मंगल
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
एक ग्रह। देखें ग्रह । लोक में अवस्थान–देखें ज्योतिष लोक - 2।
पाप-विनाशक व पुण्य-प्रकाशक भाव तथा द्रव्य-नमस्कार आदि मंगल हैं। निर्विघ्नरूप से शास्त्र की या अन्य लौकिक कार्यों की समाप्ति व उनके फल की प्राप्ति के लिए सर्व कार्यों के आदि में तथा शास्त्र के मध्य व अंत में मंगल करने का आदेश है।
- मंगल के भेद व लक्षण
- अष्टमंगल द्रव्य।–देखें चैत्य - 1.11।
- मंगल निर्देश व तद्गत शंकाएँ
- मंगल के छह अधिकार।
- मंगल का सामान्य फल व महिमा।
- तीन बार मंगल करने का निर्देश व उसका प्रयोजन।
- लौकिक कार्यों में मंगल करने का नियम है, पर शास्त्र में वह भाज्य है।
- स्वयं मंगलस्वरूप शास्त्र में भी मंगल करने की क्या आवश्यकता ?
- मंगल व निर्विघ्नता में व्यभिचार संबंधी शंका।
- मंगल करने से निर्विघ्नता कैसे ?
- लौकिक मंगलों को मंगल कहने का कारण।
- मिथ्यादृष्टि आदि सभी जीवों में कथंचित् मंगलपना।
- मंगल के छह अधिकार।
- मंगल के भेद व लक्षण
- मंगल सामान्य का लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/1/8-17 पुण्णं पूदपवित्ता पसत्थसिवभद्दखेमकल्लाणा। सुहसोक्खादी सव्वे णिद्दिट्ठा मंगलस्स पज्जाया।8। गालयदि विणासयदे घादेदि दहेदि हंति सोधयदे। विद्धंसेदि मलाइं जम्हा तम्हा य मंगलं भणिदं।9। अहवा मंगं सोक्खं लादि हु गेण्हेदि मंगलं तम्हा। एदेण कज्जसिद्धिं मंगइ गच्छेदि गंथकत्तारो।15। पुव्वं आइरिएहिं मंगलपुव्वं च वाचिदं भणिदं। तं लादि हु आदत्ते जदो तदो मंगलं पवरं।16। पावं मलं ति भण्णइ उवचारसरूवएण जीवाणं। तं गालेदि विणासं णेदि त्ति भणंति मंगलं केई।17।- पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ और सौख्य इत्यादिक सब मंगल के ही पर्यायवाची शब्द हैं।8। ( धवला 1/1,1,1/31/10 )
- क्योंकि यह [ज्ञानावरणादि, द्रव्यमल और अज्ञान-अदर्शन आदि भावमल―(देखें मल - 1)] मलों को गलाता है, विनष्ट करता है, घातता है, दहन करता है, हनता है, शुद्ध करता है और विध्वंस करता है, इसलिए इसे ‘मंगल’ कहा गया है।9। ( धवला 1/1,1,1,/32/5 ); ( धवला 9/4,1,1/10 )।
- अथवा चूंकि यह मंग को अर्थात् सुख या पुण्य को लाता है, इसलिए भी इसे मंगल समझना चाहिए।15। ( धवला 1/1,1,1/ श्लो.16/33); ( धवला 1/1,1,1/33/5 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/5/5 )।
- इसी के द्वारा ग्रंथकर्ता अपने कार्य की सिद्धि पर पहुँच जाता है।15। पूर्व में आचार्यों द्वारा मंगलपूर्वक ही शास्त्र का पठन-पाठन हुआ है। उसी को निश्चय से लाता है अर्थात् ग्रहण करता है, इसलिए यह मंगल श्रेष्ठ है।16। ( धवला 1/1,1,1/34/3 )।
- जीवों के पाप को उपचार से मल कहा जाता है। उसे यह मंगल गलाता है, विनाश को प्राप्त कराता है, इस कारण भी कोई आचार्य इसे मंगल कहते हैं।17।( धवला 1/1,1,1/ श्लो.17/34); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/5/5 )।
- मंगल के भेद
तिलोयपण्णत्ति/1/18 णामणिट्ठावणा दव्वखेत्ताणि कालभावा य। इय छब्भेयं भणियं मंगलमाणंदसंजणणं।18। =- आनंद को उत्पन्न करने वाला यह मंगल नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इस प्रकार छह भेदरूप कहा गया है।18। ( धवला 1/1,1,1,/10/4 )।
धवला 1/1,1,1/39/3 कतिविधं मंगलम्। मंगलसामान्यात्तदेकविधम्, मुख्यामुख्यभेदतो द्विविधम्, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभेदात् त्रिविधं मंगलम्, धर्मसिद्धसाध्वर्हद्भेदाच्चतुर्विधम्, ज्ञानदर्शनत्रिगुप्तिभेदात् पंचविधम्, ‘णमो जिणाणं’ इत्यादिनानेकविधं वा।= - मंगल कितने प्रकार का है? मंगल-सामान्य की अपेक्षा मंगलएक प्रकार का है।
- मुख्य और गौण के भेद से दो प्रकार का है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/5/9 )।
- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के भेद से तीन प्रकार का है।
- धर्म, सिद्ध, साधु और अर्हंत के भेद से चार प्रकार का है।
- ज्ञान, दर्शन और तीन गुप्ति के भेद से पाँच प्रकार का है।
- अथवा ‘जिनेंद्रदेव को नमस्कार हो’ इत्यादि रूप से अनेक प्रकार का है।
धवला 1/1,1,1/41/5 तच्च मंगलं दुविहं णिबद्धमणिबद्धमिदि। = - वह मंगल दो प्रकार का है, निबद्धमंगल और अनिबद्ध मंगल। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/5/23 )।
- आनंद को उत्पन्न करने वाला यह मंगल नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इस प्रकार छह भेदरूप कहा गया है।18। ( धवला 1/1,1,1,/10/4 )।
- नाम स्थापनादि मंगल के लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/1/19-27 अरहाणं सिद्धाणं आइरियउबज्झियाइसाहूणं। णामाइं णाममंगलमुद्दिट्ठं वीयराएहिं।19। ठवणमंगलमेदं अकट्टिमाकट्टिमाणि जिणबिंबा। सूरिउवज्झयसाहूदेहाणि हु दव्वमंगलयं।20। गुणपरिदासणं परिणिक्कमणं केवलस्स णाणस्स। उप्पत्ती इयपहुदी बहुभेयं खेत्तमंगलयं।21। एदस्स उदाहरणं पावाणगरुज्जयंतचंपादी। आउट्ठहत्थपहुदी पणुवीसब्भहियपणसयधणूणि।22। देवअवट्ठिदकेवलणाणावट्ठद्धगयणदेसो वा। सेढिघणमेत्तअप्पप्पदेसगदलोयपूरणापुण्णा।23। विस्साणं लोयाणं होदि पदेसा वि मंगलं खेत्तं। जस्सि काले केवलणाणादिमंगलं परिणमति। 24। परिणिक्कमणं केवलणाणुब्भवणिव्वुदिप्पवेसादी। पावमलगालणादो पण्णत्तं कालमंगलं एदं।25। एवं अणेयभेयं हवेदि तं कालमंगलं पवरं। जिणमहिमासंबंधं णंदीसुरदीवपहुदीओ।26। मंगलपज्जाएहिं उवलक्खियजीवदव्वमेत्तं च। भावं मंगलमेदं।27। = वीतराग भगवान् के अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन नामों को नाममंगल कहा है।19। जिन भगवान् के जो अकृत्रिम और कृत्रिम प्रतिबिंब हैं, वे सब स्थापना मंगल हैं। तथा आचार्य उपाध्याय साधु के शरीर द्रव्य मंगल हैं।20। गुणपरिणत आसन-क्षेत्र अर्थात् जहाँ पर योगासन, वीरासन आदि विविध आसनों से तदनुकूल ध्यानाभ्यास आदि अनेक गुण प्राप्त किये गये हों ऐसा क्षेत्र, दीक्षा का क्षेत्र, केवलज्ञानोत्पत्तिका क्षेत्र इत्यादि रूप से क्षेत्रमंगल बहुत प्रकार का है।21। इस क्षेत्रमंगल के उदाहरण पावानगर, ऊर्जयंत (गिरनार पर्वत) और चंपापुर आदि हैं। अथवा साढ़े तीन हाथ से लेकर 525 धनुषप्रमाण शरीर में स्थित और केवलज्ञान से व्याप्त आकाशप्रदेशों को क्षेत्रमंगल समझना चाहिए। अथवा जगच्छ्रेणी के घनमात्र अर्थात् लोकप्रमाण आत्मा के प्रदेशों से लोकपूरणसमुद्घात द्वारा पूरित सभी (ऊर्ध्व, अधो व तिर्यक्) लोकों के प्रदेश भी क्षेत्रमंगल हैं।22-24। जिस काल में जीव केवलज्ञानादिरूप मंगलपर्याय को प्राप्त करता है उसको तथा दीक्षाकाल, केवलज्ञान के उद्भवका काल, और निर्वाणकाल ये सब पापरूपी मल के गलाने का कारण होने से कालमंगल कहा गया है।24-25। इस प्रकार जिनमहिमा से संबंध रखनेवाला कालमंगल अनेक भेदरूप है, जैसे नंदीश्वर द्वीप संबंधी पर्व आदि।25-26। वर्तमान में मंगलरूप पर्यायों से परिणत जो शुद्ध जीव द्रव्य है (अर्थात् पंचपरमेष्ठी की आत्माएँ) वह भावमंगल है।27। ( धवला 1/1,1,1/28-29 ); (विशेष देखें निक्षेप )।
देखें निक्षेप /5/7 (सरसों, पूर्णकलश आदि अचित्त, पदार्थ, अथवा बालकन्या व उत्तम घोड़ा आदि सचित्त पदार्थ अथवा अलंकारसहित कन्या आदि मिश्र पदार्थ ये सब लौकिक नोकर्म तद्वयतिरिक्त द्रव्यमंगल हैं। पंच परमेष्ठीका अनादिअनंत जीवद्रव्य, कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालय तथा साधुसंघ सहित चैत्यालयादि ये सब क्रम से सचित्त, अचित्त व मिश्र लोकोत्तर नोकर्म तद्वयतिरिक्त द्रव्यमंगल हैं। जीव-निबद्ध तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म कर्मतद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यमंगल है)। - निबद्धानिबद्धादि मंगलों के लक्षण
धवला 1/1,1,1/41/5 तत्थ णिबद्धं णाम, जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धदेवदाणमोक्कारो तं णिबद्धमगलं। जो सुत्तस्सादीए सुत्तारेण कयदेवदाणमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं। = जो ग्रंथ के आदि में ग्रंथकार के द्वारा इष्टदेवता नमस्कार निबद्ध कर दिया जाता है अर्थात् श्लोकादिरूप में रचकर लिख दिया जाता है, उसे निबद्धमंगल कहते हैं। और जो ग्रंथ के आदि में ग्रंथकार द्वारा देवता को नमस्कार किया जाता है [अर्थात् लिपिबद्ध नहीं किया जाता ( धवला 2/ प्र.34) बल्कि शास्त्र लिखना या बांचना प्रारंभ करते समय मन, वचन, काय से जो नमस्कार किया जाता है] उसे अनिबद्ध मंगल कहते हैं। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/5/24 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/5/10 तत्र मुख्यमंगलं कथ्यते, आदौ मध्येऽवसाने च मंगलं भाषितं बुधै:। तज्जिनेंद्रगुणस्तोत्रं तदविघ्नप्रसिद्धये।1। अमुख्यमंगलं कथ्यते–सिद्धत्थ पुण्णकुंभो वंदणमाला य पुंडुरं छत्तं। सेदो वण्णो आदस्स णाय कण्णा य जत्तस्सो।1। = ज्ञानियों द्वारा शास्त्र के आदि, मध्य व अंत में विघ्न-निवारण के लिए जो जिनेंद्र देवका गुणस्तवन किया जाता है, वह मुख्य मंगल है और पीली सरसों, पूर्ण कलश, वंदनमाला, छत्र, श्वेत वर्ण, दर्पण, उत्तम जाति का घोड़ा आदि ये अमुख्यमंगल हैं। (इन्हें मंगल क्यों कहा जाता है, इसके लिए देखो मंगल/2/8)।
- मंगल सामान्य का लक्षण
- मंगल निर्देश व तद्गत शंकाएँ
- मंगल के छह अधिकार
धवला 1/1,1,1/39/6 मंगलम्हि छ अहियाराएँ दंडा वत्तव्वा भवंति। तं जहा, मंगलं मंगलकत्ता मंगलकरणीयं मंगलोवायो मंगलविहाणं मंगलफलमिदि। एदेसिं छण्हं पि अत्थो उच्चदे। मंगलत्थो पुव्वुत्ती। मंगलकत्ता चोद्दस्सविज्जाट्ठाणपारओ आइरियो। मंगलकरणीय भव्वजणो। मंगलोवायो तिरयणसाहणाणि। मंगलविहाण एयविहादि पुव्वुत्तं। = मंगल के विषय में छह अधिकारों द्वारा दंडकों का कथन करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं–- मंगल,
- मंगलकर्ता,
- मंगल करने योग्य,
- मंगल का उपाय,
- मंगल के भेद, और
- मंगल का फल है। अब इन छह अधिकारों का अर्थ कहते हैं। मंगल का लक्षण तो पहले कहा जा चुका है (देखें मंगल - 1.1)। चौदह विद्यास्थानों के पारगामी आचार्य परमेष्ठी (यहाँ भूतबली आचार्य) मंगलकर्ता हैं। भव्यजन मंगल करने योग्य हैं। रत्नत्रयी साधक सामग्री (आत्माधीनता व मन, वचन, काय की एकाग्रता आदि) मंगल का उपाय है। एक प्रकार का, दो प्रकार का आदि रूप से मंगल के भेद पहले कह आये हैं। (देखें मंगल - 1.2)। मंगल का फल आगे कहेंगे (देखें मंगल - 2.2)।
- मंगल का सामान्य फल व महिमा
तिलोयपण्णत्ति/1/30-31 णासदि विग्घं भेददि मंहो दुट्ठा सुरा ण लंघंति। इट्ठो अत्थो लब्भइ जिणणामग्गहणमेत्तेण।30। सत्थादिमज्झअवसाणएसु जिणतोत्तमंगलुच्चारो। णासइ णिस्सेसाइं विग्धाइं रवि व्व तिमिराइं।31। = जिन भगवान् के नाम के ग्रहण करने मात्र से विघ्न नष्ट हो जाते हैं, पाप खंडित होता है, दुष्ट देव लाँघ नहीं सकते अर्थात् किसी प्रकार का उपद्रव नहीं कर सकते और इष्ट अर्थ की प्राप्ति होती है।30। शास्त्र के आदि मध्य और अंत में किया गया जिनस्तोत्ररूप मंगल का उच्चारण संपूर्ण विघ्नों को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार सूर्य अंधकार को।31। ( धवला 1/1,1,1/ गा.21-22/41); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/5/10 पर उद्धृत 2 गाथाएँ)।
आप्तपरीक्षा/ मू./2 श्रेयोमार्गस्य संसिद्धि: प्रसादात्परमेष्ठिन:। इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुंगवा:। = अर्हत्परमेष्ठी के प्रसाद से मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है, इसलिए प्रधान मुनियों ने शास्त्र के प्रारंभ में अर्हत् परमेष्ठी गुणों की स्तुति की है।
धवला 1/1,1,1/39/1 मंगलफलं देहिंतो कयअब्भुदयणिस्सेयसमुहाइत्तं। = मंगलादिक से प्राप्त होने वाले अभ्युदय और मोक्षसुख के अधीन मंगल का फल है। - तीन बार मंगल करने का निर्देश व उसका प्रयोजन
तिलोयपण्णत्ति/1/28-29 पुव्विल्लाइरिएहिं उत्तो सत्थाण मंगलं जो सो। आइम्मि मज्झअवसाणि य सणियमेण कायव्वो।28। पढमे मंगलवयणे सित्था सत्थस्स पारगा होंति। मज्झिम्मे णीविग्घं विज्जा विज्जाफलं चरिमे।29। = पूर्वकालीन आचार्यों ने जो शास्त्रों का मगंल कहा है उस मंगल को नियम से शास्त्रों के आदि, मध्य और अंत में करना ही चाहिए।28। शास्त्र के आदि में मंगल के पढ़ने पर शिष्य लोग शास्त्र के पारगामी होते हैं, मध्य में मंगल के करने पर निर्विघ्न विद्या की प्राप्ति होती है और अंत में मगंल के करने पर विद्या का फल प्राप्त होता है।29। ( धवला 1/1,1,1,/ गा.19-20/40); ( धवला 9/4,1,1/ गा.2/4)।
देखें मंगल - 2.2 (शास्त्र के आदि में मंगल करने से समस्त विघ्नों का नाश तथा मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है)।
द्रव्यसंग्रह टीका/1/6/5 पर उद्धृत–‘नास्तिकत्वपरिहार: शिष्टाचारप्रपालनम्। पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्न: शास्त्रदौ तेन संस्तुति:।2। = नास्तिकता का त्याग, सभ्य पुरुषों के आचरण का पालन, पुण्य की प्राप्ति और विघ्न-विनाश इन चार लाभों के लिए शास्त्र के आरंभ में इष्ट देवता की स्तुति की जाती है।
धवला 1/1,1,1/40/4 तिसुट्ठाणेसु मंगलं किमट्ठं वुच्चदे। कयकोउयमंगल-पायच्छित्ता विणयोबगया सिस्सा अज्झेदारो सोदारो वत्तारी आरोग्गमविग्घेण विज्जं विज्जाफलं हि पावेंतु त्ति। = प्रश्न–तीन स्थानों में मंगल करने का उपदेश किसलिए दिया गया ? उत्तर–मंगल संबंधी आवश्यक कृतिकर्म करने वाले तथा मंगल संबंधी प्रायश्चित्त करने वाले तथा विनय को प्राप्त ऐसे शिष्य, अध्येता (शास्त्र पढ़नेवाला), श्रोता और वक्ता क्रम से आरोग्य को, निर्विघ्नरूप से विद्या को तथा विद्या के फल को प्राप्त हों, इसलिए तीनों जगह मंगल करने का उपदेश दिया गया है। - लौकिक कार्यों में मंगल करने का नियम है, पर शास्त्र में वह भाज्यहै
कषायपाहुड़/1/1-1/2-4/5-9 2 . संपहि (पदि) गुणहरभडारएण गाहासुत्ताणमादीए जइवसहत्थेरेण वि चुण्णिसुत्तस्स आदीए मंगलं किण्ण कयं। ण एस दोसो; मंगलं हि कीरदे पारद्धकज्जविग्घयरकम्मविणासणट्ठं। तं च परमागमुवजोगादो चेव णस्सदि। ण चेदमसिद्धं; सुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो। ...ण च कम्मक्खए संते पारद्धकज्जविग्घस्स विज्जाफलाणुव(व)त्तीए वा संभवो; विरोहादो। ण च सद्दाणुसारिसिस्साणं देवदाविसयभक्तिसमुप्पायणट्ठं तं कीरदे: तेण विणा वि गुरुवयणादो चेव तेसिं तदुप्पदिदंसणादो ...।3. पुण्णकम्मबंधत्थीणं देसव्वयाणं मंगलकरणं जुत्तं ण मुणीणं कम्मक्खयकंवखुवाणमिदि ण वोत्तुं जुत्तं; पुण्णबंधहेउत्तं पडिविसेसाभावादो ...। 4. तेण सोवण-भोयण-पयाण-पच्चावणसत्थपारंभादिकिरियासु णियमेण अरहंतणमोक्कारो कायव्वो त्ति सिद्धं। ववहारणयमस्सिदूण गुणहारभडारयस्स पुण एसो अहिप्पाओ, जहा-कीरउ अण्णत्थ सव्वत्थ णियमेण अरहंतणमोकारो, मंगलफलस्स पारद्धकिरियाए अणुवलंभादो। एत्थ पुण णियमो णत्थि, परमागमुवजोगम्मि णियमेण मंगलफलोवलंभादो। = प्रश्न–गुणधर भट्टारकने गाथासूत्रों के आदि में तथा यतिवृषभ आचार्य ने भी चूर्णसूत्रों के आदि में मंगल नहीं किया।उत्तर–यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, प्रारंभ किये हुए कार्य में विघ्नकारक कर्मों के विनाशार्थ मंगल किया जाता है और वे परमागम के उपयोग से ही नष्ट हो जाते हैं। यह बात असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि यदि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाये तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता।प्रश्न–इस प्रकार यद्यपि कर्मों का क्षय हो जाता है पर फिर भी प्रारंभ किये हुए कार्य में विघ्नों की और विद्या के फल की प्राप्ति न होने की संभावना तो बनी ही रहती है।उत्तर–नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है (कर्मों का अभाव हो जाने पर विघ्नों की उत्पत्ति संभव नहीं; क्योंकि, कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती)।प्रश्न–शब्दानुसारी शिष्य में देवताविषयक भक्ति उत्पन्न कराने के लिए शास्त्र के आदि में मंगल अवश्य करना चाहिए।उत्तर–नहीं; क्योंकि मंगल के बिना भी केवल गुरुवचन से ही उनमें वह भक्ति उत्पन्न हो जाती है।प्रश्न–पुण्यकर्म बाँधने के इच्छुक देशव्रतियों को मंगल करना युक्त है, किंतु कर्मों के क्षय के इच्छुक मुनियों को मंगल करना युक्त नहीं, यदि ऐसा कहो तो ? उत्तर- नहीं; क्योंकि, पुण्यबंध के कारण के प्रति उन दोनों में कोई विशेषता नहीं है। 2. इसलिए सोना, खाना, जाना, आना और शास्त्र का प्रारंभ करना आदि क्रियाओं में अरहंत नमस्कार अवश्य करना चाहिए। किंतु व्यवहारनय की दृष्टि से गुणधर भट्टारक का यह अभिप्राय है, कि परमागम के अतिरिक्त अन्य सब क्रियाओं में अरहंत नमस्कार नियम से करना चाहिए, क्योंकि, अरहंत नमस्कार किये बिना प्रारंभ की हुई क्रिया में मंगल का फल नहीं पाया जाता। किंतु शास्त्र के प्रारंभ में मंगल करने का नियम नहीं है; क्योंकि, परमागम के उपयोग में ही मंगल का फल नियम से प्राप्त हो जाता है।
- स्वयं मंगल स्वरूप शास्त्र में भी मंगल करने की क्या आवश्यकता
धवला 1/1,1,1/41/10 सुत्तं किं मंगलमुद अमंगलमिदि। जदि ण मंगलं, ण तं सुत्तं पावकारणस्स सुत्तत्तविरोहादो। अह मंगलं, किं तत्थ मंगलेण एगदो चेय कज्जणिप्पत्तीदो इदि। ण ताव सुत्तं ण मंगलमिदि। तारिस्सपइज्जाभावादो परिसेसादो मंगलं स। सुत्तस्सादीए मंगलं पढिज्जदि, ण पुव्वत्तदोसो वि दोण्हं पि पुध पुध विणासिज्जमाणपावदंसणादो। पढणविग्घविद्दावणं मंगलं। सुत्तं पुण समयं पडि असंखेज्जगुणसेढीए पावं गालिय पच्छा सव्वकम्मक्खयकारणमिदि। देवतानमस्कारोऽपि चरमावस्थायां कृत्स्नकर्मक्षयकारीति द्वयोरप्येककार्यकर्तृत्वमिति चेन्न, सूत्रविषयपरिज्ञानमंतरेण तस्य तथाविधसामर्थ्याभावात्। शुक्लध्यानान्मोक्ष:, न च देवतानमस्कार: शुक्लध्यानमिति। = प्रश्न–सूत्र-ग्रंथ स्वयं मंगलरूप हैं, या अमंगलरूप ? यदि सूत्र स्वयं मंगलरूप नहीं है तो वह सूत्र भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, मंगल के अभाव में पाप का कारण होने से उसका सूत्रपने से विरोध पड़ जाता है। और यदि सूत्र स्वयं मंगल स्वरूप है, तो फिर उसमें अलग से मंगल करने की क्या आवश्यकता है; क्योंकि, मगंलरूप एक सूत्र-ग्रंथ से ही कार्य की निष्पत्ति हो जाती है ? और यदि कहा जाय कि यह सूत्र नहीं है, अतएव मंगल भी नहीं है, तो ऐसा तो कहीं कहा नहीं गया कि यह सूत्र नहीं है। अतएव यह सूत्र है और परिशेष न्याय से मंगल भी है। तब फिर इसमें अलग से मंगल क्यों किया गया ? उत्तर–सूत्र के आदि में मंगल किया गया है तथापि पूर्वोक्त दोषनहीं आता है; क्योंकि, सूत्र और मंगल इन दोनों से पृथक्-पृथक् रूप में पापों का विनाश होता हुआ देखा जाता है। निबद्ध और अनिबद्ध मंगल पठन में आने वाले विघ्नों को दूर करता है, और सूत्र प्रतिसमय असंख्यात गुणित श्रेणीरूप से पापों का नाश करके उसके पश्चात् संपूर्ण कर्मो के क्षय का कारण होता है।प्रश्न–देवता-नमस्कार भी अंतिम अवस्था में संपूर्ण कर्मों का क्षय करने वाला होता है, इसलिए मंगल और सूत्र दोनों ही एक कार्य को करने वाले हैं, फिर दोनों का कार्य भिन्न-भिन्न क्यों बतलाया गया ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि, सूत्रकथित विषय के परिज्ञान के बिना केवल देवता-नमस्कार में कर्मक्षय की सामर्थ्य नहीं है। मोक्ष की प्राप्ति शुक्लध्यान से होती है, परंतु देवता नमस्कार तो शुक्लध्यान नहीं है।
धवला 9/4,1,1/3/2 दव्वसुत्तादो तप्पढण-गुणणकिरियावावदाणं सव्वजीवाणं पडिसमयमसंखेज्जगुणसेढीए पुव्वसंचिदकम्मणिज्जरा होदि त्ति णिप्फलमिदिं सुत्तमिदि। अह सफलमिदं, णिप्फलं सुत्तज्झयणं; तत्तो समुवजायमाणकम्मक्खयस्स एत्थेवोवलंभो त्ति। ण एस दोसो, सुत्तयज्झयणेण सामण्णकम्मणिज्जरा करिदे; एदेण पुण सुत्तज्झयणविग्घफलकम्मविणासो कीरदि त्ति भिण्णविसयत्तादो। सुत्तज्झयणविग्घफलकम्मविणासो सामण्णकम्मविरोहिसुत्तब्भासादो चेव होदि त्ति मंगलसुत्तारंभी अणत्थओ किण्ण जायदे। ण, सत्तत्थावगमब्भासविग्धफलकम्मे अविणट्ठे संते तदवगमब्भासाणमसंभवादो।= प्रश्न–‘द्रव्यसूत्रों से उनके पढ़ने और मनन करने रूप क्रिया में प्रवृत्त हुए सब जीवों के प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणीरूप से पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है’ इस प्रकार विधान होने से यह जिननमस्कारात्मक सूत्र व्यर्थ पड़ता है। अथवा, यदि यह सूत्र सफल है तो सूत्रों का अर्थात् शास्त्र का अध्ययन व्यर्थ होगा; क्योंकि उससे होने वाला कर्मक्षय इस जिननमस्कारात्मक सूत्र में ही पाया जाता है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि सूत्राध्ययन से तो सामान्य कर्मों की निर्जरा की जाती है; और मंगल से सूत्राध्ययन में विघ्न करने वाले कर्मों का विनाश किया जाता है, इस प्रकार दोनों का विषय भिन्न है।प्रश्न–चूँकि सूत्राध्ययन में विघ्न करने वाले कर्मों का विनाश सामान्य कर्मों के विरोधी सूत्राभ्यास से ही हो जाता है, अतएव मंगलसूत्र का आरंभ करना व्यर्थ क्यों न होगा ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि, सूत्रार्थ के ज्ञान और अभ्यास में विघ्न उत्पन्न करने वाले कर्मों का जब तक विनाश न होगा तब तक उस (सूत्रार्थ) का ज्ञान और अभ्यास दोनों असंभव है। और कारण से पूर्वकाल में कार्य होता नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/6/8 शास्त्रं मंगलममंगलं वा। मंगलं चेत्तदा मंगलस्य मंगलं किं प्रयोजनं, यद्यमंगलं तर्हि तेन शास्त्रेण किं प्रयोजनं। आचार्याः परिहारमाहुः–भक्त्यर्थं मंगलस्यापि मंगलं क्रियते। तथा चोक्तम्–प्रदीपेनार्चयेदर्कमुदकेन महोदधिम्। वागीश्वरी तथा वाग्भिर्मंगलेनैव मंगलम्। किंच इष्टदेवतानमस्कारकरणे प्रत्युपकारं कृतं भवति। तथा चोक्तं–श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्टिन:। इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुंगवाः। अभिमतफलसिद्धेरभ्युपाय: सुबोधः, स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात्। इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धिर्न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरंति। = प्रश्न–शास्त्र मंगल है या अमंगल ? यदि मंगल है तो मंगल का भी मगंल करने से क्या प्रयोजन ? और यदि व अमंगल है तो ऐसे शास्त्र से ही क्या प्रयोजन ? उत्तर–भक्ति के लिए मंगल का भी मंगल किया जाता है। कहा भी है–दीपक से सूर्य की, जल से सागर की तथा वचनों से वागीश्वरीकी पूजा की जाती है;इसी प्रकार मंगल से मंगल का भी मंगल किया जाता है। इसके अतिरिक्त इष्टदेवता को नमस्कार करने से प्रत्युपकार किया जाता है अर्थात् देवताकृत उपकार को स्वीकार किया जाता है। कहा भी है–परमेष्ठी की कृपा से मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है। इसीलिए शास्त्र के आदि में मुनिजन उनके गुणों का स्तवन करते हैं। इच्छित फल की सिद्धिका उपाय सम्यग्ज्ञान है और वह सच्चे शास्त्रों से होता है। शास्त्रों की उत्पत्ति आप्त से होती है। इसलिए उनके प्रसाद से ही ज्ञान की प्राप्ति हुई होने से वे पूज्य हैं, क्योंकि, किये गये उपकार को साधुजन भूलते नहीं हैं।
- मंगल व निर्विघ्नता में व्यभिचार संबंधी शंका
धवला 9/4,11/5/1 मंगलं काऊण पारद्धकज्जाणं कहिं पि विग्घुवलंभादो तमकाऊण पारद्धकज्जाणं पि कत्थ वि विग्घाभावदंसणादो जिणिंदणमोक्कारो ण विग्घविणासओ त्ति। ण एस दोसो, कयाकयभेसयाणं वाहीणमविणास-विणासदंसणेणावगयवियहिचारस्स वि मारिचादिगणस्स भेसयत्तुवलंभादो। ओसहाणमोसहत्तं ण विणस्सदि, असज्झवादिरित्तसज्झवाहिविसरा चेव तेसिं वावारब्भुवगमादो त्ति चे जदि एवं तो जिणिंदणमोक्कारो वि विग्घविणासओ, असज्झविग्घफलकम्ममुज्झिदूण सज्जविग्घफलकम्मविणासे बावारदंसणादो। ण च ओसहेण समाणो जिणिंदणमोक्कारो, णाणज्झाणसहायस्स संतस्स णिव्विग्घग्गिस्स अदज्झिंधणाण व असज्झविग्घफलकम्माणमभावादो।णाणज्झाणप्पओ णमोक्कारो संपुण्णो, जहण्णो मंदसद्दहणाणुविद्धो बोद्धव्वो; सेसअसंखेज्जलोगभेयभिण्णा मज्झिमा। ण च ते सव्वे समाणफला, अइप्पसंगादो।= प्रश्न–मंगल करके आरंभ किये गये कार्यों के कहीं पर विघ्न पाये जाने से और उसे न करके भी प्रारंभ किये गये कार्यों के कहीं पर विघ्नों का अभाव देखे जाने से जिनेंद्र नमस्कार विघ्न विनाशक नहीं है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिन व्याधियों की औषध की गयी है उनका अविनाश, और जिनकी औषध नहीं की गयी है उनका विनाश देखे जाने से व्यभिचार ज्ञात होने पर भी काली मिरच आदि औषधि द्रव्यों में औपषधित्व गुण पाया जाता है।प्रश्न–औषधियों का औषधित्व तो इसलिए नष्ट नहीं होता, कि असाध्य व्याधियों को छोड़कर केवल साध्य अव्याधियों के विषय में ही उनका व्यापार माना गया है ? उत्तर–तो जिनेंद्र नमस्कार भी (उसी प्रकार) विघ्न विनाशक माना जा सकता है; क्योंकि, उसका भी व्यापार असाद्य विघ्नों के कारणभूत कर्मों को छोड़कर साध्य विघ्नों के कारणभूत कर्मों के विनाश में देखा जाता है। 2. दूसरी बात यह है कि (सर्वथा) औषध के समान जिनेंद्र नमस्कार नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकार निर्विघ्न अग्नि के होते हुए न जल सकने योग्य इंधनों का अभाव-रहता है (अर्थात् संपूर्ण प्रकार के इंधन भस्स हो जाते हैं), उसी प्रकार उक्त नमस्कार के ज्ञान व ध्यान की सहायता युक्त होने पर असाध्य विघ्नोत्पादक कर्मों का भी अभाव होता है (अर्थात् सब प्रकार के कर्म विनष्ट हो जाते हैं) तहाँ ज्ञानध्यानात्मक नमस्कार को उत्कृष्ट, एवं मंद श्रद्धान युक्त नमस्कार को जघन्य जानना चाहिए। शेष असंख्यात लोकप्रमाण भेदों से भिन्न नमस्कार मध्यम हैं। और वे सब समान फलवाले नहीं होते, क्योंकि, ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/6/4 यदुक्तं त्वया व्यभिचारो दृश्यते तदप्ययुक्तं। कस्मादिति चेत्। यत्र देवतानमस्कारदानपूजादिधर्मे कृतेऽपि विघ्नं भवति तत्रेदं ज्ञातव्यं पूर्वकृतपापस्यैव फलं तत् न च धर्मदूषणं, यत्र पुनर्देवतानमस्कारदानपूजादिधर्माभावेऽपि निर्विघ्नं दृश्यते तत्रेदं ज्ञातव्यं पूर्वकृतधर्मस्यैव फलं तत् न च पापस्य। = आपने जो यह कहा है कि (मंगल करने या न करने पर भी निर्विघ्नता का अभाव या सद्भाव दिखायी देने से) तहाँ व्यभिचार दिखायी देता है, सो यह कहना अयुक्त है, क्योंकि, जहाँ देवतानमस्कार, दान-पूजादिरूप धर्म के करने पर भी विघ्न होता है वहाँ वह पूर्वकृत पाप का ही फल जानना चाहिए, धर्म को दोष नहीं। और जहाँ देवतानमस्कार, दान-पूजादिरूप धर्म के अभाव में भी निर्विघ्नता दिखायी देती है, वहाँ पूर्वकृत् धर्म का ही फल जानना चाहिए, पाप का अर्थात् मंगल न करने का नहीं। - मंगल करने से निर्विघ्नता कैसे
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/5/26 किमर्थं शास्त्रादो शास्त्रकाराः मंगलार्थं परमेष्ठिगुणस्तोत्रं कुर्वंति यदेव शास्त्रं प्रारब्धं तदेव कथ्यतां मंगलप्रस्तुतं। न च वक्तव्यं मंगलनमस्कारेण पुण्यं भवति पुण्येन निर्विघ्नं भवति इति। कस्मान्न वक्तव्यमिति चेत्। व्यभिचारात्। ... तदप्ययुक्तं। कस्मात्। देवतानमस्कारकरणे पुण्यं भवति तेन निर्विघ्नं भवतीति तर्कादिशास्त्रे व्यवस्थापितत्वात्। = प्रश्न–शास्त्र के आदि में शास्त्रकार मंगलार्थ परमेष्ठी के गुणों का स्वतन क्यों करते हैं, जो शास्त्र प्रारंभ किया है वही मगंलरूप है। तथा ‘मंगल करने से पुण्य होता है और पुण्य से निर्विघ्नता की प्राप्ति होती है’ ऐसा भी नहीं कहना चाहिए क्योंकि उसमें व्यभिचार देखा जाता है ? उत्तर–यह कहना अयुक्त है क्योंकि, देवतानमस्कार करने से पुण्य और पुण्य से निर्विघ्नता का होना तर्क आदि विषयक अनेक शास्त्रों में व्यवस्थापित किया गया है।
- लौकिक मंगलों को मंगल कहने का कारण
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/5/15 पर उद्धृत–वयणियमसंजमगुणेहिं साहिदो जिणवरेहिं परमट्ठो। सिद्धा सण्णा जेसिं सिद्धत्था मंगलं तेण।2। पुण्णा मणोरहेहि य केवलणाणेण चावि संपुण्णा। अरंहता इदि लोए सुमंगलं पुण्णकुंभो दु.।3। णिग्गमणपवेसम्हि य इह चउवीसंपि वंदणीज्जा ते। वंदणमालेत्ति कया भरहेण य मंगलं तेण।4। सव्वजणणिव्वुदियरा छत्तायारा जगस्स अरहंता। छत्तायारं सिद्धित्ति मंगलं तेण छत्तं तं।5। सेदो वण्णो झाणं लेस्सा य अघाइसेसकम्मं च। अरुहाणं इदि लोए सुमंगलं सेदवण्णो दु।6। दीसइ लोयालोओ केवलणाणेण तहा जिणिंदस्स। तह दीसइ मुकुरे बिंबुमंगलं तेण तं मुणह।7। जह वीयरायसव्वणहु जिणवरो मंगलं हवइ लोए। हयरायबालकण्णा तह मंगलमिह विजाणाहि।8। कम्मारिजिणेविणु जिण वरेहिं मोक्खु जिणहिवि जेण। जं चउरउअरिबलजिणइ मंगलु वुच्चइ तेण।9। = व्रत, नियम, संयम आदि गुणों के द्वारा साधित जिनवरों को ही समस्त अर्थ की सिद्धि हो जाने के कारण, परमार्थ से सिद्ध संज्ञा प्राप्त है। इसीलिए सिद्धार्थ (पीली सरसों) को मंगल कहते हैं।2। अरहंत भगवान् संपूर्ण मनोरथों से तथा केवलज्ञान से पूर्ण हैं, इसीलएि लोक में पूर्णकलश को मंगल माना जाता है।3। क्योंनिद्वार से बाहर निकलते हुए तथा उसमें प्रवेश करते हुए 24 तीर्थंकर वंदनीय होते हैं, इसीलिए भरत चक्रवर्ती ने 24 कलियों वालीवंदनमाला की रचना की थी। इसी से वह मगंलरूप समझी जाती है।4। जगत् के सर्व जीवों को मुक्ति दिलाने के लिए अरहंत भगवान् छत्राकार हैं अर्थात् एक मात्र आश्रय हैं। अत: सिद्धि छत्राकारा है और इसी से छत्र को मंगल कहा जाता है।5। अरहंत भगवान् का ध्यान, लेश्या व शेष अघाती कर्म ये सब क्योंकि श्वेतवर्ण के अर्थात् शुक्ल होते हैं, इसीलिए लोक में श्वेतवर्ण को मंगल समझा जाता है।6। जिनेंद्र भगवान् को केवलज्ञान में जिस प्रकार समस्त लोकालोक दिखाई देता है, उसी प्रकार दर्पण में भी उसके समक्ष रहने वाले दूर व निकट के समस्त छोटे व बड़े पदार्थ दिखाई देते हैं, इसीलिए दर्पण को मंगल जानो।7। जिस प्रकार वीतराग सर्वज्ञ जिनेंद्र भगवान् लोक में मंगलरूप हैं, उसी प्रकार ‘हय राय’ अर्थात् उत्तम जाति का घोड़ा और हय राय बालकन्या अर्थात् रागद्वेषरहित सरल चित्त बालकन्या भी मंगल है। क्योंकि ‘हय राय’ इस शब्द का अर्थ हतराग भी है और उत्तम घोड़ा भी।8। क्योंकि कर्मरूपी शत्रुओं को जीतकर ही जिनेंद्र भगवान् मोक्ष को प्राप्त हुए हैं इसीलिए शत्रुसमूह पर जीत को दर्शानेवाला चमर मंगल कहा जाता है। - मिथ्यादृष्टि आदि सभी जीवों में कथंचित् मंगलपना
धवला 1/1,1,1/36-38 एकजीवापेक्षया अनाद्यपर्यवसितं साद्यपर्यवसितं सादिसपर्यवसितमिति त्रिविधम्। कथमनाद्यपर्यवसिता मंगलस्य। द्रव्यार्थिकनयार्पणया। तथा च मिथ्यादृष्टयवस्थायामपि मंगलत्वं जीवस्य प्राप्नोतीति चेन्नैषदोष: इष्टत्वात् । न मिथ्याविरतिप्रमादानां मंगलत्वं तेषां जीवत्वाभावात्। जीवो हि मंगलम् स च केवलज्ञानाद्यनंतधर्मात्मक:। ... न छद्मस्थज्ञानदर्शनयोरल्पत्वादमंगलत्वमेकदेशस्य मांगल्याभावे तद्विश्वावयवानामप्यमंगलत्वप्राप्तेः। = एक जीव की अपेक्षा मंगल का अवस्थान अनादि अनंत, सादि अनंत और सादि सांत इस प्रकार तीन भेद रूप है।प्रश्न–अनादि से अनंतकाल तक मंगल होना कैसे संभव है।उत्तर–द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता से।प्रश्न–इस तरह तो मिथ्यादृष्टि अवस्था में भी जीव को मंगलपने की प्राप्ति हो जायेगी।उत्तर–यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, यह हमें इष्ट है। परंतु ऐसा मानने पर भी मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद आदि को मंगलपना सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि, उनमें जीवत्व नहीं पाया जाता है। मंगल तो जीव ही है, और वह जीव केवलज्ञानादि अनंत धर्मात्मक है। छद्मस्थ के ज्ञान और दर्शन अल्प होने मात्र से अमंगल नहीं हो सकते हैं, क्योंकि ज्ञान और दर्शन के एकदेश मात्र में मंगलपने का अभाव स्वीकार कर लेने पर ज्ञान और दर्शन के संपूर्ण अवयवों अर्थात् केवलज्ञान व केवलदर्शन को भी अमंगल मानना पड़ेगा।
देखें ज्ञान - I.4.2,5 और सामान्य ज्ञान-संतान की अपेक्षा छद्मस्थ जीवों में भी केवलज्ञान का सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता। उनके मति ज्ञान आदि तथा चक्षुदर्शनादि में भी ज्ञान व दर्शन सामान्य की ही अवस्था विशेष होने के कारण मंगलीभूत केवलज्ञान व केवलदर्शन से भिन्न नहीं कहे जा सकते। और इस प्रकार भले ही मिथ्यादृष्टि जीव के ज्ञान व दर्शन को मंगलपना प्राप्त हो जाय, पर उसके मिथ्यात्व अविरति आदि को मंगलपना नहीं हो सकता। मिथ्यादृष्टि के ज्ञान व दर्शन में मंगलपना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि के ज्ञान व दर्शन में पापक्षयकारीपना पाया जाता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि के ज्ञान व दर्शन में भी पापक्षयकारीपना पाया जाता है।
- मंगल के छह अधिकार
पुराणकोष से
(1) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.186
(2) लक्ष्मण तथा उसकी महादेवी कल्याणमाला का पुत्र । पद्मपुराण 94.32
(3) जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र का एक देश । इसमें पलाशकूट नगर था । महापुराण 71. 278
(4) रजतमय सौमनस्य पर्वत के सात कूटों में चौथा कूट । हरिवंशपुराण 5.212-221