अग्नि
From जैनकोष
(1) यह तीन प्रकार की होती है― गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिण । ये तीनों अग्नियाँ अग्निकुमार देवों के मुकुट से उत्पन्न होती हैं । तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवली के अन्तिम महोत्सव में पूजा का अंग होकर पवित्र हो जाती हैं । इनकी पृथक्-पृथक् कुण्डों में स्थापना की जाती है । गार्हपत्याग्नि नैवेद्य के पकाने में, आह्वनीय धूप खेने में और दक्षिणाग्नि दीप जलाने में विनियोजित होती है । ये अग्नियां संस्कार विहीन पुरुषों को देय नहीं होती । महापुराण 40.82-88
(2) क्रोधाग्नि में क्षमा की, कामाग्नि में वैराग्य की और उदराग्नि में अनशन की आहुति दी जाती है । ऋषि, यति, मुनि, अनगार ऐसी आहुतियाँ देकर आत्मयज्ञ करते हुए मोक्ष प्राप्त करते हैं । महापुराण 67.202-203
(3) शरीर में भी तीन प्रकार की अग्नि होती है― ज्ञानाग्नि, दर्शनाग्नि और जठराग्नि । पद्मपुराण 11.248