अल्पबहुत्व
From जैनकोष
पदार्थों का निर्णय अनेक प्रकार से किया जाता है-उनका अस्तित्व व लक्षण आदि जानकर, उनकी संख्या या प्रमाण जानकर तथा उनका अवस्थान आदि जानकर। तहाँ पदार्थों की गणना क्योंकि संख्या को उल्लंघन कर जाती है और असंख्यात व अनन्त कहकर उनका निर्देश किया जाता है, इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि किसी भी प्रकार उस अनन्त या असंख्य में तरतमता या विशेषता दर्शायी जाए ताकि विभिन्न पदार्थों की विभिन्न गणनाओं का ठीक-ठीक अनुमान हो सके। यह अल्पबहुत्व नाम का अधिकार जैसा कि इसके नाम से ही विदित है इसी प्रयोजन की सिद्धि करता है।
- अल्पबहुत्व सामान्य निर्देश व शंकाएँ
- ओघ आदेश प्ररूपणाएँ
- प्ररूपणाओं विधयक नियम तथा काल व क्षेत्र के आधार पर गणना करने की विधि। देखें - संख्या - 2
- सारणी में प्रयुक्त संकेतों के अर्थ।
- षट् द्रव्यों का षोडशपदिक अल्प बहुत्व।
- जीव द्रव्यप्रमाण में ओघ प्ररूपणा।
- गति मार्गणा
- इन्द्रिय मार्गणा
- काय मार्गणा
- गति इन्द्रिय व काय की संयोगी परस्थान प्ररूपणा।
- योग मार्गणा
- वेद मार्गणा
- कषाय मार्गणा
- ज्ञान मार्गणा
- संयम मार्गणा
- दर्शन मार्गणा
- लेश्या मार्गणा
- भव्य मार्गणा
- सम्यक्त्व मार्गणा
- संज्ञी मार्गणा
- आहारक मार्गणा
- प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
- सिद्धों की अनेक अपेक्षाओं से अल्पबहुत्व प्ररूपणा
- संहरण सिद्ध व जन्म सिद्ध की अपेक्षा।
- क्षेत्र की अपेक्षा (केवल संहरण सिद्धोंमें)।
- काल की अपेक्षा।
- अन्तर की अपेक्षा।
- गति की अपेक्षा।
- वेदनानुयोग की अपेक्षा।
- तीर्थंकर व सामान्य केवली की अपेक्षा।
- चारित्र की अपेक्षा।
- प्रत्येकबुद्ध व बोधितबुद्ध की अपेक्षा।
- ज्ञान की अपेक्षा।
- अवगाहना की अपेक्षा।
- युगपत् प्राप्त सिद्धोंकी संख्या की अपेक्षा।
- १-१, २-२ आदि करके संचय होनेवाले जीवोंकी अल्प बहुत्वप्ररूपणा
- २३ वर्गणाओं सम्बन्धी प्ररूपणाएँ
- पंच शरीर बद्ध वर्गणाओं की प्ररूपणा
- पंच वर्गणाओं के द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा।
- पंच वर्गणाओं की अवगाहना की अपेक्षा।
- पंच शरीरबद्ध विस्रसोपचयों की अपेक्षा।
- प्रत्येक वर्गणा में समय प्रबद्ध प्रदेशों की अपेक्षा।
- शरीरबद्ध विस्रसोपचयों की स्व व परस्थान की अपेक्षा।
- पंच शरीरबद्ध प्रदेशों की अपेक्षा।
- औदारिक शरीरबद्ध प्रदेशों की अपेक्षा।
- इन्द्रिय बद्ध प्रदेशों की अपेक्षा।
- पाँचों शरीरों में प्रथम समयप्रबद्ध से लेकर अन्तिम समयप्रबद्ध तक बन्धे प्रदेश-प्रमाण की अपेक्षा। दे.(ष.ख.१४/५,६/सू.२६३-२८६/३३९-३५२)।
- पाँचों शरीरों की ज.व उ. स्थिति या निषेकों के प्रमाण की अपेक्षा। दे. (ष.ख.१४/५,६/सू.३२०-३३९/३६६-३६९)
- पाँचों शरीरों के ज.उ.व उभय स्थितिगत निषेकों में प्रदेश प्रमाण की अपेक्षा। दे.(ष.ख.१४/५,६/सू.३४०-३८९/३७२-३८७)।
- उपरोक्त प्रदेशाग्रों में एक व नाना गुणहानि स्थानान्तरों की अपेक्षा। दे. (ष.ख.१४/५,६/सू.३९०-४०६/३८७-३९२)।
- उपरोक्त निषेकों के ज.उ.व उभय प्रदेशाग्र प्रमाण की अपेक्षा। दे. (ष.ख.१४/५,६/सू.४०७-४१५/३९२-३९५)।
- पाँचों शरीरों में बन्धे प्रदेशाग्रों के अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा। दे. (ष.ख.१४/५,६/सू.५१५-५१९/४३७-४३८)।
- पंच शरीरों के पुद्गलस्कन्धों को संघातन, परिशातन, उभय व अनुभयादि कृतियों की अपेक्षा। दे. (ध.९/४,१,७१/३४६-३५४)।
- पंच शरीरोंकी अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ
- पंच शरीरों के पुद्गलस्कन्धों की संघातन परिशातन आदि कृतियों में गृहीत परमाणुओं के प्रमाण की अपेक्षा।दे. (ध.९/४,१,७१/३४६-३५४)।
- ज.उ.अवगाहना क्षेत्रों की अपेक्षा। दे. (ध.११/पृ.२८)।
- पाँचों शरीरों के स्वामियों की ओघ व आदेश प्ररूपणा
- जीवभावों के अनुभाग व स्थिति विषयक प्ररूपणा
- संयमविशुद्धि या लब्धिस्थानों की अपेक्षा।
- १४ जीवसमासों में संक्लेश व विशुद्धिस्थानों की अपेक्षा।
- दर्शन ज्ञान चारित्र विषयक भाव सामान्यके अवस्थानों की अपेक्षा स्व व परस्थान प्ररूपणा।
- उपशमन व क्षपण काल की अपेक्षा।
- कषाय काल की अपेक्षा।
- नोकषाय बन्धकाल की अपेक्षा।
- मिथ्यात्व-काल विशेष की अपेक्षा। (अर्थात् भिन्न-भिन्न जीवोंके मिथ्यात्व-काल का अल्पबहुत्व)।
- अधःप्रवृत्तिकरण की विशुद्धियों में तरतमता की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९-८,१६/३७५-३७८)।
- संयमासंयम लब्धिस्थानों में तरतमता की अपेक्षा। दे. (ध. ६/१,९-८,१४/२७६/७)।
- जीवों के योग स्थानों की अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ
- कर्मों के सत्त्व व बन्धस्थानों की अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ
- जीवों के स्थिति बन्धस्थानों की अपेक्षा।
- स्थिति बन्ध में जघन्य व उत्कृष्ट स्थानों की अपेक्षा।
- स्थितिबन्ध के निषेकों की अपेक्षा।
- अनिवृत्ति गुणस्थान में स्थितिबन्ध की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९-८,१४/२९७/४)।
- उपशान्तकषाय से उतरे अनिवृत्तिकरण में स्थितिबन्ध की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९-८,१४/३२४/३)।
- चारित्रमोह क्षपक अनिवृत्तिकरण के स्थितिबन्ध की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९-८,१४/३५०/२) (विशेष दे. #3.11)।
- मोहनीय कर्म के स्थितिसत्त्वस्थानों की अपेक्षा।
- बन्धसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्त्व के जघन्य स्थानों की अपेक्षा।
- हत्समुत्पत्तिक अनुभागसत्त्व के जघन्य स्थानों की अपेक्षा।
- अष्टकर्मप्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की ६४ स्थानीय स्वस्थान ओघ व आदेश प्ररूपणा।
- अष्टकर्म प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की ६४ स्थानीय स्वस्थान ओघ व आदेश प्ररूपणा।
- अष्टकर्म प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की ६४ स्थानीय परस्थान ओघ प्ररूपणा।
- उपरोक्त विषयक आदेश प्ररूपणाएँ। दे. (म.बं.५/$४३९-४४२/२३१-२३३)।
- उपरोक्त विषयक आदेश प्ररूपणा। दे. (म.बं.५/$४४४-४५०/२३५-२३९)।
- एक समयप्रबद्ध प्रदेशाग्र में सर्व व देशघाती अनुभाग के विभाग की अपेक्षा।
- एक समयप्रबद्ध प्रदेशाग्रों में निषेक सामान्य के विभाग की अपेक्षा।
- एक समयप्रबद्ध में अष्टकर्म प्रकृतियों के प्रदेशाग्र विभाग की अपेक्षा।
- जीवसमासों में विभिन्न प्रदेशबन्धों की अपेक्षा।
- आठ अपकर्षों की अपेक्षा आयुबन्धक जीवों की प्ररूपणा।
- आठ अपकर्षों में आयुबन्ध के काल की अपेक्षा।
- अष्टकर्म संक्रमण व निर्जरा की अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणा
- भिन्न गुणधारी जीवों में गुणश्रेणी रूप प्रदेश निर्जरा की ११ स्थानीय सामान्य प्ररूपणा।
- भिन्न गुणधारी जीवों में गुणश्रेणी प्रदेश निर्जरा के काल की ११ स्थानीय प्ररूपणा।
- पाँच प्रकार के संक्रमणों द्वारा हत् कर्मप्रदेशों के परिमाण में अल्पबहुत्व।
- प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्ति विधान में अपूर्वकरण के काण्डक घात की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९,८,५/२२८/१)।
- द्वितीयोपशम प्राप्ति विधान में उपरोक्त विकल्प। दे. (ध.६/१,९,८,१४/२८९/१०)।
- अश्वकर्ण प्रस्थापक चारित्रमोह क्षपक के अनुभागसत्त्व की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९,८,१२/२६३/६)।
- अपूर्वस्पर्धक करण में अनुभाग काण्डकघात की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९,८,१६/३६६/११)।
- चारित्रमोह क्षपक के अपूर्वकरण में स्थिति काण्डकघात की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९,८,१६/३४४/८)।
- त्रिकरण विधान की अवस्था विशेषों के उत्कीरण कालों तथा स्थिति बन्ध व सत्त्व आदि विकल्पों की अपेक्षा प्ररूपणाएँ।
- प्रथमोपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९,८,७/२३६/८)।
- प्रथमोपशम व वेदक सम्यक्त्व तथा संयमासंयम को युगपत् ग्रहण करने की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९-८/११/२४७/१)।
- पुरुषवेद सहित क्रोध के उदय से आरोहण व अवरोहण करने वाले चारित्रमोहोपशामक अपूर्वकरण के भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के आश्रय सर्व विकल्प रूप उत्कीरण कालों की अपेक्षा। दे.(ध.६/१,९,८,१४/३३५/११)।
- दर्शनमोह क्षपक की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९-८,१२/२६३/६)।
- अनुवृत्तिकरण गुणस्थान में चारित्रमोह की यथायोग्य प्रकृतियों के उपशमन की अपेक्षा। दे. (ध.६/१,९-८,१४/३०३/६)।
- अष्टकर्म बन्ध उदय सत्त्वादि १० करणों की अपेक्षा भुजगारादि पदो में अल्पबहुत्व की ओघ व आदेश प्ररूपणाएँ
- उदीरणा की अपेक्षा अष्टकर्म प्ररूपणा
- उदय अपेक्षा अष्टकर्म प्ररूपणा
- उपशमना अपेक्षा अष्टकर्म प्ररूपणा
- संक्रमण अपेक्षा अष्टकर्म प्ररूपणा
- बन्ध अपेक्षा अष्टकर्म प्ररूपणा
- मोहनीयकर्म विशेष के सत्त्व की अपेक्षा।
- अष्टकर्मबन्ध वेदना में स्थिति, अनुभाग, प्रदेश व प्रकृति बन्धों की अपेक्षा ओघ व आदेश स्व-पर स्थान अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।
- प्रयोग व समवदान आदि षट्कर्मों की अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणा।
- १४ मार्गणाओं में जीवों की तथा उनमें स्थिति कर्मों की उपरोक्त षट् कर्मों की अपेक्षा प्ररूपणा। दे. (ध.१३/५,४,३१/१७५-१९५)।
- निगोद जीवों की उत्पत्ति आदि विषयक अल्पबहुत्व प्ररूपणा
- साधारण शरीर में निगोद जीवों का उत्पत्तिक्रम। निरन्तर व सान्तर कालों की अपेक्षा। (ष.ख.१/१४/५,६/सू.५८७-६२८/४७४)।
- उपरोक्त कालों से उत्पन्न होने वाले जीवों के प्रमाण की अपेक्षा दे. (ष.खं.१४/५,६/सू.५८७-६२८/४७४)।
- अल्पबहुत्व सामान्य निर्देश व शंकाएँ
- अल्पबहुत्व सामान्य का लक्षण
स.सि./१०/९/४७३ क्षेत्रादिभेदभिन्नानां परस्परतः संख्या विशेषोऽल्पबहुत्वम्। = क्षेत्रादि भेदों की अपेक्षा भेद को प्राप्त हुए जीवों की परस्पर संख्या का विशेष प्राप्त करना अल्पबहुत्व है। ( रा.वा./१०/९/१४/६४७/२७ )
रा.वा./१/८/१०/४२/१९ संख्यातादिष्वन्यतमेन परिमाणेन निश्चिताना मन्योन्यविशेषप्रतिपत्यर्थ मल्पबहुत्ववचनं क्रियते-इमे एभ्योऽल्पा इमे बहवः इति।= संख्यात आदि पदार्थों में अन्यतम किसी एक के परिमाण का निश्चय हो जाने पर उनकी परस्पर विशेष प्रतिपत्ति के लिए अल्पबहुत्व करने में आता है। जैसे यह इन की अपेक्षा अल्प है, यह अधिक है इत्यादि। ( स.सि./१/८/२९ )
ध.५/१,८,१/२४२/७ किमप्पाबहुअं। संखाधम्मो एदम्हादो एदं तिगुणं चदुगुणमिदि बुद्धिगेज्झो। = प्रश्न - अल्पबहुत्व क्या है? उत्तर - यह उससे तिगुणा है, अथवा चतुर्गुणा है इस प्रकार बुद्धि के द्वारा ग्रहण करने योग्य संख्या के धर्म को अल्पबहुत्व कहते हैं।
- अल्पबहुत्व प्ररूपणा के भेद
ध.५/१,८,१/२४१/१० (द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदि निक्षेपों की अपेक्षा अल्पबहुत्व अनेक भेद रूप है। (विशेष दे. निक्षेप)
- संयत की अपेक्षा असंयत की निर्जरा अधिक कैसे
ध.१२/४,२,७,१७८/६ संजमपरिणामेहितो अणंताणुबंधिं विसंजोएतंस्स असंजदसम्मादिट्ठस्स परिणामो अणंतगुणहीणो, कधं तत्तो असंखेज्जगुणपदेसणिज्जरा। ण एस दोसो संजमपरिणामेहिंतो अणंताणुबंधीणं विसंजोजणाए कारणभूदाणं सम्मत्तपरिणामाणमणंतगुणत्तुवलंभादो। जदि सम्मत्तपरिणामेहिं अणंताणुबंधीणं विसंजोजणा कीरदे तो सव्वसम्माइट्ठीसु तब्भावो पसज्जदि त्ति वुत्ते ण, विसिट्ठेहि चेव सम्मत्तपरिणामेहिं तव्विसंजोयणब्भुवगमादि त्ति। = प्रश्न - संयमरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाले असंतसम्यग्दृष्टि का परिणाम अनन्तगुणहीन होता है। ऐसी अवस्था में उससे असंख्यातगुणी प्रदेश निर्जरा कैसे हो सकती है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है-क्योंकि संयमरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना में कारणभूत सम्यक्त्वरूप परिणाम अनन्तगुणे उपलब्ध होते हैं। प्रश्न-यदि सम्यक्त्वरूप परिणामों के द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना की जाती है तो सभी सम्यग्दृष्टि जीवों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग आता है? उत्तर - सब सम्यग्दृष्टियों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग नहीं आ सकता, क्योंकि विशिष्ट सम्यक्त्वरूप परिणामों के द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना स्वीकार की गयी है।
- सिद्धों के अल्पबहुत्व सम्बन्धी शंका
ध.९/४,१,६६/३१८/७ एदमप्पाबहुगं सोलसवदियअप्पाबहुएण सह विरुज्झदे, सिद्धकालादो सिद्धाणं संखेज्जगुणत्तं फिट्टिदूण विसेसाहियत्तप्पसंगादो। तेणेत्थ उवएसं लहिय एगदरणिण्णओ कायव्वो। = यह अल्पबहुत्व (सिद्धों में कृति संचय सबसे स्तोक है, अव्यक्त संचित असंख्यातगुणे हैं, इत्यादि) षोडशपदादिक अल्पबहुत्व ( अल्पबहुत्व#2.2) के साथ विरोध को प्राप्त होता है, क्योंकि सिद्धकाल की अपेक्षा सिद्धों के संख्यातगुणत्व नष्ट होकर विशेषाधिकपने का प्रसंग आता है। इस कारण यहाँ उपदेश प्राप्त कर दो-में-से किसी एक का निर्णय करना चाहिए।
- वर्गणाओं के अल्पबहुत्व सम्बन्धी दृष्टिभेद
ध.१४/५,६,९३/१११/४ जहण्णादो पुण उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणा असंखेज्जगुणा। को गुणकारो। जगसेडीए असंखेज्जदिभागो। के वि आइरिया गुणगारो पुण आवलियाए असंखेज्जदिभागो होदि त्ति भणंति, तण्ण घडदे। कुदो। बादरणिगोदवग्गणाए उक्कसियाएसेडीए असंखेज्जदिंभागमेत्तो णिगोदाणं त्ति एदेण चूलियासुत्तेण स विरोहादो। = अपनी जघन्य से उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है? जगश्रेणी के असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। कितने ही आचार्य गुणकार आवलि के संख्यातवें भाग प्रमाण होता है, ऐसा कहते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, 'उत्कृष्ट बादर निगोदवर्गणा में निगोद जीवों का प्रमाण जगश्रेणि के असंख्यातवें भागमात्र है', इस चूलिका सूत्र के साथ विरोध आता है।
ध.१४/५,६,११६/१६६/७ एत्थ के वि आइरिया उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणादो उवरिमधुवसुण्णएगसेडी असंखेज्जगुणा। गुणगारो वि घणावलियाए असंखेज्जदिभागो त्ति भणंति तण्ण घडदे। कुदो। संखेज्जेहि असंखेज्जेहि वा जीवेहि जहण्णबादरणिगोदवग्गणाणुप्पत्तीदो।...तम्हा अणंतलोगा गुणगारो ति एदं चेव घेत्तव्वं। = यहाँ पर कितने ही आचार्य उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणा से उपरिमध्रु व शून्य एक श्रेणी असंख्यातगुणी है, और गुणकार भी घनावलि के असंख्यातवें भागप्रमाण है, ऐसा कहते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि संख्यात या असंख्यात जीवों से जघन्य बादरनिगोद वर्गणा की उत्पत्ति नहीं हो सकती।...इसलिए 'अनन्त लोक गुणकार है' यह वचन ही ग्रहण करना चाहिए।
ध.१४/५,६,११६/२१६/१३ कम्मइयवग्गणादो हेट्ठिमाहारवग्गणादो उवरिमअगहणवग्गणमद्धाणगुणगारेहिंतो आहारादिवग्गणाणं अद्धाणुप्पायणट्ठं ट्ठविदभागहारो अणंतगुणो त्ति के विआइरिया इच्छंति, तेसिमहिप्पाएण पुव्विल्लमपाबहुगं परूविदं। भागाहारेहिंतो गुणगारा अणंतगुणा त्तिके वि आइरिया भणंति। तेसिमहिप्पाणं एदमप्पा बहुगं परूविज्जदे, तेणेसो ण दोसो। = कार्माणवर्गणा से अधस्तन आहार वर्गणा से उपरिम अग्रहणवर्गणा के अध्वान के गुणकार से आहारादि वर्गणाओं के अध्वान को उत्पन्न करने के लिए स्थापित भागाहार अनन्तगुणा है। ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, इसलिए उनके अभिप्रायानुसार पहिले का अल्पबहुत्व कहा है। तथा भागहारों से गुणकार अनन्तगुणे हैं ऐसा आचार्य कहते हैं। इसलिए उनके अभिप्रायानुसार यह अल्पबहुत्व कहा जा रहा है। इसलिए यह कोई दोष नहीं है।
- पंचशरीर विस्रसोपचय वर्गणा के अल्पबहुत्व-दृष्टिभेद
ध.१४/५,६,५५२/४५/४५७/६ सव्वथ गुणगारो सव्वजीवेहि अणंतगुणो। एदमप्पाबहुगं बाहिरवग्णाए पुधभूदं त्ति काऊण के वि आइरिया जीवसंबद्धपंचण्णं सरीराणं विस्सस्सुवचयस्सुवरि परूवेंति तण्ण घडदे, जहण्णपत्तेयसरीरवगणादो उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए अणंतगुणप्पसंगादो। = 'सर्वत्र गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा है।' यह अल्पबहुत्व बाह्य वर्गणा से पृथग्भूत है, ऐसा मानकर कितने ही आचार्य जीव सम्बद्ध पाँच शरीरों के विस्रसोपचय के ऊपर कथन करते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने पर जघन्य प्रत्येक शरीरवर्गणा से उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणा के अनन्तगुणे होने का प्रसंग प्राप्त होता है।
- मोह प्रकृति के प्रदेशाग्रों सम्बन्धी दृष्टिभेद
क.पा.४/३-२२/६३३९/३३४/११ सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली असंख्ये. गुणहीणा त्ति एगो उवएसो। अवरेगो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति। एत्थ एदेसिं दोण्हं पि उवएसाणं णिच्छयं काउमसमत्थेण जइवसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदो अवरेगो ट्ठिदिसंकम्मे। तेणेदे वे वि उवदेसा थप्पं कादूण वत्तव्वा त्ति। = सम्यक्त्व की अन्तिम फालि से सम्यग्मिथ्यात्व की अन्तिम फालि असंख्यातगुणी हीन है, यह पहला उपदेश है। तथा सम्यग्मिथ्यात्व की अन्तिम फालि उससे विशेष अधिक है यह दूसरा उपदेश है। यहाँ इन दोनों ही उपदेशों का निश्चय करने में असमर्थ यतिवृषभ आचार्य ने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति संक्रमण में लिखा, अतः इन दोनों ही उपदेशों को स्थगित करके कथन करना चाहिए।
- अल्पबहुत्व सामान्य का लक्षण
- ओघ आदेश प्ररूपणाएँ
- सारणी में प्रयुक्त संकेतों के अर्थ
- षट् द्रव्यों का षोडशपदिक अल्पबहुत्व
ध.३/१,२,३/३०/७
- जीव द्रव्यप्रमाण में ओघ प्ररूपणा
(ष.खं.५/१,८/सू.१-२६)
नोट - प्रमाण वाले कोष्ठक में सर्वत्र सूत्र नं. लिखे हैं। यहाँ यथा स्थान उस उस सूत्र की टीका भी सम्मिलित जानना।
- प्रवेश की अपेक्षा
- उपशमक
सूत्र
मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
२ - ८ स्तोक अधिक से अधि ५४ २ - ९ ऊपर तुल्य जीवों का प्रवेश ही सम्भव है २ - १० ऊपर तुल्य जीवों का प्रवेश ही सम्भव है ३ - ११ ऊपर तुल्य जीवों का प्रवेश ही सम्भव है - क्षपक
सूत्र मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
४ - ८ दुगुने १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है ४ - ९ ऊपर तुल्य १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है ४ - १० ऊपर तुल्य १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है ५ - १२ ऊपर तुल्य १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है ६ - १३ ऊपर तुल्य १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है ६ - १४ ऊपर तुल्य १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है - संचय की अपेक्षा
- उपशमक
सूत्र
मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
४ - ८ स्तोक प्रवेश के अनुरूप ही संचय होता है। कुल २९९ जीव संचित होने सम्भव हैं ४ - ९ ऊपर तुल्य प्रवेश के अनुरूप ही संचय होता है। कुल २९९ जीव संचित होने सम्भव हैं ४ - १० ऊपर तुल्य प्रवेश के अनुरूप ही संचय होता है। कुल २९९ जीव संचित होने सम्भव हैं ४ - ११ ऊपर तुल्य प्रवेश के अनुरूप ही संचय होता है। कुल २९९ जीव संचित होने सम्भव हैं - क्षपक
सूत्र
मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
४ - ८ दुगुने कुल ५९८ जीव संचित होते हैं ४ - ९ ऊपर तुल्य कुल ५९८ जीव संचित होते हैं ४ - १० ऊपर तुल्य कुल ५९८ जीव संचित होते हैं ५ - १२ ऊपर तुल्य कुल ५९८ जीव संचित होते हैं ६ - १४ ऊपर तुल्य कुल ५९८ जीव संचित होते हैं ७ - १३ सं. गुणे ८९८५०२ जीवों का संचय - अक्षपक व अनुपशमक
सूत्र
मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
८ - ७ सं. गुणे २९६९९१०३ जीवों का संचय ९ - ६ दुगुने ५९३९८२०६ जीवों का संचय १० - ५ पल्य/असं.गुणे मध्य लोक में स्वयम्भूरमण पर्वत के परभाग में अवस्थान ११ - २ आ./असं.गुणे एक समय में प्राप्त संयता-संयत से एक समय गत
सासादन राशि असं.गुणी है।१२ - ३ सं.गुणे १. सासादन से सं. गुणा संचय काल
२. सासादन के उपरान्त उपशम सम्यक्त्व ही प्राप्त होता है पर इसके उपरान्त उपशम व वेदक सम्यक्त्व
तथा मिथ्यात्व तीनों प्राप्त होते हैं।
३. उपशम से वेदक सम्यग्दृष्टि सं. गुणे हैं।१३ - ४ आ./असं.गुणे सम्यक. मिथ्यात्व का संचय काल अन्तर्मुहूर्त है व इसका २ सागर है। १४ - १ सिद्धों से अनन्त गुण वाला अनन्त से गुणित - - सम्यक्त्व में संचय की अपेक्षा
सूत्र
मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
१५ असंयत उप. स्तोक - १६ - क्षा. आ./असं. गुणे अधिक संचय काल सुलभता १७ - वे. आ./असं. गुणे अधिक संचय काल सुलभता १८ संयतासंयत उप. स्तोक तिर्यंचों में अभाव तथा दुर्लभ १९ - क्षा. पल्य/असं. गु. तिर्यंचो में उत्पत्ति २० - वे. आ./असं. गुणे तिर्यंचों में उत्पत्ति तथा सुलभ २१ ६ठा ७वाँ गुणस्थान उप. स्तोक अल्प संचय काल तथा संयम की दुर्लभता २२ - क्षा. सं. गुणा अधिक संचय काल सुलभता २३ - वे. सं. गुणा अधिक संचय काल सुलभता २५ ८-१०वाँ गुणस्थान उप. स्तोक अल्प संचय काल तथा श्रेणीकी दुर्लभता २६ - क्षा. सं. गुणा अधिक संचय काल - चारित्र उप. स्तोक अल्प संचय काल - - क्षा. सं. गुणा अधिक संचय काल
- प्रवेश की अपेक्षा
- गति मार्गणा
- पाँच गति की अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा
(ष.खं.७/२,११/सू.२-६)(मू.आ.१२०७-१२०८)
सूत्र
मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
२ मनुष्य - स्तोक - ३ नारकी - असं.गुणे गुणकार = सूच्यंगु./असं ४ देव - असं.गुणे - ५ सिद्ध - अनन्तगुणे गुणकार = भव्य/अनन्त ६ तिर्यञ्च - अनन्तगुणे - - ८ गति की अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा
(ष.खं.७/२,११/सू.८-१५)
सूत्र
मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
८ मनुष्यणी - स्तोक - ९ मनुष्य - असं.गुणे गुणकार = ज.श्रे./असं. १० नारकी - असं.गुणे गुणकार = ज.श्रे./असं. ११ देव - सं.गुणे - १२ देवी - ३२ गुणी - १३ सिद्ध - अनन्तगुणे - १५ तिर्यञ्च - अनन्तगुणे - - नरक गति
- नरक गति की सामान्य प्ररूपणा
(मू.आ.१२०९)
सूत्र
मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
- सप्तम पृ. - स्तोक असंख्यात बहुभाग क्रम से पहिली से सप्त पृथिवी तक हानि समझना (ध.३/पृ.२०७ ) - ६ठीं पृ. - असं.गुणे - - ५वीं पृ. - असं.गुणे - - ४थी पृ. - असं.गुणे - - ३री पृ. - असं.गुणे - - २री पृ. - असं.गुणे - - १ली पृ. - असं.गुणे - - नरक गति की ओघ व आदेश प्ररूपणा
(ष.खं.५/१,८/सू.२७-४०)
सूत्र
मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
२७ नारकी सामान्य २ स्तोक - २८ - ३ सं.गुणे अधिक उपक्रमण काल २९ - ४ असं.गुणे गुणकार = आ./असं. ३० - १ असं.गुणे गुणकार = अंगुल/असं.\ज.प्र. ३१ सम्यक्त्व उप. स्तोक - ३२ - क्षा असं.गुणे गुणकार = पल्य/असं. अधिक संचय काल ३३ - वे. असं.गुणे गुणकार = आ./असं. ३४ प्रथम पृ. १-४ - नारकी सामान्यवत् ३५ २-७ पृ. २ स्तोक पृथक् पृथक् ३६ - ३ सं.गुणे - ३७ - ४ असं.गुणे गुणकार = आ./असं. ३८ - १ असं.गुणे क्रमेण २ ज.श्रे=१\२४ गुणकार = अंगु./असं.\ज.प्र.३,४,५,६,७, १\२०,१\१६,१\१२,१\९,१\४ ३९ सम्यक्त्व उप. स्तोक - ४० - वे. असं.गुणे गुणकार = पल्य/असं.Xआ./असं. - क्षा - क्षायिक का अभाव
- नरक गति की सामान्य प्ररूपणा
- तिर्यंच गति
- तिर्यंच गति की सामान्य प्ररूपणा
(ष.खं.५/१०८/सू.४१-५०)
नोट - दे. इन्द्रिय व काय मार्गणा
- तिर्यंच गति की ओघ व आदेश प्ररूपणा
(ष.खं.५/१,८/सू.४१-५०)
तिर्यंच सा.,पंचे.ति.सा.,पंचे.प.,योनिमति
सूत्र
मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
४१ सामान्य १ स्तोक दुर्लभता ४२ - २ असं.गुणे गुणकार = आ./अंस ४३ - ३ सं.गुणे - ४४ - ४ असं.गुणे गुणकार = आ./अंस ४५ - १ अनन्तगुणे - ४६ असंयतो में उप. स्तोक - ४७ सम्यक्त्व क्षा असं.गुणे गुणकार = आ./अंस ४८ - वे. असं.गुणे भोगभूमि में संचय ४९ संयतासंयतो में उप. स्तोक - ५० सम्यक्त्व वे. असं.गुणे गुणकार = आ./अंस - क्षा - अभाव
- तिर्यंच गति की सामान्य प्ररूपणा
- मनुष्य गति
- मनुष्य गति की सामान्य प्ररूपणा
(ति.प.४/२९३१-३३) (मू.आ.१२१२-१२१५) (ध.३/१,२,१४/९९/२)
सूत्र
मार्गणा
गुणस्थान
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
- अन्तर्द्वीपज प. - स्तोक - - उत्तम भोगभूमि प. - सं.गुणे देवकुरू व उत्तरकुरू - मध्य भोगभूमि प. - सं.गुणे हरि व रम्यक - जघन्य भोगभूमि प. - सं.गुणे हैमवत व हैरण्यवत - अनवस्थित कर्मभू. प. - सं.गुणे भरत व ऐरावत - अवस्थित कर्मभू. प. - सं.गुणे विदेह क्षेत्र - लब्ध्यपर्याप्त - असं.गुणे - - सर्व मनुष्य सामान्य - विशेषाधिक पर्याप्त+अपर्याप्त
- मनुष्य गति की सामान्य प्ररूपणा
- पाँच गति की अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा
संकेत
अर्थ
अंगु. अंगुल अंत. अंतर्मुहूर्त अप. अपर्याप्त अप्र. अप्रतिष्ठित असं. असंख्यात आ. आवली, आहारक शरीर उ. उत्कृष्ट उप. उपशम सम्यक्त्व या उपशमश्रेणी उपपाद योग स्थान एका. एकान्तानुवृद्धि योगस्थान औ. औदारिक शरीर का. कार्मण शरीर क्षप. क्षपक श्रेणी क्षा. क्षायिक सम्यक्त्व गुण. गुणकार या गुणस्थान ज. जघन्य ज.प्र. जगप्रतर ज.श्रे. जगश्रेणी तै. तैजस शरीर नि.अप. निवृत्त्यपर्याप्त नि.प. निर्वृत्ति पर्याप्त पंचे. पंचेन्द्रिय प. पर्याप्त परि. परिणाम योग स्थान पृ. पृथिवी प्रति. प्रतिष्ठित बा. बादर ल.अप. लब्धयपर्याप्त वन. वनस्पति वे. वेदक सम्यक्त्व वै. वैक्रियिक शरीर सं. संख्यात सम्मू. सम्मूर्च्छन सा. सामान्य सू. सूक्ष्म नं
द्रव्य
अल्पबहुत्व
गुणकार
१ वर्तमान काल स्तोक - २ अभव्य राशि अनन्तगुणी ज.युक्तानन्त ३ सिद्ध काल अनन्तगुणी अनन्तगुणी ४ सिद्ध जीव असं.गुणे शत पृथक्त्व ५ असिद्धकाल असं.गुणे सं. आवली ६ अतीत काल विशेषाधिक सिद्धकाल ७ भव्य मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे - ८ भव्य सामान्य विशेषाधिक सम्यग्दृष्टि ९ मिथ्यादृष्टि विशेषाधिक अभव्य १० संसारी जीव विशेषाधिक भव्य ११ सम्पूर्ण जीव विशेषाधिक सिद्ध १२ पुद्गल द्रव्य अनन्तगुणे - १३ अनागत काल अनन्तगुणा पुद्गलXअनन्त १४ सम्पूर्ण काल विशेषाधिक सर्वयोग १५ अलोकाकाश अनन्तगुणा कालXअनन्त १६ सम्पूर्ण आकाश विशेषाधिक लोक - सारणी में प्रयुक्त संकेतों के अर्थ
- सिद्धों की अनेक अपेक्षाओं से अल्पबहुत्व प्ररूपणा