मासैकवासता
From जैनकोष
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/616/7 ऋतुषु षट्सु एकैकमेव मासमेकत्र वसतिरन्यदा विहरति इत्ययं नवम: स्थितिकल्प:। एकत्र चिरकालावस्थाने नित्यमुद्गमदोषं च न परिहर्तुंक्षम:। क्षेत्रप्रतिबद्धता, सातगुरुता, अलसता, सौकुमार्यभावना, ज्ञातभिक्षाग्राहिता च दोषा:। = वसन्तादिक छहों ऋतुओं में से एकेक ऋतु में एक मास पर्यन्त एक स्थान में मुनि निवास करते हैं और एक मास विहार करते हैं, यह 9वीं स्थिति कल्प है। एक ही स्थान में चिरकाल रहने से उद्गमादि दोषों का परिहार नहीं हो सकता। वसतिका पर प्रेम, सुख में लम्पटता, आलस्य, सुकुमारता की भावना आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं। जिनके यहाँ पूर्व में आहार लिया था उनके यहाँ पुनरपि आहार लेना पड़ता है। इसलिए मुनि एक स्थान में चिरकाल तक नहीं ठहरते।