भावपाहुड गाथा 7
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि द्रव्यलिंग आदि तूने बहुत धारण किये, परन्तु उससे कुछ भी सिद्धि नहीं हुई -
भावरहिएण सपुरिस अणाइकालं अणंतसंसारे ।
गहिउज्झियाइं बहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाइं ।।७।।
भावरहितेन सत्पुरुष! अनादिकालं अनंतसंसारे ।
गृहीतोज्झितानि बहुश: बाह्यनिर्ग्रंथरूपाणि ।।७।।
भाव बिन द्रवलिंग अगणित धरे काल अनादि से ।
पर आजतक हे आत्मन् ! सुख रंच भी पाया नहीं ।।७।।
अर्थ - हे सत्पुरुष ! अनादिकाल से लगाकर इस अनन्त संसार में तूने भावरहित निर्ग्रन्थरूप बहुत बार ग्रहण किये और छोड़े ।
भावार्थ - भाव जो निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के बिना बाह्य निर्ग्रन्थरूप द्रव्यलिंग संसार में अनन्तकाल से लगाकर बहुत बार धारण किये और छोड़े तो भी कुछ सिद्धि न हुई । चारों गतियों में भ्रण ही करता रहा ।।७।।