स्थितिबन्ध उससे विपरीत अर्थात् कम संक्लेश परिणाम से होता है।
३. मोहनीय का उत्कृष्ट स्थितिबन्धक कौन
क.पा.३/३-२२/२२/१६/५ तत्थ ओघेण उक्कस्सट्ठिदी कस्स। अण्णदरस्स, जो चउट्ठाणिय जवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिं बंधंतो अच्छिदो उक्कस्ससंकिलेसं गदो। तदो उक्कस्सट्ठिदी पबद्धा तस्स उक्कस्सयं होदि। = जो चतुस्थानीय यवमध्य के ऊपर अन्त:कोडाकोड़ी प्रमाण स्थिति को बाँधता हुआ स्थित है और अनन्तर उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त होकर जिसने उत्कृष्ट-उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध किया है, ऐसे किसी भी जीव के मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति होती है।
४. उत्कृष्ट अनुभाग के साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध की व्याप्ति
ध.१२/४,२,१३,३१/३९०/१३ जदि उक्कस्सट्ठिदीए सह उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्सविसेसपच्चएण उक्कस्साणुभागो पबद्धो तो कालबेयणाए सह भावो वि उक्कस्सो होदि। उक्कस्सविसेसपच्चयाभावे अणुक्कस्सामो चेव। = यदि उत्कृष्ट स्थिति के साथ उत्कृष्ट विशेष प्रत्ययरूप उत्कृष्ट संकलेश के द्वारा उत्कृष्ट अनुभाग बाँधा गया है तो काल वेदना (स्थितिबन्ध) के साथ भाव (अनुभागी) भी उत्कृष्ट होता है। और (अनुभाग सम्बन्धी) उत्कृष्ट विशेष प्रत्यय के अभाव में भाव (अनुभाग) अनुत्कृष्ट ही होता है। (ध.१२/४,२,१३,४०/३९३/४)।
ध.१२/४,२,१३,४०/३९३/६ उक्कस्साणुभागं बंधमाणो णिच्छएण उक्कस्सियं चेव ट्ठिदिं बंधदि, उक्कस्ससंकिलेसेण विणा उक्कस्साणुभागबंधाभावादो। = उत्कृष्ट अनुभाग को बाँधने वाला जीव निश्चय से उत्कृष्ट स्थिति को ही बाँधता है, क्योंकि उत्कृष्ट संकिलेश के बिना उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध नहीं होता है।
५. उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का अन्तरकाल
क.पा./३/३-२२/५३८/३१६/३ कम्माणमुक्कस्सट्ठिदिबंधुवलंभादो। दोण्हमुक्कस्सट्ठिदीणं विच्चालिमअणुक्कस्सट्ठिदिबंधकालो तासिमंतरं ति भणिदं होदि। एगसमओ जहण्णंतरं किण्ण होदि। ण उक्कस्सट्ठिदिं बंधिय पडिहग्गस्स पुणो अंतोमुहुत्तेण विणा उक्कस्सट्ठिदिबंधासंभवादो। = कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को बाँधने वाला जीव अनुत्कृष्ट स्थिति का कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्ध करता है उसके अन्तर्मुहूर्त के बाद पुन: पूर्वोक्त पूर्वों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध पाया जाता है। प्रश्न-जघन्य अन्तर एक समय क्यों नहीं होता ? उत्तर-नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति को बाँधकर उससे च्युत हुए जीव के पुन: अन्तर्मुहूर्त काल के बिना उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं होता, अत: जघन्य अन्तर एक समय नहीं है।
६. जघन्य स्थितिबन्ध में गुणहानि सम्भव नहीं
ध.६/१,९-७,३/१८३/१ एत्थ गुणहाणीओ णत्थि, पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्तट्ठिदीए विणा गुणहाणीए असंभवादो। = इस जघन्य स्थिति में गुणहानियाँ नहीं होती हैं, क्योंकि, पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र स्थिति के बिना गुणहानि का होना असम्भव है।
७. साता व तीर्थंकर प्रकृतियों की ज.उ.स्थितिबन्ध सम्बन्धी दृष्टिभेद
ध.११/४,२,६,१८१/३२१/६ उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ सेडिछेदणाहिंतो बहुगाओ त्ति के वि आइरिया भणंति। तेसिमाइरियाणमहिप्पाएण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता जीवा उवरि तप्पाओग्गासंखेज्जगुणहाणीओ गंत्तूण होंति। ण च एवं वक्खाणे अण्णोण्णब्भत्थरासिस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागवत्तुवलंभादो। = (साता वेदनीय के द्वि स्थानिक यव मध्य से तथा असाता वेदनीय के चतुस्थानिक यव मध्य से ऊपर की स्थितियों में जीवों की) ‘नाना गुणहानि शलाकाएँ श्रेणि के अर्धच्छेदों से बहुत हैं’ ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। उन आचार्यों के अभिप्राय से श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव आगे तत्प्रायोग्य असंख्यात गुणहानियाँ जाकर है। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि इस व्याख्यान में अन्योन्याभ्यस्त राशि पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण पायी जाती है।
ध.१२/४,२,१४,३८/४९४/१२ आदिमंतिमदोहि वासपुधत्तेहि ऊणदोपुव्वकोडीहि सादिरेयतेत्तीससागरोवममेत्ता तित्थयरस्स समयपबद्धट्ठदा होदि त्ति के वि आइरिया भणंति। तण्ण घडदे। कुदो। आहारदुगस्स संखेज्जवासमेत्ता तित्थयरस्स सादिरेयतेत्तीससागरोवममेत्ता समयपबद्धट्ठदा होंति त्ति सुत्ताभावादो। = आदि और अन्त के दो वर्ष पृथक्त्वों से रहित तथा दो पूर्व कोटि अधिक तीर्थंकर प्रकृति की तेतीस सागरोपम मात्र समय प्रबद्धार्थता होती है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, आहारकद्विक की संख्यात वर्ष मात्र और तीर्थंकर प्रकृति की साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण समय प्रबद्धार्थता है, ऐसा कोई सूत्र नहीं है।