GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 130 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावत्ति होदि शुभ परिणाम पुण्य, अशुभ पाप-ऐसा है । इस रूप किसका परिणाम है ? जीवस्स जीव का परिणाम है । दोण्हं दोनों से, जीव के पूर्वोक्त शुभाशुभ परिणामों के निमित्त से भावो भाव, ज्ञानावरणादि पर्याय है । वे किस विशेषता-वाली हैं ? पोग्गलमेत्तो वे पुद्गल-मात्र, कर्म-वर्गणा के योग्य पुद्गल पिण्ड-रूप हैं । कम्मत्तणं पुत्तो वे कर्मत्व, द्रव्य-कर्म पर्याय को प्राप्त हैं ।
वह इसप्रकार -- यद्यपि शुद्ध निश्चय से शुभाशुभ परिणाम उपादान कारण-भूत जीव से उत्पन्न हैं; तथापि अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से क्योंकि नवीन द्रव्य पुण्य-पाप दोनों के कारणभूत हैं, उस कारण भाव पुण्य-पाप पदार्थ कहे गए हैं । तथा साता-वेदनीय, असाता-वेदनीय आदि द्रव्य प्रकृति-रूप पुद्गल पिण्ड यद्यपि निश्चय से कर्म-वर्गणा योग्य / पुद्गल पिण्ड से उत्पन्न हैं; तथापि अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से जीव-रूप शुभाशुभ परिणाम से उत्पन्न हैं; अत: द्रव्य पुण्य-पाप पदार्थ कहे गए हैं, ऐसा सूत्रार्थ है ॥१४०॥
इसप्रकार शुद्ध-बुद्ध एक-स्वभावी शुद्धात्मा से भिन्न, हेय-रूप द्रव्य-भाव पुण्य-पाप दोनों के व्याख्यान रूप एक गाथा द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ।