कृष्टि
From जैनकोष
कृष्टिकरण विधान में निम्न नामवाली कृष्टियों का निर्देश प्राप्त होता है–कृष्टि, बादर कृष्टि, सूक्ष्मकृष्टि, पूर्वकृष्टि, अपूर्वकृष्टि, अधस्तनकृष्टि, संग्रहकृष्टि, अन्तरकृष्टि, पार्श्वकृष्टि, मध्यम खण्ड कृष्टि, साम्प्रतिक कृष्टि, जघन्योत्कृष्ट कृष्टि, घात कृष्टि। इन्हीं का कथन यहां क्रमपूर्वक किया जायेगा।
- कृष्टि सामान्य निर्देश
ध.६/१,९-८,१६/३३/३८२ गुणसेडि अणंतगुणा लोभादीकोधपच्छिमपदादो। कम्मस्स य अणुभागे किट्टीए लक्खणं एदं।३३।=जघन्यकृष्टि से लेकर...अन्तिम उत्कृष्ट कृष्टि तक यथाक्रम से अनन्तगुणित गुणश्रेणी है। यह कृष्टि का लक्षण है।
ल.सा./जी.प्र./२८४/३४४/५ ‘कर्शनं कृष्टि: कर्मपरमाणुशक्तेस्तनूकरणमित्यर्थ:। कृश तनूकरणे इति धात्वर्थमाश्रित्य प्रतिपादनात्। अथवा कृष्यते तनूक्रियते इति कृष्टि: प्रतिसमयं पूर्वस्पर्धकजघन्यवर्गणाशक्तेरनन्तगुणहीनशक्तिवर्गणाकृष्टिरिति भावार्थ:।=कृश तनूकरणे इस धातु करि ‘कर्षणं कृष्टि: जो कर्म परमाणुनि की अनुभाग शक्ति का घटावना ताका नाम कृष्टि है। अथवा ‘कृश्यत इति कृष्टि:’ समय-समय प्रति पूर्व स्पर्धक की जघन्य वर्गणा तैं भी अनन्तगुणा घटता अनुभाग रूप जो वर्गणा ताका नाम कृष्टि है। (गो.जी./भाषा./५९/१६०/३) (क्ष.सा. ४९० की उत्थानिका)।
क्ष.सा./४९० कृष्टिकरण का काल अपूर्व स्पर्धक करण से कुछ कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। कृष्टि में भी संज्वलन चतुष्क के अनुभाग काण्डक व अनुभाग सत्त्व में परस्पर अश्वकर्ण रूप अल्पबहुत्व पाइये हैं। तातैं यहाँ कृष्टि सहित अश्वकरण पाइये हैं ऐसा जानना। कृष्टिकरण काल में स्थिति बन्धापसरण और स्थिति सत्त्वापसरण भी बराबर चलता रहता है।
क्ष.सा./४९२-४९४‘‘संज्वलन चतुष्क की एक-एक कषाय के द्रव्य को अपकर्षण भागाहार का भाग देना, उसमें से एक भाग मात्र द्रव्य का ग्रहण करके कृष्टिकरण किया जाता है।।४९२।। इस अपकर्षण किये द्रव्य में भी पल्य/अंस॰ का भाग देय बहुभाग मात्र द्रव्य बादरकृष्टि सम्बन्धी है। शेष एक भाग पूर्व अपूर्व स्पर्धकनि विषै निक्षेपण करिये (४९३) द्रव्य की अपेक्षा विभाग करने पर एक-एक स्पर्धक विषै अनन्ती वर्गणाएँ हैं जिन्हें वर्गणा शलाका कहते हैं। ताकै अनंतवें भागमात्र सर्वकृष्टिनि का प्रमाण है।।४९४।। अनुभाग की अपेक्षा विभाग करने पर एक-एक कषाय विषै संग्रहकृष्टि तीन-तीन है, बहुरि एक-एक संग्रहकृष्टि विषै अन्तरकृष्टि अनन्त है।
तहाँ सबसे नीचे लोभ की (लोभ के स्पर्धकों की) प्रथम संग्रहकृष्टि है तिसविषै अन्तरकृष्टि अनन्त है। तातै ऊपर लोभ की द्वितीय संग्रहकृष्टि है तहाँ भी अन्तरकृष्टि अनन्त है। तातै ऊपर लोभ की तृतीय संग्रहकृष्टि है तहाँ भी अन्तरकृष्टि अनन्त है। तातै ऊपर माया की प्रथम संग्रहकृष्टि है तहाँ भी अन्तरकृष्टि अनन्त है। इसी प्रकार तातै ऊपर माया की द्वितीय, तृतीय संग्रहकृष्टि व अन्तरकृष्टि है। इसी क्रम से ऊपर ऊपर मान की ३ और क्रोध की ३ संग्रहकृष्टि जानना। - स्पर्धक व कृष्टि में अन्तर
क्ष.सा./५०९/भाषा—अपूर्व स्पर्धककरण काल के पश्चात् कृष्टिकरण काल प्रारम्भ होता है। कृष्टि है ते तो प्रतिपद अनन्तगुण अनुभाग लिये है। प्रथम कृष्टि का अनुभाग तै द्वितीयादि कृष्टिनिका अनुभाग अनन्त अनन्तगुणा है। बहुरि स्पर्धक हैं ते प्रतिपद विशेष अधिक अनुभाग लिये हैं अर्थात् स्पर्धकनिकरि प्रथम वर्गणा तै द्वितीयादि वर्गणानि विषै कछू विशेष-विशेष अधिक अनुभाग पाइये है। ऐसे अनुभाग का आश्रयकरि कृष्टि अर स्पर्धक के लक्षणों में भेद है। द्रव्य की अपेक्षा तो चय घटता क्रम दोअनि विषै ही है। द्रव्य की पंक्तिबद्ध रचना के लिए–देखें - स्पर्धक।
- बादरकृष्टि
क्ष.सा./४९० की उत्थानिका (लक्षण)–संज्वलन कषायनि के पूर्व अपूर्व स्पर्धक जैसे–ईंटनि की पंक्ति होय तैसे अनुभाग का एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद बधती लीएँ परमाणूनिका समूहरूप जो वर्गणा तिनके समूहरूप हैं। तिनके अनन्तगुणा घटता अनुभाग होने कर स्थूल-स्थूल खण्ड करिये सो बादर कृष्टिकरण है। बादरकृष्टिकरण विधान के अन्तर्गत संज्वलन चतुष्क की अन्तरकृष्टि व संग्रहकृष्टि करता है। द्वितीयादि समयों में अपूर्व व पार्श्वकृष्टि करता है। जिसका विशेष आगे दिया गया है।
- संग्रह व अन्तरकृष्टि
क्ष.सा./४९४-५०० भाषा–एक प्रकार बँधता (बढ़ता) गुणाकार रूप जो अन्तरकृष्टि, उनके समूह का नाम संग्रहकृष्टि है।४९४। कृष्टिनि कै अनुभाग विषै गुणाकार का प्रमाण यावत् एक प्रकार बढ़ता भया तावत् सो ही संग्रहकृष्टि कही। बहुरि जहाँ निचली कृष्टि तै ऊपरली कृष्टि का गुणाकार अन्य प्रकार भया तहाँ तै अन्य संग्रहकृष्टि कही है। प्रत्येक संग्रहकृष्टि के अन्तर्गत प्रथम अन्तरकृष्टि से अन्तिम अन्तरकृष्टि पर्यन्त अनुभाग अनन्त अनन्तगुणा है। परन्तु सर्वत्र इस अनन्त गुणकार का प्रमाण समान है, इसे स्वस्थान गुणकार कहते हैं। प्रथम संग्रहकृष्टि के अन्तिम अन्तरकृष्टि से द्वितीय संग्रहकृष्टि की प्रथम अन्तरकृष्टि का अनुभाग अनन्तगुणा है। यह द्वितीय अनन्त गुणकार पहले वाले अनन्त गुणकार से अनन्तगुणा है, यही परस्थान गुणकार है। यह द्वितीय संग्रहकृष्टि की अन्तिम अन्तरकृष्टि का अनुभाग भी उसकी इस प्रथम अन्तरकृष्टि से अनन्तगुणा है। इसी प्रकार आगे भी जानना।४९८। संग्रहकृष्टि विषै जितनी अन्तरकृष्टि का प्रमाण होइ तिहि का नाम संग्रहकृष्टि का आयाम है।४९५। चारों कषायों की लोभ से क्रोध पर्यन्त जो १२ संग्रहकृष्टियाँ हैं उनमें प्रथम संग्रहकृष्टि से अन्तिम संग्रहकृष्टि पर्यन्त पल्य/अंस० भाग कम करि घटता संग्रहकृष्टि आयाम जानना।४९६। नौ कषाय सम्बंधी सर्वकृष्टि क्रोध की संग्रहकृष्टि विषै ही मिला दी गयी है।४९६। क्रोध के उदय सहित श्रेणी चढ़ने वाले के १२ संग्रह कृष्टि होती है। मान के उदय सहित चढ़ने वाले के ९; माया वाले के ६; और लोभवाले के केवल ३ ही संग्रहकृष्टि होती है, क्योंकि उनसे पूर्व पूर्व की कृष्टियाँ अपने से अगलियों में संक्रमण कर दी गयी है।४९७। अनुभाग की अपेक्षा १२ संग्रहकृष्टियों में लोभ की प्रथम अन्तरकृष्टि से क्रोध की अन्तिम अन्तरकृष्टि पर्यन्त अनन्त गुणित क्रम से (अन्तरकृष्टि का गुणकार स्वस्थान गुणकार है और संग्रहकृष्टि का गुणकार परस्थान गुणकार है जो स्वस्थान गुणकार से अनन्तगुणा है–(देखें - आगे कृष्ट्यन्तर ) अनुभाग बढ़ता बढ़ता हो है।४९९। द्रव्य की अपेक्षा विभाग करने पर क्रम उलटा हो जाता है। लोभ की जघन्य कृष्टि के द्रव्यतैं लगाय क्रोध की उत्कृष्टकृष्टि का द्रव्य पर्यन्त (चय हानि) हीन क्रम लिये द्रव्य दीजिये।५००।
- कृष्टयन्तर
क्ष.सा./४९९/भाषा—संज्वलन चतुष्क की १२ संग्रह कृष्टियाँ हैं। इन १२ की पंक्ति के मध्य में ११ अन्तराल है। प्रत्येक अन्तराल का कारण परस्थान गुणकार है। एक संग्रहकृष्टि की सर्व अन्तर कृष्टियाँ सर्वत्र एक गुणकार से गुणित हैं। यह स्वस्थान गुणकार है। प्रथम संग्रहकृष्टि की अन्तिम अन्तरकृष्टि से द्वितीय संग्रहकृष्टि की प्रथम अन्तरकृष्टि का अनुभाग अनन्तगुणा है। यह गुणकार पहले वाले स्वस्थान गुणकार से अनन्तगुणा है। यही परस्थान गुणकार है। स्वस्थान गुणकार से अन्तरकृष्टियों का अन्तर प्राप्त होता है और परस्थान गुणकार से संग्रहकृष्टि का अन्तर प्राप्त होता है। कारण में कार्य का उपचार करके गुणकार का नाम ही अन्तर है। जैसे अन्तराल होइ तितनी बार गुणकार होइ। तहाँ स्वस्थान गुणकारनिका नाम कृष्टयन्तर है और परस्थान गुणकारनि का नाम संग्रहकृष्टयन्तर है।
- पूर्व, अपूर्व, अधस्तन व पार्श्वकृष्टि
कृष्टिकरण की अपेक्षा
क्ष.सा./५०२ भाषा—पूर्व समय विषै जे पूर्वोक्त कृष्टि करी थी (देखें - संग्रहकृष्टि व अन्तरकृष्टि ) तिनि विषै १२ संग्रहकृष्टिनि की जे जघन्य (अन्तर) कृष्टि, तिनतै (भी) अनन्तगुणा घटता अनुभाग लिये, (ताकै) नीचे केतीक नवीन कृष्टि अपूर्व शक्ति लिये युक्त करिए है। याही तै इसका नाम अधस्तन कृष्टि जानना। भावार्थ–जो पहले से प्राप्त न हो बल्कि नवीन की जाये उसे अपूर्व कहते हैं। कृष्टिकरण काल के प्रथम समय में जो कृष्टियाँ की गयीं वे तो पूर्वकृष्टि हैं। परन्तु द्वितीय समय में जो कृष्टि की गयीं वे अपूर्वकृष्टि हैं, क्योंकि इनमें प्राप्त जो उत्कृष्ट अनुभाग है वह पूर्व कृष्टियों के जघन्य अनुभाग से भी अनन्तगुणा घटता है। अपूर्व अनुभाग के कारण इसका नाम अपूर्वकृष्टि है और पूर्व की जघन्य कृष्टि के नीचे बनायी जाने के कारण इसका नाम अधस्तनकृष्टि है। पूर्व समय विषै करी जो कृष्टि, तिनिके समान ही अनुभाग लिये जो नवीन कृष्टि, द्वितीयादि समयों में की जाती है वे पार्श्वकृष्टि कहलाती हैं, क्योंकि समान होने के कारण पंक्ति विषै, पूर्वकृष्टि के पार्श्व में ही उनका स्थान है।
- अधस्तन व उपरितन कृष्टि
कृष्टि वेदन की अपेक्षा
क्ष.सा./५१५/भाषा–प्रथम द्वितीयादि कृष्टि तिनको निचलीकृष्टि कहिये। बहुरि अन्त, उपान्त आदि जो कृष्टि तिनिको ऊपर ली कृष्टि कहिये। क्योंकि कृष्टिकरण से कृष्टिवेदन का क्रम उलटा है। कृष्टिकरण में अधिक अनुभाग युक्त ऊपरली कृष्टियों के नीचे हीन अनुभाग युक्त नवीन-नवीन कृष्टियाँ रची जाती हैं। इसलिए प्रथमादि कृष्टियाँ ऊपरली और अन्त उपान्त कृष्टियाँ निचली कहलाती हैं। उदय के समय निचले निषेकों का उदय पहले आता है और ऊपरलों का बाद में। इसलिए अधिक अनुभाग युक्त प्रथमादि कृष्टियें नीचे रखी जाती हैं, और हीन अनुभाग युक्त आगे की कृष्टियें ऊपर। अत: वही प्रथमादि ऊपर वाली कृष्टियें यहाँ नीचे वाली हो जाती है और नीचे वाली कृष्टियें ऊपरवाली बन जाती हैं।
- कृष्टिकरण विधान में अपकृष्ट द्रव्य का विभाजन
- कृष्टि द्रव्य—क्ष.सा./५०३/ भाषा–द्वितीयादि समयनिविषै समय समय प्रति असंख्यात गुणा द्रव्य को पूर्व अपूर्व स्पर्धक सम्बंधी द्रव्यतै अपकर्षण करै है। उसमें से कुछ द्रव्य तो पूर्व अपूर्व स्पर्धक को ही देवै है और शेष द्रव्य की कृष्टियें करता है। इस द्रव्य को कृष्टि सम्बंधी द्रव्य कहते हैं। इस द्रव्य में चार विभाग होते हैं–अधस्तन शीर्ष द्रव्य, अधस्तन कृष्टि द्रव्य, मध्य खण्ड द्रव्य, उभय द्रव्य विशेष।
- अधस्तन शीर्ष द्रव्य—पूर्व पूर्व समय विषैकरि कृष्टि तिनि विषै प्रथम कृष्टितै लगाय (द्रव्य प्रमाणका) विशेष घटता क्रम है। सो पूर्व पूर्व कृष्टिनि को आदि कृष्टि समान करने के अर्थ घटे विशेषनि का द्रव्यमात्र जो द्रव्य तहां पूर्व कृष्टियों में दीजिए वह अधस्तन शीर्ष विशेष द्रव्य है।
- अधस्तन कृष्टि द्रव्य—अपूर्व कृष्टियों के द्रव्य को भी पूर्व कृष्टियों की आदि कृष्टि के समान करने के अर्थ जो द्रव्य दिया सो अधस्तन कृष्टि द्रव्य है।
- उभय द्रव्य विशेष—पूर्व पूर्व कृष्टियों को समान कर लेने के पश्चात् अब उनमें स्पर्धकों की भाँति पुन: नया विशेष हानि उत्पन्न करने के अर्थ जो द्रव्य पूर्व व अपूर्व दोनों कृष्टियों को दिया उसे उभय द्रव्य विशेष कहते हैं।
- मध्य खण्ड द्रव्य—इन तीनों की जुदा अवशेष जो द्रव्य रहा ताकी सर्व कृष्टिनि विषै समानरूप दीजिए, ताकौ मध्यखण्ड द्रव्य कहते हैं।
इस प्रकार द्रव्य विभाजन में २३ उष्ट्रकूट रचना होती है।
- कृष्टि द्रव्य—क्ष.सा./५०३/ भाषा–द्वितीयादि समयनिविषै समय समय प्रति असंख्यात गुणा द्रव्य को पूर्व अपूर्व स्पर्धक सम्बंधी द्रव्यतै अपकर्षण करै है। उसमें से कुछ द्रव्य तो पूर्व अपूर्व स्पर्धक को ही देवै है और शेष द्रव्य की कृष्टियें करता है। इस द्रव्य को कृष्टि सम्बंधी द्रव्य कहते हैं। इस द्रव्य में चार विभाग होते हैं–अधस्तन शीर्ष द्रव्य, अधस्तन कृष्टि द्रव्य, मध्य खण्ड द्रव्य, उभय द्रव्य विशेष।
- उष्ट्र कूट रचना
क्ष.सा./५०५/भाषा—जैसे ऊँट की पीठ पिछाड़ी तौ ऊँची और मथ्य विषै नीची और आगै ऊँची और नीची हो है तैसे इहां (कृष्टियों में अपकृष्ट द्रव्य का विभाजन करने के क्रम में) पहले नवीन (अपूर्व) जघन्य कृष्टि विषै बहुत. बहुरि द्वितीयादि नवीन कृष्टिनि विषै क्रमतै घटता द्रव्य दै हैं। आगे पुरातन (पूर्व) कृष्टिनि विषै अधस्तन शीर्ष विशेष द्रव्य कर बँधता और अधस्तन कृष्टि द्रव्य अथवा उभय द्रव्य विशेषकरि घटता द्रव्य दीजियै है। तातै देयमान द्रव्यविषै २३ उष्ट्रकूट रचना हो है। (चारों कषायों में प्रत्येक की तीन इस प्रकार पूर्व कृष्टि १२ प्रथम संग्रह के बिना नवीन संग्रह कृष्टि ११)।
- दृश्यमान द्रव्य
क्ष.सा./५०५/भाषा—नवीन अपूर्व कृष्टि विषै तौ विवक्षित समय विषै दिया गया देय द्रव्य ही दृश्यमान है, क्योंकि, इससे पहले अन्य द्रव्य तहाँ दिया ही नहीं गया है, और पुरातन कृष्टिनिविषै पूर्व समयनिविषै दिया द्रव्य और विवक्षित समय विषै दिया द्रव्य मिलाये दृश्यमान द्रव्य हो है।
- स्थिति बन्धापसरण व स्थिति सत्त्वापसरण
क्ष.सा./५०६-५०७/भाषा–अश्वकर्ण काल के अन्तिम समय संज्वलन चतुष्क का स्थिति बन्ध आठ वर्ष प्रमाण था। अब कृष्टिकरण के अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त बराबर स्थिति बन्धापसरण होते रहने के कारण वह घटकर इसके अन्तिम समय में केवल अन्तर्मुहूर्त अधिक चार वर्ष प्रमाण रह गया। और अवशेष कर्मों की स्थिति संख्यात हजार वर्ष मात्र है। मोहनीय का स्थिति सत्त्व पहिले संख्यात हजार वर्ष मात्र था जो अब घटकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष मात्र रहा। शेष तीन घातिया का संख्यात हज़ार वर्ष और अघातिया का असंख्यात हज़ार वर्ष मात्र रहा।
- संक्रमण
क्ष.सा./५१२/भाषा–नवक समय प्रबद्ध तथा उच्छिष्टावली मात्र निषेकों को छोड़कर अन्य सर्व निषेक कृष्टिकरण काल के अन्त समय विषै ही कृष्टि रूप परिणमै हैं।
क्ष.सा./५१२/भाषा–अन्त समय पर्यन्त कृष्टियों के दृश्यमान द्रव्य की चय हानि क्रम युक्त एक गोपुच्छा और स्पर्धकनि की भिन्नचय हानि क्रम युक्त दूसरी गोपुच्छा है। परन्तु कृष्टिकाल की समाप्तता के अनन्तर सर्व ही द्रव्य कृष्टि रूप परिणमै एक गोपुच्छा हो है।
- घातकृष्टि
क्ष.सा./५२३/भाषा–जिन कृष्टिनि का नाश किया तिनका नाम घात कृष्टि है।
- कृष्टि वेदन का लक्षण व काल
क्ष.सा./५१०-५११/भाषा–दृष्टिकरण काल पर्यन्त क्षपक, पूर्व, अपूर्व स्पर्धकनि के ही उदय को भोगता है परन्तु इन नवीन उत्पन्न की हुई कृष्टिनि को नहीं भोगता। अर्थात् कृष्टिकरण काल पर्यन्त कृष्टियों का उदय नहीं आता। कृष्टिकरण काल के समाप्त हो जाने के अनन्तर कृष्टि वेदन काल आता है, तिस काल विषै तिष्ठति कृष्टिनि कौ प्रथम स्थितिकै निषैकनि विषै प्राप्त करि भोगवै है। तिस भोगवै ही का नाम कृष्टि वेदन है। इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है।
क्ष.सा./५१३/भाषा—कृष्टिकरण की अपेक्षा वेदन में उलटा क्रम है वहाँ पहले लोभ की और फिर माया, मान व क्रोध की कृष्टि की गयी थी। परन्तु यहाँ पहले क्रोध की, फिर मान की, फिर माया की, और फिर लोभ की कृष्टि का वेदन होने का क्रम है। (ल.सा./५१३) कृष्टिकरण में तीन संग्रह कृष्टियों में से वहाँ जो अन्तिम कृष्टि थी वह यहाँ प्रथम कृष्टि है और वहाँ जो प्रथम कृष्टि थी वह यहाँ अन्तिम कृष्टि है, क्योंकि पहले अधिक अनुभाग युक्त कृष्टि का उदय होता है पीछे हीन हीन का।
- क्रोध की प्रथम कृष्टि वेदन
क्ष.सा./५१४-५१५/भाषा—अब तक अश्वकर्ण रूप अनुभाग का काण्डक घात करता था, अब समय प्रतिसमय अनन्तगुणा घटता अनुभाग होकर अपवर्तना करै है। नवीन कृष्टियों का जो बन्ध होता है वह भी पहिले से अनन्तगुणा घात अनुभाग युक्त होता है।
क्ष.सा./५१५/भाषा—क्रोध की कृष्टि के उदय काल में मानादि की कृष्टि का उदय नहीं होय है।
क्ष.सा./५१८/भाषा—प्रतिसमय बन्ध व उदय विषै अनुभाग का घटना हो है।
क्ष.सा./५२२-५२६/भाषा—अन्य कृष्टियों में संक्रमण करके कृष्टियों का अनुसमयापवर्तना घात करता है।
क्ष.सा./५२७-५२८/भाषा—कृष्टिकरणवत् मध्यखण्डादिक द्रव्य देनेकरि पुन: सर्व कृष्टियों को एक गोपुच्छाकार होता है।
क्ष.सा./५२९-५३५/भाषा—संक्रमण द्रव्य तथा नवीन बन्धे द्रव्य में यहाँ भी कृष्टिकरणवत् नवीन संग्रह व अन्तरकृष्टि अथवा पूर्व व अपूर्व कृष्टियों की रचना करता है। तहाँ इन नवीन कृष्टियों में कुछ तो पहली कृष्टियों के नीचे बनती है और कुछ पहले वाली पंक्तियों के अन्तरालों में बनती है।
क्ष.सा./५३६-५३८/भाषा—पूर्व, अपूर्व कृष्टियों के द्रव्य का अपकर्षण द्वारा घात करता है।
क्ष.सा./५३९-५४०/भाषा—क्रोध कृष्टिवेदन के पहले समय में ही स्थिति बन्धापसरण व स्थितिसत्त्वासरण द्वारा पूर्व के स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व को घटाता है। तहाँ संज्वलन चतुष्क का स्थितिबन्ध ४ वर्ष से घटकर ३ मास १० दिन रहता है। शेष घाती का स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष से घटकर अन्तर्मुहूर्त घात दशवर्षमात्र रहता है और अघाती कर्मों का स्थितिबन्ध पहिले से संख्यातगुणा घटता संख्यात हज़ार वर्ष प्रमाण रहा। स्थितिसत्त्व भी घातिया का संख्यात हज़ार और अघातिया का असंख्यात हज़ार वर्ष मात्र रहा।
क्ष.सा./५४१-५४३/भाषा—क्रोधकृष्टि वेदन के द्वितीयादि समयों में भी पूर्ववत् कृष्टिघात व नवीन कृष्टिकरण, तथा स्थितिबन्धापसरण आदि जानने।
क्ष.सा./५४४-५५४/भाषा—क्रोध की द्वितीयादि कृष्टियों के वेदना का भी विधान पूर्ववत् ही जानना।
- मान, माया व लोभ का कृष्टिवेदन
क्ष.सा./५५५-५६२/भाषा—मान व माया की ६ कृष्टियों का वेदन भी क्रोधवत् जानना।
क्ष.सा./५६३-५६४/भाषा—क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि के वेदन काल में उसकी द्वितीय व तृतीय संग्रहकृष्टि से द्रव्य का अपकर्षणकर लोभ की सूक्ष्म कृष्टि करै है।
इस समय केवल संज्वलन लोभ का स्थितिबंध हो है। उसका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व यहाँ आकर केवल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रह जाता है। तीन घातियानि का स्थितिबन्ध पृथक्त्व दिन और स्थिति सत्व संख्यात हज़ार वर्ष मात्र रहता है। अघातिया प्रकृतियों का स्थितिबन्ध पृथक्त्व वर्ष और स्थितिसत्त्व यथायोग्य असंख्यात वर्ष मात्र है।
क्ष.सा./५७९-५८९/भाषा—लोभ की द्वितीय संग्रहकृष्टि की प्रथम स्थिति विषै समय अधिक आवली अवशेष रहे अनिवृत्तिकरण का अन्त समय हो है। तहाँ लोभ का जघन्य स्थिति बन्ध व सत्त्व अन्तर्मुहूर्त मात्र है। यहाँ मोह बन्ध की व्युच्छित्ति भई। तीन घातिया का स्थितिबन्ध एक दिन से कुछ कम रहा। और सत्त्व यथायोग्य संख्यात हजार वर्ष रहा। तीन अघातिया का (आयु के बिना) स्थिति सत्त्व यथा योग्य असंख्यात वर्ष मात्र रहा।
क्ष.सा./५८२/भाषा—अनिवृत्तिकरण का अन्त समय के अनन्तर सूक्ष्म कृष्टि को वेदता हुआ सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान को प्राप्त होता है।
- सूक्ष्म कृष्टि
क्ष.सा./४९० की उत्थानिका (लक्षण)—संज्वलन कषायनि के स्पर्धकों की जो बादर कृष्टियें; उनमें से प्रत्येक कृष्टिरूप स्थूलखंड का अनन्तगुणा घटता अनुभाग करि सूक्ष्म-सूक्ष्म खण्ड करिये जो सूक्ष्म कृष्टिकरण है।
क्ष.सा./५६५-५६६/भाषा—अनिवृत्तिकरण के लोभ की प्रथम संग्रह कृष्टि के वेदन काल में द्वितीय व तृतीय संग्रहकृष्टि से द्रव्य को अपकर्षण करि लोभ की नवीन सूक्ष्मकृष्टि करै है, जिसका अवस्थान लोभ की तृतीय बादर संग्रह कृष्टि के नीचे है। सो इसका अनुभाग उस बादर कृष्टि से अनन्तगुणा घटता है। और जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त अनन्तगुणा अनुभाग लिये है।
क्ष.सा./५६९-५७१/भाषा—तहाँ ही द्वितीयादि समयविषै अपूर्व सूक्ष्म कृष्टियों की रचना करता है। प्रति समय सूक्ष्मकृष्टि को दिया गया द्रव्य असंख्यातगुणा है। तदनन्तर इन नवीन रचित कृष्टियों में अपकृष्ट द्रव्य देने करि यथायोग्य घट-बढ़ करके उसकी विशेष हानिक्रम रूप एक गोपुच्छा बनाता है।
क्ष.सा./५७९/भाषा—अनिवृत्तिकरण काल के अन्तिम समय में लोभ की तृतीय संग्रहकृष्टि का तो सारा द्रव्य सूक्ष्मकृष्टि रूप परिणम चुका है और द्वितीय संग्रहकृष्टि में केवल समय अधिक उच्छिष्टावली मात्र निषेक शेष है। अन्य सर्व द्रव्य सूक्ष्मकृष्टि रूप परिणमा है।
क्ष.सा./५८२/भाषा—अनिवृत्तिकरण का अन्त समय के अनन्तर सूक्ष्मकृष्टि को वेदता हुआ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान को प्राप्त होता है। तहां सूक्ष्म कृष्टि विषै प्राप्त् मोह के सर्व द्रव्य का अपकर्षण कर गुणश्रेणी करै है।
क्ष.सा./५९७/भाषा—मोह का अन्तिम काण्डक का घात हो जाने के पश्चात् जो मोह की स्थितिविशेष रही, तो प्रमाण ही अब सूक्ष्मसाम्पराय का काल भी शेष रहा, क्योंकि एक एक निषेक को अनुभवता हुआ उनका अन्त करता है। इस प्रकार सूक्ष्म साम्पराय के अन्त समय को प्राप्त होता है।
क्ष.सा./५९८-६००/भाषा—यहाँ आकर सर्व कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध होता है। तीन घातिया का स्थिति सत्त्व अन्तर्मुहूर्त मात्र रहा है। मोह का स्थिति सत्त्व क्षय के सन्मुख है। अघातिया का स्थिति सत्त्व असंख्यात वर्ष मात्र है। याके अनन्तर क्षीणकषाय गुणस्थान में प्रवेश करै है - साम्प्रतिक कृष्टि
क्ष.सा./५१९/भाषा—साम्प्रतिक कहिए वर्तमान उत्तर समय सम्बन्धी अन्त की केवल उदयरूप उत्कृष्ट कृष्टि हो है।
- जघन्योत्कृष्ट कृष्टि
क्ष.सा./५२१/भाषा—जै सर्व तै स्तोक अनुभाग लिये प्रथम कृष्टि सो जघन्य कृष्टि कहिये। सर्व तै अधिक अनुभाग लिये अन्तकृष्टि सो उत्कृष्ट कृष्टि हो है।